दे न
उसक ! हमारे िलये
लघु कथाएँ
-अ तरा करवड़े
कुछ मु कान¸ आँसू और ढ़े र सी वडं बनाओं क सा ी
समपण
कुछ चुभन और कुछ अ छाई के खारे और मीठे आँसू िमलकर चंद बडं बनाओं के नाम
पर बहते जाते है । शायद कोई इस वाह को मोड़ते हए
ु अपने आप तक पहँु च पाए।
ऊँची दाशिनक बात के अलावा कुछ सच और कुछ ज र बदलाव भी िमल सकते है
इस दौरान।
आसमान को तकते हए
ु उसक ऊँचाई से दो ती करना और जमीन पर अपने पैर भी
जमाए रखना। शायद यह है वो चीज जसे हम जीते है ।
अ तरा करवड़े
दे न : उसक हमारे िलये
अनु म णका
समपण
भूिमका
कहािनयाँ
1। चैन
2। कशोर हो गई ब टया
3। पी ढ़याँ
4। नशा
5। कमाई
6। े ड़शनल पेरे टं ग
7। िसंदरू
8। बुढ़ापा
9। ेम
10। कुपोषण
14। से टं ग
16। गंदा कु ा
18। सपने
19। िम ट लौट आई
20। िच ड़याघर
21। अधर
22। ड चाज से ट फे शन
23। जुगत
24। सूट
25। इ टॉलमट
26। हक
27। दे शभ
28। आरोप
29। पता नह ं
30। घर
31। फक
32। ी
33। एकांत वास
35। बार को डं ग
38। मन क शांित
40। अंतरयामी
41। बोझ
42। ममता
43। टे ट
45। भेदभाव
46। वंशावली
47। र तार
50। बेट
************
चैन
बाबू के नैन सजल हो उठते थे बार – बार। काश क ऐसा ह भरा पूरा घर हमेशा रहा
करता। और इसे दे खने के िलये कमला भी आज होती। कतना चाहती थी वो ¸ क
इस घर का और खुिशय का जो वरह है वह समा हो जाए। सारा प रवार एक साथ
रहे ¸ वे और कमला अपने पोते – पोितय क जद पूर करने¸ उ ह खलाने म अपना
बुढ़ापा ध य कर।
बाबू को याद आया । अपनी माँ के अंितम समय म भी कोई बेटा साथ नह ं रह पाया¸
मुझ से िमलने भी नह ं आया। इस बात को याद कर वे काफ कठोर हो चले थे। पछले
साल भर म तो यवहार म कटु ता बढ़ने लगी थी। ये बात बेट को समझ म आई
थी¸ उ होने पछली बीमार म आकर माफ भी माँगी थी। उनके बचने क उ मीद कम
थी ले कन ऊपरवाले क मज कुछ और थी¸ बच गये।
तभी बाबू के कमरे का दरवाजा खुला। अजय वजय दोन आए थे। बना औपचा रकता
के बात शु हई।
ु
“……”
“……”
“……”
जानती हँू शोना! अब तुम अपनी गु ड़या को दे ख थोड़ परे शान हो जाती हो । तु हारे
बचपन क वो त वीर जसम तु हारे पहले पहले टू टे दांत क यार सी मु कान है ¸
उसे अब तुमने त कये के नीचे दबा दया है । तु हार पलक लंबी और रे शमी होकर
सपन के शहर म पहंु चने लगी है । और हाँ ! तु ह अब “शोना बेटा” कहना भी उलझन
म डाल दे ता है ।
पता है ¸ आज मने दआ
ु माँगी है ¸ तु हारे िलए¸ क तुम इस खुले आसमान म अपनी
क पनाओं के सतरं गे पंख लेकर अनंतकाल तक इस सपनीले दे श म वचरण करो ।
म तु हार भावनाओं क ढाल बनने का य क ं गी जससे कोई भी तु हारे प के
होते मन क िम ट पर व से पहले कसी भी अनचाह याद क छाप न छोड़ सके ।
तुम वतं हो ब टया¸ अपने संसार म । तुम मु हो अपने िनणय लेने के िलए ।
मुझे व ास है अपने पालन पोषण पर और तु हारे य व पर क तुम कभी भी
अपने आप को और अपने प रवार को क म नह ं डालोगी ।
अब तुम फूल को दे खकर नई क पनाएं करो बेट । पढ़ाई म से कुछ समय बचाकर
अपने आप से भी बात कया करो । अपने बचपन के कसी व को दे खकर व मत
होकर मुझसे पूछो क म मी या म कभी इतनी छोट भी थी।
और हाँ! कभी कभी ह सह ले कन तु हारा िसर अपनी गोद म लेकर सहलाना मुझे
ताउ अ छा लगेगा चाहे कल तुम मेर उ क ह य न हो जाओ ।
तु हार माँ !
पी ढ़याँ
“जी बाई!”
सब कुछ िनपटाकर¸ ा ण को दान द णा के साथ वदा कर¸ सास बहू भोजन करने
बैठ । माँ-जी ने क वता का मन जान िलया था। वे जान बूझकर मनाबाई का वषय
िनकाल बैठ । उसका पित अपा हज है । तीन ब चे पढ़ रहे है आद ।
असल म माँ-जी वयं भी प र थित क मार के चलते¸ अपने ारं िभक दन म कुछ
घर म जाकर पूजा का खाना बनाया करती थी। घरवाल से झूठ कहती क आज फलां
के यहाँ सुहािगन जीमने जाना है । और उस घर जाकर पूरा खाना बनाने का काम
कया करती। उनक यजमान सर वतीबाई को यह बात मालूम थी। वे आ ह कर उ ह
खाना खलाती¸ साथ बाँध दे ती और खान बनवाई के जो पैसे िमलते सो अलग। तीन
चार साल तक ऐसे ह झूठ से माँ-जी ने अपनी गृह थी खींची थी। उसी के बल पर
आज घर म सुख¸ वैभव¸ शांित है ।
नशा
खड़ाक् से दरवाजा खुला। इतनी रात गये पछले दरवाजे से कोई आ रहा है ! सुनंदा ने
डरते हए
ु अपने पित को जगाया। “अरे िचंता मत करो। ये जगद श भाई ह गे। हर
छु ट पर ऐसे ह पीकर आते है ।”
“कुछ नह ं। खाना खाकर सो रहगे। घर म कोई है नह ं¸ खाना साथ ह लाए ह गे। तुम
सो भी जाओ अब।”
सोते हए
ु भी सुनंदा के मन म असं य आ जा रहे थे। इस तरह से पीने का या
अथ हो सकता है ? िसफ छु ट पर! उसके मायके म भी तो घर के सामने ितवार
काका ऐसे ह पीकर आया करते थे। घर म कतना कोहराम मचा करता था। तभी तो
उसे मालूम पड़ा था क पीने क आदत पड़ जाने पर आदमी का कोई भरोसा नह ं रह
जाता। रोज चा हये मतलब चा हये ह । आज तक कई फ म म भी दे खा था उसने
क लोग गम भुलाने के िलये शराब का सहारा लेते है । अिभजा य वग का यह य
शगल है आद ।
“जी! नह ं तो।”
“इस दिनया
ु के नए िनराले सभी खेल इस मौत के आगे फ के है बेट और उसी मौत
से जाने कतने तर क़ से म रोज िमलता हँू । दन भर के काम म सोचने को समय
तो िमलता नह ं।”
वे कहते चले “छु ट पर अपने पाप याद आते है । जस शर र को माँ कतने जतन से
अपने खून से शर र पर पालती है ¸ ज म के बाद उसक साल दे खभाल करती है
खलाती पलाती है ¸ उसके लाड़ करती है । ऐसे ह जाने कतने लाड़ले शर र को म अब
तक चीर चुका हँू । ऐसा लगता है जैसे हज़ार माताओं का कलेजा चीरा है मने। नौकर
ह ऐसी है । या क ँ !”
“तुम इतने दन तक यहाँ सेवा करते रहे बंसी!” मने पूछा¸ “आ खर तुमने या
कमाया?”
बंसी कुछ उ र दे इससे पहले ह उसे कसी ने काम के िलये बुला िलया। बात आई
गई हो गई।
परं तु बंसी क मुझे खोज रह थी। और उसने आँख क खुशी से ह मुझे जता
दया क इतने दन म उसने यहाँ रहकर या कमाया है ।
े डशनल पेरे टं ग
“क हये।”
िसंदरू
“िसंड़ ऽऽ…”
“ज ट किमंग!”
