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अनुकर्म

गगगग
गगगगग गगग
(Guru Bhakti Yog) गगगग
श ीस वामी िशव ा नन दसरसवती
गगगगगगग
शी सवामी सिचचदानंद
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गगगगगगगगगगगगगगगग गगगगगगगगगगग गगगगगगगग
गगग गगगगगग गगगग गगगग गगगगगगगगगगगगगगगगगग
'हे देवी ! कल्पपयर्न्त के, करोड़ों जन्मों के यज्ञ, वर्त, तप और शास्तर्ोक्त
िकर्याएँ... येसब गुरदू ेवकेसंतोषमातर्सेसफलहोजातेहैं।'
(भगवानशं कर)
गगगगगगगगगग गगगगग गगगगगगग गगगगगगगगगगग
गगगगगगगगगगग गगगगगगगगग गगगगगगग गगगगगगगगगग
'सश ित् मान
ष्य और मत्सर से रिहत, अपने कायर् में दक्ष, ममता रिहत, गुरू मेद ंढ
ृ ़
पीितवाला, िनश् चलिचत्त, परमाथर का िजजासु, ईष्यार् से रिहत और सत्यवादी होता है।'
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गगगगगगग
िनवेदन
आमुख
गुरभू िक्तयोगकी महत्ता
प.पू. संत शर्ी आसाराम जी बापू एक अदभुत िवभूित
गुरभ ू िक्तयोग
गुरू और िष् श य
षषष
गुरभ ू िक्तकािवकास
गुरभ ू िक्तकी िक्श षष
षषषा
गुरू की महत्ता
गुरभ ू िक्तका अभ्यास
साधक के सच्चे पथपर्दर्शक
गुरभू िक्तकािववरण
गुरभ ू िक्तकी नींव
गुरभ ू िक्तका संिवधान
गुरू औरदीक्षा
मंतर्दीक्षा के िनयम
जप क े िन य म
मनुष्य के चार िवभाग
गुरूकप ृ ािहकेवल.....

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गगगगगग
गुरू की आवशय ् कता, गुरू केपर्ित िष्य
श क ी भिक्तकैसीहोनीचािहएएवंगुरू केमागर्दर्शन केद्वारासाधक िष्
श य
षषष
िकस पर्कार आत्म-साक्षात्कार कर सकता है, इस िव षय मे पूज य श ीसवामी िशव ा नन दजीमहाराजने अपनी
कई पुस्तकों में िलखा है। शर्ी गुरूदेव के अगर्गण्य िष् शयए वं उनके िनजी रहस्यमंतर्ी
शी सवामी सिचचदानंदजी ने सोचा िक सवामी जी महाराज की पुसतको मे से गुर एवं गुरभिकत के िवषय मे जो जो िलखा
गयाहैवहसब संकिलतकरकेअलगपुस्तककेरू प मेप ं र्काश ितकरनाअत्यंतआवशय ् कहै।अतःउन्होंने यह
'गुरभ
ू िक्तयोग' पुसतक का समपादन िकया।
आध्याित्मक मागर् में िवचरने वाले साधकों के िलए यह पुस्तक बहुत ही उपयोगी
है, इतना ही नही, ए कआ शीवा दके समान है ।
सदगुरूदेव के कृपा-पसादरप यह पुसतक आपको अमरतव, परम सुख और शािनत पदान करे यही
अभ्यथर्ना......
अनुकर्म
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गगगग
गगगगगग गगगगगगगग
कमर् और कत्तार्, पदाथर और वयिकत के समबनध से जान होता है। वह एक पिकया है, चेतना नही है। बाह
पदाथर और आनतिरक िसथित की पितिकया के दारा ही सब पिकया पकट होती है। मनुषय मे जान का उदभव यह ऐसी ही
पितिकया के दारा घिटत एक रहसयमय पिकया है। मूलतः जान सावरितक है और उसके िलए कोई पिकया आवशयक नही
है। परन्तु ज्ञान का उदय माने भावातीत चेतना नहीं अिपतु सम्बिन्धत व्यिक्त में ज्ञान
का उदय। सवोर्च्च ज्ञान को स्वरूपज्ञान...... अपने सत्य अिस्तत्व के बोध िवषयक ज्ञान
कहा जाता है। जीव में इस स्वरूपज्ञान का उदय मन की वृित्तयों के द्वारा अिभव्यिक्त की
सापेक्ष पर्िकर्या से होता है। इस पर्कार उदय की पर्िकर्या के दौरान ज्ञान वृित्तज्ञान
के रूप में होता और वृित्तज्ञान िनशि ्चत रूप से चेतना की देश एवं काल से बद्ध अवस्था
है।
मानसशास्तर् िजसे ज्ञान कहता है वह वृित्तज्ञान है। उसकी पर्बलता, व्यापकता
और गहनता अलग-अलग हो सकती है। वृित्तज्ञान बाह्य कमर् और कत्तार्, पदाथर और वयिकत के
सम्बन्ध के िसवाय उत्पन्न नहीं हो सकता। इस िवश् वमें कोई भी घटना दो घटना या
िस्थितयों के संयोग से ही घिटत हो सकती है और तभी वृित्तज्ञान उत्पन्न हो सकता है।
आध्याित्मक ज्ञान के कर्मशः आिवष्कार के िलए आध्याित्मक मागर् का साधक कत्तार् या
व्यिक्त के रूप में माना जा सकता है। अब दूसरी वस्तु या व्यिक्त कमर् के रूप में आवश् यक
है।
जब ऐिचछ क अनु श ासन और एकाग त ा क े द ा र ा अपन े मन की िन मर ल त ा बढ त ी ह ै तब
भावातीत चेतना के पितिबमब के रप मे जान का आिवषकार होता है। जान के आिवषकार की माता फकर मन की िनमरलता के
फकर् के कारण होता है। िकसी भी पर्कार के ज्ञान के उदभव के िलए बाह्य साधन, कमर् या
िकर्या आवश् यकहै। अतः साधक में ज्ञान का आिवभार्व करने के िलए गुरू की आवश् यकता
होती है। परस्पर पर्भािवत करने की सावर्ितर्क पर्िकर्या के िलए एक दूसरे के पूरक दो
भाग के रप मे गुर-िशषय है। िशषय मे जान का उदय िशषय की पातता और गुर की चेतनाशिकत पर अवलिमबत है। िशषय
की मानिसक िस्थित अगर गुरू की चेतना के आगमन के अनुरूप पयार्प्त मातर्ा में तैयार
नहीं होती तो ज्ञान का आदान-पदान नही हो सकता। इस बहाणड मे कोई भी घटना घिटत होने के िलए यह
पूवरशतर है। जब तक सावरितक पिकया के एक दूसरे के पूरक ऐसे दो भाग या दो अवसथाएँ इकटी नही होती तब तक कही
भी, कोई भी घटना घिटत नहीं हो सकती।
'आत्म-िनरीक्षण के द्वारा ज्ञान का उदय स्वतः हो सकता है और इसिलए बाह्य गुरू
की िबल्कुल आवश् यकतानहीं है.....' यहमतसवर्स्वीकृतनहींबनसकता। इितहासबताताहैिक ज्ञानकी हर
एक शाखा मे िशकण की पिकया के िलए िशकक की सघन पवृित अतयंत आवशयक है। यिद िकसी भी वयिकत मे, िकसी
भी सहायता के िसवाय, सहज रीित से ज्ञान का उदय संभव होता तो स्कूल, कॉलेज एवं
यूिनविसर्िटंयोकं ी कोई आवशय् कतानहींरहती। जोलोग'िशकक की सहायता के िबना ही, स्वतंतर् रीित से कोई
व्यिक्त कुशल बन सकता है......' ऐसे गलत मागर पर ले जाने वाले मत का पचार पसार करते है वे लोग सवयं तो
िकसी िक् श षकक े द्वारा ही ििक् शहषत ोते हैं।, ज हाँा न क े उदय क े िल ए िश ष य या
िवद्याथीर् के पर्यास का महत्त्व कम नहीं है। िक् श षकक े उपदेश िजतना ही उसका भी
महत्त्व है।
इस बहाणड मे कता एवं कमर सतय के एक ही सतर पर िसथत है। कयोिक इसके िसवाय उनके बीच पारसपिरक
आदान-पदान संभव नही हो सकता। अलग सतर पर िसथत चेतना शिकत के बीच पितिकया नही हो सकती। हालािक
िशषय िजस सतर पर होता है उस सतर को माधयम बनाकर गुर अपनी उचच चेतना को िशषय पर केिनदत कर सकते है।
इससे िशषय के मन का योगय रपातर हो सकता है। गुर की चेतना के इस कायर को शिकत संचार कहा जाता है। इस
पिकया मे गुर की शिकत िशषय मे पिवष होती है। ऐसे उदाहरण भी िमल जाते है िक िशषय के बदले मे गुर ने सवयं ही
साधना की हो और उच्च चेतना की पर्त्यक्ष सहायता के द्वारा िष् शयक े मन की शुिद्ध करके
उसका ऊध्वीर्करणिकयाहो।
दोषदृिष्टवाले लोग कहते हैं.... "अन्तरात्मा की सलाह लेकर सत्य-असत्य, अच्छा-
बुराहमपहचानसकतेहैअतःबाह्यगुरू की आवशय ् कतानहींहै।"
िकन्तु यह बात ध्यान में रहे िक जब तक साधक शुिच और इच्छा-वासनारिहतता के
िशखर पर नही पहुँच जाता तब तक योगय िनणरय करने मे अनतरातमा उसे सहायरप नही बन सकती।
पाशवी अनतरातमा िकसी वयिकत को आधयाितमक जान नही दे सकती। मनुषय के िववेक और बौिदक मत है।
पायः सभी मनुषयो की बुिद सुषुपत इचछाओं तथा वासनाओं का एक साधन बन जाती है। मनुषय की अनतरातमा उसके
अिभगम, झुकाव, रूिच, िशका, आदत, वृित्तयाँ और अपने समाज के अनुरूप बात ही कहती है।
अफर्ीका के जंगली आिदवासी, सुश ििक्षतयुरोिपयन और सदाचार की नींव पर सुिवकिसत बने
हुए योगी की अन्तरात्मा की आवाजें िभन्न-िभन होती है। बचपन से अलग-अलग ढंग से बड़े हुए
दस अलग-अलग व्यिक्तयों की दस अलग-अलग अन्तरात्मा होती हैं। िवरोचन ने स्वयं ही
मनन िकया, अपनी अन्तरात्मा का मागर्दर्शन िलया एवं मैं कौन हू ? ँइस समसया का आतमिनरीकण
िकया और िनश् चयिकया िक यह देह ही मूलभूत तत्त्व है।
यादरखनाचािहएिक मनुष्यकी अन्तरात्मापाशवीवृित्तयो , ंभावनाओं तथा पाकृत वासनाओं की जाल मे फँसी हुई
हैं। मनुष्य के मन की वृित्त िवषय और अहं की ओर ही जायगी, आध्याित्मक मागर् में नहीं
मुड़ेगी। आत्म-साक्षात्कार की सवोर्च्च भूिमका में िस्थत गुरू में िष् शयअ गर अपने
व्यिक्तत्व का सम्पूणर् समपर्ण कर दे तो साधना-मागर् के ऐसे भयस्थानों से बच सकता है।
ऐसा साधक संसार से परे िदवय पकाश को पापत कर सकता है। मनुषय की बुिद एवं अनतरातमा को िजस पकार िनिमरत
िकया जाता है, अभ्यस्त िकया जाता है उसी पर्कार वे कायर् करते हैं। सामान्यतः वे
दृश् यमानमायाजगत तथा िवषय वस्तु की आकांक्षा एवं अहं की आकांक्षा पूणर् करने के
िलएकायर्रतरहतेहैं।सजगपर्यत्नकेिबनाआध्याित्मकज्ञानकेउच्चसत्यको पर्ाप्तकरनेकेिलएकायर्रतनहींहोते।
'गुरू की आवशय ् कतानहींहैऔरहरएकको अपनीिववेक-बुिद्ध तथाअन्तरात्माका अनुसरणकरनाचािहए.....'
ऐसे मत का पचार पसार करने वाले भूल जाते है िक ऐसे मत का पचार करके वे सवयं गुर की तरह पसतुत हो रहे है।
'िकसी की िक् श षकक ा आवश् यकतानहीं है ' ऐसा िसखाने वालो को उनके िशषय मानपान और भिकतभाव अिपरत
करते हैं। भगवान बुद्ध ने अपने िष् शयकों ो बोध िदया िक 'तुम स्वयं ही तािकर्क िवश् लेषण
करके मेरे िसद्धान्त की योग्यता-अयोग्यता और सत्यता की जाँच करो। बुद्ध कहते हैं
इसिलए िसदानत को सतय मानकर सवीकार कर लो ऐसा नही।' िकसी भी भगवान की पूजा करना, ऐसा उनहोने
िसखाया लेिकन इसका पिरणाम यह आया िक महान गुरू एवं भगवान के रूप में उनकी पूजा शुरू
हो गई। इस पर्कार स्वयं ही िचन्तन करना चािहए और गुरू की आवश् यकतानहीं है' इस मत की
िशका से सवाभािवक ही सीखनेवाले के िलए गुर की आवशयकता का इनकार नही हो सकता। मनुषय के अनुभव कता कमर
के परस्पर सम्बन्ध की पर्िकर्या पर आधािरत है।
पिशम मे कुछ लोग मानते है िक गुर पर िशषय का अवलंबन एक मानिसक बनधन है। मानस-िचिकतसा के
मुतािबक ऐसे बन्धन से मुक्त होना जरूरी है। यहाँ स्पष्टता करना अत्यन्त आवश् यकहै िक
मानस-िचिकतसा वाले मानिसक परावलमबन से गुर-िशषय का समबनध िबलकुल िभन है। गुर की उचच चेतना के आशय
में िष् शयअ पना व्यिक्तत्व समिपर्त करता है। गुरू की उच्च चेतना िष् शयक ी चेतना को
आवृत्त कर लेती और उसका ऊध्वीर्करण िष् शयक ा गुरू पर अवलम्बन केवल पर्ारंभ में ही
होता है। बाद में तो वह परबर्ह्म की शरणागित बन जाती है। गुरू सनातन शिक्त के पर्तीक
बनतेहैं।िकसी ददीर्केमानस-िचिकतसक पित परावलमबन का समबनध तोडना अिनवायर है, क्योंिक यह सम्बन्ध
ददीर् का मानिसक तनाव कम करने के िलए अस्थायी सम्बन्ध है। जब िचिकत्सा पूरी हो जाती
है तब यह परावलम्बन तोड़ िदया जाता है और ददीर् पूवर् की भाँित अलग और स्वतंतर् हो
जाता ह ै । िक न तु गुर-िशषय के समबनध मे, पारंभ मे या अनत मे, कभी भी अिनच्छनीय परावलम्बन नहीं
होता। यह तो केवल पराशिक्त पर ही अवलम्बन होता है। गुरू को देह स्वरूप में यह एक
व्यिक्त के स्वरूप में नहीं माना जाता है। गुरू पर अवलम्बन िष् शयक े पक्ष में देखा जाय
तो आत्मशु िद्धकी िनरंतर पर्िकर्या है िजसके द्वारा िष् शयई ् वरीय
शप रम तत्त्व का अंितम
लक्ष्यपर्ाप्तकर सकताहै।
कुछ लोग उदाहरण देते हैं िक पर्ाचीन समय में भी याज्ञवल्क्य ने अपने गुरू
वैशंपायन से अलग होकर, िकसी भी अन्य गुरू की सहाय के िबना ही, स्वतंतर् रीित से
आध्याित्मक िवकास िकया था। परन्तु याज्ञवाल्क्य गुरू से अलग हो गये इसका अथर् यह
नहीं है िक वे गुरू के वफादार नहीं थे। गुरू ने कर्ोिधत होकर कहा था िक उन्होंने दी हुई
िवद्या लौटाकर आशर्म छोड़कर चले जाओ। फलतः याज्ञवल्क्य में मानव-गुरू केपर्ितअशर्द्धा
का पर्ादुभार्व हुआ लेिकन उन्होंने गुरू की खोज करना छोड़ नहीं िदया। उन्होंने गुरू की
आवश् यकताका अस्वीकार नहीं िकया है और आध्याित्मक मागर् में स्वतंतर् रीित से आगे
बढ़ाजासकताहैऐसा भीनहींमानाहै।उन्होंने उच्चतरगुरू सूयर्नारायणका आशर्यिलया। जबउन्होंने िफरसेज्ञान
पापत िकया तब सूयर की कृपा पापत करने के िलए याजवलकय के दृढ संकलप बल एवं िहममत पर पसन होकर पुराने गुर ने
अपने अन्य िष् शयकों ो ज्ञान देने के िलए पर्ाथर्ना की तब याज्ञवल्क्य ने अन्य िष् श योंष
षषषष
को भी ज्ञान िदया था।
पकृित के िविभन सवरपो के दारा अिभवयकत ईशर ही सवोचच गुर है। हमारे इदरिगदर जो िवश है वह हमारे जीवन
में बोध देने वाला िक् श षहक ै। हम अगर पर्कृित की लीला के पर्ित सजग रहें तो हमारे
समक्ष होने वाली हरएक घटना में गहन रहस्य एवं बोधपाठ िमल जाता है। यह िवश् वईश् वर
का साकार स्वरूप है। उसकी लीला गूढ़ और रहस्यमय है। यह लीला आन्तर एवं बाह्य,
व्यिक्तलक्षी एवं वस्तुलक्षी, हर पर्कार के जीवन के अनुभवों को समािवष्ट कर लेती है।
उसको जाननेसे , समझने से हमारे अनुभव, भावना एवं समझ का योगय िवकास होता है। परबह के पित हमारे
िवकास के िलए पिरवतर्न संभव बनता है।
अगर हम पर्कृित की उत्कर्ािन्त की पर्िकर्या के साथ व्यिक्तगत िवकास को नहीं
जोड े ग े तो क े व ल या ित क िव कास होग ा। उसम े व यिकत अिन व ायर त ः घसीटा जाता ह ै ।
उस परिकसी व्यिक्तका िनयंतर्णनहींहोता। िकन्तुिवकास जबपरमचेतनाकेअंशस्वरूप होताहैऔरव्यिक्तकी
अपनी चेतना में घुलिमल जाता है तब योग की पर्िकर्या घिटत होती है। व्यिक्त की चेतना
अपने अिस्तत्व को आत्मा के साथ पहचानकर, अपने आत्मा में वैशि ्वक उत्कर्ािन्त का
अनुभव करे यह पर्िकर्या योग है। अन्य दृिष्ट से देखें तो, बर्ह्माण्डकी लीलाका लघु स्वरूप में
अपनी आत्मा में अनुभव करना योग है। जब यह िस्थित पर्ाप्त होती है तब व्यिक्त
ईश् वरेच्छाको सम्पूणर्तः शरण हो जाता है। अथवा पराशिक्त के िनयम उसको इतने तादृश
बनजातेहैिंक पर्कृितकी घटनाओंएवंमनुष्यकी इच्छाओंकेबीचसंघषोर्
का
ं पूणर्तःलोपहोजाताहै।उस व्यिक्तकी
अिभलाषाएँ दैवी इच्छा या पर्कृित की घटनाओं से अिभन्न बन जाती हैं।
गुरू की यहसवोर्च्चिवभावनाहैऔरहरसाधक को यहपर्ाप्तकरनाहै।व्यिक्तगतगुरू का स्वीकारकरनायानी
साधक की परबर्ह्म में िवलीन होने की तैयारी और उस िदशा में एक सोपान। गुरू की
िवभावना के िवकास के िलए तथा व्यिक्त की गुरू के पर्ित शरणागित िविभन्न सोपान हैं। िफर
भी साधना के िकसी भी सोपान पर गुर की आवशयकता का इनकार नही हो सकता, क्योंिक आत्म-साक्षात्कार
के िलए तड़पते हुए साधक को होने वाली परबर्ह्म की अनुभूित का नाम गुरू है।
अनुकर्म
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
गगगगगगगगगगगग गग गगगगगग
गगगगगगगगग गगगगगग गगगगगगगगगग
िज स प क ा र शीघ ईश र द शर न क े िल ए किल यु ग -साधना के रूप कीतर्न-साधना है उसी
पकार इस संशय, नािस्तकता, अिभमान और अहंकार के युग में योग की एक नई पद्धित यहाँ
पसतुत है....गुरभ
ू िक्तयोग। यहयोगअदभुतहै।इसकी शिक्तअसीमहै।इसकापर्भावअमोघहै।इसकी महत्ता
अवणर्नीय है। इस युग के िलए उपयोगी इस िवशेष योग-पदित के दारा आप इस हाड-चाम के पािथरव देह
में रहते हुए ईश् वरके पर्त्यक्ष दर्शन कर सकते हैं। इसी जीवन में आप उन्हें आपके
साथ िवचरण करते हुए िनहार सकते हैं।
साधना का बड़ा दुश् मनरजोगुणी अहंकार है। अिभमान को िनमूर्ल करने के िलए एवं
िवषमय अहंकार को िपघलाने के िलए गुरूभिक्तयोग उत्तम और सबसे अिधक सचोट
साधनमागर् है। िजस पर्कार िकसी रोग के िवषाणु िनमूर्ल करने के िलए कोई िवशेष पर्कार
की जन्तुनाशक दवाई आवश् यकहै उसी पर्कार अिवद्या और अहंकार के नाश के िलए
गुरभ
ू िक्तयोगसबसेअिधकपर्भावशाली, अमूल्य और िनशि ्चत पर्कार का उपचार है। वह सबसे अिधक
पभावशाली 'मायानाशक' और 'अहंकार नाशक' है। गुरूभिक्तयोग की भावना में जो सदभागी िष् श
षषष य
िनष्ठापूवर्क सराबोर होते हैं उन पर माया और अहंकार के रोग की कोई कसर नहीं होती।
इस योग का आशय लेने वाला वयिकत सचमुछ भागयशाली है। कयोिक वह योग के अनय पकारो मे भी सवोचच सफलता
हािसल करेगा। उसको कमर्, भिकत, धयान और जानयोग के फल पूणरतः पापत होगे।
इस योग मे संलगन होने के िलए तीन गुणो की आवशयकता हैः िनषा, शदा और आजापालन। पूणरता के धयेय मे
संिनष्ठ रहो। संशयी और ढीले ढाले मत रहना। अपने स्वीकृत गुरू में सम्पूणर् शर्द्धा रखो।
आपके मन में संशय की छाया को भी फटकने मत देना। एक बार गुरू में सम्पूणर् शर्द्धा
दृढ़ कर लेने के बाद आप समझने लगेंगे िक उनका उपदेश आपकी शर्ेष्ठ भलाई के
िलएहीहोताहै।अतःउनकेशब्दका अन्तःकरणपूवर्कपालनकरो। उनकेउपदेशका अक्षरशःअनुसरणकरो। आप
हृदयपूवर्क इस पर्कार करेंगे तो मैं िवश् वासिदलाता हूँ िक आप पूणर्ता को पर्ाप्त करेंगे
ही। मैं पुनः दृढ़तापूवर्क िवश् वासिदलाता हूँ।
अनुकर्म
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
ग.गग. गगग गगगग गगगगगगगग गगगगग
गग गगगगग गगगगगग
धयान और योग के अनुभव कैसे पापत िकये जाएँ ? पूजा पाठ, जप -तप ध्यान करने पर भी जीवन में
व्याप्त अतृिप्त का कैसे िनवारण करें ? ईश् वरमें कैसे मन लगायें ? अपने अंदर ही
िनिहत आत्मानंद के खजाने को कैसे खोलें ? व्यावहािरक जीवन में परेशान करने
वाले भय, िचनता, िनराशा, हताशा, आिद को जीवन से दूर कैसे भगायें ? िनशि ्चंतता,
िनभर्यता, िनरन्तर पर्सन्नता पर्ाप्त करके जीवन को आनन्द से कैसे महकायें ? अपने
पाचीन शासतो मे विणरत आननद-स्वरूप ईश् वरके अिस्तत्व की झाँकी हम अपने हृदय में कैसे
पाये ? क्या आज भी यह सब सम्भव है ?
हाँ, सम्भव है, अवश् यमेव।मानव को िचंितत बनाने वाले इन पर्श् नोंका समाधान
साधना के िनशि ्चत पिरणामों के द्वारा कराके िपपासु साधकों के जीवन को ईश् वरािभमुख
करके उसे मधुरता पर्दान करने वाले ऋिष-महिषर् और संत-महापुरूष आज भी समाज में
वतर्मान है। 'गगगगगगगग। गगगगगगगगग' इस संत महापुरषो की सुगंिधत हारमाला मे पूजयपाद संत
शी आसारामजी बापू एक पूणर िवकिसत सुमधुर पुषप है।
अहमदाबाद शहर में, िकन्तु शहरी वातावरण से दूर साबरमित की मनमोहक पर्ाकृितक
गोदमेत ं ्विरतगितसेिवकिसतहुएउनकेपावनआशर्मकेअध्यात्मपोषकवातावरणमेआ ं जहजारोंसाधक जाकर
भिकतयोग, नादानुसंधानयोग, ज ा न य ो ग एवं कु ण डिल न ी योग की शिकत प ा त व ष ा का लाभ उठा -
उठाकरअपनेव्यिक्तगतपारमािथर्कजीवनको अिधकािधकउन्नतएवंआनन्दमयबनारहेहैं।िचत्तमेस ं मताका पर्साद
पाकर वे वयावहािरक जीवन-नौका को बड़े ही उत्साह से खे-खेकर िनहाल होते जा रहे हैं।
पाचीन ऋिष कुलो का समरण कराने वाले इस पावन आशम मे कुणडिलनी योग की सचची अनुभूित कराके आितमक
पेमसागर मे डुबकी लगवाकर, मानव समुदाय को ईश् वरीयआनन्द में सराबोर करके अगमिनगम के
औिलया, हजारों तप्त हृदयवाले संसारयाितर्यों के आशर्यदाता वट-वृक्षतुल्य, पेमपूणर हृदयवाले,
सहज सािन्नध्य और सत्संग मातर् से वेदान्त के अमृत-रस का स्वाद चखा रहे हैं।
संत शर्ी के नाम को सुनकर, उनकी पुस्तकेप ं ढ़करअनेकसज्जनउनकेदर्शन औरमुलाकातकेिलए
कुतूहलवश एक बार उनके आशर्म में आते है, िफर तो वे िनयिमत आने वाले साधक बनकर
योगऔरवेदान्तकेरिसकबनजातेहैं।वेअपनेजीवन-पवाह को अमृतमय आननद-िसन्धु की तरफ बहते हुए
देखकर हृदय में गदगिदत हो जाते हैं, आनन्द में सराबोर हो जाते हैं।
गग गगग गगगग
आशर्म में जाकर पूज्यशर्ी के दर्शन और आध्याित्मक तेज से उद्दीप्त नयनामृत
से िसक्त एक सुपर्िसद्ध लेखक, वक्ता, तंतर्ी सज्जन ने िलखा हैः
"कोई मुझसे पूछे की अहमदाबाद के आसपास कौन सच्चा योगी है ? मैं तुरन्त संत
शी आसारामजी बापू का नाम दूँगा। साबरतट िसथत एक भवय एवं िवशाल आशम मे िवराजमान इन िदवयातमा महापुरष का
दर्शन करना , वास्तव में जीवन की एक उपलिब्ध है। उनके िनकट में पहुँचना, िनशि ्चत ही
अहोभाग्य की सीमा पर पहुँचना है।
योिगयोंकी खोजमेमंैक
ं ाफीभटकाहूँ, पवरत और गुफाओं के चकर काटने मे कभी पीछे मुडकर देखा तक नही।
परनतु पभुतवशाली वयिकत के महाधनी ऐसे संत शी आसारामजी बापू से िमलते ही मेरे अनतर मे पतीित सी हो गई िक यहा तो
शुदतम सुवणर ही सुवणर है।
गगगगग गग गगगगगगग गग गगगग
संत शर्ी की आँखों में ऐसा िदव्य तेज जगमगाया करता है िक उनके अन्दर की
गहरीअतलिदव्यतामेड ंबू जानेकी कामनाकरनेवालाक्षणभरमेह ं ीउसमेड
ंबू जाताहै।मानो, उन आँखोंमेप ं र्ेम
और
पकाश का असीम सागर िहलौरे ले रहा है।
वे सरल भी इतने िक छोटे-छोटे बालको की तरह वयवहार करने लगे। उनमे जान भी ऐसा अदभुत िक
िवकट पहेली को पलभर में सुलझा कर रख दें। उनकी वाणी की बुनकार ऐसी िक सजगता के
तट पर सोनेवाले को क्षणभर में जगाकर ज्ञान-सागर की मस्ती में लीन कर दें।
गगगग गगगगगगगग गग गगगगगग
अन्यतर् कहीं देखी न गई हो ऐसी योगिसिद्ध मैंने अनेक बार उनमें देखी है।
अनेक दिरिदर्यों को उन्होंने सुख और समृिद्ध के सागर में सैर करने वाले बना िदये
हैं। उनके चुम्बकीय शिक्त-सम्पन्न पावन सािन्नध्य में असंख्य साधकों द्वारा स्वानुभूत
चमतकारो और िदवय अनुभवो का आलेखन करने लगूँ तो एक िवराट भागवत कथा तैयार हो जाय। आगत वयिकत के मन
को जान लेने की शिक्त तो उनमें इतनी तीवर्ता से सिकर्य रहती है मानो समस्त नभमण्डल
को वे अपने हाथों में लेकर देख रहे हों।
ऐसे परम िसद पुरष के सािनधय मे, उनकी पर्ेरकपावनअमृतवाणीमेस ं ेतुम्हारीजीवन-समस्याओं का
सांगोपांग हल तुम्हें अवश् यिमल जायगा।
साबरतट पर िस्थत चैतन्य लोक तुल्य संत शर्ी आसारामजी आशर्म में पर्िवष्ट
होते ही एक अदभुत शािन्त की अनुभूित होने लगती है। पर्त्येक रिववार और बुधवार को
दोपहर 11 बजेसेहररोजशाम 6 बजेसेएवंध्यानयोग ििवरों श क े दौरानआशर्ममेज ं ञानग
् ंगाउमड़तीरहतीहै।
आध्याित्मक अनुभूितयों के उपवन लहलहाते हैं। आशर्म का सम्पूणर् वातावरण मानो एक
चैतनय िवदुतेज से छलछलाता है। परम चैतनय मानो सवयं ही मूतर सवरप धारण करके पेम और पकाश का सागर लहराता
है। िवद्यािथर्यों के िलए आयोिजत योग ििवरों शम ें अनेक िवद्यािथर्यों के िलए
आयोिजत योग ििवरों शम ें अनेक िवद्यािथर्यों एवं अध्यापकों ने अपने जीवन -िवकास का
अनोखा पथ पा िलया है।
पूजय बापू का िवदुनमय वयिकततव, अन्तस्तल की गहराई में से उमड़ती हुई वाणी की गंगधारा
और आशम के समग वातावरण मे फैलती हुई िदवयता का आसवाद एक बार भी िजस िकसी को िमल जाता है वह कदािप
उसेभूल नहींसकता। जोअपनेउर केआँगनमेअ ं मृतगर्हणकरनेकेिलएतत्परहो, उसेअमृतका आस्वादअवशय ् िमल
जाता ह ै ।
बर्ह्मिनष्,ठयोगिसद्ध , माधुयर् के महािसन्धु समान संत शर्ी आसाराम जी बापू का सािन्नध्य
सेवन करने वाले का और अमृतवषार् को संगर्िहत करने वाले का अल्प पुरूषाथर् भी व्यथर्
नहीं जायगा ऐसा अनेकों का अनुभव बोल रहा है।
गगगगगगगगगग
िज स प क ा र िप ता या िप ता म ह की स े व ा करन े स े पु त या पौत खुश होता ह ै इसी
पकार गुर की सेवा करने से मंत पसन होता है। गुर, मंतर् एवं इष्टदेव में कोई भेद नहीं मानना। गुरू
ही ईश् वरहैं। उनको केवल मानव ही नहीं मानना। िजस स्थान में गुरू िनवास कर रहे हैं
वह स्थान कैलास हैं। िजस घर में वे रहते हैं वह काशी या वाराणसी है। उनके पावन
चरणो का पानी गंगाजी सवयं है। उनको पावन मुख से उचचािरत मंत रकणकता बहा सवयं ही है।
गुरू की मूितर्ध्यानका मूलहै।गुरू केचरणकमलपूजाका मूलहै।गुरू का वचनमोक्षका मूलहै।
गुरू तीथर्स्थानहैं।गुरू अिग्न हैं।गुरू सूयर्हैं।गुरू समस्तजगतहैं।समस्तिवशव ् केतीथर्धामगुरू के
चरणकमलो मे बस रहे है। बहा, िवष्ण,ु िशव, पावरती, इनद आिद सब देव और सब पिवत निदया शाशत काल से गुर की
देह में िस्थत हैं। केवल िव श ह ी गुरू हैं।
गुरू औरइष्टदेवमेक ं ोई भेदनहींहै।जोसाधनाएवंयोगकेिविभन्नपर्कारिसखातेहैवे िक् शषागुरू
ह ैं। सबमें
सवोर्च्च गुरू वे हैं िजनसे इष्टदेव का मंतर् शर्वण िकया जाता है और सीखा जाता है।
उनकेद्वाराहीिसिद्ध पर्ाप्तकी जासकतीहै।
अगर गुरू पर्सन्न हों तो भगवान पर्सन्न होते हैं। गुरू नाराज हों तो भगवान नाराज
होते हैं। गुरू इष्टदेवता के िपतामह हैं।
जो मन , वचन, कमर् से पिवतर् हैं, इिनदयो पर िजनका संयम है, िज नको शास त ो का ज ा न
है, जो सत यवर त ी एवं प श ा त ह ै , िज नको ईश र -साक्षात्कार हुआ है वे गुरू हैं।
बुरेचिरतर्वालाव्यिक्तगुरू नहींहोसकता। शिक्तशाली िष्यों श क ो कभी शिक्तशालीगुरओ ू ंकी कमीनहीं
रहती। िष् शयक ो िजतनी -िज तनी गुर म े श द ा होती ह ै उतन े फल की उस े प ा िपत होती ह ै ।
िकसी आदमी के पास यूिनविसर्टी की उपािधयाँ हों इससे वह गुरू की कसौटी करने की
योग्यतावालानहींबनजाता। गुरू केआध्याित्मकज्ञानकी कसौटीकरनायहिकसी भीमनुष्यकेिलएमूखर्ताएवं
उद्दण्डताकी पराकाष्ठाहै। ऐसा व्यिक्तदुन्यावीज्ञानकेिमथ्यािभमानसेअन्धबनाहुआहै।
अनुकर्म
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
गगगगगग 1
गगगगगगगगगगगग
गगगगगगगगगगगग गग गगग
गुरभ
ू िक्तयोगमानासदगुरू को सम्पूणर्
आत्मसमपर्णकरना।
गुरभू िक्तयोगकेआठमहत्त्वपूणर्
अंगइस पर्कारहै -ं(अ) गुरू भिक्तयोगकेअभ्यासकेिलएसच्चेहृदयकी
िस्थर महेच्छा। (ब) सदगुरू के िवचार, वाणी और कायोर्ं में सम्पूणर् शर्द्धा। (क) गुरू केनाम
का उच्चारण और गुरू को नमर्तापूवर्क साष्टांग पर्णाम। (ड) सम्पूणर् आज्ञाकािरता के साथ
गुरू केआदेशोंका पालन। (प) िबनाफलपर्ािप्कती अपेक्षस
ा दगुरू की सेवा।(फ) भिकतभावपूवरक हररोज सदगुर के
चरणकमलो की पूजा। (भ) सदगुरू के दैवी कायर् के िलए आत्म-समपर्ण.... तन, मन, धन समपरण।
(म) गुरू की कल्याणकारीकृपापर्ाप्तकरनेकेिलएएवंउनका पिवतर्उपदेशसुनकरउसका आचरणकरनेकेिलए
सदगुरू के पिवतर् चरणों का ध्यान।
गुरभू िक्तयोगयोगका एकस्वतंतर् पर्कारहै।
मुमुक्षु जब तक गुरूभिक्तयोग का अभ्यास नहीं करता। तब तक ईश् वरके साथ एकरूपता
होने के िलए आध्याित्मक मागर् में पर्वेश करना उसके िलए सम्भव नहीं है।
जो व यिकत गुरभिकत य ो ग की िफ लासफी समझता ह ै वही गुर को िब नशरत ी आ त म -समपर्ण
कर सकता है।
जीवन क े परम ध य े य अथ ा त ् आ त म -साक्षात्कार की पर्ािप्त गुरूभिक्तयोग के
अभ्यास द्वारा ही हो सकती है।
गुरभ ू िक्तका योगसच्चाएवंसुरिक्षतयोगहै , िज सका अ भ य ास करन े म े िकसी भी प क ा र का भय
नहीं है।
आज्ञाकारी बनकर गुरू के आदेशों का पालन करना, उनकेउपदेशोंको जीवनमेउ ं तारना, यही
गुरभू िक्तयोगका सारहै।
गगगगगगगगगगगग गग गगगग
मनुष्य को पदाथर् एवं पर्कृित के बन्धनों से मुिक्त िदलाना और गुरू को सम्पूणर्
आत्मसमपर्ण करके स्व के अबाध्य स्वतंतर् स्वभाव का भान कराना यह गुरूभिक्तयोग का
हेतु है।
जो व यिकत गुरभिकत य ो ग का अ भ य ास करता ह ै वह िब ना िकसी िव पित स े अहं भ ा व को
िनमूर्ल कर सकता है, संसार के मिलन जल को बहुत सरलता से पार कर जाता है और
अमरत्व एवं शाश् वतसुख पर्ाप्त करता है।
गुरभ ू िक्तयोगमनको शान्तऔरिनशच ् लबनानेवालाहै।
गुरभ ू िक्तयोगिदव्यसुख केद्वारखोलनेकी अमोघकुँजीहै।
गुरभ ू िक्तयोगकेद्वारासदगुरू की कल्याणकारीकृपापर्ाप्तकरनाजीवनका लक्ष्यहै।
गगगगगगगगगगगग गग गगगगगगगगग
नमर्तापूवर्क पूज्यशर्ी सदगुरू के पदारिवन्द के पास जाओ। सदगुरू के जीवनदायी
चरणो मे साषाग पणाम करो। सदगुर के चरणकमल की शरण मे जाओ। सदगुर के पावन चरणो की पूजा करो।
सदगुरू के पावन चरणों का ध्यान करो। सदगुरू के पावन चरणों में मूल्यवान अघ्यर् अपर्ण
करो। सदगुरू के यशःकारी चरणों की सेवा में जीवन अपर्ण करो। सदगुरू के दैवी चरणों की
धूिल बन जाओ। ऐसा गुरभकत हठयोगी, लययोगीऔरराजयोिगयोंसेज्यादासरलतापूवर्कएवंसलामतरीितसेसत्य
स्वरूप का साक्षात्कार करके धन्य हो जाता है।
सदगुरू के दैवी पावन चरणों में आत्मसमपर्ण करने वाले को िनशि ्चन्तता,
िनभर्यता और आनन्द सहजता से पर्ाप्त होता है। वह लाभािन्वत हो जाता है।
आपको गुरूभिक्तयोग के मागर् द्वारा सच्चे हृदय से, तत्परतापूवर्क पर्यास करना
चािहए।
गुरू केपर्ितभिक्तइस योगका सबसेमहत्त्वपूणर् अंगहै।
पिवत शासतो के िवशेषज बहिनष गुर के िवचार, वाणी और कायोर्ं में सम्पूणर् शर्द्धा
गुरभ ू िक्तयोगका सारहै।
गगगगगगगगगगगग गग गगगगगगग गग गगग गगग
इस युग मे आचरण िकया जा सके ऐसा, सबसे ऊँचा और सबसे सरल योग गुरूभिक्तयोग है।
गुरभ ू िक्तयोगकी िफलासफीमेस ं बसेबड़ीबातगुरू को परमेशव् रकेसाथ एकरूप माननाहै।
गुरभ ू िक्तयोगकी िफलासफीका व्यावहािरकस्वरूप यहहैिक गुरू को अपनेइष्टदेवतासेअिभन्नमानें।
गुरभ ू िक्तयोगऐसीिफलासफीनहींहैजोपतर् -व्यवहार या व्याख्यानों के द्वारा िसखाई जा सके।
इसमे तो िशषय को कई वषर तक गुर के पास रहकर िशसत एवं संयमपूणर जीवन िबताना चािहए, बर्ह्मचयर् का पालनकरना
चािहए एवं गहरा धयान करना चािहए।
गुरभ ू िक्तयोगसवोर्त्तम
िवज्ञानहै।
गगगगगगगगगगगग गग गग
गुरभू िक्तयोगअमरत्व, परम सुख, मुिक्त, सम्पूणर्ता, शाशत आननद और िचरंतन शािनत पदान करता है।
गुरभ ू िक्तयोगका अभ्याससांसािरकपदाथोर्केपर् ं ितिनःस्पृहताऔरवैराग्यपर्ेिरतकरताहैतथातृष्णाका छेदन
करता है एवं कैवल्य मोक्ष देता है।
गुरभ ू िक्तयोगका अभ्यासभावनाओंएवंतृष्णाओंपरिवजयपानेमें िष्य श क ो सहायरूप बनताहै , पलोभनो के
साथ टक्कर लेने में तथा मन को क्षुब्ध करने वाले तत्त्वों का नाश करने में सहाय
करता है। अन्धकार को पार करके पर्काश की ओर ले जाने वाली गुरूकृपा करने के िलए
िशषय को योगय बनाता है।
गुरभ ू िक्तयोगका अभ्यासआपकोभय, अज्ञान, िनराशा, संशय, रोग, िचनता आिद से मुकत होने के िलए
शिकतमान बनाता है और मोक, परम शािनत और शाशत आननद पदान करता है।
गगगगगगगगगगगग गग गगगगग
गुरभ ू िक्तयोगका अथर्हैव्यिक्तगतभावनाओं , इचछाओं, समझ-बुिद्ध एवंिनशच ् यात्मकबुिद्ध
केपिरवतर्नद्वारा
अहोभाव को अनंत चेतना स्वरूप में पिरणत करना।
गुरभ ू िक्तयोगगुरूकप ृ ाकेद्वारापर्ाप्तसचोट, सुन्दर अनुशासन का मागर् है।
गगगगगगगगगगगग गग गगगगगगग
कमर्योग, भिकतयोग, हठयोग, राजयोग आिद सब योगों की नींव गुरूभिक्तयोग है।
जो मनु ष य गुरभिकत य ो ग क े मागर स े िव मु ख ह ै वह अज ा न , अन्धकार एवं मृत्यु की
परमपरा को पापत होता है।
गुरभ ू िक्तयोगका अभ्यासजीवनकेपरमध्येयकी पर्ािप्क ता मागर्िदखाताहै।
गुरभ ू िक्तयोगका अभ्याससबकेिलएखुल्लाहै।सब महात्माएवंिवद्वानपुरष ू ोंनेगुरभू िक्तयोगकेअभ्यास
द्वारा ही महान कायर् िकये हैं। जैसे एकनाथ महाराज, पूरणपोडा, तोटकाचायर्, एकलवय, शबरी,
सहजोबाई आिद।
गुरभ ू िक्तयोगमेस ं ब योगसमािवष्टहोजातेहै।गुरभ ू िक्तयोगकेआशर्यकेिबनाअन्यकई योग, िज नका
आचरण अित किठन है, उनका सम्पूणर् अभ्यासिकसी सेनहींहोसकता।
गुरभ ू िक्तयोगमेआ ं चायर् की उपासनाकेद्वारागुरूकप ृ ाकी पर्ािप्क
तो खूब महत्त्विदयाजाताहै।
गुरभ ू िक्तयोगवेदएवंउपिनषदकेसमयिजतनापर्ाचीनहै।
गुरभ ू िक्तयोगजीवनकेसब दुःख एवंददोर्क ं ो दूर करनेका मागर् िदखाताहै।
गुरभ ू िक्तयोगका मागर् केवलयोग्य िष्य श क ो हीतत्कालफल देनेवालाहै।
गुरभ ू िक्तयोगअहंभावकेनाश एवंशाश् वतसुख की पर्ािप्म तेप
ं िरणतहोताहै।
गुरभ ू िक्तयोगसवोर्त्तमयोगहै।
गग गगगगग गग गगगगगगग
गुरू केपावनचरणोंमेस ं ाष्टांगपर्णामकरनेमेस ं ंकोचहोनायहगुरभ ू िक्तयोगकेअभ्यासमेब ं ड़ाअवरोधहै।
आत्म-बड़प्पन, आत्म-न्यायीपन, िमथ्यािभमान, आत्मंवचना, दपर्, स्वच्छन्दीपना,
दीघर्सूतर्ता, हठागर्ह, िछदनवेषी, कुसंग, बेईमानी, अिभमान, िवषय-वासना, कर्ोध, लोभ, अहंभाव ....
