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दे न
उसक ! हमारे िलये

लघु कथाएँ

-अ तरा करवड़े
कुछ मु कान¸ आँसू और ढ़े र सी वडं बनाओं क सा ी

समपण

मेरे स गु पू य अ णा महाराज¸ इ दौर को ज ह ने गु के प म श द¸ सृजन और


सोच क महती दे न द है
भूिमका

इ सान के िलये एक आम इ सान ने िलखे हए


ु चंद जंदगी के ल ह है यहाँ। पता
नह ं या अपे ाएँ हर एक को होती है खुद से। अपने आप म ह एक व सा िलये
चलते है हम सभी और फर कटते जाते है सभी से। यहाँ तक क अपने आप से भी।
इन श द म हो सकता है क कसी एक को आईना िमल जाए। हो सकता है क कुछ
प न म से कुछ अपने झाँकते हए
ु दखाई दे जाए।

कुछ चुभन और कुछ अ छाई के खारे और मीठे आँसू िमलकर चंद बडं बनाओं के नाम
पर बहते जाते है । शायद कोई इस वाह को मोड़ते हए
ु अपने आप तक पहँु च पाए।
ऊँची दाशिनक बात के अलावा कुछ सच और कुछ ज र बदलाव भी िमल सकते है
इस दौरान।

आसमान को तकते हए
ु उसक ऊँचाई से दो ती करना और जमीन पर अपने पैर भी
जमाए रखना। शायद यह है वो चीज जसे हम जीते है ।

यह कुछ सोच इन कहािनय के लेखन के समय मन म रह । य द अ छ हो तो


चलती रहे और जमीन पर आसमान िमलते रहे ¸ यह कामना।

अ तरा करवड़े
दे न : उसक हमारे िलये

अनु म णका

समपण

भूिमका

कहािनयाँ

1। चैन

2। कशोर हो गई ब टया

3। पी ढ़याँ

4। नशा

5। कमाई

6। े ड़शनल पेरे टं ग

7। िसंदरू

8। बुढ़ापा

9। ेम

10। कुपोषण

11। गाँव क लड़क

12। एक जात है सभी


13। भड़भूँ जया

14। से टं ग

15। महानगर ड़ायर

16। गंदा कु ा

17। पोटिशयल क टमर

18। सपने

19। िम ट लौट आई

20। िच ड़याघर

21। अधर

22। ड चाज से ट फे शन

23। जुगत

24। सूट

25। इ टॉलमट

26। हक

27। दे शभ

28। आरोप

29। पता नह ं

30। घर

31। फक

32। ी
33। एकांत वास

34। मानिसक यिभचार

35। बार को डं ग

36। िनगुण यूजन

37। बेटा बगड़ रहा है !

38। मन क शांित

39। ओपन लाईफ टाईल

40। अंतरयामी

41। बोझ

42। ममता

43। टे ट

44। यादा जानकार

45। भेदभाव

46। वंशावली

47। र तार

48। जीिनयस बालक

49। गहर जड़ के नाम पर

50। बेट

51। जंदगी भर का साथ

52। चुप होती आवाज


53। जात

************

चैन

आज कतने दन के बाद इस घर म खुिशयाँ आ पाई है ।

बाबू के नैन सजल हो उठते थे बार – बार। काश क ऐसा ह भरा पूरा घर हमेशा रहा
करता। और इसे दे खने के िलये कमला भी आज होती। कतना चाहती थी वो ¸ क
इस घर का और खुिशय का जो वरह है वह समा हो जाए। सारा प रवार एक साथ
रहे ¸ वे और कमला अपने पोते – पोितय क जद पूर करने¸ उ ह खलाने म अपना
बुढ़ापा ध य कर।

ले कन सब कुछ धरा का धरा ह रह गया था। एक एक कर सभी अपना भ व य


सँवारने के िलये माँ बाप का वतमान बगाड़ िनकल गये थे। अब तो शायद ये एक
साथ रहने लगे है ¸ ये दे खकर ह कमला क आ मा को चैन िमलेगा। वे प ी के िच
के सम उसक य उप थित क भाँित बात करने लगे थे।

उ ह लगा जैसे कमला मु कुराकर यह कह रह थी¸ “सुनो! आज कतना अ छा लग


रहा है भरा पूरा घर हमारा । मेरे अंितम समय भले ह इनम से कोई भी नह ं था
ले कन आपके जीते जी तो एक हए
ु है सभी। जाईये ! कह द जीये इन सभी से¸ क
आपने उ ह माफ कर दया है ।”

बाबू को याद आया । अपनी माँ के अंितम समय म भी कोई बेटा साथ नह ं रह पाया¸
मुझ से िमलने भी नह ं आया। इस बात को याद कर वे काफ कठोर हो चले थे। पछले
साल भर म तो यवहार म कटु ता बढ़ने लगी थी। ये बात बेट को समझ म आई
थी¸ उ होने पछली बीमार म आकर माफ भी माँगी थी। उनके बचने क उ मीद कम
थी ले कन ऊपरवाले क मज कुछ और थी¸ बच गये।
तभी बाबू के कमरे का दरवाजा खुला। अजय वजय दोन आए थे। बना औपचा रकता
के बात शु हई।

“बाबू ! आप तो जानते ह है क मेर नौकर और अजय के यापार म से समय


िनकालकर आपसे िमलने आना कतना मु कल हो चला है इन दन ।”

“……”

“और भैया के या मेरे घर आकर रहने म भी अपक तैयार नह ं है । हमारे घर म


आप एडजे ट नह ं हो पाते।”

“……”

“इसिलये हम लोग ने इसका एक हल सोचा है । क हये ना भैया।”

“बाबू अब ये मकान कराये पर चढ़ा दगे। और आपक यव था पास के ह आ म


म कर द है ।”

“……”

“आपक दवाईय का खच इस कराये से िनकलता रहे गा और… आपक दे खभाल भी


हो जाएगी।”
“और सच कह तो हम दोन को भी आपक िचंता लगी रहती है । सो इस तरह से हम
भी चैन से रह पाएँगे।”

बाबू ने दे खा¸ कमला का चेहरा कठोर हो चला था। आ खर वे कसी एक को ह तो यह


चैन दे सकते थे।
कशोर हो गई बे टया

जानती हँू शोना! अब तुम अपनी गु ड़या को दे ख थोड़ परे शान हो जाती हो । तु हारे
बचपन क वो त वीर जसम तु हारे पहले पहले टू टे दांत क यार सी मु कान है ¸
उसे अब तुमने त कये के नीचे दबा दया है । तु हार पलक लंबी और रे शमी होकर
सपन के शहर म पहंु चने लगी है । और हाँ ! तु ह अब “शोना बेटा” कहना भी उलझन
म डाल दे ता है ।

ये सब कुछ मुझे तो तु हारे िलए बड़ा वाभा वक लग रहा है ले कन या तुम ये


जानती हो क अब तुम अपने जीवन के नए अ याय को पढ़ने जा रह हो । कई बार
तु ह माँ¸ पताजी और ये सार दिनया
ु ह य न कहँू ¸ द ु मन सी तीत होगी । कोई
तु हारे मन को पढ़ ले या तु हारे दन म दे खे जा रहे सपन म दखल दे इसे तुम
कभी पसंद नह ं करोगी । और हो भी य नह ं अब तुम ब ची थोड़े ह रह गई हो जो
ॉक का हक
ु लगवाने मेरे पास आओगी ।

पता है ¸ आज मने दआ
ु माँगी है ¸ तु हारे िलए¸ क तुम इस खुले आसमान म अपनी
क पनाओं के सतरं गे पंख लेकर अनंतकाल तक इस सपनीले दे श म वचरण करो ।
म तु हार भावनाओं क ढाल बनने का य क ं गी जससे कोई भी तु हारे प के
होते मन क िम ट पर व से पहले कसी भी अनचाह याद क छाप न छोड़ सके ।

तुम वतं हो ब टया¸ अपने संसार म । तुम मु हो अपने िनणय लेने के िलए ।
मुझे व ास है अपने पालन पोषण पर और तु हारे य व पर क तुम कभी भी
अपने आप को और अपने प रवार को क म नह ं डालोगी ।

अब तुम फूल को दे खकर नई क पनाएं करो बेट । पढ़ाई म से कुछ समय बचाकर
अपने आप से भी बात कया करो । अपने बचपन के कसी व को दे खकर व मत
होकर मुझसे पूछो क म मी या म कभी इतनी छोट भी थी।
और हाँ! कभी कभी ह सह ले कन तु हारा िसर अपनी गोद म लेकर सहलाना मुझे
ताउ अ छा लगेगा चाहे कल तुम मेर उ क ह य न हो जाओ ।

तु ह कुछ और भी कहना था । अपने दो त और सहे िलय क पहचान कैसे करना


चा हये यह अब तु ह िसखाने क आव यकता नह ं है ले कन भावनाएँ तुमसे है तुम
भावनाओं से नह ं इस अंतर को कभी मत भूलना।

तु हारे िलए मने अपने कैशोय के कुछ ल ह चुराकर रखे थे। ले कन अब वे व का


जंग खाकर पुराने पड़ चुके है ।

और वैसे भी तु ह वरासत म सारा संसार िमला है । तुम उ मु हो परं तु इसे उ माद


से पहले रोकना जानती हो। तुम वतं हो और उ छृंखलता का अथ बड़ अ छ तरह
से समझती हो । तुम सु दर हो और जीवन क णभंगुरता से भी प रिचत हो ।

कतनी अजीब सी बात है ना ब टया¸ म तो तु ह तु हारे कशोर जीवन क शु आत


पर कुछ समझाईश दे ने का वचार रखती थी ले कन तुम अब बड़ हो गई हो ब टया
। खुशहाल बचपन क याद के साथ एक व नल कैशोय तु हार बाट जोह रहा है ।

अब सोचो नह ं । बस भर लो एक ऊंची उड़ान ¸ भ व य के िलए ।

तु हार माँ !
पी ढ़याँ

“मनाबाई! आज यह ं खा लो! साद तो जतन के मुँह लगे उतना अ छा।”

“जी बाई!”

क वता क यौ रयाँ चढ़ गई थी। पहले ह इनसे स ते म िमल रह बाई को हटवाकर


मनाबाई से आज क पूजा का खाना बनवाया था। अब माँ-जी न िसफ इ ह खाना
खलाएँगी¸ साथ ह घर भर का ट फन भी बाँध दगी। तभी तो ये सभी काम के व
नखरे दखाते है । कम काम म इतना सब कुछ जो िमल जाता है ।

सब कुछ िनपटाकर¸ ा ण को दान द णा के साथ वदा कर¸ सास बहू भोजन करने
बैठ । माँ-जी ने क वता का मन जान िलया था। वे जान बूझकर मनाबाई का वषय
िनकाल बैठ । उसका पित अपा हज है । तीन ब चे पढ़ रहे है आद ।

असल म माँ-जी वयं भी प र थित क मार के चलते¸ अपने ारं िभक दन म कुछ
घर म जाकर पूजा का खाना बनाया करती थी। घरवाल से झूठ कहती क आज फलां
के यहाँ सुहािगन जीमने जाना है । और उस घर जाकर पूरा खाना बनाने का काम
कया करती। उनक यजमान सर वतीबाई को यह बात मालूम थी। वे आ ह कर उ ह
खाना खलाती¸ साथ बाँध दे ती और खान बनवाई के जो पैसे िमलते सो अलग। तीन
चार साल तक ऐसे ह झूठ से माँ-जी ने अपनी गृह थी खींची थी। उसी के बल पर
आज घर म सुख¸ वैभव¸ शांित है ।

“क वता! मनाबाई के घरवाल को भी आज यह म है क वे आज हमारे यहाँ


सुहािगन जीमने आई है ।” माँ-जी ने मु कुराकर कहा।
क वता के सारे अनपूछे अपना उ र पा गये थे।

नशा

खड़ाक् से दरवाजा खुला। इतनी रात गये पछले दरवाजे से कोई आ रहा है ! सुनंदा ने
डरते हए
ु अपने पित को जगाया। “अरे िचंता मत करो। ये जगद श भाई ह गे। हर
छु ट पर ऐसे ह पीकर आते है ।”

“ले कन अब वो या करगे!” सुनंदा अब भी भयभीत ह थी।

“कुछ नह ं। खाना खाकर सो रहगे। घर म कोई है नह ं¸ खाना साथ ह लाए ह गे। तुम
सो भी जाओ अब।”

सोते हए
ु भी सुनंदा के मन म असं य आ जा रहे थे। इस तरह से पीने का या
अथ हो सकता है ? िसफ छु ट पर! उसके मायके म भी तो घर के सामने ितवार
काका ऐसे ह पीकर आया करते थे। घर म कतना कोहराम मचा करता था। तभी तो
उसे मालूम पड़ा था क पीने क आदत पड़ जाने पर आदमी का कोई भरोसा नह ं रह
जाता। रोज चा हये मतलब चा हये ह । आज तक कई फ म म भी दे खा था उसने
क लोग गम भुलाने के िलये शराब का सहारा लेते है । अिभजा य वग का यह य
शगल है आद ।

जगद श भाई के बारे म बस इतना ह मालूम था क वे अ पताल म काम करते है ।


छु ट कभी नह ं करते। इसके पीछे भी कारण यह है क वह ं पर दोन व का खाना
िमल जाता है । उनक प ी और पु साल पहले एक दघटना
ु म मारे गये थे।
तब से छु ट के दन ह इस तरह से दखाई दे ते है । अ यथा कब आते है कब जाते
है ¸ कसी को भी पता नह ं चलता। इसीिलये उ ह पछवाड़े का कमरा साल से दया
हआ
ु है । कराया दे ते समय ह उससे जो संवाद होता है बस उतना ह ।

ले कन जगद श भाई के संबंध म मोह ले म हवा अ छ नह ं थी। सभी का एक मत


था क वे च र के अ छे नह ं है । उनका शराब पीना इस मत के पु ता होने म आग
म घी का काम करता हालाँ क आज तक कसी ने भी उ ह शराब खर दते¸ बोतल हाथ
म िलये हए
ु आद नह ं दे खा था। सुनंदा क शाद से पहले सामने क पं डताइन बोली
भी थी क अब जगद श भाई को यहाँ से िनकाल दे ना चा हये। खैर! वे जो टके है सो
टके है वह ं।

उस दन सुनंदा क सास क तबीयत अचानक खराब हो गई थी। शायद दल का दौरा


पड़ा था। सुनंदा

के पित को भी ऑ फस म फोन नह ं लग पा रहा था। कसी तरह से उ ह ऑटो म


डालकर¸ रा ता पूछते ताछते नजद क अ पताल ले गई। समय पर पहंु चने के कारण
ज द से भत िमली। वह ं पर जगद श भाई भी थे। उ होने बना कसी बातचीत या
औपचा रकता के¸ ब कुल अपनी माँ के िलये करते वैसी ह सार यव था कर द ।

अ पताल से लौटकर जब सब कुछ सामा य हो गया¸ एक दन सुनंदा ने पकवान क


थाली परोसी और जगद श भाई को दे ने पहँु ची। उ होने बड़े आदर से उसे बैठाया। उ
म वे उसके पता समान थे। उसे यवहार म दे वता समान लगे। थोड़ बातचीत बढ़ने
पर सुनंदा ने उनसे पूछ ह िलया। यह क वे हर छु ट पर पीते य है ¸ या उ ह
कोई दख
ु है ?
वे गंभीर हो उठे । सुनंदा को एक ण के िलये लगा क उसने ये पूछकर कह ं
कोई गलती तो नह ं क है ? शायद अब वे खाना भी न खाएँ। ले कन आशंका के
वपर त¸ वे वाद लेकर भोजन करते रहे । उठकर हाथ धोए और पालथी लगाकर बैठ
गये।

“बेट ! या तुम जानती हो क म अ पताल म या काम करता हँू ?”

“जी! नह ं तो।”

जगद श भाई गंभीर हो उठे ।

“म एक ज लाद हँू बेट । अ पताल म होने वाली येक मौत के बाद उस शर र को


चीर फाड़ कर पो ट माटम के िलये तैयार रखना मेरा काम है ।”

सुनंदा स न रह गई। जगद श भाई कहते चले।

“रोज दे खता हँू अभागी जवान लड़ कय को जो मार डाली जाती है । दघटना


ु म मरे
पाए गए कसी माँ के न हे मु ने लाड़ले को। नई नवेली द ु हन को वधवा कर इस
जग से जाते उसके पित को। कसी बु ढ़या के अकेले सहारे को। रं जश म मारे गये
बुढ़ापे के सहारे होते है वहाँ तो खुद से नाराज होकर आ मह या करते वाथ बंदे भी।
अब या या िगनाऊँ तु ह।” जगद श भाई का चेहरा काठ के जैसा हो चला था और
सुनंदा का चोर करते पकड़ गई ब ली के जैसा।

“इस दिनया
ु के नए िनराले सभी खेल इस मौत के आगे फ के है बेट और उसी मौत
से जाने कतने तर क़ से म रोज िमलता हँू । दन भर के काम म सोचने को समय
तो िमलता नह ं।”
वे कहते चले “छु ट पर अपने पाप याद आते है । जस शर र को माँ कतने जतन से
अपने खून से शर र पर पालती है ¸ ज म के बाद उसक साल दे खभाल करती है
खलाती पलाती है ¸ उसके लाड़ करती है । ऐसे ह जाने कतने लाड़ले शर र को म अब
तक चीर चुका हँू । ऐसा लगता है जैसे हज़ार माताओं का कलेजा चीरा है मने। नौकर
ह ऐसी है । या क ँ !”

जगद श भाई ने उठकर पानी पया। सुनंदा के आँसुओं से भीगे मुख क ओर ेम से


दे खते हए
ु उसे भी दया।

“छु ट के दन म ाय करता हँू बेट । शहर से बाहर के उस उजाड़ मं दर म


जाकर वहाँ के बूढ़े पुजार के साथ दन भर रहता हँू । उनक सेवा करता हँू ¸ मं दर म
झाडू दे ता हँू ¸ आँगन क धुलाई करता हँू । जो भी काम बन पड़े बस दन भर भूखे पेट
करता रहता हँू । फर वहाँ जो भी साद िमले उसी को लेकर घर आ जाता हँू । मं दर
शहर से दरू है ¸ आठ कलोमीटर चलना पड़ता है इसीिलये दे र हो जाती है । फर थकान
और दसरे
ू दन के काम का सोचकर कदम लड़खड़ाने भी लगते है । मेरा यह नशा है
बस।”

सुनंदा मूक हो सोचती रह ¸ “काश ऐसा नशा इस दिनया


ु के सभी लोग कर सकते हो।”
कमाई

पछले दो साल से गु महाराज के मठ म आना जाना शु हआ


ु है मेरा। वहाँ बड़े
मधुर भजन होते¸ परोपकार के काय कये जाते¸ भावुक के का समाधान िमलता।
भजन म बाक कोई हो न हो¸ एक सोलह स ह वष का फुत ला लड़का बंसी हमेशा
दखाई दे ता था। वह भजन म सुंदर ढपली बजाता था। भावुक¸ सेवाभावी और सार
ऊँच नीच से दरू ईमानदार से काम करने म व ास रखता था। गु दे व के चरण म
सेवा करने को िमलती है इसी म वह अपना जीवन ध य माना करता। िनयिमत आने
जाने से उससे भी पहचान हो गई थी और उसे हम िचढ़ाया भी करते थे क उसका
नाम बंसी है और बजाता है ढपली। वह बस शरमाकर रह जाता।

एक दन बातचीत म मने उससे पूछ ह िलया। वह दन भर यह ं रहकर सेवा कया


करता था। बदले म उसे थोड़े बहत
ु पैस¸े खाना¸ कपड़ा आद िमलता था। घर क
प र थित भी कोई बहत
ु अ छ नह ं थी।

“तुम इतने दन तक यहाँ सेवा करते रहे बंसी!” मने पूछा¸ “आ खर तुमने या
कमाया?”

बंसी कुछ उ र दे इससे पहले ह उसे कसी ने काम के िलये बुला िलया। बात आई
गई हो गई।

उस दन गु पू णमा का उ सव था मठ म। हज़ार लाख भ जन उप थत थे।


साद¸ हार फूल¸ द णा तो जैसे उफन रह थी। तभी मने दे खा¸ कसी अनाम भ ने
गु महाराज के चरण कमल पर एक लाख क क मत का जड़ाऊ ह रे का हार रख
दया था। गु जी के आस पास अिभजात वग के दखावट भ क भीड़ थी जो अपने
साम य का प रचय दे ते हए
ु गु जी से सामी य का दशन करने म म न थे।
हार को हाथ म िलये हए
ु गु जी असमंजस म थे। तभी लालची के वशीभूत ढे र
हाथ आगे बढ़े ¸ “द जीये गु जी म रख दे ता हँू ।” “यहाँ द जीये गु जी म अपने पास
सुर त रखूँगा।” आद के वर गूँजने लगे।

उसी समय गु जी ने सामा य तर के से आवाज लगाई “अरे बंसी! ओ बंसी। कहाँ रह


गया?”

काम काज म उलझा बंसी पसीना प छता गु जी के सम हा जर हआ।


“ये रख तो जरा स हालकर।” और वह हार बंसी क कृत हथेली पर आ िगरा।


कतनी ह व याँ बंसी पर पड़ । गु का उसपर व ास दे ख कतने ह दय
भावुक भी हए।

परं तु बंसी क मुझे खोज रह थी। और उसने आँख क खुशी से ह मुझे जता
दया क इतने दन म उसने यहाँ रहकर या कमाया है ।

े डशनल पेरे टं ग

“ वकास का बेटा कैसा हो गया हो इन दन !” शकुनजी ने भार मन से कहा।

“ य ! कोई बुर आदत है या!” बाबूजी ने िचंितत वर म कहा।

“बुर आदत ज र है ले कन उसके माँ बाप म ।” शकुनजी धीरे धीरे गु सा होती जा


रह थी।
“ या मतलब?”

“ कसी से बात नह ं करना¸ सभी को खुद से कम वािलटे टव समझना¸ मौज म ती


करने¸ खाने पीने के नाम पर पसीने छूटते है उसके। सब कुछ पढ़ाई¸ सार जंदगी
नॉलेज के पीछे लगानी है उसने। खेलने खाने के दन है उसके। म कहती हँू आ खर
ऐसा करके वकास और वीणा या कर लगे?” शकुनजी अब फूट ह पड़ थी।

छु टय म दो मह ने बेटे के पास रह आई थी वे। बहू क दसर


ू डलेवर थी। बेटा बहू
दोन नौकर करते है । ले कन उनका बड़ा पोता¸ जसक वे बात कर रह थी¸ उसका
यवहार उ ह िचंता म डाल गया था।

“शकुनजी!” बाबूजी उ ह समझाने लगे।

“दे खये मुझे तो ऐसा लगता है क घर म एक नया मेहमान आ जाने से ह उसके


यवहार म फक आ गया होगा। थोड़े दन म हो सकता है क वह संभल जाए!”
उ होने आशा बँधाई।

“नह ं जी! वो ऐसा पछले दो साल से कर रहा है ।”

“ वकास ने बताया ना मुझे। बस दन भर पढ़ाई¸ कॉ प टशन¸ नॉलेज बक¸ रे ड रे कनर


ऐसी बात ह करता रहता है । उसे डॉ टर को भी दखाया था। उ होने कहा क वह
इसी तरह से दबाव म रहा तो दमाग पर बुरा असर पड़ सकता है ।” शकुनजी सचमुच
िचंितत थी।
फर कुछ दन के बाद वकास का फोन आया था। जस कार क तकलीफ उसके
बेटे को थी¸ उससे बाहर िनकालने के िलये एक वयं सेवी सं था आगे आई थी।
शकुनजी के घर के पास ह एक गाँव म उनका एक माह का िश वर लगना था। वहाँ
कर ब तीस ब चे पेड़ पौध ¸ खेत के साथ रहते हए
ु लकड़ काटना¸ चू हे पर खाना
बनाना¸ खेती करना¸ िम ट के बतन बनाना आद सीखगे। उसका बेटा भी वहाँ आ रहा
था। इस सारे क प का मु य उ दे श ब च को महानगर के अित सु वधायु व
दमघोटू वातावरण से दरू रखकर उनके य व म ज र जमीनी जानकार भरना था।
वकास का इतना ह कहना था क वे बीच बीच म जाकर उससे िमल आएँ।

सब कुछ सुनकर जब शकुनजी ने ये सब बाबूजी को सुनाया तब वे ठठाकर हँ सने


लगे।

“शकुनजी! एक बात बताईये!”

“क हये।”

“मुझे लगता है इस नये जमाने म¸ छु टय म दादा – नाना के गाँव म जाकर रहने


का मजा लेने के िलये इन ब च को पैसे दे कर िश वर म रहना होता है य ?”

उनके अथपूण वा य का मम शकुनजी एक हक


ू दाबे समझ पाई और बाट जोहने
लगी¸ अपने ॉ लम पोते क ।

िसंदरू
“िसंड़ ऽऽ…”

“ज ट किमंग!”

“िसंदरू ! उस लड़क ने कसी िसंड़ को आवाज लगाई है । तुम य इतनी फुत दखा
रह हो?” मीता ने मु कुराते हए
ु पूछा।

“म मी! मेरा नाम वैसे भी आऊट ऑफ डे ट है और तु ह या लगता है ? “द” कहकर


मेरे ड़स अपनी ए सट नह ं खराब कर सकते।”

और फर वह अजीब सी तंग और छोट पोषाख पहने बाहर आई और अपना ऑ टोपॅड


उठाकर चल द । मीता उससे कहते कहते रह गई क कह ं वह कुछ पहनना भूल तो
नह ं गई है ले कन बेकार। अपनी पोटस बाईक पर टाँग ड़ाले वह चौदह वष क
कशोर वयं को बीस क दखाती हई
ु अपनी ऐसी ह तीन सहे िलय के साथ चल द ।

मीता को एकदम से वयं के आऊट डे टेड हो जाने का एहसास होने लगा था। कतनी
उमंग के साथ उसने और शेखर ने उसके ज म पर¸ सूरज क लािलमा से दमकते
मुखमंड़ल को दे ख इसका नाम िसंदरू रखना तय कया था। बड़ शंसा िमली थी दोन
को उसके नामकरण पर।

वह बेट आज अपने नाम पर ह खुश नह ं है । उसने पछले दन फोन पर होती


उसक बातचीत से यह अंदाजा लगाया था क उनके कूल के लब म कोई पॉप
क सट होनी है जसके िलये इसे ऑ टोपॅड बजाना है। शायद आज वह क सट होगा।
यह कुछ भी तो बताती नह ं है आजकल।

मीता का िसर दद करने लगा । हमेशा क तरह अपनी पसंद दा शा ीय गायन क


सीड लगाकर वह बालकनी म कॉफ पीती खड़ रह । वैसे भी िसंदरू को ये सब कभी
समझ म नह ं आता। काटू न दे खकर बचपन बताया उसने और अब टनी पीयस के
साथ बड़ हो रह है । काश क उसे भारतीय संगीत क िश ा द होती । कम से कम
उसका यवहार तो सुधर जाता! ले कन उसपर कोई दबाव नह ं डाला था मीता ने।
अपनी िच के अनुसार ह वयं के िनणय लेने दये थे।

इस सोच म जाने कब दो घ टे बीत गए मालूम ह नह ं पड़ा। िसंदरू वा पस आ गई


थी। शायद शा ीय संगीत का ह असर था क घर पर आते ह खाने और ट वी के
िलये तूफान मचाने वाली लड़क आज शांित से अपने कमरे म चली गई।

थक गई होगी। मीता ने सोचा। फर वह कपड़े बदलकर बाहर आई। मीता के पास


शांत बैठ गई। धीरे धीरे उसक आँख से आँसू बहने लगे। मीता ने आ य के साथ
उसका िसर गोद म िलया। उसे सहलाते हए
ु यार से पीठ पर हाथ फेरा।

“म मी! इसे कोई हक नह ं है मेरा आई डयल बनने का।” कहकर उसने अपने गले म
पहना हआ
ु अपने पसंद दा पॉप टार का लॉकेट तोड़ फका।

“ये लोग हम इ डय स को समझते या है म मी?” हम लोग ने कतनी मेहनत के


साथ अपने बड का परफॉमस वहाँ भेजा था ले कन उनका जवाब आया है क वे
इ डय स को कतनी भी अ छ टै लट के बावजूद मौका नह ं दगे। ऐसा य म मी!”
िसंदरू आँसी हो गई थी।

“तुम लोग जब उ ह ं क नकल करते हए


ु इस संगीत क कला को सीखते हो तब यह
यवहार भी य नह ं सीख लेते उनसे?” मीता का आवाज कड़वा हो चला था। ितहाई
के साथ शा ीय गायन का राग समा हो चुका था।

मीता ने िसंदरू को गु से से दे खा।


“जब वे लोग ये दे खते है क तुम अपने दे श क कला को हकारत से दे खते हो¸ तब
वदे शी संगीत को या अपनाओगे? जस ने अपने माँ बाप क क नह ं क ¸ उसक
पूजा कौन से दे व वीकारगे?” मीता ने िसंदरू को देखा¸ वह वयं को कटघरे म ज र
पा रह थी।

“मेरे याल से उ होने कोई गलती नह ं क है ।” मीता ने अपने हाथ म एक चाबी ली


और उसे िसंदरू के हाथ म रखते हए
ु बोली¸ “और य द तुम अपनी गलती सुधारना
चाहती हो तो ये लो।”

उसने सामने के एक बड़े से खड़े ब से क ओर इशारा कया। िसंदरू ने उसे खोला


और हठात ् उसके हाथ जुड़ गए। उस ब से म था¸ उसक दाद क संगीत साधना का
जीवंत तीक और सा ी¸ एक तानपूरा।

और हाँ आजकल उसे वयं को िसंदरू बुलाए जाने पर कोई आप नह ं है ।

बुढ़ापा

“अरे सुनती हो सुधा!” ीवा तवजी अपनी लाठ टेकते बरामदे म पहँु चे।

“क हये! अब या हआ।
ु ” सुधाजी धैय के साथ बोली।

“भैया तुम रह सकती हो इस नई पीढ़ के साथ सुर िमलाकर। हमसे तो नह ं होने का।
चलो हम कल ह वनय के घर चलते है ।” ीवा तवजी आपा खोने लगे थे।
“कुछ कहगे भी क हआ
ु या है ¸ सीधे चलने चलाने क बात करने लगे आप तो।”
सुधाजी कुछ परे शान हो उठ थी।

“अरे म जरा मु ने को खला रहा था। उसे बी फॉर बाबू िसखाने लगा तो तु हार
बहजी
ू कहने लगी क बाबूजी लीज उसे बी फॉर बॉल ह िसखाईये। कूल म
ऑ जवशन होता है । अरे उसके पित को हमने ऊँगली पकड़कर चलना िसखाया है और
वह हम िसखाने चली है । हमसे और नह ं सहन होने का यह सब कुछ।” वे तमककर
बोले।

