संसार में जितनी भी पूि ा और ज्ञान प्रचलित है । ये ज्यादातर काि पूि ा है । और काि माया के प्रभाव से इसी में
सन्तमत यानी सत्यपुरुष का भे द । सतिोक या अमरिोक का भे द । असिी हँस ज्ञान । आत्मा का वास्तववक
ज्ञान घुि लमि गया है । इसी जस्ितत को साफ़ करने के लिये मैं " अनुर ाग सागर " से वाणी यानी कबीर धममदास
संवाद को प्रकालित कर रहा हूँ । मैं अपने सभी पाठकों से कहना चाहूंगा । आपने बहुत पुस्तकें पढी होंगी । एक
फफ़र भी यदद आप एक ही बार में आसानी से इस मायािाि और भे द को िानना चाहें । तो सरि दहन्दी में लिखी
िन्म िन्म का धालममक कचरा साफ़ होकर सच्चे प्रभु से िौ िग िाये गी । िो सबका उद्धारकताम है ।
प्रस्तत
ु कताा: मक्
ु तानन्द स्वामी परमहं स
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ववषय सू ची
सदगुरु कबीर साहब के लिटय धनी धममदास िी का िन्म बहुत ही धनी वैश् य पररवार में हुआ िा । बाद में कबीर
साहब की िरण में आकर उनसे परमात्म ज्ञान िे क र धममदास ने अपना िीवन सािमक और पररपूणम फकया । इस
तरह उन्हें धममदास की िगह धनी धममदास कहा िाने िगा । धममदास वैटणव िे । और ठाकु र पूि ा फकया करते िे
। अपनी मूततमपूि ा के इसी कृ म में धममदास मिुर ा आये । िहाँ उनकी भें ि कबीर साहब से हुयी । धममदास िी
दयािु व्यवहारी और पववि िीवन िीने वािे इंसान िे । अत्यधधक धन संपवि के बाद भी अहंक ार उन्हें छू आ तक
नहीं िा । वे अपने हािों से स्वयँ भोिन बनाते िे । और पवविता के लिहाि से ििावन िकङी को इस्ते माि
करने से पहिे धोया करते िे । एक बार इसी समय में िब वह मिुर ा में भोिन तैयार कर रहे िे । उसी समय
कबीर साहब से उनकी भें ि हुयी । उन्होंने दे खा फक भोिन बनाने के लिये िो िकङङयाँ चल्
ू हे में िि रही िीं ।
उसमें से ढे रों चीदिंयाँ तनकिकर बाहर आ रही िी । धममदास ने िल्दी से िे ष िकङङयों को बाहर तनकािकर
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बहुत समय भिकने के बाद उन्हें कबीर साहब कािी में लमिे । परन्तु उस समय वे वैटणव वे ि में िे । फफ़र भी
और बोिे - हे सदगुरु महाराि मुझ पर कृ पा करें । और मुझे अपनी िरण में िें । हे गुरुदे व मुझ पर प्रसन्न हों ।
मैं उसी समय से आपको खोि रहा हूँ । आि आपके दिमन हुये हैं ।
कबीर साहब बोिे - हे धममदास तुम मुझे कहाँ खोि रहे िे । तुम तो चींिी चींिो को खोि रहे िे । सो वे तुम्हारे
िे फकन तुम बहुत भागयिािी हो । िो तुमने मुझे पहचान लिया । अब तुम धैयम धारण करो । मैं तुम्हें िीवन के
इसके बाद धममदास तनवे दन करके कबीर साहब को अपने साि बाँधोगढ िे आये ।
इसके बाद तो बाँधोगढ में कबीर साहब के श्रीमुख से आिौफकक आत्मज्ञान सतसंग की अववरि धारा ही बहने िगी