येसब गुरभू िक्तयोगकेमागर् मेआं नेवालिेवघ्नहैं।
गुरभ ू िक्तयोगकेसततअभ्यासकेद्वारामनकी चंचलपर्कृितका नाश करो।
जब मन की िब खरी ह ु ई शिकत क े िकरण एकित त होत े ह ै तब चम त कािर क कायर कर
सकते हैं।
गुरभ ू िक्तयोगका शास्तर्समािधएवंआत्म-साक्षात्कार करने हेतु हृदयशु िद्धपर्ाप्त करने के
िलएगुरसू ेवापरखूब जोरदेताहै।
सच्चा िष् शयग ुरूभिक्तयोग के अभ्यास में लगा रहता है।
पहले गुरभकतोयोग की िफलासफी समझो, िफर उसका आचरण करो। आपको सफलता अवश् य
िमलेगी।
तमाम दुगुर्णों को िनमूर्ल करने का एकमातर् असरकारक उपाय है गुरूभिक्तयोग का
आचरण।
गगगगगगगगगगगग गग गगग गगगगगगगगग
गुरू मेअ ं खण्डशर्द्धागुरभ
ू िक्तयोगरू पी वृकष् का मूलहै।
उत्तरोत्तरवधर्मानभिक्तभावना, नमर्ता, आज्ञा-पालन आिद इस वृक की शाखाएँ है। सेवा फूल है। गुर को
आत्मसमपर्ण करना अमर फल है।
अगर आपको गुरू के जीवनदायक चरणों में दृढ़ शर्द्धा एवं भिक्तभाव हो तो आपको
गुरभू िक्तयोगकेअभ्यासमेस ं फलताअवशय ् िमलेगी।
सच्चे हृदयपूवर्क गुरू की शरण में जाना ही गुरूभिक्तयोग का सार है।
गुरभू िक्तयोगका अभ्यासमानेगुरू केपर्ितशुद्धउत्कट पर्ेम।
ईमानदारी के िसवाय गुरूभिक्तयोग में िबल्कुल पर्गित नहीं हो सकती।
महान योगी गुरू के आशर्य में उच्च आध्याित्मक स्पन्नदनोंवाले शान्त स्थान में
रहो। िफर उनकी िनगरानी में गुरूभिक्तयोग का अभ्यास करो। तभी आपको गुरूभिक्तयोग में
सफलता िमलेगी।
गुरभ ू िक्तयोगका मुख्यिसद्धान्तबर्ह्मिनष्ठगुरू केचरणकमलमेिबन ं शरतीआत्मसमपर्णकरनाहीहै।
गगगगगगगगगगगग गग गगगगग गगगगगगगगग
गुरभ ू िक्तयोगकी िफलासफीकेमुतािबकगुरू एवंईश् वरएकरूप है।अतःगुरू केपर्ितसम्पूणर् आत्मसमपर्ण
करना अत्यंत आवश् यकहै।
गुरू केपर्ितसम्पूणर् आत्म-समपर्ण करना यह गुरूभिक्त का सवोर्च्च सोपान है।
गुरभ ू िक्तयोगकेअभ्यासमेग ंरु स
ू ेवासवर्स्वहै।
गुरूकप ृ ागुरभ
ू िक्तयोगका आिखरीध्येयहै।
मोटी बुिद्ध का िष् शयग ुरूभिक्तयोग के अभ्यास में कोई िनशि ्चत पर्गित नहीं कर
सकता।
जो िश ष य गुरभिकत य ो ग का अ भ य ास करना चाहता ह ै उसक े िल ए कुसं ग शत ु क े समान
है।
अगर आपको गुरूभिक्तयोग का अभ्यास करना हो तो िवषयी जीवन का त्याग करो।
गगगगगग गगग गग गगगगग
जो व यिकत दु ः ख को पार करक े जीवन म े सुख एवं आन न द प ा प त करना चाहता ह ै
उसेअन्तःकरणपूवर्कगुरभ ू िक्तयोगका अभ्यासकरनाजरूरीहै।
सच्चा एवं शाश् वतसुख तो गुरूसेवायोग का आशर्य लेने से ही िमल सकता है,
नाशवान पदाथोर्ं से नहीं।
ज न म -मृत्यु के लगातार चलने वाले चक्कर से छूटने का कोई उपाय नहीं है क्या ?
सुख-दुःख, हषर्-शोक के दनदो मे से मुिकत नही िमल सकती कया ? सुन, हे िष् श य
षषष ! इसका एक िनिशत
उपायहै।नाशवानिवषयीपदाथोर्म ंेस
ं ेअपनामनवापसखींचलेऔरगुरभ ू िक्तयोगका आशर्यले।इससेतू सुख-दुःख,
हषर्-शोक, ज न म -मृत्यु के द्वन्द्वों से पार हो जायेगा।
मनुष्य जब गुरूभिक्तयोग का आशर्य लेता है तभी उसका सच्चा जीवन शुरू होता है जो
व्यिक्त गुरूभिक्तयोग का अभ्यास करता है उसे इस लोक में एवं परलोक में िचरन्तन सुख
पापत होता है।
गुरभ ू िक्तयोगउसकेअभ्यासकोिचरायुएवंशाश् वतसुख पर्दानकरताहै।
मन ही इस संसार एवं उसकी पर्िकर्या का मूल है। मन ही बन्धन और मोक्ष, सुख और
दुःख का मूल है। इस मन को केवल गुरूभिक्तयोग के द्वारा ही संयम में रखा जा सकता है।
गुरभ ू िक्तयोगअमरत्व, शाशत सुख, मुिक्त, पूणरता, अखूट आनन्द और िचरंतन शािन्त देनेवाला
है।
गगगगगगगगगगगग गग गगगगगग
परम शािनत का राजमागर गुरभिकतयोग के अभयास से शुर होता है।
जो जो िसिद य ा सं न य ा स , त्याग, अन्य योग, दान एवं शुभ कायर् आिद से पर्ाप्त की
जा सकती ह ै व े सब िसिद य ा गुरभिकत य ो ग क े अ भ य ास क े शीघ प ा प त हो सकती ह ै ।
गुरभ ू िक्तयोगएक शुद्धिवज्ञानहै , जो िन म प कृ ित को वश म े लाकर परम सुख प ा प त करन े
की पद्धित हमें िसखाता है।
कुछ लोग मानते हैं िक गुरूसेवायोग िनम्न कोिट का योग है। आध्याित्मक रहस्य के
बारेमेयं हउनकी बड़ीगलतफहमीहै।
गुरभू िक्तयोग, गुरस ू ेवायोग, गुरूशरणयोगआिदसमानाथीर्शब्दहैं।उनमेकोई ं अथर्भेदनहींहै।
गुरभ ू िक्तयोगसब योगोंका राजाहै।
गुरभ ू िक्तयोगईश् वरज्ञान केिलएसबसेसरल, सबसे िनशि ्चत, सबसे शीघर्गामी, सबसे सस्ता
भयरिहत मागर है। आप सब इसी जनम मे गुरभिकतयोग के दारा ईशरजान पापत करो यही शुभ कामना है।
गगगगग गग गगगगगगग
गुरभ ू िक्तयोगका आशर्यलेकरआपअपनीखोयीहुई िदव्यताको पुनःपर्ाप्तकरो, सुख-दुःख, ज न म -मृत्यु
आिद सब द्वन्द्वों से पार हो जाओ।
जं ग ल ी बाघ , शेर या हाथी को पालना बहत ु सरल है, पानी या आग के ऊपर चलना बहुत सरल है लेिकन जब
तक मनुष्य को गुरूभिक्तयोग के अभ्यास के िलए हृदय की तमन्ना नहीं जागती तब तक सदगुरू
के चरणकमलों की शरण में जाना बहुत मुशि ्कल है।
गुरभ ू िक्तयोगमानेगुरू की सेवाकेद्वारामनऔरउसकेिवकारोंपरिनयंतर्णएवंपुनःसंस्करण।
गुरू को सम्पूणर् िबनशरतीशरणागितकरनागुरभ ू िक्तपर्ाप्तकरनेकेिलएिनशि ्च
तमागर्
है।
गुरभ ू िक्तयोगकी नींवगुरू केऊपरअखण्डशर्द्धामेिनिहतहै। ं
अगर आपको सचमुच ईश् वरकी आवश् यकताहो तो सांसािरक सुखभोगों से दूर रहो और
गुरभू िक्तयोगका आशर्यलो।
िकसी भी पर्कार की रूकावट के िबना गुरूभिक्तयोग का अभ्यास जारी रखो।
गुरभ ू िक्तयोगका अभ्यासहीमनुष्यको जीवनकेहरक्षेतर् मेिनभर्
ं यएवंसदासुखी बनासकताहै।
गुरभ ू िक्तयोगकेद्वाराअपनेभीतरहीअमरआत्माकी खोजकरो।
गुरभ ू िक्तयोगको जीवनका एकमातर् हेतु, उद्देश
यएवं
् सच्चेरसकािवषयबनाओ। इससेआपकोपरमसुख की
पािपत होगी।
गुरभ ू िक्तयोगज्ञानपर्ािप्मे तसं हायकहै।
गुरभ ू िक्तयोगका मुख्यहेतुतुफानीइिन्दय र्परएवं
ों भटकतेहुएमनपरिनयंतर्णपानाहै।
गुरभ ू िक्तयोगिहन्दू संस्कृितकी एकपर्ाचीनशाखाहैजोमनुष्यको शाश् वतसुख केमागर् मेलं ेजातीहैऔरईश् वर
के साथ सुखद समन्वय करा देती है।
गुरभ ू िक्तयोगआध्याित्मकऔरमानिसकआत्म-िवकास का शास्तर् है।
गुरभ ू िक्तयोगका हेतुमनुष्यकोिवषयोंकेबन्धनसेमुक्तकरकेउसेशाश् वतसुख औरदैवीशिक्तकी मूल
िस्थित की पुनः पर्ािप्त कराने का है।
गुरभ ू िक्तयोगमनुष्यको दुःख, जरा और व य ािध स े मु क त करता ह ै , उसेिचरायुबनाताहै , शाशत सुख
पदान करता है।
गुरभ ू िक्तयोगमेशं ारीिरक, मानिसक, नैितक और आध्याित्मक.... हर पर्कार के अनुशासन का
समावेश हो जाता है। इससे मनुष्य आत्पपर्भुत्व एवं आत्म-साक्षात्कार पा सकता है।
गुरभ ू िक्तयोगमनकी शिक्तयोंपरिवजयपर्ाप्तकरनेकेिलएिवज्ञानएवंकलाहै।
अनुकर्म
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
गगगगगग-2
गगगग गग गगगगग
गगगग गग गगगगगग
जो आ ँ ख े गुर क े चरणकमल ो का सौ न दयर नही द े ख सकती व े आ ँ ख े सचमु च
अन्ध हैं।
जो कान गुर की लीला की मिह म ा नही सु न त े व े कान सचमु च बहर े ह ै ।
गुरू रिहतजीवनमृत्युकेसमानहै।
गुरू कृपाकी सम्पित्ज
तैसाऔरकोई खजानानहींहै।
भवसागर को पार करने के िलए गुर के सतसंग जैसी और कोई सुरिकत नौका नही है।
आध्याित्मक गुरू जैसा और कोई िमतर् नहीं है।
गुरू केचरणकमलजैसाऔरकोई आशर्यनहींहै।
सदैव गुरू की रट लगाओ।
गगगग गग गगगगग गगगगगगगगगग
शदा, भिकत और ततपरता के फूलो से गुर की पूजा करो।
आत्म-साक्षात्कार के मिन्दर में गुरू का सत्संग पर्थम स्तम्भ है।
ईश् वरकृपागुरू का स्वरूप धारण करती है।
गुरू केदर्शन करनाईश् वरकेदर्शन करनेकेबराबरहै।
िज सन े सदगुर क े द शर न नही िकय े वह मनु ष य अ न ध ा ही ह ै ।
धमर केवल एक ही है और वह है गुर के पित भिकत एवं पेम का धमर।
जब आपको दु न या व ी अप े क ा नही रहती तब गुर क े प ित भिकत भ ा व जागत ा ह ै ।
आत्मवेत्ता गुरू के संग के पर्भाव से आपका जीवनसंगर्ाम सरल बन जायेगा।
गुरू का आशर्यलोऔरसत्यका अनुसरणकरो।
आपके गुरू की कृपा में शर्द्धा रखो और अपने कत्तर्व्य का पालन करो। गुरू की
आज्ञा का अितकर्मण माने खुद ही अपनी कबर् खोदने के बराबर है। सदगुरू िष् शयप र सतत
आशीवार्द बरसाते हैं। आत्मसाक्षात्कारी गुरू जगदगुरू हैं, परम गुर है।
जगदगुर का ह ृ द य सौ न दयर का धाम ह ै ।
गगगग गग गगगग
जीवन का ध य े य गुर की स े व ा करन े का बना ओ।
जीवन का हरएक कटु अनु भ व गुर क े प ित आपकी श द ा की कसौटी ह ै ।
िशषय कायर की िगनती करता है जबिक गुर उसके पीछे िनिहत हेतु और इरादे की तुलना करते है।
गुरू केकायर् को सन्देहपूवर्कदेखनासबसेबड़ापापहै।
गुरू केसमक्षअपनादम्भपूणर् िदखावाकरनेकी कभीकोश श ि मत करना।
िशषय के िलए तो गुरआजापालन जीवन का कानून है।
आपके िदव्य गुरू की सेवा करने का कोई भी मौका चुकना नहीं।
जब आप अपन े िद व य गुर की स े व ा करो तब एकिन ष और वफादार रहन ा।
गुरू परपर्ेमरखना, आज्ञापालन करना यानी गुरू की सेवा करना।
गुरू की आज्ञक ा ा पालनकरनाउनकेसम्मानकरनेसेभीबढ़करहै।
गुरू आज्ञक ा ा पालनत्यागसेभीबढ़करहै।
हर िकसी पिरिस्थित में अपने गुरू को तमाम पर्कार से अनुकूल हो जाओ।
अपने गुरू की उपिस्थित में अिधक बातचीत मत करो।
गुरू केपर्ितशुद्धपर्ेम
यहगुरू आज्ञापालनका सच्चास्वरूप है।
अपनी उत्तमोत्तम वस्तु पर्थम अपने गुरू को समिपर्त करो। इससे आसिक्त सहज में
िमटेगी।
िशषय ईषया, डाह एवं अिभ म ा न रिह त , िनःस्पृह और गुरू के पर्ित दृढ़ भिक्तभाववाला होना
चािहए। वह धैयरवान और सतय को जानने के िलए िनशयवाला होना चािहए।
िशषय को अपने गुर के दोष नही देखना चािहए।
िशषय को गुर के समक अनावशयक एवं अयोगय पलाप नही करना चािहए।
गुरू केद्वाराजोसदज्ञानपर्ाप्तहोताहैवहमायाअथवाअध्यासका नाश करताहै।
एक ही ईशर अनेक रप मे माया के कारण िदखता है ऐसा िजसको गुरकृपा से जान होता है वह सतय को जानता
है और वेदों को समझता है।
गुरसू ेवाऔरपूजाकेद्वारापर्ाप्तिनरन्तरभिक्तसेतीक्ष्णधारवालेज्ञानकेकुल्हाड़स
ेेतू धीर-ेधीरे पर
दृढ़तापूवर्क इस संसार रूपी वृक्ष को काट दे।
गुरू जीवननौकाका सुकानहैऔरईश् वरउस नौकाको चलानेवालाअनुकल ू पवनहै।
जब मनु ष य को सं स ा र क े प ित घृ ण ा उपजती ह ै , उसेवैराग्यआताहैऔरगुरू केिदयेहुएउपदेश
का िचन्तन करने के िलए शिक्तमान होता है तब ध्यान में बार-बारअभ्यासकेकारणउसकेमनकी
अिनष्ट पर्कृित दूर होती है।
गुरू सेभलीपर्कारजानिलयाजायतभीमंतर् केद्वाराशुद्धपैदाहोतीहै।
गगगगगगगगगगग गग गगगगगगगगग
मनुष्य अनािद काल से अज्ञान के पर्भाव में होने के कारण गुरू के िबना उसे
आत्म-साक्षात्कार नहीं हो सकता। जो बर्ह्म को जानता है वही दूसरे को बर्ह्मज्ञान दे
सकता है।
सयाने मनुष्य को चािहए िक वह अपने गुरू को आत्मा-परमातमारप जानकर अिवरत
भिकतभावपूवरक उनकी पूजा करे अथात् उनके साथ तदाकार बने।
िशषय को गुर एवं ईशर के पित संिनष भिकतभाव होना चािहए।
िशषय को आजाकारी बनकर, सावधान मन से एवं िनष्ठापूवर्क गुरू की सेवा करनी चािहए
और उनसे भगवद भकत के कतरवय अथवा भगवद् धमर जानना चािहए।
िशषय को ईशर के रप मे गुर की सेवा करना चािहए। िवश के नाथ को पसन करने का एवं उनकी कृपा के योगय
बननेका सुिनशि ्चतउपायहै।
िशषय को वैरागय का अभयास करना चािहए और अपने आधयाितमक गुर का सतसंग करना चािहए।
िशषय को पथम तो अपने गुर की कृपा पापत करना चािहए और उनके बताये हुए मागर मे चलना चािहए।
िशषय को अपनी इिनदयो को संयम मे रखकर गुर के आशय मे रहना चािहए..... सेवा, साधना एवं
शासताभयास करना चािहए।
िशषय को गुर के दार से जो कुछ अचछा या बुरा, कम या ज्यादा, सादा या स्वादु खाना िमले वह
गुरभ
ू ाईको अनुकल ू होकरखानाचािहए।
गगगग गग गगगगग
गुरू केचरणकमलोंका ध्यानकरनायहमोक्षएवंशाश् वतसुख की पर्ािप्क ता केवलएकहीमागर् है।
जो मनु ष य गुर क े चरणकमल ो का ध य ा न नही करत े व े आ त म ा का घात करन े वाल े
हैं। वे सचमुच िजन्दे शव के समान कंगले मवाली हैं। वे अित दिरदर् लोग हैं। ऐसे
िनगुरे लोग बाहर से धनवान िदखते हुए भी आध्याित्मक जगत में अत्यंत दिरदर् हैं।
सयाने सज्जन अपने गुरू के चरणकमल के िनरन्तर ध्यान रूपी रसपान से अपने
जीवन को रसमय बनात े ह ै और गुर क े ज ा न रपी तलवार को साथ म े रखकर मोह म ा य ा क े
बन्धनोंको काट डालतेहैं।
गुरू केचरणकमलका ध्यानकरनायह शाश् वतसुख केद्वारखोलनेकेिलएअमोघचाबीहै।
गुरू का ध्यानकरनायहआिखरीसत्यकी पर्ािप्क ता केवलएकहीसच्चाराजमागर् है।
गुरू का ध्यानकरनेसेसब दुःख, ददर् एवं शोक का नाश होता है।
गुरू का ध्यानकरनेसेशोक व दुःख केतमामकारणनष्टहोजातेहैं।
गुरू का ध्यानआपकेइष्टदेवताकेदर्शन कराताहै , गुरत
ू ्वमेिस्
ं थितकराताहै।
गुरू का ध्यानएकपर्कारका वायुयानहै , िज सकी सहायत ा स े िश ष य शाश त सुख , िचरंतन शािनत एवं
अखूट आनन्द के उच्च लोक में उड़ सकता है।
गुरू का ध्यानिदव्यताकी पर्ािप्क
तेिलएराजमागर् है , जो िश ष य को िद व य जीवन क े ध य े य तक सीधा
लेजाताहै।
गुरू का ध्यानएकरहस्यमयसीड़ीहै , जो िश ष य को पृ थ वी पर स े स वगर म े ल े जाती ह ै ।
गुरू केचरणकमलका ध्यानिकयेिबना िष्य श क े िलएआध्याित्मकपर्गितसंभवनहींहै।
गुरू का िनयिमतध्यानकरनेसेआत्मज्ञानकेपर्देशखुल जातेहै , ंमन शांत, स्वस्थ एवं िस्थर बनता
है और अन्तरात्मा जागृत होती है।
गगग गग गगगग
िशषय जब गुर के चरणकमल का धयान करता है तब सब संशय अपने आप नष हो जाते है।
िशषय जब गुर की सुरका मे होता है तब कोई भी वसतु उसके मन को कुिभत नही कर सकती।
आप अगर अपने मन को बाह्य पदाथोर्ं में से खींचकर सतत ध्यान के द्वारा गुरू
के चरणकमल में लगाओगे तो आपके तमाम दुःख नष्ट हो जाएँगे।
गुरू का ध्यानकरनायहतमाममानवीयदुःखोंका नाश करनेका एकमातर् उपायहै।
जो िश ष य अपन े गुर क े चरणकमल म े अपना िचत नही लगा सकता उस े
आत्मज्ञान नहीं िमल सकता।
जो िश ष य गुर का ध य ा न िब ल कु ल नही करता उस े मन की शािनत नही िम ल सकती।
अगर आपको इस संसार के दुःख एवं ददर् दूर करने हों तो आपको आत्म-साक्षात्कारी
गुरू का ध्यानकरनेकी आदतडालनाचािहए। ठीक हीकहाहैः
गगगगगगगगग गगगगगगगगगगगगग गगगगगगगग गगगगग गगगगग
गगगगगगगगग गगगगगगगगगगगग गगगगगगगगग गगगगग गगगगगग
गगगगगगगग गग गगगगगगगग
गुरू की सहायकेिबनाकोई आत्मज्ञानपानहींसकता।
गुरूकपृ ाकेिबनािदव्यजीवनमेक ं ोई पर्गितनहींकर सकता। गुरूकपृ ाकेिबनाआपमानिसकिवकारोंसेमुक्त
नहीं हो सकते एवं मोक्ष नहीं पा सकते।
अगर आप अपने गुरू की मूितर् का ध्यान करने की आदत नहीं डालो तो आत्मा का भव्य
वैभव एवं सनातन ज्योित आपसे सदा के िलए अदृश् यरहेगी।
गुरू केस्वरूप कािनयिमतएवंव्यविस्थतध्यानकरनेकी आदतडालकरआत्माको ढांकनेवालेआवरणको
चीर डालो।
गुरू केस्वरूप का ध्यानकरनायहतमामरोगोंकेिलएशिक्तशालीऔषधहै।
गुरू का ध्यानकरनेसेअन्तरात्माकेज्ञानकेएवंअन्यकई मूढ़शिक्तयाँपर्ाप्तकरनेकेिलएमनकेद्वारखुल
जात े ह ै ।
गुरू का ध्यानकरनेसेजीवनकेतमामदुःख दूर होजातेहैं।
गगगगगग गग गगगगग गग गगगगग
गुरू केस्वरूप का ध्यानकरो, तभी आपको सच्ची शािन्त और आनन्द की पर्ािप्त होगी।
आध्याित्मक गुरू का ध्यान करने से बहुत ही आध्याित्मक शिक्त, शािनत, नया जोम और
नया बल िमलता है।
पिवत गुर का धयान करने से शुद शिकतशाली िवचारो का िवकास होता है।
गुरू केस्वरूप कािनयिमतिचन्तनकरनेसेमनइधरउधरभटकनाधीर-ेधीरे बनद कर देता है।
गुरू केस्वरूप का ध्यानकरनेसेआध्याित्मकमागर् मेस
ं ेतमामअड़चनेदूंर होजातीहैं।
गुरू का ध्यानकरनेसेमनकी उत्तेजनादरू होतीहैऔरमनकी शािन्तमेब ं हुतहीवृिद्ध
होतीहै।
िदव्य गुरू के चरणकमलों का ध्यान करने के िलए बर्ाह्ममुहूतर् सबसे ज्यादा अनुकूल
समय है। चालू व्यवहार में भी कभी-कभी गुरू का ध्यान करके आप शिक्त, स्फूितर् और
पेरणा पापत करते रहो।
आप ज्यों ही िबस्तर में जागो िक तुरन्त गुरूमंतर् का जाप करो। यह बात बहुत ही
महत्त्वपूणर् है।
एकानत एवं गुर के सवरप का गहरा िचनतन....येदोचीजेआत् ं म-साक्षात्कार के िलए महत्त्वपूणर्
आवश् यकताएँहैं।
गगगगग गग गगग गगगगगगगग गगगगगगगगग
गुरू का ध्यानकरनेकेिलएहरएकवस्तु को साित्त्वकबनानाचािहए। स्थान, भोजन, वस्तर्, संग, पुसतके
आिद सब साित्त्वक होना चािहए।
गुरू का ध्यानकरनािकसी भीपिरिस्थितमेछ ं ोड़नानहींचािहए।
केवलल सदाचारी जीवन जीना ही ईश् वर-साक्षात्कार के िलए पयार्प्त नहीं है, गुरू का
िनरन्तर एवं गहरा ध्यान करना अिनवायर् है।
अगर आपको संसार के दुःख ददर् एवं जन्म-मृत्यु की मुसीबतों से सदा के िलए मुक्त
होना हो तो आपको गुरू के स्वरूप का गहरा ध्यान करने की आदत डालना चािहए।
गुरू का ध्यानकरनायहअनन्यअनुभवयासीधेआत्मज्ञानकेिलएराजमागर् है।
अन्न, वस्तर्, िनवास आिद शारीिरक आवश् यकताओंके िलए िष् शयक ो िचन्ता नहीं
करना चािहए। गुरूकृपा से उसके िलये सब चीजों का इन्तजाम हो जाता है।
गुरू का ध्यान िष्य
श क े िलएएकमातर् मूल्यवानपूँजीहै।
भकतो के िलए भगवान हमेशा गुर के रप मे पथपदशरक बनते है।
मनुष्य को गुरू की सेवा करना चािहए और गुरू जो जो आज्ञा करें उन सबका पालन
करना चािहए। इसमें उसे िबल्कुल लापरवाही या बड़बड़ नहीं करना चािहए। अपनी बुिद्ध का
भी उपयोग नही करना चािहए।
गुरू जबकोई भीचीजकरनेकी आज्ञक ा रेत
ं ब िष्य
श क ो हृदयपूवर्कउनकी आज्ञक
ा ा पालनकरनाचािहए।
गुरू केपर्ितइस पर्कारकी आज्ञाकािरताआवशय ् कहै।यहिनष्कामकमर्की भावनाहै।इस पर्कारका कमर्
िकसी भी फल की आशा के िलए नहीं िकया जाता अिपतु गुरू की पिवतर् आज्ञा के िलए ही िकया
जाता ह ै । तभी मन की अशुिद य ा , ज ै स े िक काम , कर्ोध और लोभ नष्ट होते हैं।
जो िश ष य चार प क ा र क े साधनो स े स ज ज ग ह ै वही ईश र स े अिभ न ब ह िन ष
गुरू केसमक्षबैठने केएवंउनसेमहावाक्यसुननेकेिलएलायकहै।
चार पकार के साधन यानी साधनचतुषय इस पकार है-
िववेक = आत्मा-अनात्मा, िनत्य-अिनत्य, कमर्-अकमर् आिद का भेद समझने की
शिकत।
वैराग्य = इिनदयजनय सुख और सासािरक िवषयो से िवरिकत।
षटसं पित = शम (वासनाओं एवं कामनाओं से मुक्त िनमर्ल मन की शािन्त), दम
(इिनदयो पर काबू), उपरित(िवषय-िवकारी जीवन से उपरामता), ितितक्षा = हरएक िस्थित में
िस्थरता एवं धैयर् के साथ सहनशिक्त), शदा और समाधान (बाह्यआकषर्णोंसेअिलप्तमनकी एकागर्
िस्थित)।
मुमुक्षत्व = मोक्ष अथवा आत्म-साक्षात्कार के िलए तीवर् आकांक्षा।
अनुकर्म
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
गगगगगगग 3
गगगगगगगगग गग गगगगग
गगगगगगगग गग गगगगगगगगगगग
िज सक े मन स े तमा म अशुिद य ा दू र की गई हो ऐस े िश ष य को ही गुर क े गू ढ रह स य ो
की दीक्षा दी जाय तो उसका मन सम्पूणर् िस्थरता पर्ाप्त कर सकेगा और वह िनिवर्कल्प
समािध की अवस्था में पर्िवष्ट हो सकेगा।
जो िसद आ त म य ो ग ी हो ऐस े गुर की िन ग र ा न ी क े नीच े योग सीखो।
िवषयिवकार के रंगे हुए आपके मन को एकागर्ता, गुरू केउपदेशएवंउपिनषदोंकेवाक्योंके
मनन, धयान एवं जप से पिवत बनाना होगा।
आपको मागर्दर्शन देने के िलए आत् -साक्
म षात्कारी सदगुरू होने चािहए।
एक ही सथान, एक ही आधयाितमक गुर और एक ही योग पदित मे लगे रहो। यही िनिशत सफलता की रीित है।
गगग गग गगगगग
गुरू अथवािसद्धयोगीकीिनगरानीमेह ं ीपर्ाणायामका अभ्यासकरनाचािहए।
आप अपने गुरू के अथवा िकसी भी संत के िचतर् पर एकागर्ता कर सकते हैं।
िवषयों से मन को वापस खींच लो और अपने गुरू के उपदेश के मुतािबक आगे बढ़ो।
कश् मीरमें िस्थत साधक (िशषय) भी अगर िहमालय के उतरकाशी मे िसथत अपने गुर का, अपने
आध्याित्मक मागर्दर्शक का ध्यान करे तो भी गुरू एवं िष् शयक े बीच एक िनशि ्चत गहरा
सम्बन्ध स्थािपत होता है। िष् शयक े िवचारों के पर्त्युत्तर में गुरू शिक्, तशािनत, आनन्द,
सुख के स्पन्दन पर्सािरत करते हैं। िष् शयल ोहचुम्बक के पर्चण्ड पर्वाह में स्नान करता
है। िजस पर्कार एक बतर्न से दूसरे बतर्न में तैल बहता है उसी पर्कार गुरू और िष् श य
षषष
के बीच आध्याित्मक िवद्युत शिक्त का झरना धीरे-धीरे िनरनतर बहता है। जहा जहा िशषय सचचे हृदय से
अपने गुरू का ध्यान करता है वहाँ गुरू को भी मालूम पड़ता है िक अपने िष् शयक ी ओर से
पाथरना या उनत िवचारधारा का पवाह बहता है और अपने हृदय को सपशर करता है। िजनके पास आनतरचकु होते है वे
गुरू-िशषय के बीच हलका सा उजजवल पकाश सपषतः देख सकते है। िचतरपी सागर मे सािततवक िवचारो के सपनदन से
गितपैदाहोतीहै।
गगगग गग गगगगगग
आध्याित्मक गुरू अपनी आध्याित्मक शिक्त अपने िष् शयक ो पर्दान करते हैं। सदगुरू
के अमूल्य स्पन्नदन िष् शयक े मन की ओर भेजे जाते हैं। शर्ीरामकृष्ण परमहंस ने
अपनी आध्याित्मक शिक्त िववेकानन्द को दी थी। यह गुरू का दैवी स्पर्शक हा जाता है। समथर्
रामदास स्वामी के िष् शयन े अपनी ऐसी शिक्त नतर्की की पुतर्ी को दी थी जो उसके पर्ित
अत्यंत कामुक थी। िष् शयन े उसकी ओर दृिष्टपात िकया और उसे समािध पर्ाप्त कराई। उसकी
कामुकता नष्ट हो गई। तब से वह बहुत धािमर्क एवं आध्याित्मक स्वभाववाली बन गई।
मुकुन्दबाई नामक महाराष्टर् की एक साध्वी ने बादशाह को समािध पर्दान की थी।
आप जप और ध्यान शुरू करें उससे पहले कुछ दैवी स्तोतर् या मंतर्ों का अथवा
गुरसू त ् ोतर्का उच्चारणकरो। अथवाबारहदफाॐका मंतर्ोच्चारकरोअथवापाँचिमनटतक कीतर्नकरो।
मन को एक स्थान में, एक साधना मे, एक गुर मे और एक ही योगमागर मे लगाकर उसकी चंचल वृित को
वश में करना चािहए।
योगवाश िष्ठमेग
ंर ु ू वश िष्ठ
जीकहतेहै-ं "हे राम ! पाव भाग का मन पारंिभक धयान मे लगाओ, पाव भाग का
खेलकूद में, पाव भाग का अभयास मे और पाव भाग का मन गुरसेवा मे लगाओ।"
ईश् वरने आपको तमाम पर्कार की सुिवधाएँ, अच्छा स्वास्थ्य एवं मागर् िदखाने के
िलएगुरू िदयेहैं।इससेअिधकऔरक्याचािहए? अतः िवकास करो, उत्कर्ान्तबनो, सत्य का साक्षात्कार
करो और सवर्तर् उसका पर्चार करो।
गुरू एवंशास्तर्आपकोमागर् िदखा सकतेहैऔं रआपकेसंशयदूर कर सकतेहैं।अपरोक्षका अनुभव(सीधा
आन्तरज्ञान) करना आप पर िनभर्र रखा गया है। भूखे व्यिक्त को स्वयं ही खाना चािहए।
िज सको सख त खुज ली आती हो उस े खुद ही खुज लान ा चािह ए।
गग गग गगगग गगग गगगग गग गगगग
मन के साथ कभी मुठभेड़ मत करो। एकागर्ताके िलए जलद पर्यासों का उपयोग मत
करो। सब स्नायु और नस नािड़यों को ििथल श क रो। मिस्तष्क को ढीला छोड़ दो। धीरे -धीरे अपने
गुरम ू ंतर्का उच्चारणकरो। खदबदातेहुएमनको स्वस्थकरो। िवचारोंको शान्तकरो।
यिदमनमे'ंअहं' के सब संकल्प हों तो गुरू से दीक्षा लेने के बाद आत्मा का ध्यान
करके एवं वेद का सच्चा रहस्य जानकर मन को िविभन्न दुःखों से वापस खींच सकते हैं
और सुखदायक आतमा मे पुनः सथािपत कर सकते है।