सुधाजी वैसी ह शांत बैठ हई


ु मेथी तोड़ रह थी। बाहर बा रश होने लगी थी इसिलये
हवा खाने वे अ सर यह ं बैठा करती थी। फर उ होने लहसुन क कुछ किलयाँ छ ली।
आँगन के बाहर रखी कचरा पेट म जाकर वे कचरा फक आई और साफ क हई

स जी बहू को दे ने रसोई म चली गई।

वे बाहर आई तब तक ीवा तवजी का गु सा थोड़ा कम ज र हो गया था पर वे भूले


नह ं थे उस वाकये को। बूँदाबाँद हो रह थी।

“आ गई आप! उसी बहू क मदद करके जसने थोड़े समय पहले आपके पित का
अपमान कया था?” ीवा तवजी ने फर वह बात छे ड़ ।

“ या है जी! जब दे खो तब बैठे ठाले मीन मेख िनकालते रहते हो। जरा सी बात या
कह द बहू ने तो जैसे िमच लग गई है आपको। जमाना बदल गया है ¸ अब भी आप
यह सोचगे क वह पुराना रवाज चला करे तो वह नह ं हो सकता।” सुधाजी ने कह
ह दया।

“अ छा! तो अब वह कल क आई हई
ु लड़क कुछ भी कहा करे हम। आपको कोई
फक नह ं पड़े गा। आपको ड़र लगा करता होगा इस नई पीढ़ से¸ म आज ह सुरेश से
इसक िशकायत करने वाला हँू । ” बाबूजी िनणायक वर म बोले।
“ या िशकायत करगे जी आप? यह क म गलत िसखा रहा था और बहू ने मुझे
सुधारा इसिलये उसक गलती हो गई?” सुधाजी ने भी पारा चढ़ाते हए
ु कहा।

“यह ं तो गलती करते है आप लोग। और अ छ भली नई पीढ़ के सामने बुढ़ापे का


नाम बदनाम करते है । य द वह नई लड़क आपको कुछ अ छा बता रह है ¸ तो या
वह आपसे छोट है इसिलये हमेशा गलत ह रहे गी? आप िसफ उ को ह बड़ पन का
तकाजा मान बैठे है । या आपको वयं यह मालूम है क वह ऐसा या करे जससे
आपको उससे कोई भी िशकायत न रहे ?” सुधाजी ने मन क भड़ास िनकाल द ।
ीवा तवजी पकड़े हए
ु चोर क भाँि त चुपचाप बैठे रहे ।

“दे खये जी! म ये नह ं कहती क आप चुप बैठे रह या कसी भी काम म दखल न


दे । आज य द सुरेश और बहू हमार अ छ दे खभाल कर रहे है ¸ समय पर खाना¸ दवाई
सब कुछ िमल रहा है तब यथ ह इस शांत पानी म कंकड़ य फकना चाहते है
आप?” वहाँ चाय लेकर बहू के आ जाने से सुधाजी थोड़ शांत और सामा य हो गई।
काम म य त बहू को कुछ समझ म नह ं आया क वहाँ या पक रहा है । वह रोते
मु ने क आवाज पर अंदर चली गई।

“दे खये जी! आपको तो याद ह होगा क हमारे सुरेश क बचपन म सद कृित थी।
मेरे लाख मना करने के बावजूद भी क डॉ टर ने मना कया है ¸ आपक माँ उसे
चावल का मांड़ खलाती ह थी ना? उस समय कतने असहाय हो जाते थे हम दोन ।
आज भी सुरेश को थोड़ सी हवा लगते ह सद हो जाती है । या आप हमारे बेटे और
बहू को भी वैसा ह असहाय बना दे ना चाहते है ?” सुधाजी कसी उ र क अपे ा से
बोली।

उनक आशा के वपर त ीवा तवजी चाय वैसी ह छोडकर तेज कदम से बाहर चले
गये। सुधाजी िसर हाथ धरे बैठ रह । पता नह ं इस गीले म कहाँ चल दये ह गे। कह ं
मने कुछ यादा ह तो नह ं कह दया। इस तरह के वचार उनके मन म आते जाते
रहे ।

कुछ ह समय बाद ीवा तवजी हाथ म एक बड़ सी कागज क थैली लाए। बाहर से
ह बहू को आवाज दे ने लगे “अरे र ना ब टया जरा बाहर आओ। म सबके िलये
भ जये ले आया हँू चलो बाहर बैठकर खाएँगे।” उ होने सुधाजी को शरारतपूण से
दे खा। वे हँ सती हई
ु चाय गरम करने अंदर चली गई।

ेम

वह ेम दवस का आयोजन था। लाल रं ग के गुलाब ¸ दल के आकार क विभ न


व तुएँ। रं ग बरं गे और अपे ाकृत माट प रधान म युवक युवितयाँ अपने त इकरार
– इजहार आद कर रहे थे। कोई झगड़ रहा था तो कसी का दल टू ट रहा था। कोई
बदले क भावना से गु सा हआ
ु जा रहा था तो कसी के कदम जमीन पर नह ं पड़
रहे थे।

मोिनका भी एक लांड़ इवट लेस पर अपने परफॉमस क बार का इं तजार कर रह


थी। उ ह ं के स लब ने ये आयोजन कया था। इसम थी मौज म ती और नाच
गाना। फूल¸ काड¸ िग स¸ चॉकलेट सभी कुछ उपल ध था। उसे इं तजार था दे व का।
जसने पछले वैलटाईन पर ह उससे अपने ेम का इजहार कया था। उसके बाद से
साल भर दोन यूँ ह िमलते आ रहे थे। उसे व ास था क उसक परफॉमस तक दे व
ज र आ जाएगा।

अचानक बाहर कुछ शोर सुनाई दया। सभी ने बाहर जाकर दे खा। दो गुट म झगड़ा
हो रहा था। कारण जो भी कुछ रहा हो ले कन पुिलस पहँु च चुक थी। आतंक और
तनाव का माहौल था। समझदार लड़ कय ने घर क राह पकड़ने म ह खैर समझी।
ले कन मोिनका वहाँ पहँु चती तब तक दे र हो चुक थी। वह रा ता बंद कर दया गया
था। सारा यातायात दसर
ू ओर मोड़ दया गया था।
मोिनका जहाँ दे व का इं तजार कर रह थी वह ं एक पक उ क माँ-जी भी खड़ थी।
उसे दे खते ह हठात ् बोल पड़ । “इतनी गड़बड़ म य रात गये घर से िनकली हो
बेट ?” मोिनका ने उपे ापूण से उ ह दे खा। उसे लगा क इन माँ-जी को वह या
समझाए क आज ेम दवस है । आज नह ं तो कब बाहर िनकलना चा हये। आपके
जमाने म नह ं थे ये वैलटाईन डे वगैरह। आप तो अपने पित क चाकर करते हए
ु ह
जंदगी गुजा रये। उसे वैसे भी इस दाद टाईप क औरत क बात म कोई िच नह ं
थी।

ले कन वह ु सी सब दरू बस दे व को ह ढँू ढ़ रह
वयं इस हादसे के कारण घबराई हई
थी। उसे व ास था क वह उसे इस मुसीबत से िनकालने के िलये ज र आएगा। सारे
वाहन वहाँ से हटवा दये गये थे। काफ दे र तक जोर जोर से आवाज आती रह । लाठ
चाज होने लगा था।

पुिलस कसी को भी उस घेरे के अंदर से जाने दे ने को तैयार नह ं थी। तभी मोिनका


ने दे खा¸ दे व कसी पुिलसकम से उलझ पड़ा था। वह उसे अंदर नह ं आने दे रहा था।
“ओह दे व लीज मुझे िनकालो यहाँ से।” मोिनका चीख पड़ थी। ले कन दे व कुछ भी
नह ं कर पा रहा था। बार बार अपने मोबाईल से कसी को फोन करता जा रहा था।
शायद उसने मोिनका के भाई को फोन कर सार थती बता द थी और वयं वहाँ से
िनकल गया था। मोिनका अ व ास से उसे जाते हए
ु दे खती रह । या यह उसका
व ास था?

तभी पास खड़ माँ-जी खुशी से बोल पड़ ¸ “आ गये आप!” मोिनका ने उनक का


पीछा कया। एक बूढ़े से स र के लगभग के बुजुग¸ काफ ऊँची रे िलंग को बड़
मु कल से पार करते हए
ु माँ-जी तक पहँु चे।

दोन घबराए हए
ु से पहले तो एक दसरे
ू का हाथ पकड़े हाल चाल पूछते रहे ।
“मुझे तो सामने के वमाजी ने खबर क । उ होने कहा क ज द से तु ह घर ले आऊँ।
यहाँ कोई फसाद हो गया है । तु ह अकेले नह ं आने दगे।” वे काफ घबराए हए
ु थे।

“ले कन अब घबराने क ज रत नह ं है । म आ गया हँू ना। वो पुिलसवाले को दे खा¸


कसी को भी अंदर आने नह ं दे रहा था। सबसे झगडने पर ह तुला हआ
ु है । इसीिलये
म उस रे िलंग को पार कर आ गया। यहाँ से बाहर जाने के िलये कोई पाबंद नह ं है ।
चलो अब ज द से िनकालते है ।” उनक साँस फूलने लगी थी।

मोिनका कुछ कहती इससे पहले ह माँ-जी ने उसे भी अपने साथ िलया और बाहर
िनकलकर उसके भाई के हाथ म सुर त स प दया। मोिनका को लगा क दे व खुद
भी तो यह कर सकता था!

वह सोचती रह । उन दोन का वैलटाईन डे के बगैर का¸ पका हआ


ु ेम व ास और
आपसी समझ। ये सब उन थके चेहर क आँख म चमक रहा थी जसके आगे सारे
युवा जोड़े फ के नजर आ रहे थे।

उसे समझ आ गया था। यह स चा ेम था।


कुपोषण

म हलाओं म कुपोषण और उसके भाव पर आधा रत एक लब म हला गो ी उस


तारां कत होटल के टॉप लोर पर चल रह थी। खाने और उसक गुणव ा क कमी के
कारण पैदा होते रोग व उससे हर साल होती म हलाओं क मृ यु जैसे त य मय
आँकड़ के तुत हए
ु और एक मधुर घोषणा के साथ गो ी समा हई।

“आप सभी भोजन के िलये आमं त है ।”

लेट म पनीर दो याजा लेती हई


ु िमसेस माहे र ¸ “आपका ेजे टे शन तो बड़ा अ छा
हआ
ु िमसेस गु ा! काँ े स।”

“ओह थ स!” चूं क िमसेस गु ा अभी टाटर पर थी इसिलये उ ह वह ं छोड़ आपने


िमसेस साद को पकड़ा। जनके साथ अगले ह ते उ ह इसी वषय पर ेजे टे शन
दे ना था।

“म सोचती हँू िमसेस साद¸ क हमार कामवाली बाईयाँ ह है जनसे हम ये सारे


सवाल पूछ सकते है ।” िमसेस माहे र ने बे ड वेज का कुरकुरा चीज़ मुँह म रखते हए

कहा।

“हाँ! उ ह ं से हम उनक खान – पान क आदत और उनम सुधार क गुंजाइश क


जानकार िमलेगी। इस तर के से हमारे ेजे टे शन म थोड़ लाईवलीनेस आ जाएगी यू
नो!” और उ होने म चू रयन पर धावा बोला।

फर क मीर पुलाव और मखनी दाल के साथ यह तय हआ


ु क िमसेस माहे र अगले
ेजे टे शन के िलये बाईय से आँकड़ जमा करगी और िमसेस साद उसका पीच
बनाएँगी। अंत म आई म वथ ेश ू ट ए ड़ जैली के साथ ह इस ेजे टे शन के
िलये घर पर रहसल का समय तय हआ।

तभी एक ह का सा शोर सुनाई दया। “लाईव रोट ” के टॉल पर गम सहन न होने


के कारण गभवती रमाबाई क त बयत खराब हो रह थी। मनेजर पैसे काटने क
धमक दे रहा था। रमाबाई आधे घ टे क छु ट लेकर नींबूपानी पी लेने के बाद काम
िनपटाए दे ने के िलये िचरौर कर रह थी।

िमसेस माहे र और िमसेस साद एक दसरे


ू से बदा लेकर¸ अपने भीमकाय जबड़ म
पान क िगलौ रयाँ दबाए¸ एअर क ड श ड गा ड़य के बंद दरवाज के भीतर एक ह
वषय पर सोच रह थी¸ “आ खर म हलाओं म कुपोषण के या कारण है ?”
गाँव क लड़क

शहर के नामी प लक कूल के ांगण म गहमा गहमी थी। आज ाईमर ट चस के


इ टर यू होने थे। ढे र सार फेड़े ड़ मेकअप म सजी सजी सँवर ¸ सलवार सूट से लेकर
पा ा य कपड़ म िलपट क याएँ¸ गृ ह णयाँ वहाँ थी। कोई अपने पहले के अनुभव
बाँट रह थी तो कुछ अपने अंतरा ीय िश ण के तमगे लहरा रह थी। कसी को व
काटने के िलये जॉब चा हये था तो कोई इं डपडसी फ ल से प रिचत होना चाह रह
थी।

इतनी जगमगाहट के बीच¸ फ के नारं गी रं ग पर बगनी फूल क सु िचपूण कढ़ाई वाली


कलफ लगी सूती साड़ पहने एक लड़क सकुचाई सी बैठ थी। पा ा य शैली म सजाई
हई
ु बैठक म¸ सोफा सेट¸ ट पॉय¸ शोकेस के बीच म ढ़े सी रखी हई
ु वह थोड़ सी
आतं कत अव य थी ले कन इसका असर उसके आ म व ास पर नह ं पड़ पाया था।
उसके आस – पास के सभी अपने यवहार से ह उसे “आऊट ड़े टेड़” या “ रजे टे ड़
पीस” जैसा कये दे रह थी।

तभी उनके बीच एक ढ़ाई साल का बालक रोता – रोता दा खल हआ।


ु उसक हाफ पै ट
ग द और गीली थी¸ नाक बह रह थी। धूल म खेलकर आने के कारण आँसुओं से
चेहरे पर काले िनशान बन गये थे। वह क णा वर म रोता हआ
ु ¸ अपनी माँ को
ढँू ढ़ता हआ
ु वहाँ चला आया था और उसे वहाँ न पाकर उसक हच कयाँ बँधी जा रह
थी। सारा वातावरण “ओ माय गॉड”¸ “वॉट अ डट कड”¸ “वेयर इज हज केयरलेस
मदर?” जैसे जुमल से भर गया। न हा बालक गोद म िलये जाने के िलये हर कसी
क ओर हाथ बढ़ाता ले कन उस न हे दे वदत
ू को दे खकर कसी भी शहर का दल नह ं
पसीजा।

तभी सूती साड़ वाली¸ मोढ़े सी गाँव क लड़क ने अपने नयन प छे और उस बालक
को यार से गोद म िलया। उसके गंदे होने और उससे वयं के गंदे हो जाने क
परवाह कये बना! पास ह के गुसलखाने म ले जाकर उसने उसे साफ कया¸ मीठ
बात करने से उसका दन बंद हआ।
ु बालक क ट शट क जेब म उसका नाम – पता
िलखा था। वह झट रसे शन पर जाकर सार जानकार के साथ उस न हे मु ने को दे
आई जहाँ से माईक पर विधवत घोषणा कर उसे उसक माँ के पास स प दया गया।

सूती साड़ वाली से रसे शन पर उसका नाम – पता आद पूछा गया। वह वा पस


वे टं ग म म पहँु ची तब उसने पाया क सारा पा ा य माहौल अब उसे न िसफ
हकारत वरन ् मजाक क से भी दे ख रहा था। उसने पास लगे काँच म वयं को
दे खा¸ जगह – जगह गीले ध बे¸ धूल के दाग। लगता था जैसे बना इ ी क मुचड़ सी
साड़ पहनी है । वह पसीना – पसीना हो आई। अब या खाक इं टर यू दे गी यहाँ जहाँ
पहले से ह इतनी लायक युवितयाँ है ! एक िन: ास छोडकर वह चल द । उसके जाने
के दस िमनट बाद ह वह इं टर यू पो ट पो ड होने क खबर द गई और वह वे टं ग
म “ओह माई गॉड”¸ “हाऊ डसग टं ग” और “सो सॅड ” जैसे जुमल के साथ खाली
हआ।

तीसरे ह दन सूती साड़ वाली के घर उस शाला का िनयु प आ पहँु चा। उनक


भाषा म वह एक े टकल िथंकर थी और इसीिलये चुनी गई…
एक जात है सभी

समारोह थल पर तो जो होना था वह हआ।


ु यानी भाषण¸ हार – फूल¸ इनक ऐसी तो
उनक वैसी। और होता भी या है खैर इन राजनीितक समारोह म। भीड़ अपना
कराया वसूल चलती बनी और टट हाऊस वाले ने िसर पर खड़े रहकर जब तक खुद
का हसाब बराबर नह ं कर िलया तब तक वहाँ से हला तक नह ं। पुराना अनुभवी
लगता था। सारे जमीनी से लेकर आसमानी कायकता¸ समारोह क सफलता का सेहरा
अपने िसर बँधवाने के िलये सामू हक ववाह समारोह क भाँित रे ल पेल मचा रहे थे।

इन सभी ट न है पिनं स से ऊबते हए


ु मने एक प कार क है िसयत से इस बार क
टोर म कुछ नया डालने का सोचा। सारा काय म समा होने के बाद जब
कायकताओं क भीड़ भी छँ ट गई तब उस टे डयम का एक सफाईकम अपनी ह धुन
म वहाँ के खाली ड पोजेबल िगलास¸ कुचले हार¸ कागज आद कचरे को ठकाने लगा
रहा था। िनिल भाव चेहरे पर िलये वह सा ात िनगुण पंथ का समथक दखाई दे रहा
था। उसको लगभग च काते हए
ु म उसके पास पहँु चा और यह छुपाते हए
ु क म कोई
प कार हँू ¸ उससे बात करता हआ
ु उसके मन क टोह लेता रहा। बात ह बात म मने
उससे पूछ ह िलया क चूँ क वह लगभग हर काय म का जो उस टे ड़यम म होता
है ¸ स ी रहा है तब अलग – अलग राजनीितक पा टय के आयोजन म या िभ नता
उसे नजर आती है ?

मुझे ए स रे मशीन क नजर से घूरता हआ


ु वह बोला¸ “दे खो बाबू! नेता जात एक ह
होती है । पछले ह ते गंदगी हटाने का संक प लेकर समारोह कर गये और इस ह ते
सफाई आंदोलन क परे खा बनाने को जमा हए
ु थे। ले कन दोन ह बार हमारे िलये
इस गंदगी का िसरदद ह छोड़ गये।”

फर मुझे अपने पैड म कुछ िलखता दे ख वह हँ सते हए


ु कहने लगा¸ “दे खो बाबू¸ मुझसे
पूछा उसे अपने तक ह रखना नह ं तो ये रपोटर क नौकर भी जाएगी हाथ से हाँ!
कतने ह बने और बगड़ गये है यहाँ।”
म ठगा सा दे खता रहा और वह सफाईकम पुन: िनगुणी हो चला था।
भड़भूं जया

बाबा अपने जमाने म थोड़ा बहत


ु आयुवद पढ़े हए
ु थे। घर गृह थी के च कर म ऐसे
उलझे क बस पसते ह रहे । हाँ! बीच बीच म अपना शौक पूरा करने क खाितर
अपने िम के पास जो क पेशे से वै थे¸ जाकर बैठा करते थे। उनसे बितयाकर तो
कभी उनक मर ज को जाँचने क विध दे खकर अपना ान बढ़ाया करते। उ ह ं से
पूछ ताछकर कुछ बड़े बड़े ंथ भी मँगवाए थे उ ह ने। समय िमलने पर पढ़ा करते थे।
अपने बेटे म यह िच पैदा करना चाहते थे वे ले कन वह ये सब कुछ छोड़कर एक
नामी यूज एजे सी म रपोटर बन गया था।

रटायरमट के बाद अब बाबा के पास भरपूर समय था। उ होने अपने कमरे के एक
कोने को साफ करवाकर वहाँ अलग – अलग खाने वाली एक अलमार लगवा ली थी।
वहाँ अपनी मोट कताब रखते। अलग अलग आसव¸ बू टयाँ¸ चूण जाने या या
लाकर रखा था वहाँ उ ह ने। दन रात वे या तो अपनी पु तक म मगन रहते या
बोतल म से कुछ यहाँ तो कुछ वहाँ कया करते।

उनका ये नया शौक घर म मजाक का वषय बना हआ


ु था। “स ठया गये है ” से लेकर
“बुढ़ापे का च का” जैसे जुमले अ य प से उनके कान तक पहँु चे थे। ये सब कुछ
अनसुना करके वे अपने ल य क ओर बढ़ते रहे । उनका ल य था बुढ़ापे म शर र क
ह डय को कमजोर से बचाने के िलये एक वशेष औषिध का िनमाण। और वे इसका
योग वयं पर और अपने एक सहयोगी िम पर कर रहे थे।

प रवार के लोग को इस बात क कोई जानकार नह ं थी। उ ह दन रात इन


औषिधय के साथ काम करते दे ख उनका बेटा कहता¸ “ या बाबा आप भी! बुढ़ापे म
या नया शौक चराया है आपको? घूमना फरना¸ पूजा पाठ¸ आराम छोड़कर फालतू
भाड़ झ का करते है ।”
बाबा ितलिमलाकर रह जाते। बेटा यह जुमला अ सर दोहराता। कसी के उनके वषय
म पूछने पर कहता¸ “अपने कमरे म बैठे भाड़ झ क रहे ह गे।”

ले कन वे तट थ होकर अपने काम म म न रहते। और फर लगभग दो वष क कड़


मेहनत के बाद वह शुभ दन आ ह गया था। उनक नवीन औषिध अपना असर दखा
रह थी। और इस उपल ध के िलये उ ह एक आ व कारक क मा यता के प म एक
भ य समारोह म स मािनत कया जाने वाला था।

इस शुभ अवसर पर उ ह लगा जैसे उनक जीवन भर क साध पूर हो गई थी। वयं
का मकान बनाकर या ब च क शाद करके भी वे इतना आनं दत और संतु नह ं हो
पाए थे जतने क आज थे।

उनका घर प कार ¸ यूज चैनल के कैमर से दन भर अता पड़ा रहा। वे सहज ह


उनके सभी का समाधान करते हए
ु कसी अ य त िच क सक क भाँित यवहार
कर रहे थे।

उनका बेटा भी अपने यवहार म बना कसी पुरानी झड़क या कटु श द को बीच म
न ला¸ एक सामा य रपोटर क है िसयत से उनका इं टर यू अपनी यूज एजे सी के
िलये ले गया था।

उस शाम बाबा के िम म डल ने उनके स मान म एक भोज रखा। सभी खुश¸


स निच । उनम से एक बुजुगवार¸ इधर उधर क बात के बीच ह बाबा से उनके बेटे
के वषय म पूछने लगे। यह सुनने के िलये क वयं के वषय म बाबा या कहते है ¸
बेटा उनके पीछे ह खड़ा था।
बाबा ने कहा¸ “मेरा बेटा? अरे वह तो बड़ा उ दा रपोटर है । तड़क – भड़क नह ं। जमीन
से जुड़े मु द पर ह अपनी कलम चलाता है । आप यक न नह ं करगे ¸ आज ह वह
एक भड़भूँ जये का इं टर यू लेकर गया है ।”

अब बेटे के चेहरे पर ऐसे भाव थे जैसे उसने कुछ सुना ह न हो…

से टं ग

िम ाजी ने दे खा¸ वह कम बाल वाला िछतर सी मूछ का मनु य घर के बाहर आकर


मीटर र ड़ं ग ले रहा है ।

“अरे इससे तो अपनी सै टं ग है !” वे मन ह मन बड़बड़ाए और लगभग दौड़ ह पड़े ।

“अरे अली भाई ऽऽ!”

अली भाई दरवाजे के बाहर कदम ह रख रहे थे क यह आवाज उ ह लौटा लाई।


आ खर िम ाजी ने उनसे बड़ जान पहचान िनकाल रखी थी। और आजकल इसके
िसवाय कहाँ कोई काम होता है भला। यह मीटर र डं ग करने आने वाला श स वैसे
तो अ छा भला मालूम होता था।

फर बात ह बात म िम ाजी इन लोग क सै टं ग के वषय म जान पाए थे। एक


िन त रकम र डर क जेब म और लगभग हर मह ने एवरे ज बजली का बल।

“अरे मने कहा जनाब चाय पानी तो िलये जाते गर बखाने से!” िम ाजी कुछ यादा ह
बोल गये है ऐसा उनक प ी को लगा। और अली भाई अ य त क भाँित बैठ भी
गये। दौर चल पड़ा तो बा रश के बहाने चाय के साथ भ जये भी तले गये और पूरे ड़े ढ़
घ टे क आवभगत के बाद अली भाई तृ मन से वहाँ से

िनकले।

इधर िम ाजी खैर मना रहे थे क इस बार का बल तो एवरे ज ह आएगा। ले कन


प ह दन के बाद ड़े ढ़ हजार रकम के आँकड़े सामने दे ख उनक यौ रयाँ चढ़ गई।

“आने तो दो अब इस अली भाई को” वे मन ह मन बड़बड़ाए।

फर कुछ दन बाद जब उ होने सफाई के बहाने से मीटर का ब सा खोला तब तेज


गित से घूमते च के को दे ख है रान रह गये। पूरे घर क जाँच पड़ताल क उ होने क
कह ं कोई घरे लू यं यादा बजली तो नह ं खींच रहा? यहाँ तक क पूरे घर क सभी
बजली से चलने वाली व तुएँ बंद कर दे ने के बाद भी मीटर का च का था क
सामा य गित से घूमता ह जा रहा था।

“ज र कुछ गड़बड़ है” वे मन ह मन म बोले।

“ये अली भाई से ह पूछना होगा क या माजरा है ! आ खर सै टं ग है उससे अपनी।”


उ होने तय तो कया ले कन अली भाई को वा पस उनके घर क मीटर र ड़ं ग लेने
आने के िलये अभी काफ समय शेष था।

एक छु ट के दन उ होने अपनी सुबह क सैर के दौरान दे खा क उनके घर के


पछवाड़े क झोप ड़य म से एक पर एक चौदह प ह वष का कशोर ऊँचाई पर चढ़ा
हआ
ु एक तार से दसरा
ू तार जोड़ रहा है । िम ाजी ने उस तार को गौर से दे खा तो
उ ह आ य हआ।
ु यह तार तो उनके घर के पीछे से आ रह थी।
“अ छा ! तो ये माजरा है !” वे कला फतह करने क सी मु ा म बोले। “अभी पकड़ता
हँू इसे।” कहकर वे आगे बढ़े ह थे क उ ह सामने से भागवत साहब आते दखाई
दये। िम ाजी को याद आया क कस कार पछली बार कसी बात को लेकर
भागवत साहब का इन लोग से ववाद हआ
ु था और ये बाल – बाल बचे थे।

उस समय तो वे सीधे घर पर आने के िलये िनकले पर यह ठान िलया क अली भाई


से चचा कर इसक रपोट ज र िलखवाएँगे। आ खर ये झ पड़ वाले उनके दये पैस
पर बजली का इ तेमाल कर रहे है । सब कुछ या मु त म िमलता है ? यह सब कुछ
सोचते सोचते उ होन घर क राह ली। ले कन अनजाने ह उनके कदम अली भाई के
मुह ले क ओर बढ़ चले। एक बार उ ह ने अ प सा पता बताया ज र था। उसी के
आधार पर उ ह ने उन तंग गिलय म वह घर ढँू ढ़ िनकाला।

आवभगत और चाय पानी के बाद वे मु दे पर आए¸ “अरे अली भाई! आप तो अपनी


सै टं ग के हसाब से चल ह रहे ह गे ले कन इन दन पछवाड़े क झोपड़प ट के
लोग ने नया ह नाटक शु कया है ।” िम ाजी कसी नवीन त य के रह यो घाटन
से पहले क सी चु पी गहराकर आगे बोले¸ “अरे तार खींचकर अपने टापरे म रौशनी
करते है ये लोग। अभी – अभी दे खा मने और सीधा आपके पास दौड़ा चला आया हँू ।
अब बताईये क इन चोर को कैसे सबक िसखाया जाए।”

आशा के वपर त¸ अली भाई थोड़े गंभीर हो उठे । कसी भी तरह से वे बातचीत के
मु दे को टालते हए
ु इधर उधर क उड़ाते रहे । साथ ह ये भी कहा क एक दो मह न
के बाद अवैध बजली लेने वाल के खलाफ सरकार मु हम शु होने वाली है । ऐसे म
अभी से इन लोग से झगड़ा य मोल िलया जाए? फर िम ाजी को भी तो उसी
इलाके म रहना है । बजली बल के हजार पाँच सौ के िलये वे घर क सुर ा तो ख म
नह ं कर सकते थे।
खैर! िम ाजी उ टे पाँव घर लौट आए। उ ह रह रहकर यह बात परे शान कर रह थी
क आ खर उनक सै टं ग म या कमी रह गई जो इतना भार बल भरना मजबूर
बन गया!

उस दन िम ाजी के घर क कामवाली बाई छु ट पर थी और बदले म पछवाड़े के


झोपड़े क बाई को दे गई थी। उसक बातचीत बातचीत म जब पछली रात के
टे ली वजन सी रयल का ज आया तब िम ाजी क ीमतीजी ने पूछ ह िलया¸

“ य बाई! तु हारे इलाके म तो बजली का कने शन ह नह ं है फर तुम ट वी कैसे


दे खती हो?”