। दरू दरू से िोग सतसंग सुनने आने िगे । धममदास और उनकी पत्नी आलमन ने महामंि की दीक्षा िी । बाँधोगढ
के नरे ि भी कबीर साहब के सतसंग में आने िगे । और बाद में दीक्षा िे क र वे भी कबीर साहब के लिटय बने ।
यहाँ कबीर साहब ने बहुत से उपदे ि ददये । जिन्हें उनके लिटयों ने बाँधोगढ नरे ि और धनी धममदास के आदे ि पर
संक लित कर गि
ंृ का रूप ददया ।
वविे ष -- िब भी फकसी सच्चे सन्त का प्राकिय होता है । तो कािपुरुष भयभीत हो िाता है फक अब ये िीवों को
मोक्ष ज्ञान दे क र उनका उद्धार कर दे गा । इससे हरसंभव बचाव के लिये वो अपने कािदत
ू वहाँ भे ि दे ता है ।
धममदास का पुि नारायण दास िो कािदत
ू िा । कबीर साहब का बहुत ववरोध करता िा । िे फकन उसकी एक भी
नहीं चिी । खुद कबीर साहब के पुि के रूप में कमाि कािदत
ू िा । वह भी कबीर का बहुत ववरोध करता िा ।
बाद में ..कबीर साहब ने धममदास को सुयोग्य लिटय िानते हुये मोक्ष का अनमोि ज्ञान ददया । और साि ही ये
ताकीद भी की ।
इस पर धममदास ने कहा ।
कर मैं ने पांव आगे बङाया । और ववकराि काि तनरं ि न के क्षेि में आ गया । उस युग में मे र ा नाम अंधचत िा ।
तब िाते हुये मुझे अन्यायी काि तनरं ि न लमिा । वह मे रे पास आया । और झगङते हु ये महाक्रोध से बोिा - हे
योगिीत ! आप यहाँ कैसे आये हो ? क्या आप मुझे मारने आये हो । हे पुरुष !अपने आने का कारण मुझे बताओ
?
तब मैं ने उससे कहा - हे तनरं ि न सुनो । मैं िीवों का उद्धार करने के लिये सतपुरुष द्वारा भे ि ा गया हूँ । हे
अन्यायी तनरं ि न ! सुन तुमने बहुत कपि चतुर ाई की । भोिे भािे िीवों को तुमने बहुत भृम में डािा है । और
बार बार सताया । सतपुरुष की मदहमा को तो तुमने गुप्त रखा । और अपनी मदहमा का बङा चङाकर बखान फकया
। तुम तप्त लििा पर िीव को ििाते हो । और उसे ििा पकाकर खाते हुये अपना स्वाद पूर ा करते हो । तुमने
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ऐसा कटि िीवों को ददया । तब ही सतपुरुष ने मुझे आज्ञा दी फक मैं ते रे िाि में फ़ँसे िीव को सावधान करके
सतिोक िे िाऊँ । और काि तनरं ि न के कटि से िीव को मुजक्त ददिाऊं । इसलिये मैं संसार में िा रहा हूं ।
यह बात सुनते ही काि तनरं ि न भयंक र रूप हो गया । और मुझे भय ददखाने िगा । फफ़र वह क्रोध से बोिा -
मैं ने 70 युगों तक सतपुरुष की से वा तपस्या की । तब सतपुरुष ने मुझे तीन िोक का राज्य और उसकी मान
बङाई दी । फफ़र दोबारा मैं ने 64 युग तक से वा तपस्या की । तब सतपुरुष ने सृजटि रचने हे तु मुझे अटिांगी कन्या
( आद्यािजक्त ) को ददया ।
तब तुमने मुझे मारकर मानसरोवर दीप से तनकाि ददया िा । हे योगिीत ! अब मैं तुम्हें नहीं छोङूँगा । तुम्हें