कुछ वषर् तक अपने गुरू की पर्त्यक्ष िनगरानी में और उनके सीधे एवं िनकट के
सम्पकर् में रहो। आप धीरी और िनयिमत पर्गित कर सकेंगे।
चंचल मन एक साधना से दूसरी साधना की ओर, एक गुर से दूसरे गुर की ओर, भिकतयोग से वेदानत की ओर
एवं हृिषकेश से वृनदावन की ओर कूदता है। साधना के िलए यह अतयनत हािनकता है। एक ही गुर से, एक ही सथान से
लगेरहो।
आपके िलए िकस पर्कार का योगमागर् योग्य है यह आपको ही खोज लेना होगा। आप
अगर यह नहीं कर सको तो िजन्होंने आत्म-साक्षात्कार िकया हो ऐसे गुरू या आचायर् की
सलाह आपको लेनी होगी। वे आपके मन की पर्कृित जानकर आपको उिचत योग की पद्धित
बतायेंगे।
आध्याित्मक गुरू का सत्संग और अच्छा माहौल मन की उन्नित में पर्चण्ड पर्भाव
डालता ह ै । यिद अ च छ ा सत सं ग न िम ल सक े तो िज न ह ो न े आ त म -साक्षात्कार िकया हो ऐसे
महापुरूषों के गर्न्थों का सत्संग करना चािहए। उदाहरणाथर्ः शर्ी शंकराचायर् के गर्न्थ,
योगवाश िष्ठ , शी दतातेय की अवधूत गीता इतयािद।
गगगगगगगगगग गगगगग गगग गगगगगग
आपके हृदय की गुह्म बातें आपके गुरू के समक्ष खुल्ली कर दो। इस पर्कार िजतना
अिधक करोगे उतनी अिधक सहानुभूित आपको िमलेगी। इससे आपको पाप एवं पर्लोभनों के
साथ लड़ने में शिक्त पर्ाप्त होगी।
िमतर् पसंद करने में ध्यान रखें। अिनच्छनीय लोग आपकी शर्द्धा एवं मान्यताओं
को सरलता से चिलत कर देंगे। आपने शुरू की हुई साधना में एवं अपने गुरू सम्पूणर्
शदा रखे। अपनी मानयताओं को कदािप चिलत होने मत दे। आपकी साधना उमंग और उतसाह के साथ चालू रखे। आप
त्विरत आध्याित्मक पर्गित कर सकेंगे। आध्याित्मक सीड़ी के सोपान एक के बाद एक
चढते जाएँगे और आिखर आपके धयेय को हािसल कर लेगे।
पकी, मछली और कछुए की तरह ,स्दृपिर्
ष्शट
षषएवं इच्छा या िवचारों के द्वारा गुरू
अपनी आध्याित्मक शिक्तयों का पर्सारण कर सकते हैं। कभी कभी गुरू िष् शयक े भौितक
शरीर मे पिवष होकर अपनी शिकत से िशषय के मन को उनत बना सकते है।
कभी कभी आध्याित्मक गुरू को बाह्यतः अपना कर्ोध िदखाना पड़ता है िकन्तु वह िष् श
षषष य
की गिल्तयाँ िदखाने के िलए ही होता है। यह बात खराब नहीं है।
कुछ लोग कुछ वषर् तक स्वतंतर् रीित से ध्यान करते हैं िकन्तु बाद में उनको गुरू
की आवश् यकतामहसूस होती है। उनको साधना के मागर् में अवरोध आते हैं। इन अवरोधों
और भयसथानो को कैसे हटाये जाये यह वे नही जानते। तब वे गुर की खोज करने लगते है। छः सात बार आने जाने के
बादभीिकसी बड़ेशहरमेिकसी ं अनजानआदमीको छोटीगलीमेिस् ं थतअपनेिनवासस्थानमेव ं ापसआनेमेिदनके

समय में भी तकलीफ महसूस होती है। सड़कों और मुहल्लों में मागर् खोजने में भी
तकलीफ होती है तो बन्द आँख से अकेले चलने वाले को उस्तरे की धार जैसे
आध्याित्मकता के मागर् में आने वाले िवघ्नों की तो बात ही क्या ?
गगगगगगगग
मन के पर्ाकृत स्वभाव का सम्पूणर्तः नवसजर्न करना ही चािहए। साधक अपने गुरू से
कहता हैः "मुझे योग का अभ्यास करना है। िनिवर्कल्प समािध में पर्िवष्ट होने की मेरी
आकांक्षा है। मैं आपके चरणों में बैठना चाहता हूँ। मैं आपकी शरण में आया हूँ।"
िकन्तु वह अपने पर्ाकृत स्वभाव को, आदतों को, चािरतय को, वतर्न को, चालढाल को बदलना नही
चाहता।
पाकृत सवभाव मे ऐसा पिरवतरन करना सरल नही है। संसकारो की शिकत दृढ और बलवान होती है। उनके
पिरवतरन के िलए काफी मनोबल की आवशयकता होती है। पुराने संसकारो की शिकत के आगे साधक कई बार िनरपाय हो
जाता ह ै । उस े िन यिम त जप , कीतर्न, धयान, अथक िनःस्वाथर् सेवा और सत्संग से अपने
सत्त्व और संकल्प का असीम िवकास करना पड़ेगा। उसे अन्तमुर्ख होकर अपनी किमयाँ
और दुबरलताएँ खोज लेनी पडेगी। उसे गुर के मागरदशरन मे रहना होगा। गुर उसकी गलितया खोज िनकालते है और उनहे
दूर करने के िलए योग्य रीित बताते हैं।
आपको मोक्ष के चार साधनों के िलए तैयारी करके बर्ह्मिनष्ठ एवं बर्ह्मशर्ोितर्य
गुरू केपासजानाचािहए। आपकोअपनेसन्देहदूर करनाचािहए। अपनेगुरू सेपर्ाप्तिकयेहुएआध्याित्मकपर्काशकी
सहायता से आध्याित्मक मागर् में चलना चािहए। आपका ठीक पर्कार जीवन-िनमार्ण हो जाय
तब तक अहं और संसार का आकषर्ण छोड़कर आपको गुरू के द्वार पर रहना चािहए। ठीक ही
कहा है िकः समर्ाट के साथ राज्य करना भी बुरा है.... न जाने कब रूला दे ! गुरू केसाथ भीख
माँगकर रहना भी अच्छा है.... न जाने कब िमला दे ! आत्म-साक्षात्कार िसद्ध िकये हुए
पुरष का वयिकतगत समपकर बहुत उनित कारक होता है। यिद आप संिनष एवं उतसुक होगे, यिदआपकोमोक्षकेिलएतीवर्
आकांक्षा होगी, यिदआपअपनेगुरू की सूचनाओंका चुस्ततासेपालनकरेंग , ेयिदआपअखण्डऔरिनरन्तरयोग
करेंगे तो आप छः महीने में सवोर्च्च लक्ष्य िसद्ध कर सकेंगे। ऐसा ही होगा, यहमेरा
वचन है।
जगत प ल ो भ न ो स े भरपू र ह ै । अतः नय े साधको को ध य ा न पू वर क उनस े बचन े की
आवश् यकताहै। जब तक उनकी घड़ाई पूणर् न हो जाय, तब तक उन्हें गुरू के चरणकमलों में
बैठनाचािहए। जोमनमुखसाधक पर्ारंभसेहीस्वच्छन्दीबनकरबतार्वकरतेहै , अपने गुरू के वचनों पर ध्यान
नहीं देते वे िबल्कुल िनष्फल हो जाते हैं। वे लक्ष्यहीन जीवन िबताते हैं। और नदी
में तैरते हुए लकड़े की भाँित इधर टकराते हैं।
गगगग गग गगगगग गगगगगगगगगग गगगगग
हे पूज्य गुरू ! हे मेरे अिवद्या के िवदारक ! आपको मेरे नमस्कार ! आपकी कृपा
से मैं बर्ह्म का शाश् वतसुख भोगता हूँ। अब मैं पूणर्तः िनभर्य बन चुका हूँ। मेरे सब
संशय और भर्म नष्ट हो गये हैं।
उपरोक्तमंतर् में िष्य
श अ पने अन्तरात्माकेअनुभवगुरू केसमक्षव्यक्तकरताहै। िष्य
श अ पने गुरू के
चरणकमल मे साषाग पणाम करता है। उन पर शेष फूलो की वषा करके उनकी सतुित करता है। "हे पूज्य, पिवत
गुरू ! मुझे सवोर्च्च सुख पर्ाप्त हुआ है। मैं बर्ह्मिनष्ठा से जन्म-मृत्यु की परम्परा से
मुक्त हुआ हूँ। मैं िनिवर्कल्प समािध का शुद्ध सुख भोग रहा हूँ। जगत के िकसी भी कोने में
मैं मुक्तता से िवचरण कर सकता हूँ। सब मेरी संतुष्टी है। मैंने पर्ाकृत मन का त्याग
िकया है। मैंने सब संकल्प एवं रूिच-अरूिच का त्याग िकया है। अब मैं अखण्ड शािन्त का
अनुभव करता हूँ। मेरे आनन्द के अितरेक के कारण मैं पूणर् अवस्था का वणर्न नहीं कर
पाता। हे पूजय गुरदेव ! मैं अवाक बन गया हूँ। इस दुस्तर भवसागर को पार करने में आपने
मुझे सहाय की है।"
"अब तक मुझे केवल मेरे शरीर में ही सम्पूणर् िवश् वासथा। मैंने िविभन्न
योिनयोंमेअं संख्यजन्मिलये। ऐसी सवोर्च्चिनभर्यअवस्थामुझेकौनसेपिवतर्कमोर्केकारणपर्
ं ाप्तहुई यहमैन
ं हीं
जानता। सचमु च यह एक दुलर भ भा ग य ह ै । यह एक महान अदृष लाभ ह ै । अब म ै आन न द स े
नाचता हूँ। मेरे सब दुःख नष्ट हो गये हैं। मेरे सब मनोरथ पूणर् हुए हैं। मेरे कायर्
सम्पन्न हुए हैं। मैंने सब वांिछत वस्तुएँ पर्ाप्त की हैं। मेरी इच्छा पिरपूणर् हुई है।"
"आप मेरे सच्चे माता-िपता हो। मेरी वतरमान िसथित मै दूसरो के समक िकस पकार पकट कर सकूँ ?
सवर्तर् सुख और आनन्द का अनन्त सागर लहराता हुआ मुझे िदख रहा है। िजससे मेरे
अन्तःचक्षु खुल गये वह महावाक्य 'तत्त्वमिस' है। उपिनषदों, वेदान्तसूतर्ों एवं
वेदान्तशास्तर्ों का भी आभार ! िज न ह ो न े ब ह िन ष गुर का एवं उपिन षद ो क े महाव ा क य ो
का रूप धारण िकया है ऐसे शर्ी व्यास जी को पर्णाम ! शी शंकराचायर जी को पणाम ! बर्ह्मिवद्गुरओ ू ंको
पणाम ! भगवान िशव को पणाम ! भगवान नारायण को पणाम ! सांसािरक मनुष्य के िसर पर गुरू के चरणामृत
का एक िबन्दू िगरे तो भी उसके सब दुःखों का नाश होता है। यिद एक बर्ह्मिनष्ठ पुरूष को
वस्तर् पहनाये जायें तथा भोजन कराया जाय तो सारे िवश् वको वस्तर् पहनाने एवं भोजन
करवाने के बराबर है। क्योंिक बर्ह्मिनष्ठ पुरूष सचराचर िवश् वमें व्याप्त है। सबमें वे
ही हैं। ॐ.....ॐ.....ॐ.....
गगगगगगगगग गगगगग
दुरागर्ही िष् शयअ पनी पुरानी आदतों को िचपका रहता है। वह भगवान की या साकार गुरू
की शरण में नहीं जाता।
यिद िष्यश स चमुच अपनेआपकोसुधारनाचाहताहैतोउसेअपनेआपकेसाथिनखािलसऔरगुरू केपर्ित
ईमानदार बनना चािहए।
जो आज ा क ा र ी नही ह ै , जो िश स त का भं ग करता ह ै , जो गुर क े प ित ईमानदा र नही
है, जो अपन े गुर क े समक अपना हृ द य खोल नही सकता उस े गुर की सहाय स े लाभ नही हो
सकता। वह अपने द्वारा ही सिजर्त कादव कीचड़ में फँसा रहता है। वह अध्यात्म-मागर्
में पर्गित नहीं कर सकता। कैसी दयाजनक िस्थित ! उसका भाग्यसचमुचअत्यंतशोचनीयहै।
िशषय को भगवान अथवा गुर के पित समपूणर, अखण्ड और संकोचरिहत होकर आत्म-समपर्ण
करना चािहए।
गुरू तोकेवलअपने िष्य श क ो, सत्य जानने की अथवा िजस रीित से उसकी आत्मा की
शिकतया िखल उठे वह रीित बता सकते है।
गगगग गग गगगगगगगग
अध्यात्ममागर् में हर एक साधक को गुरू की आवश् यकतापड़ती है।
केवल गुरू ही वास्तिवक जीवन का अथर् एवं उसका रहस्य पर्कट कर सकते हैं तथा
पभु के साकातकार का मागर िदखा सकते है।
केवल गुरू ही िष् शयक ो साधना का रहस्य बता सकते हैं।

िज न ह ो न प भ ु का साक ा त क ा र िकया ह ै व े ही आद शर गुर ह ै ।
ऐसे गुर मन, वचन और कमर् से पिवतर् हैं।
ऐसे गुर अपने मन एवं इिनदयो पर पभुतव रखते है, वे सब शास्तर्ों का रहस्य समझते हैं, वे
सरल, दयालु, सत्यिपर्य एवं आत्मारामी होते हैं।
िशषय के हृदय के अनतसतल मे सुषुपत दैवी शिकत को गुर जागृत कर सकते है।
िशषय ने अगर पूवरजनम मे शुभ कमर िकये होगे, वतर्मान जीवन में भी अगर वह शुभ कमर् करता
होगा, अगर वह संिनष्ठ हृदयवाला तथा ईश् वर-पािपत की तडपवाला होगा तो उसे सदगुर अवशय पापत होगे।
गुरू सेपूरालाभउठानेकेिलएउनकेपर्ित िष्य श म ेंदृढ़शर्द्धाएवंसच्चीभिक्तहोनाचािहए।
िशषय गुर के पित िजतनी माता मे भिकतभाव होगा उतनी माता मे उसे फल की पािपत होगी।
केवल आध्याित्मक गुरू ही मागर् िदखाकर िष् शयक ो पर्भु के पर्ित ले जाएँगे।
गुरू मनुष्यकेरू प मेस ं ाक्षातईश् वरहीहैं।
गगगगग गग गगगगगगगगग
िशषय को गुर की आजा का पालन अनतःकरणपूवरक करना चािहए।
गुरू केद्वारािनिदर्ष्टपद्धितकभीकभी िष्य श क ी रू िचको तत्कालअनुकल ू न भीहो
, िफर भी उसे शर्द्धा
रखना चािहए िक वह उसके िहत के िलए ही है, लाभदायकहीहै।
गुरू िमलनेसेजोलाभहोतेहैऔ ं रजोमानिसक शािन्तका अनुभवहोताहैवहअसीमहोताहै।
अपनी सवोर्च्च िदव्य पर्कृित का भान होते हुए भी भगवान शर्ीकृष्ण ने अपने गुरू
सांदीपनी की कैसी सेवा की और उनके पास अभ्यास िकया यह तो आप जानते ही हैं।
िज स िश ष य को अपन े गुर म े श द ा होती ह ै वह ज ा न प ा प त करता ह ै ।
पूरे हृदय से संकोचरिहत होकर समपूणरतया अपने गुर की शरण मे जाओ।
गुरू पृथ्वीपरसाक्षात्ईश् वरहैअ ं तःउनकीपूजाकरो।
गुरभ ू िक्तएवंगुरस
ू ेवाकेफलस्वरूप आिखरआत्म-साक्षात्कार होता है।
िशषय को गुर की सेवा करते रहना चािहए। जब उसका आतम-समपर्ण पूणर्तः हो जायगा तब गुरू
उसेसत्यका स्पष्टदर्शन कराएँगे।
कुछ भर्ांत िष् शयक ुछ समय के िलए अपने गुरू की सेवा करते हैं। िफर मैंने
िचतशुिद पापत की है ऐसी मूखर कलपना करके गुर की सेवा छोड देते है। उनको सवोतम जान पापत नही होता। उनको
धयेयिसिद नही होती।
उनको थोड़ाबहुतपुण्यअवशय ् िमलताहैलेिकनआत्म-साक्षात्कार नहीं होता। सचमुच, यहएकबड़ा
नुकसान है। उनकी यह गंभीर भूल है।
गगगगगगगगग गग गगगगगगगग
गुरभ ू िक्तऔरगुरस ू ेवासाधनारू पी नौकाकी दोपतवारेहै ंज
ं ो िष्यश क ो संसारसिरताकेउस पारलेजातीहैं।
जो गुर की शरण म े गया ह ै , जो स च च े मन स े गुर की स े व ा करता ह ै , िज सकी
गुरभू िक्तअदभुतहैउसेशोक, िवषाद, भय, पीडा, दुःख या अज्ञान की असर नहीं होती। उसे तत्काल
ईश् वर-साक्षात्कार होता है।
पभु और गुर एक ही है अतः गुर की पूजा करो।
िज न ह ो न े जानन े यो ग य जाना ह ै , िज न ह ो न े प ा प त करन े यो ग य प ा प त िकया ह ै ,
जो मागर िदखान े क े िल ए समथर ह ै ऐस े गुर क े चरणकमल ो का आश य ल े न े वाल े िश ष य
को यों मानना चािहए िक मैं तीन गुना कृताथर् हुआ हूँ।
स्वाथर् का त्याग करना अित किठन है। यिद िष् शयस ्वयं स्वाथर् को िनमूर्ल करने का
दृढ़ िनश् चयकरे और सतत अभ्यास के द्वारा उसे पुष्ट करे तो गुरूकृपा से स्वाथर् िवदा
होता है।
िशषय अगर िजतनी संभव हो सके उतनी वयवहार रीित से, तत्परता से एवं िनश् चयपूवर्कगुरू के
आदेशों का पालन करने का पर्यास करेगा तो उसे पर्भु का साक्षात्कार होगा।
िशषय मे जो गुण होने चािहए उन सबमे गुर की आजा का पालन सवरशेष गुण है।
गगगगगगगगग गग गगगगग
आज्ञापालन अमूल्य गुण है। क्योंिक अगर आप आज्ञापालन का गुण जीवन में लाने
का पर्यास करेंगे तो मनमुखता और अहंभाव धीरे धीरे िनमूर्ल हो जाएँगे।
गुरू की आज्ञका ा सम्पूणर्तःपालनकरनेका कायर् किठनहैिकन्तु अन्तःकरणसेपर्यत्न
िकयाजायतोवहसरल
हो जाता है। गुरू की आज्ञा का पालन िवश् वकी तमाम किठनाइयों पर िवजय पर्ाप्त करने का
अमोघ शस्तर् है।
हरएक सामान्य कायर् में बहुत ही पिरशर्म की आवश् यकताहोती है। अतः सामान्य
कायर् में बहुत ही पिरशर्म की आवश् यकताहोती है। अतः अध्यात्म के मागर् में मनुष्य को
अपने आप पर िकसी भी पर्कार का संयम रखने के िलए तैयार रहना चािहए और गुरू के
पित आजापालन का भाव जगाना चािहए।
आन्तिरक भाव की अिभव्यिक्त के रूप में पूजा, पुषपोपहार और भिकत एवं पूजा के बाहोपचार की
अपेक्षा गुरू की आज्ञापालन का भाव अिधक महत्त्वपूणर् है।
समझो, िकसी को ऐसा लगे िक अमुक पर्कार से आचरण करने से गुरू को अच्छा नहीं
लगेगा, तो उसे ऐसा आचरण नहीं करना चािहए। यह भी आज्ञापालन ही है।
यिदिकसी भीमनुष्यकेपासिवशव ् मेअ
ं ितमूल्यवानमानीजायऐसी सब चीजेकोंलेिक
ं नउसका मनअगरगुरू
के चरणकमल में न लगा हो तो समझो उसके पास कुछ भी नहीं है।
बेशक, सत्य अद्वैत है िकन्तु द्वैत के िवशाल अनुभव के द्वारा ही मनुष्य को आिखर
अद्वैत की उच्चतम चेतना में पहुँचना है। वहाँ पहुँचने की पर्िकर्या में गुरू के
चरणकमलो के पित भिकतभाव सबसे महततवपूणर है। वह एक सवरशेष साधना है।
अपने आपको बार-बारगुरभ ू िक्तमेसं ्थािपतकरनेकेिलए िष्य
श क ो िविभन्नपद्धितयाँकाममेल
ं ानेका
पयत करना चािहए।
हर एक गुरू िजस पर्कार िष् शयग र्हण कर सके उसी पर्कार उपदेश का औषध देते
हैं।
गुरू केचरणकमलोंसेलगेरहो। उसमेस ं ाधनाका रहस्यिनिहतहै।
गगगग गग गगगगगग
पाचीन काल मे िशषय को हाथ मे सिमध लेकर गुर के पास जाना होता था। सिमध गुर के चरणकमल को
आत्मसमपर्ण और शरणागित करने का पर्तीक है।
"यहहमारेकमोर्की ं गठरीहै।आपउसेजलादो।" िशषय हाथ मे सिमध लेकर गुर के पास जाता है। इसका
अथर् यह होता है। इसका बाह्य अथर् ऐसा है िक ऋिष उस समय अिग्नहोतर् करते थे। उनके
यज्ञकेिलएकाष्ठलानेकेरू प मेग ंरु ू की सेवाका यहपर्तीकहै।
आध्याित्मक साक्षात्कार गुरू की परम सेवा का फल है।
मनुस्मृित में कहा गया है िक िष् शयकों ो सदा वेदाध्ययन में िनमग्न रहना चािहए।
परम शदा एवं भिकतभावपूवरक आचायर की सेवा के दौरान िशषय को मिदरा, मांस, तेल, इत, स्तर्ी, स्वादु भोजन,
चेतन पािणयो को हािन पहुँचाना, काम, कर्ोध, लोभ, नृत्य, गान, कर्ीड़ा, वािजन्तर् बजाना, रंग, गपशप
लगाना, िनन्दा करना, अित िनदर्ा लेना आिद से अिलप्त रहना चािहए। उसे असत्य नहीं
बोलनाचािहए।
गुण एवंज्ञानकेभण्डारसमानगुरू कीिनगरानीमें िष्य श क ो अपनेचािरत्र्यका योग्यिनमार्णकरनाचािहए।
अनुकर्म
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
गगगगगगग 4
गगगगगगगगग गग गगगगगग
गगगगग गग गगगग
फल की आसिक्त रिहत शुद्ध हृदय की गुरूभिक्त से मुिक्त पर्ाप्त होती है।
शोक एवं भय से मुिकत हो ऐसे गुर के चरणकमल के सािनधय मे जाओ।
अपने दैवी गुरू के चरणकमलों में अपना हृदय रख दो।
अपने गुरूदव ् ार को, गुरआ ू शर्मको साफकरकेसजानेमेअ ं पनेहाथको काममेल
ं गाओ।
गुरू िष्य
श क े बीचका सम्बन्धबहुतहीपिवतर्है।
जो गुर की स े व ा करता ह ै वह सब गु ण ो को प ा प त करता ह ै ।
अपनी आँखों का उपयोग अपने िदव्य गुरू की छवी (फोटो) को िनहारने में करो।
अपने मस्तक का उपयोग सदगुरू के पावन चरणों में झुकाने के िलए करो।
हे मनुष्य ! गुरू केचरणकमलोंका आशर्यले।काम, आसिक्त, अिभमान आिद को त्याग दे,
क्योंिक वे गुरूसेवा में मुख्य िवघ्न हैं।
कोई भी तृष्णा से रिहत, भिकतभावपूवरक गुर की भिकत करो तो आपको उनकी कृपा पापत होगी।
अपनी सम्पित्त, अपने शुभ कमर्, अपना तप आिद अपने पावन गुरू को अपर्ण कर दो।
तदनन्तर ही उनकी कृपा पर्ाप्त करने के िलए आपका हृदय शुद्ध होगा।
गुरू एवंसंतोंकेचरणोंकी धूिलसेआपकेहृदयको शुद्धकरो। तभीआपकाहृदयपिवतर्होगा, तभी आप
भिकत कर सकोगे।
पेम एवं आदर से अपने गुर एवं संतो की सेवा करो। उनका साकात् पभु मानो। तभी आप भिकत कर सकोगे।
गगगगगगगग गग गगग
गुरसू ेवायोगका अथर्हैगुरू कीिनःस्वाथर् सेवा।
गुरू की सेवामानेमानवजाितकी सेवा।
गुरस ू ेवाकेमनकी अशु िद्नष्टहोतीहै।गु
ध रस
ू ेवाहृदयशु िद्के
ध िलएएकबलवानचीजहै।अतःभावनापूवर्क
गुरू की सेवाकरो।
गुरू की सेवािदव्यपर्काश, ज ा न और कृ प ा को ग ह ण करन े क े िल ए मन को त ै य ा र करती
है।
गुरस ू ेवाहृदयको िवशालबनातीहै , सब िवघ्नों को हटाती है। गुरूसेवा हृदयशु िद्धके िलए एक
असरकारक साधना है।
गुरू केसेवामनको सदापर्गितशीलऔरचपलरखतीहै।
गुरू की सेवाकेकारणदैवीगुण जैसे िक दया, नमर्ता, आज्ञापालन, पेम, शदा, भिकत, धैयर,
आत्मत्याग आिद का िवकास होता है।
गुरस ू ेवासेईष्यार्, िधकार एवं दूसरो से बडा होने का भाव नष होता है।
जो गुर की स े व ा करता ह ै वह अहं भ ा व और ममता को जीत सकता ह ै ।
जो िश ष य गुर की स े व ा करता ह ै वह सचमु च तो अपन े आपकी ही स े व ा करता ह ै ।
गुरस ू ेवायोगकेअभ्याससेअवणर्नीयआनन्दऔरशािन्तपर्ाप्तहोतीहै।
िशषय जब गुर के घर रहता हो तब उसे संतोषी जीवन िबताना चािहए। उसे पूणरतः आतमसंयम करना चािहए।
अपने गुरू के समक्ष िष् शयक ो धीरे से , मधुरता से एवं सत्य बोलना चािहए। उसे
कठोर एवं गलीच शब्दों का उपयोग नहीं करना चािहए। गुरू के द्वार पर रहकर, गुरू का अन्न
खाकर गुरू के समक्ष झूठ बोलना अथवा गुरूभाइयों के साथ वैर रखना यह िष् शयक े रूप में
असुर होने का िचन्ह है। िष् शयक े रूप में िनिहत ऐसा असुर गु-िशषय रू परमपरा को कलंिकत करता
है। गुरू के हृदय को ठेस पहुँचे ऐसा आचरण करने वाला िष् शयअ पना ही सत्यानाश करता
है। जो गुरू का िवरोध करता है वह सचमुच हतभागी है।
गगगगग गगगगगग ग गगगग गगगग गगगग गगगग।
गग गगगगगग गग गगगग गग गगग गगगगग गग गगगगग
गुरू की एवंगुरू केकायर् कीिनन्दाकरनेवालािनन्दक हजारोंजन्मोंतक मेंढकहोकरपड़ारहताहै।
तुलसीदास जी ने ठीक ही कहा हैः
गगगगगगग गगगगगग गगगगगग गग गगगगग
गगगगगग गगग गगगगग गगगगगगग
गगग गगगग गगगगगग गगगगग गगगगगगग
गगगग गगगगग गग गगगगगग गग गगगग
गुरभ ू क्तोंको, िशषयो को एवं सितशषयो को चािहए िक वे ऐसे आसुरी वृितवाले, शदा िडगाने वाले अथवा अपने
हल्के व्यवहार से गुरू के नाम को, गुरू केधामको क्षितपहुँचानेवालेअसुरोंको सावधानकर देए ं वंस्वयंभी
उनसेसावधानरहें।
पिसद गुर के दार पर ऐसे आसुरी वृित के लोग िशषय के रप मे घुस जाते है। िशषय तो उसे कहा जा सकता है
जो अपन ा हलका स वभाव छोड न े क े िल ए त त प र हो , गुरू केिसद्धान्तकेमुतािबकचलनेकेिलएसतत
सजाग हो। गुरू को या गुरू के द्वार को लांछन लगे ऐसा आचरण कोई भी िष् शयक र ही नहीं
सकता। अगर करता हुआ िदखे तो वह िष् शयक े रूप में असुर है। सश ित् ष्य कोोंऐसे कपटी
िशषय से सावधान रहना चािहए।
िशषय को अपने गुर की िननदा नही करना चािहए।
जो गुर की िन न द ा करता ह ै वह रौरव नकर म े िग रत ा ह ै ।
जो खान े क े िल ए ही जीता ह ै वह पापी ह ै । जो गुर की स े व ा करन े क े िल ए ही खाता
है वह सच्चा िष् शयह ै।
जो गुर का ध य ा न करता ह ै उस े बह ु त कम भोजन की आव श यकता रह जाती ह ै ।
गगगग गग गगगग
केवल गुरू की कृपा से ही आप अपने मन को िनयंतर्ण में रख सकते हैं।
आप गुरू की कृपा से ही समािध या अितचेतना में िस्थत हो सकते हैं।
िवराग, अनासिक्त, इिनदय-िवषयक भोगिवलासों के पर्ित उदासीन हुए िबना िकसी को
गुरूकप
ृ ानहींपचसकती।
मन के सहकार के िसवाय इिन्दर्यों से कुछ नहीं हो सकता। मन को गुरूकृपा से वश
में िकया जा सकता है।
िशषय जब गुर की िनगरानी मे रहता है तब उसका मन इिनदय-िवषयक भोगिवलासों से िवमुख बनने
लगताहै।
गुरओू ंएवंसंतोंकेसमागमसे , धािमरक गंथो के अभयास के, साित्त्वक भोजन से, पभु के नाम आिद से
साित्त्वक वृित्त में वृिद्ध होती है।
राजसी पर्कृित का मनुष्य अपने पूरे हृदय से एवं अन्तःकरण से गुरू की सेवा नहीं
कर सकता।
पाणायाम और गुर के नाम का जप करने से मन अनतमुरख होता है।
बर्ह्मशर्ोितर्
यएवंबर्ह्मिनष्ठगुरू केपास शास्तर्ोक
ं ा अभ्यासकरो, तभी आपको मोक्ष पर्ाप्त होगा।
बर्ह्मचारीका मुख्यकत्तर्व्यअपनेगुरू की सेवाकरनाहै।
गगगग गग गगगगग गगगग गगगगग
पातःकाल मे 4 से 6 के बीच गुरू के स्वरूप का ध्यान करो तो उनकी कृपा का अनुभव कर
सकोगे।
अपने गुरू को फोटो अपने सामने रखो। ध्यान के आसन में बैठो। धीरे-धीरे फोटो पर
मन को एकागर् करो। मन को उनके चरणकमल, हाथ, छाती, गल,ेिसर, मुख, आँखों आिद पर
घुमाओ। आँखकी पुतलीनिहलेइस पर्कारसततपाँचिमनटतक िनहारो। िफरआँखेबन्दकरके ं उसी पर्कारभीतर
फोटो को िनहारने का पर्यास करो। इस िकर्या का पुनरावतर्न करो। िफर अच्छी तरह ध्यान कर
सकोगे।
गुरू केस्वरूप का ध्यानकरो। ध्यानकेदौरानआपकोिदव्यआित्मकआनन्द, रोमांच, शािनत आिद का
अनुभव होगा। कुण्डिलनी शिक्त जागृत होगी, हृदय भाव-िवभोर होगा। रोमांच, शािनत, आिद का
अनुभव होगा। रोमांच, हृदय, रूदन आिद अष्टसाित्त्वक भाव में आपका मन िवचरण करने
लगेगा। िष्य
श क ो गुरम ू ख
ु ताकी यहिनशानीहै।िफरआपकोसाधनाकरनीनहींपड़ ,ेसाधना
गी अपने आप होने
लगेगी।
सांसािरक लोगों का संग, अिधक खाना, अिभमानी एवं राजसी पर्कृित, िनदर्ा, काम,
कर्ोध, लोभ– येसब गुरूकप ृ ाकरनेमेिवघ्
ं नहैं।
गुरू केस्वरूप कािचन्तनकरनेमेिनदर् ं ,ा मन की चंचलता, सुषुप्त इच्छाएँ जागना, हवाई
िकल्ले बाँधना, आलस्य, रोग एवं आध्याित्मक अिभमान िवघ्न हैं।
गुरू सब शभ ु गुणोंका धामहै।
िशषय के िलए गुर जीवन का सवरसव है।
गुरभ ू िक्तजन्म, मृत्यु एवं जरा को नष्ट करती है।
गुरभ ू िक्तईश् वरकृपापर्ाप्तकरनेका एकमातर् साधनहै।
गगगगग गग गगगग गगगगगगगगगग
जो आ त म ज ा न का मागर िदखात े ह ै व े पृ थ वी पर क े स च च े द े व ह ै । गुर क े
िसवाय यह मागर् कौन िदखा सकता है ?