“वो बाई ऐसा हे क मीटर वाले बाबूजी के यहाँ बतन कपड़े करती हँू न म! सो उनसे
सै टं ग जमा ली है मेरे मु ना ने। उनसे पूछकर हर दो मह न के अंदर कसी बँगले क
लाईन से जोड दे ते है । बस अपनी तो ऐसे ह िनभ जाती है ।” वह खींसे िनपोर कर
हँ सने लगी।

िम ाजी को समझ म आ गया क अली बाई के यहाँ क नौकरानी क सै टं ग उनसे


यादा अ छ है । वे तेजी से घूमते मीटर को असहाय से दे खते रहे ।
वा दे वी का तेज

सुनहर खली धूप म यामा अपने किथत वतीय का य सं ह के िलये परे खा


बनाती हई
ु बैठ थी। तभी ड़ा कया कुछ प लेकर आया। उनम से बाक को छाँटकर
अलग रखा¸ एक पर उसक जड़ हो गई । ये या? उसका कलेजा धक् से रह
गया। उस सफेद पर सुनहरे रं ग से छापे गये िनमं ण प के उन वा य को वह एक
साँस म पढ़ गई¸

“क वय ी मंजू ी के थम का य सं ह “अ तमन” के वमोचन पर आपक उप थती


ाथनीय है ।”

इन पं य का एक एक श द यामा को बींधता हआ
ु चला गया। यह मंजू ी¸ यानी
यामा के पता क ववय कृ णदास क सुिश या। अ यंत सुंदर का यपाठ कया करती
थी और समाचार प के समी क वारा इसे समय समय पर अगली पीढ़ क सश
दावेदार के प म भी िन पत कया गया था। हर बार यामा इसके का य को¸
यवहार को वयं क ितभा के सम बौना सा बत करने पर तुली रहती।

दोन ने कृ णदास जी के िश य व म ह सा ह य नातक क उपािध ा क थी।


यामा जहाँ अंक म वजयी हई
ु वह ं मंजू ी म थी नैसिगक का य ितभा जसका
लोहा आज सभी मान रहे थे।

“इसका मतलब¸ पताजी को पहले से ह मालूम था क मंजू ी का का य सं ह भी


उसी काशक के पास है जसके पास मने दो मह ने पहले मेर का य पांडुिलपी
िभजवाई थी!” यामा मन ह मन सोचने लगी। “तो या ये जानते हए
ु भी उ होने
मंजू ी क क वता पु तक पहले छप जाने द ?” यामा आँसी हो उठ । कशोरवय से
उसने जस मंजू ी को अपनी ित ं मान रखा था वह आज उसके ह पता क मदद
से उसे नीचा दखाने पर तुली हई
ु है ।
वह तमककर पता के सम उप थत हई।
ु कृ णदासजी यानी माता सर वती के परम ्
भ । अपने िनवास पर उ होने संगमरमर क अ यंत मनो ऐसी माँ क ितमा
था पत क थी। उनका िनयम था क अपनी रचनाओं को पहले माँ को अ पत करते
और फर वे कसी भी भा यशाली काशक के झोले म िगरती। इस उपासना के खर
तेज के फल व प आपक रचनाएँ व व यात और िचरनावी य िलये पाठक के दय
म अपना थान बना लेती थी। इस संपूण सफलता का य
े वे माँ के तेज और कृपा
को ह दे ते।

अपनी पु ी यामा और िश या मंजू ी के बीच एक अनकह सी अ व थ ितयोिगता


है इसका अंदाजा उ ह काफ पहले हो गया था। परं तु वे इसे उ का तकाजा मान
मौन बने रहे । मंजू ी एक उ कृ कविय ी के प म उभरने लगी थी और उनके
िश य व को साथक करती हई
ु अपनी येक उपल धी का य
े गु को दे ती हई

मश: गित कर रह थी। वह ं यामा म ितभा कम और जुगाड़ क वृ यादा
थी। आज भी उसे सभी उसक क वताओं के कारण कम और कृ णदासजी क सुपु ी
के प म अिधक जानते थे।

अपनी ितभा को सा रत करने के उ दे श से ह यामा ने दन रात मेहनत करके¸


पता के उपदे श क अवहे लना करते हए
ु एक आधुिनक शैली का का य सृ जत कया
था। उनके लाख मना करने के बावजूद काफ मान मनौ वल से उनका िसफा रशी प
एक बड़े काशक के िलये िलखवा दया था। दो मह ने बीत गये थे इस बात को और
कोई उ र नह ं आया था। काशन यो य न होने के बावजूद कृ णदासजी के प के
उ रम वयं काशन कंपनी के मािलक का फोन उ ह आया था जसम उ होने
याचनाभरे वर म इसके काशन म असमथता य क थी। इधर यामा इसी
ती ा म थी क कब उसका सं ह कािशत होगा और वह मंजू ी से पहले कािशत
हो पाने के सुख का अनुभव करे गी।

“ये या है पताजी?” यामा लगभग चीख ह पड़ थी। “ या आपको भी खबर नह ं


थी इस आयोजन क ?” यामा क माँ यह आवाज सुनकर पूजाघर म दौड़ आई और
आ यच कत हो पता पु ी का संवाद सुनती रह ।
“दे खो यामा! तुम अ यथा न लो। इस काशक ने वयं ह मंजू ी को अपना ताव
भेजा था। उसने वयं बड़ मेहनत क है इस सं ह के िलये।” कृ णदासजी कातर वर
म बोले।

“नह ं पताजी। म कुछ नह ं जानती। उससे पहले मेरा सं ह कािशत न हो इसिलये


आपपर उसने दबाव ड़ाला होगा और आप अपनी बेट का हत छोड़ उसी के हत म
चल रहे है । यहाँ तक क मुझे तो आज यह िनमं ण प दे खकर मालूम पड़ रहा है ।”
यामा असंयत सी बोलती जा रह थी।

“म कुछ नह ं जानती। य द मंजू ी से पहले मेरा सं ह कािशत नह ं हआ


ु तो म
आपको कभी मा नह ं क ं गी।”

“ यामा!” कृ णदासजी और उनक प ी का युगल वर गूँजा। ले कन तब तक यामा


वहाँ से जा चुक थी।

“हे माता! कैसा धम संकट है ।” क ववय ने माँ के सम हाथ जोड़े ।

“कोई धम संकट नह ं है आपके सम ।” उनक धमप ी का ढ़ वर गूँजा। “इस


समय आपका सह धम है अपने पता होने का लाभ पु ी को दे ना। आज के जमाने म
कैसे कैसे मं ीपु ¸ नायक पु अपने थान पर जमे हए
ु है ।”

“ले कन मणी उस काशक का प उ र आया है क यामा का सं ह छपने


यो य नह ं है । म अपनी माँ को या जवाब दँ ग
ू ा?” उ होने पुन: याचक क भाँित माँ
सर वती क शांत ितमा को िनहारा।
आनेवाले दस दन तक यह पाप मन म पाले क ववय उस काशक को मनाते रहे ।
अपनी ओर से कुछ क वताएँ¸ यामा ने िलखी है कहते हए
ु उसके पास िभजवाई और
उसे जबद ती इस सं ह को ज द से ज द छापने को राजी कया।

मंजू ी के सं ह का लोकापण समारोह तीन दन बाद था जब यामा के हाथ म


उसका छपा हआ
ु सं ह था। आनन फानन म तीसरे ह दन यानी मंजू ी के समारोह
से एक दन पूव क ितथी यामा के सं ह के लोकापण समारोह के िलये चुनी गई।
पानी क तरह पैसा बहाकर सार तैया रयाँ क गई। उपहार दे कर समी क क
उप थती तय क गई। आनेवाले सा ह य ेिमय के िलये भोज भी रखा गया था।
यामा अ यंत उ सा हत थी और अपनी माँ के साथ िमलकर अपने प रधान¸ भाषण
आद क तैयार कर रह थी।

ले कन कृ णदासजी उस दन के बाद से अपनी माँ से िमलाकर बात नह ं कर


पाए थे। आयोजन के दन घर से थान करते हए
ु वे दखी
ु मन से माँ के सम खड़े
थे। मन हआ
ु क फूट फूटकर रो ल। अपने कये का ाय कर ले। परं तु समय ह
नह ं था। बड़ ह मत कर उ होने माँ के मुखार वंद क ओर पात कया। वह खर
तेज और ती ण उ ह असहनीय जान पड़ ।

समारोह थल खचाखच भरा था। क ववय को सभी शुभिच तक बधाई दे रहे थे।
यामा को भी वह सब कुछ िमल रहा था जसक लालसा म उसने वष बताए थे।
आयोजन शु होने को था। तभी वचारम न से क ववय को एक प रिचत कंठ वर
सुनाई दया।

“ णाम गु जी!”

वह मंजू ी थी। जब आश वाद लेकर उठ तब क ववय को लगा जैसे उसके मुख पर


आज कुछ ऐसा भाव है जो उ होने अभी अभी कह ं दे खा है । वे बेचैन हो उठे । काय म
शु हआ।
ु वे मंच पर अपने थान पर वराजे। यामा का का यपाठ शु हआ।
ु वह
अपने पता क िलखी क वता को अपनी कह सबके सम पढ़े जा रह थी¸ वाहवाह ले
रह थी। तभी क ववय का यान पुन: मंजू ी के मुख पर गया और उनके म त क
म बजली सी क धी।

आज मंच क सा ा ी अव य यामा थी। ले कन मंजू ी के मुख पर था उसी वा दे वी


का तेज जसे क ववय ने यहाँ आने से पूव अपनी माँ के मुख पर दे खा था।

और वे मन ह मन अगले दन के आयोजन क परे खा बनाने लगे थे।


महानगर डायर

हमारा यारा सा छोटा¸ सुंदर प रवार है । यानी मेरे पित¸ चार साल का बेटा अिभ और
म। और हाँ अिभ के दादा भी हमारे ह साथ रहते है । म थोड़ा गलत बोल गई। इतना
भी छोटा प रवार नह ं है हमारा। मेरे पित तो दन भर काम म य त रहते है । वो
ए सपोट का बजनेस है ना हमारा। क टम वाल से लगाकर टै स अथॉ रट ज सभी के
साथ अ छ से टं ग है इनक । म अपनी सहे िलय के साथ जम¸ कट और लब क
ए ट वट ज म ह इतना थक जाती हँू क ह ते म दो तीन बार तो हम बाहर ह खा
लेते है ।

अिभ के दादाजी को नह ं भाता ये सब। अब बाहर जाएँगे तो साढे यारह बारह से


पहले लौटगे या? उनके िलये पॅ ड डनर ले आते है । कभी खाते है तो कभी वैसा ह
पड़ा रहता है ।

दादा को मेरा घर म कट करना¸ ट वी पर सी रयल दे खना¸ कॉकटे ल पाट ज म जाना


और यहाँ तक क नॉन वेज और ं स तक लेना भी पसंद नह ं है । हद होती है
द कयानूसी सोच क भी । आ खर कोई कसी क लाईफ टईल म¸ जीने के तर के पर
तो पेटट नह ं रख सकता न?

आप ह बताईये जब वे घर म जोर जोर से मं ा बोलकर हमार मॉिनग लीप म


दखल दे ते थे¸ धूप जलाकर मेरे सारे इ पोटड कट स खराब कर दये उ होने¸ अिभ के
बथडे पर उसे गंदे आ म के ब च के पास ले जाने क जद करने लगे थे¸ अपनी
प ी क धरोहर के नाम पर तीन पे टय क जगह घेरे हए
ु रहते है तब हम उ ह कुछ
भी कहते है या?

कई बार मेरा दमाग खराब होता है ले कन अिभ के पापा सब कुछ समझते है । वे तो


दादा से यादा बात भी नह ं करते। उ होने मुझे बता रखा है क मरते समय उनक
माँ को उ होने वचन दया है इसिलये दादा को वृ ा म म नह ं रख सकते। अब
आ खर म भी तो भारतीय नार हँू । कुछ तो याल रखना ह पड़ता है ना पित क
इमोश स का।

ले कन दादा ने उस दन तो हद ह कर द थी। दवाली पर म नौकरािनय के िलये


कुछ सामान लाने बाजार ह नह ं जा पाई थी। सोचा क अपनी सासूजी क पुरानी
धुरानी स ड़य के बंड़ ल म से चार पाँच िनकाल कर उ ह दे भी दँ ग
ू ी तो काम चल
जाएगा। दादा टहलने गये थे और मने अपना काम कर ड़ाला था। ले कन अिभ!
आ खर ब चा ह तो ठहरा¸ सो इनोसट ह इज। उसने दादा को बता ह दया क मने
दाद क सा ड़या रमा¸ ऊमा¸ पारो और स वता को द है । फर या था¸ वे मुझसे¸ रयली
मुझसे ऊँची आवाज म बात करने लगे थे।

पता नह ं कौन सी पा ट ह बताते रहे थे। पुराना वैभव और या – या। तब मने


उ ह अिभ के पापा वाली बात बता ह द थी क

“आपक धमप ी क ह बदौलत आपको दाना – पानी िमल रहा है यहाँ। नह ं तो…।”
और पता नह ं य वे छाती मलते हए
ु से हमेशा क तरह नाटक करते बैठ गये थे।

और सच बताऊँ अिभ ने ये भी सुन िलया और तो और मेर सार ए स ेश स को वह


बखूबी इमीटे ट करने लगा है आजकल। उसे ना मेरा वड “धमप ी” बड़ा अ छा लगा
था। कहता था “ममा आप तो बड़ा ह अ छा मदर टं ग बोलती है ।” अिभ के पापा का
मूड थोड़ा सा ऑफ ज र हआ
ु था ले कन जब अिभ ने मेरा डायलॉग वैसे ह
ए स ेश स के साथ बार – बार दोहराया तब ह ऑ सो ए जॉइड लाईक एनीिथंग।

फर तो जब भी दादा खाना खाने बैठते¸ अिभ उनके आगे पीछे दौड़ता हआ


ु यह
डायलॉग बोलता रहता। ले कन कतने ड य थे वो। मने तो सुना है और दे खा भी
है क दादा दाद को अपने नाती पोत से कतना यार होता है ले कन यहाँ दादा तो
बस ए स ेशनलेस होकर बैठे रहते थे।
साल का ये दन मुझे बड़ा बो रं ग लगता है यू नो। मेर सासू माँ क बरसी। अब आप
ह सोिचये क जस लेड़ को म ठ क से जानती भी नह ं उसके िलये ये सारा कुछ
करने क ए सपॅ टे शन मुझसे य क जाती है ? पता नह ं कौन कौन से बूढ़े और
बो रं ग य आ जाते है इस दन। और इतना खाते है क पूिछये मत। और तो और
सभी गँवार के जैसे नीचे बैठकर खाते है । और हमारे दादा! उनक तो पूिछये मत।
ा◌ा नह ं हमारे बारे म इन सभी लोग को या या बताते रहते है ।

इस सब च कर म अिभ के पापा को घर पर रहना होता है और उनका बजनेस लॉस


होता है सो अलग। ले कन कौन इ ह समझाए। दे खये कैसे बैठे है सभी। छ ! मुझे तो
उनके सामने जाने क इ छा भी नह ं होती। उसपर आज साड़ पहननी पड़ती है सो
अलग। अिभ को तो म उसक नानी के यहाँ भेज दे ती हँू हमेशा ले कन इस बार जद
करके का है वो यहाँ। म यान रखती हँू क वो इनम से कसी भी आऊट ऑफ डे ट
पीस के पास न चला जाए। ऐसा लग रहा है क कब ये लोग एक बार के जाएँ यहाँ
से और म साड़ क जगह ढ ली नाईट पहनू।

ले कन उस दन आराम तो था ह नह ं जैसे क मत म। सबके साथ दादा खाने बैठे


थे। वह हमेशा क आदत! सासू माँ के “च र ” का गुणगान! वे खाना अ छा बनाती
थी¸ वे मेह माननवाजी अ छ करती थी¸ उनके जाने के बाद तो जैसे घर म जान ह
नह ं रह आद आद । और जानते है उतने म या हआ
ु ? अिभ वहाँ पहंु चा और उसने
अपना वह डायलॉग सबके बीच म दादा पर मारा। उसका ेजे स ऑफ मा ड भी
लाजवाब है ।

“आपक धमप ी क ह बदौलत आपको दाना – पानी िमल रहा है यहाँ। नह ं तो…।”

ले कन दादा हमेशा क तरह तट थ नह ं बैठे रहे । वे िगर पड़े थे अपनी जगह पर ह ।


खैर… हम डॉ टर ने बताया क कसी शॉक के कारण ह हाट फेल हआ
ु है । अब जो
आदमी इस दिनया
ु म ह नह ं रहा उसके िलये कोई कहाँ कता है भला। उ होने
उनका अंितम सं कार काशी म करवाने का िलखा था। हमने रमाबाई और उसके पित
को टकट िनकालकर दे दया था सं कार कर आने के िलये। फर हम लांड़ केरला
प पर गये। कतना े शन आया था अिभ के पापा को। उससे बाहर िनकलना भी
तो ज र था।

अिभ अपने साथ दादा का पुराना फोटो भी लाया था। एक दन म और उसके पापा
रसोट के लॉन म कॉफ पी रहे थे। उनका मूड थोड़ा ऑफ था। अिभ भी कमाल का
लड़का है हाँ। दादा का फोटो हमारे सामने रखा और कहने लगा¸

“आपक धमप ी क ह बदौलत आपको दाना – पानी िमल रहा है यहाँ। नह ं तो…।”

हमारा हँ सते – हँ सते बुरा हाल था…


गंद ा कु ा

ठाकुरजी बड़े सफाई पसंद य थे। धूल का एक कण तो या जरा सा दाग भी हो¸


उ ह बदा त नह ं होता था। सारा घर िसर पर उठाए रहते। उनके घर के नौकर चाकर
सभी के नाक म दम था। सभी बेचारे दन भर झाडू ¸ गीला कपड़ा िलये यहाँ वहाँ दौड़
भाग मचाते रहते। पूजा घर म व छ सफेद संगमरमर लगा हआ
ु था और ठाकुरजी
का आदे श था क इसक रोजाना सफाई होना ज र है ।

दसर
ू बात¸ उ ह जानवर से बड़ घृणा थी◌ी। खासकर कु से। गाय या हाथी कभी
गली मोह ले म घूमते तो उ ह कोई एतराज नह ं होता ले कन कु ा कह ं भी दखा क
उनका मुह
ँ चढ़ जाता। उनके हसाब से य द ये संसार चलता होता तो सभी जगह पर
सफेद प थर मढ़वा दया होता उ होने जससे धूल का नामोिनशान न रहे ।

ले कन इन दन ठाकुरजी क यौ रयाँ चढ़ हई
ु रहती थी। रोजाना उनक सुबह क
सैर के व एक भूरा सा म यवय का व थ कु ा कसी पुराने संगी साथी क भाँित
उनके साथ हो लेता था। वे लाख उसे झड़कते¸ भगाते वहाँ से ले कन वह पूँछ हलाता
फर थोड़ दे र बाद हा जर हो जाता। उ ह इस तरह से परे शान होते दे ख शायद उस
ान को बड़ा मजा आता था य क वह राह चलते कसी अ य य के पीछे कभी
भी नह ं गया था।

“अरे साथ म छड़ िलये चला करो।” ठाकुरजी के िम ने सुझाया। ले कन उससे भी


कु ा नह ं ड़रा। “उसे कुछ ब कुट ड़ाल दया करो रोजाना।” दसरा
ू सुझाव आया।
“ले कन इससे एक के थान पर और भी कु े पीछे पड़ने लगे तो?” उनक धमप ी का
कहना सह था। खैर वे अपनी सुबह क सैर पर उस संगी के साथ जाते रहे¸ उसपर
कुढ़ते रहे । संपक होता रहे तो इं सान – इं सान का भी ेम हो जाता है फर ये तो खैर
जानवर था। ले कन ठाकुरजी को कबी रास नह ं आया। वे उससे हमेशा चार हाथ दरू
ह रहते। खई बार राह चलते उनसे कईय ने कहा भी था¸ “अरे ठाकुर साहब आसरा दे
द जये इस अनाथ को अपने बँगले म।” तब ठाकुर साहब “िशव िशव! आज कहा¸ फर
मत कहना ऐसी अपशगुनी बात। म और कसी कु े को वे छा से अपने घर म
रखूग
ँ ा?” और वे यौ रयाँ चढ़ाते¸ उस ान को एक बार फर झड़कते हए
ु आगे िनकल
जाते।

उन दन शहर सां दाियक तनाव के घेरे म था। एक यौहार वशेष के दन शहर के


म य व फोट होने वाला है ऐसी अफवाह जोर पर थी। ठाकुरजी िन य क भाँित
सफेद झक कुत पजाम म सैर को िनकले। हाथ म बत क लकड़ ¸ साथ म अनचाहा
संगी। रं ग रोड़ पर पहँु चने को ह थे क कह ं दरू से नारे बाजी और अ प वाद
ववाद के वर सुनाई दये। ये सोचकर क वे अपानी सैर पूर करके ह लौटगे¸ वे
अपने रोज के रा ते पर चल िनकले। ले कन दे खते ह दे खते¸ पूरा माहौल बदल गया।
ठाकुरजी स हल पाते इससे पहले ह जोर – जोर से ढोल ढमाके पीटते कुछ कनुमा
वाहन िनकले। उनम बैठे िच लाते हए
ु हिथयार से लैस युवा। तूफानी गित से गुजरते
उन वाहन के पीछे थी एक ु भीड़। रा ते म आते जा रहे सभी वाहन ¸ लोग पर
अपना गु सा बरसाती उस भीड़ पर पीछे से अ ुगैस ¸ ला ठयाँ भी वार कर रह थी।
सब कुछ अिनयं त सा हो चला था।

ठाकुरजी को सोचने तक का समय न िमला और अनजाने ह वे अपने ान िम के


पदिच ह पर उस अनदे खी ब ती क तंग गिलय से गुजरते हए
ु कसी टू टे – फूटे
शरण थल पर पहँु चे। ान ने उनका साथ नह ं छोड़ा था। इतनी तेजी से यह लंबी
दरू तय कर आने के कारण उनक साँस फूल रह थी। कु ा भी जीभ िनकाले हाँफ
रहा था। उस जीण – शीण से टू टे ¸ एकांत मकान क सी ढ़याँ¸ सीलन से भहराकर टू टने
को हो आई थी। धूल क परत जमी थी वहाँ। हमेशा के सफाई पसंद ठाकुरजी आज
इतने थके और सहम से थे क अपनी झक सफेद क परवाह कये बना उन गंद
सी ढ़य पर जस के तस टक गये।

उ होने दे खा¸ थका हआ


ु कु ा हाँफता जा रहा था ले कन उसने एक थान पर पंज से
िम ट खोद ¸ उस जगह को साफ कया और फर उसपर बैठ सु ताने लगा। ठाकुरजी
मु कुराने लगे। तो आज ये कु ा सफाई म उ ह पीछे छोड़ गया था।
ले कन उनक हँ सी यादा दे र तक टक नह ं पाई। भीड़ का शोर वहाँ भी आ पहँु चा
था। कब और कस व वे या कर बैठे इसका कोई भरोसा नह ं था। ठाकुरजी ने
कातर ने से ान को दे खा। वह समझ रहा था। बाहर िनकलकर वह दो तीन
सुर त से दखाई दे ते रा त पर चलने को हआ।
ु परं तु ज द ह वा पस लौट आता।
और अंत म उसने एक ऐसा रा ता ढँू ढ़ िनकाला जो उस टू टे मकान के पछवाड़े से
िनकलकर नाले के पार जाता था। ठाकुरजी अपने सारे सोच वचार ताक पर धरे उस
कु े के पीछे दम
ु हलाते चले जा रहे थे। शायद यह रा ता आगे चलकर रं ग रोड़ के
दसरे
ू छोर पर खुलता है । वहाँ से दो तीन कलोमीटर के बाद उनका अपना इलाका ह
आ जाएगा।

ले कन थोड़ा ह आगे चले ह गे¸ क दो पागल से दखाई दे ते य उनपर शक क


िनगाह रखते पीछे हो िलये। उनक टोह लेते हए
ु पीछे से वे एक भरपूर वार करने को
ह थे क वह ान गजब क फुत से उन दोन पर टू ट पड़ा। जगह – जगह पंज के
घाव और खून िलये वे दोन सर पर पाँव रखकर भागे।

ढाकुरजी तो जैसे प थर का बुत हो गये थे। कु े ने उनके धूल से सने हाथ चाटने शु
कये। उ होने कोई ितवाद नह ं कया। वह पूँछ हलाता उनके पैर म लोट लगाने
लगा¸ उनका पायजामा धूल – क चड़ से सान दया। ठाकुरजी ने कोई वरोध नह ं
जताया। उ टे वे उसे गोद म लेकर कसी न हे मु ने के जैसे लाड़ करने लगे। खुद म
हए
ु इस बदलाव पर उ ह वयं आ य हो रहा था। और हो भी य ना !

आ खर यह कु ा आज इ सािनयत म उनसे आगे जो िनकल गया था…


पोटिशयल क टमर

जोशी अंकल का वनू इन दन पास क म ट म रहने वाले उसके ममेरे दादा दाद के
यहाँ जाने म काफ िच लेने लगा है । स ह अठारह साल का वनू उन अकेले रहते
दादा दाद के िलये कभी घर का बना अचार ले जाता तो कभी गरम – गरम
पूरणपोली। वे दोन भी बड़े खुश थे। इसी बहाने उनका भी थोड़ा व िनकल जाता।
थोड़ा उसके साथ बितयाने म और उससे दगु
ु ना उसके वषय म बितयाने म।

पूछने पर वह बताता क उसी ब ड़ं ग म उसका खास दो त शांत भी रहता है म


लेकर। उसके यहाँ जाने पर दादा दाद के यहाँ भी च कर लगा आता है । वैसे शांत
से उसक कोई इतनी खास नह ं थी। बस हाई कूल म दोन साथ पढ़े थे इतना ह ।

दादा दाद भी अकेले से अपना जीवन जी रहे थे। दोन क ह त बयत वैसे तो
ब कुल ठ क ठाक थी। दादा च सठ के थे और दाद साठ के लगभग। उनके ब चे
अपन भ व य सुधारने दसरे
ू दे श म थे और उनके अनुसार ये दोन वहाँ क सं कृित¸
रहन सहन से मोल जोल नह ं बैठा पाएँगे। इसिलये जब तक वयं का सब कुछ कर
सकते है ¸ कोई तकलीफ नह ं। आगे दे खा जाएगा।

कई बार दादा दाद जब यह दखड़ा


ु फर ले बैठते तब वनू उ ह समझाता था¸ “आप
य िचंता करते है दादा! म हँू ना यहाँ आपक मदद करने को। आप तो जो भी काम
हो¸ मुझे बेधड़क बता दया क जये।” बड़े अपनेपन से कहता था वनू। दादा दाद
िनहाल हो जाते।

इसी तरह धीरे धीरे उसने इन दो मह न म दादा के पशन िनकालने से लगाकर


कराना सामान लाने¸ उनके इं योरं स क ीिमयम भरने से लगाकर बक म जमा खच
तक का काम संभाल िलया था। उसे इस तरह से काम करता दे ख उसका दो त शांत
है रान होता।
“अरे यार कोई इन दन इतना तो अपने घर के िलये भी नह ं करता¸ तू है क जुटा
रहता है यहाँ पर। कोई मतलब साधना है या?” शांत ने उसे टटोलते हए
ु पूछा था।

“बस यह समझ ले।” वनू मु कुराते हए


ु बोला था।

उस दन दादाजी को मालूम था क वनू ऊपर शांत के यहाँ आया है । वे उसके िलये


खुद जाकर उसके पसंद क ू ट आई म लाए थे । दादा दाद का वचार था क
वनू और शांत को एक साथ नीचे बुलाकर आई म पाट द जाए। इसिलये दादाजी
ऊपर शांत के लॉक क ओर बढ़ रहे थे।

ऊपर पहँु चकर बेल दबाने को ह थे क उ ह सुनाई दया जैसे दोन दो त िमलकर
उ ह ं के वषय म बितया रहे है । वे बेल बजाना छोड़ उनक बात सुनने का य
करने लगे।

“अरे बता ना यार। दे ख तू भाव मत खा या। बता तो ऐसा या है ये नीचे वाले दादा
दाद के पास जो मेरे यहाँ आने के बहाने इनके च कर लगाया करता है तू?” शांत वनू
को परे शान कर रहा था।

“अभी नह ं यार। दे ख ज द ह तुझे समझ आ जाएगा क म या करने वाला हँू ।”


वनू बात टालने के मूड़ म था। दादाजी और सतक हो उठे ।

“बता ना यार कोई लड़क वड़क हो उनके र ते म तो म भी सेवा का पु य कमाऊँ।”


शांत ने वनू को छे ड़ा।
“नह ं रे । अब तू इतना ह पीछे पड़ा है तब सुन। ये दादा दाद वैसे बड़े पैसे वाले है ।
मने इनके बक का काम या यूँ ह हिथयाया है ? और दादा अभी पसठ के नह ं हए
ु है ।
अगले मह ने म एक इं योरस कंपनी क एजसी ले रहा हँू । ये मेरे पोटिशयल क टमर
है इ हे ऐसी भार पॉिलसी बेचग
ूं ा क सारे फायदे अपने। इतने दन के संबंध के बाद
मना थोड़े ह करगे दोन बूढ़ा बूढ य ?” और वनू और शांत ताली मारकर हँ सने
लगे थे।

दादाजी को लगा जैसे उनके हाथ से अचानक कसी ने छड़ छ न ली है …


सपने

“बाबू ऽऽ! औ बाबू ऽऽ! अरे हो या घर म बाबू?”

“जाईये! आ गया भगत आपका। म मी ने बीच म ह पोथी बंद करते हए


ु कहा।

“अरे ह रराम भैया! बड़े दन के बाद दखाई पड़ रहे हो । सब कुशल मंगल तो है ?”