यह कहकर मैं ने उसी समय सत्यपुरुष के प्रताप का सुमरन करके ददव्य िब्द अंग से काि को मारा । मैं ने उस पर
दृजटि डािी । तो उसी समय उसका मािा कािा पङ गया । िैसे फकसी पक्षी के पंख चोदिि होने पर वह िमीन पर
पङा वे वि होकर दे खता है । पर उङ नहीं पाता । ठीक यही हाि काि तनरं ि न का िा । वह क्रोध कर रहा िा ।
तब तनरं ि न बोिा - हे ज्ञानी िी ! सुनो । मैं आपसे ववनती करता हूँ फक मैं ने आपको भाई समझकर ववरोध फकया
। यह मुझसे बङी गिती हुयी । अब मैं आपको सत्यपुरुष के समान समझता हूँ । आप बङे हो । िजक्त सम्पन्न
िैसे सत्यपुरुष ने मुझे तीन िोक का राज्य ददया । वैसे ही आप भी मुझे कु छ पुर स्कार दो । सोिह सुतों में आप
तब मैं ने कहा - हे तनरं ि न राव सुन । तुम तो सत्यपुरुष के वंि में ( सोिह सुतों में ) कालिख के समान किंफकत
हुये हो । मैं िीवों को सत्य िब्द का उपदे ि करके सत्यनाम मिबूत करा के बचाने आया हूँ । भवसागर से िीवों
को मुक्त कराने को आया हूँ । यदद तुम इसमें ववघ्न डािते हो । तो मैं इसी समय तुमको यहाँ से तनकाि दँ ग
ू ा ।
तब तनरं ि न ववनती करते हुये बोिा - मैं आपका एवं सत्यपुरुष दोनों का से वक हूँ । इसके अततररक्त मैं कु छ नहीं
िानता । ज्ञानी िी आपसे मे र ी ववनती है फक ऐसा कु छ मत करो । जिससे मे र ा त्रबगाङ हो । िैसे सत्यपुरुष ने
िीजिये ।
हे तात ! मैं आपसे ववनती करता हूँ । आप मे र ी बात को मानो । आपका कहना ये भृलमत िीव नहीं मानेंगे । और
उल्िे मे र ा पक्ष िे क र आपसे वाद वववाद करें गे । मैं ने मोह रूपी फ़ँ दा इतना मिबूत बनाया है फक समस्त िीव उसमें
उिझ कर रह गये हैं । वे द िास्ि पुर ाण स्मृतत में ववलभन्न प्रकार के गुण धमम का वणमन है । और उसमें मे रे तीन
उनमें भी मैं ने बहुत चतुर ाई का खेि रचा है फक मे रे मत पँि का ज्ञान प्रमुख रूप से वणमन फकया गया है । जिससे
सब मे री बात ही मानते हैं । मैं िीवों से मजन्दर दे व और पत्िर पुि वाता हूँ । और तीिम वृत िप और तप में
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संसार में िोग दे वी दे वों और भूत भैर व आदद की पूि ा आराधना करें गे । और िीवों को मार कािकर बलि देंगे ।
इन ऐसे अने क मत लसद्धांतो से मैं ने िीवों को बाँध रखा है फक धमम के नाम पर यज्ञ होम ने म और इसके अिावा
भी अने क िाि मैं ने डाि रखे हैं । अतः हे ज्ञानी िी ..आप संसार में िायेंगे । तो िीव आपका कहा नहीं मानेंगे ।
तब मैं ने कहा - अन्याय करने वािे .. हे तनरं ि न ! सुनो मैं तुम्हारे िाि फ़ँ दे को कािकर िीव को सत्यिोक िे
िाऊँगा । जितने भी मायािाि िीव को फ़ँ साने के लिये तुमने रच रखे हैं । सत िब्द से उन सबको नटि कर दँ ग
ू ा