गुरू पर्भुपर्ािप्क
ता मागर्
िदखातेहैऔ ं र िष्य
श क ो सदाकेिलएसुखी करतेहैं।
जो पू णर त ा का मागर िदखात े ह ै व े गुर ह ै ।
संस्कृत में 'गु' शबद का अथर अनधकार या अजान है और 'रू' का अथर् दूर करने वाला है।
अन्धकार या आवरणरूपी अज्ञान का नाश करने के कारण वे गुरू कहलाते हैं।
आध्याित्मक गुरू िनरन्तर उपदेश से साधक को तालीम देते हैं।
गुरू सच्चे िष्यश क ो पर्भुकी ओरसेपर्ाप्तभेंटहैं।
तमाम शास्तर् जोर देकर गुरू की आवश् यकतामानते हैं।
शीराम जैसे दैवी अवतार ने भी शी विशषजी को अपने गुर माने थे और उनकी आजाओं का पालन िकया था।
िशषय दुनयावी दृिष से चाहे िकतना भी महान हो, िफर भी गुरू की सहाय के िबना वह िनवार्णसुख का
स्वाद नहीं चख सकता।
गुरू केचरणकमलकी धूिलमेस ं ्नानिकयेिबनाकेवलतपश्चयकरन ार् ेसेयादानसेयावेदोंकेअध्ययनसेज्ञान
पापत नही हो सकता।
िशषय को सदा अपने गुर की मूितर का पूजन करना चािहए और उनके पिवत नाम का जप करना चािहए।
साधक को अपने गुरू का या िकसी भी संतों का बुरा बोलना या चाहना नहीं चािहए।
साधक चाहे िकतना भी महान हो िफर भी उसे गुरू के समक्ष िफजूल बातें नहीं करना
चािहए।
गुरू पृथ्वीपरदेवदूतहै , ंनहीं नहीं, देव ही हैं।
गुरू को िष्य श क ी सेवायासहायका आवशय ् कतानहींहैिकन्तु सेवाकेद्वारािवकास करनेकेिलएवे िष्य
शक ो
एक मौका देते है।
गगगगगगगगगग गग गगगगग
िकतने भी महान होने के बजाय भी तमाम संतों, ऋिषयों, पयगमबरो, जगदगुर ओं ,
अवतारों एवं महापुरूषों को अपने गुरू थे।
गुरू सब सदगुणएवंशभ ु वस्तुओंकी खानहैं।
गुरू केसािन्न ध्यसेसब संशय, भय, िचनता और दुःख का नाश होता है।
गुरू मेअं चलशर्द्धाऔरगुरू केपर्ितदृढ़भिक्तभावसे िष्य श स ब कायोर्म ंेिसिद्
ं ध एवंभौितकआबादीपर्ाप्तकर
सकता है।
भवसागर मे डू बते हुए िशषय के िलए गुर जीवन संरकक नौका है।
अगर आपको कोई भी कला सीखना हो तो उस कला के िवशेषज्ञ गुरू के पास जाना
चािहए।
साधारण पर्कार के भौितक ज्ञान की बाबत में अगर ऐसा हो तो आध्याित्मक मागर्
में गुरू की आवश् यकतािकतनी सारी होनी चािहए ?
गुरू की सहायकेिबनामनको संयममेल ं ानेकी कोश श ि जो
करतेहैव ंेऐसेव्यापारीजैसेहैिजनकोअपन
ं े
जहाज क े िल ए अ च छ ा सं च ा लक नही िम ल ा ह ै ।
अध्यात्ममागर् काँटोवाला और सीधी चड़ाई वाला मागर् है। पर्लोभन आपके ऊपर
हमला करेंगे। उसमें पतन की संभावना है। अतः ऐसे गुरू के पास जायें जो इस मागर् के
जानकार हो ।
गुरू का िचन्तनकरनेसेसुख, भीतरी शिकत, मन की शािन्त एवं आनन्द पर्ाप्त होता है।
गुरूिचन्तनसे , गुरचू चार्सेउनकेदैवीस्वभावका संचारहमारेजीवनमेह ं ोताहै।
गुरू की पर्शिस्तमानेईश् वरकी पर्शिस्त।
गगगग गग गगगगग गगगगगगग
इस किलयुग मे आतम-साक्षात्कारी सदगुरू की भिक्त के द्वारा ही ईश् वर-साक्षात्कार करना
है। सत्यस्वरूप ईश् वरका साक्षात्कार िकये हुए गुरू किलयुग में तारणहार हैं।
गुरू सेदीक्षापर्ाप्तहोजायेयहबड़ेभाग्यकी बातहै।
मंतर्चैतन्य याने मंतर् की गूढ़ शिक्त गुरू की दीक्षा के द्वारा ही जागृत होती है।
आज से ही सम्पूणर् भिक्तभावपूवर्क गुरू की सेवा करने का िनश् चयकरो।
आध्याित्मकता की खान के समान गुरू की सहाय के िबना आध्याित्मक पर्गित संभव
नहीं है।
गुरू साधकोंकेआगेसेमायाका आवरणएवंअन्यिवक्षेपदूर करतेहैऔ ं रउनकेमागर् मेपं र्काशकरतेहैं।
माता को देव समान जानो, िपता को देव समान जानो, गुरू को देवसमानजानो, अितिथ को देव
समान जानो।
गुरू की सेवाकेिबनापिवतर् शास्तर्ोक
ं ा अध्ययनकरनायहसमयका दुवयर् ् यहै।
गुरदू िक्षणािदयेिबनागुरू केपासपिवतर् शास्तर्ोक
ं ा अध्ययनकरनायहसमयका दुवयर् ् यहै।
गुरू की इच्छाओंको पिरपूणर् िकयेिबनावेदान्तकेपुस्तकोंका, उपिनषदोंका एवंबर्ह्मसूतर्ोक ं ा अभ्यासिकया
जाय तो उसस े कल याण नही होता , ज ा न नही िम लत ा।
लम्बेसमयकी गुरस ू ेवाकेबादआपकाशुद्धएवंशान्तमनआपकागुरू बनताहै। जैसे पारसकेसंगसेलोह
सुवणर् बनता है वैसे गुरू की िचरकाल पयर्न्त सेवा से आपमें भी गुरूत्व पर्कट होता है।
गगगगगगगग गग गगगगगगगगगग
चाहे िकतने ही िफलासफी के गंथ पढो, सारे िवश् वका पर्वास करके व्याख्यान करो, हजारों
वषर् तक िहमालय की गुफा में रहो, वषोर्ं तक पर्ाणायाम करो, जीवन पयर न त शीष ा स न करो
िफर भी गुरू की कृपा के िबना आपको मोक्ष की पर्ािप्त नहीं हो सकती। रामायण में कहा हैः
गगगगगगग गगगगगग गगगगग ग गगग।
गगगग गगगगगग गगगग गग गगग।।
आध्याित्मक गुरू यह नहीं िदखा सकते िक बर्ह्म ऐसा है या वैसा है। पर्त्यक्ष
अनुभव होने से पहले िष् शयस मझ नहीं पाता िक बर्ह्म कैसा है। िकन्तु गुरूकृपा िष् शयक ो
अपनी हृदय गुहा में ही बर्ह्म का पर्त्यक्ष अनुभव गूढ़ रीित से करा सकेगी।
अपने माता, िपता एवं बुजुगों को मान दो।
अगर गुरू इजाजत दें तो उनकी पैरचंपी करो।
हर एक को अपने ज्ञान से, गुरू की सहायसेवेदान्तगर्ंथोक ं ा सच्चारहस्यपर्ाप्तकरकेअपनेभीतर
बर्ह्मका अनुभवकरनाचािहए।
साधक को गुरू अथवा आध्याित्मक पथदर्शक िमले हों िफर भी उसे अपने पर्यासों से
ही सब तृष्णाओं, वासनाओं एवं अहंभाव का नाश करना चािहए और आत्म-साक्षात्कार करना
चािहए।
गगगग गगगग गग गगगगगगग गगगग गगगग गगगगगगगगग
गुरू केचरणकमलोंका आशर्यलेने सेजोपरमआनन्दका अनुभवहोताहैउसकी तुलनामेत ं ीनोंलोकोंका सुख
भी नही आ सकता।
अपने गुरू के साथ कभी लड़ो मत। उनको कभी कोटर् मत ले जाओ।
गुरू की आज्ञक ा ा उल्लंघनकरनेसेसीधेनरक मेप ं हुँचतेहैं।गुरद
ू र्ोहीखुद तोडूबताहै, अपने कुल को भी
कलंिकत करता है।
गगग गगगगग गगगगग । गगगग गगग गग गग गगगग
गगगग गगगग गगग गगग गगगग गगगग गगगग गगगगग
पातकी एवं सवाथी लोग सदगुर के िलए चाहे कैसी भी अफवाहे फैलाये िफर भी सुज समाज एवं िशषयगण सदगुर
के पावन सािन्नध्य और उनकी मधुर याद से अपना हृदय पावन रखते हैं।
गुरू एवंज्ञानीपुरषू ोंका सािन्न
ध्यमनुष्यजीवनमेक ं भी-कभी ही िमल सके ऐसा दुलर्भ मौका है।
िकसी भी पर्कार के ज्ञान की पर्ािप्त, िवशेषतः आत्मा िवषयक मूल्यवान ज्ञान की
पािपत गुर से ही हो सकती है।
गुरू की परोपकारीकृपा िष्य श क े िलएसवर्स्वहै।आत्मज्ञानकेद्वारखोलनेवालीगुरू की कृपाहीहै।
आत्मसमपर्ण का अथर् है अपने आपको सम्पूणर्तः गुरू के शरण में छोड़ देना।
तृष्णा एवं अहंभाव आत्मसमपर्ण में कदम कदम पर िवघ्नरूप बनते हैं।
भगवान शीकृषण ने अपने गुर सादीपनी के चरणो का सेवन िकया था। उनहोने अपने गुर की सेवा की थी। वे
अपने गुरू के िलए लकिड़याँ लाते थे। भगवान शर्ीराम के गुरू वश िष्ठजीथे िजन्होंने
उनको उपदेशिदया। देवोंकेगुरू बृहस्पितहैं।दैवीआत्माओंमेस ं बसेमहानसनतकुमारदिक्षणामूितर्
केचरणोंमेब
ंैठे
थे।
साधना का रहस्यमय मागर् गुरू की कृपा के द्वारा ही जाना जा सकता है।
अगर आप सच्चे हृदय से, आतुरतापूवर्क पर्ाथर्ना करेंगे तो ईश् वरगुरू के स्वरूप
में आपके पास आयेंगे।
गगगगग गगगगगग गग गगगगगगगग
अगर आपको 'पाथिमक िचिकतसा' का ज्ञान पाना हो तो केवल उसके िवषयों की चचार्
करके पा सकते हैं, िकन्तु आप अगर एम.बी.बी.एस. कहलाना चाहते हैं, िफजीश ियनया
सजर्न के रूप में काम करना चाहते हैं तो आपको िनयिमत रूप में छः वषर् का अभ्यास
करना चािहए। इसी पर्कार आप उपासना, पाथरना आिद के दारा देवताओं को पसन करके उनकी कृपा पापत कर
सकते हैं। िकन्तु पर्त्यक्ष आध्याित्मक साक्षात्कार के िलए आपको तीन चीजें चािहएः
गुरसू ेवा, गुरभ
ू िक्तऔरगुरूकप ृ ा।
गुरू को िष्य
श क ा आत्मसमपर्णऔरगुरू की कृपायेदोचीजेआपसमे ं ज
ंडु ़ीहुई हैं।
शरणागित गुरकृपा को खीच लाती है और गुरकृपा से शरणागित समपूणर बनती है।
िशषय संसारसागर को पार कर सके इसके िलए बहवेता गुर आतमजान देकर उसका अमूलय िहत करते है। यह
काम गुरू के िसवाय और कोई नहीं कर सकता।
िज सक े ऊपर सद ै व गुर की कृ प ा रहती ह ै ऐस े िश ष य को ध न य व ा द ह ै ।
िहन्दूओं के पुराणों में एवं अन्य पिवतर् गर्ंथों में गुरूभिक्त की महत्ता गाने
वाले सैंकड़ों उदाहरण भरे हुए हैं।
िज सको स च च े गुर प ा प त ह ु ए ह ै ऐस े िश ष य क े िल ए कोई भी वस तु अप ा प य नही
रहती।
आप अपने इष्ट देवता को गुरूकृपा के द्वारा ही पर्त्यक्ष िमल सकते हैं।
गुरू एकपर्कारका माध्यमहैिजनक
ं ेद्वाराईश् वरकी कृपाभक्तकेपर्ितबहतीहै।
गगगगग गगगग गग गगगगगगग गगगग गगगगग गगगगगग गगगग, गगगग
गगगगगगग, गगगग गगगगगग गग गगगग गगगगग गगगगगगग गग गगगगग गगग
गगगगग गगगगगग गगग
िशषय के िलए तो गुर से उचचतर देवता कोई नही है।
सचमुच गुरू के सत्संग िजतनी उन्नितकारक दूसरी एक भी वस्तु नहीं है। गुरू की
आवश् यकताके सम्बन्ध में पर्ाचीन काल के तमाम साधु-संन्यािसयों का एक समान ही
अिभपर्ाय था।
गुरू केिबनासाधक अपनेलक्ष्यपरपहुँचसकताहैऐसा कहनेका अथर्होताहैिक पर्वासीबाढ़मेउ ं फनतीहुई
तुफानी नदी को नौका की सहायता के िबना ही पार कर सकता है।
सत्संग माने गुरू का सहवास। उस सत्संग के िबना मन ईश् वरकी ओर मुड़ नहीं सकता।
गगगगगगगगगग गगगग गग गगग गग गगगग गग गगगगगग गग गगगगग
गगगगगग गग गग गग गगगगगगग गगगग गगगगगग गगग
हे साधकों ! मनमुखी साधना कभी करना नहीं। पूणर् शर्द्धा और भिक्तभाव से गुरूमुखी
साधना करो।
िज सन े गुर िकय े ह ै वह उपिन षदो म े विणर त ब ह को जानता ह ै ।
गुरू साधक जगतकेपर्काशकदीपहैं।
िनष्ठावान िष् शयक े िलए जो गुरू सु,खशािनत, आनन्द और अमरत्व का मूल एवं धर्वतारक
हैं ऐसे गुरू की जयजयकार हो !
आपके गुरू अथवा योग िसखाने वाले आचायर् आपको पर्णाम करें उसके पहले आप
उन्हेपर्
ं णामकरो।
योगकेसाधक को अपनेगुरू मेए ं वंईश् वरमेशंर्द्धाऔरभिक्तभावहोनाजरूरीहै।
उसेगुरू केउपदेशमेए ं वंपिवतर्
शास्तर्ोम
ं ेश
ंर्द्धाहोनाजरूरीहै।
अनुकर्म
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
गगगगगगग 5
गगगग गग गगगगगग
गगगग गग गग गगगगग गगगगग
रसोई सीखने के िलए आपको िसखाने वाले की आवश् यकतापड़ती है, िवज्ञान
सीखने के िलए आपको पर्ाध्यापक की आवश् यकतापड़ती है। कोई भी कला सीखने के िलए
आपको गुरू चािहए। तो क्या आत्मिवद्या सीखने के िलए गुरू की आवश् यकतानहीं है ?
संसारसागर से उस पार जाने के िलए सचमुच गुरू ही एकमातर् शरण है।
सत्य के कंटकमय मागर् में आपको गुरू के िसवाय और कोई मागर्दर्शन नहीं दे
सकता।
गुरूकपृ ाकेपिरणामअदभुतहोतेहैं।
आपके दैिनक जीवन के संगर्ाम में गुरू आपको मागर्दर्शन देंगे और आपका
रक्षण करेंगे।
गुरू ज्ञानकेपथपर्दर्शक हैं।
गुरू, ईश् वर, बर्ह्म
, आचायर्, उपदेशक, दैवी गुरू आिद सब समानाथीर् शब्द हैं।
ईश् वरको पर्णाम करो उससे पहले गुरू को पर्णाम करो। क्योंिक वे आपको ईश् वरके
पास ले जाते है।
आपके गुरू से मंतर् की दीक्षा लो। उससे आपको पर्ेरणा िमलेगी और आप उच्च
िस्थित पर पहुँच सकेंगे।
आपके बदले में गुरू का साधना नहीं करेंगे, साधना तो आपको ही करना होगा।
गुरू आपकोसच्चीराहिदखाएँगे।
गुरू िष्य
श क े िलएसच्चायोगपसंदकर सकतेहैं।
गुरू की कृपासे िष्यश अ पने मागर्
मेिस्
ं थतिवघ्नोंएवंसंशयोंको पारकर सकताहै।
गुरू िष्य
श क ो भयस्थानोंमेसं ेएवंबन्धनोंमेस
ं ेउठालेंगे।
अपने गुरू की सेवा करने के िलए अपने पर्ाण एवं शरीर का बिलदान देने की
तैयारी रखो, तब वे आपकी आत्मा की सँभाल लेंगे।
आपको उठाकर समािध में रख देंगे ऐसा चमत्कार कर िदखाने की अपेक्षा आपके
गुरू सेरखनानहीं। आपस्वयंकिठनसाधनाकरो। भूखेआदमीको खुद हीखानाचािहए।
अगर आपको सदगुरू पर्ाप्त नहीं होंगे तो आप आध्याित्मक मागर् में आगे नहीं
बढ़सकेंगे।
अपने गुरू की पसन्दगी सोच-िवचार कर एवं धैयर् से करो। क्योंिक बाद में आप गुरू
से अलग नहीं हो सकते। अलग होने में बड़े में बड़ा पाप है।
गुरू-िशषय का समबनध पिवत एवं जीवन पयरनत का है। यह बात ठीक से समझ लेना।
गगगगग गग गगगगग

पूर अनतःकरण से हृदयपूवरक गुर की सेवा करो। िकसी भी पकार की अपेका से रहित होकर आपके गुर के पित
पेम रखो। अपनी आय का दसवा िहससा आपके गुर को समिपरत करो। गुर के चरणकमलो का धयान करो। इसी जनम मे
आपको आत्म-साक्षात्कार होगा। यह साधना का रहस्य है।
गुरू की पूजाकरनेकेिलए िष्यश क े िलएगुरव ू ारपिवतर्
िदनहै।
िज नको आ त म ा िव षयक ज ा न ह ै , शासतो मे जो पारंगत है, जो तमा म उत कृष गु ण ो स े युक त
हैं वे सदगुरू हैं।
िज सको आ त म -साक्षात्कार िसद्ध िकये हुए गुरू िमलते हैं वह सचमुच तीन गुना
भागयशाली है।
अपने गुरू की क्षितयाँ न देखो। अपनी क्षितयाँ देखो और उन्हें दूर करने के िलए
ईश् वरसे पर्ाथर्ना करो।
गुरू की कसौटीकरनामुशि ्कलहै।एककबीरहीदूसरेकबीरको पहचानसकताहै।अपनेगुरू मेईं श् वरके
गुणोंका आरोपणकरो। तभीआपकोलाभहोगा।
िज नक े सािन ध य म े आपको आ ध य ाितम क उन ित महसू स हो , िज नक े व क त व य स े
आपको पर्ेरणा िमले, जो आपक े सं शय ो को दू र कर सक े , जो काम , कर्ोध, लोभसेमुक्तहों, जो
िनःस्वाथर् हों, पेम बरसाने वाले हो, जो अहं प द स े मु क त हो , िज नक े व य व ह ा र म े गीता , भागवत,
उपिनषदोंका ज्ञानछलकताहो, िज न ह ो न े प भ ु न ा म की प य ाऊ लगाई हो उन ह े आप गुर करना। ऐस े
जागृ त पुरष क े शरण की खोज करना।
गगगगगगगगग गग गगगग गगगगगगग
गुरू केपासजानेकेिलएआपयोग्यअिधकारीहोनेचािहए। आपमेवैरा ं ग्यकी भावना, िववेक, गांभीयर्
,
आत्मसंयम एवं सदाचार जैसे गुण होने चािहए।
अगर आप ऐसा कहेंगे िक 'अच्छा गुरू कोई है ही नहीं' तो गुरू भी कहेंगे िक 'कोई
अच्छा िष् शयह ै ही नहीं। ' आप िष् शयक ी योग्यता पर्ाप्त करें तो आपको सदगुरू की योग्यता ,
महत्ता िदखेगी और समझ में आयेगी।
गुरू आपकेउद्धारकएवंसंरक्षकहैं।सदैवउनकी पूजाकरो, उनका आदरकरो।
गुरपू द भयंकरशापहै।
जो सत् , िचत् और परमाननद सवरप है ऐसे गुर को सदा साषाग पणाम करो।
िशषय को अपने गुर की मूितर सदा समरण मे रखना चािहए, गुरू केपिवतर्नामका सदाजपकरनाचािहए, उनकी
आज्ञा का पालन करना चािहए। इसी में साधना का रहस्य िनिहत है।
िशषय को गुर की पूजा करना चािहए कयोिक गुर से बडा और कोई नही है।
गुरू केचरणामृतसेसंसारसागरसूख जाताहैऔरमनुष्यआवशय ् कआत्मसम्पित्पर्
ताप्तकर सकताहै।
गुरू का चरणामृत िष्य
श क ी तृषा शान्तकर सकताहै।
आप जब ध्यान करने बैठें तब अपने गुरू का एवं पूवर्कालीन सब संतों का स्मरण
करें। आपको उनके आशीवार्द पर्ाप्त होंगे।
महात्माओं के ज्ञान के शब्द सुनें और उनका अनुसरण करें।
शासत एवं गुर के दारा िनिदरष शुभ कमर करे।
शािनत का मागर िदखाने के िलए गुर अिनवायर है।
'वाहे गुर'ू यागुरू नानककेअनुयाइयोंका गुरम ू ंतर्
है।'गर्न्थसाहब' पढो तो आपको गुर की महता का
पिरचय होगा।
गुरू की पूजाकरकेसदाउनका स्मरणकरो। इससेआपकोसुख पर्ाप्तहोगा।
शदा माने शासतो मे, गुरू केशब्दोंमेईं श् वरमेऔ
ं रअपनेआपमेिव ं शव् ास।
िकसी भी पर्कार के फल की अपेक्षा से रिहत होकर गुरू की सेवा करना यह सवोर्च्च
साधना है।
शवण माने गुर के चरणकमलो मे बैठकर वेद का शवण करना।
गुरस ू ेवामहानशुिद्ध
करनेवालीहै।
आत्म-साक्षात्कार के गुरू की कृपा आवश् यकहै।
िज तन ी भिकत भ ा व न ा प भ ु क े प ित रखनी चािह ए उतनी ही गुर क े प ित रखो। तभी सत य
की अनुभूित होगी।
सदैव एक ही गुरू से लगे रहो।
ईश् वरआिद गुरू हैं िजनको स्थान एवं समय (देश-काल) की सीमा नहीं होती। एक
शाशत युग तक वे समग मनुषय जाित के गुर है।
कुण्डिलनी शिक्त को उसकी सुषप ु ्त अवस्था में से जागृत करने के िलए गुरू की
अिनवायर् आवश् यकतारहती है।
गगगग गग गगगगगग गग गगगगगग गगग
अज्ञान का नाश करने वाले तथा ज्ञान देने वाले सदगुरू के चरणकमलों में
कोिट पर्णाम !
समदशीर् संत-महात्मा और गुरू के सत्संग का एक भी मौका चूकना नहीं।
आपके स्थूल मन के कहे अनुसार कभी चलना नहीं। आपके गुरू के वचनों का
अनुसरण करें।
उच्चआत्माओंएवंगुरू केस्मरणमातर्सेभौितकमनुष्योंकी नािस्तकवृित्तयोक ं ा नाश होताहैऔरअिन्तममुिक्त
हेतु पर्यास करने के िलए उनको पर्ेरणा िमलती है। तो िफर गुरूसेवा की मिहमा का तो
पूछना ही कया ?