“िसंदरू ! उस लड़क ने कसी िसंड़ को आवाज लगाई है । तुम य इतनी फुत दखा
रह हो?” मीता ने मु कुराते हए
ु पूछा।
मीता को एकदम से वयं के आऊट डे टेड हो जाने का एहसास होने लगा था। कतनी
उमंग के साथ उसने और शेखर ने उसके ज म पर¸ सूरज क लािलमा से दमकते
मुखमंड़ल को दे ख इसका नाम िसंदरू रखना तय कया था। बड़ शंसा िमली थी दोन
को उसके नामकरण पर।
“म मी! इसे कोई हक नह ं है मेरा आई डयल बनने का।” कहकर उसने अपने गले म
पहना हआ
ु अपने पसंद दा पॉप टार का लॉकेट तोड़ फका।
बुढ़ापा
“अरे सुनती हो सुधा!” ीवा तवजी अपनी लाठ टेकते बरामदे म पहँु चे।
“क हये! अब या हआ।
ु ” सुधाजी धैय के साथ बोली।
“भैया तुम रह सकती हो इस नई पीढ़ के साथ सुर िमलाकर। हमसे तो नह ं होने का।
चलो हम कल ह वनय के घर चलते है ।” ीवा तवजी आपा खोने लगे थे।
“कुछ कहगे भी क हआ
ु या है ¸ सीधे चलने चलाने क बात करने लगे आप तो।”
सुधाजी कुछ परे शान हो उठ थी।
“अरे म जरा मु ने को खला रहा था। उसे बी फॉर बाबू िसखाने लगा तो तु हार
बहजी
ू कहने लगी क बाबूजी लीज उसे बी फॉर बॉल ह िसखाईये। कूल म
ऑ जवशन होता है । अरे उसके पित को हमने ऊँगली पकड़कर चलना िसखाया है और
वह हम िसखाने चली है । हमसे और नह ं सहन होने का यह सब कुछ।” वे तमककर
बोले।
“आ गई आप! उसी बहू क मदद करके जसने थोड़े समय पहले आपके पित का
अपमान कया था?” ीवा तवजी ने फर वह बात छे ड़ ।
“ या है जी! जब दे खो तब बैठे ठाले मीन मेख िनकालते रहते हो। जरा सी बात या
कह द बहू ने तो जैसे िमच लग गई है आपको। जमाना बदल गया है ¸ अब भी आप
यह सोचगे क वह पुराना रवाज चला करे तो वह नह ं हो सकता।” सुधाजी ने कह
ह दया।
“अ छा! तो अब वह कल क आई हई
ु लड़क कुछ भी कहा करे हम। आपको कोई
फक नह ं पड़े गा। आपको ड़र लगा करता होगा इस नई पीढ़ से¸ म आज ह सुरेश से
इसक िशकायत करने वाला हँू । ” बाबूजी िनणायक वर म बोले।
“ या िशकायत करगे जी आप? यह क म गलत िसखा रहा था और बहू ने मुझे
सुधारा इसिलये उसक गलती हो गई?” सुधाजी ने भी पारा चढ़ाते हए
ु कहा।
“दे खये जी! आपको तो याद ह होगा क हमारे सुरेश क बचपन म सद कृित थी।
मेरे लाख मना करने के बावजूद भी क डॉ टर ने मना कया है ¸ आपक माँ उसे
चावल का मांड़ खलाती ह थी ना? उस समय कतने असहाय हो जाते थे हम दोन ।
आज भी सुरेश को थोड़ सी हवा लगते ह सद हो जाती है । या आप हमारे बेटे और
बहू को भी वैसा ह असहाय बना दे ना चाहते है ?” सुधाजी कसी उ र क अपे ा से
बोली।
उनक आशा के वपर त ीवा तवजी चाय वैसी ह छोडकर तेज कदम से बाहर चले
गये। सुधाजी िसर हाथ धरे बैठ रह । पता नह ं इस गीले म कहाँ चल दये ह गे। कह ं
मने कुछ यादा ह तो नह ं कह दया। इस तरह के वचार उनके मन म आते जाते
रहे ।
कुछ ह समय बाद ीवा तवजी हाथ म एक बड़ सी कागज क थैली लाए। बाहर से
ह बहू को आवाज दे ने लगे “अरे र ना ब टया जरा बाहर आओ। म सबके िलये
भ जये ले आया हँू चलो बाहर बैठकर खाएँगे।” उ होने सुधाजी को शरारतपूण से
दे खा। वे हँ सती हई
ु चाय गरम करने अंदर चली गई।
ेम
अचानक बाहर कुछ शोर सुनाई दया। सभी ने बाहर जाकर दे खा। दो गुट म झगड़ा
हो रहा था। कारण जो भी कुछ रहा हो ले कन पुिलस पहँु च चुक थी। आतंक और
तनाव का माहौल था। समझदार लड़ कय ने घर क राह पकड़ने म ह खैर समझी।
ले कन मोिनका वहाँ पहँु चती तब तक दे र हो चुक थी। वह रा ता बंद कर दया गया
था। सारा यातायात दसर
ू ओर मोड़ दया गया था।
मोिनका जहाँ दे व का इं तजार कर रह थी वह ं एक पक उ क माँ-जी भी खड़ थी।
उसे दे खते ह हठात ् बोल पड़ । “इतनी गड़बड़ म य रात गये घर से िनकली हो
बेट ?” मोिनका ने उपे ापूण से उ ह दे खा। उसे लगा क इन माँ-जी को वह या
समझाए क आज ेम दवस है । आज नह ं तो कब बाहर िनकलना चा हये। आपके
जमाने म नह ं थे ये वैलटाईन डे वगैरह। आप तो अपने पित क चाकर करते हए
ु ह
जंदगी गुजा रये। उसे वैसे भी इस दाद टाईप क औरत क बात म कोई िच नह ं
थी।
ले कन वह ु सी सब दरू बस दे व को ह ढँू ढ़ रह
वयं इस हादसे के कारण घबराई हई
थी। उसे व ास था क वह उसे इस मुसीबत से िनकालने के िलये ज र आएगा। सारे
वाहन वहाँ से हटवा दये गये थे। काफ दे र तक जोर जोर से आवाज आती रह । लाठ
चाज होने लगा था।
दोन घबराए हए
ु से पहले तो एक दसरे
ू का हाथ पकड़े हाल चाल पूछते रहे ।
“मुझे तो सामने के वमाजी ने खबर क । उ होने कहा क ज द से तु ह घर ले आऊँ।
यहाँ कोई फसाद हो गया है । तु ह अकेले नह ं आने दगे।” वे काफ घबराए हए
ु थे।
मोिनका कुछ कहती इससे पहले ह माँ-जी ने उसे भी अपने साथ िलया और बाहर
िनकलकर उसके भाई के हाथ म सुर त स प दया। मोिनका को लगा क दे व खुद
भी तो यह कर सकता था!
तभी सूती साड़ वाली¸ मोढ़े सी गाँव क लड़क ने अपने नयन प छे और उस बालक
को यार से गोद म िलया। उसके गंदे होने और उससे वयं के गंदे हो जाने क
परवाह कये बना! पास ह के गुसलखाने म ले जाकर उसने उसे साफ कया¸ मीठ
बात करने से उसका दन बंद हआ।
ु बालक क ट शट क जेब म उसका नाम – पता
िलखा था। वह झट रसे शन पर जाकर सार जानकार के साथ उस न हे मु ने को दे
आई जहाँ से माईक पर विधवत घोषणा कर उसे उसक माँ के पास स प दया गया।
रटायरमट के बाद अब बाबा के पास भरपूर समय था। उ होने अपने कमरे के एक
कोने को साफ करवाकर वहाँ अलग – अलग खाने वाली एक अलमार लगवा ली थी।
वहाँ अपनी मोट कताब रखते। अलग अलग आसव¸ बू टयाँ¸ चूण जाने या या
लाकर रखा था वहाँ उ ह ने। दन रात वे या तो अपनी पु तक म मगन रहते या
बोतल म से कुछ यहाँ तो कुछ वहाँ कया करते।
इस शुभ अवसर पर उ ह लगा जैसे उनक जीवन भर क साध पूर हो गई थी। वयं
का मकान बनाकर या ब च क शाद करके भी वे इतना आनं दत और संतु नह ं हो
पाए थे जतने क आज थे।
उनका बेटा भी अपने यवहार म बना कसी पुरानी झड़क या कटु श द को बीच म
न ला¸ एक सामा य रपोटर क है िसयत से उनका इं टर यू अपनी यूज एजे सी के
िलये ले गया था।
से टं ग
“अरे मने कहा जनाब चाय पानी तो िलये जाते गर बखाने से!” िम ाजी कुछ यादा ह
बोल गये है ऐसा उनक प ी को लगा। और अली भाई अ य त क भाँित बैठ भी
गये। दौर चल पड़ा तो बा रश के बहाने चाय के साथ भ जये भी तले गये और पूरे ड़े ढ़
घ टे क आवभगत के बाद अली भाई तृ मन से वहाँ से
िनकले।
आशा के वपर त¸ अली भाई थोड़े गंभीर हो उठे । कसी भी तरह से वे बातचीत के
मु दे को टालते हए
ु इधर उधर क उड़ाते रहे । साथ ह ये भी कहा क एक दो मह न
के बाद अवैध बजली लेने वाल के खलाफ सरकार मु हम शु होने वाली है । ऐसे म
अभी से इन लोग से झगड़ा य मोल िलया जाए? फर िम ाजी को भी तो उसी
इलाके म रहना है । बजली बल के हजार पाँच सौ के िलये वे घर क सुर ा तो ख म
नह ं कर सकते थे।
खैर! िम ाजी उ टे पाँव घर लौट आए। उ ह रह रहकर यह बात परे शान कर रह थी
क आ खर उनक सै टं ग म या कमी रह गई जो इतना भार बल भरना मजबूर
बन गया!
