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अनुकररम

् -
भगवान का नाम करया नहीं कर सकता? भगवान का मंगलकारी नाम दुःिियों का दुःि
िमटा सकता है, रोिगयों के रोग िमटा सकता है, पािपयों के पाप हर लेता, अभकरत को भकरत
बना सकता है, मुदेरर में परराणों का संचार कर सकता है।
भगवनरनाम-जप से करया फायदा होता है? िकतना फायदा होता है? इसका पूरा बयान
करने वाला कोई वकरता पैदा ही नहीं हुआ और न होगा।
नारदजी िपछले जनरम में िवदरयाहीन, जाितहीन, बलहीन दासीपुतरर थे। साधुसंग और
भगवनरनाम-जप के पररभाव से वे आगे चलकर देवििरर नारद बन गये। साधुसंग और
भगवनरनाम-जप के पररभाव से ही कीड़े में से मैतररेय ऋिि बन गये। परंतु भगवनरनाम
की इतनी ही मिहमा नहीं है। जीव से बररहरम बन जाय इतनी भी नहीं, भगवनरनाम व मंतररजाप
की मिहमा तो लाबयान है।
ु ान क े
ऐसे लाबयान भगवनाम व मंतजप की मििमा सववसाधारण लोगो तक पिँच े ि ल एपूजयशीकीअमृतवाणीस
संकिलत पररवचनों का यह संगररह लोकापररण करते हुए हमें हािदररक पररसनरनता हो रही है।
यिद इसमें कहीं कोई तररुिट रह गयी हो तो सुिवजरञ पाठक हमें सूिचत करने की कृपा
करें। आपके नेक सुझाव के िलए भी हम आभारी रहेंगे।


।।
सचमुच, हिर का नाम मनुिरयों की शुिदरध करने वाला, जरञान पररदान करने वाला,
मुमुकरिुओं को मुिकरत देने वाला और इचरछुकों की सवरर मनोकामना पूणरर करने वाला है।

िनवेदन
शदापूववक जप से अनुपम लाभ
मंतररजाप से जीवनदान
कम-से-कम इतना तो करें
हिरनाम कीतररन-कलरपतरू
भगवनरनाम की मिहमा
रामु न सकिहं नाम गुन गाईं
शासतो मे भगवनाम-मिहमा
साधन पर संदेह नहीं
मंतररजाप का पररभाव
मंतररजाप से शासरतरर-जरञान
यजरञ की वरयापक िवभावना
गुरुमंतरर का पररभाव
मंतररजाप की 15 शिितया
ओंकार की 19 शिितया
भगवनरनाम का पररताप
बाहरय धारणा (तरराटक)
एकागतापूववक मंतजाप से योग-सामथरयरर
नाम-िननरदा से नाक कटी
भगवनरनाम-जपः एक अमोघ साधन
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

।।
िजसके मुि में गुरुमंतरर है उसके सब कमरर िसदरध होते हैं, दूसरे के नहीं।
दीकर
श िा के कारण ििरय के सवरर कायरर िसदरध हो जाते हैं।

शदा बित ु ऊँची चीज िै। िवशास और शदा का मूलयाकन करना संभव िी निी िै। जैसे अििय शबदो से अशाित
और दुःि पैदा होता है ऐसे ही शररदरधा और िव शर वास से अशांित शांित में बदल जाती है ,
िनराशा आशा में बदल जाती है, कररोध करिमा में बदल जाता है, मोह समता में बदल जाता
है, लोभ संतोि में बदल जाता और काम राम में बदल जाता है। ररदरधा और िव र वास
के बल से और भी कई रासायिनक पिरवतररन होते हैं। ररदरधा के बल से रीर का तनाव
शात िो जाता िै, मन संदेह रिहत हो जाता है, बुिदरध में दुगनी-ितगुनी योगरयता आती है और
अजरञान की परतें हट जाती हैं।
.... सभी धमोररं में – चाहे वह िहनरदू धमरर हो चाहे
इसलाम धमरर, या अनरय कोई भी धमरर हो, उसमें शररदरधा की आव शर यकता है। ई श,र औििध,
वर
मूितरर, तीथरर एवं मंतरर में शररदरधा होगी तो फल िमलेगा।
यिद कोई कहे िक 'मेरा मंतरर छोटा है...' तो यह सही नहीं है बिलरक उसकी ररदरधा ही
छोटी है। वह भूल जाता है िक छोटा सा मचरछर, एक छोटी सी चीटी िाथी को मार सकती िै। शदा की
छोटी-सी िचंगारी जनरम-जनरमांतर के पाप-ताप को, अजरञान को हटाकर हमारे हृदय में
जरञान, आनंद, शाित देकर, ई शर वर का नूर चमका कर ई शर वर के साथ एकाकार करा देती है।यह
शदा देवी का िी तो चमतकार िै !
अिरटावकरर मुिन राजा जनक से कहते हैं- ... 'शदा कर,
तात ! शदा कर।' शीकृषण अजुवन से किते िै - शदावाललभते जान त ं तपरःसंयते(िगीताः
िियः 4.39) 'िजतेिनरदरर
य, साधनापरायण और शररदरधावान मनुिरय जरञान को पररापरत होता है।' शदावान उस आतमा-परमातरमा
को पा लेता है।
एक पायलट पर भी िम जैसो को शदा रखनी पडती िै। संसार का कुछ लेना -देना नहीं था, िफर भी
अमेिरका, युरोप, अफररीका, जमररनी, हाँगकाँग, दुबई – जहाँ भी गये हमको पायलट पर शररदरधा
करनी पड़ी। हमारी सब चीजें और हमारी जान, सब पायलट के हवाले....... तब हम यहाँ से
उठाकर दुबई पहुँचाये गये, दुबई उठाकर लंदन, लंदन से उठाकर अमेिरका पहुँचाये
गये....
यहाँ से अमेिरका पहुँचाने वाले पर भी शररदरधा रिनी पड़ती है तो जो 84 लाि
जनरमों से उठाकर ई शर वर के साथ एकाकार करने वाले शासरत,ररसंत और मंतरर है उन पर
शदा निी करेगे तो िकस पर करेगे भाई सािब? इसिलए मंतरर पर अिडग शररदरधा होनी चािहए।
मकरनरद पांडे के घर िकसी संत की दुआ से एक बालक का जनरम हुआ। 13-14 विरर की उमरर में
वह बालक गरवािलयर के पास िकसी गाँव में आम के एक बगीचे की रिवाली करने के िलए
गया। उसका नाम तनरना था। वह कुछ प ु ओंकी आवाज िनकालना जानता था।अनुकररम

हिरदास महाराज अपने भकरतों को लेकर हिरदरवार से लौट रहे थे। वे उसी बगीचे
में आराम करने के िलए रुके। इतने में अचानक शेर की गजररना सुनाई दी। शेर की
गजररना सुनकर सारे यातररी भाग िड़े हुए। हिरदास महाराज ने सोचा िक 'गाँव के बगीचे
में शेर कहाँ से आ सकता है?' इधर-उधर झौंककर देिा तो एक लड़का छुपकर हँस रहा
था। महाराज ने पूछाः "शेर की आवाज तून क े ?" ीन
तनरना ने कहाः "हाँ।" महाराज के कहने पर उसने दूसरे जानवरों की भी आवाज
िनकालकर िदिायी। हिरदास महाराज ने उसके िपता को बुलाकर कहाः "इस बेटे को मेरे
साथ भेज दो।"
िपता ने समरमित दे दी। हिरदास महाराज ने ेर, भालू या घोड़े-गधे की आवाजें
जहाँ से पैदा होती हैं उधर (आतरमसरवरूप) की ओर ले जाने वाले गुरुमंतरर दे िदया और
थोड़ी संगीत-साधना करवायी। तनरना साल में 10-15 िदन अपने गाँव आता और शेि समय
वृंदावन में हिरदासजी महाराज के पास रहता। बड़ा होने पर उसकी शादी हुई।
एक बार गवािलयर मे अकाल पड गया। उस समय केराजा रामचंि न स े े ठोकोबु"गरीबों
लाकरकिाः
के
आँसू पोंछने के िलए चंदा इकटरठा करना है।"
िकसी ने कुछ िदया, िकसी ने कुछ... श हिरदास के ििरय तनरना ने अपनी पतरनी के जेवर
देते हुए कहाः "राजा साहब ! गरीबों की सेवा में इतना ही दे सकता हूँ।"
राजा उसकी पररितभा को जानता था। राजा ने कहाः "तुम साधारण आदमी नहीं हो,
तुमरहारे पास गुरुदेव का िदया हुआ मंतरर हैं और तुम गुरु के आ ररम में रह चुके हो।
तुमरहारे गुरु समथरर हैं। तुमने गुरुआजरञा का पालन िकया है। तुमरहारे पास गुरुकृपा धन है।
हम तुमसे ये गहने-गाँठेरूपी धन नहीं लेंगे बिलरक गुरुकृपा का धन चाहेंगे।"
"महाराज ! मैं समझा नहीं।"
"तुम अगर गुरु के साथ तादातरमरय करके मेघ राग गाओगे तो यह अकाल सुकाल में
बदल सकता है। सूिा हिरयाली में बदल सकता है। भूि तृिपरत में बदल सकती है और मौतें
जीवन में बदल सकती हैं। ररदरधा और िव र वाससे गुरुमंतरर जपने वाले की किवताओं
में भी बल आ जाता है। तुम केवल सहमित दे दो और कोई िदन िन ि र च त करलो।उसिदनहम
इस राजदरबार में ई शर वर को परराथररना करते हुए बैठेंगे और तुम मेघ राग गाना। "
राग-रगिनयों में बड़ी ताकत होती है। जब झूठे बरद भी कलह और झगड़े पैदा
कर सक देते हैं तो सचरचे शबरद, ई शर वरीय यकीन करया नहीं कर सकता? तारीि तय हो गयी।
राजरय में ििंिोरा पीट िदया गया। अनुकररम
उन िदनों िदलरली के बादशाह अकबर का िसपहसालार गरवािलयर आया हुआ था। ििंिोरा
सुनकर उसने िदलरली जाने का कायररकररम सरथिगत कर िदया। उसने सोचा िक 'तनरना के मेघ
राग गाने से करया सचमुच बरसात हो सकती है? यह मुझे अपनी आँिों से देिना है।'
कायररकररम की तैयारी हुई। तनरना थोड़ा जप-धरयान करके आया था। उसका हाथ वीणा की
तारों पर घूमने लगा। सबने अपने िदल के यकीन की तारों पर भी ररदरधा के सुमन
चि़ायेः
'हे सवररसमथरर, करूणा-वरूणा के धनी, मेघों के मािलक वरूण देव, आतरमदेव, कतारर-
भोकरता महे शर !वर परमे शर !वर तेरी करूणा-कृपा इन भूिे जानवरों पर और गलितयों के घर –
इनरसानों पर बरसे...
हम अपने कमोररं को तोलें तो िदल धड़कता है। िकंतु तेरी करूणा पर, तेरी कृपा पर
हमें िव शर वास है। हम अपने कमोररं के बल से नहीं िकंतु तेरी करूणा के भरोसे , तेरे
औदायरर के भरोसे तुझसे परराथररना करते हैं.....
हे गोिबनरद ! हे गोपाल ! हे वरूण देव ! इस मेघ राग से पररसनरन होकर तू अपने
मेघों को आजरञा कर सकता है और अभी-अभी तेरे मेघ इस इलाके की अनावृििरट को
सुवृििरट में बदल सकते हैं।
इधर तनरना ने मेघ बरसाने के िलए मेघ राग गाना ुरु िकया और देिते-ही-देिते
आकाश में बादल मँडराने लगे.... गरवािलयर की राजधानी और राजदरबार मेघों की घटाओं
से आचरछािदत होने लगा। राग पूरा हो उसके पूवरर री सृििरटकतारर ने पूरी कृपा बरसायी और
जोरदार बरसात होने लगी !
अकबर का िसपहसालार दंग रहा गया िक किव के गान में इतनी करिमता िक बरसात ला
दे। िसपहसालार ने िदलरली जाकर अकबर को यह घटना सुनायी। अकबर ने गरवािलयर नरे को
समझा-बुझाकर तनरना को माँग िलया। अब तनरना 'किव तनरना' नहीं रहे बिलरक अकबर के
नवरतरनों में एक रतरन 'तानसेन' के नाम से समरमािनत हुए।
शबदो मे अदभुत शिित िोती। शबद अगर भगवान केिो तो भगवदीय शिित भी काम करती िै। शबद अगर मंत िो
तो मांितररक शिकरत भी काम करती है। मंतरर अगर सदगुरु के दरवारा िमला हो तो उसमें गुरुतरव
भी आ जाता है।
भगवान अवतार लेकर आते हैं तब भी गुरु के दरवार जाते हैं। जब सीताजी को
लौटाने के िविय में कई संदे भेजने पर भी रावण नहीं माना, श युदरध िन ि रचतहोगया
और लंका पर चि़ाई करनी थी, तब अगसरतरय ऋिि ने भगवान ररीरामचंदररजी से कहाः
"राम ! रावण मायावी दैतरय है। तुम सवररसमथरर हो िफर भी मैं तुमरहें आिदतरय-हृदय
मंतरर की साधना-िविध बताता हूँ। उसका पररयोग करोगे तुम िवजयी हो जाओगे।"
अगसरतरय ऋिि से शररीरामजी ने आिदतरय-हृदय मंतरर तथा उसकी साधना-िविध जानी
और मायावी रावण के साथ युदरध में िवजयी हुए। मंतरर में सी अथाह िकरत होती
है। अनुकररम
मंतररों के अथरर कोई िवशेि िवसरतारवाले नहीं होते और कई मंतररों के अथरर
समझना कोई जरूरी भी नहीं होता। उनकी धरविन से ही वातावरण में बहुत पररभाव पड़ जाता
है।
जैसे – आपको जोड़ों का ददरर है, श वायु की तकलीफ है तो िवरातररी की रात में'बं-
बं' मंतरर का सवा लाि जप करें। आपके घुटनों का ददरर, आपकी वायु-समरबनरधी तकलीफें दूर
हो जायेंगी।
ऐसे िी अलग-अलग मंतररों की धरविन का अलग-अलग पररभाव पड़ता है। जैसे कोई थके
हारे हैं, भयभीत हैं अथवा आशंिकत है िक पता नहीं कब करया हो जाये? उनको नृिसंह
मंतरर जपना चािहए तािक उन पर मुसीबतें कभी न मँडरायें। िफर उन पर मुसीबत आती हुई
िदिेगी परंतु मंतररजाप के पररभाव से यह यों ही चली जायेगी, जापक का कुछ भी न िबगाड़
पायेगी।
अगर जान-माल को हािन पहुँचने का भय या आशंका है तो डरने की कोई जरूरत नहीं
है। नृिसंह मंतरर का जप करें। इस मंतरर की रोज एक माला कर लें। नृिसंह मंतरर इस पररकार
हैः

।।
तुमरहारे आगे इतनी बड़ी मुसीबत नहीं है िजतनी पररहलाद के आगे थी। पररहरलाद
इकलौता बेटा था िहरणरयक ि प ु क ा । ि ह रणरयक िपुऔरउसकेसारे
पररहरलाद एक तरफ। िकंतु भगवनरनाम जप के पररभाव से पररहरलाद िवजयी हुआ, होिलका जल
गयी – यह इितहास सभी जानते हैं।
भगवान के नाम में, मंतरर में अदभुत समथरयरर होता है िकंतु उसका लाभ तभी िमल
पाता है जब उसका जप शररदरधा-िव शर वासपूवररक ..... अनुकररम
िकया जाय
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

मेरे िमतरर संत हैं लालजी महाराज। पहले वे अमदावाद से 55-60 िकलोमीटर दूर
वरसोड़ा गाँव मे रहते थे। वे िकसान थे। उनकी माँ भगवनरनाम-जप कर रही थी। शाम का
समय था। माँ ने बेटे से कहाः
"जरा गाय-भैंस को चारा डाल देना।"
बािरश के िदन थे। वे चारा उठाकर ला रहे थे तो उसके अंदर बैठे भयंकर साँप
पर दबाव पड़ा और उसने काट िलया। वे िचलरलाकर िगर पड़े। साँप के जहर ने उनरहें
भगवान की गोद में सुला िदया।
गाँव के लोग दौड़े आये और उनकी माँ से बोलेः "माई ! तेरा इकलौता बेटा चला
गया।"
माँ- "अरे, करया चला गया? भगवान की जो मजीरर होती है वही होता है।"
माई ने बेटे को िलटा िदया, घी का िदया जलाया और माला घुमाना शुरु कर िदया। वह
रातभर जप करती रही। सुबह बेटे के रीर पर पानी िछड़ककर बोलीः "लालू ! सुब हो गयी
है।"
बेटे का सूकरिरम शरीर वापस आया और बेटा उठकर बैठ गया। वे (लालजी महाराज)
अभी भी हैं। 80 विरर से ऊपर उनकी उमरर है।
मृतक में भी परराण फूँक सकता है उतरतम जापक दरवारा शररदरधा से िकररया गया
मंतररजाप ! अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
- - .....
24 घंटों में 1440 िमनट होते हैं। इन 1440 िमनटों में से कम-से-कम 440 िमनट
ही परमातरमा के िलए लगाओ। यिद 440 िमनट नहीं लगा सकते तो 240 िमनट ही लगाओ। अगर
उतने भी लगा सकते तो 140 िमनट ही लगाओ। अगर उतने भी नहीं तो 100 िमनट अथाररतर
करीब पौने दो घंटे ही उस परमातरमा के िलए लगाओ तो वह िदन दूर नहीं िक िजसकी सतरता
से तुमरहारा शरीर पैदा हुआ है, िजसकी सतरता से तुमरहारे िदल की धड़कनें चल रहीं है,
वह परमातरमा तुमरहारे हृदय में पररकट हो जाय.....
24 घंटे हैं आपके पास.... उसमें से 6 घंटे सोने में और 8 घंटे कमाने में
लगा दो तो 14 घंटे हो गये। िफर भी 10 घंटे बचते हैं। उसमें से अगर 5 घंटे भी आप
इधर-उधर, गपशप में लगा देते हैं तब भी 5 घंटे भजन कर सकते हैं.... 5 घंटे नहीं तो
4, 4 नहीं तो 3, 3 नहीं तो 2, 2 नहीं तो कम-से-कम 1.5 घंटा तो रोज अभरयास करो और यह 1.5
घंटे का अभरयास आपका कायाकलरप कर देगा।
आप शररदरधापूवररक गुरुमंतरर का जप करेंगे तो आपके हृदय में िवरहािगरन पैदा होगी,
परमातरम-पररािपरत की भूि पैदा होगी। जैसे, उपवास के दौरान सहन की गयी भूि आपके
शरीर की बीमािरयो को िर लेती िै, वैसे ही भगवान को पाने की भूि आपके मन व बुिदरध के दोिों
को, शोक व पापो को िर लेगी।
कभी भगवान के िलए िवरह पैदा होगा तो कभी पररेम..... पररेम से रस पैदा होगा और
िवरह से परयास पैदा होगी। भगवनरनाम-जप आपके जीवन में चमतरकार पैदा कर देगा....
परमे शर वर -से-कम 1000 बार तो लेना ही चािहए। अथाररतर
का नाम पररितिदन कम
भगवनरनाम की 10 मालाएँ तो फेरनी ही चािहए तािक उनरनित तो हो ही, िकंतु पतन न हो। अपने
मंतरर का अथरर समझकर पररीितपूवररक जप करें। इससे बहुत लाभ होगा अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
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भगवनरनाम अनंत माधुयरर, ऐशयव और सुख की खान िै। नाम और नामी मे अिभनता िोती िै। नाम-जप
करने से जापक में नामी के सरवभाव का पररतरयारोपण होने लगता है और जापक के दुगुररण,
दोि, दुराचार िमटकर दैवी संपितरत के गुणों का आधान (सरथापना) और नामी के िलए उतरकट
पररेम-लालसा का िवकास होता है। भगवनरनाम, इिरटदेव के नाम व गुरुनाम के जप और कीतररन
से अनुपम पुणरय पररापरत होता है। तुकारामजी कहते हैं- "नाम लेने से कणरठ आदरररर और
शीतल िोता िै। इिििया अपना वयापार भूल जाती िै। यि मधुर सुंदर नाम अमृत को भी मात करता िै। इसन म े ेरेिचत
पर अिधकार कर िलया है। पररेमरस से पररसनरनता और पुििरट िमलती है। भगवनरनाम सा है
िक इससे करिणमातरर में ितररिवध ताप निरट हो जाते हैं। हिर-कीतररन में पररेम-ही-पररेम
भरा है। इससे दुिरट बुिदरध सब निरट हो जाती हैं और हिर-कीतररन में समािध लग जाती है।"
तुलसीदासजी कहते हैं-