िज स प क ा र दो खरगोशो क े पी छ े दौड न े वाल ा मनु ष य दो म े स े एक को भी पकड
नहीं सकता उसी पर्कार जो िष् शयद ो गुरूओं के पीछे दौड़ता है वह अपने आध्याित्मक
मागर् में सफलता नहीं पर्ाप्त कर सकता।
अहंभाव का नाश करने से िष् शयकत्व ी शुरूआत होती है।
गगगगगगगग गग गगगगग गग गगगगगगगगगग गग गगगगगगगग।
िशषयतव की पहचान माने गुरभिकत।
गुरू केचरणकमलोंमेआ ं जीवनआत्म-समपर्ण करना यह िष् शयकत्व ी िनशानी है।
गुरदू ेवकी मूितर्कािनयिमतध्यानकरनायह िष्यत् श कव ी नींवहै।
गुरू सेिमलनेकी उत्कट इच्छाऔरउनकी सेवाकरनेकी तीवर्आकांक्षम ा ुमुक्षत्वकीिनशानीहै।
देव, िद्वज, आध्याित्मक गुरू एवं ज्ञानी पुरूषों की पूजा, पिवतता, सरलता, बर्ह्मचयर् और
अिहंसा शरीर का तप है।
बर्ाह्मणो
, ंपिवत आचायों एवं जानी पुरषो को पणाम करना, बर्ह्मचयर्
औरअिहंसायेशारीिरकतपश्चयार् है
एँं।
माँ बाप और आचायोर्ं की सेवा, गरीबऔररोिगयोंकी सेवाभी शारीिरकतपश्चयहै। ार्
गगगग गगगगगग गगगगगग गग गगगगग
बर्ह्मिवषयकज्ञानअितसूक्ष्महै। शंकाएँपैदाहोतीहैऔ ं रउनकोदूर करनेकेिलएएवंमागर् िदखानेकेिलए
बर्ह्मज्ञानआी ध्याित्मकगुरू की आवशय ् कतारहतीहै।सत्यकेसच्चेखोजीको सहायभूतहोनेकेिलएगुरू अत्यन्त
महत्त्वपूणर् भूिमका िनभाते हैं।
आध्याित्मक गुरू साधक को अपनी पर्ेमपूणर् एवं िववेकपूणर् िनगरानी में रखते हैं
तथा आध्याित्मक िवकास के िविभन्न स्तरों में से उसे आगे बढ़ाते हैं।
आध्याित्मक गुरू साधक को अपनी पर्ेमपूणर् एवं िववेकपूणर् िनगरानी में रखते हैं
तथा आध्याित्मक िवकास के िविभन्न स्तरों में से उसे आगे बढ़ाते हैं।
सच्चे गुरू सदैव िष् शयक े अज्ञान का नाश करने में तथा उसे उपिनषदों का ज्ञान
देने में संलग्न रहते हैं।
वेद भी ज्ञानमागर् के पथपर्दर्शक गुरू की पर्शिस्त गाना चूकते नहीं हैं।
साधक िकतना भी बुिद्धमान हो िफर भी गुरू अथवा आध्याित्मक आचायर् की सहाय के
िबनावेदोंकी गहनतापर्ाप्तकरनायाउनकाअभ्यासकरनाउसकेिलएसंभवनहींहै।
गुरू अपने िष्य श क ी दैवीशिक्तयोंको जागृतकरतेहैं।
पथम को अपने गुर को, आध्याित्मक आचायर् को खोज लो जो आपको अनन्त तत्त्व अथवा
शाशत चेतनपवाह के साथ एकतव साधने मे सहाय कर सके।
अध्यात्ममागर् में सलामतीपूवर्क तथा मक्कमता से आगे बढ़ने के िलए अपने
गुरू केद्वाराही िष्य श क ो सूचनाएँिमलसकतीहैं।
अपने गुरू की इच्छा के शरण हो जाओ। उनको आत्मसमपर्ण करो। तभी आपका उद्धार
होगा।
गगगग गग गगगगग
ईश् वरही गुरू के रूप में िदखते हैं।
सच्चे गुरू एवं सच्चे साधक बहुत कम होते हैं।
योग्य िष्यों
श क ो यशस्वीगुरू पर्ाप्तहोतेहैं।
ईश् वरकी कृपा गुरू का रूप लेती है।
गुरू अपने िष्य श क ो अपनेजैसाबनात,ेहै अतः
ं वे पारस से भी महान हैं।
संसारसागर को पार करने के िलए गुरू जैसी कोई नौका नहीं है।
हे राम ! तुम्हारे तन, मन, धन, अपने सदगुरू के चरणों में समिपर्त कर दो,
िज न ह ो न े तु म ह े परम सुख या मोक का मागर िदखाया ह ै ।
अपने गुरू या आचायर् के समक्ष हररोज अपने दोष कबूल करें, तभी आप इस दुन्यावी
िनबर्लताओं से ऊपर उठ सकेंगे।
गुरू दृिष्ट
, स्पर्शषष , िवचार या शब्द के द्वारा िष् शयक ा पिरवतर्न कर सकते हैं।
गुरू औरईश् वरसचमुचएकरूप हैं।
गुरू इस दुिनयामेईं श् वरकेसच्चेपर्ितिनिधहैं।
गुरू आपकेिलए'इलेिकटक िलफट' हैं। वे आपको पूणर्ता के िखर श प र पहुँचाएँगे।
गुरू केपर्ितिनःस्वाथर्एवंभिक्तभावपूवर्कसेवायहपूजा, भिकत, पाथरना और धयान है।
हे राम ! िज सस े आ त म -साक्षात्कार को गित िमलती है, िज सस े च े त न ा की जागृ ित
होती है, उसेगुरद ू ीक्षाकहतेहै।
यिदआपगुरू मेईं श् वरको नहींदेखसकतेतोिफरऔरिकसमेद ंेखसकेंग?े
जब तु म म े र े समक िन खािल स होकर अपना हृ द य खोलोग े तभी म ै तु म ह े सहाय कर
सकूँगा।
आपके िमतर्ों, आदशोर् ंतथा गुरू या आध्याित्मक आचायर् के पर्ित वफादार एवं
सिन्नष्ठ रहें।
अनुकर्म
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
गगगगगगग 6
गगगगगगगगग गग गगगगगग
गगगगगग गगगग गग गगगगगगगगग
अनुकूल होने का िवरल गुण बहुत कम लोगों में होता है, और वह एक उतम गुण है। उसके
द्वारा िष्
शयअ पना कैसा भी स्वभाव हो िफर भी वह अपने गुरू के पर्ित अनुकूल बनता है।
आजकल पर्ायः सभी साधक अपने गुरूभाइयों को अनुकूल होना नहीं जानते।
िशषय को अपने गुर के अनुकूल होना और उनसे िहलिमल जाना चािहए।
गुरभू िक्तजगानेकेिलएनमर्ताऔरआज्ञापालनकेगुण जरूरीहैं।
िशषय जब एक ही गुर के सािनधय मे रहते हएु अपने गुरभाइयो के साथ अनुकूल होना नही जानता तब घषरण
होता है और वह अपने गुरू को नाराज करता है।
जहाज का कप तान सद ै व सावधान रहता ह ै । म च छ ी म ा र भी सद ै व सावधान रहता ह ै ।
ऑ परे शनथीए टर मे सजर नसदै वसावधानरहता है ।इसी प कारभू खे-पयासे िशषय को भी गुरसेवा मे सदैव सावधान रहना
चािहए।
गगगगगगगग गग गगग गगगगगग
अित नींद करने वाला, जड , स्थूलकाय, िनिष्कर्य, आलसी एवं मूखर् मन का िष् शयग ुरू
संतुष्ट हों इस पर्कार उनकी सेवा नहीं कर सकता।
िज स िश ष य म े उपद े श क े आचरण का गु ण होता ह ै वह अपन े गुर की स े व ा म े सफल
होता है। आबादी एवं अमरत्व उसको आ िमलते है।
गुरू की सेवाकरनेकी उत्कण्ठाएवंलगन िष्य श म ेंहोनीचािहए।
गुरू केपर्ितभिक्तभावतमामयोग्यमानवमहेच्छाओक ं ा एकमातर्
ध्येयहै।
िशषय जब गुर के पास रहकर अभयास करता हो तब उसके कान शवण के िलए ततपर होने चािहए। वह जब गुर
की सेवा करता हो तब उसकी दृिष्ट सावधान होनी चािहए।
िशषय को अपने गुर, माँ-बाप, बुजग
ु ,र्सब योगी एवं संतों के साथ अच्छी तरह बरताव करना
चािहए।
अच्छी तरह बरताव करना माने अपने गुरू के पर्ित अच्छा आचरण करना।
गुरू िष्य
श क े आचरणपरसेउसका स्वभावतथाउसकेमनकी पद्धितजानसकतेहैं।
अपने पिवतर् गुरू के पर्ित अच्छा आचरण परम सुख के धाम का पासपोटर् है।
िशषय जब गुर की सेवा करता हो तब उसे तरंगी नही बनना चािहए।
आचरण अपने गुरू की सेवा करके पर्ाप्त िकये हुए व्यवहारू ज्ञान की अिभव्यिक्त
है।
दैवी एवं उत्तम गुण दुकान से खरीद करने की चीजें नहीं हैं। वे गुण तो लम्बे
समय तक की हुई गुरू सेवा, शदा एवं भिकतभाव दारा ही पापत िकये जा सकते है।
गगगग गग गगगगगगगगगग
ज ा न ा जर न क े बाद गुर को राजी -खुशी से, शीघ िबना िझझक से एवं बहुत रािश मे गुरदिकणा दो।
गुरदू िक्षणासेअसंख्यपापोंका नाश होताहै।
गुरू को दीहुई दिक्षणाहदृ यशु िद्करन
ध ेवालीमहानवस्तु है।
जो दिक ण ा गुर को दी जाती ह ै वह व य व ह ार प े म का प त ी क ह ै ।
तमाम गुरूभाइयों के कल्याण के िलए उदार भावना िवकिसत करो।
दान का पर्ारम्भ अपने गुरू से ही होता है।
गुरू को दिक्षणादेनेकी आदतडालनीचािहए।
िशषय के पास जो कुछ हो वह गुर को सपेम भेट चढा देना चािहए।
गुरू केद्वाराचाहेजैसाभोजन, कपड़े एवं िनवास पर्ाप्त हो उससे िष् शयक ो सन्तोष मानना
चािहए। अपने सचचे मन एवं हृदय से गुर की सेवा मे ततपर रहना चािहए।
गुरू की सेवाकेदौरानकैसीभीपिरिस्थितयोंमेस ं ाधक कोिमलनेवालासंतोषसदाआनन्दऔरशिक्तदेताहै।
जो कु छ घटना घिट त हो , उसमेस ं दासंतोषरखनाचािहए। सदैवयादरखोःउच्चात्मागुरू को जोअच्छा
लगताहैवहआपकीपसन्दगीकी अपेक्षअ ा िधकहोताहै।
संतोष जैसे परम गुण से युक्त िष् शयप र ही गुरू की कृपा उतरती है।
गुरू की सेवाकेदौरान िष्य श क ो अपनीसाधारणबुिद्ध का उपयोगकरनाचािहए।
गगगगग गग गगग
उच्चात्मागुरू की कृपाकेद्वारा िष्य
श क े हृदयमेिवव ं ेकबुिद्क
धा उदयहोताहै।
िज सको न ै स िगर क िव व े क ब ु िद प ा प त ह ु ई ह ै उस े अव श य गुरकृप ा िम लत ी ह ै ।
िकसी भी चीज की स्पृहा के िबना अपने गुरू के पर्ित फजर् अदा करो।
िशषय का कतरवय गुर के आदेशो का वफादारी-पूवरक एवं अिवलमब पालन करना है।
गुरू केपर्ितअपनेछोटेछोटेकत्तर्व्यिनभानेमेभ ं ीसतकर्रहो। आपकोबहुत आनन्दएवंशािन्तकी पर्ािप्ह
तोगी।
गुरू की सेवामेदं ासत्वजैसीकोई चीजनहींहै।
गुरू की सेवामानेगुरू को आत्म-समपर्ण।
सब पर्कार की सेवा पिवतर् एवं उत्तम है।
गुरू केपर्ितअपनाकत्तर्व्यअदाकरनामानेसत्यधमर् का आचरणकरना।
अपने गुरू के पर्ित अदा की हुई सेवा नैितक फजर् है, आध्याित्मक टॉिनक है।
उससेमनएवंहृदयदैवीगुणोंसेभरपूरबनतेहै , ंपुष बनते है।
गगगगगगगग गगगगगगग
तत्पर एवं सिन्नष्ठ िष् शयअ पने आचायर् की सेवा में अपने सम्पूणर् मन एवं हृदय
को लगा देता है।
तत्पर िष् शयि क सी भी पिरिस्थित में अपने गुरू की सेवा करने का साधन खोज लेता
है।
अपने गुरू की सेवा करते हुए जो साधक सब आपित्तयों को सह लेता है वह अपने
पाकृत सवभाव को जीत सकता है।
शािनत का मागर िदखाने वाले गुर के पित िशषय को सदैव कृतज रहना चािहए।
कृतघ्न बेवफा िष् शयइ स दुिनया में हीनभाग एवं दुःखी है। उसका भाग्य दयनीय ,
शोचनीय एवं अफसोस-जनक ह ै ।
गगगग गग गगगगगगगगग
पिवत वेदो के रहसयोदघाटक, आिद एवं पूणर् बर्ह्मरूप महान गुरू को मैं नमस्कार करता हूँ,
जो ज ा न िव ज ा न रप व े द ो क े सार को भ म र की तरह चू सकर अपन े भक तो को द े त े ह ै ।
सच्चे िष् शयक ो अपने हृदय के कोने में अपने सम्माननीय गुरू के चरणकमलों की
पितषा करना चािहए।
िशषय जब अपने गुर से िमले तब उसका सबसे पथम फजर है खूब नम भाव से अपने गुर को पणाम करना।
भागवत मे अवधूत की एक कथा आती है िजनको चौबीस उपगुर थे, ज ै स े िक पं च म ह ा भू त , सूयर्, चनद,
समुदर्, पाणी आिद। ये नगणय होते हुए भी अपने अपने ढंग से उनको सवोचच जान िदया था।
अन्य िकसी का िवचार िकये िबना, एकाग मन से केवल अपने गुर की ही पूजा करता है वह शेष िशषय
है।
जब साधक म े सत त व की वृिद होती ह ै तब वह सदाचा र ी बनता ह ै और उसम े गुर क े
पित भिकतभाव िवकिसत होता है।

गुरू समदृिष्टकेपर्तीकहैअ ं तःवेअपनेतमाम िष्योंश क े पर्ितसमभावरखतेहैं।


शीकृषण उदवजी से कहते है- "मैं पुरोिहतों में वश िष्ठहूँ, गुरओ ू ंमेब
ंहृ स्पितहूँ, साधुओं में
मैं नारायण हूँ एवं बर्ह्मचािरयों में सनत्कुमार हूँ।"
िशषय जब अपने गुर की सेवा करता हो तब उसे दूसरो की सेवा कभी लेना नही चािहए। आधयाितमक िवकास मे
उसकेिलएयहएकमहानअवरोधहै।
दूसरों को गुरूभाई बनाकर अपने गुरू का यश बढ़ाओ। गुरूभिक्त िवकिसत करने का यह
राजमागर् है।
गगगगगगग गग गगगगगग गगगगग गग
आप महान िवद्वान एवं धनवान हों िफर भी गुरू एवं महात्माओं के समक्ष आपको बहुत
ही नमर् होना चािहए।
िशषय अिधक िवदान न हो लेिकन वह मूितरमंत नमता का सवरप हो तो उसके गुर को उस पर अतयंत पेम होता
है।
अगर आपको नल से पानी पीना हो तो आपको स्वयं नीचे झुकना पड़ेगा। इसी पर्कार
अगर आपको गुरू करना हो तो आपको िवनमर्ता के पर्तीक बनना पड़ेगा।
जो मनु ष य वफादार एवं िब ल कु ल नम बनत े ह ै उनक े ऊपर ही गुर ही कृप ा उतरती ह ै ।
गुरू केचरणकमलोंकी पूजाकेिलएनमर्ताकेपुष्पकेअलावाऔरकोई शर्ेष्ठपुष्पनहींहै।
गगगगगगग गग गगगग
शदा माने गुर का िवशास।
शदा माने अपने पिवत आचायर एवं महातमाओं के कथन, वाणी, कायोर्ं, लेखनएवंउपदेशोंमेिव ं शव
् ास।
आचायर् पर्माण के रूप में जो कहें उसमें अन्य कोई पर्माण या सािबितयों की
परवाह िकये िबना दृढ िवशास रखना उसका नाम है शदा।
गुरू मेस
ं म्पूणर्
शरद्् धारखेऔ ं रअपनेआपकोपूणर्तःगुरू केशरण मेल ं ेजायें।वेआपकीिनगरानीकरेंगे।इससे
सब भय, अवरोध एवं कष्ट पूणर्तः नष्ट होंगे।
सदगुरू में दृढ़ शर्द्धा आत्मा की उन्नित करती है, हृदय को शुद्ध करती है एवं आत्म-
साक्षात्कार की ओर ले जाती है।
गुरू केउपदेशमेस ं म्पूणर्
शरद्् धारखनायह िष्यों
श क ा िसद्धान्तहोनाचािहए।
गगगगगगगगग गग गगगगगग
आज्ञापालन माने गुरू एवं बुजुगोर्ं के आदेशों को पालने की इच्छा।
जो िश ष य अपन े गुर की आज ा मानत ा ह ै वही अपनी स थू ल प कृ ित पर िन यं त ण पा
सकता है।
नमर्ता, भिकतभाव, िनरहंकारीपना आिद सब िदव्य गुण गुरू की आज्ञा का पालन करने से
ही पर्कट होते हैं।
गुरू केआदेशोंमेश ंंकानहींकरनायाउनकेपालनमेआ ं लस्यनहींकरनायहीगुरू केपर्ितसच्चीआज्ञाकािरता
है।
गुरू की आज्ञक ा ा पालनसब कायोर्म ंेस
ं फलताकी जननीहै।
गूरू जोआज्ञक ा रेव ं हकामकरनाऔरमनाकरेव ं हकामन करनायहीगुरू केपर्ितसच्चीआज्ञाकािरताहै।
दंभी िष् शयग ुरू की आज्ञा भय के कारण मानता है। सच्चा िष् शयप र्ेम के खाितर
शुद पेम से गुर की आजा का पालन करता है।
िशषय का पथम पाठ है गुर के पित आजाकािरता।
भलाई की एक नदी है जो ईशर के चरणकमलो मे से िनकलती है और गुर के आजापालन के मागर से बहती है।
यिद िष्यश क े हृदयमेस ं ंतोषन होतोयहबताताहैिक िष्य श म े गुरू केपर्ितआज्ञापालनका भावपूरानहींहै।
आपमें भाव एवं तत्परता होगी तो गुरू आपकी भेंट से पर्सन्न होंगे, भेट के पकारो से
नहीं।
िशषय को अतयनत ततपरतापूवरक एवं धयानपूवरक अपने गुर की सेवा करना चािहए।
गगगगगगगगगग गगगग-गगगग
अपने आपको आचायर् की सेवा में सौंप दो। तन, मन एवं आत्मा को खूब तत्परता से
अपर्ण कर दो।
गुरूशर्द्धाका सिकर्यस्वरूप मानेगुरू केचरणकमलोंमेस ं म्पूणर्
आत्मसमपर्णकरना।
गुरू सेवाकेिनत्यकर्ममेख ंबू िनयिमतरहो।
अपने आचायर् की दैिनक िनजी सेवा में घड़ी के समान िनयिमत रहो।
आचायर् एवं हरएक संत का आदर करना यह नमर्ता का िचह्न है।
आचायर् एवं आदरणीय व्यिक्तयों की उपिस्थित में ऊँची आवाज से बोलो नहीं।
गुरू केवचनोंमेिव ं शव
् ासरखनायहअमरत्वकेद्वारखोलनेकेिलएगुरू चाबीहै।
जब आप िकसी महान गुर क े िश ष य हो तब अ न य िकसी को आप अपन े िश ष य बना ओ नही
एवं खुद गुर बनने का पयास करो नही। उनको अपने गुरभाई मानो।
गुरू करनाऔरबादमेउ ं नको धोखादेकरउनकात्यागकर देनाइसकीअपेक्षग ार
ु ू नहींकरनाऔरभवाटवीमें
भटकना बेहतर है।
जो मनु ष य िव षय व ास न ा का दास ह ै वह गुर की स े व ा नही कर सकता , गुरू को आत्मसमपर्ण
नहीं कर सकता। फलतः वह संसार के कीचड़ से अपने आपको बचा नहीं सकता।
गगगग गग गगगगग
गुरू सेधोखाकरनायहअपनीहीकबर्खोदनेका साधनहै।
गुरू और िष्य श क े बीचजो शिक्तजोड़ने का कामकरतीहैवह शुद्धपर्ेम होनाचािहए।
गुरू का कृपा-पसाद और िशषय की कोिशस िमलती है तब अमरतव रपी बालक का जनम होता है।
िशषय को जान िदये िबना ही गुर को उसके पास से गुरदिकणा नही लेना चािहए।
िशषय को अपने समग जीवन के दौरान गुर के यश की पताका लहराना चािहए।
गुरू केचरणकमलमेआ ं त्मसमपर्णकरनायह िष्यश क ा आदर्शह ोना चािहए।
गुरू महानहैं।िवपित्त योंसेडरनानहीं। हेवीर िष्

षषषय!ष
ों आगे बढ़ो।
गुरूकपृ ाअणुशिक्तसेअिधक शिक्तशालीहै।
िशषय के ऊपर जो आपितया आती है वे छुपे वेश मे गुर के आशीवाद के समान होती है।
गुरू केचरणकमलोंमेआ ं त्मसमपर्णकरनायहसच्चे िष्य श क ा जीवनमंतर् होनाचािहए।
गगगग गग गगगग
साक्षात् पर्ेम एवं आनन्दस्वरूप अपने गुरू की सेवा करने का सौभाग्य पर्ाप्त हो
जाय तो स े व ा म े असीम आन न द एवं परम सुख िम ल े ग ा।
नमर्तापूवर्क, स्वेच्छापूवर्क, संशयरिहत होकर, बाह्यआडम्बरकेिबना, द्वेष रिहत
बनकर, असीम पर्ेम से अपने गुरू की सेवा करें।
पृथवी पर के साकात् ईशर सवरप गुर के चरणकमलो मे आतमसमपरण करेगे तो वे भयसथानो से आपका रकण
करेंगे, आपकी साधना में आपको पर्ेरणा देंगे तथा अिन्तम ध्येय तक आपके
पथपदशरक बनेगे।
गुरू की कृपाअखूट, असीम और अवणर्नीय है।
गुरू का उिच्छष्टपर्सादलेने सेअसाध्यरोगिमटतेहैं।
गुरू पर शर्द्धाएक ऐसी चीजहैजोपर्ाप्तकरनेकेबादऔरकुछ पर्ाप्तकरनाशेषनहींरहता।
इस शदा के दारा िनमेष मात मे आप परम पदाथर पा लेगे।
गुरू केवचनएवंकमर्मेश
ंर्द्धारखो, शदा रखो, शदा रखो। यही गुरभिकत िवकिसत करने का मागर है।
अनुकर्म
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
गगगगगगग 7
गगगग गग गगगगग गगगगगगगगगग
गगगगगगगग गग गगग गगगगगगगगग
साधक अगर शर्द्धा एवं भिक्तभाव से अपने गुरू की सेवा नहीं करेगा तो उसके
तमाम वर्त, तप कच्चे घड़े में से पानी की तरह टपककर बह जाएँगे।
मन एवं इिन्दर्यों का संयम, गुरभ ू गवानका ध्यान, गुरू की सेवामेध ंैयर्
, सहन शिक्त, आचायर्
के पर्ित भिक्तभाव, संतोष, दया, स्वच्छता, सत्यवािदता, सरलता, गुरू की आज्ञक ा ा पालन.... येसब
अच्छे िष् शयक े लक्षण हैं।
सत्य के साधक को मन एवं इिन्दर्यों पर संयम रखकर अपने आचायर् के घर रहना
चािहए और खूब शदा एवं आदरपूवरक गुर की िनगरानी मे शासतो का अभयास करना चािहए।
उसेचुस्ततासेबर्ह्मचयर् का पालनकरनाचािहएऔरआचायर् की पूजाकरनाचािहए।
िशषय को चािहए िक वह आचायर को साकात् ईशर के रप मे माने , मनुष्य के रूप में कदािप नहीं।
िशषय को आचायर के दोष नही देखना चािहए कयोिक वे तमाम देवो के पितिनिध है।
िशषय को गुर के िलए िभका मागकर लाना चािहए एवं खूब शदा तथा भिकतभावपूवरक उनहे भोजन कराना चािहए।
िशषय को सब सुखवैभव का िवष की तयाग कर देना चािहए और अपना शरीर गुर की सेवा मे सौप देना चािहए।
शासतो का अभयास पूरा करके िशषय को चािहए िक वह गुर को दिकणा दे और उनकी आजा लेकर अपने घर
वापस लौटे।
जो गुरपद का उपयो ग आजीिव क ा क े साधन क े रप म े करता ह ै वह धमर का नाश करन े
वाला है।
बर्ह्मचारीका मुख्यकत्तर्व्यपूरेहृदयसेअपनेआचायर् की सेवाकरनाहै।
गुरू की कृपापर्ाप्तकरनेकेिलएउनकीिनिजसेवाऔरउनकी आज्ञक ा ा पालनिजतनासहायरूप हैउतना
सहायरूप तप, यातर् ,ाभेट, दान आिद नहीं है।
वेद, पतयक जान, गुरव ू चनऔरअनुमानयेचारज्ञानकेपर्माणहैं।
हरएक कमर् में दुःख के बीज समािवष्ट हैं िकन्तु गुरू की सेवा के िवषय में ऐसा
नहीं है।
गुरू केआदेशोंका पालनकरनेकेिलए िष्य श क ो कभीभीधन , भोगिवलास, सुखवैभव और अपने शरीर
का भी त्याग करने के िलए तैयार रहना चािहए।
गगगग गगगगगगगग गगगग
जो तन , मन और धन को गुरू के चरणों में अपर्ण कर देता है वह गुरूभिक्त का िवकास
कर लेता है।
िज सस े गुरचरणो क े प ित भिकत भ ा व बढ े वह परम धमर ह ै ।
िनयम माने गुरूमंतर् का जप, गुरस ू ेवाकेदौरानतपश्चय , ार्
गुरवू चनमेशंर्द्ध,ाआचायर्-सेवन,
संतोष पिवतर्ता, शासत का अधययन और गुरभिकत अथवा गुर का शरण।
ितितक्षा माने गुरू के आदेशों का पालन करते हुए दुःख सहन करना।
त्याग माने गुरू का िनषेध हो ऐसे कमोर्ं का त्याग करना।
जो अपन े गुर की आज ा का पालन नही करता तथा गुर की स े व ा नही करता वह मू खर
है।
भगवान शीकृषण उदवजी से कहते है- "दुष्पर्ाप्य मनुष्यदेह मजबूत नौका जैसी है। गुरू उस
नौका के कणर्धार हैं। वे नौका को संभालते हैं। उस नौका को चलाने वाला मैं (कृष्ण)
अनुकूल पवन हूँ।" जो मनु ष य ऐसी नौका और ऐस े साधन स े भवसाग र पार करन े का प य त
नहीं करता वह सचमुच आत्मघातक है।
मनुष्य अनािद अज्ञान के पर्भाव में होने के कारण गुरू की सहाय के िबना आत्म-
साक्षात्कार नहीं कर सकता।
गुरू जोकहतेहैउ ं समेक
ंछु गलतहोसकताहै? उसकेिलएकारणहोगाही। मनुष्यबुिद्व धहाँपहुँचनहींपाती।
गुरू की िनजीसेवासवोर्च्चपर्कारका योगहै।
गुरू की िनजीसेवाकरनेसे िष्य श अ पने मनको वश मेक ं र सकताहै।
गगगगगगग गग गगग गगग
कर्ोध, लोभ, असत्य, कर्ूरता, याचना, दंभ, झगड़ा, भम, िनराशा, शोक, दुःख, िनदर्ा, भय,
आलस्य.... येसब तमोगुणहैं।जोअनेकजन्मोंकेबावजूदभीजीतेजीनहींजासकते।िकन्तु शर्द्धाएवंभिक्तसेगुरू
की की हुई िनजी सेवा इन सब दुगुर्णों का नाश करती है।
गुरू केवचनमेऔ ं रईश् वरमेशंर्द्धारखनासत्त्वगुणहै।
गुरू केभोजनकेबादजोखुराक बचाहोवहबहुतसाित्त्वकहोताहै।
गगगगगगगग गग गगगगगगग गगगगग
साधक को िवजातीय व्यिक्त का सहवास नहीं करना चािहए। जो लोग ऐसे सहवास के
शौकीन हो उनका संग भी नही करना चािहए। कयोिक उससे मन कुबध होता है तब िशषय भिकतभाव और शदापूवरक अपने
गुरू की सेवानहींकर सकता।
िशषय अगर अपने आचायर की आजा का पालन नही करता है तो उसकी साधना वयथर है।
बुिद्धमानसाधक को तमामपर्कारकेखराबसंगसेदूर रहनाचाहे।उसेसंतोंएवंगुरू का संगकरनाचािहए।
उनकेसंगसेवैराग्यिवकिसतहोताहै , तमाम वासनाएँ दूर होकर मन शुद्ध बनता है।
ज ै स े अिगन क े पास ब ै ठ न े स े ठ ण ड , भय, अन्धकार दूर होता है वैसे ही जो िष् श य
षषष
गुरू केपासरहताहैउसकेअज्ञान , मृत्यु का भय तथा सब अिनष्टों का नाश होता है।
जो इस सं स ा र -सागर में इधर उधर डूबते उतरते हैं उनके िलए बुिद्धमान गुरू का
आशर्य शर्ेष्ठ है।
सूयर् के पास से केवल एक बाह्य दृिष्ट ही पर्ाप्त होती है िकन्तु गुरू के पास से
ज ा न प ा प त करन े क े िल ए कई प क ा र की कई दृिष य ा प ा प त होती ह ै ।
गगगग गगगग गगगगगगगग गगगगग
गुरू इस पृथ्वीपरसाक्षात्ईश् वरहै , ंसच्चे िमतर् एवं िवश् वासपातर्बन्धु हैं।
"हे भगवान ! हे भगवान ! मैं आपके आशर्य में आया हूँ। मुझ पर दया करो। मुझे
ज न म -मृत्यु के सागर से बचाओ।" ऐसा कहकर िशषय को अपने गुर को दणडवत पणाम करना चािहए।
िनरपेक्ष भिक्तभावपूवर्क जो गुरू के चरणों की पूजा करता है उसे सीधी गुरू कृपा
पापत होती है।
आचायर् से पर्ाप्त की हुई तथा सेवा से तीक्ष्ण बनी हुई ज्ञानरूप तलवार एवं ध्यान
की सहायता से िष् शयम न, वचन, पाण और देह के अहंकार को काट देता है तथा सब रागदेष से मुकत होकर इस
संसार में स्वेच्छापूवर्क िवहार करता है।
तीवर् गुरूभिक्त के शिक्तशाली शस्तर् से मन को दूिषत करने वाली आसिक्त को मूल
सिहत काट िदया जाय तब तक िवषयों का संग त्याग देना चािहए।
गुरू का आशर्यलेकरजोयोगका अभ्यासकरताहैवहिविवधअवरोधोंसेपीछेनहींहटता।
सच्चे िष् शयक ो अपने गुरू के पिवतर् चरणों में िकसी भी पर्कार की िहचिकचाहट या
शमर के िबना साषाग दंडवत् पणाम करना चािहए। यह उसके समपूणर आतमसमपरण की िनशानी है।
िकसी भी फल की आशा से रिहत होकर जो गुरूसेवा और गुरूपज ू ा में लगा रहता है वह
उल्टेमागर्मेनं हींजाएगा। उसेसेवापूजाका पर्काशअवशय ् पर्ाप्तहोगा।
ज ा न का प क ाश फ ै ल ा न े वाली पिव त गुरगीता का जो हररोज अ भ य ास करता ह ै वही
सचमुच िवशु द्धहै। उसे ही मोक्ष की पर्ािप्त होती है।
जो अपन े गुर क े यश म े आनिनद त होता ह ै और दूस रो क े समक अपन े गुर क े यश
का वणर्न करने में आनन्द का अनुभव करता है उसे सचमुच गुरू कृपा पर्ाप्त होती है।
परमातमा और परबहसवरप गुर की अजाननाशक उपिसथित मे आपके सब संशयो का नाश होगा, ज ै स े
सूयोर्दय होते ही ओस की बूँदें नष्ट होती हैं।
"हे महान, परम सममाननीय गुर ! मैं आदरपूवर्क आपको नमस्कार करता हूँ। मैं आपके
चरणकमलो के पित अचूक भिकतभावव कैसे पापत कर सकूँ और आपके दयालु चरणो मे मेरा मन हमेशा भिकतभावपूवरक
कैसे सराबोर रहे यह कृपा करके मुझे कहें।" इस पकार कहकर खूब नमतापूवरक एवं आतमसमपरण की
भावना से िशषय को चािहए िक वह गुर को दणडवत पणाम करे और उनके आगे िगडिगडाए।
साक्षात् ईश् वरजैसे सवोर्च्च पद पर्ाप्त िकये हुए गुरू की जय हो ! गुरू का यश गानेवाले
धमरशासतो की जय हो ! िज सन े क े व ल ऐस े गुर का ही आश य िल या ह ै ऐस े स च च े िश ष य की जय
हो !
गगगग गगगग गग गगगगग-गगगगगगगगगगग
वादिववाद, बुिद्,धगहनअभ्यास, दान या तप से ईश् वर-साक्षात्कार नहीं होता। वह तो
िज सन े गुरकृप ा प ा प त की हो उसको ही होता ह ै ।
गुरूकप ृ ाका छोटेसेछोटािबन्दू भीइस संसारकेकष्टोंसेमनुष्यको मुक्तकरनेमेप ं यार्प्तहै।
केवल गुरूकृपा के द्वारा ही साधक आध्याित्मक मागर् में लगा रह सकता है एवं
तमाम पर्कार के बन्धनों एवं आसिक्तयों को तोड़ सकता है।
जो िश ष य अहं क ा र स े भरा हु आ ह ै , जो गुर क े वचनो को सु न ता नही ह ै उसका आिख र
नाश होता है।
िज न गुर को आ त म -साक्षात्कार हुआ है ऐसे गुरू में और ईश् वरमें कोई फकर् नहीं
है। दोनों समान हैं और एकरूप हैं।
गुरू केसत्संगकी सहायकेिबनानयेनयेसाधक केकुसंस्कारोंमेम ं ूलतःपिरवतर्नकरनेकी िबल्कुल आशा
नहीं है।
गुरू का सहवाससाधक केिलएएकसुरिक्षतनौकाहैजोउसेअन्धकारकेउस पारिनभर्यताकेिकनारेपर
पहुँचाती है।
गगगगगगगगग गगग गगगग गग गगगगगगग
भागवत, रामायण, महाभारत, योगवाश िष्ठ आिदमेगंर
ु भ
ू िक्तकी मिहमासुन्दरढंगसेगायीगईहै।हररोज
उन गर्न्थोंका अभ्यासकरो। आपकोउनमेसे ं पर्ेरणािमलेगी।
आत्म-साक्षात्कारी गुरू के िलखे हुए गर्न्थ परोक्ष सत्संग जैसे हैं। आप जब
संपूणर् शर्द्धा और भिक्त से उनका अध्ययन करते हैं तब आपके पावन गुरू के साथ आपका
पूणर सायुजय होता है।
जो अपन े साधना पथ म े स च च े ह ृ द य स े प य त करता ह ै और जो ईश र -
साक्षात्कार के िलए तड़पता है ऐसे योग्य िष् शयप र ही गुरू की कृपा उतरती है।
आजकल िष् शयल ोग ऐश -आरामवाला जीवन जीते हैं और गुरू की आज्ञा का पालन
िकये िबना ही उनकी कृपा की आशा रखते हैं।
गुरू एवंमहात्माओंकेसत्संगकी मिहमािवषयक गुरू नानक, तुलसीदास, शंकराचायर, व्यास और
वाल्मीिक ने गर्ंथ िलखे हैं।
पुरदं रदास, िनश् चलदास, सहजोबाई, मीराबाई, ज ा न े श र , एकनाथ आिद ने गुरकृपा की मिहमा गाई
है।
जो लोग िन यिम त सत सं ग करत े ह ै उनम े ईश र और शास त ो म े श द ा , गुरू एवं
ईश् वरके पर्ित पर्ेम और भिक्त का धीरे धीरे िवकास होता है।
गुरू का संग'माँग और पूितर्' का पर्श् नहै। अगर सच्चे हृदय की माँग हो तो पूितर् तुरन्त
हो जाएगी। कुदरत का यह अटल िनयम है।
आपको अगर सचमुच ईश् वर-साक्षात्कार की तड़प होगी तो आपके आध्याित्मक गुरू को
आप अपने घर के द्वार पर खड़े पाएँगे।
आत्म-साक्षात्कारी महान गुरू का संग पर्ाप्त करना मुशि ्कल है, िकन्तु वह संग बहुत ही
लाभकारीहै।आपअगरभिक्तभावपूवर्क, इमानदारी से पाथरना करेगे तो वे सवयं आपके पास आयेगे।
इस दुिनया मे उतम वसतुएँ अतयंत अलप माता मे होती है जैसे की कसतूरी, केसर, रेिडयम, चनदन,
िवद्वान, सदाचारी पुरष ू तथा परोपकारी स्वभाव के लोग बहुत कम होते हैं। अगर ऐसा ही है
तो संतों, भकतो, योिगयों , पयगमबरो, दृष्टाओं तथा आत्म-साक्षात्कारी गुरू के िवषय में तो कहना
ही क्या ?