“वो बाई ऐसा हे क मीटर वाले बाबूजी के यहाँ बतन कपड़े करती हँू न म! सो उनसे
सै टं ग जमा ली है मेरे मु ना ने। उनसे पूछकर हर दो मह न के अंदर कसी बँगले क
लाईन से जोड दे ते है । बस अपनी तो ऐसे ह िनभ जाती है ।” वह खींसे िनपोर कर
हँ सने लगी।
इन पं य का एक एक श द यामा को बींधता हआ
ु चला गया। यह मंजू ी¸ यानी
यामा के पता क ववय कृ णदास क सुिश या। अ यंत सुंदर का यपाठ कया करती
थी और समाचार प के समी क वारा इसे समय समय पर अगली पीढ़ क सश
दावेदार के प म भी िन पत कया गया था। हर बार यामा इसके का य को¸
यवहार को वयं क ितभा के सम बौना सा बत करने पर तुली रहती।
समारोह थल खचाखच भरा था। क ववय को सभी शुभिच तक बधाई दे रहे थे।
यामा को भी वह सब कुछ िमल रहा था जसक लालसा म उसने वष बताए थे।
आयोजन शु होने को था। तभी वचारम न से क ववय को एक प रिचत कंठ वर
सुनाई दया।
“ णाम गु जी!”
हमारा यारा सा छोटा¸ सुंदर प रवार है । यानी मेरे पित¸ चार साल का बेटा अिभ और
म। और हाँ अिभ के दादा भी हमारे ह साथ रहते है । म थोड़ा गलत बोल गई। इतना
भी छोटा प रवार नह ं है हमारा। मेरे पित तो दन भर काम म य त रहते है । वो
ए सपोट का बजनेस है ना हमारा। क टम वाल से लगाकर टै स अथॉ रट ज सभी के
साथ अ छ से टं ग है इनक । म अपनी सहे िलय के साथ जम¸ कट और लब क
ए ट वट ज म ह इतना थक जाती हँू क ह ते म दो तीन बार तो हम बाहर ह खा
लेते है ।
“आपक धमप ी क ह बदौलत आपको दाना – पानी िमल रहा है यहाँ। नह ं तो…।”
और पता नह ं य वे छाती मलते हए
ु से हमेशा क तरह नाटक करते बैठ गये थे।
“आपक धमप ी क ह बदौलत आपको दाना – पानी िमल रहा है यहाँ। नह ं तो…।”
अिभ अपने साथ दादा का पुराना फोटो भी लाया था। एक दन म और उसके पापा
रसोट के लॉन म कॉफ पी रहे थे। उनका मूड थोड़ा ऑफ था। अिभ भी कमाल का
लड़का है हाँ। दादा का फोटो हमारे सामने रखा और कहने लगा¸
“आपक धमप ी क ह बदौलत आपको दाना – पानी िमल रहा है यहाँ। नह ं तो…।”
दसर
ू बात¸ उ ह जानवर से बड़ घृणा थी◌ी। खासकर कु से। गाय या हाथी कभी
गली मोह ले म घूमते तो उ ह कोई एतराज नह ं होता ले कन कु ा कह ं भी दखा क
उनका मुह
ँ चढ़ जाता। उनके हसाब से य द ये संसार चलता होता तो सभी जगह पर
सफेद प थर मढ़वा दया होता उ होने जससे धूल का नामोिनशान न रहे ।
ले कन इन दन ठाकुरजी क यौ रयाँ चढ़ हई
ु रहती थी। रोजाना उनक सुबह क
सैर के व एक भूरा सा म यवय का व थ कु ा कसी पुराने संगी साथी क भाँित
उनके साथ हो लेता था। वे लाख उसे झड़कते¸ भगाते वहाँ से ले कन वह पूँछ हलाता
फर थोड़ दे र बाद हा जर हो जाता। उ ह इस तरह से परे शान होते दे ख शायद उस
ान को बड़ा मजा आता था य क वह राह चलते कसी अ य य के पीछे कभी
भी नह ं गया था।
ढाकुरजी तो जैसे प थर का बुत हो गये थे। कु े ने उनके धूल से सने हाथ चाटने शु
कये। उ होने कोई ितवाद नह ं कया। वह पूँछ हलाता उनके पैर म लोट लगाने
लगा¸ उनका पायजामा धूल – क चड़ से सान दया। ठाकुरजी ने कोई वरोध नह ं
जताया। उ टे वे उसे गोद म लेकर कसी न हे मु ने के जैसे लाड़ करने लगे। खुद म
हए
ु इस बदलाव पर उ ह वयं आ य हो रहा था। और हो भी य ना !
जोशी अंकल का वनू इन दन पास क म ट म रहने वाले उसके ममेरे दादा दाद के
यहाँ जाने म काफ िच लेने लगा है । स ह अठारह साल का वनू उन अकेले रहते
दादा दाद के िलये कभी घर का बना अचार ले जाता तो कभी गरम – गरम
पूरणपोली। वे दोन भी बड़े खुश थे। इसी बहाने उनका भी थोड़ा व िनकल जाता।
थोड़ा उसके साथ बितयाने म और उससे दगु
ु ना उसके वषय म बितयाने म।
दादा दाद भी अकेले से अपना जीवन जी रहे थे। दोन क ह त बयत वैसे तो
ब कुल ठ क ठाक थी। दादा च सठ के थे और दाद साठ के लगभग। उनके ब चे
अपन भ व य सुधारने दसरे
ू दे श म थे और उनके अनुसार ये दोन वहाँ क सं कृित¸
रहन सहन से मोल जोल नह ं बैठा पाएँगे। इसिलये जब तक वयं का सब कुछ कर
सकते है ¸ कोई तकलीफ नह ं। आगे दे खा जाएगा।
ऊपर पहँु चकर बेल दबाने को ह थे क उ ह सुनाई दया जैसे दोन दो त िमलकर
उ ह ं के वषय म बितया रहे है । वे बेल बजाना छोड़ उनक बात सुनने का य
करने लगे।
“अरे बता ना यार। दे ख तू भाव मत खा या। बता तो ऐसा या है ये नीचे वाले दादा
दाद के पास जो मेरे यहाँ आने के बहाने इनके च कर लगाया करता है तू?” शांत वनू
को परे शान कर रहा था।
“ य पाल रखा है इसे अपने यहाँ? कहने को आमने सामने के दस घर म काम करता
है ले कन व काटता है हमारे ह घर। या रस आता है तु ह इसक बात म भगवान
जाने।” म मी बड़बड़ाया करती।
उस दन तो हद ह हो गई। र ववार था और मामा के यहाँ कथा का आयोजन था।
सुबह दस बजे पहँु चना था और माँ के श द म अपशकुनी के जैसा ह रराम आ टपका
था। उस दन बड़ा खुश¸ हाथ म ताजे फूल का गु छा चेहरे पर वैसी ह ताजी
मु कान।
पापा साँस लेने को के। मुझे मेरा ी इं जीिनय रं ग टे ट के िलये गॅप लेना अखरने
लगा था।
पापा कहने लगे¸ “ अब तो खुश हो ना या! ह रराम हमार र ववार क सुबह खराब
नह ं कर पाएगा कभी।”
म मी के चेहरे पर अपराधी के से भाव थे।
िम ट लौट आई
अपने घर म उ होने द वार के सहारे लटकती कई आकृितयाँ लगा रखी थी। उनक
सबसे सुंदर कृित¸ कमरे के कोने म रखी हई
ु बड़ सी मूित थी। उसके हाथ म रखे हए
ु
घट म से सुनहर चुनर बाहर िनकलती हई
ु रखी थी जो बहते हए
ु जल का सा आभास
दे ती थी। एक के ऊपर एक चू ड़याँ बैठाकर बनाया गया बेलनाकर फूलदान¸ और भी न
जाने या या था उनक कला कौशल के खजाने म।
जाने कहाँ अपनी पूँछ छोड़ आया काला कलूटा बंदर था तो “कभी साथ ना छोड़गे” क
तज पर एक दसरे
ू से िचपके रं ग बरं गे लव टै ड़ । बड़ मूि त के थान पर एक सजीव
सा लगता जमन शेपड़ तनकर खड़ा हआ
ु था। और तो और घर के परद को भी कुछ
न हे खरगोश अपने आगोश म िलये थे।
“बस यह बाक था।” कहकर लितका ने उसके हाथ से गाड़ क चाबी छ नी और उसम
एक नैन मट का करता मछिलय का जोड़ा लगाकर उसे िनयत थान पर टाँग दया।
सुरे ने दे खा क वहाँ पहले से ह कुछ मुँह िचढ़ाती और आँख दखाती आकृितयाँ
मौजूद थी।
उसे लगा जैसे वह िमनू ब टया को कंड़रगाड़न भत करवाने ले गया था¸ वैसा ह कुछ
यहाँ आ गया है ।
घर खुश था…
िच ड़याघर
हरन के पंजरे के पछवाड़े एक गंदा नाला बहता था। उसी के पास क एक सूखी और
आरामदे ह जगह पर एक कुितया ने भी एक साथ आठ ब च को ज म दया था।
दोन जानवर को इ सान से िमलते इस अजीब यवहार को दे खकर आ य होता था।
इस तरह क वड़ं बना वह पहले भी दे ख चुक थी। इ सान का दमाग उसे कभी भी
समझ नह ं आया था। कुितया बैठ सोचा करती। इसी बीच नाले का गंदा पानी कभी
कभी सरकार क अित मण हटाओ मु हम के अफसर के जैसा उसक ममता पर
क जा करने आता। वह न हे ¸ बंद आँख के जीव िलये एक थान से दसरा
ू थान
बदलती रहती।
उस दन कुितया वशेष सतक थी। उसके न हे अब अपने कोमल पैर से आगे – पीछे
सरकने लगे थे। और उनक इन गित विधय से आक षत हो दो गली के ब चे इस
टोह म थे क कब इनम से एकाध हाथ लग जाए। वह दन भर उ ह भ क कर¸
गुराकर वहाँ से भगाती रह थी।
ये सब करते करते अब कुितया थकने लगी थी। सोचने लगी क काश एकाध पंजरा
उसे भी नसीब हो जाता तो इन न ह क िचंता न रहती। ले कन पता नह ं ये इ सान
भी या अजीब ाणी है । जाने उस हरनी के एक ब चे पर इतनी कृपा य बरस रह
है । उसक हरनी माँ दे खो कैसी सार िचंताओं से दरू सो रह है । उसे ना वयं के
खाने क िचंता है और न ह ब चे के िलये खाना ढँू ढ़कर लाना होता है ।
तभी नाले पार के पंजरे से एक चीख उभर । कुितया ने उठकर दे खा¸ दो मनु य न हे
मृगछौने को जबद ती उसक माँ से अलग पंजरे के बाहर ले गये । यह नह ं उ होने
उसे एक नुक ली सी सूई भी चुभो द ।
हरनौटा दद से बल बला रहा था। उसक पंजरे म बंद हरनी माँ असहाय सी
ितलिमला रह थी।
“ले कन पापा!”