पताजी बड़ आ मीयता से िमलते है इस ह रराम माली से । ऐसे जैसे कोई पुराना
बछड़ा हआ
ु साथी बड़े दन के बाद िमल रहा हो। और ह रराम माली¸ वह तो बछ
बछ जाता है पापा के शहद म डू बे श द पर।

कहने को कॉलोनी के छह सात घर म बगीचे क दे खभाल का काम करता है बस।


ले कन चाय पानी क बैठक बस हमारे यहाँ ह जमती है उसक । वो भी र ववार क
सुबह। िगनकर एक घ टा।

म मी को थोड़ िचढ़ है इस माली से। और हो भी य ना। ह ते म एक दन तो


िमलता है पापा को आराम से बैठने बोलने को। उसपर सुबह का आधा घ टा ये ह
चाट जाता है । ऊपर से चाय ना ता। उसक बेिसर पैर क बात सुननी पड़ती है सो
अलग।

“ य पाल रखा है इसे अपने यहाँ? कहने को आमने सामने के दस घर म काम करता
है ले कन व काटता है हमारे ह घर। या रस आता है तु ह इसक बात म भगवान
जाने।” म मी बड़बड़ाया करती।
उस दन तो हद ह हो गई। र ववार था और मामा के यहाँ कथा का आयोजन था।
सुबह दस बजे पहँु चना था और माँ के श द म अपशकुनी के जैसा ह रराम आ टपका
था। उस दन बड़ा खुश¸ हाथ म ताजे फूल का गु छा चेहरे पर वैसी ह ताजी
मु कान।

म मी के चेहरे पर लग गया हण और ह रराम के मुख से बतरस बरसता रहा। पूरा


एक घ टा खाकर उठा था वो। पताजी भी खुश खुश थे उसे वदा करते हए।

गाड़ म मने पूछ ह िलया था उनसे¸ “ पताजी! ये ह रराम माली या कर रहा था


आज? इतनी दे र बैठा रहा। फालतू ह दे र करवा द हम।” मने कुछ कुछ म मी के
बगड़े मूड़ को टटोलते हए
ु कहा।

“बेटा! ह रराम आज एक बहत


ु बड़ जंग जीत गया है ।” वे कुछ के। हम सभी के
ाथक चेहरे दे खकर उ होने आगे कहना शु कया।

“ह रराम का बेटा आज इं जीिनय रं ग क पर ा पास करके लौटा है । एक माली का


बेटा और वो भी इं जीिनयर। इसिलये आज वह बड़ा खुश था। अगले ह ते से अपने बेटे
के पास शहर जा रहा है जहाँ उसे नौकर लगी है । यहाँ का काम काज अब उसका
छोटा भाई दे खा करे गा।”

पापा साँस लेने को के। मुझे मेरा ी इं जीिनय रं ग टे ट के िलये गॅप लेना अखरने
लगा था।

पापा कहने लगे¸ “ अब तो खुश हो ना या! ह रराम हमार र ववार क सुबह खराब
नह ं कर पाएगा कभी।”
म मी के चेहरे पर अपराधी के से भाव थे।
िम ट लौट आई

सुरे क माँ कसी कलाकार से कम नह ं थी। अपने हाथ के हनर


ु से उ होने कतने
ह चादर िलहाफ जीवंत कये। फुलकार ¸ जरदौजी¸ िसंधी टाँका¸ यहाँ तक क कागज
और कपड़ के फूल¸ खलौने ¸ िम ट के सुंदर द पक भी उनके हाथ से ज म लेकर
कसी भी प व थान क शोभा बढ़ाने म समथ थे।

अपने घर म उ होने द वार के सहारे लटकती कई आकृितयाँ लगा रखी थी। उनक
सबसे सुंदर कृित¸ कमरे के कोने म रखी हई
ु बड़ सी मूित थी। उसके हाथ म रखे हए

घट म से सुनहर चुनर बाहर िनकलती हई
ु रखी थी जो बहते हए
ु जल का सा आभास
दे ती थी। एक के ऊपर एक चू ड़याँ बैठाकर बनाया गया बेलनाकर फूलदान¸ और भी न
जाने या या था उनक कला कौशल के खजाने म।

माँ के जाने के बाद बस ये उसक कलाकृितयाँ ह थी जो उनके इस घर म जीवंत होने


का आभास दे ती थी।

एक दन सुरे घर लौटा तो उसक प ी लितका ने उसे सर ाईज दया। उसने यान


से दे खा। पूरा घर नम गुदगुदे से¸ फर वाले खलौन से अटा पड़ा था।

जाने कहाँ अपनी पूँछ छोड़ आया काला कलूटा बंदर था तो “कभी साथ ना छोड़गे” क
तज पर एक दसरे
ू से िचपके रं ग बरं गे लव टै ड़ । बड़ मूि त के थान पर एक सजीव
सा लगता जमन शेपड़ तनकर खड़ा हआ
ु था। और तो और घर के परद को भी कुछ
न हे खरगोश अपने आगोश म िलये थे।

“बस यह बाक था।” कहकर लितका ने उसके हाथ से गाड़ क चाबी छ नी और उसम
एक नैन मट का करता मछिलय का जोड़ा लगाकर उसे िनयत थान पर टाँग दया।
सुरे ने दे खा क वहाँ पहले से ह कुछ मुँह िचढ़ाती और आँख दखाती आकृितयाँ
मौजूद थी।
उसे लगा जैसे वह िमनू ब टया को कंड़रगाड़न भत करवाने ले गया था¸ वैसा ह कुछ
यहाँ आ गया है ।

इस सबके पीछे लितका का आ ट टक टे टमट था क पहले का डे कोरे शन “लाईव”


नह ं था और अब इन सॉ ट टॉयज क नम दे ह और मासूम मुखमु ा एक कार क
वाम फ लींग दे ती है ।

सुरे ने कुछ भी नह ं कहा।

फर उसने दे खा क लगभग छ: मह ने इस वाम फ लींग के साये तले रहकर¸ उसक


बचपन से गु ड़याओं के बीच पाली बढ़ बेट अचानक खुद को बड़ा समझने लगी है ।
माँ के नकारा मक ख क परवाह न करते हए
ु भी अपनी अिभ य य को पॉटर ज
लास म जाकर आकार दे ने लगी है ।

सुरे खुश होने लगा।

बेट क दे शज कलाकृितयाँ गुदगुदे बनी टै ड के बीच जगह पाने म सफल रह ।

कसी भी तर के से हो¸ घर म िम ट लौट रह थी।

घर खुश था…
िच ड़याघर

हरन के पंजरे म आज यौहार का सा माहौल था। एक न हा सा मृगछौना वहाँ


ज मा था। चीतल जाित का ये हरन य द व थ और सुंदर िनकलता है तो
िच ड़याघर क शान बढ़ जाएगी। पशु िच क सक से लगाकर एनीमल फ डर और कई
व य जीव ेमी सं थाएँ इसम िच ले रह थी।

सामा य से कुछ कम वजन का वह न हा हरन शावक बेसुध सोया था। उसके आस –


पास छायाकार ¸ रपट लेखक और व य जीव ेिमय क भीड़ थी। हरनी माँ¸ इस
बरसते सुख क छाँव तले नर के साथ बैठ ¸ थक हई
ु सी¸ इस य को दे खते हए

वा य लाभ ले रह थी। उसके खान पान और दवाइय का वशेष यान रखा जा
रहा था।

हरन के पंजरे के पछवाड़े एक गंदा नाला बहता था। उसी के पास क एक सूखी और
आरामदे ह जगह पर एक कुितया ने भी एक साथ आठ ब च को ज म दया था।
दोन जानवर को इ सान से िमलते इस अजीब यवहार को दे खकर आ य होता था।

हरनी तो खैर पंजरे म रहते हए


ु इस तरह के जीवन क अ य त हो चुक थी।
कुितया को उसे दे ख दे ख कर है रानी होती थी। इसने ऐसा आ खर या कर िलया है
जो इतनी सेवा सू ष
ू ा पा रह है ? इतनी कवायद करने के बाद भी ज मा तो एक ह
शावक था ना उसने? और कुितया ने तो पूरे आठ आठ जीव एक साथ जने है ।

इस तरह क वड़ं बना वह पहले भी दे ख चुक थी। इ सान का दमाग उसे कभी भी
समझ नह ं आया था। कुितया बैठ सोचा करती। इसी बीच नाले का गंदा पानी कभी
कभी सरकार क अित मण हटाओ मु हम के अफसर के जैसा उसक ममता पर
क जा करने आता। वह न हे ¸ बंद आँख के जीव िलये एक थान से दसरा
ू थान
बदलती रहती।

उस दन कुितया वशेष सतक थी। उसके न हे अब अपने कोमल पैर से आगे – पीछे
सरकने लगे थे। और उनक इन गित विधय से आक षत हो दो गली के ब चे इस
टोह म थे क कब इनम से एकाध हाथ लग जाए। वह दन भर उ ह भ क कर¸
गुराकर वहाँ से भगाती रह थी।

ये सब करते करते अब कुितया थकने लगी थी। सोचने लगी क काश एकाध पंजरा
उसे भी नसीब हो जाता तो इन न ह क िचंता न रहती। ले कन पता नह ं ये इ सान
भी या अजीब ाणी है । जाने उस हरनी के एक ब चे पर इतनी कृपा य बरस रह
है । उसक हरनी माँ दे खो कैसी सार िचंताओं से दरू सो रह है । उसे ना वयं के
खाने क िचंता है और न ह ब चे के िलये खाना ढँू ढ़कर लाना होता है ।

कुितया ने एक आह भर । काश क उसके ब चे भी हरनी के न हे के जैसे भा यवान


होते!

तभी नाले पार के पंजरे से एक चीख उभर । कुितया ने उठकर दे खा¸ दो मनु य न हे
मृगछौने को जबद ती उसक माँ से अलग पंजरे के बाहर ले गये । यह नह ं उ होने
उसे एक नुक ली सी सूई भी चुभो द ।

हरनौटा दद से बल बला रहा था। उसक पंजरे म बंद हरनी माँ असहाय सी
ितलिमला रह थी।

कुितया ने आठ जीव अित र सावधानी से अपने क जे म िलये और चैन से सो गई।


अधर

आज रतेश और यंका बड़े खुश थे। खुद क मेहनत के बल पर उ होने शहर के


सबसे महँ गे और पॉश कहे जाने वाले इलाके म एक अ याधुिनक लैट खर द िलया
था। बीसवीं मं जल पर बसा उनका ये नया आिशयाना सचमुच बड़ा खूबसूरत था।
चौबीस घ टे क वी डयो कैमरा और वॉईस फैिसिलट से सुस जत िस यु रट ¸ एक
पावर टे शन¸ ाईवेट बस टॉप¸ पाक¸ जम¸ पूल¸ ले जोन¸ या नह ं था वहाँ!

रतेश को सबसे यादा पसंद आई थी उसके लॅट क सी यू गैलेर । कतना


मनमोहक य दखाई दे ता था वहाँ से ! आज तक वे ाऊ ड लोर क इस छोट सी
पुरानी जगह पर रहते आए थे।

यंका को तो जैसे पर लग गये थे। नये घर क सजावट¸ बुक शै फ¸ कट स¸ फन चर


और बी न जाने या या था उसक िल ट म।

अनमना सा कोई था तो उनका पाँच वष का शांत। उसे ब कुल भी समझ म नह ं


आ रहा था क इस जगह को छोड़कर वे आ खर उस इतनी ऊँची इमारत म य रहने
जाएँगे? उसक िचंता भी वा जब थी। उसक सबसे अ छ साथी यानी उसक दहलीज
पर दाना चुगने आती िच ड़या अब भूखी रहा करगी।

उसने एक बार नये घर म जाकर दे खा था। कोई भी पेड उसके घर क बराबर नह ं


कर पा रहा था। तो या ये सब भूल जाना होगा उसे?

“ या बात है शांत? दे खो म तु हार मनपसंद काटू न सी ड लाया हँू ।” रतेश ने उसे


मनाते हए
ु कहा। शांत ने कोई जवाब नह ं दया।
तभी जोर जोर से खाँसती यंका अंदर आई। “ पछली गली म कचरे के नाम पर या
या जलाते है ? दम घुटने लगता है कभी – कभी।”

“कुछ ह दन क तो बात है डयर! फर तो हम इतने ऊँचे चले जाएँगे क तुम बस


दे खती रहना।” शांत ने सपनीली आँख से उसे दे खा।

“सचमुच! मुझे तो ऐसा लग रहा है क कब ये कबाड़खाना छोडकर वहाँ िश ट ह गे


हम। कतना साफ¸ पो यू शन ¸ एकदम हाई सोसाईट फ ल के जैसा।” यंका को
अपना य वषय िमल गया था।

दोन ने दे खा क इस नये घर को लेकर शांत उतना उ सा हत नह ं है जतना क


उसे होना चा हये।

“ शांत! बेटा हम थोड़े ह दन के बाद अपने नये घर म िश ट होने वाले है । य न


हम तु हारे यहाँ वाले दो त के िलये एक पाट अरज कर?” यंका ने उसे टटोलते हए

पूछा।

“और फर शांत¸ नया घर तो बड़ ऊँचाई पर है वहाँ से सब कुछ कतना अ छा


लगेगा है ना?” रतेश ने उसे मनाते हए
ु कहा। दोन ह उसक ित या दे खना चाह
रहे थे।

“ले कन पापा!”

“बोलो बेटा!”
“वहाँ पर न तो कोई पेड़ पौधे रहगे¸ न पंछ । ये सब बहत
ु नीचे होगा। और न ह हम
चाँद तार को छू सकते है ¸ ये बहत
ु ऊपर होगा। ऐसी बीच वाली टे ज को तो अधर म
लटकना कहते है ना?”

दोन के पास कोई उ र नह ं था।

उधर आँगन म¸ चावल के दान पर अपना हक जताती एक िचया चहचहा रह थी।


ड चाज से ट फे शन

“दे खये म हो ा जी ! मॅडम के र पॉ सेस तो ठ क है ले कन अभी मेरा से ट फे शन


लेवल तो नह ं बोलता क ड चाज दँ ।ू आगे आपक मज !”

“दे खये डॉ टर साहब! मधु को तो मने पूरा – पूरा आपके भरोसे कर रखा है । उसक
बीमार य पकड़ म नह ं आ रह है इसक िचंता तो मुझे भी है । आप तो अपने
हसाब से उसका इलाज क जीये।”

“ठ क है । तो फर ये कुछ टे ट करवाने ह गे उनके। और याद रहे ! िसफ य


े ा
पॅथालॉजी म ह ।”

“जी”

…………………

“ य
े ा लॅब से बोल रहे है ?”

“जी! क हये!”

“मॅडम से बात करवाईये। म डॉ झा बोल रहा हँू ।”

“जी!”
“है लो डॉ झा! क हये¸ कसक इ ट मेशन है इस बार?”

“मॅडम! आपको न िसफ पॅथालॉ ज ट ब क टे लीपॅिथ ट भी होना चा हये था। कतनी


खूबसूरती से मन क बात जान लेती है आप! जवाब नह ं।”

“क हये ना! कौन है इस बार?”

“िम टर म हो ा। उनक प ी के कुछ सप स आऐंगे आपके पास। रपो स से


ड चाज से ट फे शन ह ते भर आगे बढ़ जाना चा हये। आई वल बी व कग फॉर
फ ट न पसट।”

“ योर! ड़न!”

म हो ा साहब बेटे को फोन लगा रहे थे।

“बेटे! त बयत यादा खराब है । बीस क यव था और करनी होगी।”

जुगत

“अरे शमा बंधू सुना तुमने?” प रहार बाबू तंबाकू मलते हए


ु कहने लगे।

“अपने ीवा तवजी तो अंदर हो गये। आज के अखबार म¸ पकड़कर ले जाते हए


ु का
फोटो है उनका।”
“ले कन ये गँवई भी आजकल बड़े चालाक हो चले है । वो कसिनया नह ?ं नोट म रं ग
लगाकर ले आया प ठा!” शमाजी क मुखमु ा दशनीय थी।

“तुम भी स हलकर रहना भैये। “डाईरे ट” म हो। अपना तो पसटे ज वाला वभाग है ।
िमल गये तो ठ क¸ न िमले तो ठ क। िसर पे ठ करा नह ं फूटने का। अपनी पहले से
ह जुगत िभड़ है ।” प रहार बाबू खुश हो िलये।

“हाँ खैर! आपका काम अलग है ।” शमाजी अनमने से होकर कुछ जुगत िभड़ाने लगे।
इन दन उनके घर म बेट के याह क तैया रयाँ चल रह थी। दो तीन मोटे ाहक
से उ होने काम करवाकर दे ने के बदले म हॉल¸

गाडन¸ हलवाई आद क सै टं ग भी कर रखी थी।

“ले कन इस तर के से चलता रहा तो भार पड़े गा।” वे मन ह मन बुदबुदाए। तभी


उनक नजर अखबार के एक छोटे से शीषक पर पड़ । “कमचार थानांतरण शी
संभा य।” जाने या सोचकर वे मन ह मन मु काने लगे थे।

दो तीन ह त के बाद प रहार बाबू के हाथ उनका थानांतरण प आया। उनक


बदली “डाईरे ट” वाले थान पर कर द गई थी। और अब उनके पसटे ज वाले थान
पर आने वाले थे शमा बंधु।

“सबक िमली भगत है ।” प रहार बाबू दाँत पीसते रह गये…


सूट

वदे श म याह बेट तीन साल बाद मायके लौट तो घर म जैसे खुिशयाँ बरस पड़ ।
हर कोई उससे बात करने¸ क से सुनने और उसके साथ रहने को आतुर था। ले कन
बेट थी क अपने नखर से ह उबर नह ं पा रह थी।

“ऊफ! कतनी गम है यहाँ।”

“मेरे िलये तो बस िमनरल वॉटर। पता नह ं अब ये सूट करे या नह ं।”

“इतना सारा खाना य बना िलया है ? वहाँ तो ये क चर ह नह ं चलता। इतना सब


कुछ तो हम लोग पाट ज के िलये भी नह ं बनाते।”

“म मी! कतना वेट गेन कर िलया है आपने? वहाँ होती तो सबक टोकाटोक सुनकर
जम शु कर दे ती अभी तक।”

सबके उ साह पर पानी फेरती हई


ु ब टया वहाँ के ऐ य और यहाँ क अनहाई जिनक
क ड श स को तौलती रहती। दो दन बाद जब “वहाँ” का बुखार उतरा तब माँ से
बोली¸ “माँ! तु हारे हाथ के आलू के परांठे और मटर पनीर खाना है ।”

“मने तो तेरे आने क खबर सुनते ह सोच रखा था ले कन तेर बात सुनकर लगा क
अब तुझे सूट करे गा या नह ?ं ”
“वहाँ पकाकर खलाने को माँ नह ं होती कह । शायद इसीिलये सार असली चीज सूट
नह ं होती माँ। अब मुझे यहाँ सब असली और शु खलाकर प का नह ं बनाओगी
या?”

माँ के हाथ म थी मटर क फिलयाँ और आँख म मोती…

इ टॉलमट

“अरे बाई! जरा दरद सहन कर। य िच लाती है ? दे र है अभी।” गीताबाई ने ेम से


उसके िसर पर हाथ फेरा।

इस अ पताल म ह उनका जीवन गया था। जाने कतनी ह ज चाओं को¸ उनके हाथ
म गु डे गु ड़या थमा खुशी – खुशी घर भेज चुक थी।

डॉ वै क भरोसेमंद दाई थी वे। हड़बड़ या ज दबाजी म उ होने कभी कोई िनणय


नह ं िलया। रात – रात भर ह य न जागना पड़ा हो¸ उनका दबाव हमेशा ह सामा य
सूित क ओर ह रहा करता था। । बहत
ु यादा खतरा होने या दे र हो जाने पर ह वे
कसी गभवती क सूित ऑपरे शन से करवाती।

इन दन उनक बहू भी अ पताल म आने लगी है जो क वयं भी ी रोग वशेष ा


है । उसके आने के कारण डॉ वै ने अ पताल आना काफ कम कर दया है । बहू ने
आते ह सारे अ पताल का कायक प करवाया। खुद के के बन म ए सी¸ नये
इ यूपम स¸ यं ¸ आधुिनक साजो सामान आद सब कुछ “हॉ पटल इं ूवमट लोन” क
रािश के अंतगत िलया था।
हालाँ क डॉ वै इसके प म नह ं थी। य क इस खच के चलते उ ह अपनी फ स
बढ़ानी पड़ थी जसके कारण उनक बरस पुरानी मर ज आजकल अपनी बहू बे टय
को उनके पास लाते हए
ु कतराने लगी थी। एक दो बार उ होने अ य प से यह
बात बहू से कह भी थी । ले कन बहू ने यह कहकर उ ह चुप करा दया था क
उसके पास कमाई के दसरे
ू तर के भी है । पूरा जीवन ी राग वशेष ा के प म बता
चुक डॉ वै असमंजस म ज र पड़ थी ले कन उ होने बहू से कुछ कहा नह ं। आ खर
आगे ये सब कुछ उसे ह तो स हालना था।

उनके आ य का ठकाना न रहा जब कुछ मह न के बाद ह उनक बरस पुरानी


गीताबाई¸ बना कसी प कारण के तड़क फड़क नौकर छोड़ गई।

त बयत थोड़ िगर हई


ु सी रहने लगी थी उनक । बावजूद इसके वे उस दन अ पताल
गई। वे पहँु ची ह थी क उनसे ण भर पूव अिभजा य वग का एक प रवार
अ याधुिनक गाड़ से उतरा। एक बाईस तेईस साल क गभवती युवती¸ उसके पित¸
सास¸ ससुर आद । अनुभवी डॉ वै उस युवती को दे खते ह जान गई क इसे ह ते
प ह दन तक कुछ नह ं होने का¸ ह के दद उठ रहे ह गे बस।

ले कन वे हत भ रह गई ये दे खकर क उनक बहू ने उसे अपने के बन म बमु कल


पाँच िमनट जाँचा परखा और इमरजे सी केस घो षत कर ड़ाला! सारा प रवार सकते
म। एक सद य मोबाईल से जाने कस कस को फोन करने लगा। दसरा
ू अ पताल के
काऊ टर पर नोट क ग डयाँ रखने लगा और दे खते ह दे खते उस सामा य सी
दखाई दे ती लड़क क ऑपरे शन वारा सूित करवा द गई।

डॉ टर वै बहू के ए सी के बन म पहँु ची तब वह सब से बेखबर¸ कसी से फोन पर


बितया रह थी।
“अरे अब कोई सहन करने क तकलीफ से बचना चाहे तो इमरजसी ड लयर करनी
ह पड़ती है । एनी वे! इस बार का लोन इ टॉलमट तो पूरा पक गया। तू सुना!”

डॉ टर वै को काटो तो खून नह ं। ये था उनक व त गीताबाई का नौकर छोड़ने


का कारण और का बल बहू का पैसा कमाने का नया तर का…

हक

“ज द करना सारा! पाट शु होने म घ टा भर ह बाक है ।” अ नी ने फट से फोन


पटका और तैयार होने के िलये कमरे म बंद हो गई।

िनयत समय से दस िमनट पूव अ नी के घर पहँु ची शालीन िलबास म िलपट सारा


को अ नी के तैयार न होने के कारण प ह िमनट और कना पड़ा।

“वॉओ ! लु कंग ेट। यार तुम इतनी ज द कैसे मनेज कर लेती हो सारा! मुझे तो
े स डसाईड करने म ह आधा घ टा लग जाता है ।” अ नी ने पूछा।

“मेरे िलये ये काम मेर म मी कर दे ती है अ नी।” सारा ने सरलता से कहा।

“ या मतलब? यानी तुम पाट म या पहनोगी ये डसीजन भी अभी तक तु हार


म मी लेती है ? बी म योर सारा! या तु ह सूट करता है उनका चॉईस?” अ नी ने
कह तो दया फर जीभ चबाई क उसने ह सारा को अ छे लु स के िलये अभी
कॉ पलीमट दया है ।
सारा गंभीर हो उठ । “ ज होने ये जंदगी ह मुझे िग ट क है ¸ वे या मेरे िलये ेस
चुनने म गलती करगी अ नी? म तो इसे उनका राईट कहती हँू ।”

अब अ नी को अपनी पोषाक जाने य ¸ कुछ यादा ह बदन उघाडू लगने लगी थी।
दे शभ

पूरा घर अंशुल के इद िगद जमा था। उसने र ा अकादमी क पर ा उ ीण क थी


और अगले मह ने से उसे े िनंग पर जाना था।

“आपक माँ के थे चार – चार बेटे। सो एक का फौज म जाना सुहाया होगा उ ह। मेरा
एक ह द पक है । म नह ं भेजने क इसे पूना।” माँ का क ठ अ आ
ु हो उठा था।

“ले कन माँ! अंशुल क मज जाने बगैर आप अपने इमोश स उसपर थोप तो नह ं


सकती ना?” बहन अ दती तुनककर बोल पड़ ।

“और फर म हँू ना यहाँ आपके पास।” अ दती ने आगे कहा।

“तुम चुप रहो अ दती। अजी आप कुछ भी नह ं कहगे या?” माँ ज द से ल द


िनणय चाहती थी।

पापा वह ं कमरे म च कर काट रहे थे। जैसे कुछ सोच रहे हो। उनके िलये भी तो
िनणय लेना टे ढ़ खीर था। बरस पुरानी फौजी परं परा रह है गर म और अब इकलौता
अँशुल। उनका भी कलेजा मुँह को आ रहा था। ले कन िनणय जो भी कुछ हो¸ इस व
दल से नह ं दमाग से लेना ज र था जससे अँशुल का भ व य और प रवार क
परं परा दोन ह सुर त रह सके। शाम को अ दती मुँह बनाए लॉन म टहल रह थी।
उसे अचानक एक तरक ब सूझी।

दो दन के बाद माँ के हाथ म एक पच थी और अंशुल घर से गायब! कसी


सहपा ठनी से ववाह क बात िलखकर सारे घर को सकते म डाल गया था।
माँ वो िच ठ पढ़ती और रोती जाती।

“जाने कौन चुड़ैल है जो मेरे ह रे से लाल को ले गई अपने साथ! ये भी या उ है ये


सब काम करने क ? कहाँ तो म सपने सँजोए थी इसके आनेवाले कल के िलये और ये
है क हमारे मुख पर कािलख पोत गया है ।”

अ दती और पापा दोन तट थ थे। अँशल


ु घर से गायब।

“आपको कोई फक नह ं पड़ता है या? अब हम समाज म या मुँह दखाएँगे? या


कहगे क हमारा बेटा कसी लड़क के साथ भाग गया? जाने या होगा अब! इससे तो
अ छा था क वो पूना ह चला जाता।”

माँ वलाप करती रह । अ दती ने अँशुल का सामान बाँधना शु कया। पापा ने अँशल

के दो त के घर फोन कया।

“अँशुल! तु हारे कल का फैसला हो चुका है । तुम पूना जा रहे हो। ज द घर आ


जाओ।”

आरोप

“दे खो दनेश! ये इस तरह से दन भर घर म तु हारे दो त का जमघट मुझे पसंद


नह ं है । पढ़ाई पूर कर चुके हो तो काम काज शु करो कुछ। और ये तो तुम जानते
ह हो क इनके बीच सर उठाकर य रह पाते हो तुम!”

बाबूजी का फर वह राग सुनकर दनेश का मुँह कसैला हो आया। अब फर वह दो


साल पहले का आरोप उसपर मढ़ा जाएगा। उसने बाबूजी क दराज म से पाँच हजार
पये िलये थे। अपने िम को उसक माँ क बीमार म दे ने के िलये। ले कन रं गे हाथ
पकड़ा गया था।

तब बाबूजी ने उसे घ ट क डाँट फटकार और समझाईश के बाद माफ कया था। तब


से आज तक¸ हर ह ते प ह दन म इस घटना का ज उसके सामने कर ह दे ते
थे।

चूँ क अब दनेश बड़ा हो गया था। इन आरोप से ितलिमला उठता था। आज भी इस


बना वजह क असमय डाँट उसे गु सा तो दला दया था ले कन वह गम खा गया।
ले कन बाबूजी कहते ह चले।

“कदम बहकने लगे थे तु हारे । याद है ना सब कुछ? म माफ नह ं करता तु ह और


पुिलस को तलाशी म तुमसे पये िमल जाते तो सोचो या अंजाम होता था!”

“जो भी होता बड़ा अ छा अंजाम होता बाबूजी!” अब दनेश फट ह पड़ा था।

“आपने पये चुराते हए


ु मुझे रं गे हाथ पकड़ा था ना? अ छा होता य द आप मुझे
पुिलस के हवाले ह कर दे ते। अरे पाँच हजार चुराने क सजा या होती? यादा से
यादा साल भर ना! ले कन आप जो मुझे हर कसी बात पर सलाख के पीछे ड़ाल
दे ते है ¸ उससे तो लाख गुना अ छ होती। आप यह चाहते है ना क आपक द हई

इस माफ को म जंदगी भर नह ं भूल?ूँ ले कन आपक यह इ छा आपका कद और
कम कर दे ती है । काश क इस एक गलती क सजा म काट आया करता। आप यूँ
व बेव मुझे कटघरे म न खड़े करते।”

दनेश धड़ाक से दरवाजा खोलकर बाहर िनकल गया। बाबूजी मुँह फाड़े उसक बात
सुनते रहे ।
तभी पीछे से माँ आ िनकली। बाबूजी को जैसे ितनके का सहारा िमला हो।

“दे ख रह हो भा यवान! हमारे सपूत के ल ण! कैसे बात बनाने…”

“कोई गलत बात नह ं कह उसने।” माँ ने बात काटते हए


ु कहा।

“लड़का बड़ा हो गया है । कद म बराबर आने लगा है । आप चाहते है क उसे एक


गलती के िलये माफ करके आपने कोई कला फतह कर िलया है जसका बोझा वह
बेचारा जंदगी भर उठाए घूमता रहे ?” माँ का चेहरा तमतमा उठा।

“उसक यह गलती हई
ु ना क वो पकड़ा गया? गनीमत सम झये क आपके पताजी
नह ं जानते क आपने उनके द तखत क नकल करके कतनी ह बार अपनी गाड़
खींची है । बस पकड़ा गया ह चोर नह ं होता।”

और बाबूजी पहली बार पकड़े गये थे।


पता नह ं

“पता नह ं इन हवाओं का ख कब बदलेगा¸ कब हमारे दन फरगे। लगता है जैसे


भगवान का यान ह कह ं और है ।”

“ऐसा कहते हए
ु तुम अपनी खुद क ताकद को य भूल जाते हो? तु ह हाथ – पैर
मेहनत करने के िलये िमले है । ये दमाग चलाकर काम करने के िलये िमला है और
…”

“अब बस भी करो ये लंबी चौड़ हाँकना। खुद तो चाँद का च मच िलये ज मे हो।


छोड़ य नह ं दे ते इस दौलत को और खुद य नह ं पसीना बहाकर अपनी जंदगी
जीते? खाने – पीने¸ पहनने ओढ़ने क िचंता न हो तब ह सूझती है ऐसी दाशिनकता।”

“तुम या समझते हो म इस तरह क मेर जंदगी से खुश हँू ? कतनी भी मेहनत


करने के बाद भी तो यह सब कुछ सुनना पड़ता है क बरस पुरानी जायदाद है उसे
ह आगे बढ़ा रहे है । अपना तो जैसे कोई वजूद ह नह ं है ।”

“वजूद बनाना पड़ता है । जमीन जायदाद के जैसा वो भी वरासत म नह ं िमला करता।


नकल के आद हो जाते हो तुम सब। जैसा बाप दाद ने कया¸ बस दोहराने लगे।”

“तुम सब होते ह ऐसे हो। मेरे पापा ठ क ह कहते है । तु हारे भा य म सुख सु वधाएँ¸
धन दौलत नह ं है ना इसिलये जलते हो। खुद तो कुछ कर नह ं पाते और हम नाम
धरते हो।”
“दे खा तुमने? तु हारे वचार भी तो तु हारे अपने नह ं है । पछली पीढ़ के वचार लेकर
नई पीढ़ से लड़ोगे तो हार जाओगे बाबू। तकलीफ है इस दिनया
ु से तो िनकल आओ
धन दौलत क गुदगुद दिनया
ु से बाहर। खुद सवाल करो ऊपरवाले से और फर दे खना
जवाब कैसे नह ं िमलता।”

“तु हार बात तु हारे पास ह रहने दो। जाने कब सुधरोगे तुम लोग। इसी तरह से पैसे
– पैसे को मोहताज होते हए
ु अपने भा य को रोते रहोगे।”

ये कहते हए
ु किथत धिनक िनकल पड़ा था या शायद भाग रहा था स चाई से।

उसे अपनी ेयसी से िमलने जाना था। मन हआ


ु क उसके िलये खुशबूदार रजनीगंधा
ले चले। ले कन याद आया क उसके धना य प रवार म कोई भी पांच रोज से नीचे
नह ं उतरा था। बनावट और उधार सोच के साये तले पलता यह उस धिनक का
तीसरा ेम था जसम उसने ढ़े रो पर यूम¸ सॉ ट टॉयज¸ ईय रं स¸ ेसलेट¸ फूल¸ काड
आद यौछावर कये थे।

फर भी एक धुकधुक सी लगी रहती थी क पता नह ं कब¸ या कहाँ बगड़ जाए।


उनका सारा व “ लीज”¸ “इफ यू ड़ ट मा ड़”¸ “आई वल क प फेथ ऑन यू”¸ “म
लेट हो गया इसिलये चॉकले स” और “हमार मुलाकात क मंथली एनीवसर है
इसिलये डनर” जैसे छुईमुई नु पर¸ इस र ते को जलाए रखने म बीतता था।

उधर फ कड़ दाशिनक आदमी ने अपने सात वष पूव के अख ड़ ेम से कहा¸ “अब


उपहार नह ं हम दोन के म य। बस म ह हँू तु हार हर उमंग और अपे ा का उ र!”