तथा
। ।।
। ।।
'बृहनरनारदीय पुराण' में कहा हैः

।।
'जो भगवनरनाम की धरविन को सुनकर पररेम में तनरमय होकर नृतरय करते हैं, उनकी
चरणरज से पृथरवी शीघरर ही पिवतरर हो जाती है।'
'शीमद भ
् ागवत' के अिनरतम शरलोक में भगवान वेदवरयास जी कहते हैं-

।।
'िजन भगवान के नामों का संकीतररन सारे पापों को सवररथा निरट कर देता है और
िजन भगवान के चरणों में आतरमसमपररण, उनके चरणों पररणाम सवररदा के िलए सब पररकार
के दुःिों को शांत कर देता है, उनरहीं परमततरतरवसरवरूप शररीहिर को मैं नमसरकार करता हूँ।'
एक बार नारदजी न भ े "ऐसा कोई
ग वानबहाजीसे उपाय बतलाइये िजससे मै िवकराल किलकाल केजाल
किाः
में न आऊँ।" इसके उतरतर में बररहरमाजी ने कहाः

'आिदपुरुि भगवान नारायण के नामोचरचार करने मातरर से ही मनुिरय किल से तर जाता
है।' अनुकररम
( )
'पदरम पुराण में आया हैः


'जो मनुिरय परमातरमा के दो अकरिरवाले नाम 'हिर' का उचरचारण करते हैं, वे उसके
उचरचारणमातरर से मुकरत हो जाते हैं, इसमें शंका नहीं है।'
भगवान के कीतररन की पररणाली अित परराचीन है। चैतनरय महापररभु ने सामूिहक
उपासना, सामूिहक संकीतररन पररणाली चलायी। इनके कीतररन में जो भी सिमरमलित होते वे
आतरमिवसरमृत हो जाते, आनंदावेश की गहरी अनुभूितयों में डूब जाते और आधरयाितरमक रूप
से पिरपूणरर व असीम कलरयाण तथा आनंद के करिेतरर में पहुँच जाते थे। ररी गौरांग
दरवारा पररवितररत नामसंकीतररन ई र वरीयधरविन का एक बड़ा ही महतरवपूणरर आधरयाितरमक रूप
है। इसका पररभाव करिणभंगुर नहीं है। यह न केवल इिनरदररयों को ही सुि देता है, वरनर
अंतःकरण पर सीधा, पररबल और शिकरतयुकरत पररभाव डालता है। नर-नारी ही नहीं, मृग, हाथी व
िहंसक प शु वरयाघरर आिद भी चैतनरय महापररभु के कीतररन में तनरमय हो जाते थे।
वेदों के गान में पिवतररता तथा वणोररचरचार छनरद और वरयाकरण के िनयमों का कड़ा
िरयाल रिना पड़ता है अनरयथा उदरदे र यभंग होकर उलटा पिरणाम ला सकता है। परंतु नाम-
संकीतररन में उपरोकरत िविवध पररकार की सावधािनयों की आव र यकतानहीं है। ुदरध या
अ शु ,दरसावधानी
ध या असावधानी से िकसी भी पररकार भगवनरनाम िलया जाय, उससे
िचतरत शु िदर, पापना
ध श तथा परमातरम-पररेम की विारर होगी ही।
कीतररन तीन पररकार से होता हैः वरयास पदरधित, नारदीय पदरधित और हनुमान पदरधित।
वरयास पदरधित में वकरता वरयासपीठ पर बैठकर ररोताओं को अपने साथ कीतररन कराते
हैं। नारदीय पदरधित में चलते-िफरते हिरगुण गाये जाते हैं और साथ में अनरय
भकरतलोग भी शािमल हो जाते हैं। हनुमतर पदरधित में भकरत भगवदावेश में नाम गान करते
हुए, उछल-कूद मचाते हुए नामी में तनरमय हो जाता है। शररी चैतनरय महापररभु की कीतररन
पररणाली नारदीय और वरयास पदरधित के सिमरम ररणरूप थी। चैतनरय के सुसरवर कीतररन पर
भकरतगण नाचते, गाते, सरवर झेलते हुए हिर कीतररन करते थे। परंतु यह कीतररन-पररणाली
चैतनरय के पहले भी थी और अनािद काल से चली आ रही है। परमातरमा के ररेिरठ भकरत
सदैव कीतररनानंद का रसासरवादन करते रहते हैं। 'पदरम पुराण' के भागवत माहातरमरय (6.87)
में आता हैः

।।

, ।।
'ताल देने वाले पररहरलाद थे, उदरधव झाँझ-मँजीरा बजाते थे, नारदजी वीणा िलये
हुए थे, अचरछा सरवर होने के कारण अजुररन गाते थे, इनरदरर मृदंग बजाते थे, सनक-सननरदन
आिद कुमार जय-जय धरविन करते थे और शुकदेवजी अपनी रसीली रचना से रस और भावों की
वरयािरया करते थे।'
उकरत सब िमलकर एक भजन मंडली बनाकर हिर-गुणगान करते थे।
यह भगवनरनाम-कीतररन धरयान, तपसरया, यजरञ या सेवा से िकंिचतर भी िनमरनमूलरय नहीं
है।

।।
'सतरययुग में भगवान िविरणु के धरयान से, तररेता में यजरञ से और दरवापर में
भगवान की पूजा से जो फल िमलता था, वह सब किलयुग में भगवान के नाम-कीतररन मातरर से
ही पररापरत हो जाता है।'
( 12.3.52)
भगवान शररीकृिरण उदरधव से कहते हैं िक बुिदरधमान लोग कीतररन-पररधान यजरञों के
दरवारा भगवान का भजन करते हैं।

( 11.5.32)
'गरूड़ पुराण' में उपिदिरट हैः

।।
'यिद परम जरञान अथाररतर आतरमजरञान की इचरछा है और आतरमजरञान से परम पद पाने
की इचरछा है तो िूब यतरनपूवररक ररीहिर के नाम का कीतररन करो।'

।।
'हरे राम ! हरे कृिरण ! कृिरण ! कृिरण ! कृिरण ! ऐसा जो सदा किते िै उििे किलयुग िािन निी पिँच
ु ा
सकता।'
( 4.80.2.3)

।।
'जैसे अिगरन सुवणरर आिद धातुओं के मल को निरट कर देती है, ऐसे िी भिित से िकया गया
भगवान का कीतररन सब पापों के ना का अतरयुतरतम साधन है।' अनुकररम
पा शर चातरय वैजरञािनक डॉ. डायमंड अपने पररयोगों के प शर चात जािहर करता है िक
पा शर चातरय रॉक संगीत , पॉप संगीत सुनने वाले और िडसरको डास में सिमरमिलत होने वाले,
दोनों की जीवनशिकरत करिीण होती है, जबिक भारतीय शासरतररीय संगीत और हिर-कीतररन हमारे
ऋिि-श मुिनयों एवं संतों ने हमें आनुवं ि क प र ं प र ा ओंकेरूपमेंपररद
भोग-मोकरि दोनों का देने वाला है।
जापान में एकरयपररेशर िचिकतरसा हुआ। उसके अनुसार हाथ की हथेली व पाँव के
तलवों में शश रीर के पररतरयेक अंग के िलए एक िन ि रच,तिबंदु
िजसेहदबाने
ै से उस-उस
अंग का आरोगरय-लाभ होता है। हमारे गाँवों के नर-नारी, बालक-वृदरध यह कहाँ से
सीिते? आज वैजरञािनकों ने जो िोजबीन करके बताया वह हजारों-लािों साल पहले
हमारे ऋिि-मुिनयों, महििररयों ने सामानरय परंपरा के रूप में पि़ा िदया िक हिर-कीतररन
करने से तन-मन सरवसरथ और पापनाश होता है। हमारे शासरतररों की पुकार हिर-कीतररन के
बारे में इसीिलए है तािक सामानरय-से-सामानरय नर-नारी, आबालवृदरध, सब ताली बजाते हुए
कीतररन करें, भगवदभाव में नृतरय करें, उनरहें एकरयूपररेशर िचिकतरसा का अनायास ही फल
िमले, उनके परराण तालबदरध बनें (परराण तालबदरध बनने से, परराणायाम से आयुिरय बि़ता
है), मन के िवकार, दुःि, शोक आिद का नाश िो और ििररसरपी अमृत िपये।
इसीिलए तुलसीदासजी ने कहा हैः

।।
'शीमद भ् ागवत' में भगवान शररीकृिरण ने कहा हैः



।।
'िजसके वाणी गदगद हो जाती है, िजसका िचतरत दररिवत हो जाता है, जो बार-बार रोने
लगता है, कभी हँसने लगता है, कभी लजरजा छोड़कर उचरच सरवर से गाने लगता है, कभी
नाचने लगता है ऐसा मेरा भकरत समगरर संसार को पिवतरर करता है।'
इसिलए रसना को सरस भगवतरपररेम में तनरमय करते हुए जैसे आये वैसे ही
भगवनरनाम के कीतररन में संलगरन होना चािहए।

।।
गुरु नानक जी कहते हैं िक हिरनाम का आहलाद अलौिकक है।

।।
नामजप-कीतररन की इतनी भारी मिहमा है िक वेद-वेदांग, पुराण, संसरकृत, परराकृत –
सभी गररंथों में भगवनरनाम-कीतररन की मिहमा गायी गयी है। भगवान के िजस िव ेि
िवगररह को लकरिरय करके भगवनरनाम िलया जाता है वह तो कब का पंचभूतों में िवलीन हो
चुका, िफर भी भकरत की भावना और शासरतररों की पररितजरञा है िक राम, कृिरण, हिर आिद नामों का
कीतररन करने से अनंत फल िमलता है। ....तो जो सदगुरु, 'लीला-िवगररह रूप, हाजरा-हजूर,
जागिद जरयोत हैं, उनके नाम का कीतररन, उनके नाम का उचरचारण करने से पाप नाश और
असीम पुणरयपुंज की पररापरत हो, इसमें करया आ शर चयरर ?
है
कबीर जी ने इस युिकरत से िन शर चय ही अपना कलरयाण िकया था। कबीर जी ने
गुरुमंतरर कैसे पररापरत िकया और ीघरर िसिदरध लाभ कैसे िकया। इस संदभरर में रोचक
कथा हैः

उस समय काशी में रामानंद सरवामी बड़े उचरच कोिट के महापुरुि माने जाते थे।
कबीर जी उनके आशररम के मुिरय दरवार पर आकर दरवारपाल से िवनती कीः "मुझे गुरुजी के
दररशन करा दो।"
उस समय जात-पाँत का बड़ा बोलबाला था। और िफर काशी ! पंिडतों और पंडे लोगों
का अिधक पररभाव था। कबीरजी िकसके घर पैदा हुए थे – िहंदू के या मुसिलम के? कुछ पता
नहीं था। एक जुलाहे को तालाब के िकनारे िमले थे। उसने कबीर जी का पालन-पोिण
करके उनरहें बड़ा िकया था। जुलाहे के घर बड़े हुए तो जुलाहे का धंधा करने लगे। लोग
मानते थे िक वे मुसलमान की संतान हैं।
दरवारपालों ने कबीरजी को आ ररम में नहीं जाने िदया। कबीर जी ने सोचा िक 'अगर
पहुँचे हुए महातरमा से गुरुमंतरर नहीं िमला तो मनमानी साधना से 'हिरदास' बन सकते हैं
'हिरमय' नहीं बन सकते। कैसे भी करके रामानंद जी महाराज से ही मंतररदीकरिा लेनी
है।'
कबीरजी ने देिा िक हररोज सुबह 3-4 बजे सरवामी रामानंदजी िड़ाऊँ पहन कर
टप...टप आवाज करते हुए गंगा में सरनान करने जाते हैं। कबीर जी ने गंगा के घाट पर
उनके जाने के रासरते में सब जगह बाड़ कर दी और एक ही मागरर रिा। उस मागरर में सुबह
के अँधेरे में कबीर जी सो गये। गुरु महाराज आये तो अँधेरे के कारण कबीरजी पर
पैर पड़ गया। उनके मुि से उदगार िनकल पड़ेः 'राम..... राम...!'
कबीरजी का तो काम बन गया। गुरुजी के दरर न भी हो गये, उनकी पादुकाओं का सरपररश
तथा मुि से 'राम' मंतरर भी िमल गया। अब दीकरिा में बाकी ही करया रहा? कबीर जी नाचते,
गुनगुनाते घर वापस आये। राम नाम की और गुरुदेव के नाम की रट लगा दी। अतरयंत
सरनेहपूणरर हृदय से गुरुमंतरर का जप करते, गुरुनाम का कीतररन करते हुए साधना करने लगे।
िदनोंिदन उनकी मसरती बि़ने लगी।
महापुरुि जहाँ पहुँचे हैं वहाँ की अनुभूित उनका भावपूणरर हृदय से िचंतन करने
वाले को भी होने लगती है।
काशी के पंिडतों ने देिा िक यवन का पुतरर कबीर रामनाम जपता है, रामानंद के
नाम का कीतररन करता है। उस यवन को रामनाम की दीकरिा िकसने दी? करयों दी? मंतरर को
भररिरट कर िदया ! पंिडतों ने कबीर जी से पूछाः "तुमको रामनाम की दीकरिा िकसने दी?"
अनुकररम
"सरवामी रामानंदजी महाराज के शररीमुि से िमली।"
"कहाँ दी?"
"गंगा के घाट पर।"
पंिडत पहुँचे रामानंदजी के पासः "आपने यवन को राममंतरर की दीकरिा देकर मंतरर
को भररिरट कर िदया, समरपररदाय को भररिरट कर िदया। गुरु महाराज ! यह आपने करया िकया?"
गुरु महाराज ने कहाः "मैंने तो िकसी को दीकरिा नहीं दी।"
"वह यवन जुलाहा तो रामानंद..... रामानंद..... मेरे गुरुदेव रामानंद...' की रट लगाकर
नाचता है, आपका नाम बदनाम करता है।"
"भाई ! मैंने तो उसको कुछ नहीं कहा। उसको बुला कर पूछा जाय। पता चल जायगा।"
काशी के पंिडत इकटरठे हो गये। जुलाहा सचरचा िक रामानंदजी सचरचे – यह देिने
के िलए भीड़ हो गयी। कबीर जी को बुलाया गया। गुरु महाराज मंच पर िवराजमान हैं। सामने
िवदरवान पंिडतों की सभा है।
रामानंदजी ने कबीर से पूछाः "मैंने तुमरहें कब दीकरिा दी? मैं कब तेरा गुरु
बना?"
कबीरजी बोलेः महाराज ! उस िदन पररभात को आपने मुझे पादुका-सरपररश कराया और
राममंतरर भी िदया, वहाँ गंगा के घाट पर।"
रामानंद सरवामी ने कबीरजी के िसर पर धीरे-से िड़ाऊँ मारते हुए कहाः "राम...
राम.. राम.... मुझे झूठा बनाता है? गंगा के घाट पर मैंने तुझे कब दीकरिा दी थी ?
कबीरजी बोल उठेः "गुरु महाराज ! तब की दीकरिा झूठी तो अब की तो सचरची....! मुि से
राम नाम का मंतरर भी िमल गया और िसर पर आपकी पावन पादुका का सरपरर भी हो गया।"
सरवामी रामानंदजी उचरच कोिट के संत महातरमा थे। उनरहोंने पंिडतों से कहाः
"चलो, यवन हो या कुछ भी हो, श मेरा पहले नंबर का ििरय यही है।"
बररहरमिनिरठ सतरपुरुिों की िवदरया हो या दीकरिा, पररसाद िाकर िमले तो भी बेड़ा पार
करती है और मार िाकर िमले तो भी बेड़ा पार कर देती है।
इस पररकार कबीर जी ने गुरुनाम कीतररन से अपनी सुिप ु रत िकरतयाँ जगायीं और
शीघ आतमकलयाण कर िलया।
धनभागी हैं ऐसे गुरुभकरत जो दृि़ता और ततरपरता से कीतररन-धरयान-भजन करके
अपना जीवन धनरय करते हैं, कीतररन से समाज में साितरतरवकता फैलाते हैं, वातावरण
और अपने तन-मन की शुिदरध करने वाला हिरनाम का कीतररन सड़कों पर िुलेआम नाचते-
गाते हुए करते हैं।
दुिनया का धन, यश आिद सब कुछ कमा िलया या पररितिरठा के सुमेरु पर िसरथत हुए, वेद-
वेदांग शासरतररों के रहसरय भी जान िलए जायें, उन सब शररेिरठ उपलिबरधयों से भी
गुरुशरणागित और गुरुचरणों की भिकरत अिधक मूलरयवान है।
इसके िविय में आदरय शंकराचायररजी कहते हैं-

।।

। ....
अगर गुरु के शररीचरणों में मन न लगा, तो िफर करया? इन सबसे करया? कौन-सा
परमाथरर िसदरध हुआ?