“बोलो बेटा!”
“वहाँ पर न तो कोई पेड़ पौधे रहगे¸ न पंछ । ये सब बहत
ु नीचे होगा। और न ह हम
चाँद तार को छू सकते है ¸ ये बहत
ु ऊपर होगा। ऐसी बीच वाली टे ज को तो अधर म
लटकना कहते है ना?”
“दे खये डॉ टर साहब! मधु को तो मने पूरा – पूरा आपके भरोसे कर रखा है । उसक
बीमार य पकड़ म नह ं आ रह है इसक िचंता तो मुझे भी है । आप तो अपने
हसाब से उसका इलाज क जीये।”
“जी”
…………………
“ य
े ा लॅब से बोल रहे है ?”
“जी! क हये!”
“जी!”
“है लो डॉ झा! क हये¸ कसक इ ट मेशन है इस बार?”
“ योर! ड़न!”
जुगत
“तुम भी स हलकर रहना भैये। “डाईरे ट” म हो। अपना तो पसटे ज वाला वभाग है ।
िमल गये तो ठ क¸ न िमले तो ठ क। िसर पे ठ करा नह ं फूटने का। अपनी पहले से
ह जुगत िभड़ है ।” प रहार बाबू खुश हो िलये।
“हाँ खैर! आपका काम अलग है ।” शमाजी अनमने से होकर कुछ जुगत िभड़ाने लगे।
इन दन उनके घर म बेट के याह क तैया रयाँ चल रह थी। दो तीन मोटे ाहक
से उ होने काम करवाकर दे ने के बदले म हॉल¸
वदे श म याह बेट तीन साल बाद मायके लौट तो घर म जैसे खुिशयाँ बरस पड़ ।
हर कोई उससे बात करने¸ क से सुनने और उसके साथ रहने को आतुर था। ले कन
बेट थी क अपने नखर से ह उबर नह ं पा रह थी।
“म मी! कतना वेट गेन कर िलया है आपने? वहाँ होती तो सबक टोकाटोक सुनकर
जम शु कर दे ती अभी तक।”
“मने तो तेरे आने क खबर सुनते ह सोच रखा था ले कन तेर बात सुनकर लगा क
अब तुझे सूट करे गा या नह ?ं ”
“वहाँ पकाकर खलाने को माँ नह ं होती कह । शायद इसीिलये सार असली चीज सूट
नह ं होती माँ। अब मुझे यहाँ सब असली और शु खलाकर प का नह ं बनाओगी
या?”
इ टॉलमट
इस अ पताल म ह उनका जीवन गया था। जाने कतनी ह ज चाओं को¸ उनके हाथ
म गु डे गु ड़या थमा खुशी – खुशी घर भेज चुक थी।
हक
“वॉओ ! लु कंग ेट। यार तुम इतनी ज द कैसे मनेज कर लेती हो सारा! मुझे तो
े स डसाईड करने म ह आधा घ टा लग जाता है ।” अ नी ने पूछा।
अब अ नी को अपनी पोषाक जाने य ¸ कुछ यादा ह बदन उघाडू लगने लगी थी।
दे शभ
“आपक माँ के थे चार – चार बेटे। सो एक का फौज म जाना सुहाया होगा उ ह। मेरा
एक ह द पक है । म नह ं भेजने क इसे पूना।” माँ का क ठ अ आ
ु हो उठा था।
पापा वह ं कमरे म च कर काट रहे थे। जैसे कुछ सोच रहे हो। उनके िलये भी तो
िनणय लेना टे ढ़ खीर था। बरस पुरानी फौजी परं परा रह है गर म और अब इकलौता
अँशुल। उनका भी कलेजा मुँह को आ रहा था। ले कन िनणय जो भी कुछ हो¸ इस व
दल से नह ं दमाग से लेना ज र था जससे अँशुल का भ व य और प रवार क
परं परा दोन ह सुर त रह सके। शाम को अ दती मुँह बनाए लॉन म टहल रह थी।
उसे अचानक एक तरक ब सूझी।
माँ वलाप करती रह । अ दती ने अँशुल का सामान बाँधना शु कया। पापा ने अँशल
ु
के दो त के घर फोन कया।
आरोप
दनेश धड़ाक से दरवाजा खोलकर बाहर िनकल गया। बाबूजी मुँह फाड़े उसक बात
सुनते रहे ।
तभी पीछे से माँ आ िनकली। बाबूजी को जैसे ितनके का सहारा िमला हो।
“उसक यह गलती हई
ु ना क वो पकड़ा गया? गनीमत सम झये क आपके पताजी
नह ं जानते क आपने उनके द तखत क नकल करके कतनी ह बार अपनी गाड़
खींची है । बस पकड़ा गया ह चोर नह ं होता।”
“ऐसा कहते हए
ु तुम अपनी खुद क ताकद को य भूल जाते हो? तु ह हाथ – पैर
मेहनत करने के िलये िमले है । ये दमाग चलाकर काम करने के िलये िमला है और
…”
“तुम सब होते ह ऐसे हो। मेरे पापा ठ क ह कहते है । तु हारे भा य म सुख सु वधाएँ¸
धन दौलत नह ं है ना इसिलये जलते हो। खुद तो कुछ कर नह ं पाते और हम नाम
धरते हो।”
“दे खा तुमने? तु हारे वचार भी तो तु हारे अपने नह ं है । पछली पीढ़ के वचार लेकर
नई पीढ़ से लड़ोगे तो हार जाओगे बाबू। तकलीफ है इस दिनया
ु से तो िनकल आओ
धन दौलत क गुदगुद दिनया
ु से बाहर। खुद सवाल करो ऊपरवाले से और फर दे खना
जवाब कैसे नह ं िमलता।”
“तु हार बात तु हारे पास ह रहने दो। जाने कब सुधरोगे तुम लोग। इसी तरह से पैसे
– पैसे को मोहताज होते हए
ु अपने भा य को रोते रहोगे।”
ये कहते हए
ु किथत धिनक िनकल पड़ा था या शायद भाग रहा था स चाई से।
दसरे
ू ¸ तीसरे और चौथे माले पर रहने वाली िमसेस शमा¸ िमसेस गु ा और िमसेस
ितवार । ट न ह कुछ समय के िलये अपने बेटे बहओं
ु के पास रहने के िलये आई थी
सो उनक दोपहर क मह फल जमा करती थी।
“ हमार बहरानी
ू तो ऑ फस से आते हए
ु दो – दो यूश स करती आती है और साथ
ह ट फन बी ले आती है । दाल म िभगो िभगो कर रो टयाँ हलक से नीचे उतारनी
पड़ती है । बुरा तो लगता है ले कन या कर?”
