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ऊचाई ँ

ऊचे पहाड़ पर, ँ पेड़ नहीं लगते,

न घास ही जमती है ।

पौधे नहीं उगते,

जमती है िसफ बफ, र् र्

जो, कफन की तरह सफद और, े मौत की तरह ठं डी होती है । खेलती, िखल-िखलाती नदी, िजसका रूप धारण कर, ऐसी ऊचाई, ँ

अपने भाग्य पर बूंद-बूंद रोती है ।

िजसका परस ऐसी ऊचाई ँ

पानी को पत्थर कर दे , िजसका दरस हीन भाव भर दे , अिभनन्दन की अिधकारी है , आरोिहयों क िलये आमंऽण है , े िकन्तु कोई गौरै या,

उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं , वहाँ नीड़ नहीं बना सकती, ना कोई थका-मांदा बटोही,

उसकी छांव में पलभर पलक ही झपका सकता है । सच्चाई यह है िक

अपनों से कटा-बंटा,

पिरवेश से पृथक,

सबसे अलग-थलग,

कवल ऊचाई ही कािफ नहीं होती, े ँ

मजबूरी है ।

पहाड़ की महानता नहीं,

शून्य में अकला खड़ा होना, े

आकाश-पाताल की दरी है । ू उतना एकाकी होता है , जो िजतना ऊचा, ँ

ऊचाई और गहराई में ँ

चेहरे पर मुःकानें िचपका, मन ही मन रोता है ।

हर भार को ःवयं ढोता है ,

जरूरी यह है िक िजससे मनुंय,

ऊचाई क साथ िवःतार भी हो, ँ े

औरों से घुले-िमले, िकसी को साथ ले,

ठंू ट सा खड़ा न रहे ,

िकसी क संग चले। े

अिःतत्व को अथर्,

ःवयं को भूल जाना,

यादों में डब जाना, ू

भीड़ में खो जाना,

ऊचे कद क इन्सानों की जरूरत है । ँ े ू इतने ऊचे िक आसमान छ लें, ँ नये नक्षऽों में ूितभा की बीज बो लें, िकन्तु इतने ऊचे भी नहीं, ँ िक पाँव तले दब ही न जमे, ू

धरती को बौनों की नहीं,

जीवन को सुगंध दे ता है ।

कोई किल न िखले। न वसंत हो, न पतझड़,

कोई कांटा न चुभे,

माऽ अकलापन का सन्नाटा। े मेरे ूभु!

हों िसफ ऊचाई का अंधड़, र् ँ

मुझे इतनी ऊचाई कभी मत दे ना, ँ गैरों को गले न लगा सक, ूँ इतनी रुखाई कभी मत दे ना।

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