इस किलकाल-िचंतामिण हिर-गुरुनाम-कीतररन कलरपतरु का िवशेि फायदा करयों न उठाया
जाय?
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

शासत मे आता िैः



'सारा जगत भगवान के अधीन है और भगवान मंतरर के अधीन हैं।"
संत चरनदासजी महाराज ने बहुत ऊँची बात कही हैः

संत तुलसीदास जी ने कहा हैः
। ।।
( . . . 118.2)
'जो िववश होकर भी नाम-जप करते हैं उनके अनेक जनरमों के पापों का दहन हो
जाता है।'
कोई डंडा मारकर, िववश करके भी भगवनरनाम-जप कराये तो भी अनेक जनरमों के
पापों का दहन होता है तो जो पररीितपूवररक हिर का नाम जपते-जपते हिर का धरयान करते हैं
उनके सौभागरय का करया कहना !
, ।
, ।।
भगवनरनाम की बड़ी भारी मिहमा है। अनुकररम
यिद हमने कहा तो उसमें केवल अमदावाद ही आया। सूरत, गाँधीनगर
रह गये। अगर हमने कहा तो सूरत, गाँधीनगर, राजकोट आिद सब उसमें आ गये
परंतु मधरयपररदेश, उतरतरपररदेश, िबहार आिद रह गये.... िकंतु तीन अकरिर का नाम
कहने से देश के सारे-के-सारे राजरय और नगर उसमें आ गये। से ही
केवल पृथरवीलोक ही नहीं, वरनर 14 लोक और अनंत बररहरमांड िजस सतरता से वरयापरत हैं
उसमें अथाररतर गुरुमंतरर में पूरी दैवी िकरतयों तथा भगवदीय िकरतयों का समावे हो
जाता है।
मंतरर भी तीन पररकार के होते हैं, साितरतरवक, राजिसक और तामिसक।
साितरतरवक मंतरर आधरयाितरमक उदरदे र यकी पूितरर के िलए होते हैं। िदवरय उदरदे र यों
की पूणररता में साितरतरवक मंतरर काम करते हैं। भौितक उपलिबरध के िलए राजिसक मंतरर की
साधना होती है और भूत-पररेत आिद को िसदरध करने वाले मंतरर तामिसक होते हैं।
देह के सरवासरथरय के िलए मंतरर और तंतरर को िमलाकर यंतरर बनाया जाता है। मंतरर
की मदद से बनाये गये वे यंतरर भी चमतरकािरक लाभ करते हैं। तांितररक साधना के बल
से लोग कई उपलिबरधयाँ भी बता सकते हैं।
परंतु सारी उपलिबरधयाँ िजससे िदिती हैं और िजससे होती हैं – वे हैं भगवान।
जैसे, में देश का सब कुछ आ जाता है ऐसे ही भगवान शबरद में, शबद मे सारे बहाड
सूतररमिणयों के समान ओतपररोत हैं। जैसे, मोती सूत के धागे में िपरोये हुए हों से
ही ॐसिहत अथवा बीजमंतररसिहत जो गुरुमंतरर है उसमें 'सवररवरयािपनी शिकरत' होती है।
इस शिकरत का पूरा फायदा उठाने के इचरछुक साधक को दृि़ इचरछाशिकरत से जप करना
चािहए। मंतरर में अिडग आसरथा रिनी चािहए। एकांतवास का अभरयास करना चािहए। वरयथरर
का िवलास, वरयथरर की चेिरटा और वरयथरर का चटोरापन छोड़ देना चािहए। वरयथरर का
जनसंपकरर कम कर देना चािहए।
जो अपना कलरयाण इसी जनरम में करना चाहता हो, अपने िपया परमातरमा से इसी जनरम
में िमलना चाहता हो उसे संयम-िनयम और शरीर के सामथरयरर के अनुरूप 15 िदन में एक
बार एकादशी का वररत करना चािहए। साितरतरवक भोजन करना चािहए। शररृंगार और िवलािसता को
दूर से ही तरयाग देना चािहए। हो सके तो भूिम पर यन करना चािहए, नहीं तो पलंग पर भी
गदरदे आिद कम हों – ऐसे िवलािसतारिहत िबसरतर पर शयन करना चािहए।
साधक को कटु भािण नहीं करना चािहए। वाणी मधुमय हो, शतु केिित भी गाली -गलौच नहीं
करे तो अचरछा है। दूसरों को टोटे चबवाने की अपेकरिा िीर-िाँड ििलाने की भावना
रिनी चािहए। िकसी वसरतु-वरयिकरत के पररित राग-दरवेि को गहरा नहीं उतरने देना चािहए।
कोई वरयिकरत भले थोड़ा सा-वैसा है तो उससे सावधान होकर वरयवहार कर ले परंतु गहराई
में दरवेिबुिदरध न रिे।
साधक को चािहए िक िनरंतर जप करे। सतत भगवनरनाम-जप और भगविचरचंतन िवशेि
िहतकारी है। मनोिवकारों का दमन करने में, िवघरनों का शमन करने में और िदवरय 15
शिितया जगान म े े म ं त भ गवानगजबकीसिायताकरते
अनुकररम िै।
बार-बार भगवनरनाम-जप करने से एक पररकार का भगवदीय रस, भगवदीय आनंद और
भगवदीय अमृत पररकट होने लगता है। जप से उतरपनरन भगवदीय आभा आपके पाँचों शरीरों
(अनरनमय, परराणमय, मनोमय, िवजरञानमय और आनंदमय) को तो शुदरध रिती ही है, साथ ही
आपकी अंतरातरमा को भी तृपरत करती है।

।।

।।
िजन गुरुमुिों ने, भागरयशािलयों ने, पुणरयातरमाओं ने सदगुरु के दरवारा भगवनरनाम
पाया है। उनका िचतरत देर-सवेर परमातरमसुि से तृपरत होने लगता है। िफर उनको दुिनया की
कोई चीज-वसरतु आकििररत करके अंधा नहीं कर सकती। िफर वे िकसी भी चीज-वसरतु से
पररभािवत होकर अपना हौसला नहीं िोयेंगे। उनका हौंसला बुलंद होता जायेगा। वे जरयों-
जरयों जप करते जायेंगे, सदगुरु की आजरञाओं का पालन करते जायेंगे तरयों-तरयों
उनके हृदय में आतरम-अमृत उभरता जायेगा.....
शरीर छू टन क े े ब ा द भ ी ज ी व ा त म ा क े स ाथनामकासंगरितािीिै।नामज
सरवागत करते हैं। इतनी मिहमा है भगवनरनाम जप की !
मंतरर के पाँच अंग होते हैं- ऋिि, देवता, छंद, बीज, कीलक।
हरेक मंतरर के ऋिि होते हैं। वे मंतरर के दररिरटा होते हैं, कतारर नहीं।
। गायतररी मंतरर के ऋिि िव र वािमतररहैं।
पररतरयेक मंतरर के देवता होते हैं। जैसे, के देवता
भगवान सूयरर हैं। मंतरर
श के देवता भगवान िवहैं। मंतरर के
देवता हिर हैं। गणपतरय मंतरर के देवता भगवान गणपित हैं। मंतरर के देवता
वरयापक परमातरमा हैं।
पररतरयेक मंतरर का छंद होता है िजससे उचरचारण-िविध का अनुशासन होता है।
गायतररी मंतरर का छंद गायतररी है। ओंकार मंतरर का छंद भी गायतररी ही है।
पररतरयेक मंतरर का बीज होता है। यह मंतरर को िकरत पररदान करता है।
पररतरयेक मंतरर का कीलक अथाररतर मंतरर की अपनी िकरत होती है। मंतरर की अपनी
शिित मे चार शिितया और जुड जाती िै तब वि मंत सामथयव उतपन करता िै।
मान लो, आपको नेतररजरयोित बि़ानी है तो

। ऐसा किकर जप आरमभ करे। अगर बुिद बढानी िै तो


। ई शर वर
पररािपरत करनी है तो
। ऐसा किकर जप आरमभ करे। अनुकररम
कोई भी वैिदक मंतरर ई शर वरपररािपरतके काम आ सकता है , किरट िमटाने या पापनाश के
काम भी आ सकता है। वही मंतरर सफलता के रासरते ले जाने में मदद कर सकता है और
आतरम िवशररांित पाने के काम भी आ सकता है। जैसे – आप तेजी से अथाररतर
हररसरव जपते हैं तो आपके पाप निरट होते हैं, साितरतरवक परमाणु पैदा होते हैं, दीघरर
जपते हैं तो कायरर साफलरय की िकरत बि़ती है, परलुत जपते हैं तो मन परमातरमा में
शात िोन ल े गतािै।
थोड़ा कम िाओ और चबा-चबाकर िाओ। पररातः कालीन सूयरर की िकरणों में बैठकर
लमरबा शरवास लो, धीरे-धीरे शरवास छोड़ो, िफर - का जप करो। यह पररयोग आपका
अिगरनततरतरव बि़ायेगा। आपका पाचनतंतरर ठीक हो जायेगा। अमरल िपतरत गायब हो जायेगा।
इससे केवल अमरलिपतरत ही िमटेगा या भूि ही बि़ेगी सी बात नहीं है। इससे आपके
पाप-ताप भी िमटेंगे और भगवान आप पर पररसनरन होंगे।
आप अपने कमरे में बैठकर फोन दरवारा भारत से अमेिरका बात कर सकते हो। जब
आप सेलरयुलर फोन के बटन दबाते हो तो वह कृितररम उपगररह से जुड़कर अमेिरका में
घंटी बजा देता है। यंतरर में इतनी िकरत है तो मंतरर में तो इससे कई गुना जरयादा
ं तो मानव केमन न ब
शिित िै। ियोिक यत े न ा य ा ि ै े ीनिीक
जब ि क म ं तकीरचनािकसीऋििनभ
ऋिियों से भी पहले के हैं। उनरहोंने मंतरर की अनुभूितयाँ की हैं।
बाहरयरूप से तो मंतरर के केवल अकरिर िदिते हैं िकंतु वे सरथूल दुिनया से परे,
सूयरर और चंदररलोक से भी परे लोक-लोकांतर को चीरकर बररहरम-परमातरमा से एकाकार
कराने का सामथरयरर रिते हैं।
मंतररिवजरञान में थोड़ा सा ही पररवे पाकर िवदे ी लोग दंग रह गये हैं। मंतररों में
गुपरत अथरर और उनकी शिकरत होती है, जो अभरयासकतारर को िदवरय शिकरतयों के पुंज के साथ
एकाकार करा देती िै।
साधक बतायी गयी िविध के अनुसार जप करता है तो थोड़े ही िदनों में उसकी सुिुपरत
शिित जागत िोन ल -कभी कंपन
े ग त ी िै।ििरशरीरमे कभीहोने लगता है, कभी हासरय उभरने लगता
है, कभी रूदन होने लगता है, िकंतु वह रुदन दुःि का नहीं होता, िवरह का होता है। वह हासरय
संसारी नहीं होता, आतरमसुि का होता है।
कभी-कभी ऐसे नृतरय होने लगेंगे जो आपने कभी देिे-सुने ही न हों, कभी ऐसे
गीत उभरेंगे िक आप दंग रह जायेंगे। कभी-कभी ऐसे शरलोक और ऐसे शासरतररों की बात
आपके हृदय से िनकलेगी िक आप ताजरजब ु करेंगे !
यह अनुभव मंतररदीकरिा लेते समय भी हो सकता है, दूसरे िदन भी हो सकता है, एक
सपरताह में भी हो सकता है। अगर नहीं होता है तो िफर रोओ िक करयों नहीं होता? दूसरे
सपरताह में तो होना ही चािहए।
मंतररदीकरिा कोई साधारण चीज नहीं है। िजसने मंतरर िलया है और जो िनयिमत जप
करता है उसकी अकाल मृतरयु नहीं हो सकती। उस पर भूत-पररेत, डािकनी-शािकनी का िभाव निी पड
सकता। सदगुरु से गुरुमंतरर िमल जाय और उसका पालन करने वाला सतर ििरय िमल जाय तो काम
बन जाय.... अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

उिड़या बाबा, हिर बाबा, हाथी बाबा और आनंदमयी माँ परसरपर िमतरर संत थे। एक बार
कोई आदमी उनके पास आया और बोलाः
"बाबाजी ! भगवान के नाम लेने से करया फायदा होता है?"
तब हाथी बाबा ने उिड़या बाबा से कहाः
"यह तो कोई वै शर य लगता है , बड़ा सरवाथीरर आदमी है। भगवान का नाम लेने से करया
फायदा है? बस, फायदा-ही-फायदा सोचते हो ! भगवनरनाम जब सरनेह से िलया जाता है तब
'करया फायदा होता है? िकतना फायदा होता है?' इसका बयान करने वाला कोई वकरता पैदा ही
नहीं हुआ। भगवनरनाम से करया लाभ होता है, इसका बयान कोई कर ही नहीं सकता। सब बयान
करते-करते छोड़ गये परंतु बयान पूरा नहीं हुआ।"
भगवनरनाम-मिहमा का बयान नहीं िकया जा सकता। तभी तो कहते हैं-

नाम की मिहमा करया है? मंतररजाप की मिहमा करया है? भगवान जब िुद ही इसकी मिहमा
नहीं गा सकते तो दूसरों की तो बात ही करया?
। ।।
ऐसा तो कि िदया, िफर भी मंतररजाप की मिहमा का वणररन पूरा नहीं हो सकता।
कबीर-पुतरर कमाल की एक कथा हैः
एक बार राम नाम केिभाव से कमाल दारा एक कोढी का कोढ दरू िो गया। कमाल समझते िै िक रामनाम की
मिहमा मैं जान गया हूँ, िकंतु कबीर जी पररसनरन नहीं हुए। उनरहोंने कमाल को तुलसीदास जी
के पास भेजा।
तुलसीदासजी ने तुलसी के पतरर पर रामनाम िलिकर वह पतरर जल में डाला और उस
जल से 500 कोिि़यों को ठीक कर िदया। कमान ले समझा िक तुलसीपतरर पर एक बार रामनाम
िलिकर उसके जल से 500 कोिि़यों को ठीक िकया जा सकता है, रामनाम की इतनी मिहमा
है। िकंतु कबीर जी इससे भी संतुिरट नहीं हुए और उनरहोंने कमाल को भेजा सूरदास जी के
पास।
सूरदास जी ने गंगा में बहते हुए एक व के कान में 'राम' शबद का कवे ल 'र' कार कहा
और शव जीिवत हो गया। तब कमाल ने सोचा िक 'राम' शबद के 'र' कार से मुदारर जीिवत हो सकता
है – यह 'राम' शबद की मििमा िै।
तब कबीर जी ने कहाः
'यह भी नहीं। इतनी सी मिहमा नहीं है 'राम' शबद की। अनुकररम

िजसके भृकुिट िवलास मातरर से पररलय हो सकता है, उसके नाम की मिहमा का वणररन
तुम करया कर सकोगे?

, ।।
पूरा बयान कोई नहीं कर सकता। भगवनरनाम की मिहमा का बयान नहीं िकया जा सकता।
िजतना करते हैं उतना थोड़ा ही पड़ता है।
नारद जी दासी पुतरर थे – िवदरयाहीन, जाितहीन और बलहीन। दासी भी सी साधारण िक
चाहे कहीं भी काम पर लगा दो, िकसी के भी घर में काम पर रि दो।
एक बार उस दासी को साधुओं की सेवा मे लगा िदया गया। विा वि अपन प े ु त क ो स ाथलेजातीथीऔरविी
पुतरर साधुसंग व भगवनरनाम के जप के पररभाव से आगे चलकर देवििरर नारद बन गये। यह
सतरसंग की मिहमा है, भगवनरनाम की मिहमा है। परंतु इतनी ही मिहमा नहीं है।
सतरसंग की मिहमा, दासीपुतरर देवििरर नारद बने इतनी ही नहीं, कीड़े में से
मैतररेय ऋिि बन गये इतनी ही नहीं, अरे जीव से बररहरम बन जाय इतनी भी नहीं, सतरसंग
की मिहमा तो लाबयान है। जीव में से बररहरम बन गये, िफर करया? िफर भी सनकािद ऋिि
सतरसंग करते हैं। एक वकरता बनते और बाकी के तीन शश ररोता बनते। िवजीपावररती जी को
सतरसंग सुनाते हैं और सरवयं अगसरतरय ऋिि के आ ररम में सतरसंग सुनने के िलए जाते
हैं।
सतरसंग पापी को पुणरयातरमा बना देता है, पुणरयातरमा को धमाररतरमा बना देता है,
धमाररतरमा को महातरमा बना देता है, महातरमा को परमातरमा बना देता है और परमातरमा को....
आगे वाणी जा नहीं सकती ।
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हिर को करया कंस को मारने के िलए अवतार लेना पड़ा था? वह तो 'हृदयाघात' से भी
मर सकता था। करया रावण को मारने के िलए अवतार िलया होगा रामचंदररजी ने? राकरिस तो
अंदर-ही-अंदर लड़कर मर सकते थे। परंतु इस बहाने सतरसंग का पररचार-पररसार होगा,
ऋिि-सािनरनधरय िमलेगा, सतरसंग का पररसाद परयारे भकरत-समाज तक पहुँचेगा।
परबररहरम परमातरमा का पूरा बयान कोई भी नहीं कर सकता करयोंिक बयान बुिदरध से िकया
जाता है। बुिदरध पररकृित की है और पररकृित तो परमातरमा के एक अं में है, पररकृित में
तमाम जीव और जीवों में जरा सी बुिदरध, वह बुिदरध करया वणररन करेगी परमातरमा का? अनुकररम
सिचरचदानंद परमातरमा का पूरा बयान नहीं िकया जा सकता। वेद कहते हैं 'नेित
नेित नेित....' पृथरवी नहीं, जल नहीं, तेज नहीं, नेित.... नेित...., वायु नहीं, आकाश भी नहीं,
इससे भी परे। जो कुछ भी हम बने हैं, शरीर से िी बन ि े ै , जल,तोकािै।पृथवी
औ र श र ी र तोइनपाचभू
तेज, वायु और आकाश इन पाँच भूतों से ही तो इस सचराचर सृििरट का िनमाररण हुआ है।
मनुिरय, परराणी, भूत-जात सब इसी में तो हैं। वह सतरय तो इन सबसे परे है अतः उसका
बयान कैसे हो?
उसका पूरा बयान नहीं होता और बयान करने जब जाती हैं बुिदरधयाँ तो िजतनी-िजतनी
बयान करने जाती हैं उतनी-उतनी 'उस' मय हो जाती हैं। अगर पूरा बयान िकया तो िफर वह
बुिदरध, पररकृित की बुिदरध नहीं बचती, परमातरमरूप हो जाती हैं। जैसे, लोहा अिगरन में रि दो
उसको, तो लोहा अिगरनमय हो जायेगा। से ही परमातरमा का बयान करते-करते बयान करने
वाला सरवयं परमातरमामय हो जाता। अनुकररम
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'इस पृथव
र ी पर 'नारायण' नामक एक नर (वरयिकरत) पररिसदरध चोर बताया गया है, िजसका
नाम और यश कानों में पररवेश करते ही मनुिरयों की अनेक जनरमों की कमाई हुई समसरत पाप
रा
श िकोहर लेता है।'
( )