। िो िीव मे र ा सार िब्द मिबूती से गहृ ण करे गा । तुम्हारे सब िािों से मुक्त हो िाये गा । िब िीव मे रे िब्द
उपदे ि को समझेगा । ते रे फ़ै िाये हुये सब भृम अज्ञान को त्याग दे गा । मैं िीवों को सतनाम समझाऊँगा । साधना
सत्य िब्द दृणता से दे क र मैं उन हँस िीवों को दया । िीि । क्षमा । काम आदद ववषयों से रदहत । सहिता ।
सतिोक भे ि दँ ग
ू ा । अववनािी अमृत नाम का प्रचार प्रसार करके मैं हँस िीवों को चेताकर भृम मुक्त कर दँ ग
ू ा ।
इसलिये हे धममराय तनरं ि न ! मे र ी बात मन िगाकर सुन । इस प्रकार मैं तुम्हारा मान मदमन करूँगा । िो मनुटय
ववधधपूवमक सदगुरु से दीक्षा िे क र नाम को प्राप्त करे गा । उसके पास काि नहीं आता । सत्यपुरुष के नामज्ञान से
हँस िीव को संधध हुआ दे खकर काि तनरं ि न भी उसको लसर झुक ाता है ।
मे र ी इतनी बात सुनते ही काि तनरं ि न भयभीत हो गया । उसने हाि िोङकर ववनती की - हे तात ! आप दया
करने वािे साहब दाता हो । इसलिये आप मुझ पर इतनी कृ पा करो । सतपुरुष ने मुझे ऐसा िाप ददया है फक मैं
तनत्य िाखों िीव खाऊँ । यदद संसार के सभी िीव सत्यिोक चिे गये । तो मे र ी भूख कै से लमिे गी ? फफ़र सतपुरुष
ने मुझ पर दया की । और भवसागर का राज्य मुझे ददया । आप भी मुझ पर कृ पा करो । और िो मैं माँगता हूँ ।
वह वर मुझे दीजिये ।
सतयुग िेता और द्वापर इन तीनों में से िोङे िीव सत्यिोक में िायँ । िे फकन िब कलियुग आये । तो आपकी
िरण में बहुत िीव िायँ । ऐसा पक्का वचन मुझे दे क र ही आप संसार में िायें ।
तब मैं ने कहा - अरे काि तनरं ि न ! तुमने ये छि लमथ्या का िो प्रपंच फ़ै िाया है । और तीनों युगों में िीव को
दख
ु में डाि ददया । मैं ने तुम्हारी ववनती िान िी । अरे अलभमानी काि ! तुम मुझे ठगते हो ।
िैसी ववनती तुमने मुझसे की । वह मैं ने तुम्हें बख्ि दी । िे फकन चौिा युग यानी कलियुग िब आये गा । तब मैं
घर िाकर प्रकि होंगे । सतपुरुष के वे 42 अंि िीव उद्धार के लिये संसार में आयेंगे । वे कलियुग में व्यापक रूप
से पंि प्रकि कर चिायेंगे । और िीव को ज्ञान प्रदान कर सतिोक भे ि ेंगे । वे 42 अंि जिस िीव को सत्य िब्द
का उपदे ि देंगे । मैं सदा उनके साि रहूँगा । तब वह िीव यमिोक नहीं िाये गा । और काि िाि से मुक्त रहे गा
।
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तब तनरं ि न बोिा - हे सादहब ! आप पँि चिाओ । और भवसागर से उद्धार कर िीव को सतिोक िे िाओ ।
जिस िीव के हाि में मैं अंि वंि की छाप ( नाम मोहर ) दे खग
ूँ ा । उसे मैं लसर झुक ाकर प्रणाम करूँगा । सतपुरुष
आप एक पँि चिाओगे । और िीवों को नाम दे क र सत्यिोक लभिवाओगे । तब मैं 12 पँि ( नकिी ) बनाऊँगा ।
िो आपकी ही बात करते हुये ( मतिब आपके िैसे ही ज्ञान की बात.. मगर फ़िी ) ज्ञान देंगे । और अपने