भार आवाज म िमसेस ितवार बोली¸ “मेर बहू तो मेरे आते ह पूरा घर और मेरा बेटा
ह मेरे भरोसे छोड़ अपने मायके चली जाती है … अ छ कटती है मेर ।”
“अरे रमा! कतने दन बाद दे ख रह हँू तुझ।े आ¸ जरा बैठ और सुरेश कहाँ है? टं कू
बबलू भी आए है ना?” ब नी चाची बड़े हलास
ु से अपने दे वर दे वरानी और उनके
प रवार क आवभगत कर रह थी। ब चे डरे सहम से थे। ब नी चाची का पोता जब
भी घर म होता¸ उ ह कसी भी खलौने को हाथ नह ं लगाने दे ता। उनसे सीधे मुँह
बात भी नह ं कया करता। ले कन आज वो नह ं था। बहू मायके गई हई
ु थी।
रमा और सुरेश को ये माजरा कुछ समझ नह ं आ रहा था। यूँ तो घर म पैर धरते ह
आँखे चुराती हई
ु ब नी चाची¸ जबद ती मु काती और बहू का गुणगान उसके ह
गु सैल मुख पर करती ब नी चाची¸ हमेशा खाने म सूखे से और नाममा के पदाथ
परोसती ब नी चाची को अचानक हो या गया था? वे दोन अनमने भाव से इस
अल य आग य का सुख उठाते रहे ।
दन भर के िलये बुलाया था उ ह। शायद कोई कारण होगा। कुछ कहना चाहती होगी।
हो सकता है पय क ज रत हो। नाना कार के वचार यहाँ आने से पहले दोन के
मन म घर कर गये थे।
खाना खाकर फर लेटे लेटे ग प का दौर चल पड़ा। नई पुरानी¸ र ते नात क ¸ दोपहर
वाली रसीली बात। ब चे भी अब खुलकर खेलने लगे थे। धरे – धीरे सभी ऊँघने लगे।
और वे पुन: वैसी ह कठोर हो उठ । जाने या या¸ कहाँ कहाँ दरक गया था।
रमा फुत से उठ । चाय के बतन साफ कर¸ प छकर जगह पर रखे। ब च को तैयार
कया। ठ क पाँच बजे चार दरवाजे पर पहँु चे।
“भाभी! अब चलते है ।”
चाची बहत
ु चाहती थी उ ह रोकना ले कन उनके कटे हाथ आज रमा ने दे ख िलये थे।
परं तु उनका एक मन आज सुखी था। अरसे बाद¸ कुछ मन का कर पाई थी वे। बस
मु कुराकर रह गई।
उसक ऐसी हरकत से परे शान सुधीर उस रात को सोते से जाग पड़ा था। बगल म
लेट रे णु शांत भाव चेहरे पर िलये पड़ थी। पानी पीने क िलये लप जलाने पर सुधीर
आ यच कत रह गया। रे णु जाग रह थी। मंद – मंद मु काती हई
ु ¸ जो क उसक
हमेशा क आदत है ¸ उसे एकटक दे ख रह थी। सुधीर पानी पीना भूल अपराधी सा माथे
पर हाथ धरे बैठ गया। वह बखूबी जानता था क रे णु क यह प रप व ह काफ
है थती को स हालने के िलये।
सुधीर मुखर हो उठा। र नी और उसक बात¸ उसके वचार¸ अजीब सी अिभ य । कभी
भी और कसी भी तर के से खुश न हो पाने वाली र नी को सुधीर ने एक पहे ली क
भाँित रे णु से पूछ ह तो िलया था।
“दे खो र नी! म तु हार ितभा क ¸ तु हारे वचार क क करता हँू । य द तुम मेरे
जीवन म रे णु से पहले आ जाती तो म तु हारे साथ भी उतना ह सुखी रह पाता
जतना आज रे णु के साथ हँू ।”
र नी चुपचाप सुनती रह । जैसे उसक चोर पकड़ गई हो। सुधीर कहता चला।
“सर! हम सभी आपक सतत ् ऊजा और काम करते ह रहने के उ साह के कायल है ।
आप हमारे आदश है और हम मालूम हआ
ु है क आपक ऊजा का रह य है दो माह
म एक स ाह का एकांतवास। सर लीज बताईये आप कस रसोट¸ गाँव या फाम
हाऊस म जाते है जहाँ सह एकांतवास िमल सके?”
युवक िन र था।
मानिसक यिभचार
अपने मन म वचार का तूफान िलये वह घर पहँु ची। अपने कमरे क शरण ली।
अिभषेक¸ उसका मंगेतर¸ दसरे
ू शहर म नौकर करता है । ऑ फस म काम करते व
ऑनलाईन रहता है । र टा उसी से वॉईस चैट करने के िलये कैफे गई थी। उसके िलये
अिभषेक ने मसेज छोड़ रखा था। वह एक घ टे के िलये मीट ंग म य त था और
ऑनलाईन होते हए
ु भी उससे संपक नह ं कर सकता था।
“है लो वीट !”
दसरे
ू ह दन उसने अिभषेक को मेल कया। “मने अपना लॉिगन नेम
“ वीटसै योर टा” से बदलकर “र टाअिभषेक” कर िलया है ।”
आकां ा के पैर ठठक गये। वैसे भी शहर के इस नये रहवासी इलको म अभी अभी
रहने आई आकां ा को कोई इस तरह से पुकारे गा इसक उसने क पना भी नह ं क
थी। उसे इस तरह से असमंजस म पड़े दे ख आवाज लगाने वाली म हला बोली¸ “बेट
म! िमला अ वाल। यामली क म मी।”
बार को डं ग
राजीव ने समझाते हए
ु कहा¸ “दाद ! सुनने म अ छा लगा ना? एक रले सेशन फ लींग¸
फटे सी¸ सू दं ग इफे ट सब कुछ दे ने का यास कया था हमने । ए चुअली दाद ! ये
नय जमाने का यूजन यू जक है जसम बंधनमु टाईप का ए स ेश न होता है ।
कसी राग¸ ताल या समय क बं दश नह ं होती। बना कसी भाव के बस संगीत के
वर म¸ अपने म उतरकर एक तर के क उपासना क जाती है । ये है नया इनवे शन¸
यूजन यू जक…ता…रा…रा…।”
कूल म उन दन मु य आ म से आए हए
ु वामीजी ित दन ब च को
ज वनोपयोगी िश ाएँ दे ते थे।
“वो कूल म वामीजी रोज ेयर के बाद पहला पी रयड लेते है । हम बड़ा अ छा
लगता है उनक बात सुनना। हमेशा सच बोलना¸ म मी पापा का र पे ट करना और
कसी से नह ं झगड़ना। अब म कोिशश क ँ गा ये सब करने क ।”
पापा ने भी सहमितसूचक िसर हलाया। हाई सोसाईट गेट टु गेदस म सभी रट रटाई
पोय स सुनाते ब च के बीच उ ह वामीजी बात दोहराता रो हत सचमुच खटक रहा
था।
मन क शांित
और दोन ने एक दसरे
ू पर एक अथपूण मु कान बखेर और पुन: द िच हो वचन
सुनने म लग गई।
ओपन लाईफ टाईल
“मेरे साथ पड़ोस क िसंघल आंट भी थी। और ये अिभ कौन है ? िसंघल आंट ने ह
पॉ ट आऊट कया तु ह। मुझे तो ये भी मालूम नह ं था क तुम कसके साथ हो!
कम से कम घर से िनकलने से पहले बता तो सकती हो ना? कतना इं बरेि संग फ ल
हआ
ु मुझे।”
“आप भी न म मी! आऊट डे टेड पीस के जैसी बात करती हो। सुनो म मी! घर से
बाहर िनकलने के बाद मालूम होता है या क क कौन िमलेगा¸ कहाँ जाना होगा¸
कसके साथ रहगे? और फर मने कुछ छुपाया तो नह ं◌ी ना? म मी ये ओपन लाईफ
टाईल है । लीज इसम अपना पुरातनपंथी वचार वाला ले चर मत दे दे ना। आजकल
के लड़के लड़ कय क इमेज इतनी है क कोई कसी भी चीज को मा ड़ नह ं
करता। ए ड़ डो ट वर ¸ िसंघल आंट कोई तोप तो नह ं हे ना!”
“म और रानी वहाँ से पास हो रहे थे। मने तो कसी दलीप अंकल को कभी नह ं
दे खा। म रानी को या ए स लेन करती। कतना इ स टं ग फ ल कया मने।”
“सच! मतलब सार औपन लाईफ टाईल तुम अपने िलये ह रखना चाहती हो। इसम
से कुछ म मी पापा के िलये भी तो होना चा हये ना!”