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'नाम के समान न जरञान है, न वररत है, न धरयान है, न फल है, न दान है, न शम है, न
पुणरय है और न कोई आशररय है। नाम ही परम मुिकरत है, नाम ही परम गित है, नाम ही परम
शाित िै, नाम ही परम िनिरठा है, नाम ही परम भिकरत है, नाम ही परम बुिदरध है, नाम ही परम
पररीित है, नाम ही परम सरमृित है।'
( )
नामपररिमयों का संग, पररितिदन नाम-जप का कुछ िनयम, भोगों के पररित वैरागरय की
भावना और संतो के जीवन-चिरतरर का अधरययन – ये नाम-साधना मे बड़े सहायक होते
हैं। इन चारों की सहायता से नाम-साधना में बड़े सहायक होते हैं। इन चारों की
सहायता से नाम साधना में सभी को लगना चािहए। भगवनरनाम से लौिकक और पारलौिकक
दोनों पररकार की िसिदरधयाँ पररापरत हो सकती हैं। नाम से असमरभव भी समरभव हो सकता है
और इसकी साधना में िकसी के िलए कोई रूकावट नहीं है। उचरच वणरर का हो या नीच का,
पंिडत हो या मूिरर, सभी इसके अिधकारी हैं। ऊँचा वही है, बड़ा वही है जो
भगवनरनामपरायण है, िजसके मुि और मन से िनरनरतर िव शु दरध पररेमपूवररक शररी
भगवनरनाम की धरविन िनकलती है। संत तुलसीदास जी कहते हैं-
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िजस पररकार अिगरन में दाहक िकरत सरवाभािवक है, उसी पररकार भगवनरनाम में पाप को,
िविय-पररपंचमय जगत के मोह को जला डालने की िकरत सरवाभािवक है।
भगवनरनाम-जप में भाव हो तो बहुत अचरछा परंतु हमें भाव की ओर दृििरट नहीं डालनी
है। भाव न हों, तब भी नाम-जप तो करना ही है।
नाम भगवतरसरवरूप ही है। नाम अपनी िकरत से, अपने गुण से सारा काम कर देगा।
िवशेिकर किलयुग में को भगवनरनाम जैसा और कोई साधन ही नहीं है। वैसे तो मनोिनगररह
बड़ा किठन है, िचतरत की शांित के िलए पररयास करना बड़ा ही किठन है, पर भगवनरनाम तो
इसके िलए भी सहज साधन है।
आलसरय और तकरर – ये दोनों नाम-जप में बाधक हैं।
नाम लेने का अभरयास बना लो, आदत डालो।
'रोटी-रोटी करने से ही पेट थोड़े ही भरता है?' इस पररकार के तकरर भररांित लाते
हैं, पर िव शर वास , भगवनरनाम 'रोटी' की तरह जड़ शबरद नहीं है। यह शबरद ही बररहरम है।
करो
'नाम' और नामी में कोई अनरतर ही नहीं है।
' ' इस पर शररदरधा करो। इस िव शर वास को दृि़ करो। कंजूस
की भाँित नाम-धन को सँभालो।
नाम के बल से िबना पिरशररम ही भवसागर से तर जाओगे और भगवान के पररेम को
भी पररापरत कर लोगे। इसिलए िनरनरतर भगवान का नाम लो, कीतररन करो। अनुकररम

।।
'राजनर ! दोिों के भंडार – किलयुग में यही एक महान गुण है िक इस समय ररीकृिरण
का कीतररनमातरर करने से मनुिरय की सारी आसिकरतयाँ छूट जाती हैं और वह परम पद को
पररापरत हो जाता है।'
( )

।।
'भिकरतभाव से सैंकड़ों यजरञों दरवारा भी ररीहिर की आराधना करके मनुिरय िजस
फल को पाता है, वह सारा-का-सारा किलयुग में भगवान गोिवनरद का कीतररनमातरर करके
पररापरत कर लेता है।'
( )

।।
'सतरययुग में भगवान का धरयान, तररेता में यजरञों दरवारा यजन और दरवापर में उनका
पूजन करके मनुिरय िजस फल को पाता है, उसे वह किलयुग केशव का कीतररनमातरर करके
पररापरत कर लेता है।
( )
संत कबीरदास जी ने कहा हैः
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'सुिमरन इस तरह करो जैसे कामी आठ पहर में एक करिण के िलए भी सरतररी को नहीं
भूलता, जैसे गौ वन में घास चरती हुई भी बछड़े को सदा याद रिती है, जैसे कंगाल
अपने पैसे का पल-पल में समरहाल करता है, जैसे हिरण परराण दे देता है, परंतु वीणा
के सरवर को नहीं भूलना चाहता, जैसे िबना संकोच के पतंग दीप ि ि ा ,
मेंजलमरताहै
परंतु उसके रूप को भूलता नहीं, जैसे कीड़ा अपने-आपको भुलाकर भररमर के सरमरण में
उसी के रंग का बन जाता है और जैसे मछली जल से िबछुड़ने पर परराणतरयाग कर देती
है, परंतु उसे भूलती नहीं।'
सरमरण का यह सरवरूप है। इस पररकार िजनका मन उस परमातरमा के नाम-िचनरतन में रम
जाता है, वे तृपरत और पूणररकाम हो जाते हैं। अनुकररम
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समुदररतट पर एक वरयिकरत िचंतातुर बैठा था, इतने में उधर से िवभीिण िनकले।
उनरहोंने उस िचंतातुर वरयिकरत से पूछाः "करयों भाई ! िकस बात की िचंता में पड़े हो?"
"मुझे समुदरर के उस पार जाना है परंतु कोई साधन नहीं है। अब करया करूँ इस बात की
िचंता है।"
"अरे... इसमें इतने अिधक उदास करयों होते हो?" ऐसा किकर िवभीिण न ए े क पतेपरएक
नाम िलिा तथा उसकी धोती के पलरलू से बाँधते हुए कहाः "इसमें तारक मंतरर बाँधा है। तू
शदा रखकर तिनक भी घबराये िबना पानी पर चलते आना। अवशय पार लग जायेगा।"
िवभीिण के वचनों पर िव शर वास रिकर वह भाई समुदरर की ओर आगे बि़ा तथा सागर
की छाती पर नाचता-नाचता पानी पर चलने लगा। जब बीच समुदरर में आया तब उसके मन में
संदेह हुआ िक िवभीिण ने सा कौन-सा तारक मंतरर िलिकर मेरे पलरलू से बाँधा है िक
मैं समुदरर पर चल सकता हूँ। जरा देिना चािहए।
शदा और िवशास केमागव मे संदेि ऐसी िवकट पिरिसथितया िनिमवत कर देता िै िक कािी ऊँचाई तक पिँच
ु ा िआ

साधक भी िववेक के अभाव में संदेहरूपी िडरयंतरर का िकारहोकर अपना पतन कर बैठता
है तो िफर साधारण मनुिरय को तो संदेह की आँच ही िगराने के िलए पयाररपरत है।
हजारों-हजारों जनरमों की साधना अपने सदगुरु पर संदेह करने मातरर से ितरे
में पड़ जाती है। अतः साधक को सदगुरु के िदए हुए अनमोल रतरन-समान बोध पर कभी संदेह
नहीं करना चािहए।
उस वरयिकरत ने अपने पलरलू में बँधा हुआ पनरना िोला और पि़ा तो उस पर 'दो अकरिर
का 'राम' नाम िलिा हुआ था। उसकी ररदरधा तुरंत ही अ ररदरधा में बदल गयीः "अरे ! यह तारक
मंतरर है ! यह तो सबसे सीधा सादा राम नाम है !" मन में इस पररकार की अशररदरधा उपजते
ही वह डूब मरा।
हृदय में भरपूर शररदरधा हो तो मानव महे शर वर बन सकता है। अतः अपने हृदय को
अशररदरधा से बचाना चािहए। इस पररकार के संग व पिरिसरथितयों से सदैव बचना चािहए जो
ई शर वर तथा संतों के पररित बनी हमारी आसरथ, ाशदा व भिित को डगमगाते िो।

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'कुल के िहत के िलए एक वरयिकरत को तरयाग दो। गाँव के िहत के िलए कुल को तरयाग
दो। देश के िहत के िलए गाँव का पिरतरयाग कर दो और आतरमा के कलरयाण के िलए सारे
भूमंडल को तरयाग दो।' अनुकररम
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जप में चार बातें आव शर यक - शदा व ततपरता। संयम। एकागता। शबदो का गुंथन।
हैं
एक िै शबद की वयवसथा। जैसे- .... ... ... .... ... आिद मंतरर
हैं। इनका कोई िवशेि मतलब नहीं िदिता परंतु वे हमारी सुिप ु रत शिकरत को जगाने व हमारे
संकलरप को वातावरण में फैलाने में बड़ी मदद करते हैं। जैसे – आप फोन करते हैं
तो कृितररम उपगररह पररणाली में गित होने से अमेिरका में आपके िमतरर के घर फोन की
घंटी बजती है। इससे भी जरयादा पररभाव सूकरिरम मंतरर का होता है। िकंतु मंतररिवजरञान को
जानने वाले गुरु व मंतरर का फायदा उठाने वाला साधक िमले तभी उसकी मिहमा का पता
लगता है।
एक बार रावण दशरथ केपास गया। उस समय दशरथ अयोधया मे न िोकर गंगा केिकनारे गये िएु थे। रावण के
पास उड़ने की िसिदरध थी अतः वह तुरंत द रथ के पास पहुँच गया और जाकर देिता है िक
दशरथ िकनारे पर बैठकर चावल के दानों को एक-एक करकेगंगाजी मे जोर -से मार रहे हैं।
आ शर चयररचिकत हो रावण ने पूछाः"हे अयोधरयानरेश ! आप यह करया कर रहे हैं?"
दशरथः "जंगल में शेर बहुत जरयादा हो गये हैं। उनरहें मारने के िलए एक-एक शेर
के पीछे करयों घूमूँ? यहाँ से ही उनको यमपुरी पहुँचा रहा हूँ।"
रावण का आ शर चयरर और अिधक बि़ गया। अतः वह जंगल की ओर गया देिा िक िकसी
कोने से तीर आते हैं, जो फालतू शेर हैं उनरहें लगते हैं और वे मर जाते हैं।
'शीमद भ
् ागवत' कथा आती है िक परीिकरित को तकरिक ने काटा। यह जानकर जनरमेजय को
बड़ा कररोध आया और वह सोचने लगाः 'मेरे िपता को मारनेवाले उस अधम सपरर से जब
तक मैं वैर न लूँ तब तक मैं पुतरर कैसा।?'
यह सोचकर उसने मंतररिवजरञान के जानने वालों को एकितररत करके िवचार िवमरर
िकया और यजरञ का आयोजन िकया। सपरर-सतरर में मंतररों के पररभाव से साँप ििंच-
ििंचकर आने लगे और उस यजरञकुणरड में िगरकर मरने लगे। सा करते-करते बहुत
सारे सपरर अिगरन में सरवाहा हो गये िकंतु तकरिक नहीं आया। यह देिकर जनरमेजय ने
कहाः
"हे बरराहरमणो ! िजस अधम तकरिक ने मेरे िपता को मार डाला, वह अभी तक करयों
नहीं आया?"
तब बरराहरमणों ने कहाः "हे राजनर ! तकरिक रूप बदलना जानता है और इनरदरर से उसकी
िमतररता है। जब मंतरर के पररभाव से सब सपरर ििंच-ििंचकर आने लगे तो इस बात का पता
लगते ही वह सावधान होकर इनरदरर की रण में पहुँच गया है और इनरदरर के आसन से
िलपटकर बैठ गया है।"
जनरमेजयः "हे भूदेव ! इनरदररासन समेत वह तकरिक हवनकुणरड में आ िगरे सा
मंतरर करयों नहीं पि़ते?"
बरराहरमणों ने जब जनरमेजय कहने पर तदनुसार मंतरर पि़ा तो इनरदररासन डोलने
लगा।
कैसा अदभुत सामथरयरर है मंतररों में !
इनरदररासन के डोलने पर इनरदरर को घबराहट हुई िक अब करया होगा?
वे गये देवगुरु बृहसरपित के पास और उनसे परराथररना की। इनरदरर की परराथररना सुन कर
जनरमेजय के पास बृहसरपित पररकट हुए और जनरमेजय को समझाकर यजरञ बंद करवा िदया।
मंतररोचरचारण, मंतररो के शबरदों का गुंथन, जापक की शररदरधा, सदाचार और एकागररता...
ये सब मंतरर के पररभाव पर असर करते हैं। यिद जापक की ररदरधा नहीं है तो मंतरर का
पररभाव इतना नहीं होगा िजतना होना चािहए। ररदरधा है परंतु मंतरर का गुंथन िवपरीत है तो
भी िवपरीत असर होता है। जैसे – यजरञ िकया िक 'इनरदरर को मारनेवाला पुतरर पैदा हो' परंतु
संसरकृत में हररसव र और दीघरर की गलती से 'इनरदरर से मरने वाला पुतरर पैदा हो' ऐसा बोल िदया
गया तो वृतररासुर पैदा हुआ जो इनरदरर को मार नहीं पाया िकंतु सरवयं इनरदरर के हाथों मारा
गया। अतः शबरदों का गुंथन सही होना चािहए। जैसे, फोन पर यिद 011 डायल करना है तो 011
ही डायल करना पड़ेगा। ऐसा नहीं िक 101 कर िदया और यिद ऐसा िकया तो गलत हो जायेगा।
जैसे, अंक को आगे-पीछे करने से फोन नंबर गलत हो जाता है से ही मंतरर के
गुंथन में शबरदों के आगे-पीछे होने से मंतरर का पररभाव बदल जाता है। अनुकररम
जापक की शररदरधा, एकागता और संयम केसाथ -साथ मंतरर देने वाले की महतरता का भी
मंतरर पर गहरा पररभाव पड़ता है। जैसे, िकसी बात को चपरासी कहे तो उतना असर नहीं
होता िकंतु वही बात यिद रािरटररपित कह दे तो उसका असर होता है। जैसे, रािरटररपित पद का
वरयिकरत यिद हसरताकरिर करता है तो उसका रािरटररवरयापी असर होता है, ऐसे िी िजसन आ े नदंमय
कोि से पार आनंदसरवरूप ई र वरकी यातररा कर ली है से बररहरमजरञानी सदगुरु दरवारा
पररदतरत मंतरर बररहरमाणरडवरयापी पररभाव रिता है। िनगुरा आदमी मरने के बाद पररेतयोिन से
सहज में छुटकारा नहीं पाता परंतु िजनरहोंने बररहरमजरञानी गुरुओं से मंतरर ले रिा है
उनरहें पररेतयोिन में भटकना नहीं पड़ता। जैसे, पुणरय और पाप मरने के बाद भी पीछा
नहीं छोड़ते, ऐसे िी बहवेता दारा िदत गुरमंत भी साधक का पीछा निी छोडता। जैसे – कबीर जी को उनकेगुर
से 'राम-राम' मंतरर िमला। 'राम-राम' मंतरर तो रासरते जाते लोग भी दे सकते हैं िकंतु
उसका इतना असर नहीं होता परंतु पूजरयपाद रामानंद सरवामी ने जब कबीर जी को 'राम-राम'
मंतरर िदया तो कबीर जी िकतनी ऊँचाई पर पहुँच गये, दुिनया जानती है। तुलसीदास जी ने
कहा हैः
। ।।
( . . . 35.1)
अभी डॉ. िलवर िलजेिरया व दूसरे िचिकतरसक कहते हैं िक , , आिद
मंतररों के उचरचारण से शरीर के िविभनरन भागों पर िभनरन-िभनरन असर पड़ता है। डॉ. िलवर
िलजेिरया ने तो 17 विोररं के अनुभव के प शर चातर यह िोजा िक' ' के साथ अगर ' ' शबद
को िमलाकर उचरचारण िकया जाये तो पाँचों जरञानेिनरदररयों पर उसका अचरछा पररभाव पड़ता
है वह िनःसंतान वरयिकरत को मंतरर के बल से संतान पररापरत हो सकती है जबिक हमारे
भारत के ऋिि-मुिनयों ने इससे भी अिधक जानकारी हजारों-लािों विरर पहले शासरतररों
में विणररत कर दी थी। हजारों विरर पूवरर हमारे साधु-संत जो आसानी से कर सकते थे उस
बात पर िवजरञान अभी कुछ-कुछ िोज रहा है।
आकृित के साथ शबरद का परराकृितक व मनोवैजरञािनक समरबनरध है। मैं कह दूँ 'रावण'
तो आपके िचतरत व मन में रावण की आकृित और संसरकार उभर आयेंगे और मैं कह दूँ
'लाल बहादुर शासरतररी' तो नाटा सा कद व ईमानदारी मे दृि़ ऐसे नेता की आकृित और भाव आ
जायेंगे।
डॉ. िलवर िलजेिरया ने मंतरर के पररभाव की िोज केवल भौितक या सरथूल रीर तक
ही की है जबिक आज से हजारों विरर पूवरर हमारे ऋिियों ने मंतरर के पररभाव को केवल
सरथूल शरीर तक ही नहीं वरनर इससे भी आगे कहा है। यह भौितक शरीर अनरनमय है। इसके
अनरदर चार शरीर और भी हैं- परराणमय। मनोमय। िवजरञानमय। आनंदमय। इन सबको चेतना
देनेवाले चैतनरयसरवरूप की भी िोज कर ली है। अगर परराणमय रीर िनकल जाता है तो
अनरनमय शरीर मुदारर हो जाता है। परराणमय शरीर का भी संचालन करने वाला मनोमय शरीर
है। मन के संकलरप-िवकलरप के आधार पर ही परराणमय रीर िकररया करता है। मनोमय
शरीर केभीतर िवजानमय शरीर िै। पाच जानिेििया और बुिद – इसको 'िवजरञानमय शरीर' बोलते हैं।
मनोमय शरीर को सतरता यही िवजरञानमय शरीर देता है। बुिदरध ने िनणररय िकया िक मुझे
िचिकतरसक बनना है। मन उसी िविय में चला, हाथ-पैर उसी िविय में चले और आप बन
गये िचिकतरसक। परंतु इस िवजरञानमय कोि से भी गहराई में 'आनंदमय कोि' है। कोई भी
कायरर हम करयों करते हैं? इसिलए िक हमें और हमारे िमतररों को आनंद िमले। दाता दान
करता है तो भी आनंद के िलए करता है। भगवान के आगे हम रोते हैं तो भी आनंद के
िलए और हँसते हैं तो भी आनंद के िलए। जो भी चेिरटा करते हैं आनंद के िलए करते
हैं करयोंिक परमातरमा आनंदसरवरूप है और उसके िनकट का जो कोि है उसे 'आनंदमय कोि'
कहते हैं। अतः जो भी आनंद आता है वह परमातरमा का आनंद है। परमातरमा आनंदसरवरूप
है और मंतरर उस परमातरमा तक के इन पाँचों कोिों पर पररभाव डालता है। भगवनरनाम के
जप से पाँचों कोिों में, समसरत नािड़यों में व सातों केनरदररों में बड़ा साितरतरवक असर
पड़ता है। मंतररजाप की महतरता जानकर ही 500 विरर पहले नानकजी ने कहाः

।।
तुलसीदासजी ने तो यहाँ तक कह िदया हैः

।।
'सतयुग, तररेता और दरवापर में जो गित पूजा, यजरञ और योग से पररापरत होती है, वही
गित किलयुग में लोग केवल भगवनरनाम के गुणगान से पा जाते हैं।'
( . . . 102 )

।।
'किलयुग में तो केवल शररीहिर के गुणगाथाओं का गान करने से ही मनुिरय भवसागर
की थाह पा जाते हैं।' अनुकररम
( . . . 102.2)
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सरवामी अिंडानंद जी सरसरवती संत 'जानकी' घाटवाले बाबा के दररशन करने के िलए
जाते थे। उनरहोंने अिंडानंदजी (ये अपने आशररम में भी आये थे) को यह घटना बतायी
थी िक रामवलरलभशरण इतने महान पंिडत कैसे हुए?
रामवलरलभशरण िकनरहीं संत के पास गये।
संत ने पूछाः "करया चािहए?"
रामवलरलभशरणः "महाराज ! भगवान शररीराम की भिकरत और शासरतररों का जरञान चािहए।"
ईमानदारी की माँग थी। सचरचाई का जीवन था। कम बोलने वाले थे। भगवान के िलए
तड़प थी।
संत ने पूछाः "ठीक है। बस न?"
"जी, महाराज।"
संत ने हनुमानजी का मंतरर िदया। वे एकागररिचतरत होकर ततरपरता से मंतरर जपते
रहे। हनुमानजी पररकट हो गये।
हनुमान जी ने कहाः "करया चािहए?"
"भगवतरसरवरूप आपके दररशन तो हो गये। शासरतररों का जरञान चािहए।"
हनुमानजीः "बस, इतनी सी बात? जाओ, तीन िदन के अंदर िजतने भी गररनरथ देिोगे
उन सबका अथररसिहत अिभपरराय तुमरहारे हृदय में पररकट हो जायेगा।"
वे काशी चले गये और काशी के िव शर विवदरयालय आिद के गररंथ देिे। वे बड़े
भआरी िवदरवान हो गये। यह तो वे ही लोग जानते हैं िजनरहोंने उनके साथ वाताररलाप
िकया और शासरतरर-िवियक परर शर नोतरतिरकये हैं। दुिनया के अचरछ-ेअचरछे िवदरवान उनका
लोहा मानते हैं।
केवल मंतररजाप करते-करते अनुिरठान में सफल हुए। हनुमानजी पररकट हो गये और
तीन िदन के अंदर िजतने शासरतरर देिे उन शासरतररों का अिभपरराय उनके हृदय में पररकट
हो गया।
कैसी िदवरय मिहमा है मंतरर की ! अनुकररम
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यजरञ करया है?