उन 12 पँि के अंतगमत िो िीव आयेंगे । वे मे रे मुख में आकर मे र ा ग्रास बनेंगे । मे र ी इतनी ववनती मानकर मे र ी
द्वापर युग का अंत और कलियुग की िुरूआत िब होगी । तब मैं बौद्ध िरीर धारण करूँगा । इसके बाद मैं
उङीसा के रािा इंद्रमन के पास िाऊँगा । और अपना नाम िगन्नाि धराऊँगा । रािा इन्द्रमन िब मे र ा अिामत
िगन्नाि मंददर समुद्र के फकनारे बनवाये गा । तब उसे समुद्र का पानी ही धगरा दे गा । उससे िकराकर बहा दे गा ।
इसका वविे ष कारण यह होगा फक िेता युग में मे रे ववटणु का अवतार राम वहाँ आये गा । और वह समुद्र से पार
िाने के लिये समुद्र पर पुि बाँधेगा । इसी ििुता के कारण समुद्र उस मंददर को डुबा दे गा ।
अतः हे ज्ञानी िी ! आप ऐसा ववचार बनाकर पहिे वहाँ समुद्र के फकनारे िाओ । आपको दे खकर समुद्र रुक िाये गा
। आपको िाँघकर समुद्र आगे नहीं िाये गा । इस प्रकार मे र ा वहाँ मंददर स्िावपत करो । उसके बाद अपना अंि
भे ि ना ।
आप भवसागर में अपना मत पँि चिाओ । और सत्यपुरुष के सतनाम से िीवों का उद्धार करो । और अपने मत
पँि का धचह्न छाप मुझे बता दो । तिा सत्यपुरुष का नाम भी सुझा समझा दो । त्रबना इस छाप के िो िीव
भवसागर के घाि से उतरना चाहे गा । वह हँस के मुजक्त घाि का मागम नहीं पाये गा ।
तब मैं ने कहा - हे तनरं ि न ! िैसा तुम मुझसे चाहते हो । वैसा तुम्हारे चररि को मैं ने अच्छी तरह समझ लिया है
अमरिोक िे िाऊँ ।
मगर सतपुरुष का आदे ि ऐसा नहीं है । यही सोचकर मैं ने तनश्चय फकया है फक अमरिोक उस िीव को िे िाकर
हे अन्यायी तनरं ि न ! तुमने िो 12 पँि चिाने की माँग कही है । वह मैं ने तुमको दी । पहिे तुम्हारा दत
ू धममदास
के यहाँ प्रकि होगा । पीछे से मे र ा अंि आये गा । समुद्र के फकनारे में चिा िाऊँगा । और िगन्नाि मंददर भी
अपने हंस िीवों को दोगे । िो िीव मुझको उसी प्रकार की तनिान पहचान बताये गा । उसके पास काि नहीं
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आये गा । अतः हे सादहब दया करके सतपुरुष की नाम तनिानी मुझे दें ।
तब मैं ने कहा - हे धममर ाय तनरं ि न ! िो मैं तुम्हें सत्यपुरुष के मे ि की तनिानी समझा दँ ू । तो तुम िीवों के
उद्धार कायम में ववघ्न पैदा करोगे । तुम्हारी इस चाि को मैं ने समझ लिया । हे काि ! तुम्हारा ऐसा कोई दाव
मुझ पर नहीं चिने वािा । हे धममर ाय ! मैं ने तुम्हें साफ़ िब्दों में बता ददया फक अपना अक्षर नाम मैं ने गप्ु त रखा
है । िो कोई हमारा नाम िे गा । तुम उसे छोङकर अिग हो िाना । िो तुम हँस िीवों को रोकोगे । तो काि तुम
तब धममराय तनरं ि न बोिा - हे ज्ञानी िी ! आप संसार में िाईये । और सत्यपुरुष के नाम द्वारा िीवों को उद्धार