“सॉर म मी।”
अंतरयामी
मेर दाद ¸ पूजा पाठ¸ जप तप म दन रात लगी रहती है । हमारे घर ठाकुरजी के नान
साद के बगैर कोई भी अ न मुँह म नह ं डालता। दाद फर ठाकुरजी का ग
ं ृ ार
करती है ¸ उनक बलाएँ लेती है ¸ ल डू गोपाल को मनुहार से साद खलाती है । उनके
एक भुजी महाराज है । बड़े तप वी¸ ानी संत है । ठाकुरजी के परम ् भ । ठाकुरजी
उनसे व न म आकर बात करते है । ऐसा दाद हम बताती है । कभी – कभी हम भी
अपने साथ मं दर म ले जाकर उनसे आशीष दलवाती है । वहाँ बड़े अ छे – अ छे
पकवान िमलते है खाने को। ले कन वो कतना ह जद करो¸ रोज ले ह नह ं जाती।
“माँ!”
“तुम ये सब इतनी सहजता से कैसे कह सकती हो माँ या तु हारे पास मेरे िलये
कोई ेम नह ं बचा? मने तो सोचा था क हमसे लाख गलितयाँ हो ले कन तुम हमेशा
ह हमारा साथ दोगी। ले कन म ह गलत था।”
“तु हार यह सोच कहाँ थी बेटा जब दो बार वदे श वापसी के दौरान तुम इसी शहर
क अपनी संप न ससुराल म मह ने भर तक आित य हण करते रहे । माँ – बाप के
िलये बस एक औपचा रक दन रखा¸ उसम भी हमार बहू तबीयत खराब होने का
बहाना बनाकर यहाँ नह ं आई।”
“तु हार गृह थी और हमार नई बहू को दे खने आना चाहती थी म। तु ह मदद करना
ह चाह रह थी। ले कन तब तो तुम ज मेदार और वावलंबी थे। तुमने ह कहा था
क हमने तु ह ज म दे कर¸ पाल पोसकर बड़ा कया¸ तुहार पढ़ाई पर खच कया और
अब हमार ज मेदार ख म हो चुक है ।”
“माँ!”
“माँ लीज आ जाईये। मुझसे ये सब नह ं होगा। यहाँ नौकर बड़े महँ गे है माँ। हम
दोन सब कुछ मनेज नह ं कर पाएँगे। वहाँ आने जाने म चौगुना खच हो जाएगा।
आपके आ जाने से बड़ सहिलयत
ू हो जाएगी। हम दोन वैसे भी साथ रहे नह ं है
कभी। इसी बहाने अ ड ट ड़ं ग हो जाएगी।”
माँ सुनती रह । ीती से उ ह ने वहाँ डलेवर करवाने और दो नौकर रखने क थती
म हो सकने वाले खच क रकम मालूम क । दसरे
ू दन उ ह ने वयं शेखर को
बुलवाया। उसके हाथ म संभा य खच से चौगुनी रकम का धनादे श रखा। शेखर हत भ
था।
“……”
शेखर काँप उठा। यह पैसा उसे दे श से दरू ले गया। अब यह पैसा माँ बाप से अलग
कये दे रहा है । उसके कदम बो झल हो उठे थे। वह तय नह ं कर पा रहा था क
उसक गलितय का बोझ यादा था या माँ – बाप के एहसान का…
ममता
“ऊँ… आँ”
नवजात िशशु के दन से कमरा गूँज उठा। ाची ने उनींद ¸ थक आँख से दे खा¸ शाम
के पाँच बज रहे थे। घ टा भर पहले ह तो इसे दध
ू पलाकर सुलाया था। कल रात
भर भी रो रोकर जागता रहा था। ाची को खीज हो आई। ाह बीस दन के उस
न हे से जीव को गु ड़या जैसे उठाकर उसने गोद म िलया। माँ का पश पाते ह वह
गुलगोथना िशशु संतु हो गया। अपनी बँधी मु ठय क न ह ¸ मूँगफली के दध
ू भरे
दान के जैसी ऊँगिलय को ह मुँह म लेकर चूसने लगा। ाची को अब समझ म
आया क उसे या करना है ।
“ या हआ
ु ?”
या या हआ
ु ? सोने भी नह ं दे ता ढ़ं ग से। एक तो रात रात भर जागता रहता है । हर
घ टे दो घ टे म दध
ू चा हये। कभी नैपी गंदा करता है तो कभी गोद म रहना होता
है । ऐसा ह रहे गा या ये?” ाची आँसी होने लगी थी।
सव के िलये मायके आई बेट क इस परे शानी को समझते हए
ु माँ उसके पलँग पर
ह पालखी लगाकर बैठ गई । न हे िशशु को गोद म िलया और ाची का िसर भी
अपनी गोद म रखकर उसे थपथपाने लगी। उनक आँख से आँसू बह चले। एक बंद ु
ाची के गल पर िगरा। उसने हड़बड़ाकर माँ को दे खा। वे बड़बड़ा रह थी।
“जब तक इसे माँ चा हये तब तक ये सुख भोग ले बेट । आजकल पराए परदे स का
कोई भरोसा नह ं है । वो धरती िनगल जाती है हमारे लाड़ल को।”
न हे िशशु ने ाची क ऊँगली अपने मदे से हाथ म थाम ली थी। ाची ने अब उसे
नह ं छुड़ाया।
टे ट
ेता ने उसे दे खते ह मुँह बनाया । अपने दजन भर चू ड़य वाले हाथ नचाते हए
ु
कहने लगी¸ “दे खो मौसी! म ना कहती थी? बड़ टू ड़यस बनती है । िसंपल यूट के
नाम से कॉलेज म जानी जाती थी। ए गेजमट के बाद तो अ छे से सज सँवर कर
आना चा हये ना पाट म?” ेता ने अपने यूट पाल रत बाल लहराए और िलपे पुते
चेहरे क अदाओं से बजिलयाँ िगरानी चाह ।
मौसी मंद मंद मु कुराती रह । ेता फर कह चली¸ “मुझे तो लगता है इसे वेलर
या फैशन एसेसर ज का टे ट ह नह ं है । नह ं तो इस तरह से अपनी उ से बड़ा कौन
दखना चाहेगा भला?”वह एक बार फर अपनी हाई ह ल पर डांवाडोल होते होते बची।
शा ीजी का चढ़ा हआ
ु मुह
ँ ीमित शा ी को जरा भी नह ं सुहाया।
लेखक संघ के ांगण म नये पुराने श द साधक क गहमा गहमी थी। अवसर था¸
“भेदभाव” शीषक से आयो जत क गई कहानी ितयोिगता के प रणाम क घोषणा
का।
तीसरे थान पर रहने वाली िमसेस जोशी बहू और बेट के बीच भेदभाव करती सास
क कहानी पर थी तो तीय थान पर रहने वाले िम ाजी ने अपने माँ बाप और
सास ससुर के बीच भेदभाव करते बेटे का िच ण अपनी कहानी म कया था।
“हाँ ब टया!”
दादाजी क यौ रयाँ चढ़ने लगी थी। पायल ने सहज होकर कहा ¸ “दादाजी! मेरा
मानना तो िसफ ये है क ज म लेना और जीना अलग है और जीकर कुछ कर
दखाना एकदम अलग। मुझे तो कुछ ऐसा कर दखाना है जससे िसफ मेरा नाम नह ं
ब क मेरा काम आदश बने।”
“पायल द द !”
तूफानी गित से कार भाग रह थी। सुनसान हाईवे पर इस आधुिनक¸ सवसु वधायु
कार म बैठा था ववेक और प लवी का जोड़ा। शाद के बाद पहली बार लाँग ाईव¸
जून मह ने क अलम त हवाएँ और िचकना सपाट रा ता। ववेक तो जैसे बाँधे नह ं
बँध रहा था। इस तरह क सुहानी शाम कतनी कम िमल पाती है जंदगी म। यह तो
ए जॉय करने के दन है । कार म कुछ इसी तरह क बात हो रह थी।
बालक के पैर म गंभीर चोट आई। ले कन ववेक¸ गित िनयं त करने के थान पर
उस बालक क माँ क लापरवाह को लेकर लंबी चौड़ बात करता रहा। उ ह ने ककर
बालक को दे खा भी नह ं।
“डन म मी!”