भगवान शररीकृिरण कहते हैं-
। 'सब पररकार के यजरञों में जप यजरञ मैं हूँ।'
भागवत में कहा गया हैः

।।
'चाहे हजारों अ शर वमेधयजरञ कर लो और चाहे सैंकड़ों वाजपेय यजरञ कर लो
परंतु भगवतरकथा पुणरय के आगे उनका सोलहवाँ भाग भी नहीं।'
िफर भी ये यजरञ अचरछे हैं, भले हैं। फररांस के वैजरञािनकों ने भारत की यजरञ-
िविध पर थोड़ा अनुसंधान िकया। उनरहोंने देिा िक यजरञ में जो मधुर पदाथरर डालते हैं
उससे िनकलने वाले धुएँ से चेचक के कीटाणु निरट हो जाते हैं। यजरञ में घी डालने
पर िनकलनेवाले धुएँ से करिय रोग (टी.बी.) और दमे के कीटाणु निरट होते हैं परंतु
हमारे ऋिियों ने केवल चेचक, करिय रोग या दमे के कीटाणु ही निरट हों इतना ही नहीं
सोचा वरनर यजरञ के समय शरीर का ऊपरी िहसरसा िुला रिने का भी िवधान बताया तािक
यजरञ करते समय रोमकूप िुले हुए हों और यजरञ का धुआँ व र ासोचरछव र ास व रोमकूप के
दरवारा शरीर के अंदर पररवेश करे। इससे अनरय अनेक लाभ होते हैं। िकंतु केवल शरीर
को ही लाभ नहीं होता वरनर यजरञ करते समय मंतरर बोलते-बोलते जब कहा जाता हैः
। ।
। ।।
'यह इनरदरर का है, यह वरुण का है। मेरा नहीं है।' इस पररकार ममता छुड़ाकर िनभररय
करने की वरयवसरथा भी हमारी यजरञ-िविध में है।
यजरञ करते समय कुछ बातें धरयान में रिना आव र यकहै। जैसे, यजरञ में जो
वसरतुएँ डाली जाती हैं उनके रासायिनक पररभाव को उतरपनरन करने में जो लकड़ी मदद
करती है ऐसी ही लकड़ी होनी चािहए। इसिलए कहा गया हैः 'अमुक यजरञ में पीपल की लकड़ी
हो... अमुक यजरञ में आम की लकड़ी हो...' तािक लकिड़यों का भी रासायिनक पररभाव व यजरञ
की वसरतुओं का भी रासायिनक पररभाव वातावरण पर पड़े।
....िकंतु आज ऐसे यजरञ आप कहाँ िूँिते िफरेंगे? उसका भी एक िवकलरप हैः आज
भी गाय के गोबर के कंडे व कोयले िमल सकते हैं। अतः कभी कभार उनरहें जलाकर
उसमें जौ, ितल, घी, नािरयल के टुकड़े व गूगल आिद िमलाकर तैयार िकया गया धूप डालें।
इस पररकार का धूप बहुत से िविैले जीवाणुओं को निरट करता है। जब आप जप-धरयान करना
चाहें तो उससे थोड़ी देर पहले यह धूप करके िफर उस धूप से ुदरध बने हुए वातावरण
में जप-धरयान करने बैठें तो बहुत लाभ होगा। धूप भी अित न करें अनरयथा गले में
तकलीफ होने लगेगी।
आजकल परफरयूम से जो अगरबितरतयाँ बनती हैं वे िु बू तो देती हैं परंतु
रसायनों का हमारे सरवासरथरय पर िवपरीत पररभाव पड़ता है। एक तो मोटर-गािड़यों के धुएँ
का, दूसरा अगरबितरतयों के रसायनों का कुपररभाव रीर पर पड़ता है। इसकी अपेकरिा तो
साितरतरवक अगरबतरती या धूपबतरती िमल जाय तो ठीक है नहीं तो कम-से-कम घी का थोड़ा धूप
कर िलया करो। इसी पररकार अपने साधना-ककरि में दीपक जलायें, मोमबतरती नहीं। कभी
कभार साधना-ककरि में सुगंिधत फूल रि दें। एक बात का और भी धरयान रिें िक जप करते
समय ऐसा आसन िबछाना चािहए जो िवदरयुत का कुचालक हो यानी आपको पृथरवी से अिथररंग न
िमले।
जप धरयान करने से एक आधरयाितरमक िवदरयुत तैयार होती है जो वात-िपतरत-कफ के
दोिों को िनवृतरत करके सरवासरथरय-लाभ तो कराती ही है, साथ-ही-साथ मन और परराण को भी
ऊपर ले आती िै। अगर आप असावधान रिे और साधना केसमय सूती कपडे पर या साधारण जगि पर बैठ गये तो शरीर
में जप-धरयान से जो ऊजारर उतरपनरन होती है, उसे अिथररंग िमल जाती है और वह पृथरवी
में चली जाती है। आप ठनठनपाल रह जाते हैं। मन में होता है िक थोड़ा भजन हुआ िकंतु
भजन में जो बरकत आनी चािहए वह नहीं आती। अतः साधना के समय ये सावधािनयाँ जरूरी
हैं।
ये िनयम तपिसरवयों के लागू नहीं पड़ते। तपिसरवयों को तो रीर को किरट देना
है। तपसरवी का नंगे पैर चलना उसकी दुिनया है िकंतु यह जमाना नंगे पैर चलकर तप
करने का नहीं, यह तो फासरट युग है। अनुकररम
आचायरर िवनोबा भावे ने कहीं पि़ा था िक बररहरमचारी को नंगे पैर चलना चािहए,
तपसरवी जीवन जीना चािहए। उनरहोंने यह पि़कर नंगे पैर यातररा करनी शुरू की। पिरणाम यह
हुआ िक शरीर को अिथररंग िूब िमली और डामर की सड़कों पर गमीरर में नंगे पैर चलने
से आँिों से पर बुरा असर पड़ा। बाद में उनरहें िवचार आया िक िजस समय यह बात कही
गयी थी तब डामर की सड़कें नहीं थी, ऋिि-आशररम थे, हिरयाली थी। बाद में उनरहोंने
नंगे पैर चलना बंद कर िदया िकंतु आँिों पर असर काफी समय तक बना रहा।
िवनोबा माँ िकसी साधारण माँ के बालक नहीं थे। उनकी माँ यजरञ करना जानती थी
और केवल अिगरन में आहुितवाला यजरञ नहीं वरनर गरीब-गुरबे को भोजन कराने का यजरञ
करना जानती थी। िवनोबा भावे के िपता नरहिर भावे िकरिकथे। उनरहें नपा तुला वेतन
िमलता था िफर भी सोचते थे िक जीवन में कुछ-न-कुछ सतरकमरर होना चािहए। िकसी गरीब
सदाचारी िवदरयाथीरर को ले आते और अपने घर में रिते। माता रिुनाई अपने बेटों को
भी भोजन कराती और उस अनाथ बालक को भी भोजन कराती िकंतु ििलाने में पकरिपात करती।
एक िदन बालक िवनोबा न म े ासेकिाः
''माँ ! तुम कहती हो िक सबमें भगवान है, िकसी से पकरिपात नहीं करना चािहए। परंतु
तुम िुद ही पकरिपात करयों करती हो? जब बासी रोटी बचती है तो उसे गमरर करके तुम मुझे
ििलाती हो, िुद िाती हो िकंतु उस अनाथ िवदरयाथीरर के िलए गमरर-गमरर रोटी बनाती हो। ऐसा
पकरिपात करयों, माँ?"
वह बोलीः "मेरे लाल ! मुझे तू अपना बेटा लगता है परंतु वह बालक अितिथदेव है,
भगवान का सरवरूप है। उसमें मुझे भगवान िदिते हैं। िजस िदन तुझमें भी मुझे भगवान
िदिेंगे उस िदन तुझे भी ताजी-ताजी रोटी ििलाऊँगी।"
भारत की उस देवी ने करया गजब का उतरतर िदया है ! यह धमरर, संसरकृित नहीं तो और
करया है? वासरतव में यही धमरर है और यही यजरञ है। अिगरन में घी की आहुितयाँ ही केवल
यजरञ है और दीन-दुःिी-गरीब को मदद करना, उनके आँसू पोंछना भी यजरञ है और दीन-
दुःिियों की सेवा ही वासरतव में परमातरमा की सेवा है, यह युग के अनुरूप यजरञ है। यह इस
युग की माँग है। अनुकररम
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'सरकनरद पुराण' के बररहरमोतरतर िणरड में कथा आती हैः का ी नरे की कनरया कलावती
के साथ मथुरा के दाशाहरर नामक राजा का िववाह हुआ। िववाह के बाद राजा ने अपनी पतरनी को
अपने पलंग पर बुलाया परंतु पतरनी ने इनरकार कर िदया। तब राजा ने बल-पररयोग की धमकी
दी।
पतरनी ने कहाः "सरतररी के साथ संसार-वरयवहार करना हो तो बल-पररयोग नहीं, सरनेह-
पररयोग करना चािहए। नाथ ! मैं आपकी पतरनी हूँ, िफर भी आप मेरे साथ बल-पररयोग करके
संसार-वरयवहार न करें।"
आििर वह राजा था। पतरनी की बात सुनी-अनसुनी करके नजदीक गया। जरयों ही उसने
पतरनी का सरपररश िकया तरयों ही उसके शरीर में िवदरयुत जैसा करंट लगा। उसका सरपररश करते
ही राजा का अंग-अंग जलने लगा। वह दूर हटा और बोलाः "करया बात है? तुम इतनी सुनरदर और
कोमल हो िफर भी तुमरहारे रीर के सरपरर से मुझे जलन होने लगी?"
पतरनीः "नाथ ! मैंने बालरयकाल में दुवाररसा ऋिि से िवमंतरर िलया था। वह जपने
से मेरी साितरतरवक ऊजारर का िवकास हुआ है। जैसे, अँधेरी रात और दोपहर एक साथ नहीं
रहते वैसे ही आपने शराब पीने वाली वे शर याओं के साथ और कुलटाओं के साथ जो
संसार-भोग भोगे हैं, उससे आपके पाप के कण आपके शरीर में, मन में, बुिदरध में
अिधक है और मैंने जो जप िकया है उसके कारण मेरे रीर में ओज, तेज, आधरयाितरमक
कण अिधक हैं। इसिलए मैं आपके नजदीक नहीं आती थी बिलरक आपसे थोड़ी दूर रहकर
आपसे परराथररना करती थी। आप बुिदरधमान हैं बलवान हैं, यशसरवी हैं धमरर की बात भी
आपने सुन रिी है। िफर भी आपने राब पीनेवाली वे र याओंके साथ और कुलटाओं
के साथ भोग भोगे हैं।"
राजाः "तुमरहें इस बात का पता कैसे चल गया?"
रानीः "नाथ ! हृदय शुदरध होता है तो यह िरयाल आ जाता है।"
राजा पररभािवत हुआ और रानी से बोलाः "तु शम मुझे भी भगवान िवका वह मंतरर दे दो।"
रानीः "आप मेरे पित हैं। मैं आपकी गुरु नहीं बन सकती। हम दोनों गगाररचायरर
महाराज के पास चलते हैं।"
दोनों गगाररचायररजी के पास गये और उनसे परराथररना की। उनरहोंने सरनानािद से
यमुना तट पर अपने िवसरवरूप के धरयान में बैठकर राजा-रानी को िनगाह से
पिवतरर हो, श
पावन िकया। िफर िवमंतरर देकर अपनी शांभवी दीकरिा से राजा पर शिकरतपात िकया।
कथा कहती है िक देिते-ही-देिते कोिट-कोिट कौए राजा के शरीर से िनकल-
िनकलकर पलायन कर गये। काले कौए अथाररतर तुचरछ परमाणु। काले कमोररं के तुचरछ परमाणु
करोड़ों की संिरया में सूकरिरम दृििरट के दररिरटाओं दरवारा देिे गये हैं। सचरचे संतों
के चरणों में बैठकर दीकरिा लेने वाले सभी साधकों को इस पररकार के लाभ होते ही
हैं। मन, बुिदरध में पड़े हुए तुचरछ कुसंसरकार भी िमटते हैं। आतरम-परमातरमापररािपरत की
योगरयता भी िनिरती है। वरयिकरतगत जीवन में सुि-शाित, सामािजक जीवन में समरमान िमलता
है तथा मन-बुिदरध में सुहावने संसरकार भी पड़ते हैं। और भी अनिगनत लाभ होते हैं जो
िनगुरे, मनमुि लोगों की कलरपना में भी नहीं आ सकते। मंतररदीकरिा के पररभाव से हमारे
पाँचों शरीरों के कुसंसरकार व काले कमोररं के परमाणु करिीण होते जाते हैं। थोड़ी-ही
देर में राजा िनभाररर हो गया और भीतर के सुि से भर गया।
शुभ-अ श,ु हािनकारक
भ व सहायक जीवाणु हमारे रीर में ही रहते हैं। पानी का
िगलास होंठ पर रिकर वापस लायें तो उस पर लािों जीवाणु पाये जाते हैं यह
वैजरञािनक अभी बोलते हैं, परंतु शासरतररों ने तो लािों विरर पहले ही कह िदया।
- ।
जब आपके अंदर अचरछे िवचार रहते हैं तब आप अचरछे काम करते हैं और जब
भी हलके िवचार आ जाते हैं तो आप न चाहते हुए भी कुछ गलत कर बैठते हैं। गलत
करने वाला कई बार अचरछा भी करता है। तो मानना पड़ेगा िक मनुिरय रीर पुणरय और पाप
का िमशररण है। आपका अंतःकरण शुभ और अ शु भ का िमशररण है। जब आप लापरवाह होते हैं
तो अ शु भ बि़ जाता है। अतः पुरुिाथरर यह करना है िक अ शु भ करिीण होता जाय और शुभ
पराकािरठा तक, परमातरम-पररािपरत तक पहुँच जाय। अनुकररम
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15
भगवनरनाम में 15 िवशेि शिकरतयाँ हैं-
भगवनरनाम-जप में एक है संपदा शिकरत। लौिकक संपदा में,
धन में भी िकतनी शिकरत है – इससे िमठाइयाँ िरीद लो, मकान िरीद लो, दुकान िरीद लो।
वसरतरर, हवाई जहाज आिद दुिनया की हर चीज धन से िरीदी जा सकती है। इस पररकार
भगवनरनाम जप में दािरदररयना ि न ी ि करत अथाररतरलकरिरमीपररािपरत िकरतहै।
भगवनरनाम-जप करोगे तो आप जहाँ रहोगे उस वातावरण में
पिवतररता छा जायेगी। ऐसे संत वातावरण में (समाज) में जाते हैं तो पिवतररता के
पररभाव से हजारों लोग ििंचकर उनके पास आ जाते हैं। भुवनपावनी िकरत िवकिसत होती
है नाम-कमाई से। नाम कमाई वाले ऐसे संत जहाँ जाते हैं, जहाँ रहते हैं, यह
भुवनपावनी शिकरत उस जगह को तीथरर बना देती है, िफर चाहे कैसी भी जगह हो। यहाँ
(मोटेरा में) तो पहले शराब की 40 भिटरठयाँ चलती थीं, अब वहीं आशररम है। यह भगवनरनाम
की भुवनपावनी शिकरत का पररभाव है।
भगवनरनाम में रोगना शि न ी िकरतहै।आपकोई
औििध लेते हैं। उसको अगर दािहने हाथ पर रिकर ' ' का 21 बार
जप करके िफर लें तो उसमें रोगना ि न ी िकरतकासंचारहोगा।
एक बार गाधीजी बीमार पडे। लोगो न ि े च ि "मैंलचलते-चलते
क त स ककोबु ाया।गाधीजीनके िािक
िगर पड़ा। तुमने िचिकतरसक को बुलाया इसकी अपेकरिा मेरे इदरर-िगदरर बैठकर भगवनरनाम-
जपते तो मुझे िवशेि फायदा होता और िवशेि पररसनरनता होती।'
मेरी माँ को यकृत (लीवर), गुदेरर (िकडनी), जठरा, परलीहा आिद की तथा और भी कई
जानलेवा बीमािरयों ने घेर िलया था। उसको 86 साल की उमरर में िचिकतरसकों ने कह िदया
था िक 'अब एक िदन से जरयादा नहीं िनकाल सकती हैं।'
23 घंटे हो गये। मैंने अपने 7 दवािाने सँभालने वाले वैदरय को कहाः "मिहला
आशररम में माता जी हैं। तू कुछ तो कर, भाई ! " थोड़ी देर बात मुँह लटकाते आया और
बोलाः अब माता जी एक घंटे से जरयादा समय नहीं िनकाल सकती हैं। नाड़ी िवपरीत चल
रही है।"
मैं माता जी के पास गया। हालाँिक मेरी माँ मेरी गुरु थीं, मुझे बचपन में
भगवतरकथा सुनाती थीं। परंतु जब मैं गुरुकृपा पाकर 7 विरर की साधना के बाद गुरुआजरञा के
घर गया, तबसे माँ को मेरे पररित आदर भाव हो गया। वे मुझे पुतरर के रूप में नहीं
देिती थीं वरनर जैसे किपल मुिन की माँ उनको भगवान के रूप में, गुरु के रूप में मानती
थीं, वैसे ही मेरी माँ मुझे मानती थीं। मेरी माँ ने कहाः "पररभु ! अब मुझे जाने दो।"
मैंने कहाः "मैं नहीं जाने दूँगा।"
उनकी शररदरधा का मैंने साितरतरवक फायदा उठाया।
माः "मैं करया करूँ?"
मैंने कहाः "मैं मंतरर देता हूँ आरोगरयता का।"
उनकी शररदरधा और मंतरर भगवान का पररभाव... माँ ने मंतरर जपना चालू िकया। मैं
आपको सतरय बोलता हूँ िक एक घंटे के बाद सरवासरथरय में सुधार होने लगा। िफर तो एक िदन,
दो िदन... एक सपताि... एक मिीना... ऐसा करते-करते 72 महीने तक उनका सरवासरथरय बिि़या रहा। कुछ
िान-पान की सावधानी बरती गयी, कुछ औिध का भी उपयोग िकया गया।
अमेिरका का िचिकतरसक पी.सी.पटेल (एम.डी.) भी आ शर चयररचिकत हो गया िक86 विरर की
उमरर में माँ के यकृत, गुदेरर िफर से कैसे ठीक हो गये? तो मानना पड़ेगा िक
सवररवरयािधिवना शिनी िकर, त
रोगहािरणी शिकरत मंतररजाप में छुपी हुई है।
बंिकम बाबू (वंदे मातरमर रािरटररगान के रचियता) की दाि़ दुिती थी। ऐलौपैथीवाले
थक गये। आयुवेररदवाले भी तौबा पुकार गये... आििर बंिकम बाबू ने कहाः 'छोड़ो।'
और वे भगवनरनाम-जप में लग गये। सवररवरयािधिवना ि न ी िकरतकाकरयाअदभुत
पररभाव ! दाि़ का ददरर कहाँ छू हो गया पता तक न चला !
िकसी भी पररकार का दुःि हो भगवनरनाम जप चालू कर दो,
सवररदुःिहािरणी शिकरत उभरेगी और आपके दुःि का पररभाव करिीण होने लगेगा। अनुकररम
किलयुग के दोिों को हरने की िकरत भी भगवनरनाम
में छुपी हुई है।
तुलसीदास जी ने कहाः