आप अगर आत्म-साक्षात्कारी गुरू की सेवा करेंगे तो आपके मोक्ष की समस्या हल
हो जाएगी।
महात्माओं का संग ईश् वरकृपासे ही पर्ाप्त होता है।
गुरू की सेवाकरकेआशीवार्दपर्ाप्तकरनेकी इच्छुकसाधकोंको कुसंगसेअवशय ् दूररहनाचािहए।
इस माया का रहसय कौन जान सकता है ? जो कुसं ग का त या ग करत े ह ै , जो उदार हृ द यव ाल े
गुरू की सेवाकरतेहै , ंजो अहं भ ा व स े मु क त ह ै और जो ममत ा रिह त ह ै व े इस माय ा का रह स य
जान सकत े ह ै ।
राग-द्वेष से मुक्त ऐसे गुरू का संग करने से मनुष्य आसिक्त रिहत बनता है। उसे
वैराग्य पर्ाप्त होता है।
उसमेग ंर ु ू केचरणकमलोंकेपर्ितभिक्तजागतीहै।
जो भिकत भ ा व पू वर क गुर की स े व ा करता ह ै वह जीवन क े परम त त त व को प ा प त करता
है।
साधक का मन िकसी भी पर्कार के पर्यत्न िबना ही, गुरू की सेवासेअपनेआपएकागर् बनताहै।
गुरू गर्थसाहबकहतेहैिंक गुरू केिबनाईश् वरपर्ािप्का
त मागर्
नहींिमलसकता। गुरू स्वयंईश् वरस्वरूप होनेके
कारण वे साधक को ईश् वरपर्ािप्त के मागर् में ले जाते हैं। उस मागर् में वे
पथपदशरक बनते है। गुर ही िशषय को ऐसा अनुभव करा सकते है िक वह सवयं ही ईशर है।
गगगग गग गगगग गगगगग
दैवी गुणों का िवकास करने वाला महान रहस्य गुरूभिक्त में िनिहत है।
जो िश ष य अपन े गुर क े चरणकमल ो म े स म पू णर आ त म -समपर्ण करता है उसे गुरू
स्वयं ही सब दैवी गुण पर्दान करते हैं।
जो अपन े मन पर सं य म रखकर ध य ा न नही कर सकत े उनक े िल ए तो गुरभिकत जगाकर
गुरसू ेवाकरनाहीएकउपायहै।
गुरू िष्य
श क ी मुशि ्किलयोंएवंअवरोधोंको जानत,ेहै क्ंयोंिक वे ितर्कालज्ञानी है। अतः मन में
ही उनकी पर्ाथर्ना करें। वे आपके अवरोधों को दूर करेंगे।
गुरू केदर्शन अन्धकारका सवर्थानाश करतेहैऔरअसीमआनन्ददेते है।
भगवान आपका कलयाण करे और आप सब गुरभिकत जैसे दुलरभ दैवी गुण का िवकास करो।
भगवान सवयं ही आचायर के रप मे दीखते है। वे पतयक मानव के सवरप मे दशरन देते है अथवा बहिनष महान
ज ा न ी क े रप म े द शर न द े त े ह ै ।
ज न म स े ल े क र मृ त यु प यर न त जीवन का एक मात ह े त ु महान गुर की स े व ा करना ह ै ।
गगगग गग गगग गगगगगगगगग
केवल बुिद्धमान व्यिक्त के रूप में एक व्यिक्त की कोई सत्ता नहीं है। उसमें
वास्तिवकता का ज्ञान नही है। िकन्तु जब व्यिक्त गुरू के सम्पकर् में आता है तब उसमें
सच्चा ज्ञान, सच्ची शिक्त और सच्चा आनन्द पर्कट होता है। वे गुरू भी ऐसे हों िजन्होंने
परमातमा के साथ तादातमय सथािपत िकया हो।
िशषय घास के ितनके से भी अिधक नम होना चािहए। तभी गुर की कृपा उस पर उतरेगी।
जब िश ष य ध य ा न नही कर सकता हो , जब आ ध य ाितम क जीवन का मागर नही जान सकता
हो तब उसे गुरू की सेवा करना चािहए, उनकेआशीवार्दपर्ाप्तकरनाचािहए। उसकेिलएकेवलयहीउपायहै।
मन जब पर्शान्त और िस्थर हो तब आप ध्यान कर सकते हैं। मन अगर क्षब ु ्ध हो तो
जप कर े , पुसतक पढे और शदा-भिकतपूवरक गुर की सेवा करे। गुर के साथ मानिसक समबनध सथािपत करे। तभी
आपका जल्दी िवकास हो सकेगा।
ज न म स े ल े क र मृ त यु तक सारा जीवन िव द ा थ ी अव स था का समय ह ै । तभी िवद ा थ ी
मोक्षदायक आध्याित्मक ज्ञान पर्ाप्त कर सकता है।
जो िश ष य गुरकुल म े रहत े हो उन ह े इस नाशवं त दुिन या की िकसी भी चीज की तृ ष णा
न रहे इसके िलए हो सके उतना पर्यास करना चािहए।
िज सन े गुर प ा प त िकय े ह ै ऐस े िश ष य क े िल ए ही अमर त व क े द ा र पर खु ल त े
हैं।
साधकों को इतना ध्यान में रखना चािहए िक केवल पुस्तकों का अभ्यास करने से या
वाक्य रटने से अमरत्व नहीं िमलता। उससे तो वे अिभमानी बन जाते हैं। िजसके द्वारा
जीवन का कूटप श हल हो सक े ऐसा स च चा ज ा न तो गुरकृप ा स े ही प ा प त हो सकता ह ै ।
िज न ह ो न े ईश र क े द शर न िकय े ह ै ऐस े गुर का सं ग और सहवास ही िश ष य पर गहर ा
पभाव डालता है। तमाम पकार के अभयास की अपेका गुर का संग शेष है।
गुरू का सत्संग िष्यश क ा पुनजीर्वनकरनेवालामुख्यतत्त्वहै।वहउसेिदव्यपर्काशदेताहैऔरउसकेिलए
स्वगर् के द्वार खोल देता है।
गुरू का संगहीसाधक को उसकेचािरत्र्यकेिनमार्णमे , ंउसकी चेतनाको जागृतकरकेअपनेस्वरूप का सच्चा
दर्शन करने में सहाय कर सकता है।
गगगगग गग गगगगगगगगगग
गुरू की सेवा, गुरू की आज्ञका ा पालन, गुरू की पूजाऔरगुरू का ध्यान, येचीजेबहुतमहत्
ं त्वपूणर्
हैं। िष्य
शक े
िलएआचरणकरनेयोग्यउत्तमचीजेहै ं ं।
िशषय को बार-बारदेवीसरस्वतीकी, िज न ह ो न े आशी व ा द िद य े हो ऐस े गुर की एवं सव ो च च
िपता परमेशर की पाथरना करना चािहए।
गुरू केपासअभ्यासपूराकरनेकेबादभीसमगर् जीवनपयर् न्त िष्य
श क ो अपनेआचायर् केपर्ितकृतज्ञताका भाव
बनायेरखनाचािहए।
गुरू की कृपातोसदारहतीहै।महत्त्वपूणर् बातयहहैिक िष्य श क ो गुरू केवचनोंमेश ंर्द्धारखनाचािहएऔर
उनकेआदेशोंका पालनकरनाचािहए।
बुिद्ध
को तेजस्वीरखनेकेिलएस्वाध्यायकी आवशय ् कताहैिजससेबुिद्ध उल्टेमागर्मेन
ं जाययाउसका
दुरूपयोग न हो। उससे भी अिधक महत्त्वपूणर् चीज है महात्माओं का सत्संग। अथार्त् हमें
गुरू करनाचािहएिजससेहमेिनरन् ं तरमागर्दर्शन पर्ाप्तहोतारहे।वेहमेमागर्
ं मेआ ं नेवालेभयस्थानिदखातेरहें।िफरगुरू
से पर्ाप्त ज्ञान की सहायता से िष् शयय ोग्य पथ पर आगे बढ़ने में शिक्तमान होगा।
गगगग-गगगगगगगगगगग गग गगगगग
जीवन क े परमत त त व रपी वा स तिव कता क े स म पकर का रह स य गुरभिकत ह ै ।
सच्चे िष् शयक े िलए तो गुरूवचन माने कानून।
गुरू का दासबननामानेईश् वरका सेवकबनना।
िज न ह ो न े प भ ु को िन हार ा ह ै और जो यो ग य िश ष य को प भ ु क े द शर न करवात े ह ै व े
ही सच्चे गुरू हैं।
बनावटीगुरू सेसावधानरहना। ऐसेगुरू पूरेकेपूरेशास्तर्रटलेते हैऔ
ं र िष्यों
श क ो उनमेसे ं दृष्टान्तदेते
हैं
लेिकनवेजोउपदेशदेते हैउं सका आचरणवेखुद नहींकर सकते।
आलसी िष् शयक ो गुरूसेवा नहीं िमल सकती।
राजसी स्वभाव के िष् शयक ो लोकसंगर्ह करने वाले गुरू के कायर् समझ में नहीं
आते।
िकसी भी कायर् का पर्ारंभ करने से पहले िष् शयक ो गुरू की सलाह लेना चािहए।
अनुकर्म
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
गगगगगगग 8
गगगगगगगगग गग गगगगग
गगगगगगगगगग गगगगगग गग गगगग
मुक्तात्मा गुरू की सेवा, उन्होंनिेलखेहुएपुस्तकोंका अभ्यासऔरउनकीपिवतर्मूितर् का ध्यान, गग
गगगगगगगगग गगगगगग गगगग गग गगगगगग गगगगग गगग
जो िश ष य नाम , कीितर्, सत्ता, धन और िवषयवासना के पीछे दौडता है वह सदगुर के चरणकमलो के
पित सचचा भिकतभाव नही रख सकता।
िशका का केत बहत
ु ही िवशाल है और जानपािपत की संभावनाएँ अपार है। अतः गुर की आवशयकता अिनवायर
है।
तैत्तीरीय उपिनषद कहती हैः "अब, ज ा न क े िव षय म े बात करत े ह ै । आचायर
पथम सवरप है। िशषय आिखरी सवरप है। जान इन दोनो के बीच की कडी है और उपदेश वह माधयम है जो समनवय
कराता है। यह ज्ञान का क्षेतर् है।"
कठोपिनषद कहती हैः िजस आत्मा के िवषय में िभन्न-िभन पकार से उपदेश िदया जाता है उस
आत्मा िवषयक जब िनम्न स्तर की बुिद्धवाले व्यिक्त के द्वारा उपदेश िदया जाता है तब
सरलता से समझ में नहीं आता। िकन्तु जब वही आत्मा के िवषय में बर्ह्मिनष्ठ गुरू
उपदेशदेते हैतं बिबल्कुलसन्देहनहींरहता, अथार्त् भली पर्कार समझ में आ जाता है। आत्मा तो
सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है। केवल बौिद्धक कुस्ती से उसे पर्ाप्त नहीं िकया जा सकता। केवल
गुरू कृपासेहीज्ञानपर्ाप्तहोसकताहै।
गगगग गगगगग गग गगगगगगग
िशषय को आचायर के घर रहना चािहए, बारहवषर् तक सम्पूणर्
बर्ह्मचयर्
का पालनकरनाचािहएतथाकिठनतप
करना चािहए। उसे गुरू की सेवा करना चािहए तथा उनके मागर्दर्शन में पिवतर् शास्तर्ों का
अध्ययन करना चािहए।
जो िश ष य को िशक ा द े सक े और स वयं जो िशक ा द े उसको अपन े आचरण म े भी
लासकेव ंेहीगुरू होसकतेहैं।
मनुष्य को िजस िकसी को भी गुरू के रूप में स्वीकार नहीं कर लेना चािहए। एक बार
गुरू केरूप मेस ं ्वीकारकर लेने केबादिकसी भीपिरिस्थितमेउ
ं नका त्यागनहींकरनाचािहए।
आत्म-साक्षात्कारी गुरू इस जमाने में सचमुच बहुत दुलर्भ हैं।
सचमुच आध्याित्मक िवकास कर लेने वाले व्यिक्त जब तक परमात्मा की आज्ञा
नहीं होती तब तक गुरू के रूप में फजर् अपने िसर पर नहीं लेते।
जब यो ग य साधक आ ध य ाितम क पथ की दीक ा ल े न े क े िल ए गुर की खोज म े जाता ह ै
तब उसके समक्ष ईश् वरगुरू के स्वरूप में िदखते हैं और उसे दीक्षा देते हैं।
जो मुक ता त म ा गुर ह ै व े एक िन रा ल ी जाग त अव स था म े रहत े ह ै िज स े
तुरीयावस्था कहा जाता है। जो िष् शयग ुरू के साथ एकता स्थािपत करना चाहता हो उसे संसार
की क्षणभंगुर चीजों के पर्ित सम्पूणर् वैराग्य का गुण िवकिसत करना चािहए।
गगगगगग गगगगग गग गगग
जो उच चत र ज ा न िच त् म े स े िन ष पन होता ह ै वह िव चार ो क े रप म े नही अिप तु
शिकत के रप मे होता है। वह जान गुर को िशषय के पित सीधे सीधा संकिमत करना पडता है। ऐसे गुर िचतशिकत के
साथ एक रूप होते हैं।
ईश् वर-साक्षात्कार केवल स्वपर्यत्न से ही नहीं हो सकता। उसके िलए गुरू कृपा
अत्यन्त आवश् यकहै।
िशषय जब उचचतर दीका के िलए योगय बनता है तब गुर सवयं ही उसे योग के रहसयो की दीका देते है।
गुरूशर्द्धापवर्तोक
ं ो िहलासकतीहै।गुरूकपृ ाचमत्कारकर सकतीहै।हेवीर! िनःसंशय बनकर आगे
बढ़ो।
परमातमा के साथ एकरप बने हुए महान आधयाितमक पुरष की जो सेवा करता है वह संसार के कीचड को पार
कर जाता है।
अगर आप सांसािरक मनोवृित्तवाले लोगों की सेवा करेंगे तो आपको सांसािरक
लोगोंकेगुणिमलेंगे।उससेिवपरीत, जो सद ै व परम सुख म े िन म ग न रहत े ह ै , जो सवर गु ण ो क े
धाम है, जो साक ा त ् प े म स वर प ह ै ऐस े गुर क े चरणकमल ो की स े व ा कर े ग े तो आपको
उनकेगुण पर्ाप्तहोंगे।अतःउनकी सेवाकरो... बस, सेवा करो।
गगगग गग गगगगगगगगग
अपने गुरू की सेवा करने वाले िष् शयक ो दूसरों के समक्ष लिज्जत नहीं होना
चािहए, संकोच महसूस नहीं करना चािहए।
गुरू नेभोजननिकयाहोतबतक आपकभीभोजनमतकरें।
गुरू का उिच्छष्टपर्साद(गुरू की थालीमेब ं चाहुआपर्साद) जो ग ह ण करता ह ै वह गुर क े साथ
एकतव का अनुभव करेगा। गुरकृपा से वह उनके साथ एकरप हो जायेगा।
अिनवायर् पिरिस्थितयों में भी जब गुरू िनदर्ाधीन हों या आराम करते हों तब उन्हें
जगान ा नही चािह ए , िवघ्न नहीं डालना चािहए।
गुरू केसाथ हँसीमजाककभीमतकरें।अगरऐसा करेंगत ेोधीर-ेधीरे उनके पित आदर कम होता जायगा और
आपको लगेगा िक मैं उनके बराबर हो गया हूँ।
बनावटीगुरू सेसावधानरहना। उन्होंने अपनीबरबादीतोकी हैलेिकनवेआपकीभीबरबादीकर देंगे।
गुरू होनाअच्छीबातहैलेिकनगुरू का त्यागकरनाबहुतखराबबातहै।
गुरू होनाअच्छीबातहैऔरगहरीशर्द्धासेउनकी सेवाकरनायहउससेभीअच्छीबातहै।
गुरू की आज्ञक ा ा पालनकरनाईश् वरकी आज्ञक ा ा पालनकरनेकेबराबरहै।
अनेक गुरू करना खराब बात है। गुरू से धोखा करना और उनकी आज्ञा का उल्लंघन
करना बहुत खराब बात है।
गुरू की सेवाकरनेकेिलयेसदैवतत्पररहो।
गुरू की अथक सेवाकरकेउनकीकृपापर्ाप्तकरो।
िज सन े गुर कृ प ा प ा प त की ह ै वही साधना का रह स य जानता ह ै ।
गुरू होनाअच्छीबातहै।उनकी आज्ञक ा ा पालनकरनाउससेभीअिधकअच्छीबातहैऔरउनकेआशीवार्द
पापत करना शेष है।
जो अपन े गुर की स े व ा करता ह ै वही परम स त य क े स म पकर म े आन े की कला
जानता ह ै ।
जो मोह स े मु क त बनता ह ै वह कभी भी गुर का द ो ह नही कर े ग ा।
गुरू महाराजकेजीिवतहोतेहुएजोउनकी गद्दीपरबैठने की इच्छाकरताहैउसेसीधानकर्का पासपोटर् िमल
जाता ह ै । यमरा ज भी ऐस े आदम ी स े डरत े रहत े ह ै िक शायद वह आदम ी म े र ी गद ी भी
छीन लेगा।
गुरपू िू णर्माकेिदनजोअपनेगुरू की पादपूजाकरताहैउसेसारेवषर् केदौरानसारेकमोर्म
ंेस
ं फलतािमलतीहै।
गुरभ ू ाईपरपर्ेम रखनायहगुरद ू ेवकेपर्ितपर्ेम
रखनेकेबराबरहै।गुरभ ू ाईको सहायकरनायहगुरद ू ेवकी
सेवा करने के बराबर है।
गुरू की सेवाकरनामानेआत्मोद्धारकरना।
गुरू की सेवाकरनामाँ-बापकी सेवाकरना।
िकसी भी चीज में अन्धशर्द्धा होना यह अच्छी बात नहीं है िकन्तु ईश् वरके साथ
एकतव सथािपत िकये हएु गुर के वचनो मे अनधशदा रखना यह मोक का राजमागर है।
आप कुछ ही समय में एक महान िवद्वान बन सकते हैं िकन्तु आसानी से सच्चे
िशषय नही बन सकते।
गगगगग गगगग गग गगग
आजकल कई बनावटी गुरू तथा िष् शयि द खाई देते हैं। आपको गुरू की पसन्दगी करना हो
तब ध्यान रखना।
िशषय का कतरवय है गुर के पिवत मुख से जो आजाएँ िनकले उनका पालन करना।
गुरू केिनवासएवंआशर्मकेआसपासकेस्थानस्वच्छएवंव्यविस्थतरखो।
गुरू और िष्य श क े बीचपर्ेमऔी रपर्ेिमकाजैसासम्बन्धहै।
कभी कभी गुरू अपने िष् शयक ी कसौटी करें या उसे पर्लोभन में डालें तो िष् शयक ो
गुरू केपर्ितअपनीशर्द्धाकेद्वाराउसका सामनाकरनाचािहए।
िशषय को कोई भी चीज गुर से िछपाना नही चािहए। उसे सपषवकता और पामािणक बनना चािहए।
रागद्वेष से मुक्त गुरू के चरणकमलों की धूिल बनना यह तो महान सौभाग्य है, दुलर्भ
अिधकार है।
परमातमा के साथ एकतव सथािपत िकये हुए आचायर के पिवत चरणो की धूिल तो िशषय के िलए अलौिकक
अलंकार है।
गुरस ू ेवाका एकभीिदनचूकनानहीं।िकसी भीपर्कारकेपंगुबहानेबनानानहीं।
जो अपन े को गुरचरण की धू िल मानत ा ह ै ऐस े मनु ष य को ध न य ह ै ।
जो िश ष य नम , सादा, आज्ञाकारी तथा गुरू के चरणकमलों के पर्ित भिक्तभाव
रखनेवाला है उस पर गुरूकृपा उतरती है।
गुरू केकायर् का एकसाधनबनो।
गुरू जबआपकीगलितयाँबतावेतबअपन ं ेकायर्
उिचतहैऐंसा बचावमतकरे , ंकेवल उनका कहा मानें।
जो गुर िव श े ष ज हो उनक े मागर द शर न म े आसन , पाणायाम, धयान सीखो।
िज सकी िन द ा तथा आहा र आव श यकता स े अिध क ह ै वह गुर की रिच क े मु त ािब क उनकी
सेवा नहीं कर सकता।
गगगग गग गगगगगगगगग गग
जो अिध क वाचाल ह ै और शरीर की टीपटाप करना चाहता ह ै वह गुर की इ च छ ा क े
अनुसार सेवा नहीं कर सकता।
हररोज भिक्तभाव एवं भिक्त से गुरू के चरणकमलों की पूजा करो।
अगर अलौिकक भाव से अपने गुरू की सेवा करना चाहते हो तो िस्तर्यों से एवं
सांसािरक मनोवृित्तवाले लोगों से िहलोिमलो नहीं।
गुरू केआशीवार्दका खजानाखोलनेकेिलएगुरू सेवागुरू चाबीहै।
जहा गुर ह ै वहा ईश र ह ै , यहबातसदैवयादरखो।
जो गुर की खोज करता ह ै वह ईश र की खोज करता ह ै । जो ईश र की खोज करता ह ै
उसेगुरू िमलतेहैं।
िशषय को अपने गुर के कदम का अनुसरण करना चािहए।
गुरू की पत्नीको अपनीमातासमझकरउनको इस पर्कारमानदेनाचािहए।
अपने गुरू से क्षणभंगुर पािथर्व सुखों की याचना मत करना। अमरत्व के िलए याचना
करो।
अपने गुरू से सांसािरक आवश् यकताओंकी भीख नहीं माँगना।
सच्चे िष् शयक े िलए आचायर् के चरणकमल ही एकमातर् आशर्य है।
जो कोई अपन े गुर की भावपू वर क , अहिनर्श अथक सेवा करता है उसे काम, कर्ोध और
लोभकभीसतानहींसकते।
गगगग गग गगगगग गगग
जो द ै व ी गुर क े चरणो म े आश य ल े त ा ह ै वह गुर की कृ प ा स े आ ध य ाितम क मागर
में आने वाले तमाम िवघ्नों को पार कर जाएगा।
योगकेिलएशर्ेष्ठएकान्तस्थानगुरू कािनवासस्थानहै।
िशषय के साथ गुर रहते नही हो तो ऐसा एकानत सचचा एकानत नही है। ऐसा एकानत काम और तमस का
आशर्यस्थान बन जाता है।
िज स िश ष य को अपन े गुर क े प ित भिकत भ ा व ह ै उसक े िल य े तो आिद स े अ न त तक
गुरू सेवामीठेशहद जैसीबनजातीहै।
गुरू केपिवतर्मुख सेबहतेहुएअमृतका जोपानकरताहैवहमनुष्यधन्यहै।
जो स म पू णर भाव स े अपन े गुर की अथक स े व ा करता ह ै उस े दुिन याद ा र ी क े िव चार
नहीं आते। इस दुिनया में वह सबसे अिधक भाग्यवान है।
बस, अपने गुरू की सेवा करो, सेवा करो, सेवा करो। गुरूभिक्त िवकिसत करने का यह
राजमागर् है।
गुरू मानेसिच्चदानंदपरमात्मा।
गगगग गग गगगग
पूजय आचायर की सेवा जैसी िहतकारी और आतमोनित करने वाली और कोई सेवा नही है।
सच्चा आराम दैवी गुरू की सेवा में ही िनिहत है। ऐसा दूसरा कोई सच्चा आराम नहीं
है।
गुरूकपृ ासेजीवनका ममर् समझमेआ ं ताहै।
िकसी भी पर्कार के स्वाथीर् हेतु के िबना आचायर् की पिवतर् सेवा जीवन को
िनशि ्चत आकार देती है।
वेदान्त के थोड़े बहुत पुस्तक स्वतंतर् रीित से पढ़ लेने के बाद यों कहना िक 'न
गुरःू न िष् श
षषष य' ष
ःयहसत्यकेखोजीकेिलएमहानभूल है।
कभी कभी िष् शयक े पापों को हर लेने से गुरू को शारीिरक पीड़ा भुगतनी पड़ती है।
वास्तव में गुरू कोई भी शारीिरक रोग या पीड़ा नहीं भोगते, िकन्तु बहुत भिक्तभाव और
तत्परता से गुरू की सेवा करके हृदय को पिवतर् बनाने के िलए िष् शयक ो पर्ाप्त एक िवरल
मौका है।
पुणयशाली आचायर का उतम िवचार िशषय को पािथरवता और इिनदयिवषयक जीवन से ऊपर उठने मे सहायरप
है।
'उप' माने 'पास'। 'िन' माने 'नीचे'। 'षद ' माने 'बैठना'। 'उपिनषद' माने आचायर् के पास
नीचे बैठना। िष् शयकों ा समूह बर्ह्म के िसद्धान्त का रहस्य जानने के िलए आचायर् के
पास बैठता है।
गगगगग-गगगगगग गग गगग
पिवत शासतो का गूढ रहसय और पाचीन िसदानतो का अथर केवल पुसतके पढने से या पािणडतयपूणर भाषण सुनने
से समझ में नहीं आता। जो भाग्यशाली िष् शयआ जीवन गुरू के साथ रहकर उनकी सेवा
करते हैं और गुरू के पर्ित आदर तथा भिक्तभाव रखते हैं उनको 'तत्त्वमिस', अहं
बर्ह्मािस्, मसवर्ं खिल्वदं बर्ह्म' आिद उपिनषदों के कथन अच्छी तरह समझ में आते हैं और
उनकेअथर्का साक्षात्कारहोताहै।
गुरूकप ृ ाआत्माका आन्तरदर्शन करातीहै।
अनेकबार की िबनती और किठन कसौटी के बाद ही सदगुरू अपने िवश् वसनीय िष् शयक ो
उपिनषदकी रहस्यिवद्यापर्दानकरतेहैं।
उपिनषदकी परम्पराकेमुतािबकआचायर् बर्ह्म
-िवद्या का रहस्य अपने योग्य पुतर् अथवा तो
िवश् वसनीय िष् शयक ो ही दे सकते हैं , और िकसी को भी नही। िफर वह चाहे कोई भी हो और चारो ओर से
पानी से आवृत, वैभव से समृद्ध सारी पृथ्वी गुरू को देने के िलए तैयार हो।
पावनकारी गुर को दणडवत् पणाम करने के बाद उनकी ओर पीठ करके िशषय को जाना चािहए।
आचायर् यिद वेदान्त को सच्चा अथर् जानते हों और जीवन की िविभन्न अवस्थाओं
को वह िकस पर्कार लागू िकया जा सकता है वह समझते हों तो एक बालक को भी वे वेदान्त
िसखा सकते हैं।
जो व यिकत प ै स े क े पी छ े दौड त ा ह ै वह गुर की स म पित चु र ान े म े भी िझ झकता
नहीं है।
गुरू की सम्पित्क तेपर्ितलोलुपमतबनो।
जो मुक ता त म ा पाव नकार ी गुर ह ै व े शािनत और आन न द स वरप ह ै । व े समदृ िष व ा ल े
और िसथतपज है। उनके िलए मान-अपमान, स्तुित-िनन्दा, सुख-दुःख समान है। वे काम, कर्ोध, लोभ,
मद और मत्सर से मुक्त हैं। उनको रूिच अरूिच नहीं होती। उन्हें कोई आसिक्त नहीं होती।
वे बालक जैसे िनदोर्ष, िफर भी ज्ञान के भण्डार हैं। वे अपनी उपिस्थित मातर् से या
कृपादृिष्ट से ही िष् शयक े संशय दूर करते हैं।
गरीबऔरिबमारकी सुशर्षाकरना ु , गुरू औरमाँ-बापकी सेवाकरना, दया के उत्तम कायर् करना,
गुरूकप ृ ासेआत्मज्ञानपाना..... यहसब सचमुचसवर्शर ेष्् ठपुण्यहै।
गुरू की िनजीसेवाजैसीपावनकारीऔरकोई चीजनहींहै।
मोक्ष के शर्मजनक मागर् में गुरूकृपा सचमुच िवश् वसनीयसाथी है।
गगगगगगगग गग गगगगगग
केवल गुरू की शरण में जाने से ही जीवन जीता जा सकता है।
गुरभू िक्तयोगकेअभ्याससेमनको संयममेल ं ानेसेकामवासनाकी शािन्तहोसकतीहै।
गुरस ू ेवाआपकोिबल्कुलस्वस्थऔरतन्दुरस ू ्तरखती है।
गुरभ ू िक्तयोगका अभ्यासआपकोअमापएवंअनहदआनन्ददेताहै।
गुरसू ेवाअद्वैतभावयाएकरूपतापैदाकरतीहै।
गुरभ ू िक्तयोगसाधक को िचरायुऔरअनन्तसुख देताहै।
गुरस ू ेवाकेिबनावेदान्तका अभ्यासव्यिक्तको तोतेजैसावेदान्तीबनाताहै।अतःअपनेपूज्यआचायर् की सेवा
करो, सेवा करो, सेवा करो।
अपने दैिनक जीवन में मागर्दर्शन के िलए पर्त्येक क्षण पूज्य गुरू की पर्ाथर्ना
करो।
जो प ा थर न ा िश ष य क े िन खािल स , पिवत हृदय से िनकलती है उसे गुर की ओर से ततकाल पतयुतर
िमलता है।
जो साधु -संत पूज्य गुरू हैं उनके पास शर्द्धा, भिकत और नमतापूवरक जाओ। जानरपी औषध
लो। सम्पूणर्
आज्ञाकािरतापथ्यहै।तभीअज्ञानरूपीरोगपूणर्तःिनमूर लहोगाऔरआपसव
् ोर्च्चसुख का अनुभवकर
सकेंगे।
अनुकर्म
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
गगगगगगग 9
गगगगगगगगग गग गगगग
गगगगगगग गग गगगगगगग
गुरू मेश ंर्द्धागुरभ
ू िक्तयोगकी सीड़ीका पर्थमसोपानहै।
गुरू मेश ंर्द्धादैवीकृपापर्ाप्तकरनेकेिलए िष्य श क ो आशाएवंपर्ेरणादेतीहै।
गुरू मेस ं म्पूणर्
िवशव ् ासरखो। तमामभय, िचनता और जंजाल का तयाग कर दो। िबलकुल िचनतामुकत रहो।
"गुरव ू चनमेश ंर्द्धाअखूट बल, शिकत एवं सता देती है। संशय मत कर। हे िशषय आगे बढ।"
ज ा न ी ज न ो क े समाग म स े तथा पु र ाण और पिव त शास त ो क े अ ध य य न स े गुर पर
शदा दृढ करो।
गुरू केउपदेशोंमेग ं हरीशर्द्धारखो। सदगुरू केस्वभावऔरमिहमाको स्पष्टरीितसेसमझो। गुरू की सेवा
करके िदव्य जीवन िबताओ। तभी ईश् वरकी जीवन्त मूितर् के समान सदगुरू के पिवतर् चरणों
में सम्पूणर् आत्मसमपर्ण कर सकोगे।
गुरू को िवघ्नरूपबननेसेतोमरनाबेहतरहै।
गुरू परभिक्तभावसब हीनवृित्तयोऔ ं रआवेगोक ं ो दबादेताहैतथासब अवरोधोंको दूर करताहै।
गुरभू िक्तयोगमेग ंर ु ू केपर्ितभिक्तभावसबसेमहानचीजहै।
गगगगग गग गगगगगग
गुरू की अचलभिक्तईश् व-रसाक्षात्कार करने के िलए बहुत असरकारक पद्धित मानी जाती
है।
गुरू की मिहमाका सततस्मरणऔरउनकेिदव्यसन्देशको सवर्तर् फैलानायागुरू केपर्ितसच्चाभिक्तभावहै।
आचायर् के पिवतर् चरणों की भिक्त फूल है और उनके आशीवार्द अमर फल है।
जीवन का ध य े य ह ै पिर ण ा म म े दु ः ख द े न े व ा ल ी कुसं गित का त या ग करना और
अमरत्व देने वाले पिवतर् आचायर् के चरणकमलों की सेवा करना।
साधक जब इहलोक और परलोक में िचरंतन सुख देने वाले गुरूभिक्तयोग का आशर्य
लेताहैतभीउसका सच्चाजीवनशु रू होताहै।
"ज न म -मृत्यु, सुख-दुःख, हषर्-शोक के अिवरत चक से मुिकत नही होगी कया ? हे िष् श य
षषष !
सावधान होकर सुन। उसके िलए एक िनशि ्चत उपाय है। नाशवंत इिन्दर्यिवषयक पदाथोर्ं में
से अपना मन हटा ले और इन द्वन्द्वों से पार ले जाने वाले गुरूभिक्तयोग का आशर्य
ले।"
सच्चा स्थायी सुख बाहर के नाशवंत पदाथोर्ं से नहीं अिपतु गुरश ू रणयोग का आशर्य
लेने
सेिमलसकताहै।
गुरस ू ेवायोग, गुरूशरणयोगआिदगुरभ ू िक्तयोगकेसमानाथीर् शब्दहैं।वेसब एकहीहैं।
गुरभ ू िक्तयोगका अभ्यासमानेगुरू केपर्ितगहरापिवतर्पर्ेम।
आचायर् के पावनकारी चरणकमलों के पर्ित पिवतर् पर्ेम धीरे-धीरे िवकिसत करना
चािहए। उसके िलए कोई टू ंका मागर नही है।
गुरभू िक्तयोगसबिवज्ञानोंमेश ंर्ेष्ठिवज्ञानहै।
सच्चे िष् शयक े िलए पावनकारी आचायर् के चरणकमल ध्यान का मुख्य िवषय हैं।
गुरभ ू िक्तयोगसब योगोंका राजाहै।
गुरभ ू िक्तकेअभ्याससेजबमनकीिबखरीहुई शिक्तकी िकरणेए ं कितर्तहोतीहैत
ं बयहरोगचमत्कारकर
देता है।
सब महात्माओं तथा आचायोर्ं ने गुरूभिक्तयोग के अभ्यास द्वारा महान कायर् िकये
हैं। जनादर्न स्वामी के िष् शयए कनाथजी गुरूभिक्त से महान हो गये और उनका िष् श य
षषष
पूरणपोडा अिवदान होते हुए गुर का अपूणर गनथ पूणर कर सका। शंकराचायर के िशषय तोटकाचायर ने गुरभिकत से
चमतकार कर िदखाया। एकलवय और सहजोबाई गुर-भिकतयोग के पतयक पमाण है। और भी असंखय गुरभकतो ने गुर
के दैवी िचन्तन से, मधुर स्मृित से अथवा गुरू के दैवी कायर् में सेवा करके हृदय की ऐसी
शीतलता, मन की मधुरता महसूस की है िक िकताबें पढ़कर कथा करने वाले या सुनने वाले
िज सकी कल पन ा भी नही कर सकत े । ऐसी ह ै गुरभिकत की मिह म ा !