िमठू भी पढ़ाई म होिशयार था। लास म हमेशा पहले पाँच म रक होता था उसका।
बाक ए ट वट ज म भी उसके उ साह क सभी तार फ कया करते थे।
उसक म मी को इन दन िचंता थी उसके कूल म होने वाली इं लश पेिलंग
काँ प टशन क । इस राउ ड के बाद य द िमठू जीत जाता है तो इ टर कूल इं लश
पेिलंग काँ प टशन म वह अपने कूल को र ेजे ट करे गा। फर िसट लेवल¸ टे ट
लेवल¸ नॅशनल लेवल और इ टरनॅशनल लेवल।
दका
ु न के बो स¸ यूज चैनल के ोलस¸ शेयर माकट क श दाविलय से लगाकर
बॉटिनकल ने स तक सभी क जानकार छोटे से िमठू के पीछे पड़ थी क कब वह
अपने न हे से म त क म उ ह छोट सी जगह दे ।
इधर िमठू परे शान हो रहा था। आँख जवाफूल सी लाल¸ बदन गम सलाख सा तपता
हआ।
ु टू टन और कँपकँपी से वह थक गया था। सद खाँसी और तेजी से चलती साँस
के बीच भी वह मे डकल सॉ टवेयर के िसमट स वाले पेज पर गया। उसने अपने
िसमट स डाले ले कन तभी एक च कर खाकर िगरने को हआ
ु ।
िमठू के पापा रात दस बजे घर लौटे । हमेशा क तरह िमठू के कमरे म गये। उ ह ने
दे खा¸ उनका यारा बेटा बुखार म भी कुछ बड़बड़ा रहा था।
“मुझे इ लुएंजा हआ
ु है । मने मे डकल सॉ टवेयर म िसमट स डालकर मालूम कर
िलया था। ले कन म मी से कहता तो वे उसक पेिलंग पूछती। म या क ँ ¸ मुझे
याद ह नह ं हो रह ।”
ले कन बाबूजी के हसाब से¸ उनके घर से जाने के बाद से ह माँ बीमार रहने लगी थी
और छ: मह ने के भीतर ह चल बसी। मे डकल रपो स से यह मालूम होने के बाद
भी क उ ह पुरानी दल क बीमार थी¸ बाबूजी ने राकेश और सुिच ा का मुँह दे खना
तक बंद कर दया। उनके वचार से सुिच ा का यूँ घर छोड़ना ह माँ क मृ यु का
कारण था।
“ऐसा है िम ाजी! हमारे प रवार के र ित रवाज¸ हमारे सं कार इतने गहरे है ना! इसी
के ऊपर तो हम लोग टके हए
ु है साहब।”
“वो भाभी! मने कहा था ना¸ सा ी को वो पेशल कचौ ड़याँ बनानी सीखनी है आपसे।
तो वो अभी आधे घ टे म ह पहँु च रह है घर पर। अपनी होने वाली दे वरानी को
अ छे से े ड़ कर दे ना लीज!”
“जी बाबूजी।”
िशखा बाबूजी को सा ी से बाते करते दे ख अपना बाक काम िनपटाने लगी। कुकर म
कचौड़ के िलये आलू उबलने रखे। मैदा नापकर थाली म ड़ाला। तभी फर वह
संभाषण कान पर पड़ा जो सुबह िम ाजी सुनकर गये थे।
“हँू …”
“सा ी ऽऽ”
इधर एक हक
ू सी उठ । इस य को दे खकर न चाहते हए
ु भी वो सब याद आ जाता
है ।
कैसा हँ सता गाता घर था। कैसी झलिमल बारात उतर थी। गाँव उलट पड़ा था द ू हे
क एक झलक पाने को। बदाई के व द ु हन बनी रमा ब टया और ये ह दू हा जब
आशीष लेने को झुके थे तब पताजी क एक आँख बेट क बदाई को रोई थी और
दसर
ू ¸ अ छा घर वर िमलने पर बेट के भाग जगने क खुशी म बरसी थी।
रमा¸ उनक पहली संतान। उ ह पता के गौरवपूण पद पर आसीन करने वाली उनक
लाड़ली। जाित समाज क भी फ कये बना उ ह ने रमा को कॉलेज भेजा। बी कॉम
करवाया। पढ़ िलखी¸ काम काज म गुणी और सुंदर ब टया को घर भी ऐसा िमला था
क एक पल को तो उधर से हाँ आने पर पताजी को खुद के कान पर भरोसा नह ं
हआ
ु था।
पताजी अंदर से टू ट गये थे। वो तो दनेश ने खेती बाड़ स हाली और काम काज
अपने हाथ म िलया तब जाकर धीरे धीरे सब कुछ ठ क होने लगा था।
खैर! वमला ने इन लोग से अपने संबंध बखूबी िनभाए। उसक सास को पसंद तो
नह ं आता था ले कन वकास को लेकर रमा द द के मायके वे साल म एक बार ज र
आती थी। सदानंदजी को खैर अपनी नई ससुराल खूब फली। हर छठे चौमासे आठ
प ह दन रह आते। िशकार¸ दावत हर तरक का आनंद रहता। लखनपुर का राजाराम
यदा कदा दनेश को छे ड़ा करता था। “तु हारे कँवर साहब तो लखनपुर म बराजे है
ह ता भर से। खूब मौज मजा चलता है ।” दनेश तड़पकर रह जाता था। ले कन
चुपचाप सुन लेने के अलावा कोई चारा भी तो नह ं था।
सदानंदजी ने बात मालूम पड़ते ह पहले तो वकास को खूब खर खोट सुनाई। अपने
घर के सं कार क दहाई
ु द । ले कन जब वह टस से मस नह ं हआ
ु तब खुद को
मामले से अलग करके तट थ बने रहे । वकास भी दसरे
ू ह रोज शहर चला गया था।
बात हाथ से िनकलती दे ख उ ह ने लड़क के सभी संबंिधय क पड़ताल क और यहाँ
तक पहँु चे थे।
“दे खो भैया! दे खये पताजी! म जानती हँू रमाजीजी जैसी सुल णा ी ढँू ढ़ने पर भी
नह ं िमलेगी। ले कन मने भी तो अपनी पूर कोिशश क ना खुद को उनक जगह
रखने क ?” वमलाजी मुखर हो उठ ।
“अपने सास – ससुर के तान सुनकर भी छोटे वकास को लेकर आपके पास आती
रह । या रमा जीजी जंदा होती तो या वे भी नह ं आती ऐसे ह ? वकास के सारे
तीज यौहार इस गर से आए कपड़ म ह करवाती रह जससे उसे मामा घर का नेह
लगे। उसे सार कहािनयाँ आप लोग क ह सुनाती रह जससे वह आप लोग क
ओर ह खंचा रहे । और माँ …” अपनी सार श बटोरकर उ ह ने आगे कहा…
“लायक होते हए
ु भी बाँझ होने के ताने सुने जंदगी भर। या इतना भी काफ नह ?ं ”
जस औरत ने हमार बहन के बेटे क खाितर अपनी जंदगी दाँव पर लगा द । सारे
हक हम दये और हम उसे कुछ अपने से श द भी न दे पाए। शायद इसीिलये
वकास¸ दनेश को ह आकर सबसे पहले अपने मन क बात बता गया था।
फर वे भाव वभोर सी बैठ रमा क माँ से कहने लगे¸ “सुन रह हो ना रमा क माँ?
रमा बेट कह ं नह ं गई। वकास के पास है वो। हमारे घर म है ।” माँ को तो समझ
नह ं आ रहा था क इस ण को वे कहाँ छुपाकर रख दे ।
पताजी वमलाजी को भरे गले से कहने लगे¸ “ये तो तु हारा मायका है बेट । पूछो
नह ं हक से कहो। हमारा नाती है । उसक शाद पूरे जोर शोर से होगी। हम सब चलगे
शहर।”
सबके दय से कतना बड़ा बोझ उतर गया था। सबक आँख से खुशी बह रह थी।
कुछ दे र बाद पताजी कहने लगे¸ “अरे रमा क माँ! भूल गई या सबकुछ? शाद तय
हई
ु है नाती क । बेट को शगुन क साड़ तो ओढ़ाओ…!”
जंद गी भर का साथ
कतना गु सा हए
ु थे आकाश उस दन मने कहा था। “अिचं य अब ए थ म आ गया
है । काफ मै योर हो गया है । य ना एक और इ यू।”
“ये खाली बैठे बैठे कुछ भी फतूर पाल लेती हो तुम दमाग म। आसान बात है या
एक और बेबी मैनेज करना? जानती हो तुम क कोई और है नह ं हमारा। फर तु हारे
चेक अप¸ त बयत¸ हॉ पटल वगैरह के िलये मुझे मेरे साल भर से तय ो ा स ड टब
करने पड़गे।”
कहने को कतना कुछ था मेरे पास। शार रक¸ मानिसक यं नाओं से गुजरने को तैयार
थी म। अपनी सोच क ¸ अपनी अिभ य क एक सृजना मक ितकृित चाहती थी
म। काश क ब चे पैदा करने के िलये मुझे कसी पर िनभर नह ं रहना पड़ता!
सारे क तो मुझे होने थे जनका कुछ भी सोचे बगैर आकाश फैसला ले चुके थे।
म जब अपने आप म लौट तो पाया क खाली थाली के सामने बैठ हँू । आकाश खाना
खाकर ट वी के सामने बैठे थे। ट वी चालू था…
ऐसा तो हमेशा से है । मेरे सामने ट वी भी काली होता है और थाली भी। आकाश कहते
तो है । े स बनाया करे । कट जॉईन करो। पाट ज म जाओ। ले कन तुमम वो चीज
है ह नह ं। आ खर प थर से बात करने क आदत ड़ालनी है तो ये भी तो याद रखना
होगा क थोड़ दे र बाद ये बात वा पस भी तो लौटगी टकराकर! वो सब सुन सुनकर
अब को त होने लगी है ।
“मेरा नाम िसमी है ना! वो अरसे बाद आपके मुँह से सुना इसिलये…”
“डॉ टर वो बहत
ु कोिशश कर रह है बट कह ं कोई गड़बड़ है । ठ क है ¸ दन म दो ना?