।।
किलजुग का यह दोि है िक आप अचरछाई की तरफ चलें तो कुछ-न-कुछ बुरे संसरकार
डालकर, कुछ-न-कुछ बुराई करवाकर आपका पुणरयपररभाव करिीण कर देता है। यह उनरहीं को
सताता है जो भगवनरनाम-जप में मन नहीं लगाते। केवल ऊपर-ऊपर से थोडी माला कर लेते िै।
परंतु जो मंतरर दररिरटा आतरमजरञानी गुरु से अपनी-अपनी पातररता व उदरदे शर य के अनुरूप
ॐसिहत वैिदक मंतरर लेकर जपते हैं, उनके अंदर किलकाल भुजंगभयना िनी िकरत
पररकट हो जाती है।
वरयिकरत ने कैसा भी नारकीय कमरर कर िलया हो परंतु
भगवनरनाम की शरण आ जाता है और अब बुरे कमरर नहीं करूँगा – ऐसा ठान लेता है तो
भगवनरनाम की कमाई उसके नारकीय दुःिों का अथवा नारकीय योिनयों का अंत कर देती है।
अजािमल की रकरिा इसी शिकरत ने की थी। अजािमल मृतरयु की आििरी शरवास िगन रहा था, उसे
यमपाश से भगवनरनाम की शिकरत ने बचाया। अकाल मृतरयु टल गयी तथा महादुराचारी से
महासदाचारी बन गये और भगवतरपररािपरत की। 'शीमद भ ् ागवत' की यह कथा जग जािहर है।
- .... भागरय के कुअंकों
को िमटाने की शिकरत है मंतररजाप में। जो आदमी संसार से िगराया, हटाया और िधकरकारा
गया है, िजसका कोई सहारा नहीं है वह भी यिद भगवनरनाम का सहारा ले तो तीन महीने के
अंदर अदभुत चमतरकार होगा। जो दुतरकारने वाले और ठुकरानेवाले थे, आपके सामने
देिने की भी िजनकी इचरछा नहीं थी, वे आपसे सरनेह करेंगे और आपसे ऊँचे
अिधकारी भी आपसे सलाह लेकर कभी-कभी अपना काम बना लेंगे। धरयानयोग ििवरमें
लोग ऐसे कई अनुभव सुनाते हैं।
गीता में शररीकृिरण कहते हैं-

।।
कमोररं को समरपनरन करने की शिकरत है मंतररजाप में।
आने वाले िवघरन को हटाने का मंतरर जपकर कोई कमरर करें तो कमरर सफलतापूवररक समरपनरन
हो जाता है।
कई रामायण की कथा करने वाले, भागवत की कथा करने वाले पररिसदरध वकरता तथा
कथाकार जब कथा का समय देते हैं तो पंचांग देिते हैं िक यह समय कथा के िलए
उपयुकरत है, यह मंडप का मुहूतरर है, यह कथा की पूणाररहूित का समय है... मेरे जीवन में,
मैं आपको करया बताऊँ? मैं 30 विरर से सतरसंग कर रहा हूँ, मैंने आज तक कोई पंचांग
नहीं देिा। भगवनरनाम-जप कर गोता मारता हूँ और तारीि देता हूँ तो सतरसंग उतरतम होता
है। कभी कोई िवघरन नहीं हुआ। केवल एक बार अचानक िकसी िनिमतरत के कारण कायररकररम
सरथिगत करना पड़ा। बाद में दूसरी ितिथ में वहाँ सतरसंग िदया। वह भी 30 विरर में एक-दो
बार। अनुकररम
जो एक वेद पि़ता है वह पुणरयातरमा माना जाता
है परंतु उसके सामने यिद िदरववेदी या ितररवेदी आ जाता है तो वह उठकर िड़ा हो जाता
है और यिद चतुवेररदी आ जाये तो ितररवेदी भी उसके आगे नतमसरतक हो जाता है, करयोंिक
वह चार वेद का जरञाता है। परंतु जो गुरुमंतरर जपता है उसे चार वेद पि़ने का और सवरर
तीथोररं का फल िमल जाता है। सभी वेदों का पाठ करो, तीथोररं की यातररा करो तो जो फल होता
है, उसकी अपेकरिा गुरुमंतरर जपें तो उससे भी अिधक फल देने की िकरत मंतरर भगवान
में है।
िजस-िजस िविय में आपको लगना हो भगवनरनाम-जप
करके उस-उस िविय में लगो तो उस-उस िविय में आपकी गित-मित को अंतरातरमा पररेरणा
पररदान करेगा और आपको उसके रहसरय एवं सफलता िमलेगी।
हम िकसी िवदरयालय-महािवदरयालय अथवा संत या कथाकार के पास सतरसंग करना
सीिने नहीं गये। बस, गुरुजी ने कहाः 'सतरसंग िकया करो।' हालाँिक गुरज ु ी के पास बैठकर
भी हम सतरसंग करना नहीं सीिे। हम तो डीसा में रहते थे और गुरुजी नैनीताल में रहते
थे। िफर गुरुआजरञा में बोलने लगे तो आज करोड़ों लोग रोज सुनते हैं। िकतने करोड़
सुनते हैं, वह हमें भी पता नहीं है।
जप करोगे तो वैिरी से मधरयमा, मधरयमा से प शर यंित
और प शर यंित से परा में जाओगे तो आपके हृदय में जो आनंद होगा , आप उस आनंद में
गोता मारकर देिोगे तो जगत में आनंद छाने लगेगा। उसे गोता मारकर बोलोगे तो लोग
आनंिदत होने लगेंगे और आपके रीर से भी आनंद के परमाणु िनकलेंगे।
कोई गरीब-से-गरीब है, कंगाल-से-कंगाल है, िफर भी
मंतररजाप करे तो जगदान करने के फल को पाता है। उसकी जगदानदाियनी िकरत पररकट
होती है।
उस गित की हम कलरपना नहीं कर सकते िक हम इतने ऊँचे
हो सकते हैं। हमने घर छोड़ा और गुरु की रण में गये तो हम कलरपना नहीं कर सकते
थे िक ऐसा अनुभव होता होगा ! हमने सोचा था िक 'हमारे इिरटदेव हैं िवजी।गुरु की शरण
जायें तो वे िवजीके दररशन क रा दें , िशवजी से बात करा दे। ऐसा करकेिमने 40 िदना का
अनुिरठान िकया और कुछ चमतरकार होने लगे। हम िविधपूवररक मंतरर जपते थे। िफर अंदर
से आवाज आतीः 'तुम लीलाशाह जी बापू के पास जाओ। मैं वहाँ सब रूपों में तुमरहें
िमलूँगा।'
हम पूछतेः "कौन बोल रहा है?"
तो उतरतर आताः "िजसका तुम जप कर रहे हो, वही बोल रहा है।"
मंिदर में जाते तो माँ पावररती के िसर पर से फूर िगर पड़ता, िशवजी की मूितव पर से िूल
िगर पड़ता। यह शुभ माना जाता है। कुबेरे शर वर महादेव था नमररदा िकनारे। अनुिरठान के
िदनों में कुछ ऐसे चमतरकार होने लगते थे और अंदर से पररेरणा होती थी िक 'जाओ,
जाओ लीलाशाह बापू के पास जाओ।' अनुकररम
हम पहुँचे तो गुरु की कैसी-कैसी कृपा हुई... हम तो मानते थे िक इतना लाभ होगा...
जैसे, कोई आदमी 10 हजार का लाभ चाहे और उसे करोड़ों-अरबों रूपये की संपितरत िमल
जाय ! ऐसे िी िमन त े ो ि श व ज ी का स ा क ा र द श व नचािापरत े रगुरकृपानऐे
ं ुजपनऔ
िशवजी िै वि परबह-परमातरमा हमसे तिनक भी दूर नहीं है और हम उससे दूर नहीं। हम तो
कलरपना भी नहीं कर सकते थे िक इतना लाभ होगा।
जैसे, कोई वरयिकरत जाय करलकरर की नौकरी के िलए और उसे रािरटररपित बना िदया
जाये तो....? िकतना बड़ा आ शर चयरर , उससे भी बड़ा आ शर चयरर
हो है यह। उससे भी बड़ी
ऊँचाई िै अनुभव की।
मंतररजाप में भी है। कोई मर गया और उसकी अवगित हो रही
है और उसके कुटंबी भजनानंदी हैं अथवा उसके जो गुरु हैं, वे चाहें तो उसकी सदगित
कर सकते हैं। नामजपवाले में इतनी ताकत होती है िक नरक में जानेवाले जीव को
नरक से बचाकर सरवगरर में भेज सकते हैं !
सामीपरय मुिकरत, सारूपरय मुिकरत, सायुजरय मुिकरत, सालोकरय
मुिकरत – इन चारों मुिकरतयों में से िजतनी तुमरहारी यातररा है वह मुिकरत आपके िलए िास
आरिकरित हो जायेगी। सी िकरत है मंतररजाप में।
आप जप करते जाओ, भगवान के पररित पररीित बनेगी,
बनेगी और बनेगी। और जहाँ पररीित बनेगी, वहाँ मन लगेगा और जहाँ मन लगेगा वहाँ
आसानी से साधन होने लगेगा।
कई लोग कहते हैं िक धरयान में मन नहीं लगता। मन नहीं लगता है करयोंिक भगवान
में पररीित नहीं है। िफर भी जप करते जाओ तो पाप कटते जायेंगे और पररीित बि़ती
जायेगी।
हम ये इसिलए बता रहे हैं िक आप भी इसका लाभ उठाओ। जप को बि़ाओ तथा जप
गंभीरता, पररेम तथा गहराई से करो। अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
19
सारे शासरतरर-सरमृितयों का मूल है वेद। वेदों का मूल गायतररी है और गायतररी का
मूल है ओंकार। ओंकार से गायतररी, गायतररी से वैिदक जरञान, और उससे शासरतरर और
सामािजक पररवृितरतयों की िोज हुई।
पतंजिल महाराज ने कहा हैः
। परमातरमा का वाचक ओंकार है।
सब मंतररों में ॐ राजा है। ओंकार अनहद नाद है। यह सहज में सरफुिरत हो जाता
है। अकार, उकार, मकार और अधररतनरमातररायुकरत ॐ एक ऐसा अदभुत भगवनरनाम मंतरर है िक
इस पर कई वरयाियाएँ हुई। कई गररंथ िलिे गये। िफर भी इसकी मिहमा हमने िलिी ऐसा दावा
िकसी ने िकया। इस ओंकार के िविय में जरञाने र वरीगीता में जरञाने र वरमहाराज ने
कहा हैः

परमातरमा का ओंकारसरवरूप से अिभवादन करके जरञाने र वरमहाराज ने
जरञाने शर वरी गीता का पररारमरभ िकया।
धनरवंतरी महाराज िलिते हैं िक ॐ सबसे उतरकृिरट मंतरर है।
वेदवरयासजी महाराज कहते हैं िक । यह पररणव मंतरर सारे
मंतररों का सेतु है।
कोई मनुिरय िदशा शू नरय , लाचारी की हालत में फेंका गया हो, कुटुंिबयों ने
हो गया हो
मुि मोड़ िलया हो, िकसरमत रूठ गयी हो, सािथयों ने सताना शुरू कर िदया हो, पड़ोिसयों ने
पुचकार के बदले दुतरकारना शुरू कर िदया हो... चारों तरफ से वरयिकरत िद ा ू नरय, सहयोग शू ,नरय
धन शू ,नरसतर
य ता शू नरय हो गया हो िफर भी हताश न हो वरनर सुब-हशाम 3 घंटे ओंकार सिहत
भगवनरनाम का जप करे तो विरर के अंदर वह वरयिकरत भगवतर िकरत से सबके दरवारा
समरमािनत, सब िदशाओं में सफल और सब गुणों से समरपनरन होने लगेगा। इसिलए मनुिरय को
कभी भी लाचार, दीन-हीन और असहाय मानकर अपने को कोसना चािहए। भगवान तुमरहारे
आतरमा बनकर बैठे हैं और भगवान का नाम तुमरहें सहज में पररापरत हो सकता है िफर करयों
दुःिी होना?
रोज राितरर में तुम 10 िमनट ओंकार का जप करके सो जाओ। िफर देिो, इस मंतरर
भगवान की करया-करया करामात होती है? और िदनों की अपेकरिा वह रात कैसी जाती है और
सुबह कैसी जाती है? पहले ही िदन फकरर पड़ने लग जायेगा।
मंतरर के ऋिि, देवता, छंद, बीज और कीलक होते हैं। इस िविध को जानकर गुरुमंतरर
देने वाले सदगुरु िमल जायें और उसका पालन करने वाला सत ि ि र यिमलजायेतोकाम
बन जाता है। ओंकार मंतरर का छंद गायतररी है, इसके देवता परमातरमा सरवयं है और
मंतरर के ऋिि भी ई शर वर ही हैं।
भगवान की रकरिण शिकरत, गित शिकरत, कांित शिकरत, पररीित शिकरत, अवगम शिकरत, पररवेश
अवित शिकरत आिद 19 शिितया ओंकार मे िै। इसका आदर से शवण करन स े े म ं त जापककोबित
ु लाभिोताि
ऐसा संसकृत केजानकार पािणनी मुिन न ब े तायािै।
वे पहले महाबुदरधु थे, महामूिोररं में उनकी िगनती होती थी। 14 साल तक वे पहली
ककरिा से दूसरी में नहीं जा पाये थे। िफर उनरहोंने िवजीकी उपासना की, उनका धरयान
िकया तथा िवमंतरर जपा। िवजीके दररशन ि क ये व उनकी कृपा से संसरकृत वरयाकरण की रचना
की और अभी पािणनी मुनी का संसरकृत वरयाकरण पि़ाया जाता है। अनुकररम
मंतरर में 19 शिितया िै-
ॐ सिहत मंतरर का जप करते हैं तो वह हमारे जप तथा पुणरय की
रकरिा करता है। िकसी नामदान के िलए हुए साधक पर यिद कोई आपदा आनेवाली है, कोई
दुघररटना घटने वाली है तो मंतरर भगवान उस आपदा को ूली में से काँटा कर देते हैं।
साधक का बचाव कर देते हैं। सा बचाव तो एक नहीं, मेरे हजारों साधकों के जीवन में
चमतरकािरक िंग से महसूस होता है। अरे, गाड़ी उलट गयी, तीन गुलाटी िा गयी िकंतु बापू
जी ! हमको िरोंच तक नहीं आयी.... बापू जी ! हमारी नौकरी छूट गयी थी, ऐसा िो गया था, वैसा हो
गया था िकंतु बाद में उसी साहब ने हमको बुलाकर हमसे माफी माँगी और हमारी
पुनिनररयुिकरत कर दी। पदोनरनित भी कर दी... इस पररकार की न जाने कैसी-कैसी अनुभूितयाँ
लोगों को होती हैं। ये अनुभूितयाँ समथरर भगवान की सामथरयररता पररकट करती हैं।
िजस योग में, जरञान में, धरयान में आप िफसल गये थे, उदासीन
हो गये थे, िकंकतररवरयिवमूि़ हो गये थे उसमें मंतररदीकरिा लेने के बाद गित आने
लगती है। मंतररदीकरिा के बाद आपके अंदर गित िकरत कायरर में आपको मदद करने
लगती है।
मंतररजाप से जापक के कुकमोररं के संसरकार निरट होने लगते
हैं और उसका िचतरत उजरजवल होने लगता है। उसकी आभा उजरजवल होने लगती है, उसकी
मित-गित उजरजवल होने लगती है और उसके वरयवहार में उजरजवलता आने लगती है।
इसका मतलब ऐसा नहीं है िक आज मंतरर िलया और कल सब छूमंतर हो जायेगा...
धीरे-धीरे होगा। एक िदन में कोई सरनातक नहीं होता, एक िदन मे कोई एम.ए. नहीं पि़ लेता, ऐसे
ही एक िदन में सब छूमंतर नहीं हो जाता। मंतरर लेकर जरयों-जरयों आप शररदरधा से, एकागता
से और पिवतररता से जप करते जायेंगे तरयों-तरयों िवशेि लाभ होता जायेगा।
जरयों-जरयों आप मंतरर जपते जायेंगे तरयों-तरयों मंतरर के
देवता के पररित, मंतरर के ऋिि, मंतरर के सामथरयरर के पररित आपकी पररीित बि़ती जायेगी।
जरयों-जरयों आप मंतरर जपते जायेंगे तरयों-तरयों आपकी
अंतरातरमा में तृिपरत बि़ती जायेगी, संतोि बि़ता जायेगा। िजनरहोंने िनयम िलया है और
िजस िदन वे मंतरर नहीं जपते, उनका वह िदन कुछ ऐसा ही जाता है। िजस िदन वे मंतरर
जपते हैं, उस िदन उनरहें अचरछी तृिपरत और संतोि होता है।
िजनको गुरुमंतरर िसदरध हो गया है उनकी वाणी में सामथरयरर आ जाता है। नेता भािण
करता है त लोग इतने तृपरत नहीं होते, िकंतु िजनका गुरुमंतरर िसदरध हो गया है से
महापुरुि बोलते हैं तो लोग बड़े तृपरत हो जाते हैं और महापुरुि के ििरय बन जाते
हैं। अनुकररम
मंतररजाप से दूसरों के मनोभावों को जानने की िकरत िवकिसत
हो जाती है। दूसरे के मनोभावों को आप अंतयाररमी बनकर जान सकते हो। कोई वरयिकरत कौन
सा भाव लेकर आया है? दो साल पहले उसका करया हुआ था या अभी उसका करया हुआ है? उसकी
तबीयत कैसी है? लोगों को आ शर चयरर होगा िकंतु आप तुरंत बोल दोगे िक'आपको छाती में
जरा ददरर है... आपको राितरर में ऐसा सरवपरन आता है....' कोई कहे िक 'महाराज ! आप तो
अंतयाररमी हैं।' वासरतव में यह भगवतरशिकरत के िवकास की बात है।
अथाररतर सबके अंतरतम की चेतना के साथ एकाकार होने की
शिित। अंतःकरण केसवव भावो को तथा पूववजीवन केभावो को और भिवषय की याता केभावो को जानन क े ीशिितकई
योिगयों में होती है। वे कभी-कभार मौज में आ जायें तो बता सकते हैं िक आपकी यह
गित थी, आप यहाँ थे, फलाने जनरम में ऐसे थे, अभी ऐसे हैं। जैसे दीघररतपा के पुतरर
पावन को माता-िपता की मृतरयु पर उनके िलए शोक करते देिकर उसके बड़े भाई पुणरयक ने
उसे उसके पूवररजनरमों के बारे में बताया था। यह कथा योगवा ि ि र ठमहारामायणमेंआ
है।
मंतररजाप के पररभाव से जापक सूकरिरमतम, गुपरततम शबरदों का
शोता बन जाता िै। जैसे, शुकदेवजी मिाराज न ज े ब प र ी ि ि त क े िलएसतसंगशुरिकयातोद
उन देवताओं से बात की। माँ आनंदमयी का भी देवलोक के साथ सीधा समरबनरध था। और भी
कई संतो का होता है। दूर देश से भकरत पुकारता है िक गुरुजी ! मेरी रकरिा करो... तो गुरुदेव
तक उसकी पुकार पहुँच जाती है !
अथाररतर िनयामक और शासन का सामथरयरर। िनयामक और शासक
शिित का सामथयव िवकिसत करता िै िणव का जाप।
अथाररतर याचना की लकरिरयपूितरर का सामथरयरर देनेवाला मंतरर।
अथाररतर िनरनरतर िकररयारत रहने की करिमता, िकररयारत
रहनेवाली चेतना का िवकास।
अथाररतर वह ॐ सरवरूप परबररहरम परमातरमा सरवयं तो िनिरकाम है
िकंतु उसका जप करने वाले में सामने वाले वरयिकरत का मनोरथ पूरा करने का सामथरयरर आ
जाता है। इसीिलए संतों के चरणों में लोग मतरथा टेकते हैं, कतार लगाते हैं, पररसाद
धरते हैं, आशीवाररद माँगते हैं आिद आिद। इिचरछत अविनरत शिकरत अथाररतर िनिरकाम
परमातरमा सरवयं शुभेचरछा का पररकाशक बन जाता है।
अथाररतर ओंकार जपने वाले के हृदय में जरञान का पररका बि़
जायेगा। उसकी दीिपरत िकरत िवकिसत हो जायेगी।
अणु-अणु में जो चेतना वरयाप रही है उस चैतनरयसरवरूप
बररहरम के साथ आपकी एकाकारता हो जायेगी।
अथाररतर अपनापन िवकिसत करने की शिकरत। ओंकार के जप
से पराये भी अपने होने लगेंगे तो अपनों की तो बात ही करया? िजनके पास जप-तप की
कमाई नहीं है उनको तो घरवाले भी अपना नहीं मानते, िकंतु िजनके पास ओंकार के जप
की कमाई है उनको घरवाले, समाजवाले, गाँववाले, नगरवाले, राजरय वाले, रािरटररवाले
तो करया िव शर ववाले भी अपना मानकर आनंद लेने से इनकार नहीं करते।अनुकररम
ओंकार का जप करने वाला िहंसक बन जायेगा? हाँ, िहँसक बन
जायेगा िकंतु कैसा िहंसक बनेगा? दुिरट िवचारों का दमन करने वाला बन जायेगा और
दुिरटवृितरत के लोगों के दबाव में नहीं आयेगा। अथाररतर उसके अनरदर अजरञान को और दुिरट
सरकारों को मार भगाने का पररभाव िवकिसत हो जायेगा।
अथाररतर वह पुििरट और वृिदरध का दाता बन जायेगा। िफर वह
माँगनेवाला नहीं रहेगा, देने की शिकरतवाला बन जायेगा। िफर वह माँगने वाला नहीं
रहेगा, देने की शिकरतवाला बन जायेगा। वह देवी-देवता से, भगवान से माँगेगा नहीं,
सरवयं देने लगेगा।
िनबररंधदास नामक एक संत थे। वे ओंकार का जप करते-करते धरयान करते थे,
अकेले रहते थे। वे सुबह बाहर िनकलते लेिकन चुप रहते। उनके पास लोग अपना
मनोरथ पूणरर कराने के िलए याचक बनकर आते और हाथ जोड़कर कतार में बैठ जाते।
चकरकर मारते-मारते वे संत िकसी को थपरपड़ मारे देते। वह िु हो जाता, उसका काम बन
जाता। बेरोजगार को नौकरी िमल जाती, िनःसंतान को संतान िमल जाती, बीमार की बीमारी
चली जाती। लोग गाल तैयार रिते थे। परंतु सा भागरय कहाँ िक सबके गाल पर थपरपड़
पड़े? मैंने उन महाराज के दररशन तो नहीं िकये हैं िकंतु जो लोग उनके दररशन करके
आये और उनसे लाभािनरवत होकर आये उन लोगों की बातें मैंने सुनीं।
पररलयकाल सरथूल जगत को अपने में लीन करता है, ऐसे िी तमाम दःुखो
को, िचंताओं को, भयों को अपने में लीन करने का सामथरयरर होता है पररणव का जप करने
वालों में। जैसे दिरया में सब लीन हो जाता है, ऐसे िी उसकेिचत मे सब लीन िो जायेगा और वि
अपनी ही लहरों में फहराता रहेगा, मसरत रहेगा... नहीं तो एक-दो दुकान, एक-दो कारिाने
वाले को भी कभी-कभी िचंता में चूर होना पड़ता है। िकंतु इस पररकार की साधना िजसने की
है उसकी एक दुकान या कारिाना तो करया, एक आशम या सिमित तो िया, 1100, 1200 या 1500 ही करयों
न हों, सब उतरतम पररकार से चलती हैं ! उसके िलए तो िनतरय नवीन रस, िनतरय नवीन आनंद,
िनतरय नवीन मौज रहती है।
, ।
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शादी अथात् खुशी ! वह ऐसा मसरत फकीर बन जायेगा।
अथाररतर पररकृितवधररक, संरकरिक शिकरत। ओंकार का जप करने
वाले में पररकृितवधररक और सरंकरिक सामथरयरर आ जाता है। अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