ित या म उसके ेम क आँख म था अपनापन और स मान¸ खरे सोने सा।


जसका कसी कैरे ट या तोले माशे म कोई मू य नह ं था…
घर

दसरे
ू ¸ तीसरे और चौथे माले पर रहने वाली िमसेस शमा¸ िमसेस गु ा और िमसेस
ितवार । ट न ह कुछ समय के िलये अपने बेटे बहओं
ु के पास रहने के िलये आई थी
सो उनक दोपहर क मह फल जमा करती थी।

िमसेस शमा कहती चली¸ “मेर बहू भी या लड़क है ? काम से लौटते हए


ु पक हई

चपाितयाँ और साफ क हई
ु स जी ले आती है । घर आकर प ह िमनट म खाना
तैयार। आग लगे ऐसी रसोई को। हम लोग ने तो हमेशा से घर का पका खाना ह
खाया हे । बुरा तो लगता है ले कन या कर!”

“आपको कम से कम घर का पका कुछ तो िमलता है िमसेस शमा !” िमसेस गु ा ने


कहा।

“ हमार बहरानी
ू तो ऑ फस से आते हए
ु दो – दो यूश स करती आती है और साथ
ह ट फन बी ले आती है । दाल म िभगो िभगो कर रो टयाँ हलक से नीचे उतारनी
पड़ती है । बुरा तो लगता है ले कन या कर?”

अब कायदे से िमसेस ितवार को अपना अनुभव बाँटना चा हये था परं तु वे शू य म


तकती बैठ थी। आ खर िमसेस शमा ने टोका¸ “ य िमसेस ितवार ! आपक बहू तो
घर पर ह होती है । आपक तो अ छ कटती होगी।”

भार आवाज म िमसेस ितवार बोली¸ “मेर बहू तो मेरे आते ह पूरा घर और मेरा बेटा
ह मेरे भरोसे छोड़ अपने मायके चली जाती है … अ छ कटती है मेर ।”

और वे उठकर चलने लगी। घर म बड़ा अँधेरा था।


फक

“अरे रमा! कतने दन बाद दे ख रह हँू तुझ।े आ¸ जरा बैठ और सुरेश कहाँ है? टं कू
बबलू भी आए है ना?” ब नी चाची बड़े हलास
ु से अपने दे वर दे वरानी और उनके
प रवार क आवभगत कर रह थी। ब चे डरे सहम से थे। ब नी चाची का पोता जब
भी घर म होता¸ उ ह कसी भी खलौने को हाथ नह ं लगाने दे ता। उनसे सीधे मुँह
बात भी नह ं कया करता। ले कन आज वो नह ं था। बहू मायके गई हई
ु थी।

ब नी चाची का उ साह रोके नह ं क रहा था। चाय ना ते से लगाकर बरस पहले


क सी ग प भर बैठक। फर उ होने बनाया हआ
ु ढे र से पकवान का खाना। रमा को
हाथ तक नह ं हलाने दया था उ होने। सब कुछ कैसे फुत से बना परोस रह थी।
आ ह कर खला रह थी। गरम पूर ¸ भ जये¸ तीन चार स जयाँ¸ पापड़¸ दाल¸ कढ़ ¸
मीठा¸ रायता¸ चटनी¸ सलाद¸ अचार… या नह ं था खाने म? उसपर भी न हा बबलू
मचल गया तो उसे हाथोहाथ पनीर के पकौड़े तलकर दये थे।

रमा और सुरेश को ये माजरा कुछ समझ नह ं आ रहा था। यूँ तो घर म पैर धरते ह
आँखे चुराती हई
ु ब नी चाची¸ जबद ती मु काती और बहू का गुणगान उसके ह
गु सैल मुख पर करती ब नी चाची¸ हमेशा खाने म सूखे से और नाममा के पदाथ
परोसती ब नी चाची को अचानक हो या गया था? वे दोन अनमने भाव से इस
अल य आग य का सुख उठाते रहे ।

दन भर के िलये बुलाया था उ ह। शायद कोई कारण होगा। कुछ कहना चाहती होगी।
हो सकता है पय क ज रत हो। नाना कार के वचार यहाँ आने से पहले दोन के
मन म घर कर गये थे।
खाना खाकर फर लेटे लेटे ग प का दौर चल पड़ा। नई पुरानी¸ र ते नात क ¸ दोपहर
वाली रसीली बात। ब चे भी अब खुलकर खेलने लगे थे। धरे – धीरे सभी ऊँघने लगे।

अचानक चार बजे चाची उठ बैठ । बचे हए


ु खाने का सामान कर ने से ला टक क
थैिलय म भरकर सामने क चौ कदा रन को दे आई। यहाँ तक क पू रय का बचा
आटा¸ भ जये का घोल तक बाँट आई। बड़े बड़े बतन अलमार म धर दये। रसोईघर
ऐसा दखाई दे रहा था जैसे दन भर से यहाँ खाना ह न बना हो। फर वे झटपट
चाय बना लाई।

रमा कौतूहल से उनके ये सारे या कलाप दे खती रह । वो चाय पीते हए


ु पूछ ह बैठ
इसका कारण। “भाभी! ये सब कुछ बाई को य दे दया? सब कुछ तो खाने लायक
था?”

चाची का चेहरा गंभीर हो उठा¸ “पाँच क े न से बहू आ रह है । उसे मालूम हआ



तो…”

और वे पुन: वैसी ह कठोर हो उठ । जाने या या¸ कहाँ कहाँ दरक गया था।

रमा फुत से उठ । चाय के बतन साफ कर¸ प छकर जगह पर रखे। ब च को तैयार
कया। ठ क पाँच बजे चार दरवाजे पर पहँु चे।

“भाभी! अब चलते है ।”
चाची बहत
ु चाहती थी उ ह रोकना ले कन उनके कटे हाथ आज रमा ने दे ख िलये थे।
परं तु उनका एक मन आज सुखी था। अरसे बाद¸ कुछ मन का कर पाई थी वे। बस
मु कुराकर रह गई।

दोन ओर के नयन भीग गये थे…

“अब म ऐसा या क ँ जो तुम खुश रहोगी?”

सुधीर हड़बड़ाकर उठ बैठा। माथे पर पसीने क बूँद। तेजी से चलती हई


ु साँस। ड़रा
हआ
ु सा अंतमन। म त क म असं य लहर का उतार चढ़ाव। उसने घड़ दे खी¸
रात के दो बज रहे थे।

“ये र मी के खयालात! नींद भी जकड़े बैठे है ।” और उसके सम ¸ च पई आभा क


मिलका¸ साधारण नैन न श वाली ठगने कद क युवती सजीव हो उठ । यह है र मी।
उसक नई लायंट।

अपने वकालत के पेशे म सुधीर रोजाना कतने ह अजीबोगर ब य व से िमला


करता था। विच प र थितय से दो – चार हआ
ु करता। वयं संयु प रवार से होने
के कारण पा रवा रक मामल क ज टलता से वह सहज प रिचत था। कई ासद
प र थितय म जीती हई
ु म हलाओं को उसने धीरज बँधाया था। उनके प रवारजन को
समझाईश दे कर बदलाव लाने म भी सफल रहा था। बेट के घर आ जाने से दखी
ु माँ
– बाप उसके दरवाजे आते और माथे क सलवट के थान पर चेहरे क आसभर
मु कान ले लौटते। टू टन क कगार पर खड़े कतने ह घर दे आज उसके यास के
कारण मजबूती से तने खड़े थे। कई बार उसे अपनी इन उपल धय को दे खकर¸ लोग
का उसके ित कायम व ास दे खकर आनंद होता। आ खर जस उ दे श को सामने
रखकर वह वकालत जैसे ज टल पेशे से जुड़ा था¸ वह कुछ हद तक पूरा होता दखाई
पड़ता था।

इसी संतु जीवन म दो साल पहले कमल चरण से आई प ी रे णु ने एक नवीन


उजास¸ उ लास और पूणता भर द थी। वैचा रक तर पर उसे भी कई बार रे णु क
आकलन श का लोहा मानना पड़ा था। ऐसे अवसर पर वह उससे यह कहा करता
क रे णू को ह उसक जगह पर वकालत के िलये आना चा हये था।

रे णु हँ सकर रह जाती। उसे तो शौक था केवल व ा दान करने का। कतने ह गर ब


व ाथ उससे अपनी शै णक सम याओं का समाधान पाते। धन के लालच म न
पड़ते हए
ु सुधीर और रे ण¸ु एक दसरे
ू के पूरक बने हए
ु कतने अ छे से जी रहे थे।

और उ ह ं दन ¸ आज से लगभग साल भर पहले¸ र नी¸ एक कंकड़ के जैसी सुधीर के


िच म आ िगर थी। शू य म तकती आँख¸ अपने आप म ह गुम¸ दिनया
ु से त सी
र नी। प चीस साल क थी। पो ट ॅ युएट। घर म सबसे छोट । वाभा वक ह उसके
माता पता उसका ववाह कर बर ज मे होना चाह रहे थे। अब इसम उनक तो कोई
गलती नह ं थी। ले कन र नी को उनके इन ववाह संबंधी यास म अपने खलाफ
कसी क म क सा जश नजर आती थी।

कभी – कभी वह अपने ऑ फस के सहकिमय से नाराज रहती। यदा कदा वह अपने


नैरा यपूण वचार से सुधीर के मन म भी अवसाद भर दे ती थी¸ जो धीरे से रे णु तक
पहँु चते हए
ु माथे पर ाथक सलवट छोड़ जाता था।

असल म र नी आई थी सुधीर के पास एक सलाह माँगने। या वह अपने माता –


पता के खलाफ ऐसा कोई कदम उठा सकती है जससे वे उसे शाद के िलये बा य न
कर सके?
सुधीर पहली बार म तो ये सुनकर ह स न रह गया था। फर धीरे – धीरे र नी का
सुधीर के कायालय म आना – जाना बढ़ने लगा था। व बेव उसके लंबे लंबे फोन
आने लगे। बना कसी ठोस कारण के वह सुबकने लगती। इस पूरे संसार के ित¸
समाज के ित अपने मन क कड़वाहट उगलने लगती। उसे लगता जैसे सब कुछ
उसके खलाफ ह हो रहा है । कई बार उसने बीच रा ते से फोन कर सुधीर को अपने
मह वपूण काय के बीच से उठाकर नाममा के कारण के िलये परे शान कया था।
सुधीर को भी खीज तो आती ले कन य तता के चलते वह इसपर सोचने के िलये
समय नह ं दे पाता था।

आजकल र नी बेवजह ऑ फस म आने लगी है । “बस! तुमसे िमलने को जी कया।” या


फर¸ “मुझे ऐसा लगता है क जस दो ती को म बरस से तरस रह थी¸ वो मुझे
तु हारे प म िमल गई है ।” ऐसे कुछ जुमले कहती और फर एक अंतह न¸ त यह न
बात का िसलिसला शु हो जाता। सुधीर जब इन बात का ओर – छोर तलाशने जाता
तो फर वह खालीपन हाथ लगता। और फर वह समय बबाद होने और काम समय
पर न होने के कारण झुँझला उठता। ले कन तब तक र नी¸ वषय को बदलकर समय
क कमी का बहाना बनाकर¸ सुधीर पर ह व का यान न रखने का जुमला फकते
हए
ु रवाना होने लगती थी।

वह कसी भी तर के से यह दखाना चाह रह थी क सुधीर को ह उससे िमलने¸


बितयाने म रस आता है । वह एक एक कर अपनी सम याओं का पुिलंदा सुधीर के
सम खोलकर बैठ जाती। सुधीर एक के बाद एक उनके समाधान सुझाया करता। हर
एक समाधान म कोई न कोई मीन मेख िनकालती हई
ु वह¸ उसे बढ़ाते हए
ु ¸ असंभव से
नासूर म बदल दे ती और लाख कोिशश के बावजूद हमेशा वयं को उपे त¸ हालात
क मार हई
ु ¸ िनराशा से भर हई
ु ¸ इस दिनया
ु क अनचाह मेहमान के प म तुत
करती रहती।

उसक ऐसी हरकत से परे शान सुधीर उस रात को सोते से जाग पड़ा था। बगल म
लेट रे णु शांत भाव चेहरे पर िलये पड़ थी। पानी पीने क िलये लप जलाने पर सुधीर
आ यच कत रह गया। रे णु जाग रह थी। मंद – मंद मु काती हई
ु ¸ जो क उसक
हमेशा क आदत है ¸ उसे एकटक दे ख रह थी। सुधीर पानी पीना भूल अपराधी सा माथे
पर हाथ धरे बैठ गया। वह बखूबी जानता था क रे णु क यह प रप व ह काफ
है थती को स हालने के िलये।

सुधीर मुखर हो उठा। र नी और उसक बात¸ उसके वचार¸ अजीब सी अिभ य । कभी
भी और कसी भी तर के से खुश न हो पाने वाली र नी को सुधीर ने एक पहे ली क
भाँित रे णु से पूछ ह तो िलया था।

अपने आ त मुखम डल और अनुभवी वचार से रे णु ने सुधीर को समझाया और


एक छोट सी तरक ब सुझाई। रे णु इस उ और पड़ाव क लड़ कय के फतूर बड़े
अ छे से जानती थी। वह समझ गई थी क र नी को शाद करनी तो है ले कन अपने
ठगने कद और साधारण प रं ग के कारण वह अवसाद त है । उसक बड़ बहन
और सहे िलयाँ गोरे रं ग¸ सुंदर नैन न श क वािमनी और अपने समय म “हॉट
ॉपट “ मानी जाती थी। उनके सम र नी लगभग शू य ह थी।

तरक ब के अनुसार सुधीर ने र नी से दसरे


ू ह दन बात क ।

“दे खो र नी! म तु हार ितभा क ¸ तु हारे वचार क क करता हँू । य द तुम मेरे
जीवन म रे णु से पहले आ जाती तो म तु हारे साथ भी उतना ह सुखी रह पाता
जतना आज रे णु के साथ हँू ।”

र नी चुपचाप सुनती रह । जैसे उसक चोर पकड़ गई हो। सुधीर कहता चला।

“मुझे ऐसा लगता है क तुम अपना क मती समय और श यहाँ यथ कर रह हो।


जहाँ पहले से ह दे र हो चुक हो वहाँ कतनी भी सफाई दे ने के बाद भी बात तो बन
नह ं सकती ना? तु ह अब यह दे खना चा हये क जहाँ बात बन सकती हे वहाँ तुम
बेवजह दे र न कर दो!”
सुधीर धीरे से मु काया। र नी पर मान घड़ पानी िगर गया हो। वह वहाँ से चलती
बनी। छ: मह न तक उसका कोई पता नह ं था।

फर एक दन डाक से एक काड आया। र नी और संजय शाद कर रहे थे। संजय


उसके ऑ फस का सहकम था। सुधीर हँ से बना न रह सका। आ खर र नी सह समय
पर सह जगह पर मेहनत करके अपना उ दे श पा चुक थी।
एकांत वास

उस धना य युवा यापार क सफलता और आधुिनकता से लकदक जीवन शैली के


क से मशहर
ू थे। उसक बातचीत का तर का¸ यापा रक समझ बूझ¸ ए ोच आद
मह वाकां ी युवाओं क फॉलो करने क चीज म हट िल ट पर थे।

दे श वदे श म फैले यपार¸ लंबे लंबे सेिमनास¸ काँ स और मनेजमट कमेट क


मीट ं स म उलझे रहने के बावजूद कभी भी कसी ने उसे अपने यवहार को
असंतुिलत करते नह ं दे खा। उसम काम करने के िलये आव यक ऊजा और उ साह
हमेशा मौजूद रहता।

उसके बारे म मालूम करने वाल को जाने कहाँ से यह मालूम पड़ा क वह हर दो


मह ने म एक ह ता भर एकांत वास म रहता है । और उसक इसी तर के से वयं को
तरोताजा व एका रख पाता है । इसके अनुसार कई वे¸ जो उसके जैसा होना चाहते थे¸
उ होने अपने गाँव के र तेदार ¸ फाम हाऊस आ द पर शरण ली। ले कन उ ह
आशातीत सफलता नह ं िमली।

आ खर इसका एकांतवास है या?

एक उ साह लाल तो सीधा पूव िनधा रत समय लेकर उनसे य गत प से िमलने


जा पहँु चा। उनक कायशैली¸ िनणय मता आद क तार फ करने के बाद वह मन क
बात पूछ ह बैठा।

“सर! हम सभी आपक सतत ् ऊजा और काम करते ह रहने के उ साह के कायल है ।
आप हमारे आदश है और हम मालूम हआ
ु है क आपक ऊजा का रह य है दो माह
म एक स ाह का एकांतवास। सर लीज बताईये आप कस रसोट¸ गाँव या फाम
हाऊस म जाते है जहाँ सह एकांतवास िमल सके?”

उसक बात सुनकर वह युवा उ ोगपित हँ स पड़ा।

“एकांतवास के िलये ये ज र नह ं क कसी एकांत थान पर ह जाया जाए। तुम


सच ह जानना चाहते हो तो सुनो। शहर क सबसे घनी ब ती के एक बहमं
ु जला
भवन क छठ मं जल पर बने एक लैट म म इस एकांतवास का सुख भोगता हँू ।
सभी अपने आप म ह इतने य त होते है वहाँ क आपको कसी का साथ या दखल
चाहकर भी नह ं िमलता। बोलो! बड़े शहर का सा एकांत कह ं और है या?”

युवक िन र था।
मानिसक यिभचार

अपने अकाउं ट से लॉग आउट होते हए


ु र टा पसीना पसीना होने लगी। कौन हो सकता
है ये परफे ट गाय? उसक कुछ बात पर ह ¸ आवाज के अंदाज पर ह उसे अपना
मान बैठा है । कुछ ण के िलये उसके म त क म नीली सपनीली आँख वाला एक
गोरा िच टा¸ गठ ला युवक अलग – अलग कोण से आता – जाता रहा। अनजाने ह
र टा के चेहरे पर मु कान आती रह ।

और फर अचानक वो परफे ट गाय¸ अिभषेक म बदल गया। अिभषेक¸ उसका मंगेतर!

अपने मन म वचार का तूफान िलये वह घर पहँु ची। अपने कमरे क शरण ली।
अिभषेक¸ उसका मंगेतर¸ दसरे
ू शहर म नौकर करता है । ऑ फस म काम करते व
ऑनलाईन रहता है । र टा उसी से वॉईस चैट करने के िलये कैफे गई थी। उसके िलये
अिभषेक ने मसेज छोड़ रखा था। वह एक घ टे के िलये मीट ंग म य त था और
ऑनलाईन होते हए
ु भी उससे संपक नह ं कर सकता था।

तभी र टा के मसजर पर एक अनजान संदेश उभरा।

“है लो वीट !”

यह था परफे ट गाय! र टा का लॉिगन नेम था वीट सॅ योर टा।और फर थोड़ बहत



पूछ ताछ के बाद उसने र टा को वॉईस चैट के िलये राजी कर िलया। उसक बातचीत¸
आवाज¸ लहजे क तार फ करता हआ
ु वह दस िमनट म ह दल¸ ई क¸ यार¸ मुह बत
तक पहँु चते हए
ु उसे ेम ताव दे ने पर उतर आया।
बना दे खे सोचे उ प न हए
ु इस ेमी के िलये र टा तैयार नह ं थी। कई बार उसने
लॉगआऊट होने का सोचा ले कन सहे ली मोना क वा य याद आने लगे। “य द कोई
पीछे पड़ा ह है तो थोड़े बहत
ु मजे ले लेने म या हज है ?” और र टा बह चली थी।
उस व उसके मन से अिभषेक जाने कहाँ गायब हो गया था। ले कन जब यह
परफे ट गाय उसका शहर¸ नाम¸ पता¸ फोन नंबर पूछकर घर आने क जद पर अड़
गया तब र टा को होश आया। ये या कर रह थी वो?

कसी तर के से बहाने बाजी करते हए


ु उससे छुटकारा पाया और अब अपने कमरे म
बुत सी बनी बैठ थी।

उसी समय घर के सामने से जय जयकार क आवाज के साथ ह एक वामीजी क


पालक िनकालने लगी। र टा ने यान से दे खा। ये वह वामीजी थे जो कहने को तो
हचार थे ले कन सदा औरत क ओर ह यान लगाए रखते। कॉलेज के दन म
इनके कतने ह क से मशहर
ू थे।

इ ह ं क स को सुनते सुनाते एक दन र टा क माँ के मुँह से िनकाला था¸ “सब कुछ


मन¸ वचन¸ कम से हो तो ठ क है । फर चाहे हचय हो या गृह थी।”

र टा का मन उसे अपराधी क भाँित कटघरे म खड़ा कर रहा था। वो वयं या कर


रह थी?

भले ह अिभषेक को कभी कुछ मालूम नह ं होगा… ले कन मन म बात तो आई ना?

दसरे
ू ह दन उसने अिभषेक को मेल कया। “मने अपना लॉिगन नेम
“ वीटसै योर टा” से बदलकर “र टाअिभषेक” कर िलया है ।”

अब वे दोन खुश थे।


एहसान

“भूले बसरे कभी हमारे घर भी आ जाया करो बेट !”

आकां ा के पैर ठठक गये। वैसे भी शहर के इस नये रहवासी इलको म अभी अभी
रहने आई आकां ा को कोई इस तरह से पुकारे गा इसक उसने क पना भी नह ं क
थी। उसे इस तरह से असमंजस म पड़े दे ख आवाज लगाने वाली म हला बोली¸ “बेट
म! िमला अ वाल। यामली क म मी।”

“अ…अ छा आँट ! आप यहाँ?”

कतना कुछ सोचते और याद करते हए


ु कहा था आकां ा ने यह। बचपन क सहे ली
क माँ और वह भी इतने साल के बाद िमली थी। बातचीत का लंबा चौड़ा दौर िनकल
पड़ा। बात बात पर िमला जी आकां ा क एहसानमंद होती जा रह थी। असल म
आकां ा ने यामली को उसके प रवारवाल के वरोध के बावजूद कॉलेज क पढ़ाई के
िलये े रत कया था जो आज शाद के बाद उसके बड़े काम आ रह थी।

“ यामली तो दन रात तु हारा नाम जपती है !”

और बातचीत¸ आित य के बाद चलते चलते उ होने उदार मन से आकां ा क कई


सम याएँ हल कर द जो नई जगह आने पर सामा यत: हर कसी को पेश आती है ।
कामवाली बाई¸ धोबी¸ स जीवाला¸ बल भरनेवाला य इन सभी सु वधाओं से लैस
वह अपने नये घर म पहँु ची तब वहाँ का अकेलापन खाने को दौड़ता था।
उसे वयं के संयु प रवार से अलग होते समय अपने पित से हई
ु बहस के दौरान के
अपने तक याद आए।

“उ होने तु ह पाल पोसकर बड़ा कया¸ इं जीिनयर बनाया तो या एहसान कया? ये तो


उनका कत य था। और य द एहसान कया भी तो या उसके बदले म तुम जंदगी
भर उनका नाम जपोगे?”

यामली य द कुछ दन के साथ और एहसान को ताउ याद रख सकती है तब :


जीवन दे ने और जीने लायक बनाने के एहसान के बदले म माँ बाप को…

शाम तक उसका वापसी का सामान पैक हो चुका था।

बार को डं ग

“इस म पर ये रे खाएँ कस चीज क खंची है बेटा?” शमाजी ने आ य और


कौतूहल से उस म क महँ गी बोतल को टटोलते हए
ु पूछा। बाल को रं गने का
वदे शी साधन बेटा खास उ ह ं के िलये जो लाया था।

“इसे बार को डं ग कहते है पापा। नये जमाने क उ पादन क जानकार दे ने वाली


तकनीक। कोडव स म उ पादन संबंधी जानकार होती है इसम।”

फर कुछ दन के बाद¸ घर म बढ़ते तनाव के चलते एक दन बेटा उनसे ज र बात


करने के नाम पर अलग होने क तैयार दखा गया। अगले मह ने से वे दसरे
ू बेटे के
घर पर रहने वाले थे।
रात को न चाहते हए
ु भी बहू बेटे क बातचीत कान पर पड़ । बेटा कह रहा था¸

“तीन चार बार म भी उ ह घर के बगड़ते बजट का हवाला दे चुका था। उनके


दवाईय के ब स भी बताए थे उ ह। और तो और उनके िलये रखे नौकर का हसाब
कताब बी बताया था। तब भी वे समझ नह ं पाए और यह ं डटे रहे । खैर! आज उ ह
सार बात साफ कर द है । बस इस मह ने क ह बात है ।”

शमाजी वह ं जड़वत रह गये। घर का बगड़ता बजट¸ दवाईय के बल¸ नौकर का


हसाब कताब ये सभी एक एक कर लंबी रे खाओं म बदलते गये और शमाजी उस
बारकोड म बेटे का मंत य ढँू ढ़ते रहे ।
िनगुण यूजन

“बहू! राजीव आजकल दखता ह नह ं। पर ाएँ नजद क है या?”

“नह ं माँजी! वो उसके ुप को एक यूजन कंसट का ोजे ट िमला है । उसी पर काम


चल रहा है । आज शाम को ुप का रहसल है वमाजी के घर पर। आप चलगी?”

“हाँ हाँ ज र! राजीव को भी गाते हए


ु सुनूंगी।”

शाम को ुप का दशन सचमुच शानदार रहा। सारे लड़के लड़ कयाँ सुर ले थे और


ताल प भी उ दा था। ले कन सब कुछ अ छा होने के बावजूद सुनने वाल म से
अिधकांश को समझ नह ं आया क वो था या। घर आने पर दाद अपने आप को
रोक नह ं पाई और राजीव से पूछ ह बैठ ।

राजीव ने समझाते हए
ु कहा¸ “दाद ! सुनने म अ छा लगा ना? एक रले सेशन फ लींग¸
फटे सी¸ सू दं ग इफे ट सब कुछ दे ने का यास कया था हमने । ए चुअली दाद ! ये
नय जमाने का यूजन यू जक है जसम बंधनमु टाईप का ए स ेश न होता है ।
कसी राग¸ ताल या समय क बं दश नह ं होती। बना कसी भाव के बस संगीत के
वर म¸ अपने म उतरकर एक तर के क उपासना क जाती है । ये है नया इनवे शन¸
यूजन यू जक…ता…रा…रा…।”

राजीव ने यूजन क फटे सी म गुम होते हए


ु अपने कमरे क राह ली। दाद इन
िनब ध¸ िन सीम प रभाषाओं¸ नये कहे जाने वाले आ व कार को कबीर क स दय
पुरानी िनगुण भ साधना से तौलती रह । आद शंकराचाय के अ वैत और
विश ा वैत को तौलती रह ।
उनके चेहरे पर संतोष के भाव उभर आए। आज भी हमार जड़ मजबूत है । वे िन ंत
थी।
बेटा बगड़ रहा है !

कूल म उन दन मु य आ म से आए हए
ु वामीजी ित दन ब च को
ज वनोपयोगी िश ाएँ दे ते थे।

घर लौटकर रो हत म मी से कहने लगा¸ “म मी आज सुबह मने आप के साथ अ छा


बहे व नह ं कया। आई एम सॉर । मुझे आज भी ट फन म केक चा हये था। ले कन
आपने ठ क ह कहा था क रोज केक खाना भी तो ठ क नह ं है । म आगे से ऐसा
नह ं क ँ गा।”

म मी आ यिमि त कौतूहल से उसे टटोलती हई


ु कहने लगी¸ “तुझे अचानक या हो
गया है? कसने िसखाई ये सार बात?”

“वो कूल म वामीजी रोज ेयर के बाद पहला पी रयड लेते है । हम बड़ा अ छा
लगता है उनक बात सुनना। हमेशा सच बोलना¸ म मी पापा का र पे ट करना और
कसी से नह ं झगड़ना। अब म कोिशश क ँ गा ये सब करने क ।”

रात को म मी¸ पापा के सामने िचंता जा हर करते हए


ु कह रह थी¸ “रो हत के कूल
के बारे म फर से सोचना पड़े गा। जाने कौन से बाबाजी आकर पुरानी सी बात कहते
रहते है । सच बोलो¸ झगड़ो मत वगैरह। पढ़ाई वढ़ाई छोड़ बगाड़ रहे है अभी से।”

पापा ने भी सहमितसूचक िसर हलाया। हाई सोसाईट गेट टु गेदस म सभी रट रटाई
पोय स सुनाते ब च के बीच उ ह वामीजी बात दोहराता रो हत सचमुच खटक रहा
था।
मन क शांित

“जब तक मन म िभ न – िभ न वचार का सार होता रहता है ¸ मन शांत नह ं


रहता। वचार से¸ स य – अस य से परे क थती ह स ची साधना का पथ है ।”

वामीजी का वचन सुन रह िमसेस सोनी¸ धीरे से िमसेस अ वाल क ओर ख


करती हई
ु फुसफुसाई¸ “जानती है आप? जोशीजी क बहू क घर म कसी से जरा नह ं
जमती। जरा सासूजी ने कमरे क सफाई को कहा तो दसरे
ू ह दन रानीजी चली
मायके।”

“हाँ! मने तो ये भी सुना है क माँ–बाप ने दहे ज के साथ दो नौकरािनयाँ भी द है ¸


जनके तेवर सहते–सहते¸ िमसेस जोशी बीमार पड़ गई है ।”

दोन चुपचाप मु कुराई। फर िमसेस सोनी ने कहा¸ “ वामीजी कतनी स ची बात


कहते है ! कब से ढँू ढ़ रह थी आपको ये सब कुछ बताने के िलए। अब आपसे मन क
बात कह द है तो कतना शांत और स न लग रहा है ।”

और दोन ने एक दसरे
ू पर एक अथपूण मु कान बखेर और पुन: द िच हो वचन
सुनने म लग गई।
ओपन लाईफ टाईल

“र ना! कल तुम शॉ पंग कॉ ले स म गई थी?”

“हाँ म मी! म और अिभ थे वहाँ। आप भी थी या वहाँ? तो हम जॉईन य नह ं


कया?”

“मेरे साथ पड़ोस क िसंघल आंट भी थी। और ये अिभ कौन है ? िसंघल आंट ने ह
पॉ ट आऊट कया तु ह। मुझे तो ये भी मालूम नह ं था क तुम कसके साथ हो!
कम से कम घर से िनकलने से पहले बता तो सकती हो ना? कतना इं बरेि संग फ ल
हआ
ु मुझे।”

“आप भी न म मी! आऊट डे टेड पीस के जैसी बात करती हो। सुनो म मी! घर से
बाहर िनकलने के बाद मालूम होता है या क क कौन िमलेगा¸ कहाँ जाना होगा¸
कसके साथ रहगे? और फर मने कुछ छुपाया तो नह ं◌ी ना? म मी ये ओपन लाईफ
टाईल है । लीज इसम अपना पुरातनपंथी वचार वाला ले चर मत दे दे ना। आजकल
के लड़के लड़ कय क इमेज इतनी है क कोई कसी भी चीज को मा ड़ नह ं
करता। ए ड़ डो ट वर ¸ िसंघल आंट कोई तोप तो नह ं हे ना!”