म डोज़ डबल कर दँ ग
ू ा। आई वल लेट यू नो। बाय”
खैर छोड़ो! ऐसे जाने कतने ह क से हो चुके है मेरे साथ। कह ं जाने के बहाने
आकाश दस दस दन िसट म ह होते और मुझे अखबार पढ़कर मालूम होता।
ऑ यूमट क ँ तब तक उनके हसाब से इतना व गुजर चुका होता था¸ इतनी
है पिनं स हो चुक होती थी क मुझे हर व पुराने इ यूज को न िघसते रहने क
हदायत िमला करती थी।
फर आई िनमला। फर साल भर का फॉरे न टू र। मुझे िसफ दो दन पहले मालूम पड़ा
था क अब साल भर अकेली रहना है । ऑ फस से सैलर चैक आ जाया करे गा।
दमाग पर बहत
ु जोर डालो तो याद आता है । आकाश डॉ टर आनंद से िमलकर आए
थे। और फर अजीब सी श ल सूरत वाली दो बाईयाँ आकर मुझे ले गई थी। मने कोई
ितरोध नह ं कया। उ ह ने साँस छोड़ते हए
ु कहा था¸ “थक गॉड ये वॉयलट केस नह ं
है ।”
अिचं य ने भी िनमला का कोई वरोध नह ं कया था। मेरा बेटा। ब कुल मेरे जैसा।
मुझे अब कोई दद नह ं। म न सह मेरा अ स है आकाश के पास। उसे जंदगी भर
का साथ िनभाने को…
चुप होती आवाज
तं ा टू ट ¸ मधु आज म लौटा लाई खुद को। ऊँचे सपने दे खने वाली हर युवती क तरह
मधु के भी वाब जंदगी म बुलं दय को छूने के थे। आज वो बुलद
ं पर है । ले कन
वाब पूरा होने के साथ उसे ये भी चा हये क कोई सुने क वह कतनी मेहनत से इस
मुकाम पर पहँु ची है । मधु स सेना या फर वमा। फर वह उलझन। छोड़ो भी¸ जरा सी
वचार को हवा लगती है तो दरू तक आग जाती है ।
ध प… “पो टमॅन”
बात घर से बाहर जाएँ इससे पहले ह मधु ने अपने आप को स हाला । काम करना
शु कया और आ मिनभर होते ह आ मस मत िनणय लेकर अलग हो गई। कतना
समझाया था सभी ने। पताजी दस दन तक आकर रह गये थे।
वतं हवा म साँस लेने का सुख कुछ अलग ह वाद दे ता है। कतना तरसी थी वह
इन सूकून भरे पल के िलये अपनी पछली जंदगी म। अब रोकने टोकने या अपे ाओं
बरा चेहरा लेकर सामने बैठने वाला कोई भी नह ं है । सचमुच! कोई भी तो नह ं है ।
कुछ भी करने के िलये…
“माँ! पापा खुद पर जरा भी यान नह ं दे ते। घर म दादा – दाद से झगड़ा चलता
रहता है उनका। म अ छे से पढ़ाई करती हँू ले कन आजकल कूल ज द से आवर
भी हो जाए तब बी घर लौटने का मन नह ं करता। एनी वे ! है पी बथ ड़े ।
गु ड़या”
व जैसी दमदार चीज के सामने नाजुक संवेदनाएँ अब हार मानने लगी थी। ठहरे हए
ु
पानी म अपने वचार क लहर के सहारे बहने का मजा ढँू ढ़ िलया था मधु ने।
इसी ठ रे हए
ु से पानी म एक बड़ा सा भँवर उ प न हआ
ु था उस दन।
तीक क बात से प था। वह अंदर से बुर तरह से टू ट गया था। माँ – बाबू जी से
बातचीत बंद थी। गु ड़या से र ता सुख चला था। इस िघर आए अकेलेपन को काटने
का मधु के जैसा कोई भी तो तर का नह ं था उसके पास।
तीक लौटना चाहता था। वो मधु को लेने नह ¸ं उसके पास आने क इजाजत माँगने
आया था।
“पापा मेर पढ़ाई म इ े ट लेते है माँ। खूब मेहनत करते है । दादा दाद से यादा
बोलते तो नह ं ले कन झगड़ते भी नह ं। दो दन के बाद कूल म छु टयाँ है । पापा
मुझे ए ट वट कै प भेजगे। बाक सब ठ क है ।
गु ड़या।”
जात
“बस हो गया भाभी!” मैिथली क आवाज धीरे धीरे पास आती गई।
जस हकारत से ये सब आशीष बना कसी हचक के बोल गया था¸ शुभा भीतर तक
हल गई थी।
शमा अंकल पापा के अ छे दो त है । पापा के बजी बजनेस शे यूल के कारण सारे
यवहार¸ नाते र ते म मी के ह ज मे थे। फर शमा आंट क अचानक मौत के बाद
म मी का उनके घर आना जाना काफ बढ़ गया
था।
आशीष के िलये उससे बात करना बेहद ज टल था। हर बात म “वो मैिथली कह रह
थी…” से शु होती और फर अर या चुप होकर रह जाती। ले कन आशीष ने भी
क ची गोिलयाँ नह ं खेली थी। उसक िलखावट क ¸ उसक क वता क ¸ मैिथली से
उसक दो ती क और उसके सफेद रं ग क पसंद क बात का सहारा लेकर उसने
अर या का सारा इितहास जान िलया था। उसके कॉलेज आने जाने का व और
रा ता भी।
अर या के पता कसी अ छ कंपनी म एकाउं टट थे। माँ कुछ साल पहले चल बसी
थी। बड़ बहन अ णमा ववाह व छे द के बाद यह ं रहती थी। पताजी का छोटा मोटा
टे ल रं ग का काम था। अ णमा वह दे खा करती थी।
आशीष कौतूहल से भर उठा। इस लड़क क जंदगी मेम ् तो जरा ऊपर उठाकर दे खने
क भी गुंजाइश नह ं है । फर कैसे यह अपने संपक म आने वाले येक य पर
वयं क प छाप छोड़ जाती है ! आशीष जान चुका था¸ छोट जात क ¸ िन न
म यमवग य जीवन जीते हए
ु भी सं कार म¸ नैितकता म और सबसे बढ़कर दमागी
खूबसूरती म मैिथली इस लड़क के सामने बाल बराबर भी नह ं है । बात भी करती है
तो आँख कह ं और रखकर। एक सुर त दरू बनाकर और अनािधकार वेश क चाह
रखने वाले कसी भी य के वचार को दरू से ह झटक दे ती है ।
माँ एकदम तट थ होकर बैठ थी। कुछ हकारत से आगे बोली¸ “इ सान कभी भी
अपनी जात नह ं छोड़ता।”
“मुझे तुमसे कोई बात नह ं करनी आशीष।” शुभा द द मुँह फुलाए बैठ थी।
जबसे उ ह यह मालूम हआ
ु था क आशीष उसक स जपर सी खूबसूरत और
सलीकेदार ननद को छोड़ उसक ह कसी नीची जात क सहे ली पर मर िमटा है तो वे
आपे से बाहर हो गई थी।
“मैिथली ने दन भर से खाना नह ं खाया है । अर या महारानी आई थी अपना
अपसगुनी चेहरा लेकर!”
घर म आने जाने वाले यहाँ तक क नौकर भी उसे अजीब सी नजर से घूरते। चार
ओर से बस एक ह शोर सुनाई दे ता था। “नीची जात…नीची जात… नीची जात”
“दे खो अर या! ये रोक टोक मुझे पसंद नह ं है । म शहर म ह था। कसी के यहाँ का
था बस।”
मैिथली¸ उसका ज म¸ उसक अदाएँ¸ उसक खुशबू सभी कुछ सामने घूमने सा लगा।
इस य के चेहरे पर िशकन तक नह ं? मैिथली भी ड ेशन से गुजर रह है मतलब?
साल भर पहले ह तो उसक शाद बड़े भ य तर के से क गई थी। ऊँचे घर म याह
गई मैिथली के पित भी ऊँचे इराद के थे। आशीष के पापा क तरह वे भी घर म कम
ह टकते।
जंदगी के मायने बदल रहे थे¸ सोच बदल रह थी¸ अर या बदल रह थी। कभी ेमवश
आशीष ने उससे कहा था¸ “तुम अपने नाम के ह जैसी कसी अर य म वहार करती
कुमु दनी के जैसी हो अर या!” और आज उसी आशीष क करतूत उसे जंगल के हं
पशुओं के जैसी लग रह थी।
घर क चौखट म कैद रहने वाली नीची जात क बेचार सी लड़क अचानक मुखर¸
स दय और जे टलवूमन पसनािलट क कहलाने लगी। घर से बेखबर आशीष इसे
अर या का “चे ज ऑफ बहे वयर यू टू अनअवॉइडे बल सरक टांसेस” मानता रहा।
“ य आशीष !
अर या”
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च ड़ गढ़ – 160017
आईएसबीएन : 81–8048–031–3
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