राितरर का समय था। महातरमा शरयामदास 'शीराम' नाम का अजपाजाप करते हुए अपनी
मसरती में चले जा रहे थे। इस समय वे एक गहन जंगल से गुजर रहे थे। िवरकरत होने
के कारण वे महातरमा देशाटन करते रहते थे। वे िकसी एक सरथान में नहीं रहते थे। वे
नामपररेमी थे। रात िदन उनके मुि से नाम जप चलता रहता था। सरवयं अजपाजाप करते
तथा औरों को भी उसी मागरर पर चलाते। वे मागरर भूल गये थे पर चले जा रहे थे िक जहाँ
राम ले चले वहाँ....श । दूर अँधेरे में बहुत सी दीपमालाएँ पररका ि त थ ीं।महातरमाजीउसी
िदशा की ओर चलने लगे।
िनकट पहुँचते ही देिा िक वटवृकरि के पास अनेक पररकार के वादरय बज रहे हैं,
नाच गान और शराब की महिफल जमी है।
कई सरतररी पुरुि साथ में नाचते-कूदते-हँसते तथा औरों को हँसा रहे हैं। उनको
महसूस हुआ िक वे मनुिरय नहीं पररेतातरमा हैं।
शयामदासजी को देखकर एक िेत न उ े न "ओ मनुिरय ! हमारे राजा तुझे
कािाथपकडकरकिाः
बुलाते हैं, चल। " वे मसरतभाव से राजा के पास गये जो िसंहासन पर बैठा था। वहाँ राजा
के इदरर-िगदरर कुछ पररेत िड़े थे। पररेतराज ने कहाः "इस ओर करयों आये? हमारी मंडली
आज मदमसरत हुई है, इस बात का िवचार नहीं िकया? तुमरहें मौत का डर नहीं है?"
अटरटहास करते हुए महातरमा शरयामदास बोलेः "मौत का डर? और मुझे? राजनर ! िजसे
जीने का मोह हो उसे मौत का डर होता है। हम साधु लोग तो मौत को आनंद का िविय मानते
हैं। यह तो देहपिरवतररन है जो पररारबरधकमरर के िबना िकसी से हो नहीं सकता।"
पररेतराजः "तुम जानते हो हम कौन हैं?"
महातरमाजीः "मैं अनुमान करता हूँ िक आप पररेतातरमा हो।"
पररेतराजः "तुम जानते हो, मानव समाज हमारे नाम से काँपता है।"
महातरमाजीः "पररेतराज ! मुझे मनुिरय में िगनने की गलती मत करना। हम िजंदा
िदिते हुए बई िजजीिविा (जीने की इचरछा) से रिहत, मृततुलरय हैं। यिद िजंदा मानों तो भी
आप हमें मार नहीं सकते। जीवन-मरण कमाररधीन है। एक परर शर न पूछ सकता हू?"

महातरमा की िनभररयता देिकर पररेतों के राजा को आ र चयररहुआ िक पररेत का नाम
सुनते ही मर जाने वाले मनुिरयों में एक इतनी िनभररयता से बात कर रहा है। सचमुच, ऐसे
मनुिरय से बात करने में कोई हरकत नहीं। वह बोलाः "पूछो, करया परर शर न ह?"

महातरमाजीः "पररेतराज ! आज यहाँ आनंदोतरसव करयों मनाया जा रहा है?
पररेतराजः "मेरी इकलौती कनरया, योगरय पित न िमलने के कारण अब तक कुआँरी है।
लेिकन अब योगरय जमाई िमलने की संभावना है। कल उसकी ादी है इसिलए यह उतरसव
मनाया जा रहा है।"
महातरमा ने हँसते हुए कहाः "तुमरहारा जमाई कहाँ है? मैं उसे देिना चाहता हूँ।"
अनुकररम
पररेतराजः "िजजीिविा के मोह के तरयाग करने वाले महातरमा ! अभी तो वह हमारे
पद (पररेतयोनी) को पररापरत नहीं हुआ है। वह इस जंगल के िकनारे एक गाँव के
शीमंत (धनवान) का पुतरर है। महादुराचारी होने के कारण वह भयानक रोग से पीिड़त है। कल
संधरया के पहले उसकी मौत होगी। िफर उसकी ादी मेरी कनरया से होगी। रात भर गीत-नृतरय
और मदरयपान करके हम आनंदोतरसव मनायेंगे।"
'शीराम' नाम का अजपाजाप करते हुए महातरमा जंगल के िकनारे के गाँव में पहुँचे।
सुबह हो चुकी थी।
एक गामीण से उििोन पेूछाः"इस गाँव में कोई शररीमानर का बेटा बीमार है?"
गररामीणः "हाँ, महाराज ! नवलशा सेठ का बेटा सांकलचंद एक विरर से रोगगररसरत
है। बहुत उपचार िकये पर ठीक नहीं होता।"
महातरमाः "करया वे जैन धमरर पालते हैं?"
गररामीणः "उनके पूवररज जैन थे िकंतु भािटया के साथ वरयापार करते हुए अब वे
वैिरणव हुए हैं।"
सांकलचंद की हालत गंभीर थी। अिनरतम घिड़याँ थीं िफर भी महातरमा को देिकर
माता-िपता को आशा की िकरण िदिी। उनरहोंने महातरमा का सरवागत िकया। सेठपुतरर के पलंग
के िनकट आकर महातरमा रामनाम की माला जपने लगे। दोपहर होते-होते लोगों का आना-
जाना बि़ने लगा। महातरमा ने पूछाः "करयों, सांकलचंद ! अब तो ठीक हो?"
उसने आँिें िोलते ही अपने सामने एक पररतापी संत को देिा तो रो पड़ा। बोलाः
"बापजी ! आप मेरा अंत सुधारने के िलए पधारे हो। मैंने बहुत पाप िकये हैं। भगवान
के दरबार में करया मुँह िदिाऊँगा? िफर भी आप जैसे संत के दरर न हुए हैं, यह मेरे
िलए शुभ संकेत हैं।" इतना बोलते ही उसकी साँस फूलने लगी, वह िाँसने लगा।
"बेटा ! िनराश न भगवान राम पितत पावन है। तेरी यह अिनरतम घड़ी है। अब काल से
डरने का कोई कारण नहीं। िूब ांित से िचतरतवृितरत के तमाम वेग को रोककर 'शीराम' नाम के
जप में मन को लगा दे। अजपाजाप में लग जा। शासरतरर कहते हैं-