करके िे िाईये । िो हँस िीव आपके गुण गाये गा । मैं उसके पास कभी नहीं आऊँगा । िो िीव आपकी िरण में
आये गा । वह मे रे लसर पर पाँव रखकर भवसागर से पार होगा । मैं ने तो व्यिम आपके सामने मूखत
म ा की । तिा
आपको वपता समान समझकर िङकपन फकया । बािक करोंङो अवगुण वािा होता है । परन्तु वपता उनको ह्रदय में
नहीं रखता । यदद अवगुणों के कारण वपता बािक को घर से तनकाि दे । फफ़र उसकी रक्षा कौन करे गा । इसी
प्रकार मे र ी मूखत
म ा पर यदद आप मुझे तनकाि देंगे । तो फफ़र मे र ी रक्षा कौन करे गा ? ऐसा कहकर तनरं ि न ने
तब कबीर साहब ने धममदास से कहा - िब मैं ने तनरं ि न को व्याकु ि दे खा । तब मैं ने वहाँ से प्रस्िान फकया । और
धममदास बोिे - हे सादहब ! अब आप मुझे कृ पा करके बतायें । मुक्त होकर अमर हुये िोग कहाँ रहते हैं ? आप
मुझे अमरिोक और अन्य दीपों का वणमन सुनाओ । कौन से दीप में सदगुरु के हँस िीवों का वास है ? और कौन
से दीप में सतपुरुष का तनवास है ? वहाँ पर हँस िीव कौन सा तिा कैसा भोिन करते हैं ? और वे कौन सी वाणी
बोिते हैं ? आदद पुरुष ने िोक कै से रच रखा है ? तिा उन्हें दीप रचने की इच्छा कै से हुयी ? तीनों िोकों की
उत्पवि कै से हुयी । हे सादहब ! मुझे वह सब भी बताओ । िो गप्ु त है ।
काि तनरं ि न फकस ववधध से पैदा हुआ ? और 16 सुतों का तनमामण कै से हुआ ? स्िावर । अण्डि । वपण्डि ।
ऊटमि इन चार प्रकार की चार खानों वािी सृजटि का ववस्तार कै से हुआ । और िीव को कै से काि के वि में डाि
ददया गया । कू मम और िे षनाग उपरािा कै से उत्पन्न हुये ? और कै से मत्स्य तिा वराह िैसे अवतार हुये ? तीन
प्रमुख दे व बह्
ृ मा ववटणु महे ि फकस प्रकार हुये ? तिा प्रथ्वी आकाि का तनमामण कै से हुआ । चन्द्रमा और सय
ू म
कै से हुये ? कै से तारों का समूह प्रकि होकर आकाि में ठहर गया ? और कैसे चार खानों के िीव िरीर की रचना
हुयी । इन सबकी उत्पवि के ववषय में स्पटि बतायें ।
तब कबीर साहब बोिे - हे धममदास ! मैं ने तुम्हें सत्यज्ञान और मोक्ष पाने का सच्चा अधधकारी पाया है । इसलिये
मैं ने सत्यज्ञान का िो अनुभव मैं ने फकया । उसके सार िब्द का रहस्य कहकर सुनाया । अब तुम मुझसे आदद
सृजटि की उत्पवि सुनो । मैं तुम्हें सबकी उत्पवि और प्रिय की बात सुनाता हूँ ।
हे धममदास ! यह तत्व की बात सुनो । िब धरती और आकाि और पाताि भी नहीं िा । िब कू मम वराह िे षनाग
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सरस्वती और गणे ि भी नहीं िे । िब सबका रािा तनरं ि न राय भी नहीं िा । जिन्होंने सबके िीवन को मोह
माया के बंधन में झुिाकर रखा है । 33 करोङ दे वता भी नहीं िे । और मैं तुम्हें अने क क्या बताऊँ ?