म मी उसे ये कहती क िसंघल आंट नह ं भी होती साथ तब भी उ ह खुद अ छा


नह ं लगा था र ना का ऐसे घूमना ले कन तब तक तो वो गाडन पाट के िलये िनकल
चुक थी।

रात गये लौट र ना ख न मन से बैठ रह । “म मी आप कॉफ हाऊस म बैठ थी


आज ?””
“हाँ! दलीप के साथ। मेरे कॉलेज टाईम का ड़ है । धा का वेट कर रहे थे। उसक
वाईफ! उसका ऑ फस पास ह म है । य ?”

“म और रानी वहाँ से पास हो रहे थे। मने तो कसी दलीप अंकल को कभी नह ं
दे खा। म रानी को या ए स लेन करती। कतना इ स टं ग फ ल कया मने।”

“सच! मतलब सार औपन लाईफ टाईल तुम अपने िलये ह रखना चाहती हो। इसम
से कुछ म मी पापा के िलये भी तो होना चा हये ना!”

“सॉर म मी।”

“दे खो र ना! जो तुम कह रह थी¸ वो वतं ता है ले कन जो कर रह हो¸ उसे


उ छृंखलता कहगे। ओपन लाईफ टाईल म वचार को वतं करो ले कन अपने
यवहार को सीमा म रखना सीखो। य द तु हार म मी पापा से कुछ अपे ाएँ है तो
या ऐसा उ ह नह ं लग सकता?”

“ठ क है बाबा! अब और यादा लंबा मत बोलना। सुनो! मने टड़ ज के िलये ट ना


को घर पर बुलाया है और हाँ! अिभ¸ आई मीन अिभषेक का फोन आए तो कहना म
नह ं हँू ।”

अंतरयामी

मेर दाद ¸ पूजा पाठ¸ जप तप म दन रात लगी रहती है । हमारे घर ठाकुरजी के नान
साद के बगैर कोई भी अ न मुँह म नह ं डालता। दाद फर ठाकुरजी का ग
ं ृ ार
करती है ¸ उनक बलाएँ लेती है ¸ ल डू गोपाल को मनुहार से साद खलाती है । उनके
एक भुजी महाराज है । बड़े तप वी¸ ानी संत है । ठाकुरजी के परम ् भ । ठाकुरजी
उनसे व न म आकर बात करते है । ऐसा दाद हम बताती है । कभी – कभी हम भी
अपने साथ मं दर म ले जाकर उनसे आशीष दलवाती है । वहाँ बड़े अ छे – अ छे
पकवान िमलते है खाने को। ले कन वो कतना ह जद करो¸ रोज ले ह नह ं जाती।

दाद कहती है ¸ भुजी महाराज अंतरयामी है । मेरे पूछने पर उ ह ने हँ सते हए


ु यह
बताया भी था क जो सामने वाले के मन क बात जान ले¸ उसे अंतरयामी कहते है ।
बड़ क ठन तप या से ये बल िमलता है । म आँख फाड़े सुनती रह थी उनक ये बात।

फर कुछ दन के बाद दाद ने बड़ा ह क ठन त रखना शु कया। दन भर बस


फल और दध
ू और रात म नमक का फ रयाल। ऐसा वे लगातार दो मह ने तक करने
वाली थी। उनक तबीयत खराब होती¸ उपवास सहन नह ं होते ले कन डॉ टर के प
मना करने के बावजूद वे कसी का भी कहा नह ं माना करती।

मने उनसे काफ पहले यह पूछा था क क ठन त उपवास आ खर य कये जाते


है ? तब उ ह ने मुझे बताया था क कसी मनोकामना क पूित के िलये ह ऐसा कया
जाता है । मुझे समझ म नह ं आया क इस उ म उनक ऐसी या मनोकामना हो
सकती है जो वे इतना क ठन त कर रह है ।

मने माँ से पूछा। मां ने मु कुराकर जवाब दया¸ “तेर दाद को इस घर म एक


कुलद पक चा हये है । तेरा छोटा भाई! तभी तो ये सब कर रह है वे।” मुझे सहसा
व ास नह ं हआ।
ु फर त क पूणाहित
ू पर मने उ ह भोग लगाते समय ठाकुरजी से
कहते सुना¸ “एक कुलद पक क कृपा करो भु। तु हारे िलये सोन क बंसर बनवा
दँ ग
ू ी।”

यानी माँ क बात सह थी। ले कन एक बात मेर समझ म नह ं आई। यह क भुजी


महाराज के जैसे माँ ने भी तो दाद के मन क बात जान ली थी। फर दाद उसे
अंतरयामी य नह ं कहती?
बोझ

“तो म यह समझ लूँगी क मेरा कोई बेटा था ह नह ं।”

“माँ!”

“ य ! आ य हो रहा है ना मेरे वा य पर? ऐसा ह मुझे भी लगता था जब तुम


कहते थे क¸ दो चार साल हम नह ं भी िमले तो या हआ
ु ? मने शाद अपनी मज से
भी कर ली तो या हआ
ु ? इ सान को सब कुछ सहन करने क आदत होनी चा हये।
अब कहो¸ या तुम इ सान नह ं हो?”

“तुम ये सब इतनी सहजता से कैसे कह सकती हो माँ या तु हारे पास मेरे िलये
कोई ेम नह ं बचा? मने तो सोचा था क हमसे लाख गलितयाँ हो ले कन तुम हमेशा
ह हमारा साथ दोगी। ले कन म ह गलत था।”

“तु हार यह सोच कहाँ थी बेटा जब दो बार वदे श वापसी के दौरान तुम इसी शहर
क अपनी संप न ससुराल म मह ने भर तक आित य हण करते रहे । माँ – बाप के
िलये बस एक औपचा रक दन रखा¸ उसम भी हमार बहू तबीयत खराब होने का
बहाना बनाकर यहाँ नह ं आई।”

“वो समय और था माँ! उ ह सहारे क ज रत थी। और म ीती का वभाव तु ह


नह ं समझा सकता। उसक पहली डलेवर के िलये उसक माँ आई थी हमारे यहाँ।
इस बार कॉ लीकेशन है इसिलये अपन पर भरोसा करना चाह रहा था। तुम हो क
पराया कये दे रह हो।”
“संतान अपनी मनमानी को गलितय का प दे कर अपना वाथ िस ध करती रहे
और माँ – बाप को उनके कत य पालन और ममता क दहाई
ु दे दे कर अपना काम
आसान करती रहे । म अ छे से जानती हँू क अब तु हारे ससुरजी का बजनेस बैठ
गया है और वहां भी तु हारे ह एक गलत िनणय के कारण। वहाँ जाकर आँख
िमलाकर बात करने क ह मत नह ं है ¸ मदद िमलने क उ मीद नह ं है इसिलये यहाँ
चले आए हो।”

“माँ! इतनी कठोर तो न बनो! ये तो सोचो क अपना काम करते हए


ु म और ीती
दो दो ब च को कैसे स हालगे? कुछ ह मह न क ह तो बात है । म तु ह वा पस
छोड़ने भी आऊँगा।”

“तु हार गृह थी और हमार नई बहू को दे खने आना चाहती थी म। तु ह मदद करना
ह चाह रह थी। ले कन तब तो तुम ज मेदार और वावलंबी थे। तुमने ह कहा था
क हमने तु ह ज म दे कर¸ पाल पोसकर बड़ा कया¸ तुहार पढ़ाई पर खच कया और
अब हमार ज मेदार ख म हो चुक है ।”

“माँ!”

“हाँ! और अब तु हारे ब च क ज मेदार भी तु हार अपनी है । इसके िलये अब


तु ह मेर ज रत य पड़ रह है ? अपना कया हमने दे खा। खुद का कया तुम दे खो।”

शेखर चला गया था। रात ीती का फोन आया था।

“माँ लीज आ जाईये। मुझसे ये सब नह ं होगा। यहाँ नौकर बड़े महँ गे है माँ। हम
दोन सब कुछ मनेज नह ं कर पाएँगे। वहाँ आने जाने म चौगुना खच हो जाएगा।
आपके आ जाने से बड़ सहिलयत
ू हो जाएगी। हम दोन वैसे भी साथ रहे नह ं है
कभी। इसी बहाने अ ड ट ड़ं ग हो जाएगी।”
माँ सुनती रह । ीती से उ ह ने वहाँ डलेवर करवाने और दो नौकर रखने क थती
म हो सकने वाले खच क रकम मालूम क । दसरे
ू दन उ ह ने वयं शेखर को
बुलवाया। उसके हाथ म संभा य खच से चौगुनी रकम का धनादे श रखा। शेखर हत भ
था।

“शेखर! य द संतान ये समझती है क माँ – बाप को बार – बार उनके र ते क दहाई



दे कर¸ कत य क याद दलाकर¸ जो बी चा हये वह हािसल कर सकती है तब वह यह
भूल जाती है क यह वे माँ – बाप है ज ह ने उ ह ज म दया है ।”

“……”

“हमेशा क तरह तु हारा इस बार का भी वाथ पूरा कये दे र ह हँू । ले कन कौ ये


अ छ तर ह से जानती हँू क तुम मेरा भावना मक शोषण करते हए
ु ये रकम ले जा
रहे हो। तु हारे वािभमान को ठे स लगती हो तब भी तुम इसे मुझे लौताकर मुँह नह ं
फेर सकते। याद रखो शेखर! कुछ ऐसी ह चोट तुम बरस पहले मुझे दे चुके हो।”

शेखर काँप उठा। यह पैसा उसे दे श से दरू ले गया। अब यह पैसा माँ बाप से अलग
कये दे रहा है । उसके कदम बो झल हो उठे थे। वह तय नह ं कर पा रहा था क
उसक गलितय का बोझ यादा था या माँ – बाप के एहसान का…
ममता

“ऊँ… आँ”

नवजात िशशु के दन से कमरा गूँज उठा। ाची ने उनींद ¸ थक आँख से दे खा¸ शाम
के पाँच बज रहे थे। घ टा भर पहले ह तो इसे दध
ू पलाकर सुलाया था। कल रात
भर भी रो रोकर जागता रहा था। ाची को खीज हो आई। ाह बीस दन के उस
न हे से जीव को गु ड़या जैसे उठाकर उसने गोद म िलया। माँ का पश पाते ह वह
गुलगोथना िशशु संतु हो गया। अपनी बँधी मु ठय क न ह ¸ मूँगफली के दध
ू भरे
दान के जैसी ऊँगिलय को ह मुँह म लेकर चूसने लगा। ाची को अब समझ म
आया क उसे या करना है ।

तभी ाची क माँ वहाँ आई।

“उठ गया या हमारा राजकुमार? चलो अब घूँट पीने का समय हो गया है ।”

“ या माँ ! म तो परे शान हो गई हँू इससे।” ाची तुनक पड़ ।

“ या हआ
ु ?”

या या हआ
ु ? सोने भी नह ं दे ता ढ़ं ग से। एक तो रात रात भर जागता रहता है । हर
घ टे दो घ टे म दध
ू चा हये। कभी नैपी गंदा करता है तो कभी गोद म रहना होता
है । ऐसा ह रहे गा या ये?” ाची आँसी होने लगी थी।
सव के िलये मायके आई बेट क इस परे शानी को समझते हए
ु माँ उसके पलँग पर
ह पालखी लगाकर बैठ गई । न हे िशशु को गोद म िलया और ाची का िसर भी
अपनी गोद म रखकर उसे थपथपाने लगी। उनक आँख से आँसू बह चले। एक बंद ु
ाची के गल पर िगरा। उसने हड़बड़ाकर माँ को दे खा। वे बड़बड़ा रह थी।

“जब तक इसे माँ चा हये तब तक ये सुख भोग ले बेट । आजकल पराए परदे स का
कोई भरोसा नह ं है । वो धरती िनगल जाती है हमारे लाड़ल को।”

माँ ाची के बड़े भैया क सामने ह रखी त वीर को दे खे जा रह थी जो पछले दस


वष से वदे श से वा पस ह नह ं आए थे।

न हे िशशु ने ाची क ऊँगली अपने मदे से हाथ म थाम ली थी। ाची ने अब उसे
नह ं छुड़ाया।
टे ट

“दे खो तो मौसी! वो है मेर सहे ली र ना।” ेता ने नेकलेस ठ क करते हए


ु कहा। मौसी
ने गौर से दे खा। एक चंचल आँख वाली ले कन प रप व य व क वािमनी
सुदशना युवती¸ आ म व ास के साथ उनक पाट म आ रह थी। ह के नीले प रधान
पर नाममा क साज स जा और चेहरे पर मोहक मु कान। साथ था उसका उतना ह
शालीन मंगेतर¸ आनंद।

ेता ने उसे दे खते ह मुँह बनाया । अपने दजन भर चू ड़य वाले हाथ नचाते हए

कहने लगी¸ “दे खो मौसी! म ना कहती थी? बड़ टू ड़यस बनती है । िसंपल यूट के
नाम से कॉलेज म जानी जाती थी। ए गेजमट के बाद तो अ छे से सज सँवर कर
आना चा हये ना पाट म?” ेता ने अपने यूट पाल रत बाल लहराए और िलपे पुते
चेहरे क अदाओं से बजिलयाँ िगरानी चाह ।

मौसी मंद मंद मु कुराती रह । ेता फर कह चली¸ “मुझे तो लगता है इसे वेलर
या फैशन एसेसर ज का टे ट ह नह ं है । नह ं तो इस तरह से अपनी उ से बड़ा कौन
दखना चाहेगा भला?”वह एक बार फर अपनी हाई ह ल पर डांवाडोल होते होते बची।

तभी र ना और आनंद एक साथ मु कुराते हए


ु आगे बढ़े । दोन का जोड़ा जैसे एक
दसरे
ू के िलये ह बना था।

“मुझे लगता है ेता!” मौसी ने कहा।

“र ना का टे ट¸ जंदगी क सबसे ज र वेलर के हसाब से तो काफ उ दा है ।”

ेता दाँत पीसती हई


ु िलप टक टच करती रह …
यादा जानकार

कथा बड़े मािमक संग पर जाकर टक हई


ु थी। ीकृ ण के वरह म सुध बुध खोती¸
उनके दशन के िलये याकुल गो पय क मन: थती का बड़ा ह मािमक व सजीव
िच ण वामीजी कर रहे थे। भावुक भ क आँख से अ वरल अ ध
ु ारा बह जा रह
थी। तभी कथा पहँु ची ीकृ ण दशन के शुभ संग पर। ीकृ ण का भ य व प¸ गले
म वैजय ती माला¸ मुरली क मोहक तान¸ गो पय का आ हाद¸ जीवन क पूणता का
बोध। ीकृ ण लीला थली जैसे उस कथा थल पर जीवंत प म वामीजी क मधुर¸
सहज और भावपूण वाणी म तुत थी। भ तो भ ¸ वामीजी का क ठ भी अ आ

हो उठता था।

कथा समाि के बाद घर लौटते हए


ु शा ीजी अपनी ीमितजी से बोल ह पड़े ¸ “ या
आनंद आता है इन वामीजी क कथा म तु ह? बड़ भावावेश म आँसू बहाए जा रह
थी! उनके ना तो भाषागत उ चारण सह थे और कई थान पर गलत याकरण का
योग भी कर रहे थे।”

शा ीजी का चढ़ा हआ
ु मुह
ँ ीमित शा ी को जरा भी नह ं सुहाया।

“ये आप नह ¸ं आपके अंदर के ह द भाषा के ा यापक बोल रहे है । माना क


उ चारण गलत थे। याकरण गलत था ले कन ये सब कुछ एक भाव पर के त था
और वह है भ ।”

वे आगे बोली¸ “मुझे एक बात बताईये। सह ¸ शु और शा ो भाषा म जब आप


अपने छा को तुलसी सूर के भ पद भी पढ़ाते है तब या कोई भावावेश म आकर
एक भी आँसू बहाता है ? सह जानकार भर बाँटते बाँटते उसका उ गम थान शायद
याद नह ं रहता आपको।”

अपनी भाषागत जानकार के ित अित जाग कता के चलते अब शा ीजी क पलके


भीगने को आतुर थी।
भेदभाव

लेखक संघ के ांगण म नये पुराने श द साधक क गहमा गहमी थी। अवसर था¸
“भेदभाव” शीषक से आयो जत क गई कहानी ितयोिगता के प रणाम क घोषणा
का।

आ खर दय थामे बैठे ितयोिगय के बीच थम पुर कार क घोषणा क गई ।


उ दाराज सोनीजी का नाम आते ह तािलयाँ तो बजी ह साथ ह ज ासाएँ भी बढ़ ।

तीसरे थान पर रहने वाली िमसेस जोशी बहू और बेट के बीच भेदभाव करती सास
क कहानी पर थी तो तीय थान पर रहने वाले िम ाजी ने अपने माँ बाप और
सास ससुर के बीच भेदभाव करते बेटे का िच ण अपनी कहानी म कया था।

“आपक कहानी क थीम या थी सोनीजी?”

“मेर कहानी का नायक है एक ऐसा बेटा¸ जो अपनी िम ट का नमक खाकर परदे स


क जेब भरने चला जाता है ।”

यादा कुछ न कहते हए


ु सोनीजी ने आयोजन से चलने क तैयार क । इकलौता बेटा
आठ वष पूव परदे स जाकर बस गया था। बीमार िमसेस सोनी क दे खभाल करने के
िलये उ ह ज द घर पहँु चना था।
वंशावली

दादाजी हर स ाह क भाँित आज भी अपनी पुरानी लोहे क पेट खोलकर बैठे थे।


पायल और पनाक उ ह इस मु ा म दे खकर पहले ह दरू भाग जाया करते। वे अपनी
कुल वंशावली िनकालकर पी ढ़य पुराने क से सुनाते। पुराने समय क असँ य याद
आज भी उनके िच म अपना थान बनाए हए
ु थी।

दरअसल वह सब कुछ बार बार सुनकर ब च को बो रयत होने लगी थी। ब च के ये


सब कुछ सुनने से मना करने पर वे बड़े ेम से समझाया करते थे।

“दे खो बेटा! हमारे कुल¸ वंश और पी ढ़य क जानकार तु ह होनी ह चा हये। यह तो


हमार असली संप है . कोई भी य अपने कुल नाम¸ वंश¸ गो और जाित से ह
तो जाना जाता है ।”

“दादाजी!” न ह पायल बोल पड़ ।

“हाँ ब टया!”

“म इन दन य द कसी श सयत से सबसे यादा भा वत हँू तो वे है वामी


ववेकानंद।”

“बड़ अ छ बात है ब टया।”

“ या आप बता सकते है उनके पता¸ दादा¸ परदादा आद का नाम और उनका गो ?”


“……”

“दादाजी! आज य द उनके जीवन के इतने वष के बाद भी उनके वचार¸ काय इतने


सामियक और साथक है तब उनका वंश¸ कुल¸ गो मालूम न होने के कारण या हम
उ ह आदश नह ं मान सकते? सूतपु होने के बावजूद कण के काय क सराहना तो
क जाती है ना?”

दादाजी क यौ रयाँ चढ़ने लगी थी। पायल ने सहज होकर कहा ¸ “दादाजी! मेरा
मानना तो िसफ ये है क ज म लेना और जीना अलग है और जीकर कुछ कर
दखाना एकदम अलग। मुझे तो कुछ ऐसा कर दखाना है जससे िसफ मेरा नाम नह ं
ब क मेरा काम आदश बने।”

“पायल द द !”

“आई वनू! बैठो तुम सब।”

पायल चल पड़ । आज ब ती के ब च क क ा म उसने व ान के योग जो


िसखाने थे।
र तार

तूफानी गित से कार भाग रह थी। सुनसान हाईवे पर इस आधुिनक¸ सवसु वधायु
कार म बैठा था ववेक और प लवी का जोड़ा। शाद के बाद पहली बार लाँग ाईव¸
जून मह ने क अलम त हवाएँ और िचकना सपाट रा ता। ववेक तो जैसे बाँधे नह ं
बँध रहा था। इस तरह क सुहानी शाम कतनी कम िमल पाती है जंदगी म। यह तो
ए जॉय करने के दन है । कार म कुछ इसी तरह क बात हो रह थी।

तभी ग प के दौर के बीच जाने कहाँ से एक न हा सा बालक रा ते पर आ िनकला।


उसक मजदरनी
ू माँ पीछे पीछे दौड़ती हई
ु आ रह थी। ववेक ने दे खा ले कन गित
िनयं त करनी बड़ मु कल थी। ब चे क माँ ने जोर से उसका हाथ खींचा। ववेक ने
भी टे य रं ग दसर
ू ओर मोड़ा।

बालक के पैर म गंभीर चोट आई। ले कन ववेक¸ गित िनयं त करने के थान पर
उस बालक क माँ क लापरवाह को लेकर लंबी चौड़ बात करता रहा। उ ह ने ककर
बालक को दे खा भी नह ं।

बात धीरे धीरे उनके वैवा हक जीवन के भ व य और सपन पर जाकर टक । उ ह


अब बचत करने क आव यकता थी। दोन को िमलाकर गृह थी चलानी थी। तभी तेज
गित से चलती कार के रे डयो पर “तेल बचाओ स ाह” के तहत कुछ व ापन सा रत
होने लगे।

“ या आप जानते है ? अपने चार प हया वाहन क गित को िनयं त कर आप धन


क एक चौथाई तक बचत कर सकते है !”

और कार क गित िनयं त हो गई।


प लवी को लगा जैसे एक मानव के जीवन पर एक चौथाई धन के बराबर पय क
क मत भार पड़ हो …
जीिनयस बालक

“िमठू ! दे खो कल मने ड कवर चैनल के “ वं स” ो ाम से तु हारे िलये कुछ नो स


िनकालकर रखे है । उ ह पढ़ ज र लेना। और हाँ कूल क सा स ए जी बशन का
या हआ
ु ?”

“वो तो सेवन ईयस ए ड़ अप के िलये है ना म मी! मने िमस से पूछा भी था। वे


बोली ने ट टाईम।”

“ठ क है । ले कन इं लश पेिलंग काँ प टशन म तुमसे आगे कोई भी नह ं जाना


चा हये समझे? हम उसक पूर तैयार करनी है ओ के?”

“डन म मी!”

और म मी ने अपने िमठू को यार से दे खा। छ: साल का उनका लाड़ला पूर तरह से


उनह ं अपे ाओं पर खरा उतर रहा था। और हो भी य नह ं¸ वे खुद भी तो कतनी
मेहनत कर रह थी उसके पीछे । उसे लास म चल रहे कोस से हमेशा एक लैसन
आगे रखना¸ यूश स के अलावा भी खुद पढ़ने लेकर बैठना¸ उसके जनरल नॉलेज के
िलये ढ़े रो पु तक सी-ड आद लाना। या कुछ नह ं कया था अपने िमठू के िलये
उ ह ने।

िमठू भी पढ़ाई म होिशयार था। लास म हमेशा पहले पाँच म रक होता था उसका।
बाक ए ट वट ज म भी उसके उ साह क सभी तार फ कया करते थे।
उसक म मी को इन दन िचंता थी उसके कूल म होने वाली इं लश पेिलंग
काँ प टशन क । इस राउ ड के बाद य द िमठू जीत जाता है तो इ टर कूल इं लश
पेिलंग काँ प टशन म वह अपने कूल को र ेजे ट करे गा। फर िसट लेवल¸ टे ट
लेवल¸ नॅशनल लेवल और इ टरनॅशनल लेवल।

“मेरा िमठू तो सबसे आगे रहे गा।” ऐसा सोचते हए


ु उ ह ने काफ बड़े सपने बुनने शु
कर दये थे।

िमठू क इं लश पेिलंग काँ प टशन या हई


ु ¸ पूरे घर म जैसे भूचाल आ गया हो।
दादाजी क दवाईय के रै पर से लगाकर कराना सामान के खोके¸ ट वी कमिशय स से
लगाकर अखबार क क टं स तक सब कुछ िमठू के पढ़ने के िलये तैयार रखा जाता।
उसक म मी का बस चलता तो उसे पुरा श दकोष ह रटवा दे ती ले कन उ ह ने सुन
रखा था क इस इं लश पेिलंग काँ प टशन म यादातर वे ह श द पूछे जाते है
जनके बारे म हम सभी क यह धारणा होती है क हम इ ह जानते है ले कन
वा तव म वे बड़े मु कल होते है । उसक काँ प टशन न हई
ु म मी का लड़ ेशर हो
गया जो दन पर दन बढ़ता ह जाता था।

दका
ु न के बो स¸ यूज चैनल के ोलस¸ शेयर माकट क श दाविलय से लगाकर
बॉटिनकल ने स तक सभी क जानकार छोटे से िमठू के पीछे पड़ थी क कब वह
अपने न हे से म त क म उ ह छोट सी जगह दे ।

यहाँ तक क आजकल वह कुछ भी बोलने से पहले भी डरने लगा था। म मी उसके


कहे हए
ु श द श द का हसाब रखते हए
ु उसे बेह ाल कये रहती। उसे येक कहे हए

श द का पेिलंग मालूम होना ज र था।

िमठू कभी कभी सोचता क य द उसे यह पुर कार नह ं िमला तो म मी तो शायद


ब तर ह पकड़ लेगी। हो सकता है युसाईड भी कर ले। और वह टशन म आ जाता
क उसे युसाईड क पेिलंग याद है या नह ं।
इस दबाव से िघरा हआ
ु िमठू आज बड़ा कमजोर¸ थका हआ
ु और सु त दखाई दे रहा
था। दो दन के बाद इं लश पेिलंग काँ प टशन थी इसिलये म मी को लगा क वह
नवस हो रहा है । उ ह ने उसी हालत म¸ उसक कमजोर क कोई परवाह कये बना
इं टं ट पेिलंग सॉ टवेयर पर टे ट आजमाया। अ छे से यान न दे पाने के कारण
िमठू न बे ितशत ह ला पाया। कल तक वह िन यानवे तक पहँु च गया था और
म मी के हसाब से इन दो दन के अ यास से वह पूण भी हो जाता था।

उ ह ने िमठू को फटकार लगाई। कॉ से े शन क कमी का ताना मारकर वे चली गई।

इधर िमठू परे शान हो रहा था। आँख जवाफूल सी लाल¸ बदन गम सलाख सा तपता
हआ।
ु टू टन और कँपकँपी से वह थक गया था। सद खाँसी और तेजी से चलती साँस
के बीच भी वह मे डकल सॉ टवेयर के िसमट स वाले पेज पर गया। उसने अपने
िसमट स डाले ले कन तभी एक च कर खाकर िगरने को हआ
ु ।

िमठू दन भर अपने कमरे म पड़ा रहा। न खाना खाया न कसी से बातचीत क ।


म मी के ड़र से घर म कसी ने भी नह ं पूछा क उसे या हो रहा है ।

म मी दन भर¸ “नवस हो रहा है ” “आज पॉ ट कम कोर कये है इसिलये पढ़ रहा


होगा” जैसी बात बताती रह ।

िमठू के पापा रात दस बजे घर लौटे । हमेशा क तरह िमठू के कमरे म गये। उ ह ने
दे खा¸ उनका यारा बेटा बुखार म भी कुछ बड़बड़ा रहा था।

“ई…एन…एफ…।” वे झ ला उठे । पूरे घर को िसर पर उठा िलया।


“ कसी को कोई खबर नह ं है मेरा बेटा यहाँ बुखार म तड़प रहा है ।”

िमठू से पूछने पर क उसे या हो रहा है ¸ वह घबरा जाता। उसने कसी से कुछ नह ं


कहा। बस यह कहता रहा¸ “अभी नह ं¸ थोड़ दे र से बताऊँगा।”

ज द से डॉ टर को बुलाया गया। सभी िचंितत थे और सभी क उप थित म िमठू


यादा घबरा रहा था। डॉ टर ने सभी को कमरे से बाहर जाने को कहा।

“बोलो िमठू बेटे। या हआ


ु है तु ह? मुझे नह ं बताओगे तु ह या हो रहा है ?”

“डॉ टर अंकल! आप म मी को तो नह ं बताएँगे ना?”