।।
"सौ करोड़ शबरदों में भगवान राम के गुण गाये गये हैं। उसका एक-एक अिर बहितया
आिद महापापों का नाश करने में समथरर है।''
िदन िलते ही सांकलचंद की बीमारी बि़ने लगी। वैदरय-हकीम बुलाये गये। हीरा
भसरम आिद कीमती औििधयाँ दी गयीं। िकंतु अंितम समय आ गया यह जानकर महातरमाजी ने
थोड़ा नीचे झुककर उसके कान में रामनाम लेने की याद िदलायी। 'राम' बोलते ही उसके
परराण पिेरू उड़ गये। लोगों ने रोना ुरु कर िदया। रम ान यातररा की तैयािरयाँ होने
लगीं। मौका पाकर महातरमाजी वहाँ से चल िदये। नदी तट पर आकर सरनान करके नामसरमरण
करते हुए वहाँ से रवाना हुए। शाम िल चुकी थी। िफर वे मधरयराितरर के समय जंगल में
उसी वटवृकरि के पास पहुँचे। पररेत समाज उपिसरथत था। पररेतराज िसंहासन पर हताश होकर
बैठे थे। आज गीत, नृतरय, हासरय कुछ न था। चारों ओर करुण आकररंद हो रहा था, सब पररेत रो
रहे थे। हासरय कुछ न था। चारों ओर करुण आकररंद हो रहा था, सब पररेत रो रहे थे।
महातरमा ने पूछाः "पररेतराज ! कल तो यहाँ आनंदोतरसव था, आज शोक-समुदरर लहरा
रहा है। करया कुछ अिहत हुआ है?"
पररेतराजः "हाँ भाई ! इसीिलए हो रहे हैं। हमारा सतरयानाश हो गया। मेरी बेटी की
आज शादी होने वाली थी। अब वह कुँआरी रह जायेगी।"
महातरमा ने पूछाः "पररेतराज ! तुमरहारा जमाई तो आज मर गया है। िफर तुमरहारी बेटी
कुँआरी करयों रही?"
पररेतराज ने िचि़कर कहाः "तेरे पाप से। मैं ही मूिरर हूँ िक मैंने कल तुझे सब
बता िदया। तूने हमारा सतरयाना कर िदया।"
महातरमा ने नमररभाव से कहाः "मैंने आपका अिहत िकया यह मुझे समझ में नहीं
आता। करिमा करना, मुझे मेरी भूल बताओगे तो मैं दुबारा नहीं करूँगा।"
पररेतराज ने जलते हृदय से कहाः "यहाँ से जाकर तूने मरने वाले को नाम सरमरण
का मागरर बताया और अंत समय भी नाम कहलवाया। इससे उसका उदरधार हो गया और मेरी
बेटी कुँआरी रह गयी।"
महातरमाजीः "करया? िसफरर एक बार नाम जप लेने से वह पररेतयोिन से छूट गया? आप
सच कहते हो?"
पररेतराजः "हाँ भाई ! जो मनुिरय नामजप करता है वह नामजप के पररताप से कभी
हमारी योिन को पररापरत नहीं होता।"
पररिसदरध ही है िक भगवनरनाम जप में ' ' । पररेत के दरवारा
रामनाम का यह पररताप सुनकर महातरमाजी पररेमा ररु बहाते हुए भाव समािध में लीन हो गये।
उनकी आँिे िुलीं तब वहाँ पररेत-समाज नहीं था, बाल सूयरर की सुनहरी िकरणें वटवृकरि को
शोभायमान कर रिी थी। अनुकररम
धनभागी हैं वे लोग जो ' ! ।' इस उिकरत के अनुसार
िकसी आतरमवेतरता संत को िोज लेते हैं! गुरुसेवा व गुरुमंतरर का धन इकटरठा करते हैं,
िजसको सरकार व मौत का बाप भी नहीं छीन सकता। आप भी वहीं धन पायें। आपको कथा िमली
या रासरता?' हम तो चाहते हैं िक आपको दोनों िमलें। कथा तो िमल गयी रासरता भी िमले। कई
पुणरयातरमाओं को िमला है।
, ।
, ।।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
( )
परमातरमा अचल, िनिवररकार, अपिरवतररनशील और एकरस हैं। पररकृित में गित, िवकार,
िनरंतर पिरवतररन है। मानव उस परमातरमा से अपनी एकता जानकर पररकृित से पार हो जाये
इसिलए परमातरम-सरवरूप के अनुरूप अपने जीवन में दृििरट व िसरथित लाने का पररयास करना
होगा। पररकृित के िवकारों से अपररभािवत रहने की िसरथित उपलबरध करनी होगी। इस मूल
िसदरधानरत को दृििरट में रिकर एक पररभावी पररयोग बता रहे हैं िजसे 'बाहरय धारणा' कहा
जाता है। इसमें िकसी बाहरी लकरिरय पर अपनी दृििरट को एकागरर िकया जाता है। इस साधना
के िलए भगवान की मूितरर, गुरुमूितरर, ॐ या सरवािसरतक आिद उपयोगी हैं। रीर व नेतरर को
िसरथर और मन को िनःसंकलरप रिने का पररयास करना चािहए।
इससे िसरथरता, एकागता व समरणशिित का िवकास िोता िै। लौिकक कायों मे सिलता िापत िोती िै,
दृििरट पररभावशाली बनती है, सतरयसुि की भावना, शोध तथा सजगता सुलभ िो जाती िै। आँखो मे पानी
आना, अनेकानेक दृ शर य िदिना ये इसके पररारंिभक लकरिण है। उनकी ओर धरयान न देकर
लकरिरय की ओर एकटक देिते रहना चािहए। आँि बनरद करने पर भी लकरिरय सरपिरट िदिने
लगे और िुले नेतररों से भी उसको जहाँ देिना चाहे, तुरंत देि सके – यही तरराटक की
समरयकता का संकेत है।
कृपया इस िविय अिधक जानकारी के िलए देिें – आशश ररम से पररका ित
पुसरतक पंचामृत (पृिरठ 345), शीघ ईशर िािपत, परम तप। अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
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कौंिडणरयपुर में शशांगर नाम के राजा राजरय करते थे। वे पररजापालक थे। उनकी
रानी मंदािकनी भी पितवररता, धमररपरायण थी। िकंतु संतान न होने के कारण दोनों दुःिी
रहते थे। उनरहोंने सेतुबंध रामे र वरजाकर संतान पररािपरत के िलए िवजीकी पूज, ातपसरया
करने का िवचार िकया। पतरनी को लेकर राजा रामे र वरकी ओर चल पड़े। मागरर में
कृिरणा-तुंगभदररा नदी के संगम-सरथल पर दोनों ने सरनान िकया और वहीं िनवास करते हुए वे
िशवजी की आराधना करन ल े ग े । ए क ि द न स न ा न क रकेदोनोलौटरिेथेिकअचानककर
करके दोनों लौट रहे थे िक अचानक राजा को िमितरर सरोवर में एक िविलंगिदिाई पड़ा।
उनरहोंने वह िविलंगउठा िलया और अतरयंत शररदरधा से उसकी परराण -पररितिरठा की। राजा
रानी
श िवजीकी पूज-ाअचररना करने लगे। संगम में सरनान करके इस 'संगमे शर वर महादेव '
की पूजा करना उनका िनतरयकररम बन गया।
एक िदन कृषणा नदी मे सनान करकेराजा शशागर सूयव को अघयव देन क े े , तभीजललेरिेथे
ि ल ए अ ं जिलमे
उनरहें एक ि ुशिम ला। राजा ने सोचा िक 'जरूर मेरे िवजीकी कृपा से ही मुझे इस ि श ु की
पररािपरत हुई है !' वे अतरयंत हििररत हुए और अपनी पतरनी मंदािकनी के पास जाकर उसको सब
वृतरतांत सुनाया।
वह बालक गोद में रिते ही मंदािकनी के सरतनों से दूध की धारा बहने लगी। रानी
मंदािकनी बालक को सरतनपान कराने लगी। धीरे-धीरे बालक बड़ा होने लगा। वह बालक
कृिरणा नदी के संगम-सरथान पर पररापरत होने के कारण उसका नाम 'कृिरणागर' रिा गया।
राजा-रानी कृिरणागर को लेकर अपनी राजधानी कौंिडणरयुपर में लौट आये। ऐसे दैवी
बालक को देिने के िलए सभी राजरय-िनवासी राजभवन में आये। बड़े उतरसाह के साथ
समारोहपूवररक उतरसव मनाया गया।
जब कृिरणागर 17 विरर का युवक हुआ तब राजा ने अपने मंितररयों को कृिरणागर के िलए
उतरतम वधू िूँिने की आजरञा दी। परंतु कृिरणागर के योगरय वधू उनरहें कहीं भी न िमली।
उसके बाद कुछ ही िदनों में रानी मंदािकनी की मृतरयु हो गयी। अपनी िपररय रानी के मर जाने
का राजा को बहुत दुःि हुआ। उनरहोंने विररभर ररादरधािद सभी उतरतर-कायरर पूरे िकये और
अपनी मदन-पीड़ा के कारण िचतररकूट के राजा भुजधरवज की नवयौवना कनरया भुजावंती के
साथ दूसरा िववाह िकया। उस समय भुजावंती की उमरर 13 विरर की थी और कृिरणागर (राजा
शशागर का पुत) की उमरर 17 विरर।
एक िदन राजा िशकार खेलन र े ा ज ध ा न ी से बा ि र गयेिएुथे।कृषणागरमिलकेि
रहा था। उसका शरीर अतरयंत सुंदर व आकिररक होने के कारण भुजावंती उस पर आसकरत हो
गयी। उसने एक दासी के दरवारा कृिरणागर को अपने पास बुलवाया और उसका हाथ पकड़कर
कामेचरछापूितरर की माँग की। तब कृिरणागर न कहाः "हे माते ! मैं तो आपका पुतरर हूँ और
आप मेरी माता हैं। अतः आपको यह ोभा नहीं देता। माता होकर भी पुतरर से सा
पापकमरर करवाना चाहती हो !'
ं ी को अपन प
ऐसा किकर गुससे से कृषणागर विा से चला गया। भुजावत े ा प क े गा।राजा
मवपरपशातापिोनल
को इस बात का पता चल जायेगा, इस भय के कारण वह आतरमहतरया करने के िलए पररेिरत
हुई। परंतु उसकी दासी ने उसे समझायाः 'राजा के आने के बाद तुम ही कृिरणागर के ििलाफ
बोलना शुरु कर दो िक उसने मेरा सतीतरव लूटने की को श ि की। यहाँ मेरे सतीतरव की रकरिा
नहीं हो सकती। कृिरणागर बुरी िनयत का है, ऐसा.... वैसा..... अब आपको जो करना है सो करो,
मेरी तो जीने की इचरछा नहीं।'
राजा के आने के बाद रानी ने सब वृतरतानरत इसी पररकार राजा को बताया। राजा ने
कृिरणागर की ऐसी हरकत सुनकर कररोध के आवेश में अपने मंितररयों को उसके हाथ-पैर
तोड़ने की आजरञा दे दी। अनुकररम
आजरञानुसार वे कृिरणागर को शरमशान में ले गये। परंतु राजसेवकों को लगा िक
राजा ने आवेश में आकर आजरञा दी है। कहीं अनथरर न हो जाय ! इसिलए कुछ सेवक पुनः
राजा के पास आये। राजा का मन पिरवतररन करने की अिभलािा से वापस आये हुए कुछ
राजसेवक और अनरय नगर िनवासी अपनी आजरञा वापस लेने के राजा से अनुनय-िवनय
करने लगे। परंतु राजा का आवे ांत नहीं हुआ और िफर से वही आजरञा दी।
िफर राजसेवक कृिरणागर को शरमशान में चौराहे पर ले आये। सोने के चौरंग
(चौकी) पर िबठाया और उसके हाथ पैर बाँध िदये। यह दृ र यदेिकर नगरवािसयों की
आँिों मे दयावश आँसू बह रहे थे। आििर सेवकों ने आजरञाधीन होकर कृिरणागर के हाथ-
पैर तोड़ िदये। कृिरणागर वहीं चौराहे पर पड़ा रहा। कुछ समय बाद दैवयोग से नाथ पंथ
के योगी मछेंदररनाथ अपने ििरय गोरिनाथ के साथ उसी राजरय में आये। वहाँ लोगों के
दरवारा कृिरणागर के िविय में चचारर सुनी। परंतु धरयान करके उनरहोंने वासरतिवक रहसरय का
पता लगाया। दोनों ने कृिरणागर को चौरंग पर देिा, इसिलए उसका नाम 'चौरंगीनाथ' रिा।
िफर राजा से सरवीकृित लेकर चौरंगीनाथ को गोद में उठा िलया और बदिरकाशररम गये।
मछेनरदररनाथ ने गोरिनाथ से कहाः "तुम चौरंगी को नाथ पंथ की दीकरिा दो और सवरर
िवदरयाओं में इसे पारंगत करके इसके दरवारा राजा को योग सामथरयरर िदिाकर रानी को दंड
िदलवाओ।"
गोरिनाथ ने कहाः "पहले मैं चौरंगी का तप सामथरयरर देिूँगा।" गोरिनाथ के इस
िवचार को मछेंदररनाथ ने सरवीकृित दी।
चौरंगीनाथ को पवररत की गुफा में िबठाकर गोरिनाथ ने कहाः 'तुमरहारे मसरतक के
ऊपर जो िशला िै, उस पर दृििरट िटकाये रिना और मैं जो मंतरर देता हूँ उसी का जप चालू
रिना।
श अगर दृििरट वहाँ से हटी तो िलातुम पर िगर जायेगी और तुमरहारी मृतरयु हो जायेगी।
इसिलए
श िलापर ही दृििरट रिो।' ऐसा किकर गोरखनाथ न उ े स े म ं त ो प देशिदयाऔरगुिाकादारइ
बंद िकया िक अंदर कोई वनरय प ु पररवे न करे। िफर अपने योगबल से चामुणरडा देवी को
पररकट करके आजरञा दी िक इसके िलए रोज फल लाकर रिना तािक यह उनरहें िाकर जीिवत
रहे।
उसके बाद दोनों तीथररयातररा के िलए चले गये। चौरंगीनाथ िलािगरने के भय से
उसी पर दृििरट जमाये बैठे थे। फल की ओर तो कभी देिा ही नहीं वायु भकरिण करके बैठे
रहते। इस पररकार की योगसाधना से उनका रीर कृ हो गया। अनुकररम
मछेंदररनाथ और गोरिनाथ तीथाररटन करते हुए जब पररयाग पहुँचे तो वहाँ उनरहें
एक िशवमंिदर केपास राजा ितिवकम का अंितम संसकार िोते िएु िदखाई पडा। नगरवािसयो को अतयत
ं दःुखी देखकर
गोरिनाथ को अतरयंत दयाभाव उमड़ आया और उनरहोंने मछेनरदररनाथ से परराथररना की िक
राजा को पुनः जीिवत करें। परंतु राजा बररहरमसरवरूप में लीन हुए थे इसिलए मछेनरदररनाथ
ने राजा को जीिवत करने की सरवीकृित नहीं दी। परंतु गोरिनाथ ने कहाः "मैं राजा को
जीिवत करके पररजा को सुिी करूँगा। अगर मैं सा नहीं कर पाया तो सरवयं देह तरयाग
दूँगा।"
पररथम गोरिनाथ ने धरयान के दरवारा राजा का जीवनकाल देिा तो सचमुच वह बररहरम
में लीन हो चुका था। िफर गुरद ु ेव को िदए हुए वचन की पूितरर के िलए गोरिनाथ परराणतरयाग
करने के िलए तैयार हुए। तब गुरु मछेंदररनाथ ने कहाः ''राजा की आतरमा बररहरम में लीन
हुई है तो मैं इसके शरीर में पररवेश करके 12 विरर तक रहूँगा। बाद में मैं लोक कलरयाण
के िलए मैं मेरे शरीर में पुनः पररवेश करूँगा। तब तक तू मेरा यह शरीर सँभाल कर
रिना।"
मछेंदररनाथ ने तुरंत देहतरयाग करके राजा के मृत रीर में पररवे िकया। राजा
उठकर बैठ गया। यह आ शर चयरर देिकर सभी जनता हििररत हुई। िफर पररजा ने अिगरन को शांत
करने के िलए राजा का सोने का पुतला बनाकर अंतरयसंसरकार-िविध की।
गोरिनाथ
श की भेंट िवमंिदरकी पुजािरन से हुई। उनरहोंने उसे सब वृतरतानरत सुनाया
और गुरुदेव का शरीर 12 विरर तक सुरिकरित रिने का योगरय सरथान पूछा। तब पुजािरन ने
िशवमंिदर की गुिा िदखायी। गोरखनाथ न ग े ु र व रक े शर ी र क ोगुिामेरखा।ििरवेराजासेआजाल
तीथररयातररा के िलए िनकल पड़े।
12 विरर बाद गोरिनाथ पुनः बदिरका ररम पहुँचे। वहाँ चौरंगीनाथ की गुफा में पररवे
िकया। देिा िक एकागररता, गुरुमंतरर का जप तथा तपसरया के पररभाव से चौरंगीनाथ के कटे
हाथ-पैर पुनः िनकल आये हैं। यह देिकर गोरिनाथ अतरयंत पररसनरन हुए। िफर चौरंगीनाथ
को सभी िवदरयाएँ िसिाकर तीथररयातररा करने साथ में ले गये। चलते-चलते वे
कौंिडणरयपुर पहुँचे। वहाँ राजा शशांगर के बाग में रुक गये। गोरिनाथ ने चौरंगीनाथ तो
आजरञा दी िक राजा के सामने अपनी िकरत पररद ि ररतकरे।
चौरंगीनाथ ने वातासरतरर मंतरर से अिभमंितररत भसरम का पररयोग करके राजा के बाग
में जोरों की आँधी चला दी। वृकरिािद टूट-टूटकर िगरने लगे, माली लोग ऊपर उठकर धरती
पर िगरने लगे। इस आँधी का पररभाव केवल बाग में ही िदिायी दे रहा था इसिलए लोगों
ने राजा के पास समाचार पहुँचाया। राजा हाथी-घोड़े, लशकर आिद के साथ बाग में
पहुँचे। चौरंगीनाथ ने वातासरतरर के दरवारा राजा का समरपूणरर लशकर आिद आकाश में उठाकर
िफर नीचे पटकना शुरु िकया। कुछ नगरवािसयों ने चौरंगीनाथ को अनुनय-िवनय िकया तब
उसने पवररतासरतरर का पररयोग करके राजा को उसके ल कर सिहत पवररत पर पहुँचा िदया और
पवररत को आकाश में उठाकर धरती पर पटक िदया।
िफर गोरिनाथ ने चौरंगीनाथ को आजरञा दी िक वह अपने िपता का चरणसरपरर करे।
चौरंगीनाथ राजा का चरणसरपरर करने लगे िकंतु राजा ने उनरहें नहीं पहचाना। तब
गोरिनाथ ने बतायाः "तुमने िजसके हाथ-पैर कटवाकर चौराहे पर डलवा िदया था, यह वही
तुमरहारा पुतरर कृिरणागर अब योगी चौरंगीनाथ बना है।" अनुकररम
गोरिनाथ ने रानी भुजावंती का संपूणरर वृतरतानरत राजा को सुनाया। राजा को अपने
कृतरय पर प शर चाताप हुआ। उनरहोंने रानी को राजरय से बाहर िनकाल िदया। गोरिनाथ ने राजा
से कहाः "अब तुम तीसरा िववाह करो। तीसरी रानी के दरवारा तुमरहें एक अतरयंत गुणवान,
बुिदरधशाली और दीघररजीवी पुतरर की पररािपरत होगी। वही राजरय का उतरतरािधकारी बनेगा और
तुमरहारा नाम रोशन करेगा।"
राजा ने तीसरा िववाह िकया। उससे जो पुतरर पररापरत हुआ, समय पाकर उस पर राजरय का
भार सौंपकर राजा वन में चले गये और ई र वरपररािपरतके साधन में लग गये।
गोरिनाथ के साथ तीथोररं की यातररा करके चौरंगीनाथ बदिरका ररम में रहने लगे।
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िजसने गाय के शुदरध दूध की िीर िाकर तृिपरत पायी है उसके िलए नाली का पानी
तुचरछ है। ऐसे ही िजसने आतरमरस का पान िकया है, उसके िलए नाकरूपी नाली से िलया गया
इतरर का सुि, कान की नाली से िलया गया वाहवाही का सुि या इिनरदररय की नाली से िलया गया
कामिवकार का सुि करया मायना रिता है? ये तो नािलयों के सुि हैं।
।। ।।
।। ।।
िजस साधक ने गुरु के दरवारा मंतरर पाया है, उस गुरुमुि के िलए नाम ही धन, नाम ही
रूप है। िजस इिरट का मंतरर है, उसी के गुण और सरवभाव को वह अपने िचतरत में सहज में
भरता जाता है। उसका मन नाम के रंग से रँगा होता है।
।। ।।
।। ।।
िजसको उस नाम के रस में पररवे पाना आ गया है, उसका उठना-बैठना, चलना-
िफरना सब सतरकायरर हैं।
भगवनरनाम से सराबोर हुए ऐसे ही एक महातरमा का नाम था हिरदास। वे पररितिदन
वैिरी वाणी से एक लाि भगवनरनाम-जप करते थे। वे कभी-कभी सपरतगरराम में आकर
पंिडत बलराम आचायरर के यहाँ रहते थे, जो वहाँ के दो धिनक जमींदार भाइयों-िहरणरय
और गोवधररन मजूमदार के कुलपुरोिहत थे। एक िदन आचायरर हिरदासजी को मजूमदार की सभा
में ले आये। वहाँ बहुत-से पंिडत बैठे हुए थे। जमींदार ने उन दोनों का सरवागत-
सतरकार िकया। अनुकररम
भगवनरनाम-जप के फल के बारे में पंिडतों दरवारा पूछे जाने पर हिरदासजी ने
कहाः "इसके जप से हृदय में एक पररकार की अपूवरर पररसनरनता पररकट होती है। इस
पररसनरनताजनरय सुि का आसरवादन करते रहना ही भगवनरनाम का सवरर ररेिरठ और सवोररतरतम
फल है। भगवनरनाम भोग देता है, दोि िनवृतरत करता है, इतना ही नहीं, वह मुिकरतपररदायक भी
है। िकंतु सचरचा साधक उससे िकसी फल की इचरछा नहीं रिता।"
िबलरकुल सचरची बात है। और कुछ आये या न आये केवल भगवनरनाम अथररसिहत जपता
जाय तो नाम ही जापक को तार देता है।
हिरदास महाराज के सतरसंग को सुनकर िहरणरय मजूमदार के एक कमररचारी गोपालचंद
चकररवतीरर ने कहाः "महाराज ! ये सब बातें शररदरधालुओं को फुसलाने के िलए हैं। जो
पि़-िलि नहीं सकते, वे ही इस पररकार जोरों से नाम लेते िफरते हैं। यथाथरर जरञान तो
शासतो केअधययन से िी िोता िै। ऐसा थोडे िी िै िक भगवान केनाम से दःुखो का नाश िो जाय। शासतो मे जो किी -
कहीं भगवनरनाम की इतनी परर ंसा िमलती है, वह केवल अथररवाद है।"
हिरदास जी ने कुछ जोर देते हुए कहाः "भगवनरनाम में जो अथररवाद का अधरयारोप
करते हैं, वे शुिरक तािकररक हैं। वे भगवनरनाम के माहातरमरय को समझ ही नहीं सकते।
भगवनरनाम में अथररवाद हो ही नहीं सकता। इसे अथररवाद कहने वाले सरवयं अनथररवादी
हैं, उनसे मैं कुछ नहीं कह सकता।"
जोश में आकर गोपालचंद चकररवतीरर ने कहाः "यिद भगवनरनाम-सरमरण से मनुिरय की
नीचता निरट होती हो तो मैं अपनी नाक कटवा लूँगा।"
महातरमा हिरदास ने कहाः "भैया ! अगर भगवान के नाम से नीचताओं का जड़-मूल
से नाश न हो जाये तो मैं अपने नाक-कान, दोनों कटाने के िलए तैयार हूँ। अब तुमरहारा-
हमारा फैसला भगवान ही करेंगे।"
बाद में गोपालचंदरर चकररवतीरर की नाक कट गयी। कुछ समय प र चातदूसरे एक
नामिननरदक-हिरनदी गरराम के अहंकारी बरराहरमण का हिरदासजी के साथ ासरतरराथरर हुआ।
समय पाकर उसकी नाक में रोग लग गया और जैसे कोिि़यों की उँगिलयाँ गलती हैं,
वैसे देिते ही देिते उसकी नाक गल गयी।
उसके बाद हिरदास के इलाके में िकसी ने भगवनरनाम की िननरदा नहीं की, िफर भले
कोई यवन ही करयों न हो। कैसी मिहमा है भगवनरनाम की !
भगवजरजनों के भावों की भगवान कैसे पुििरट कर देते हैं ! भगवान ही जानते हैं
भगवनरनाम की मिहमा। "हे भगवान ! तुमरहारी जय हो.... हे कृपािनधे ! हे दयािनधे ! हे हिर
!......... ॐ..... ॐ.......' ऐसा करकेजो भगवद भ ् ा वमे डू बतेिैवेधनभागीिै।
भगवनरनाम में ऐसी शिकरत है िक उससे शांित िमलती है, पाप-ताप निरट होते हैं,
रकरत के कण पिवतरर होते हैं, िवकारों पर िवजय पाने की कला िवकिसत होती है, वरयिकरतगत
जीवन का िवकास होता है, सामािजक जीवन में समरमान िमलता है, इतना ही नहीं, मुिकरत भी
िमल जाती है। अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
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भगवनरनाम जप-संकीतररन से अनिगनत जीवों का उदरधार हुआ है एवं अनेक परराणी
दुःि से मुकरत होकर शा शर वत सिु को उपलबरध हुए हैं।
भगवनरनाम-जापक, भगवान के शरणागत भकरतजन पररारबरध के वश नहीं रहते। कोई
भी दीन, दुःिी, अपािहज, दिरदरर अथवा मूिरर पुरुि भगवनरनाम का जप करके, भगवान की
भिकरत का अनुिरठान करके इसी जनरम में कृतकृतरय हो सकता है।
भगवनरनाम की डोरी में पररभु सरवयँ बँध जाते हैं और िजनके बंदी सरवयं भगवान
हों, उनरहें िफर दुलररभ ही करया है?
इस असार संसार से पार होने के िलए भगवनरनाम-सरमरण एक सरल साधन है।
अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

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