गुरभ ू िक्तयोगकी िफलासफीकेमुतािबकगुरू औरईश् वरअिभन्न , एक ही है। अतः गुर को समपूणर आतमसमपरण
करना अिनवायर् है।
गुरभ ू िक्तयोगमेअ ं न्यसब योगसमािवष्टहोजातेहैं।गुरभ ू िक्तयोगका आशर्यिलएिबनाकोई भीव्यिक्तअन्य
किठन योगों का अभ्यास नहीं कर सकता।
गुरभ ू िक्तयोगकीिफलासफीआचायर् की उपासनाकेद्वारागुरूकप
ृ ाकरनेकेिलएमुख्यदृष्टान्तआगेरखतीहै।
गुरभ ू िक्तयोगवेदऔरउपिनषदोंकेसमयिजतनापर्ाचीनहै।
हृदय की पिवतर्ता पर्ाप्त करने के िलए ध्यान के िलए और आत्म-साक्षात्कार के
िलएगुरभ ू िक्तयोगकी िफलासफीगुरस ू ेवापरकाफीजोरदेतीहै।
जो अपन े गुर की आरो ग य त ा क े िल ए लगा रहता ह ै वह मनु ष य ध न य ह ै ।
गगगग गग गगगगग
गुरूकप ृ ाएकपिरवतर्नकारीबलहै।
जहा गुरकृ प ा ह ै वहा िव जय ह ै ।
आचायर् के पावन चरणों की पूजा करने में और उनके िदव्य आदेशों का पालन
करने में ही सच्चा जीवन है।
गुरभ ू िक्तयोगकेिनरन्तरअभ्यासद्वारामनकी चंचलवृित्त कोिनमूर लकरो।

इस लोक के आपके जीवन का परम धयेय और लकय अमरतव पदान करने वाली गुरकृपा पापत करना है।
गुरू की सेवाकरतेसमयशर्द्ध,ा आज्ञापालन और आत्मसमपर्ण, इन तीनो को याद रखो।
गुरस ू ेवाकेआदर्शक ो अपनेहृदयमेग ं हराउतरजानेदो।
कुसंग में से अपने मन को अलग करो और जो पूणर्ता के पर्तीक हैं, सत्यवेत्ता
हैं, सावर्ितर्क पर्ेम के केन्दर् और मनुष्य जाित के नमर् सेवक हैं ऐसे गुरू के पावन
चरणो मे अपने मन को लगा दो।
ज ा न ी गुर की सहायत ा स े सतत आ ध य ाितम क अ भ य ास जारी रखो।
सच्चा साधक गुरूभिक्तयोग के अभ्यास में लगा रहता है।
हो सके उतनी मातर्ा में आचायर् के पर्ित भिक्तभाव जगाओ। तभी उनके
सवर्शर्ेष्ठ आशीवार्द का सुख भोग सकोगे।
पावनकारी आचायर के पिवत चरणो को िनहारते िनहारते सचचे आननद की कोई सीमा नही रहती।
एक भी कण गँवाओ नही। जीवन थोडा है। समय जलदी से सरक जाता है। मृतयु कब आ जाय, कोई पता
नहीं। उठो, जाग ो , तत्परतापूवर्क आचायर् की सेवा में लग जाओ।
आचायर् की सेवा में डूब जाओ।
गुरू पर शर्द्धाऔरउनकेज्ञानकेवचनोंसेसज्जबनो।
गगगगगगगगगग गगगगग गग गगगग
आध्याित्मक मागर् तीक्ष्ण धारवाली तलवार का मागर् है। िजनको इस मागर् का अनुभव
है ऐसे गुरू की अिनवायर् आवश् यकताहै।
आपके सब अहंभाव का त्याग करो और गुरू के चरणकमलों में अपने आपको सौंप
दो।
गुरू आपकोमागर् िदखाएँगे
औरपर्ेरणादेंगे।मागर्मेआं पकोस्वयंहीचलनाहोगा।
जीवन अ ल प ह ै । समय ज ल दी स े सरक रहा ह ै । उठो , जाग ो , आचायर् के पावन चरणों
में पहुँच जाओ।
जीवन थोड ा ह ै । मृ त यु कब आय े ग ी , िनशि ्चत नहीं है। अतः गंभीरता से गुरू सेवा
में लग जाओ।
हररोज आध्याित्मक दैिनकी िलखो। उसमें अपनी पर्गित और िनष्फलता की सच्ची
नोट िलखो और हर महीने अपने गुरू के पास भेजो।
अपने गुरू से ऐसी िकायत शन हीं करना िक आपके अिधक काम के कारण साधना के
िलएसमयनहींबचता। नींदकेतथागपशपलगानेकेसमयमेक ं टौतीकरोऔरकम खाओ। तोआपकोसाधनाकेिलए
काफी समय िमलेगा। आचायर् की सेवा ही सवोर्च्च साधना है।
गुरू की सेवाऔरगुरू केहीिवचारोंसेदुिनयािवषयकिवचारोंको दूर रखो।
अपने आध्याित्मक आचायर् के आगे अपनी शिक्त की बड़ाई नहीं करना या पर्माण
नहीं देना। नमर् और सादे बनो। इससे आध्याित्मक मागर् में शीघर् पर्गित कर सकोगे।
आचायर् के कायोर्ं की िनन्दा, आलोचना एवं दोषदर्शन छोड़ देना। उनके
पतयाघातो से सावधान रहना।
आचायर् की सेवा करते समय चाहे िकतने भी दुःख आ जाएँ, उन्हेसह ं लेने
की तैयारी
रखना।
पेम एवं अनुकंपा की साकात् मूितर रप अपने गुर के समक अपने दोषो को पकट करके एकरार करो।
आपके गुरू आपसे अपेक्षा रखें उससे भी अिधक सेवा करो।
गुरू केिसवायऔरिकसी सेगाढ़सम्बन्धमतरखो। औरलोगोंसेकमिहलोिमलो।
गुरू का पर्े,मउनको दयादृिष्ट िष्य
श क ी स्थूलपर्कृितका पिरवतर्नकरकेशुद्धीकरणकर सकतीहै।
गगगगग गग गगगगग
गुरू की मिहमाको पहचानकर उसका अनुभवकरोऔरउनका पर्े-मसन्देश मनुष्य जाित में
फैलाओ। ऐसा करने से गुरू की कृपा आप पर उतरेगी।
आचायर् के पर्ित कत्तर्व्यों में से कभी भी िवचिलत मत बनो।
शदा, िवनय एवं भिक्तभावपूवर्क गुरू को खूब मूल्यवान भेंट देनी चािहए।
गुरू को शर्ेष्ठदानदो। गुरू को लापरवाहीमेदं ीहुई भेंटभी िष्य
श क ो वापसनहींलेनाचािहए।
गुरू की सेवाकरतेसमयअपनेभीतरकेहेतुओंपरिनगरानीरखो। िकसी भीपर्कारकेफल, नाम, कीितर्,
सत्ता, धन आिद की आशा के िबना ही गुर की सेवा करनी चािहए।
आप अपने गुरू के साथ व्यवहार करें तब सच्चाई एवं िनष्ठा रखना।
गुरभ ू िक्तयोगमेईंमानदारीकेिबनाआध्याित्मकपर्गितसंभवनहींहै।
िज स प क ा र चातक पक ी क े व ल व ष ा क े पान ी की आशा म े ही जीता ह ै उसी प क ा र
केवल गुरू कृपा की आशा से ही िष् शयआ ध्याित्मक मागर् में आगे बढ़ सकता है।
गुरू केपर्ितआितथ्यभाविदखानायहसवोर्च्चयज्ञहै।गगगगगगगग गगगग गगगग गग गगग
गगगगगगग गग गगगग गगगग गगगगगग गग गग गगग गगगग गगगग गग।
गगगगग-गगगगगगगगगगग गग गगगग गगग गगगगग
गुरच ू रणमेआ ं शर्यलेकरपर्ेरणापाओ।
पेम यह गुर के चरणकमलो के साथ िशषयो के हृदय को बाधने वाली सुवणर की कडी है।
ईश् वरका अनुभव करने के िलए गुरूभिक्तयोग सबसे सरल, सचोट, त्विरत और सलामत
मागर् है। आप सब गुरूभिक्तयोग के अभ्यास के इसी जन्म में ईश् वर-अनुभव पर्ाप्त करें।
गुरू केनामका शरण लो। सदैवगुरू का नामरटनकरो। किलयुगमेग ंरु ू की मिहमागाओऔरउनका ध्यान
करो। ईश् वर-साक्षात्कार के िलए यह शर्ेष्ठ और सरल मागर् है।
मोक्ष अथवा सनातन सुख के द्वार खोलने की गुरूचाबी गुरूभिक्त है।
जीवन मधु र फू ल ह ै , िज सम े गुरभिकत मीठा शहद ह ै ।
गुरू केचरणोंकी भक्तसच्चे िष्य श क े िलएश्वासोच्छवासकेबराबरहै।
गुरभू िक्तयोगकेअभ्याससेअमरत्व, सवोर्त्तम शािन्त और शाश् वतआनन्द पर्ाप्त होता है।
गुरू पर्ेमऔरकरू णा की मूितर्है।आपकोअगरउनकेआशीवार्दपर्ाप्तकरनेहोंतोआपकोभीपर्ेम औरकरू णा
की मूितर् बनना चािहए।
गुरू केपर्ितभिक्तअखूट औरस्थायीहोनीचािहए।
गुरू सेवाकेिलएपूरेहृदयकी इच्छाहीगुरभ ू िक्तका सारहै।
शरीर या चमडी का पेम वासना कहलाती है, जबिक गुर क े प ित प े म गुरभिकत कहलाता ह ै ।
ऐसा पेम पेम के खाितर होता है।
गुरू केपर्ितभिक्तभावईश् वरकेपर्ितभिक्तभावका माध्यमहै।
जप , कीतर्न, पाथरना, धयान, साधुसेवा, अध्ययन और साधुसमागम के द्वारा अपने
हृदयकुँज में शुद्ध गुरूभिक्त का फूल िवकिसत करो।
गुरू की सेवाआपकेजीवनका एकमातर् लक्ष्यऔरध्येयहोनाचािहए।
अपने आपकी अपेक्षा गुरू पर अिधक पर्ेम रखो।
गगगगगगगगगग गग गगगगग
अपने शतर्ुओं पर पर्ेम रखो। अपने से िनम्न कोिट के लोगों पर पर्ेम रखो।
पािणयो के पित पेम रखो। अपने गुर पर पेम रखो। सब साधु संतो पर पेम रखो।
गुरू की िनःस्वाथर् सेवा, महात्माओं का सत्संग, पाथरना और गुरमंत के जप दारा धीरे धीरे िवशपेम का
िवकास करो।
अन्य लोगों ने जो चीज महापर्यत्न से िसद्ध की हो वह चीज आप गुरू कृपा से पर्ाप्त
कर सकते हैं।
धनय है िवनम लोगो को, क्योंिक उन्हें तुरन्त गुरू कृपा िमल जाती है। िजन्होंने गुरू की
शरण ली है ऐसे पिवत आतमाओं को धनयवाद है, क्योंिक उनको परम सुख अवश् यपर्ाप्त होता है।
गुरूकप ृ ाकी पर्ािप्क
तेिलएनमर्ताराजमागर्
है।
आध्याित्मक आचायर् अथवा सच्चे महापुरूष की पर्थम कसौटी उनकी नमर्ता है। यह
उनका मूलसदगुणहै।
गगगग गग गगग गगगगगगगगग
सुई के छेद से ऊँट गुजर सके इससे भी अत्यन्त अिधक मुशि ्कल बात है गुरू कृपा
के िबना ईश् वरकृपापर्ाप्त करना।
ज ै स े पानी को दूध म े डाला जाए तो वह दू ध म े िम ल जाता ह ै और अपना व यिकत त व
गँवादेताहैवैसे सच्चे िष्य
श क ो चािहएिक वहअपनेआपकोसम्पूणर्तःगुरू को सौंपदे , उनकेसाथ एकरूप होजाय।
ज ै स े छोट े छोट े झरन े एवं निद या महान पिव त नदी गं ग ा स े िम ल जान े क े
कारण खुद भी पिवतर् होकर पूजे जाते हैं और अिन्तम लक्ष्य समुदर् को पर्ाप्त होते हैं।
इसी पकार सचचा िशषय गुर के पिवत चरणो का आशय लेकर तथा गुर के साथ एकरप बनकर शाशत सुख को पापत
होता है।
बालकबोलना-चलना कया एक ही िदन मे सीखता है ? बोलना-चलना सीखने के िलए बालक को आवशयक ऐसे
माँ-बापकेलम्बेसहवासएवंयोग्यिनगरानीतथारसकी आवशय ् कतानहींपड़तीक्या? पडती ही है। इसी पकार सचचे
और ईमानदार िशषय को गुर के साथ लमबे समय तक रहना चािहए और तन मन से सब सेवा करना चािहए। इस पूरे समय
के दौरान सवोर्च्च िवद्या सीखने के िलए हृदयपूवर्क ध्यान देना चािहए और उसमें रस
लेनाचािहए। इस पर्कारउसेपरमज्ञानपर्ाप्तहोगा, और िकसी पकार से नही।
गग गगगगग गगगग गगगग
कल्पवृक्ष, कामधेन और िचन्तामिण माँगने वाले को उसका मनोवांिछत वरदान
अवश् यदेते ही हैं। इसी पर्कार गुरू भी माँगने वाले को इष्ट वस्तु अवश् यदेते हैं। अतः
सच्चा िष् शयत ो केवल मोक्ष पर्ाप्त करने के िलए उपिनषद की महािवद्या ही माँगता है।
िज स प क ा र बालक जब धीर े धीर े कदम रखता ह ै और स वतं त रीित स े चलन े की
कोश श ि करता है तब कभी कभी िगर पड़ता है और खड़ा होता है। माँ की सहायता की
आवश् यकतापड़ने पर उसकी सहायता माँगता है। इसी पर्कार साधना के पर्ारंभ के स्तरों
में िष् शयक ो करूणामय गुरू की सहायता एवं मागर्दर्शन की आवश् यकतापड़ती है। अतः उसे
वह माँगना चािहए।
एक बालक की तरह सचचे िशषय को मोक के िलए तीवर आकाका होनी चािहए तथा संभव हो उतनी तमाम रीितयो
से वह आकांक्षा पर्कट करनी चािहए। तभी उसकी इच्छा की पूितर् करने में गुरू उसे
सहायभूत हो सकते हैं। इस आकांक्षा को पर्यत्न कह सकते हैं और गुरू की करूणामय सहाय
को माता की वात्साल्मय कृपा कह सकते हैं।
सुन्दर ढंग से िनिमर्त मूितर् के िलए दो चीजें आवश् यकहैं- एक है अखणड, कमीरिहत
अच्छा संगमरमर का टुकड़ा और दूसरी चीज, कुशल िल् श पसी। ंगमरमर का टुकड़ा िल् श पकी े
हाथ में रहना अिनवायर् है िजससे छीनी के द्वारा उसे कुरेदकर सुन्दर मूितर् बनाया
जाय े । इसी प क ा र िश ष य को भी चािह ए की वह अपन े आपको स व च छ और शुद करक े िब ल कु ल
क्षितरिहत संगमरमर के टुकड़े जैसा बनाए और गुरू के कुशल मागर्दर्शन में रख ,दे
िज सस े गुर छी न ी स े उस े कु र े द क र प भ ु की िद व य मू ितर म े पिर वितर त कर सक े ।
ज ै स े सू य ो द य होत े ही तमाम अ न धकार का तु र न त नाश होता ह ै व ै स े ही गुरकृप ा
उतरतेही िष्य श क े मनमेआ ं वरणऔरअिवद्याका तुरन्तनाश होताहै।
िज स प क ा र सूयर की प ख र िकरणो स े जला हु आ मनु ष य वृ क की शीतल छाय ा म े और
िदन भर की गमीर् के बाद शीतल चाँदनी में असीम आनन्द की अनुभूित करता है उसी पर्कार
संसार की पर्खर िकरणों से जला हुआ और शािन्त के िलए व्याकुल बना हुआ मनुष्य
बर्ह्मिनष्ठगुरू केचरणोंमेइं िच्छतशािन्तऔरआनन्दकी अनुभूितकरताहै।
िज स प क ा र चातक पक ी ल म ब े समय तक इ न तजा र करन े क े बाद व ष ा क े क े व ल
एक ही जलिबनदू से अपनी पयास बुझाता है उसी पकार सचचे िशषय को अपने गुर की सेवा करनी चािहए और उपदेश वचन
का इन्तजार करना चािहए। इससे उसकी तमाम व्यथाएँ शान्त होंगी और वह सदा के िलए
मुक्त हो जाएगा।
ज ै स े अिगन का स वभा व ही ऐसा ह ै िक उसक े िन कट आन े व ा ल ी प त य े क वस तु को
जलाकर भस म कर द े त ी ह ै , वैसे ही जो मनुष्य कृपालु गुरू की पर्ािप्त कर लेता है उसके
िकसी भी गुण दोषों को देखे िबना बर्ह्मिनष्ठ गुरू की कृपा उसके तमाम पापों को जलाकर
भसम कर देती है।
गगगगगगगगगग गगगगगगगगग गग गगगगगगगग
जो कोई मनु ष य दु ः खो स े पार होकर सुख एवं आन न द प ा प त करना चाहता हो उस े
सच्चे अन्तःकरण से गुरूभिक्तयोग का अभ्यास करना चािहए।
गुरू केपिवतर्चरणोंकेपर्ितभिक्तभावसवोर्त्तमगुण है।इस गुण को तत्परताएवंपिरशर्मपूवर्किवकिसतिकया
जाए तो इस सं स ा र क े दु ः ख और अज ा न क े कीचड स े मु क त होकर िश ष य अखू ट आन न द और
परम सुख के सवगर को पापत करता है।
पारंभ मे तरंग के रप मे िदखने वाली िवषय वृितया कुसंग के कारण महासागर का रप धारण कर लेती है। अतः
कुसंग का त्याग करके आचायर् के जीवनरक्षक चरणों का आशर्य लो।
अगर आप गुरूसेवा में रममाण रहते हैं तो आप िचन्ताओं को जीत सकते हैं। सब
िचनताओं का यह अचूक मारण है।
उत्तम िष्य
श क ो अपनेगुरू परिकसी भीपिरिस्थितमेस ं न्देहनहींलानाचािहएयाउनकीउपेक्षना हींकरनी
चािहए।
आदरणीय गुरू के पिवतर् चरणों में साष्टाँग दण्डवत् पर्णाम करने में लिज्जत
होना यह गुरूभिक्तयोग के अभ्यास में बड़ा अवरोध है।
स्वावलम्बन, आत्मन्यायीपन की भावना, िमथ्यािभमान, आत्मािभमान, अपनी बात ही
सत्य है ऐसा मानना, आलस्य, हठागर्ह, कूथली, कुसंग, बेईमानी, उद्दण्डता, काम, कर्ोध, लोभऔरमैं
पना.... येचीजेगु ं रभ
ू िक्तयोगकेमागर्मेमं हानभयस्थानहैं।
कमर्योग, भिकतयोग, राजयोग, हठयोग, ज ा न य ो ग आिद सब योग ो की नी व गुरभिकत य ो ग
है। जो िष् शयम ानता है िक मैं सब कुछ जानता हूँ िक वह मैं पने की भावना के कारण
अपने गुरू से कुछ भी नहीं सीख सकेगा।
वह खुद सच्चा है ऐसा गुरू के समक्ष िदखाना यह िष् शयक े िलए बहुत ही खतरनाक आदत
है।
आप जब गुरू की सेवा करते हों तब नमर्, मधुरभाषी, मृदु और िववेकी बनो। इससे गुरू
का हृदय जीत सकोगे। गुरू के समक्ष वाणी या वतर्न में कभी उद्दण्डता मत िदखाओ।
मोटी बुिद्ध का िवद्याथीर् गुरूभिक्तयोग के अभ्यास में िकसी भी पर्कार की ठोस
पगित नही कर सकता।
िशषय को आदरणीय आचायर के जीवन की उजजवल बाते ही देखनी चािहए।
मन में अगर गुरू के िवषय में कुिवचार आये तो स्वयं ही अपने को दण्ड दो।
आपके िलए केवल इतना ही आवश् यकहै िक गुरूभिक्तयोग के मागर् में
अन्तःकरणपूवर्क पर्ामािणक पर्यत्न करना है।
अपना गुरूमंतर् अथवा गुरू का पिवतर् नाम हररोज एक घण्टे तक स्वच्छ नोटबुक में
िलखो।
चलते हुए, खाते हुए, कायार्लय में काम करते हुए भी सदैव अपने गुरूमंतर् का जप
करते रहो।
गगगग गग गगगगगगगगगग गगगगगगगगग
महान गुरू में िस्थत चमत्कािरक आध्याित्मक शिक्त के द्वारा िष् शयम ें जो अदभुत
पिरवतरन िकया जाता है उस उपकार के महान ऋण का पूरा वणरन करने की शिकत वाणी मे नही है।
'सदगुरू साक्षात् ईश् वरहैं' ऐसा जो कहा गया है वह सतय ही है। उनकी महानता शबदातीत है।
गुरू का सािन्न
ध्यपर्बलआध्याित्मकस्पन्दनोंकेद्वारा िष्य
श क ो ऊँचीभूिमकापरलेजाताहैऔरउसेपर्ेरणादेता
है। गुरू की मिहमा िष् शयक ी स्थूल पर्कृित का पिरवतर्न करने में िनिहत है।
सदगुरू के चरणों में आशर्य लेना ही सच्चा जीवन है, जीवन जीन े की सही रीित
है।
गुरू की शरणागितकी स्वीकारकरनायहीआत्मसाक्षात्कारका मागर् है।
गुरू मेअ
ं िवचलशर्द्धान होतबतक िकसी को भीपरमसुख भोगनेको नहींिमलता।
हमें अयोग्य लगता हो िफर भी गुरू जो करते हैं वह योग्य ही है।
गुरू केउपदेशमेअ ं िवचलऔरअिवरतशर्द्धासच्चीगुरभ ू िक्तका मूलहै।
गुरू सदैवअपने िष्यश क े हृदयमेब ं सतेहैं।
कबीर जी कहते हैं- "गुरू औरगोिवन्ददोनोंमेरे समक्षखड़ेहै , ंतो मैं िकसको पर्णाम करूँ ?
धनय है वे गुरदेव िजनहोने मुझे गोिवनद के दशरन करवाये !"
केवल गुरू ही अपने योग्य िष् शयक ो िदव्य पर्काश िदखा सकते हैं।
गुरू अपने िष्य
श क ो 'असत्' में से 'सत्' में 'मृत्यु' में से 'अमरत्व' में, 'अन्धकार' में
से 'पकाश' में और 'भौितक' में से 'आध्याित्मक' में ले जाते हैं।
गगगगगगगगग गगगग
सच्चे गुरू िष् शयक ा पर्ारब्ध बदल सकते हैं।
सदगुरू पयगंबर और देवदूत है, िवश् वके िमतर् और जगत के िलए कल्याणमय हैं,
पीिडत मानवजाित के धुवतारक है।
सच्चे गुरू की सेवा करने से काल का शस्तर् बुट्ठा बन जाता है। गुरू के ज्ञान के
पिवत शबद िशषय के हृदय मे पवेश करते है। गुरकृपा के िबना बनधनमुिकत नही है।
जो गुरभिकत म ागर स े िव मु ख बना ह ै वह मृ त यु , अन्धकार और अज्ञान के भँवर में
घूमतारहताहै।
स्तर्ी एवं पुरूष अपनी आनुवंश िकशिक्त के मुतािबक मानवता के पथ का अनुसरण
करने की कोश श ि कर सकते हैं उनको महान गुरू का उपदेश सूयर् की पर्खर िकरण की तरह
जगत क े भ ा ित रपी अ न धकार को िव दीणर करक े प क ा िश त करता ह ै ।
गुरूकपृ ासेहीमनुष्यको जीवनका सच्चाउद्देश यसमझमे
् आ
ं ताहैऔरआत्म-साक्षात्कार करने की
पबल आकाका उतपन होती है।
िशषय के हृदय के तमाम दुगुरण रपी रोग पर गुरकृपा सबसे अिधक असरकारक पितरोधक एवं सावरितक औषध
है।
यिदकोई मनुष्यगुरू केसाथ अखण्डऔरअिविच्छन्न सम्बन्धबाँधलेतोिजतनीसरलतासेएकघट मेस
ं ेदूसरे
घट मेपं ानीबहताहैउतनीहीसरलतासेगुरूकप ृ ाबहनेलगतीहै।
केवल यंतर्वत् दण्डवत् पर्णाम करने से गुरूकृपा पर्ाप्त नहीं की जा सकती। वह तो
गुरू केउपदेशको जीवनमेउ ं तारनेसेहीपर्ाप्तहोसकतीहै।
राितर् को िनदर्ाधीन होने से पहले अन्तमुर्ख होकर िष् शयक ो िनरीक्षण करना चािहए
िक गुरू की आज्ञा का पालन िकतनी मातर्ा में िकया है।
हररोज गुरू की सेवा का पर्ारंभ करने से पहले िष् शयक ो मन में िनश् चयकरना
चािहए िक पूवर की अपेका अब अिधक भिकतभाव से एवं अिधक आजाकािरता से गुर की सेवा करँगा।
गुरू मेतं था शास्तर्ोम
ं ेथं ोड़ीबहुत शर्द्धाहोतीहैवहभीकुसंगसेशीघर्नष्टहोजातीहै।
गगगगग गगगगगगग गग गगगगगगगग
जो गुर क े पिव त चरणो क े प ित स च चा भिकत भ ा व िव किस त करना चाहत े हो उन ह े
सब पर्कार की खराब आदतों का त्याग कर देना चािहए। जैसे िक धूमर्पान करना, पान खाना,
नास सूँघना, मद्यपान करना, जु आ ख े ल न ा , िसनेमा देखना, अखबार-नोवेल पढ़ना, फेशन
करना, माँस खाना, चोरी करना, िदन में सोना, गालीबोलना, िनन्दा-आलोचना करना आिद।
जो गुरभिकत य ो ग का अ भ य ास करना चाहत े ह ै उन ह े सब िद व य गु ण ो का िव कास करना
चािहए। जैसे िक सतय बोलना, न्यायपरायणता, अिहंसा, इचछाशिकत, सिहष्णुता, सहानुभूित, स्वाशर्य,
आत्मशर्द्धा, आत्मसंयम, त्याग, आत्मिनरीक्षण, तत्परता, सहनशिक्त, समता, िनश् चय,
िववेक, वैराग्य, संन्यास, िहम्मत, आनन्दी स्वभाव, हरएक वस्तु में मयार्दा रखना आिद।
आनन्द के िलए बाहर क्यों व्यथर् खोज करते हो ? सदगुरू के चरणों के समीप जाओ
और शाशत सुख का उपभोग करो।
सदगुरू के चरणों में शर्द्धा और भिक्तभाव ये दो पंख हैं िजनकी सहायता से
िशषय पूणरता के िशखर पर पहुँचने मे शिकतमान बनता है।
अनुकर्म
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
गगगगगगग 10
गगगगगगगगग गग गगगगगगग
गगगगग गगगगगगग गग गगगग
गुरू केकायर्की अिवचारीआलोचनानहींकरनीचािहए।
गुरू को अिवचारीसलाहनहींदेनाचािहए। हमेशाचुप रहो।
जान े अनजान े गुर की भावन ा को ठ े स मत पह ु ँ च ा ओ।
सदगूरू के चरणकमल की धूिल अमरत्व पर्दान करने वाली है।
गुरू केपावनकारीचरणोंकी पिवतर्धूिल िष्य
श क े िलएसचमुचवरदानस्वरूप है।
आचायर् के पिवतर् चरणों की धूिल ललाट पर लगाना सबसे महान भाग्य की बात है।
जीवन का सबस े महान और दुलर भ सौभा ग य गुर क े चरणकमल का स प शर ह ै ।
गुरूकपृ ाऔरस्तर्ीका मुख (काम) वे दोनों परस्पर िवरूद्ध चीजें हैं। अगर आपको एक की
आवश् यकताहो तो दूसरी का त्याग करो।
गुरू केपावनचरणोंकी पिवतर्धूिल िष्य
श क ो िरिद्
-िसिद्
ध ध िदलाती है।
सदगुरू के जीवनदायी चरणों की धूिल पूजने योग्य है।
िशषय की सबसे महान संपित अपने सदगुर के चरणकमल की पिवत धूिल है।
जो व यिकत अपन े गुर क े चरणकमल की पिव त धू िल को अपन े ललाट पर लगात ा ह ै
उसका हृदय शीघर्पिवतर्बनताहै।
गुरू केचरणकमलकी धूिलकी मिहमाअवणर्नीयहै।
इस पृथवी पर हमारा जीवन अनतःकरणपूवरक सदगुर के पित िदनोिदन वधरमान भिकतभाव से, अिधक से
अिधक उनकी सेवा करने के िलए उनकी आज्ञा में रहने के िलए एक उत्तम मौका है।
गुरभू िक्तयोगकी नींवगुरू केपर्ितअखण्ड शर्द्धामेिनिहं तहै।
िशषय को समझ मे आता है िक िहमालय की एकानत गुफा मे समािध लगाने की अपेका गुर की िनजी सेवा करने से
वह उनके ज्यादा संयोग में आ सकता है, गुरू केसाथ अिधकएकतास्थािपतकर सकताहै।
गुरू को सम्पूणर् , िबनशरतीआत्म-समपर्ण करने से अचूक गुरूभिक्त पर्ाप्त होती है।
गगगगगगगगग गग गगग
जब आप मु िशक िल य ो एवं मु स ीबत ो म े आ जाय े तब गुर की कृप ा क े िल ए प ा थर न ा
करें। अपने सच्चे हृदय से बार-बारपर्ाथर्नाकरें।सब सरलबनजाएगा।
पातःकाल मे जगने के तुरनत बाद और राित के समय सोने से पहले गुर का िचनतन करो। पूणरतः उनकी शरण मे
जाओ।
सोने से पहले, िदन के दौरान अगर गुरू की सेवा के बारे में आज्ञापालन में
िनष्ठा का अभाव या ऐसी कोई भूल हुई हो तो उसका िवचार करो।
अपनी आवश् यकताएँकम करो। पैसे बचाओ और गुरू के चरणकमलों में अपर्ण करो।
इसमे आपकी गुरभिकत की कसौटी है।
बर्ह्मिनष्ठगुरू केचरणकमलोंकेसािन्न ध्यमेज
ं ानेकेिलएकला, िवज्ञान या िवद्वता कुछ भी आवश् यक
नहीं है। आवश् यकहै केवल उनके पर्ित उनके पर्ित पर्ेम और भिक्त से पूणर् हृदय, जो
फल की अपेक्षा से रिहत, केवल उनमें ही िनरत रहने के संकल्पवाला होना चािहए।
केवल उनके ही कायर् में लगा हुआ केवल उनके ही पर्ेम में मग्न रहने वाला होना
चािहए।
मानिसक शािन्त और आनन्द गुरू को िकये हुए आत्मसमपर्ण का फल है।
गुरू केपर्ितसच्चेभिक्तभावकी कसौटीआन्तिरकशािन्तऔरउनकेआदेशोंका पालनकरनेकी तत्परतामें
िनिहत है।
गुरस ू ेवाकेद्वाराज्ञानमेवं िृ द्ध
करोऔरमुिक्तपाओ।
गुरूकप ृ ासेिजनकोिववेकऔरवैराग्यपर्ाप्तहुएहैउ ं नको धन्यवादहै! वे सवोर्त्तम शािन्त और
सनातन सुख का भोग करेंगे।
िशषय गुर को जब तक योगय गुरदिकणा नही देगा तब तक गुर के िदये हुए जान का फल िमलेगा नही।
गुरभ ू िक्तयोगमनका संयमऔरगुरू की सेवाद्वाराउसमेह ं ोनेवालापिरवतर्नहै।
गगगगगगग गग गगगगगग
उत्तम िष्य श प ैटर्ोल जैसाहै।काफीदूर होतेहुएभीगुरू उपदेशकीिचंगारीको तुरंतपकड़लेताहै।
दूसरी कक्षा का िष् शयक पूर जैसा है। गुरू के स्पर्शस े उसकी अन्तरात्मा जागर्त
होती है और वह उसमें आध्याित्मकता की अिग्न को पर्ज्जविलत करता है।
तीसरी कक्षा का िष् शयक ोयले जैसा है। उसकी अन्तरात्मा को जागर्त करने में गुरू
को बहुत तकलीफ उठानी पड़ती है।
चौथी कका का िशषय केले के तने जैसा है। उसके िलए िकये गये कोई भी पयास काम नही लगते। गुर िकतना
भी करे िफर भी वह ठणडा और िनिषकय रहता है।
"हे िष् श य
षषष ! सुन। तू केले के तने जैसा मत होना। तू पैटर्ोल जैसा िष् श य
षषष
बननेका पर्यासकरनाअथवातोकम-से-कम कपूर जैसा तो अवश् यबनना
आप जब अपने गुरू के पिवतर् चरणों की शरण में जाएँ तब उनसे दुन्यावी
आवश् यकताएँया और कोई चीजें माँगना नहीं िकन्तु उनकी कृपा ही माँगना िजसके कारण
आपमें उनके पर्ित सच्चा भिक्तभाव और स्थायी शर्द्धा जगे।
गुरू हीमागर् है , ंजीवन ह ै और आिख री ध य े य ह ै । गुरकृ प ा क े िब न ा िकसी को भी
सवोर्त्तम सुख पर्ाप्त नहीं हो सकता।
गुरू हीमोक्षद्वारहैं।गुरू हीमूितर्मन्तकृपाहैं।
जीन े क े िल ए मरो। अपन े गुर क े चरणकमल ो म े मरो। अहं भ ा व का त य ा ग करक े
मरो िजससे पुनः सच्चा िदव्य जीवन जी सको। िजस जीवन में गुरूकृपा के पर्ाणों की धड़कन
नहीं है, जो जीवन गुरकृप ा स े िद व य स वरप को प ा प त नही हु आ ह ै वह स च चा जीवन नही
है।
गुरू और िष्य
श क े बीचजोवास्तिवकसम्बन्धहैउसका वणर्ननहींहोसकता , वह िलखा नहीं जा सकता,
वह समझाया नहीं जा सकता। सत्य के सच्चे खोजी को करूणास्वरूप बर्ह्मिनष्ठ गुरू के पास
शदा और भिकतभाव से आना चािहए। उनके साथ िचरकाल तक रहकर सेवा करना चािहए।
गुरभू िक्तयोगएकस्वतंतर्
योगहै।
िशषय की कसौटी करने के िलए गुर जब िवघ डाले तब धैयर रखना चािहए।