“अ छा नह ं कहँू गा। बोलो भी अब।”

“मुझे इ लुएंजा हआ
ु है । मने मे डकल सॉ टवेयर म िसमट स डालकर मालूम कर
िलया था। ले कन म मी से कहता तो वे उसक पेिलंग पूछती। म या क ँ ¸ मुझे
याद ह नह ं हो रह ।”

और िमठू फर बड़बड़ाने लगा “ई…एन…एफ”…


गहर जड़ के नाम पर

“सार जंदगी घर को सजाने सँवारने म ह लग जाएगी। जाने इसम चैन से रहगे


कब!” खड़ कय के शीशे प छते हए
ु िशखा बड़बड़ा रह थी। परस ह तो साबुन से
धोकर साफ कया था ये सब कुछ। फर गलीचा धूप म डालते – डालते वह पसीना
पसीना हो आई।

“इस घर के मद भी बस नाम को जंदा है । बस खाने को और हु म चलाने को। हँु ह।”


उसने खुद ह बड़बड़ाते हए
ु फोन के आस पास का बखरा सामान साफ कया। सुबह
ऑ फस जाते हए
ु सभी अपने कपड़े ¸ तौिलये¸ गंदे माल यहाँ – वहाँ बखेर गये थे।
रोज घर का यह हाल होता था।

शाद के कुछ दन बाद तक रतेश थोड़ बहत


ु िशखा क सुना सुनी अपना काम करने
लगे थे। ले कन बाबूजी क तीखी आँख जब भी उ ह घर का कोई भी काम करते हए

पकड़ती¸ दस
ू रे ह ण वे ऐसी राजनीित खेलते क िशखा जल भुनकर राख हो जाती।

एक बार र ववार के दन घर भर के परदे धोकर थक माँद िशखा ने रतेश को बस


परद भर बा ट छत पर रख आने को कहा था। बाबूजी ने मौका ताड़ झट समधीजी
को फोन लगाया। बातचीत म लगा बुझाकर कह ह दया¸ “आपके जँवाई तो गुलाम
बने आपक ब टया के साथ कपड़े धो रहे है । अब आ खर एक ह तो दन िमलता है
छु ट का तब भी चैन नह ं। ये औरत तो घर म ह बैठ रहती है रोजाना।”

ऐसा एक नह ं कई बार हआ।


ु बाबूजी वैसे उसक बड़ इ जत करते। चार लोग के
बीच तार फ करते न थकते। माँजी के बाद घर क सार ज मेदार उसी पर स प रखी
थी। िशखा क शाद के ड़े ढ़ साल बाद ह मँझला दे वर राकेश एक वजातीय लड़क को
चुपचाप याह लाया था। पहले से ह घर के काम म ह डयाँ गला चुक सास और
उसी रा ते पर चलती जेठानी के साथ वह नई लड़क कोई तारत य नह ं बैठा पाई।

पु ष य द कोई गलत त य कह रहा हो तो उसे ी ने सुधारना जबान चलाना य


कहा जाता है ? घर म जब रहते सभी है तब थोड़ा थोड़ा काम सभी को करने म या
हज है ?बाबूजी पानी तक अपने हाथ से य नह ं लेते? ऐसे और न जाने कतने और
सवाल मन म िलये वह दो मह ने तक संघष करती रह । सोचती रह क या तो मन
को समझ म आने वाले इन सवाल के जवाब ढँू ढ़ कर यह ं रम जाए या फर अपनी
जीवन शैली इन सभी को िसखाए जसम येक को अपने अिधकार और अपना
य व था।

खैर! सुिच ा एक उ मु आकाश म पली बढ़ सुिश त लड़क थी। उसे इन बंधन म


बाँधना ह बेवकूफ थी। शाद के तीसरे ह मह ने शहर के मधय एक बहमं
ु जला भवन
म लॅट लेकर उ ह ने अपना अलग जहान बसाया। सुिच ा ने छोट सी नौकर करनी
शु क । वे बना कसी से बैर मोल िलये सुखी थे।

ले कन बाबूजी के हसाब से¸ उनके घर से जाने के बाद से ह माँ बीमार रहने लगी थी
और छ: मह ने के भीतर ह चल बसी। मे डकल रपो स से यह मालूम होने के बाद
भी क उ ह पुरानी दल क बीमार थी¸ बाबूजी ने राकेश और सुिच ा का मुँह दे खना
तक बंद कर दया। उनके वचार से सुिच ा का यूँ घर छोड़ना ह माँ क मृ यु का
कारण था।

“अब ये सब कुछ या लेकर बैठ गई हँू म!” महर क आवाज से िशखा क तं ा टू ट ।


अलबम अवेरते हए
ु उसने थोड़े बहत
ु फोटो या पलट िलये थे¸ यूँ ह दमाग म फतूर
उठने लगे थे। साढ़े दस बज रहे है और सारा रसोईघर वैसा ह पड़ा है ।
तभी बाबू जी कसी के साथ बैठक म दा खल हए।

“ऐसा है िम ाजी! हमारे प रवार के र ित रवाज¸ हमारे सं कार इतने गहरे है ना! इसी
के ऊपर तो हम लोग टके हए
ु है साहब।”

ये संभाषण सुनकर िशखा के होश फा ता हो गये। बाबूजी फर उ ह ं गहर जड़ वाले


सं कार ¸ मयादाओं और पीढ़ जात परं पराओं का पुिलंदा लेकर बैठे है । इसका मतलब
िम ाजी आज यह ं खाना खाएँगे। अब तक िशखा को चाय तक पीने का व नह ं
िमला था।

वो सुबह तो कैसे कसरत करते हए िनपट थी िशखा ने उसका भगवान ह जानता है ।


थक हार कर खाना खाने ह बैठ थी क फोन घनघनाया।

रमन क आवाज थी। उसका सबसे छोटा दे वर।

“वो भाभी! मने कहा था ना¸ सा ी को वो पेशल कचौ ड़याँ बनानी सीखनी है आपसे।
तो वो अभी आधे घ टे म ह पहँु च रह है घर पर। अपनी होने वाली दे वरानी को
अ छे से े ड़ कर दे ना लीज!”

उधर से रमन क शरारत भर हँ सी के साथ फोन बंद हआ।


ु िशखा कसककर रह गई।
उसे बाबूजी के सारे श द हथौड़े के जैसे कान पर बजते हए
ु से महसूस हए।

“हमार गहर जड़ है ये सं कार क । मयादाएँ¸ परं पराएँ बड़ क इ जत¸ सबको साथ


लेकर चलना¸ ये सब हमारे घराने क वशेषताएँ है ।”
या खाक वशेषताएँ है ! इनम से एक भी तो वशेषण आपके अपने कम का फल
नह ं है । मयादाएँ य के िलये है क वे काम करती रहे¸ ऊफ न कर। परं पराएँ घर म
िनभती है और घर म रहती है औरत तो िनभाएगा कौन? बड़ क इ जत बहओं
ु को ह
करनी होती है । रह सबको साथ म लेकर चलने क बात तो चौतरफा हमल को लेकर
पु ष हमेशा से ह तो ी क छाती पर सवार होता है जैसे क वह कोई अ भुजा दे वी
हो और नाच नाच कर पु ष क सार ज रत को पूरा करते हए
ु उसके पु ष व के
खोखले अहं क पु करती रहे । जरा सी भूल चूक म उसके मायके का उ ार और खुद
क ऊँचाई का बखान। नींव के प थर जैसी जमींदो त होती इस घर म औरत ह तो
पु ष को अपने ऊपर खड़ा होने का मौका दे ती है ।

“कहने को माल कन होकर भी म या दो कौर भी शांित से खा नह ं सकती हँू या?”


िशखा झ ला उठ ।

सा ी है रमन क मंगेतर। तीन मह ने बाद शाद होने वाली है और रमन चाहता है


क सुिच ा भाभी जैसी भूल सा ी से न हो। इसिलये घर के तौर तर के¸ काम करने
का सलीका आद सीखने के िलये कसी न कसी बहाने से उसे िशखा भाभी के पास
भेजता रहता है ।

कुछ ह दे र के बाद सा ी घर पर थी। िशखा का उतरा हआ


ु चेहरा¸ थक माँद दे ह¸
आधी छूट थाली और ओढ़ हई
ु मु कान काफ कुछ कह रह थी। सा ी को समझते
दे र न लगी। उसे िशखा भाभी के वतमान म वयं के भ व य क झलक पाई और मन
ह मन ढ़ िन य कर बैठ क ऐसा जीवन तो कतई नह ं।

वो कुछ कह पाती इससे पहले ह बाबूजी बैठक म पधारे । “अ छा तो छोट बहू आई


है ।”

“जी बाबूजी।”
िशखा बाबूजी को सा ी से बाते करते दे ख अपना बाक काम िनपटाने लगी। कुकर म
कचौड़ के िलये आलू उबलने रखे। मैदा नापकर थाली म ड़ाला। तभी फर वह
संभाषण कान पर पड़ा जो सुबह िम ाजी सुनकर गये थे।

“हमारा प रवार इतने गहरे सं कार क जड़ से बना है क…” िशखा को लगा क


उसके कान बज रहे है ।

तभी सा ी ने मु कुराकर उनक बात काटते हए


ु कहा¸ “माफ क जयेगा बाबूजी! इस
प रवार के र ित रवाज और परं पराओं के वषय म आप मुझे पहले भी चार पाँच बार
समझा चुके है । और हाँ! म ये भी जानती हँू क सुिच ा भाभी और राकेश भैया का
आप मुह
ँ भी दे खना पसंद नह ं करते। य क वे इस प रवार क र ित के अनुसार नह ं
चले। और इस वजह से माँजी चल पड़ । ले कन बाबूजी एक बात कहँू ?”

“हँू …”

“डॉ टर ीवा तव ज ह ने माँजी का इलाज कया था वे मेरे दरू के अंकल लगते है


उ ह ने ह मुझे बताया क उ ह पुरानी दल क बीमार थी। खैर ! ये सब बात …”

“सा ी ऽऽ”

बात बगड़ती दे ख िशखा ने अंदर से आवाज द । कोई ित-उ र नह ं िमला। सा ी


कहती चली।

“दे खये बाबूजी जन गहर जड़ से जुड़े रहने क आप बात करते है उन जड़ को भी


तो वािभमान¸ स मान और अिधकार के पानी क आव यकता होती है । ये तो अ याय
ह होगा क सार शंसा फूल प े ह बटोर ले जाएँ और जड़ गहर और गहर दबती
जाएँ! इतनी क अपना अ त व ह खो दे…!”
शाम को रमन ने खाना लगाने म िशखा भाभी क मदद क । अपने कपड़े यव थत
रखे।

“ य रे रमन! सा ी यहाँ से सीधी तेरे पास आई थी या?” िशखा ने आ य से पूछा।

रमन बस मु कुराकर रह गया…


बेट

“ये तो बात तु हार गलत है द दा।”

दनेश चबूतरे पर से उठ खड़ा हआ


ु था।

“ज रत तु हार आन पड़ है सो हमार ज जी क दहाई


ु दे ते पहँु च गये हो। इतने ह
र ते िनभते तुमसे तो हमारे वकास को ये दन ना दे खना पड़ते। आए हो जँवाई
बनने। अब वो लखनपुर क ससुराल याद नह ं आई?”

“बाबू!” पताजी क हु के वाली सधी आवाज गूँजी।

वे खँखारकर गला साफ करते हए


ु कमरे से बाहर जाने के िलये उठे । उमा ने सहारा
दे ना चाहा ले कन उनक
व ह ना के िलये काफ थी। बाहर आकर दे खा¸ सर झुकाए सदानंद बाबू बैठे थे।
दनेश वह ं पर¸ आधे घ टे पहले झाड़ बुहार हई
ु जगह पर जबद ती झाड़ू फेरकर
गु से को दबा रहा था।

“ णाम पताजी!” सदानंदजी अनमने भाव से झुके।

इधर एक हक
ू सी उठ । इस य को दे खकर न चाहते हए
ु भी वो सब याद आ जाता
है ।
कैसा हँ सता गाता घर था। कैसी झलिमल बारात उतर थी। गाँव उलट पड़ा था द ू हे
क एक झलक पाने को। बदाई के व द ु हन बनी रमा ब टया और ये ह दू हा जब
आशीष लेने को झुके थे तब पताजी क एक आँख बेट क बदाई को रोई थी और
दसर
ू ¸ अ छा घर वर िमलने पर बेट के भाग जगने क खुशी म बरसी थी।

रमा¸ उनक पहली संतान। उ ह पता के गौरवपूण पद पर आसीन करने वाली उनक
लाड़ली। जाित समाज क भी फ कये बना उ ह ने रमा को कॉलेज भेजा। बी कॉम
करवाया। पढ़ िलखी¸ काम काज म गुणी और सुंदर ब टया को घर भी ऐसा िमला था
क एक पल को तो उधर से हाँ आने पर पताजी को खुद के कान पर भरोसा नह ं
हआ
ु था।

वह रमा शाद के दसरे


ू ह साल यारे से बेटे के दोन कुल को िनहाल कर बैठ थी।
कतने चाव से सारे नेग शगुन दये और र ती रवाज िनभाए थे पताजी ने। दनेश
और उमा तो दन भर जीजी¸ जीजाजी और छुटके क ह बात कया करते। उसके
भा य पर इतराते फरते।

उसी रमा ने फर मामूली बुखार म जो ब तर पकड़ा था। डॉ टर के इलाज के िलये


शहर ले जाने क बात पर आगे पीछे होते हए
ु ये सदानंदजी ह अपनी माँ के कहने पर
नीम हक म के च कर म पड़े थे। और सह इलाज के अभाव म रमा द द ¸ चार साल
के वकास को छोड़कर चल बसी।

पताजी अंदर से टू ट गये थे। वो तो दनेश ने खेती बाड़ स हाली और काम काज
अपने हाथ म िलया तब जाकर धीरे धीरे सब कुछ ठ क होने लगा था।

तभी खबर िमली थी सदानंदजी के दसरे


ू याह क ।
“कोई जादू टोना ह कया है कँवरजी पे उन लखनपुर वाल न । कहाँ तो सोने सी
सुंदर ब टया मेर और कहाँ उस साहकार
ू क मँझली बेट ला रहे है । जाने या गुल
खलाएगी अब।”

बाबूजी हर आए गये को यह सुनाते। माँ पर तो जैसे द:ु ख का पहाड़ ह टू ट पड़ा था।


चू हे म जलती आग के जैसे उनका जी भी जला करता था। दनेश और उमा भरसक
वयं को सामा य बनाए रखने का यास कया करते। सबका जी जुड़ता था कह ं तो
बस छुटके का याल करके। न ह ं सी जान! कूल जाने लगा था। म मी को याद
करके रोना भूला भी नह ं था अभी क ये सौतेली माँ आ बैठ है । जाने या सीख
पढ़कर आई होगी।

खैर! वमला ने इन लोग से अपने संबंध बखूबी िनभाए। उसक सास को पसंद तो
नह ं आता था ले कन वकास को लेकर रमा द द के मायके वे साल म एक बार ज र
आती थी। सदानंदजी को खैर अपनी नई ससुराल खूब फली। हर छठे चौमासे आठ
प ह दन रह आते। िशकार¸ दावत हर तरक का आनंद रहता। लखनपुर का राजाराम
यदा कदा दनेश को छे ड़ा करता था। “तु हारे कँवर साहब तो लखनपुर म बराजे है
ह ता भर से। खूब मौज मजा चलता है ।” दनेश तड़पकर रह जाता था। ले कन
चुपचाप सुन लेने के अलावा कोई चारा भी तो नह ं था।

वे ह सदानंदजी इतने स के बाद घर पधारे थे। वकास शहर से पढ़ िलखकर लौटा


था। अ छ फम म नौकर भी पा गया था। ले कन वहाँ कसी मराठ लड़क को पसंद
कर बैठा। अब जद पर अड़ा है क शाद करे गा तो उसी से। लड़क के ताऊ इसी गाँ
के है । उनके लड़के के साथ दनेश का उठना बैठना है ।

सदानंदजी बरादर बाहर क बहू नह ं चाहते थे। दनेश से कहने आए थे क लड़क के


भाई को समझाकर लड़क को पीछे खींच ले। और इसी बात पर दनेश फट पड़ा था।

असल म बात कुछ और ह थी। पछले मह ने वकास अचानक एक दन के िलये


दनेश के पास आया था। सीधे खेत पर ह िमला था सो कोई जान नह ं पाया। लड़क
का नाम¸ फोटो दखाकर आशीवाद ले गया था। दनेश तो इसी म ग ग हआ
ु जा रहा
था क भांजा अभी भी मामा से इतना जुड़ा हआ
ु है क मन क बात उसे सबसे पहले
बताई। इसी बात पर रोजाना उठने बैठने वाले लड़क के ताऊ के लड़के यानी अपने
दो त के साथ िमलकर उसने बधाई भी ली द थी। ले कन बात अपने तक ह रखी।

और आज सदानंदजी इसी खुशी म खलनायक बन पुराने र त क दहाई


ु दे ने आए थे।
माँ उनके यथे वागत स कार म लगी थी । उमा यहाँ – वहाँ दौड़ भाग कर रह
थी।

सदानंदजी ने बात मालूम पड़ते ह पहले तो वकास को खूब खर खोट सुनाई। अपने
घर के सं कार क दहाई
ु द । ले कन जब वह टस से मस नह ं हआ
ु तब खुद को
मामले से अलग करके तट थ बने रहे । वकास भी दसरे
ू ह रोज शहर चला गया था।
बात हाथ से िनकलती दे ख उ ह ने लड़क के सभी संबंिधय क पड़ताल क और यहाँ
तक पहँु चे थे।

दनेश अपने दो त राजीव से ये बात हिगज करने को तैयार नह ं था क वह अपनी


बहन को समझाए। वकास को अपनी माँ तो ठ क से िमली नह ं। पताजी हमेशा खुद
म ह म त रहे । रह सह नई माँ¸ तो उसका दय कसने टटोला है आज तक? और
यह सदानंदजी आज रमा द द क याद म दो चार आँसू भी ढ़ाल चुके थे। उ ह ं पुराने
र त को उखाड़ रहे थे ज ह उ ह ने खुद ह अपना मतलब पूरा होते से ह भुला
दया था।

उनक और दनेश क कहा सुनी पर पताजी ने ठं डा पानी डाला था।

“ वकास बेटा समझदार है । उसे थोड़ा व दे ने क ज रत है । अभी हम भी बात नह ं


उठा सकते और आप भी धीरज रखकर बै ठये। जो भी होगा¸ भु क मज से ठ क ह
होगा।”
सदानंदजी के लौटने के बाद कुछ दन तक शांित रह थी घर म।

फर उस दन वमलाजी वयं आई थी। अकेली¸ वकास के िसवाए वे पहली बार थी


यहाँ पर।

“ये आए थे न यहाँ!” सीधी बात कह थी उ ह ने।

“हाँ बेट ! आए तो थे कँवरजी।” माँ ने अपनी कमजोर आवाज म कहा।

“इ हे जरा भी नह ं सुहाया है वकास और अ दती का जोड़ा। ले कन…” उ ह ने आगे


कहा।

“मुजे कोई आप नह ं है । म तो िमल भी आई हँू अ दती से। बड़ समझदार और


गहर लड़क है । आप या कहती है माँजी?”

तब तक दनेश भी आ चुका था।

“हम या कहगे ज जी! हमार रमा ज जी के जाते से वकास या¸ वो घर या¸


हमारे हक से¸ र ते से तो गया है । उस दन जीजा साहब आए थे पुराने र ते िसलने
और आज आप आई है यहाँ। हमसे िनबाता तो है नह ं कोई¸ गरज पड़ते आ जाते है
सभी।”

दनेश बना उ र क ती ा कये हाथ मुँह धोने आँगन म चला गया।


“ऐसा य कहते है भैया? मने या वकास को कोई गलत परव रश द है जो आपक
द द नह ं दे ती। या कसर छोड़ है उसक माँ बनने म मने? वमलाजी क आँख भर
आई। घर का वातावरण बो झल हो उठा। और कोई चारा न पाकर पताजी¸ माँ¸ उमा¸
दनेश सभी उनके इद िगद चौके म ह जमा हो गये।

“दे खो भैया! दे खये पताजी! म जानती हँू रमाजीजी जैसी सुल णा ी ढँू ढ़ने पर भी
नह ं िमलेगी। ले कन मने भी तो अपनी पूर कोिशश क ना खुद को उनक जगह
रखने क ?” वमलाजी मुखर हो उठ ।

“अपने सास – ससुर के तान सुनकर भी छोटे वकास को लेकर आपके पास आती
रह । या रमा जीजी जंदा होती तो या वे भी नह ं आती ऐसे ह ? वकास के सारे
तीज यौहार इस गर से आए कपड़ म ह करवाती रह जससे उसे मामा घर का नेह
लगे। उसे सार कहािनयाँ आप लोग क ह सुनाती रह जससे वह आप लोग क
ओर ह खंचा रहे । और माँ …” अपनी सार श बटोरकर उ ह ने आगे कहा…

“लायक होते हए
ु भी बाँझ होने के ताने सुने जंदगी भर। या इतना भी काफ नह ?ं ”

वमलाजी अब फफक फफक कर रोने लगी थी। माँ का आँचल और उमा का दप


ु टा
भी भीगा। दनेश और पताजी आ यिमि त भय से इस रमा द द क सौत को दे ख
रहे थे। इस बात पर तो गौर ह नह ं कया उ ह ने कभी। उ टे जीजी का घर हड़पने
के कारण ह उ ह संतान सुख से वंिचत रहना पड़ा है यह सोचकर खैर मनाते रहे थे।

जस औरत ने हमार बहन के बेटे क खाितर अपनी जंदगी दाँव पर लगा द । सारे
हक हम दये और हम उसे कुछ अपने से श द भी न दे पाए। शायद इसीिलये
वकास¸ दनेश को ह आकर सबसे पहले अपने मन क बात बता गया था।

दनेश अब और नह ं सह पाया। अपने मन क उथल पुथल दबाकर वह कुछ कहने ह


जा रहा था क िनयं त वर म वमलाजी बोल पड़ ।
“खैर! अब इन बात म कुछ नह ं रखा। घर म तो कोई वकास क इस शाद के प
म नह ं है । ले कन मने ह उसे ह मत द है । माँ के यार को तरसा हआ
ु बेटा अब
अपने जंदगी के ेम को तो न तरसे। अगले मह ने शहर जाकर शाद कर आऊँगी
दोन क । मामा घर से आप लोग रहगे ना?”

“बेट !” भराए वर म पताजी बोल पड़े ।

“ वकास बेटा तरसा तो है । ले कन अपनी माँ के यार को नह ?ं पता क छाया को।


तु हार जगह य द हमार रमा होती तो वो भी अपने बेटे के िलये शायद ह इतनी
ह मत करती।”

फर वे भाव वभोर सी बैठ रमा क माँ से कहने लगे¸ “सुन रह हो ना रमा क माँ?
रमा बेट कह ं नह ं गई। वकास के पास है वो। हमारे घर म है ।” माँ को तो समझ
नह ं आ रहा था क इस ण को वे कहाँ छुपाकर रख दे ।

पताजी वमलाजी को भरे गले से कहने लगे¸ “ये तो तु हारा मायका है बेट । पूछो
नह ं हक से कहो। हमारा नाती है । उसक शाद पूरे जोर शोर से होगी। हम सब चलगे
शहर।”

सबके दय से कतना बड़ा बोझ उतर गया था। सबक आँख से खुशी बह रह थी।
कुछ दे र बाद पताजी कहने लगे¸ “अरे रमा क माँ! भूल गई या सबकुछ? शाद तय
हई
ु है नाती क । बेट को शगुन क साड़ तो ओढ़ाओ…!”
जंद गी भर का साथ

टे ढ़ मेढ़ लक र खींचते आधा घ टा बीत गया। घड़ क ओर दे खा। अभी तीन घ टे


बाक थे आकाश को लौटने के िलये। घर का काम ख म कर पछले एक घ टे से म
ट वी के सामने बैठ थी। और कोई होता तो ट वी ऑन भी कया होता। मुझे इन
फालतू सी रय स म कोई रस नह ं आता। पहली बात तो इतना यादा र त का
उलझाव दे खकर ह उबकाई आने लगती है । फर व काटने के िलये और कोई ज रया
भी तो नह ं है िसवाय खाली बैठे रहने के िसवाय।

अिचं य¸ मेरा बेटा। हो टल म हे । घर म और कोई नह ं है । सार सोसाईट मेरे भा य


पर ई या करती है । कोई “झंझट” जो नह ं है मेरे पीछे । जब जी चाहे घर को ताला
लगाकर कह ं भी घूम आ सकती हँू ¸ शॉ पंग पर जा सकती हँू । अ छ खासी मॉल
कार भी है मेरे िलये।

कतना गु सा हए
ु थे आकाश उस दन मने कहा था। “अिचं य अब ए थ म आ गया
है । काफ मै योर हो गया है । य ना एक और इ यू।”

“ये खाली बैठे बैठे कुछ भी फतूर पाल लेती हो तुम दमाग म। आसान बात है या
एक और बेबी मैनेज करना? जानती हो तुम क कोई और है नह ं हमारा। फर तु हारे
चेक अप¸ त बयत¸ हॉ पटल वगैरह के िलये मुझे मेरे साल भर से तय ो ा स ड टब
करने पड़गे।”

कहने को कतना कुछ था मेरे पास। शार रक¸ मानिसक यं नाओं से गुजरने को तैयार
थी म। अपनी सोच क ¸ अपनी अिभ य क एक सृजना मक ितकृित चाहती थी
म। काश क ब चे पैदा करने के िलये मुझे कसी पर िनभर नह ं रहना पड़ता!
सारे क तो मुझे होने थे जनका कुछ भी सोचे बगैर आकाश फैसला ले चुके थे।

म जब अपने आप म लौट तो पाया क खाली थाली के सामने बैठ हँू । आकाश खाना
खाकर ट वी के सामने बैठे थे। ट वी चालू था…

ऐसा तो हमेशा से है । मेरे सामने ट वी भी काली होता है और थाली भी। आकाश कहते
तो है । े स बनाया करे । कट जॉईन करो। पाट ज म जाओ। ले कन तुमम वो चीज
है ह नह ं। आ खर प थर से बात करने क आदत ड़ालनी है तो ये भी तो याद रखना
होगा क थोड़ दे र बाद ये बात वा पस भी तो लौटगी टकराकर! वो सब सुन सुनकर
अब को त होने लगी है ।

घूम फरकर बस एक ह सवाल मन म गूँजता है । अब आगे या? कई बार तो दमाग


पर जोर डालने पर भी आकाश क छ व ह याद नह ं आती। फर म घबराकर
फोटो े म पर नजर डालती हँू ।

उस दन डॉ टर आनंद का फोन आया था आकाश के िलये। इ ह साईके ट के


क स टं ट क या ज रत पड़ गई? कुछ बात छुपकर सुन ली थी मने।

“एकदम कूल है डॉ टर ! कोई लाईफ ह नह ं बची। फु ली अन ड़ टे बल। यू नो!


कोई रले टव भी नह ं है मेरा जो कंपनी दे सके।”

फर कुछ दन के बाद अचानक अिचं य घर आ गया। आकाश को छु टयाँ िमली।


हम हल टे शन गए। वह ट न। सुबह उठकर श करने जैसा या फर डाई वंग के
जैसा लगता था। ऊपर तौर पर कई चे जेस दखाए मने ले कन अंदर न जाने या
ऐसा िचपक गया था जो लाख िनकालो¸ िनकलता ह नह ं था।
आकाश भी जैसे अपना सब कुछ कह ं बाँट आए थे। दो खोखली जंदिगयाँ एक साथ
आ खर या कर सकती थी?

“तुम ना आकाश! मुझे कभी नह ं समझ सकते।”

आ खर दन था छु टय का। शाम क लाईट थी। सुबह ना ता करते व जब मेरे


ह से खालीपन आया तब यह तो िनकल पड़ा था मुँह से। आकाश दे खते रहे थे मुझे।

“आर यू ओके िसमी?”

“मेरा नाम िसमी है ना! वो अरसे बाद आपके मुँह से सुना इसिलये…”

“लेटो–लेटो¸ आराम करो तुम।”

“डॉ टर वो बहत
ु कोिशश कर रह है बट कह ं कोई गड़बड़ है । ठ क है ¸ दन म दो ना?
म डोज़ डबल कर दँ ग
ू ा। आई वल लेट यू नो। बाय”

डॉ टर आनंद ह तो थे। आकाश मेरे िलये डॉ टर आनंद से क स ट कर रहे है । कौन


सी दवाई चल रह है मुझे जसका डोज़ डबल होने वाला है ?

खैर छोड़ो! ऐसे जाने कतने ह क से हो चुके है मेरे साथ। कह ं जाने के बहाने
आकाश दस दस दन िसट म ह होते और मुझे अखबार पढ़कर मालूम होता।
ऑ यूमट क ँ तब तक उनके हसाब से इतना व गुजर चुका होता था¸ इतनी
है पिनं स हो चुक होती थी क मुझे हर व पुराने इ यूज को न िघसते रहने क
हदायत िमला करती थी।
फर आई िनमला। फर साल भर का फॉरे न टू र। मुझे िसफ दो दन पहले मालूम पड़ा
था क अब साल भर अकेली रहना है । ऑ फस से सैलर चैक आ जाया करे गा।

आज हम वेकेशन से लौटे दो मह ने हो गये है । आकाश फर तीन मह ने के टू र पर


बाहर गये है । म माता मणीदे वी मानिसक णालय म भत हँू ।

दमाग पर बहत
ु जोर डालो तो याद आता है । आकाश डॉ टर आनंद से िमलकर आए
थे। और फर अजीब सी श ल सूरत वाली दो बाईयाँ आकर मुझे ले गई थी। मने कोई
ितरोध नह ं कया। उ ह ने साँस छोड़ते हए
ु कहा था¸ “थक गॉड ये वॉयलट केस नह ं
है ।”

ले कन मुझे समझ नह ं आया। इस हसाब से तो पछले पाँच साल से म पागल ह


कहलाऊँगी। पहले पाँच साल तक म भी हर चीज से भा वत होती थी। खुशी¸ दद¸
आँसू मुझे भी तो महसूस होते थे। ले कन मेर कसी भी पुकार का असर आकाश पर
नह ं होता था। वो जैसा चाहते¸ म वैसा करती जाती। ितरोध करना छोड़ दया।

जब कोई सुनने वाला ह न हो तब द वार से बड़बड़ाने वाला भी पागल कहलाता है


और चुपचाप खुद से बात करने वाला भी। यह तो चाहते थे ना आकाश? मने िसफ
उ ह ं का सुना। खुद को दफना दया। फर भी जाने या¸ कहाँ गलत हो ह गया। मुझे
अपने दो त शांत से बार बार िमलवाकर हम घ टे दो घ टे अकेले छोड़ दे ने वाले
आकाश शायद जानते नह ं थे क म ये अ छ तरह से जानती हँू क म कसी शांत
से नह ं डॉ टर आनंद से बात कर रह हँू ।

उस दन भी सी ढ़य से उतरते व िस टर मेरा हाथ इतने जोर से पकड़े हए


ु थी! मने
जरा छुड़ाने क कोिशश क तो वे िच ला पड़ । “शी इज गै टं ग वॉयलट! हो ड हर
ॉपरली।” और फर मुझे और जोर से
पकड़कर ले जाने लगे थे।

परस आकाश आए थे। सूजा हआ


ु सा मुँह लेकर अिचं य भी आया था। और मेर
काय यू साड़ म थी िनमला। अिचं य िछटककर दरू जा खड़ा था। मुझे दे खकर
मु कुराया। साल बाद उन जोड़ भर आँख म अपना सा कुछ तैरता दखाई दया।

अिचं य ने भी िनमला का कोई वरोध नह ं कया था। मेरा बेटा। ब कुल मेरे जैसा।
मुझे अब कोई दद नह ं। म न सह मेरा अ स है आकाश के पास। उसे जंदगी भर
का साथ िनभाने को…
चुप होती आवाज

ु सी वीरािनय के साये पड़े है इस भर पूर जंदगी पर। ये िसफ म नह ं¸ हजार


“बहत
लाख के दल क बात ह गी जो ल ज से कभी िमल ह नह ं पाई। कभी ना कभी
का वो औरत होने का दद जब नासूर बन जाता है ¸ हम उसे समझौते और दसर
ू पीढ़
क भलाई के नाम पर भगवान क नेमत का पल तर चढ़ा बस आगे बढ़ने और व
काटने का ज रया बस बन जाते ह।

बदलाव क फेह र त जो कभी ख म नह ं होती। म अपने मन क बात आम औरत


क तरह नह ं समझा सकती पूर तरह। बहत
ु सी जगह पढ़ा है जो िलखा जाता है
पु ष के िलये क वे समझे एक नार क अपे ाएँ ले कन संसार क हर एक नार ये
जानती है क ये सब झूठ है । अपने आप से क जाने वाली अपे ाओं को कज क
तरह उतारना¸ बात को दल से लगाकर रखना और फर भी दोयम दज पर ह पड़े
रहना ये सोचकर क चलो ये तो नसीब हआ।

मेरे याल से अपनी भावनाओं का दशन कर हम खुद ह मुसीबत मोल लेते है ।


अित संवेदनशीलता ह हमार कमजोर है । पु ष जानते है क कमजोर प र थितय म
औरत ह सबसे पहले पघलती है ।”

िलखते िलखते माथा गम हो उठा मधु का। ये बस स मेलन म पढ़ने के िलये क जा


रह तैयार है या दबाहआ
ु सा कुछ िनकलने लगा था व क खुरचन खाकर?