गुरू सेवाकेकायर्
मेआ
ं त्मभोगदेनायहगुरू केपिवतर्चरणोंकेपर्ितभिक्तभाविवकिसतकरनेका उत्तमसाधन
है।
पाथरना, जप , कीतर्न, समािध, गुरस
ू ेवा, ऊँचेभव्यिवचारऔरसमझमेस ं ेमनकी शािन्तउत्पन्नहोतीहै।

गगगग गग गगगगग गगग


गुरू की सेवाकेदौरान िष्य श क ो बहुत हीिनयिमतरहनाचािहए।
गुरू केिदव्यकायर् हेतु िष्य
श क ो मन , वचन और कमर् में बहुत ही पिवतर् रहना चािहए।
आपके हृदय रूपी उद्यान में िनष्ठा, सादगी, शािनत, सहानुभूित, आत्मसंयम और
आत्मत्याग जैसे पुष्प सुिवकिसत करो और वे पुष्प अपने गुरू को अघ्यर् के रूप में अपर्ण
करो।
बर्ह्मिनष्ठगुरू की कृपासेपर्ाप्तन होसकेऐसा तीनोंलोकोंमेकंछ ु भीनहींहै।
गुरभू िक्तयोगका अभ्यासिकयेिबनासाधक केिलएईश् व-रसाक्षात्कार की ओर ले जाने वाले
आध्याित्मक मागर् में पर्िवष्ट होना संभव नहीं है।
गुरभ ू िक्तयोगिदव्यसुख केद्वारखोलनेकेिलएगुरच ू ाबीहै।
गुरभ ू िक्तयोगकेअभ्याससेसवोर्च्चशािन्तकेराजमागर् का पर्ारंभहोताहै।
सदगुरू के पिवतर् चरणों में आत्मसमपर्ण करना ही गुरूभिक्तयोग की नींव है।
अगर आपको सदगुरू के जीवनदायक चरणों में दृढ़ शर्द्धा एवं भिक्तभाव होगा तो
आपको गुरूभिक्तयोग के अभ्यास में अवश् यसफलता िमलेगी।
केवल मनुष्य का पुरूषाथर् ही योगाभ्यास के िलए पयार्प्त नहीं है लेिकन गुरूकृपा
अिनवायर्तः आवश् यकहै।
बाघ, िसंह या हाथी जैसे जंगली पर्ािणयों को पालना बहुत ही आसान है, पानी या आग पर
चलना बहुत आसान है लेिकन मनुषय मे अगर गुरभिकतयोग के अभयास के िलए तमना न हो तो गुर के चरणकमलो मे
आत्मसमपर्ण करना बहुत किठन है।
गुरभ ू िक्तयोगकेअभ्याससे िष्य श क ो सवोर्त्तमशािन्
, आनन्
त द और अमरता पर्ाप्त होती है।
जीवन का ध य े य गुरभिकत य ो ग का अ भ य ास करक े सदगुर की कल याणकार ी कृप ा प ा प त
करना है।
गुरभ ू िक्तयोगकेअभ्याससेजन्म-मृत्यु के चक्कर से मुिक्त िमलती है।
गुरभ ू िक्तयोगअमरता, सनातन सुख, मुिक्त, पूणरता, अखूट आनन्द एवं िचरंतन शािन्त देता
है।
संसार या सांसािरक पर्िकर्या के मूल में मन है। बन्धन और मुिक्त, सुख और दुःख
का कारण मन है। इस मन को गुरूभिक्तयोग के अभ्यास से ही िनयंितर्त िकया जा सकता है।
सदगुरू के िदव्य कायर् के वास्ते आत्मसमपर्ण करना अथवा तन, मन, धन अपरण करना
चािहए। सदगुर की कलयाणकारी कृपा पापत करने के िलए उनके पिवत चरणो का धयान करना चािहए। गुर के पिवत
उपदेशको सुनकरिनष्ठापूवर्कउसकेमुतािबकचलनाचािहए।

उल्लूसय
ू र्पर्काशकेअिस्तत्वमेम ं ानेयान मानेिफरभीसूयर्तोसदापर्काश ितरहताहै।उसी पर्कारअज्ञानी
और चंचल मनवाला िशषय माने या न माने िफर भी गुर की कलयाणकारी कृपा तो चमतकारी पिरणाम देती है।
अपने गुरू को ईश् वरमानकर उनमें िवश् वासरखो, उनका आशर्यलो, ज ा न की दीक ा लो।
केवल शुद्ध भिक्त से ही गुरू पर्सन्न होते हैं।
गुरभू िक्तयोगकेअभ्यासकेमनकी शािन्तऔरिस्थरतापर्ाप्तहोतीहै।
िज सन े सदगुर क े पिव त चरणो म े आश य िल या ह ै ऐस े िश ष य क े पास स े मृ त यु
पलायन हो जाती है।
गुरभ ू िक्तयोगका अभ्याससांसािरकपदाथोर्केपर् ं ितवैराग्यऔरअनासिक्तपैदाकरताहैऔरअमरतापर्दान
करता है।
सदगुरू के जीवनपर्दायक चरणों की भिक्त महापापी का भी उद्धार कर देती है।
िज सन े सदगुर क े पिव त चरणो म े आश य िल या ह ै ऐस े पिव त ह ृ द यवा ल े िश ष य
के िलए कोई भी वस्तु अपर्ाप्त नहीं है।
साधुत्व और संन्यास से, अन्य योगों से एवं दान से, मंगल कायर् करने आिद से
जो कु छ भी प ा प त होता ह ै वह सब गुरभिकत य ो ग क े अ भ य ास स े शीघ प ा प त होता ह ै ।
गुरभ ू िक्तयोगशुद्धिवज्ञानहै।वहिनम्नपर्कृितको वश मेल ं ानेकी एवंपरमआनन्दपर्ाप्तकरनेकी रीितिसखाता
है।
गुरद ू ेवकी कल्याणकारीकृपापर्ाप्तकरनेकेिलएआपकेअन्तःकरणकी गहराईसेउनको पर्ाथर् नाकरो। ऐसी
पाथरना चमतकार कर सकती है।
िज स िश ष य को गुरभिकत य ो ग का अ भ य ास करना ह ै उसक े िल ए कुसं ग एक महान शत ु
है।
जो न ै ित क पू णर त ा , गुरू की भिक्तआिदकेिबनाहीगुरभ ू िक्तयोगका अभ्यासकरताहैउसेगुरूकप ृ ानहीं
िमल सकती।
गगगगगगगगग गग गगग
गुरू मेअ ं िवचलशर्द्धा िष्य
श क ो कैसीभीमुसीबतसेपारहोनेकी गूढ़शिक्तदेतीहै।
गुरू मेदं ढ ृ ़शर्द्धासाधक को अनन्तईश् वरकेसाथ एकरूप बनातीहै।
िज स िश ष य को गुर म े श द ा ह ै वह दलील नही करता , िवचार नहीं करता, तकर् नहीं
करता। वह तो केवल आज्ञा ही मानता है।
िशषय जब गुर मे शदा खो देता है तब उसका जीवन उजाड मरभूिम जैसा बन जाता है। गगगग गग
गगगग गगग गगगगगगग गग गगगगग गग गग गगगग गगगग गग गगगग गगगग गग
गगगग गगग
जीवन का पानी गुर म े दृ ढ श द ा ह ै ।
सदैव याद रखोः मनुष्य जब पिवतर् गुरू के शब्दों में शर्द्धा खो देता है तब वह सब
कुछ खो बैठता है। अतः गुरू में पूणर् शर्द्धा रखो।
गुरू केचरणकमलोंकी पर्ाथर् ना िष्य
श क े हृदयको पर्फुल्लबनातीहै।उसकेमनको शिक् , शािनत
त एवं शुिद से
भर देती है।
गुरद ू ेवकेपावनचरणोंका भावपूवर्कपर्क्षालनकरकेउस चरणोदकको अपनेिसरपरिछड़को। यहमहानशुिद्ध
करने वाला है।
िदव्य गुरू के पिवतर् चरणों की धूिल बनना यह जीवन का अमूल्य लाभ है।
आध्याित्मक गुरू के पिवतर् चरणों की पर्ाथर्ना सुबह की चाबी और शाम का ताला है।
अथार्त सुबह होने से पहले एवं शाम होने के बाद पर्ाथर्ना करना चािहए।
सदगुरू के चरणों के पर्ित शर्द्धा एवं भिक्तभाव रिहत जीवन मरूभूिम में खड़े हुए
रसहीन वृक्ष जैसा है।
गुरू केपिवतर्चरणोंकी पर्ाथर् ना िष्य
श क े हृदयकी गहराईमेस ं ेिनकलनीचािहए।
िशषय के शुद, िनखािलस हृदय से िनकली हुई आजर्वपूणर् पर्ाथर्ना बर्ह्मिनष्ठ गुरू तुरन्त
सुनते हैं।
दुःख से मुिक्त पाने के िलए नहीं अिपतु दुःख सहन करने की शिक्त एवं ितितक्षा
पापत करने के िलए पाथरना करो।
सब दोषों से पार होने की शिक्त के िलए सदगुरू के चरणकमलों की पर्ाथर्ना करो।
हर एक अपने ढंग से गुरू की सेवा करना चाहता है लेिकन गुरू चाहें उस पर्कार गुरू
की सेवा करना कोई नहीं चाहता।
िशषय अपने गुर की सेवा करना तो चाहता है पर िकसी पकार का कष सहना नही चाहता।
गगगगग गगग गग गगग
सच्चा सुख सदगुरू की सेवा में िनिहत है।
िशषय गुरसेवा के दारा ही देहाधयास से छू टकर ऊँची कका पापत कर सकता है।
अपने गुरू में, गुरू की मिहमामेऔ ं रगुरू केनामजपकेपर्भावमेस ं च्ची, पूणर, जीव न त और अिव चल
शदा रखो।
गुरू की सम्पूणर्तःशरणागितलेनागुरभ ू िक्तकी अिनवायर्शतर्है।
जब तक आपको गुर म े अख ण ड श द ा न जग े तब तक गुर की कृप ा आप उतर े ग ी ऐसी
आशा मत करना।
जो गुर मु क ता त म ा ह ै उनक े कायर अश द ा स े या स न द े ह स े नही द े ख न ा चािह ए।
ईश् वर, मनुष्य एवं बर्ह्माण्ड के िवषय में सच्चा ज्ञान गुरू से िलया जाता है।
गुरू साधनारू पी नावका सुकानहैल ं ेिकनपतवारतोसाधक को हीचलानीहोगी।
गुरभू िक्ततमामआध्याित्मकपर्वृित्त योक
ं ा मूलहै।
गुरू केपर्ितभिक्तभावईश् वरपर्ािप्का त सरलएवंआनन्ददायकमागर् है।
गुरू भिक्तधमर् का सारहै।
गुरू केचरणकमलोंकेपर्ितभिक्तभावजीवनको सचमुचसाथर्कबनाताहै।
गुरभ ू िक्तका आिद, मध्य और अन्त मधुर एवं सुखदायक है।
गुरप ू र्ेमएवंसंसारपर् ेम
दोनोंएकसाथ नहींरहसकते।
गुरू की एवंलक्ष्मीकी एकसाथ सेवानहींहोसकती।
गुरद ू र्ोहईश् वरदर्ोह
केबराबरहै।
गगगगग गग गगगग
गुरू परभिक्तभावहोनाआध्याित्मकिनमार्णकायर् की नींवहै।
भावना की उफान या उतेजना गुरभिकत नही कहलाती।
शरीरपेम यानी गुर पेम का इनकार। िशषय अगर अपने शरीर की अिधक देखभाल करता है तो वह गुर की सेवा
नहीं कर पाता।
साधक के दुष्ट स्वभाव का एकमातर् उपाय गुरूसेवा है।
गुरू िबल्कुलिहचिकचाहटसेरिहत, िनःशेष एवं सम्पूणर् आत्मसमपर्ण के िसवाय और कुछ
नहीं चाहते। जैसे पर्ायः आजकल के िष् शयक रते हैं वैसे आत्मसमपर्ण केवल शब्दों
की बात ही नहीं होना चािहए।
गुरू को िजतनीअिधकमातर्ामेआ ं त्मसमपर्णकरोगेउतनीअिधकगुरूकप ृ ापर्ाप्तकरोगे।
िकतनी मातर्ा में गुरूकृपा उतरेगी इसका आधार िकतनी मातर्ा में आत्मसमपर्ण हुआ
है इस पर है।
िशषय का कतरवय गुर के पित पेम रखने का एवं गुर की सेवा करने का है।
गुरू की कृपागुरभ ू िक्तयोगका आिखरीलक्ष्यहै।
गुरभ ू िक्तयोगका अभ्यासजीवनकेपरमलक्ष्यकेसाक्षात्कारका सचोटमागर् पर्स्तुतकरताहै।
जहा गुरकृ प ा ह ै वहा यो ग य व य व ह ा र ह ै और जहा यो ग य व य व ह ा र ह ै वहा िर िद -
िसिद्ध और अमरता है।
माया रूपी नािगन के द्वारा डसे हुए लोगों के िलए गुरू का नाम एक शिक्तशाली
रामबाण औषिध है।
पिवतता, भिकतभाव, पकाश एवं जान के िलए गुर की पाथरना करो।
गुरस ू ेवाकी भावनाआपकीरग-रग में, नस-नस में, पतयेक हडडी मे एवं शरीर के तमाम कोषो मे गहरी
उतरजानीचािहए। गुरू सेवाकी भावनाको उगर्बनाओ। उसका बदलाअमूल्यहै।
गुरभ ू िक्तयोगहीसवर्त्तमयोगहै।
कुछ िष् शयग ुरू के महान िष् शयह ोने का आडम्बर करते हैं लेिकन उनको गुरव ू चन
में या कायर् में िवश् वासऔर शर्द्धा नहीं होती।
जो अिद त ी य ह ै ऐस े सवर श िकत म ा न गुर की स म पू णर शरण म े जाओ।
गुरभू िक्तयोगआपकोइसीजन्ममेध ं ीर-ेधीरे दृढतापूवरक, िनशि ्चंततापूवर्क एवं अिवचलतापूवर्क
ईश् वरके पर्ित ले जाता है।
अहंभाव के िवनाश से गुरूभिक्तयोग का पर्ारंभ होता है और शाश् वतसुख की पर्ािप्त
में पिरणत होता है।
गुरभ ू िक्तयोगका अभ्यासआपकोभय, अज्ञान, िनराशावादी स्वभाव, मानिसक अशािन्त, रोग,
िनराशा, िचनता आिद से मुकत होने मे सहायभूत होता है।
गुरभ ू िक्तयोगजीवनकेअिनष्टोंका एकमातर् उपायहै।
गुरभ ू िक्तयोगकेअभ्याससेसवर्सुखमय, अिवनाशी आत्मा को भीतर ही खोजो।
एक अनधा दूसरे अनधे का मागरदशरन नही कर सकता। एक कैदी दूसरे कैदी को नही छुडा सकता। इसी पकार
जो खुद दुिन याद ा र ी क े कीचड म े फ ँ स ा ह ु आ हो वह दूस रो को मु िकत नही करा सकता।
इसीिलए गुरभिकतयोग के अभयास के िलए गुर की अिनवायर आवशयकता है।
गुरभ ू िक्तयोगको जीवनका एकमातर् हेतु, धयेय एवं वासतिवक रस का िवषय बनाओ। आप सवोचच सुख पापत
करोगे।
गुरू केपर्ितभिक्तभावकेिबनाआध्याित्मकतानहींआसकती।
यिदआपकोगुरभ ू िक्तयोगका अभ्यासकरनाहोतोकामवासनावालाजीवनजीनाछोड़दो।
अगर आपको सचमुच ईश् वरपर्ािप्तकी कामना हो तो दुन्यावी भोगिवलासों से िवमुख
बनोऔरगुरभ ू िक्तयोगका आशर्यलो।
गुरूकप ृ ासे िष्य
श क े हृदयमेिववं ेकवैराग्यका उदयहोताहै।
धयान के समय िशषय को सदगुर से पाथरना करना चािहए िक उनके चरणकमलो की भिकत उतरोतर बढती जाय
और वह अिवचल शदा पदान करे।
जो गुर क े नाम का जप करता ह ै उसको क े व ल मोक ही नही ल े िक न सा स ािर क
समृिद्ध, आरोग्यता, दीघार्यु एवं िदव्य ऐश्वयर् की पर्ािप्त होती है।
िशषय को अपने गुरदेव का जनमिदन बडी भवयता से मनाना चािहए।
अनुकर्म
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
गगगग गग गगगगगग
योगका अभ्यासगुरू केसािन्न ध्यमेक
ं रनाचािहए। िवशेषतःतंतर्योगकेबारेमेय ं हबातअत्यंतआवशय ् कहै।
साधक कौन सी कक्षा का यह िनशि ्चत करना एवं उसके िलए योग्य साधना पसन्द करना गुरू का
कायर् है।
आजकल साधकों में एक ऐसा खतरनाक एवं गलत ख्याल पर्वतर्मान है िक वे साधना
के पर्ारंभ में ही उच्च पर्कार का योग साधने के िलए काफी योग्यता रखते हैं। पर्ायः
सब साधकों का जल्दी पतन होता है इसका यही कारण है। इसी से िसद्ध होता है िक अभी वह
योगसाधनाकेिलएतैयारनहींहै।सचमुचमेय ं ोग्यतावाला िष्य
श न मर्तापूवर्क गुरू केपासआताहै
, गुरू को आत्मसमपर्ण
करता है, गुरू की सेवाकरताहैऔरगुरू केसािन्न ध्यमेय
ं ोगसीखताहै।
गुरू औरकोई नहींहैअिपतुसाधक की उन्नितकेिलएिवशव ् मेअ
ं वतिरतपरात्परजगज्जननीिदव्यमातास्वयंही
हैं। गुरू को देव मानो, तभी आपको वास्तिवक लाभ होगा। गुरू की अथक सेवा करो। वे स्वयं
ही आपर पर दीक्षा के सवर्शर्ेष्ठ आशीवार्द बरसाएँगे।
गुरू मंतर्
पर्दानकरतेहैय
ं हदीक्षाकहलातीहै।दीक्षाकेद्वाराआध्याित्मकज्ञानपर्ाप्तहोताहै, पापो का िवनाश
होता है। िजस पर्कार एक ज्योित से दूसरी ज्योित पर्ज्जविलत होती है उसी पर्कार गुरू
मंतर् के रूप में अपनी िदव्य शिक्त िष् शयम ें संकर्िमत करते हैं। िष् शयउ पवास करता
है, बर्ह्मचयर्
का पालनकरताहैऔरगुरू सेमंतर् गर्हणकरताहै।
दीक्षा से रहस्य का पदार् हट जाता है और िष् शयव ेद शास्तर्ों के गूढ़ रहस्य
समझने में शिक्तमान बन जाता है। सामान्यतः ये रहस्य गूढ़ भाषा में छुपे हुए होते
हैं। खुद ही अभ्यास करने से वे रहस्य पर्कट नहीं होते। खुद ही अभ्यास करने से तो
मनुष्य अिधक अज्ञान में गकर् होता है। केवल गुरू ही आपको शास्तर्ाभ्यास के िलये
योग्यदृिष्टदीक्षाकेद्वारापर्दानकरतेहैं।गुरू अपनीआत्म-साक्षात्कार की ज्योित का पर्काश उन शास्तर्ों
के सत्य पर डालेंगे और वे सत्य आपको शीघर् ही समझ में आ जाएँगे।
गग गग गगग गगगगग
ॐ गुरूभ्यो नमः।
ॐ शर्ी सदगुरू परमात्मने नमः।
ॐ शर्ी गुरवे नमः।
ॐ शर्ी सिच्चदानन्द गुरवे नमः।
ॐ शर्ी गुरु शरणं मम।
अनुकर्म
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
गगगगगगगगगगग गग गगग गगगग
गुरू मेस
ं म्पूणर्
शरद्् धातथािवशव
् ासरखनाचािहएतथा िष्य
श क ो पूणर्रूपेणउनकेपर्ितआत्मसमपर्णकरनाचािहए।
दीक्षाकाल में गुरू के द्वारा िदये गये तमाम िनदेर्शों का पूणर् रूप से पालन करना
चािहए। यिद गुर ने िवशेष िनयमो की चचा न की हो तो िनमिलिखत सवर सामानय िनयमो का पालन करना चािहए।
मंतर्जप से किलयुग में ईश् वर-साक्षात्कार िसद्ध होता है, इस बात पर िवशास रखना
चािहए।
मंतर्दीक्षा की िकर्या एक अत्यन्त पिवतर् िकर्या है, उसेमनोरंजनका साधननहींमानना
चािहए। अनय की देखादेखी दीका गहण करना उिचत नही। अपने मन को िसथर और सुदृढ करने के पशात गुर की शरण
में जाना चािहए।
मंतर् को ही भगवान समझना चािहए तथा गुरू में ईश् वरका पर्त्यक्ष दर्शन करना
चािहए।
मंतर्दीक्षा को सांसािरक सुख-पािपत का माधयम नही बनाना चािहए, भगवतपािपत का माधयम बनाना
चािहए।
मंतर्दीक्षा के अनन्तर मंतर्जप को छोड़ देना घोर अपराध है, इससे मंत का घोर
अपमान होता तथा साधक को हािन होने की संभावना भी रहती है।
साधक को आसुरी पर्वृित्तयाँ – काम, कर्ोध, लोभ, मोह, ईष्यार्, द्वेष आिद का त्याग
करके दैवी सम्पित्त सेवा, त्याग, दान, पेम, क्षमा, िवनमर्ता आिद गुणों को धारण करने का
पयत करते रहना चािहए।
गृहस्थको व्यवहारकी दृिष्टसेअपनाकत्तर्व्यआवशय ् कमानकरपूराकरनाचािहए, परनतु उसे गौण कायर
समझना चािहए। समगर् पिरवार के जीवन को आध्याित्मक बनाने का पर्यत्न करना चािहए।
मन, वचन तथा कमर् से सत्य, अिहंसा तथा बर्ह्मचयर् का पालन करना चािहए।
पित सपताह मंतदीका गहण िकये गये िदन एक वकत फलाहार पर रहना चािहए और वषर के अंत मे उस िदन
उपवासरखनाचािहए।
भगवान को िनराकार-िनगुर्ण और साकार-सगुण दोनों स्वरूपों में देखना चािहए। ईश् वरको
अनेक रूपों में जानकर शर्ीराम, शीकृषण, शंकरजी, गणेशजी, िवष्णु भगवान, दुगार्, लक्ष्मीइत्यािदिकसी
भी देवी-देवता में िवभेद नहीं करना चािहए। सभी के इष्टदेव सवर्व्यापक, सवर्ज्ञ सभी
देवता के पर्ित िवरोधभाव पर्कट नहीं करना चािहए। हाँ, आप अपने इष्टदेव पर अिधक
िवश् वासरख सकेत हो, उसेअिधकपर्ेम कर सकतेहोपरन्तुउसका पर्भावदूसरेकेइष्टपरनहींपड़नाचािहए।
भगवद् गीता मे कहा भी हैः
गग गगग गगगगगग गगगगगगग । गगगगग ग गगग गगगगगगग
गगगगगगग ग गगगगगगगगगग ।। ग ग गग ग गगगगगगगगगगग
'जो पुरष स म पू णर भू त ो म े सबक े आ त मर प मु झ वासु द े व को ही व य ा पक द े ख त ा ह ै और
सम्पूणर् भूतों को मुझ वासुदेव के अन्तगर्त देखता है, उसकेिलएमैअ ं दृशय् नहींहोताऔरवहमेरे
िलयअदृशय ् नहींहोता' (6, 30)
इस पकार गोसवामी जी ने भी िलखा है िकः
गगगग गगग गग । गग गग गगगगग
गगगगग गगगगगग गगगग गगग गगगगगग
अपना इष्ट मंतर् गुप्त रखना चािहए।
पित पती यिद एक ही गुर की दीका ले तो यह अित उतम है, परनतु अिनवायर नही है।
िलिखतमंतर्जपकरनाचािहएतथाउसेिकसी पिवतर्स्थानमेस ंरु िक्षतरखनाचािहए। इससेवातावरणशुद्ध
रहता है।
मंतर्जप के िलए पूजा का एक कमरा अथवा कोई स्थान अलग रखना संभव हो तो उत्तम
है। उस स्थान को अपिवतर् नहीं होने देना चािहए।
पतयेक समय अपने गुर तथा इषदेव की उपिसथित का अनुभव करते रहना चािहए.
पतयेक दीिकत दमपित को एक पतीवरत तथा पितवरता धमर का पालन करना चािहए।
अपने घर के मािलक के रूप में गुरू तथा इष्टदेव को मानकर स्वयं अपने को उनके
पितिनिध के रप मे कायर करना चािहए।
मंतर् की शिक्त पर िवश् वासरखना चािहए। उससे सारे िवघ्नों का िनवारण हो जाता
है।
पितिदन कम से कम 11 माला का जप करना चािहए। पर्ातः और सन्ध्याकाल को िनयमानुसार
जप करना चािह ए।
माला िफराते समय तजर्नी, अंगूठे के पास की तथा किनिष्ठका (छोटी) उंगलीका उपयोग
नहीं करना चािहए। माला नािभ के नीचे जाकर लटकती हुई नहीं रखनी चािहए। यिद सम्भव हो
तो िकसी वस्तर् (गौमुखी) में रखकर माला िफराना चािहए। सुमेरू के मनके को (मुख्य मनके
को) पार करके माला नही फेरना चािहए। माला फेरते समय सुमेर तक पहुँचकर पुनः माला घुमाकर ही दूसरी माला का
पारमभ करना चािहए।
अन्त में तो ऐसी िस्थित आ जानी चािहए िक िनरन्तर उठते बैठते, खाते-पीते, चलते,
काम करते तथा सोते समय भी जप चलते रहना चािहए।
आप सभी को गुरू देव का अनुगर्ह पर्ाप्त हो, यहहािदर्ककामनाहै।आपसभीमंतर्जपकेद्वारा
अपना ऐिच्छक लक्ष्य पर्ाप्त करने में सम्पूणर्तः सफल हों, ईश् वरआपको शािन्त, आनन्द,
समृिद्ध तथा आध्याित्मक पर्गित पर्दान करें ! आप सदा उन्नित करते रहें और इसी जीवन
में भगवत्साक्षात्कार करें। हिर ॐ तत्सत्।
अनुकर्म
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
गग गग गगगग
गगगगगग गगगगगगगग गगगगगगग
जहा तक स म भ व हो वहा तक गुर द ा र ा प ा प त मं त की अथवा िकसी भी मं त की
अथवा परमात्मा के िकसी भी एक नाम की 1 से 200 माला जप करो।
रूदर्ाक्ष अथवा तुलसी की माला का उपयोग करो।
माला िफराने के िलए दाएँ हाथ के अँगूठे और िबचली (मध्यमा) याअनािमकाउँगलीका
ही उपयोग करो।
माला नािभ के नीचे नहीं लटकनी चािहए। मालायुक्त दायाँ हाथ हृदय के पास अथवा
नाक के पास रखो।
माला ढंके रखो, िज सस े वह तु म ह े या अ न य क े द े ख न े म े न आय े । गौमु ख ी अथवा
स्वच्छ वस्तर् का उपयोग करो।
एक माला का जप पूरा हो, िफर माला को घुमा दो। सुमेरू के मनके को लांघना नहीं चािहए।
जहा तक स म भ व हो वहा तक मानिस क जप करो। यिद मन चं च ल हो जाय तो जप िज तन े
ज ल द ी हो सक े , पारमभ कर दो।
पातः काल जप के िलए बैठने के पूवर या तो सनान कर लो अथवा हाथ पैर मुँह धो डालो। मधयानह अथवा सनधया
काल में यह कायर् जरूरी नहीं, परनतु संभव हो तो हाथ पैर अवशय धो लेना चािहए। जब कभी समय िमले जप
करते रहो। मुख्यतः पर्ातःकाल, मध्यान्ह तथा सन्ध्याकाल और राितर् में सोने के पहले
जप अव श य करना चािह ए।
जप क े साथ या तो अपन े आरा ध य द े व का ध य ा न करो अथवा तो प ा ण ा य ा म करो। अपन े
आराध्यदेव का िचतर् अथवा पर्ितमा अपने सम्मुख रखो।
जब तु म जप कर रह े हो , उस समयमंतर् केअथर्परिवचारकरतेरहो।
मंतर् के पर्त्येक अक्षर का बराबर सच्चे रूप में उच्चारण करो।
मंतर्जप न तो बहुत जल्दी और न तो बहुत धीरे करो। जब तुम्हारा मन चंचल बन जाय
तब अपने जप की गित बढ़ा दी।
जप क े समय मौन धारण करो और उस समय अपन े सा स ािर क काय ों क े साथ स म ब न ध
न रखो।
पूवर अथवा उतर िदशा की ओर मुँह रखो। जब तक हो सके तब तक पितिदन एक ही सथान पर एक ही समय
जप क े िल ए आसन स थ होकर ब ै ठ ो। मं िद र , नदी का िकनारा अथवा बरगद, पीपल के वृक के नीचे की
जगह जप करन े क े िल ए यो ग य स थान ह ै ।
भगवान के पास िकसी सासािरक वसतु की याचना न करो।
जब तु म जप कर रह े हो उस समय ऐसा अनु भ व करो िक भगव ान की करणा स े तु म ह ा र ा हृ द य
िनमर्ल होता जा रहा है और िचत्त सुदृढ़ बन रहा है।
अपने गुरूमंतर् को सबके सामने पर्कट न करो।
जप क े समय एक ही आसन पर िह ल े -डु ल े िब न ा ही िसथ र ब ै ठ न े का अ भ य ास करो।
जप का िन यिम त िह साब रखो। उसकी सं ख य ा को क म श ः धीर े -धीरे बढाने का पयत करो।
मानिसक जप को सदा जारी रखने का पर्यत्न करो। जब तुम अपना कायर् कर रहे हो, उस
समय भी मन से जप करते रहो।
अनुकर्म
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
गगगगगग गग गगग गगगगग
साधारण संसारी मनुष्य दूध जैसा है। वह जब दुष्ट जनों के सम्पकर् में आता है तब
उल्टेमागर् मेचं लाजाताहैऔरिफरकभी वापसनहींलौटता। उसी दूध मेअ ं गरथोड़ीसी छाछडालीजातीहैतोवहदूध
दही बन जाता है। संसारी मनुष्य को गुरू दीक्षा देते हैं। अतः जो स्वयं िसद्ध हैं ऐसे गुरू
दही जैसे हैं।
छाछ डालने के बाद दूध को कुछ समय तक रख िदया जाता है। इसी पकार दीिकत िशषय को एकानत का आशय
लेकरदीक्षाका ममर् समझनाचािहए। तभीदूध का दहीबनेगा, अथार्त् िष्शयक ा पिरवतर्न होगा और वह
ज ा न ी बन ग ा। े
अब दही सरलता से पानी के साथ िमलजुल नहीं जाएगा। अगर दही में पानी डाला
जाए ग ा तो वह तल े म े ब ै ठ जाए ग ा। अगर दही को जोर स े िब लो य ा जाए ग ा तो ही वह पानी क े
साथ िमशि र्त होगा। इसी पर्कार िववेवकवाला मनुष्य जब बुरी संगत में आता है तब
दुराचारी लोगों के साथ सरलता के िमलता जुलता नहीं है। लेिकन संगत अत्यंत पर्गाढ़
होगी तो वह भी उल्टे मागर् में जाएगा। जब दही को सूयोर्दय से पहले बर्ाह्ममुहूतर् में
अच्छी तरह िबलोया जाएगा तब उसमें से मक्खन िमलेगा। इसी पर्कार िववेकी साधक
बर्ाह्ममुहूतर्
मेईं श् वरका गहनिचन्तनकरताहैतोउसेआत्मज्ञानरूपी नवनीतपर्ाप्तहोताहै।िफरवहआत्म-
साक्षात्कारी साधुरूप बन जाता है।
इस मकखन (नवनीत) को अब पानी में डाल सकते हैं। वह पानी में िमशि र्त नहीं
होगा, पानी मे डू बेगा नही अिपतु तैरता रहेगा। आतम-साक्षात्कार िसद्ध िकये हुए साधु अगर दुजर्नों के
सम्पकर् में आयेंगे तो भी उल्टे मागर् में नहीं जाएँगे। दुन्यावी बातों से अिलप्त
रहकर आनन्द से संसार में तैरते रहेंगे। अगर इस नवनीत को िपघलाकर घी बनाया जाय
और बाद मे उसे पानी मे डाला जाय तो वह सारे पानी को अपनी सुवास से सुवािसत कर देगा। इस पकार साधु को
िनःस्वाथर् पर्ेम की आग से िपघलाया जाय तो वह दैवी चैतना रूप घी बनकर अपने संग से
सबको पावन करेगा, सबकी उन्नित करेगा। उसके सम्पकर् में आने वालों के जीवन में
अपने ज्ञान, मिहमा एवं िदव्यता का िसंचन करेगा।
अनुकर्म
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'गगगगगगगग गग गगगगग......'
साधक के जीवन में सदगुर-ू कृपा का क्या महत्त्व है, इस िवषय मे पूजयपाद संत शी आसारामजी
बापूअपनेसदगुरद ू ेवकी अपारकृपाका स्मरणकरतेहुएकहतेहै -ं
"मैंने तीन वषर् की आयु से लेकर बाईस वषर् की आयु तक अनेकों साधनाएँ की, दस
वषर् की आयु में अनजाने ही िरिद्ध-िसिद्धयों के अनुभव हुए, भयानक वनो, पवरतो, गुफाओंमेय ं तर्
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ततर् तपश् चयार्करके जो पर्ाप्त िकया वह सब, सदगुरूदेव की कृपा से जो िमला उसके आगे
तुच्छ है। सदगुरूदेव ने अपने घर में ही घर बता िदया। जन्मों की साधना पूरी हो गई।
उनकेद्वारापर्ाप्तहुएआध्याित्मकखजानेकेआगे ितर्लोकीका सामर्ाज्यभीतुच्छहै।"
गग ग गगगगग गगगग गगग ग गगगग गगगग गगगग
गग गगग गग गगगग गगग गगगगगग गग गगगग गगगग गगगगग
अनुकर्म
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