बरस पहले क वो मानी बात¸ इं तजार क रात¸ दल पर प थर रखकर मानी गई


तोहमत¸ खुलती स चाईयाँ¸ सतह र त¸ सूखता यार और आज क वीरानी । कलम
रोककर एक लास ठं ड़ा पानी पया¸ अपने फैसल को टटोला और आ म व ास से बर
कुछ साँस के पैबंद लगा फलहाल तो उमड़ते सैलाब को रोक दया।
अब डर लगता है खुद से ह । खुद क ह बनाई हई
ु जंदगी। जब खुद के ह हाथ से
िनकलने लगी थी तब उसने खुद को ह िनकाल िलया था उस भँवर से।

तं ा टू ट ¸ मधु आज म लौटा लाई खुद को। ऊँचे सपने दे खने वाली हर युवती क तरह
मधु के भी वाब जंदगी म बुलं दय को छूने के थे। आज वो बुलद
ं पर है । ले कन
वाब पूरा होने के साथ उसे ये भी चा हये क कोई सुने क वह कतनी मेहनत से इस
मुकाम पर पहँु ची है । मधु स सेना या फर वमा। फर वह उलझन। छोड़ो भी¸ जरा सी
वचार को हवा लगती है तो दरू तक आग जाती है ।

ऊँचाई वाकई म खुबसूरत तो होती है ले कन वहाँ जगह बहत


ु कम होती है । मुझे
समझने वाला शायद कोई भी नह ं बना। शायद सबको यह समझाते हए
ु जीना ह मेर
जंदगी है ।

ध प… “पो टमॅन”

शाम के साढ़े चार बजे है । डाक आई है । ले कन वो फुत नह ं है जानने क क या


आया होगा। कोई कौतूहल नह ।ं नयापन नह ं। कुछ बचा है तो बस खीज और ओढ़
हई
ु उ । डाक म मधु के िलये होता भी या है । कह ं स मेलन म अ य ता का
ताव तो कह ं उ घाटन का आमं ण¸ वृ ारोपण या अनाथालय के ब च से
मुलाकात।

शु आती दौर म अ छा लगता था ये सब। प रवार म अपने अ त व को लगता जंग


जब घुन क तरह खाने लगा था तब मधू ने अपनी अिभ य य के िलये समाज सेवा
का रा ता चुना था। शु म दो चार ब च को मु त म पढ़ाना¸ कामवाली औरत क
सम याएँ सुलझाना¸ अनाथालय म जाकर ब च क ज रत क व तुएँ बँटवाना¸
वृ ा म म जाकर व बताना ये सब कुछ उसक दनचया के अंग बन चले थे।
फर ज ह अपने काम के िलये उसक ज रत और आदत पड़ चुक थी वे प रवार के
सद य धीरे धीरे कुलबुलाने लगे।

आ खर म थितयाँ कुछ इतनी उलझ गई क उ ह सुलझ पाने क थती म न पा


उसने वयं ह इस सब से अलग हो जाना ठ क समझा।

दस वष! कोई कम व नह ं दया था प रवार को। वो भी इतना व इसिलये खींच


पाई य क तीक साथ थे। सचमुच¸ घर क ज मेदा रय को िनभाती और अपे ाओं
को पूरा करती हई
ु बुर तरह से ऊबी हई
ु प ी को कोई भी काम के बोझ से दबा हआ

पित कभी भी समझ नह ं सकता।

नौ साल तक मधु¸ तीक को समझती रह और दसव साल म उसने अपे ा क क


तीक कुछ समझा करे । ले कन साल भर से कम म ह सार समझदार ¸ शक शबूह ¸
अबोले और ऊँची आवाज म संभाषण करते हए
ु अपने अहं क अिभ य म बदल
गई।

बात घर से बाहर जाएँ इससे पहले ह मधु ने अपने आप को स हाला । काम करना
शु कया और आ मिनभर होते ह आ मस मत िनणय लेकर अलग हो गई। कतना
समझाया था सभी ने। पताजी दस दन तक आकर रह गये थे।

सबको पछले दो साल से बना शत लौटाती रह है वो। सबक बड़ बड़ बात¸ “चै रट


बिग स ॉम होम”। फर “अपना घर तोड़कर दसर
ू को जोड़ने क कोिशश बेकार है ।”

मधु को एकाएक व मय सा होता। उसने तो घर छोड़ा है । उसके वहाँ से हटते ह वो


एकाएक टू ट कैसे गया? सच ह तो है ! जब रं ग बरं गी¸ इतराने वाली द वार का साथ
नींव छोड़ दे गी तो घर तो टू टे गा ह ।
सब कुछ सोचना छोड़ उसने च मा उतारा। कचन म जाकर चाय बनाई। चाय पीते
पीते शाम क डाक दे खने क आदत थी उसक । इस आदत पर अब कोई टोकने वाला
या उसे अपनी मातहत समझकर ड ंग हाँकने वाला कोई नह ं था यहाँ।

वतं हवा म साँस लेने का सुख कुछ अलग ह वाद दे ता है। कतना तरसी थी वह
इन सूकून भरे पल के िलये अपनी पछली जंदगी म। अब रोकने टोकने या अपे ाओं
बरा चेहरा लेकर सामने बैठने वाला कोई भी नह ं है । सचमुच! कोई भी तो नह ं है ।
कुछ भी करने के िलये…

ऐसा य लगता है ? अपने ह िलये हए


ु िनणय पर फर से सोचने का मन होता है ।
िसवाए तीक और गु ड़या के¸ कुछ भी तो ऐसा नह ं है जो आँख नम कर सके।

उस दन साम क डाक म गु ड़या का काड आया था। याद आया¸ दो दन बाद


ज म दन है मधु का। चुपके से डाला होगा। वो भी अब ऐसी उ म नह ं है क उसे
कुछ भी कहकर मन बहलाया जा सके। पूरे नौ बरस क हो गई है अब।

“माँ! पापा खुद पर जरा भी यान नह ं दे ते। घर म दादा – दाद से झगड़ा चलता
रहता है उनका। म अ छे से पढ़ाई करती हँू ले कन आजकल कूल ज द से आवर
भी हो जाए तब बी घर लौटने का मन नह ं करता। एनी वे ! है पी बथ ड़े ।

गु ड़या”

कतने बुरे मोड़ से गुजर रह है गु ड़या! तीक ने ह तो ज मेदार ली थी उसक ।


एक दसरे
ू को समझदार और नये जमाने के वय क क तरह मानते हए
ु मधु और
तीक ने एक दसरे
ू से अलग होने को “व क माँग” के जैसा सतह नाम दया था।
सच भी था¸ इतनी गहर चोट¸ यादा यान दे ते रहने से नासूर बन सकती थी। एक
दसरे
ू से अपना मन छुपाकर¸ मन ह मन अलग होने चले थे।

आगे क जंदगी! मधु¸ तीक¸ गु ड़या…

“ या क ँ ! कतना कचोटता है ये सवाल?”

नह ं! अपनी ह आवाज को दबा दया था उसने।

जंदगी अजीब से मोड़ लेती रह थी। मधु और यादा य त¸ और यादा “कामयाब”


होती रह । गु ड़या के काड¸ प आते रहे । मधु सावजिनक जीवन म एकाक पन उठाए
ऊपर चढ़ती गई। पछले सारे रं ग फ के पड़ते गए। उनपर जंदगी का एक दसरा
ू ह
रं ग असर दखाता गया।

व जैसी दमदार चीज के सामने नाजुक संवेदनाएँ अब हार मानने लगी थी। ठहरे हए

पानी म अपने वचार क लहर के सहारे बहने का मजा ढँू ढ़ िलया था मधु ने।

इसी ठ रे हए
ु से पानी म एक बड़ा सा भँवर उ प न हआ
ु था उस दन।

दरवाजे के उस पार¸ घ ट बजाने वाला श स और कोई नह ं¸ तीक ह था। शायद इस


पल को क पनाओं म कई बार जी चुक थी मधु¸ इसिलये तीक क उप थित को
सहजता से ले पाई। मन म कतना कुछ ऊपर नीचे हो चला था। जाने या या
बोलता रहा वो। जाने या या सुनती रह मधु।

उन श द म कोई अथ नह ं रखा था उसके िलये। उसे तो तीक का सामने होना ह


सब कुछ लगता रहा। तीक भी शायद काफ पूवा यास से आया था सो इतना
धारा वाह बोल सका। सब कुछ सुनकर भी यूँ लगा जेसे ये बीते कल क चंद
ित विनयाँ है । वे तनाव ज ह श द के ज रये आपसी झगड़े बनने से पूव ह मधु ने
खुद ह ढ ला कर दया था वे अब पुन: तंबू के जैसे तनकर उसे अपनी छाँव म लेने
क कोिशश म थे।

तीक क बात से प था। वह अंदर से बुर तरह से टू ट गया था। माँ – बाबू जी से
बातचीत बंद थी। गु ड़या से र ता सुख चला था। इस िघर आए अकेलेपन को काटने
का मधु के जैसा कोई भी तो तर का नह ं था उसके पास।

तीक लौटना चाहता था। वो मधु को लेने नह ¸ं उसके पास आने क इजाजत माँगने
आया था।

मधु के िलये इस ताजपोशी का नशा अलग ह था। फूल से ह के होते पल कतने


अपने से लगने लगे थे। ले कन मधु जानती थी क ये खुिशयाँ उसके िलये नह ं बनी
है । घर बचाने के िलये उसका घर छोड़ना जब सबको घर तोड़ना लग सकता है तब
पित का उसके पास लौट आना यानी बुढ़ापे म माँ – बाप को अकेला छोड़ना नह ं
होगा?

उसके मन से हजार आवाज आती रह ।

तीक को उसने अपने एक एक आँसू का हसाब दया। मन क उमंग से दो ती


करवाई अरमान क फेह र त सुनाई। ओढ़ हई
ु तट थता के अंदर क टू ट हई
ु अकेली
मधु उस एकाक ण म मुखर हो उठ । तीक भी यादा अलग नह ं था।

मधु का वा पस जाना संभव नह ं था। तीक का यहाँ आ जाना सह नह ं था। दोन ने


एक दसरे
ू क आवाज सुनी¸ पहचानी। ले कन उनका जवाब उन दोन म से कसी के
पास भी नह ं था।
फर व आगे जाता गया। गु ड़या के खत आते गए।

“पापा मेर पढ़ाई म इ े ट लेते है माँ। खूब मेहनत करते है । दादा दाद से यादा
बोलते तो नह ं ले कन झगड़ते भी नह ं। दो दन के बाद कूल म छु टयाँ है । पापा
मुझे ए ट वट कै प भेजगे। बाक सब ठ क है ।

गु ड़या।”

मधु ने हमेशा क तरह शू य म ह दे खा ले कन एक तस ली थी। अपने ऊँचे होते


अरमान क आवाज को चुप करने के बाद¸ इस मौन क आवज यादा सुर ली थी।

जात

“मैिथली! ज द करो आशीष पहँु चता ह होगा।”

“बस हो गया भाभी!” मैिथली क आवाज धीरे धीरे पास आती गई।

“बस थोड़ा सा ये लप तकलीफ दे रहा था। बाक तो म ये तैयार हँू ।” अब मैिथली


एकदम सामने थी शुभा के।

“अब दे खती ह रहोगी या कहोगी भी क कैसी लग रह हँू ।”


शुभा क आँख मे एक साथ कई व न तैर गए। वयं को संयत करती हई
ु वह बोली¸
“नजर न लगे। म ना कहती थी! पीच कलर कतना सूट करता है तुझ!े ”

सचमुच! हकोबा का बार क काम कया हआ


ु बन बाँह का कुरता¸ तंग चूड़ दार और
नेट क चु नी म मैिथली का प फटा पड़ रहा था। ितसपर टल क ढ़े र चू ड़याँ
एक हाथ म और दसरे
ू म भैया क बथ डे पर िग ट क हई
ु गो डन र ट वॉच।
सलीके से सँवारा गया चेहरा¸ बाल और मच करता पस। और या चा हये शॉ पंग के
बहाने कसी “यो य” लड़के के साथ घूमने के िलये।

मैिथली शुभा क ननद और आशीष “शुभा” का यो य छोटा भाई। अ यंत उ च कुल के


दोन प रवार। पानी क तरह बहता पैसा। लब¸ पूल¸ बार वगैरह के मापद ड़।

शुभा क आँख म आशीष मैिथली का जोड़ा बहत


ु पहले से भा गया था। फर जब
आशीष ने सह तर के से अपना बजनेस भी स हालना शु कर दया तब शुभा ने
शाद लायक हई
ु मैिथली से अपने दल क बात कह द थी। जान बूझकर अनजान
बनती ले कन गुलाबी गाल म मु कुराती मैिथली क मज तो शुबा उसी दन जान गई
थी। वह िसफ इतना चाहती थी क दोन का मेलजोल पहले आकषण म बदल जाए।
फर गम तवे पर जरा पानी डालते ह वह भाप दे ने लगेगा।

आशीष के बजनेस पाटनर क बहन क शाद थी और उसक म मी को वािलट


पचिसंग करवाने का ज मा आशीष पर था। ऐसे अवसर पर उसक ए ोच सीधी शुभा
द द ह होती थी। परस ह तो आया था वो।

“द द ! आप तो जानती है क शमा अंकल क नरिगस क शाद है । म मी तो बस


उसक म मी बनने पर तुली हई
ु है जैसे।”

जस हकारत से ये सब आशीष बना कसी हचक के बोल गया था¸ शुभा भीतर तक
हल गई थी।
शमा अंकल पापा के अ छे दो त है । पापा के बजी बजनेस शे यूल के कारण सारे
यवहार¸ नाते र ते म मी के ह ज मे थे। फर शमा आंट क अचानक मौत के बाद
म मी का उनके घर आना जाना काफ बढ़ गया

था।

शुभा तो अपनी शाद के व शमा अंकल का एहसान ह मानती रह गई थी। पापा


बदाई के समय भी नह ं पहँु चे थे और शमा अंकल रो रोकर मुँह सुजाए दे रहे थे।

“ले कन म मी ऐसा कुछ…”

“छोड़ो द द !” आशीष लगभग चीखा।

“य द पापा अपना यान कह ं और लगाएँगे तो म मी को भी अपना े शन


िनकालने के िलये कुछ तो चा हये ना। शु करो क एक ह है ।”

कुछ पल तक मशान शांतता रह थी दोन के बीच। फर वषय बदलने क गरज से


आशीष शॉ पंग वाली बात कह गया था। बना कसी लाग लपेट के शुभा द द ने
अपनी कट का बहाना बनाकर आज का आशीष और मैिथली का ो ाम बना दया
था। आगे का सारा काम हाई सोसाईट म पली बढ़ मैिथली खुद कर लेगी।

सज धजकर तैयार खड़ मैिथली को उतना ह शोिभत आशीष ले गया। फर दोन पूरे


तीन घ टे बाद मैिथली के िलये एक ेसलेट का उपहार िलये थके से घर लौटे ।
“ओह भाभी! आशीष इज हे वंग अ नाईस सस ऑफ यूमर। इतना हँ साया बाबा रे !
और वो रे ड साड़ वाली आँट जनक ह ल टू ट गई थी¸ हाऊ इ बरे िसंग शी वॉज!” और
दोन तािलयाँ पीटकर हँ सते रहे थे।

शुभा भी उनम शािमल हो जाती शायद य द उसे अर या का याल न आ जाता।

मैिथली भी पागल। अर या को आशीष के सामने ले आने क या ज रत थी? अ छ


भली उसके कमरे म छुपाए थी वह उसक गर ब सहे ली को। जाने या नो स वो स
दे ने आई है । ले दे कर बदा करती।

अर या के सा वक स दय का तेज आशीष से सहते न बना। गेहु एँ रं ग पर व छ


शु व ¸ नाममा के आभूषण¸ ह के भूरे लंबे केश और िनयं त हाव भाव। मैिथली
जहाँ डच रोज सी गमक रह थी वह ं अर या शु कमल से प व भीनी महक दे रह
थी। कह ं कोई मादकता नह ।ं

हालाँ क उस दन आशीष और अर या म कोई बातचीत नह ं हई


ु ले कन उस लड़क म
गुण ह इतने थे क मैिथली आशीष का साहचय पाने के िलये अर या क बात का
सहारा लेने लगी। वह सोचती क आशीष शायद इन बात म इसिलये रस ले रहा है
य क वे मैि थली के मुँह से कह जा रह है । ले कन असल म तो वह इन बात से
िमलते संकेत को जोड़कर अपने भ व य क मूित गढ़ता जाता था।

खैर! आशीष और मैिथली दे र रात ड को से थके हए


ु ¸ हॉटे ल क लेट म आधे से
यादा खाना छोड़ घर लौटते तो शुभा द द का जी गज भर का हो जाता।
अब व आ ह गया है क इनसे आशीष और मैिथली क बात क जाए। ले कन
मैिथली के भैया तीन मह ने क अ क दे श क या ा पर थे। शुभा द द आशीष और
माँ क ओर से तो सहमत थी ले कन पित क मंजूर क अहिमयत तो थी ह ।

फर मैिथली के ज म दन पर उसे वरो क टल भट करते हए


ु आशीष का यान
एक खुबसूरत िलखावट पर गया। कुछ पहचानी सी वह¸ अर या क ह थी। हाथ म
उठाकर पढ़ा तो पढ़ता ह चला गया। मैिथली से अपनी दो ती¸ उसके प गण का
कतनी खूबसूरती से एक छोट सी क वता म वणन कर दया था अर या ने। आशीष
कायल हो गया।

मेहमान क धुत भीड़ म¸ गहने कपड़ क लकदक के बीच वह अलग थलग सी पड़


अर या तक आ खर पहँु च ह गया। पुन: शु व । इस बार शीशे का काम था उनपर
और सफेद ह ए ायडर । िसफ उसके ह के भूरे बाल ह उस शु व यास म कुछ
रं गत भर रहे थे।

आशीष के िलये उससे बात करना बेहद ज टल था। हर बात म “वो मैिथली कह रह
थी…” से शु होती और फर अर या चुप होकर रह जाती। ले कन आशीष ने भी
क ची गोिलयाँ नह ं खेली थी। उसक िलखावट क ¸ उसक क वता क ¸ मैिथली से
उसक दो ती क और उसके सफेद रं ग क पसंद क बात का सहारा लेकर उसने
अर या का सारा इितहास जान िलया था। उसके कॉलेज आने जाने का व और
रा ता भी।

अर या के पता कसी अ छ कंपनी म एकाउं टट थे। माँ कुछ साल पहले चल बसी
थी। बड़ बहन अ णमा ववाह व छे द के बाद यह ं रहती थी। पताजी का छोटा मोटा
टे ल रं ग का काम था। अ णमा वह दे खा करती थी।

आशीष कौतूहल से भर उठा। इस लड़क क जंदगी मेम ् तो जरा ऊपर उठाकर दे खने
क भी गुंजाइश नह ं है । फर कैसे यह अपने संपक म आने वाले येक य पर
वयं क प छाप छोड़ जाती है ! आशीष जान चुका था¸ छोट जात क ¸ िन न
म यमवग य जीवन जीते हए
ु भी सं कार म¸ नैितकता म और सबसे बढ़कर दमागी
खूबसूरती म मैिथली इस लड़क के सामने बाल बराबर भी नह ं है । बात भी करती है
तो आँख कह ं और रखकर। एक सुर त दरू बनाकर और अनािधकार वेश क चाह
रखने वाले कसी भी य के वचार को दरू से ह झटक दे ती है ।

यूँ तो आशीष को उसके ऑ फस म एक से बढ़कर एक लड़ कयाँ ा य थी। ले कन उन


सबसे ऊब चुके आशीष को अर या म एक िनमल िनझर सा िमला था। उसक ओर
खंचते जाते हए
ु आशीष ने यह परवाह भी नह ं क क शुभा द द और मैिथली उससे
या आस लगाए इस र ते को बढ़ाने क छूट दे रहे है ।

खुले तौर पर सभी आशीष मैिथली क जोड़ को जानते थे। ले कन अर या का नाम


आते ह जैसे सभी पर घड़ पानी िगर गया।

“दे खो बेटा! वो लड़क आज तक लब क एक सीढ़ भी नह ं चढ़ । कभी कॉकटे ल


पाट ज म पैर नह ं रखा। हमारा रहन सहन¸ हमार लाईफ टाईल इन सभी से कभी भी
एडजै ट नह ं हो पाएगी वो। और ये सब छोड़ भी दे तो एक बात याद रखना आशीष।”

माँ एकदम तट थ होकर बैठ थी। कुछ हकारत से आगे बोली¸ “इ सान कभी भी
अपनी जात नह ं छोड़ता।”

“मुझे तुमसे कोई बात नह ं करनी आशीष।” शुभा द द मुँह फुलाए बैठ थी।

जबसे उ ह यह मालूम हआ
ु था क आशीष उसक स जपर सी खूबसूरत और
सलीकेदार ननद को छोड़ उसक ह कसी नीची जात क सहे ली पर मर िमटा है तो वे
आपे से बाहर हो गई थी।
“मैिथली ने दन भर से खाना नह ं खाया है । अर या महारानी आई थी अपना
अपसगुनी चेहरा लेकर!”

आशीष क आँख म अर या का नाम सुनते ह जो चमक आई थी उसे दे खकर ह


शुभा द द इस र ते क गहराई को समझ गई थी।

अपनी हकारत दखाते हए


ु बोली¸ “ह र के हाथ ह कहलवा दया था क अब फर
कभी लौटकर न आए।”

सुख जोड़े म सर से पाँव तक सजी धजी अर या पारं प रक द ु हन लग रह थी।


सजीले कोसा के प रधान पर बाँधनी के छ ंट के दप
ु टे म था उसका द ू हा आशीष।

कुछ दन के बाद आशीष के घर कचन म सुबह सुबह कुछ दे र को चू ड़य क


खनखनाहट सुनाई दे ती। फर माँ का व घोष। अर या को सलीके िसखाते ताने धीरे
धीरे उसके पता के इस घर म घुसपैठ के इरादे तक जा पहँु चते। अस य होने पर
अर या पहले आँसू टपकाती¸ आशीष के सम जा खड़ होती। आ य तंभ एक ह तो
था उसका।

घर म आने जाने वाले यहाँ तक क नौकर भी उसे अजीब सी नजर से घूरते। चार
ओर से बस एक ह शोर सुनाई दे ता था। “नीची जात…नीची जात… नीची जात”

अर या के दन शूल पर और रात फूल पर बीतती थी। आजकल काभी कबी शराब


क बदबू को छुपाने के िलये इ तेमाल कया जाने वाला दमदार े भी उसे धोखा
नह ं दे पाता था। कभी कभी वह अपने िलये हए
ु िनणय पर सशं कत हो उठती थी
ले कन आशीष का उदा ेम उसक हर शंका का समाधान बन जाया करता था।
माँ का शमाजी के यहाँ आना जाना यादा बढ़ गया था।

व बीतते बीतते अर या एक व थ बेटे क माँ बनी। “औदाय“ सभी के आकषण का


के बना। फर भी इस हँ सते खल खलाते घर म अर या व छ पानी म याह क
बूँद जैसी सभी को खटकती।

उस दन अर या को आशीष के कोट म वह पर यूम लगा माल िमला। उस सुगंध ने


जाने कतना कुछ याद दला दया था उसे। मैिथली¸ उसक म ी¸ आशीष का आगमन
और अब तक का सफर एक पल म तय कर अर या पुन: उसी के सम जाकर
खड़ रह गई।

“मैिथली का माल आशीष क जेब म या कर रहा है?”

अर या को खुलने म दो दन लगे। बजनेस ड ल के द ली गया आशीष दोपहर तीन


बजे लौटा। इस व न तो कोई लाईट थी न े न और उसक गाड़ भी यह ं थी।

“दे खो अर या! ये रोक टोक मुझे पसंद नह ं है । म शहर म ह था। कसी के यहाँ का
था बस।”

अर या स न रह गई। कुछ भी समझ म नह ं आया क ये सब हो या रहा है ।

जब उन भोली वाचक आँख ने आशीष का पीछा नह ं छोड़ा तो हारकर उसे बताना


ह पड़ा।
“दे खो अर या! तीन साल हो गए है हमार शाद को। अब तुम भी पहले जैसी नह ं रह
हो। डो ट यू िथंक सो अ मॅन नी स चे ज? म दो दन मैिथली के साथ था । शी वॉज
रिनंग ू ड ेशन फेज। दै स ऑल।”

अर या को साँस लेने म मु कल होने लगी। तीन साल तक तो घर म बंधते बाण


इसिलये सह जाती थी क आशीष मरहम का काम करे गा। आज उसे पीछे से ह कटार
भ क द थी उस मरहम ने। टू टकर िगर जाने का मन हआ।
ु वे सारे ¸ वे सारे
मू य¸ वे सार नैितकताएँ बेशम से उसके सामने आकर मुँह िचढ़ाने लगी।

य इतने ेम और आकषण का दखावा कया आशीष ने? जब फर से मैिथली के


पास ह जाना था तब ये ेम का नाटक य ? ऐसे हालात म उसे अ णमा के ¸ अपनी
द द के चरण पर ह चलना होगा या?

रात के ढाई बजे थे। उन कुछ श द को सुनने के बाद से अर या को हवा भी काटने


को दौड़ रह थी। और उ ह कहने वाला आशीष¸ िन ंत सोया था। तो आज तक
उसका अपना कहलाने वाला आशीष¸ आज उसका अपना नह ं था।

मैिथली¸ उसका ज म¸ उसक अदाएँ¸ उसक खुशबू सभी कुछ सामने घूमने सा लगा।
इस य के चेहरे पर िशकन तक नह ं? मैिथली भी ड ेशन से गुजर रह है मतलब?
साल भर पहले ह तो उसक शाद बड़े भ य तर के से क गई थी। ऊँचे घर म याह
गई मैिथली के पित भी ऊँचे इराद के थे। आशीष के पापा क तरह वे भी घर म कम
ह टकते।

तो या इसीिलये मैिथली! ले कन आशीष! उसे या कमी है ? कह तो रहा था तीन


साल हो गये है । चे ज चा हये। म भी वैसी नह ं रह । तो या बस यूँ ह ? तो ऐसी
अब तक कतनी… और माँजी और शमा अंकल!… वह चे ज… आशीष …माँजी……
“छ …”

अर या के पूरे शर र म डं क मारने वाले असं य ब छू रगने लगे। घृणा हो आई इस


माहौल से उसे। मैिथली और आशीष पहले भी तो एक साथ थे। वो तो अर या क
ओर वयं ह हाथ बढ़ाया था आशीष ने। ले कन अब ये सब कुछ या है ? वो यार वो
पागलपन सब झूठ था? घ ट वह पैर िसकोड़े गुड़ मुड़ सी पड़ रह ।

जंदगी के मायने बदल रहे थे¸ सोच बदल रह थी¸ अर या बदल रह थी। कभी ेमवश
आशीष ने उससे कहा था¸ “तुम अपने नाम के ह जैसी कसी अर य म वहार करती
कुमु दनी के जैसी हो अर या!” और आज उसी आशीष क करतूत उसे जंगल के हं
पशुओं के जैसी लग रह थी।

मैिथली¸ आशीष¸ माँजी और पछला व चीख चीखकए अर या के कान म गम सीसा


ऊँड़े ल रहा था¸ जात¸ नीची जात।

तो या आशीष भी इसी िलये …

“ऊफ! म या क ँ ? आँसी हो चुक अर या के हाथ वभावगत ऊपर दे खकर जुड़ा


गए।

वह ई र जो ज म दे ता है ¸ उसी के इ सान ने बनाई जात को ढोकर जनम भर से


चली आ रह अर या उसी से याय क भीख माँगने चली थी।

जाने कब नींद लगी उसे। अजीब से सपन और ांत के बाद सुबह उठ हई


ु आत क
टसुए बहाती ी नह ं रह गई थी। आज उसके सामने एक ल य था। अपनी “जात”
दखाने का। बीते कल क मीठ याद और आनेवाले कल के मधुर व न अपनी आँख
से उतारकर रख दये है उसने।
कसी को भी कान कान खबर नह ं हई।
ु अर या अ णमा से िमलने जाती रह । रोज।
पहले तो उसे दे खकर उसक बात और भ व य क योजनाएँ सुनकर अ णमा
असंभव…असंभव से भाव लाती रह थी चेहरे पर। फर ढ़ िन यी अर या के आगे
उसने घुटने टे क दये।

छ: मह ने के बीतर ह आशीष के सारे ऑ फिशयल कॉ टॅ टस गुपचुप अर या का


फेवर करने लगे। घर के सभी आने जाने वाले लोग का ख अर या क ओर नरम
होता गया।

घर क चौखट म कैद रहने वाली नीची जात क बेचार सी लड़क अचानक मुखर¸
स दय और जे टलवूमन पसनािलट क कहलाने लगी। घर से बेखबर आशीष इसे
अर या का “चे ज ऑफ बहे वयर यू टू अनअवॉइडे बल सरक टांसेस” मानता रहा।

तब तक¸ जब तक र ज टड डाक से उसके पास एक प नह ं आ गया।

“ य आशीष !

मुझसे प पाकर है रानी तो ज र होगी। काफ कोिशश क क आप िमले तो बात क ँ


ले कन थती इतनी ज टल है क मेरा आपसे समय लेकर िमलना भी संभव नह ं है ।

इन दन म पता नह ं आपने नो टस कया भी या नह ं ले कन मने काफ कुछ बदल


दया है । न िसफ खुद को वरन ् अपने आस पास के सभी को। अब म आपक
डपे डे ट वाईफ नह ं ब क “औदाय इ ड ज ाईवेट िलिमटे ड के एम ड क
है िसयत से ये प आपको िलख रह हँू । आपके लीगल एडवाईजर िम टर धान और
चाटड एकाउं टट िम टर वमा अब मेरे मुला जम है ।

और आज का दन आपके घर म मेरा आखर दन था। य क उस दन लब


मबरिशप पेपस पर साईन करते समय आप यु युअल डवोस पेपस पर भी साईन कर
चुके है । बेटा भी अब मेरा है । “लीगली।”

अब सभी को घर म यह चचा करने म आनंद आएगा क इतना वैभव और इतनी


ऊँची लाईफ टाईल म सहन नह ं कर पाई और अंत म मने अपनी जात दखा ह द ।

मुझे िसफ इतना ह कहना है क तुम तथाकिथत उ चवग के मनु य तो अपनी ओछ


और िगर हई
ु हरकत से जानवर को भी पीछे छोड़ दे ते हो। तु हारा धम वाथ है
और जात पैसा। फर आज ये वाली हो या कल वो।

तुमसे तो मेर जात अ छ है । कम से कम इ सान म तो हँू । आज मेरा इस जेल म


जानवर के बीच का जीवन समा हआ।
ु अपने सारे बंधन तोड़कर म सहष अपनी
जात म शािमल हो रह हँू ।

अर या”

बस थोड़ दे र तक हत भ रहने के बाद आशीष ने दाँई ओर मुड़कर आवाज द ¸ “बाहर


आ जाओ र टा ऽऽ! कोई नह ¸ं बस पो टमॅन था…।”

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काशक : अ ण प लिशंग हाऊस ाईवेट िलिमटे ड़


एस सी ओ 49 – 51¸ से टर 17 सी

च ड़ गढ़ – 160017

आईएसबीएन : 81–8048–031–3

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ई-बुक तुित – र वशंकर ीवा तव http://raviratlami.blogspot.com

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