तब बृह्मा ववटणु महे ि भी नहीं िे । और न ही िास्ि वे द पुर ाण िे । तब ये सब आदद पुरुष में समाये हुये िे ।
िैसे बरगद के पे ङ के बीच में छाया रहती है ।
हे धममदास ! तुम प्रारम्भ की आदद उत्पवि सुनो । जिसे प्रत्यक्ष रूप से कोई नहीं िानता । जिसके पीछे सारी सजृ टि
का ववस्तार हुआ है । उसके लिये मैं तुम्हें क्या प्रमाण दँ ू फक जिसने उसे दे खा हो । चारों वे द परम वपता की
वास्तववक कहानी नहीं िानते । क्योंफक तब वे द का मूि ही ( आरम्भ होने का आधार ) नहीं िा । इसीलिये वे द
सत्य पुरुष को अकिनीय अिामत जिसके बारे में कहा न िा सके ..ऐसा कहकर पुक ारते हैं । चारों वे द तनराकार
तनरं ि न से उत्पन्न हुये हैं । िो फक सजृ टि के उत्पवि आदद रहस्य को िानते ही नहीं । इसी कारण पंङडत िोग
उसका खंडन करते हैं । और असि रहस्य से अंि ान वे द मत पर यह सारा संसार चिता है ।
हे धममदास ! सृजटि के पूवम िब सत्यपुरुष गुप्त रहते िे । उनसे जिनसे कमम होता है । वे तनलमि कारण और
उपादान कारण और करण यानी साधन उत्पन्न नहीं फकये िे । उस समय गुप्त रूप से कारण और करण सम्पुि
कमि में िे । उसका सम्बन्ध सत्यपुरुष से िा । ववदे ह सत्यपुरुष उस कमि में िे ।
तब सत्यपुरुष ने स्वयँ इच्छा कर अपने अंिों को उत्पन्न फकया । और अपने अंिो को दे खकर वह बहुत प्रसन्न हुये
। सबसे पहिे सत्यपुरुष ने िब्द का प्रकाि फकया । और उससे िोक दीप रचकर उसमें वास फकया । फफ़र
सत्यपुरुष ने चार पायों वािे एक लसंहासन की रचना की । और उसके ऊपर पुण्य दीप का तनमामण फकया । तब
सत्यपुरुष अपनी समस्त किाओं को धारण करके उस पर बैठे । और उनसे " अगर वासना " यानी एक सुगन्ध
प्रकि हुयी । सत्यपुरुष ने अपनी इच्छा से सब कामना की । और 88 000 दीपों की रचना की । उन सभी दीपों
में वह चन्दन िैसी सुगन्ध समा गयी । िो बहुत अच्छी िगी ।
इसके बाद सत्यपुरुष ने दस
ू रा िब्द उच्चाररत फकया । उससे कू मम नाम का सुत ( अंि ) प्रकि हुआ । और उन्होंने
सत्यपुरुष के चरणों में प्रणाम फकया ।
तब उन्होंने तीसरे िब्द का उच्चारण फकया । तो उससे ज्ञान नाम के सुत हुये । िो सब सुतों में श्रेटठ िे । वे
सत्यपुरुष के चरणों में िीि नवाकर खङे रहे । तब सत्यपुरुष ने उनको एक दीप में रहने की आज्ञा दी ।
चौिे िब्द के उच्चारण से वववे क नामक सुत हुये ।
और पाँचवे िब्द से काि तनरं ि न प्रकि हुआ । काि तनरं ि न अत्यन्त ते ि अंग और भीषण प्रकृ तत वािा होकर
आया । इसी ने अपने उग्र स्वभाव से सब िीवों को कटि ददया है । वैसे ये िीव सत्यपुरुष का अंि है । िीव के
आदद अंत को कोई नहीं िानता है ।
छठवें िब्द से सहिनाम सुत उत्पन्न हुये । सातवें िब्द से संतोष नाम के सुत हुये । जिनको सत्यपुरुष ने उपहार
में दीप दे क र संतुटि फकया । आठवें िब्द से सुर तत सुभाव नाम के सुत उत्पन्न हुये । उन्हें भी एक दीप ददया गया
। नवें िब्द से आनन्द अपार नाम के सुत उत्पन्न हुये । दसवें िब्द से क्षमा नाम के सुत उत्पन्न हुये । ज्ञारहवें
से तनटकाम नाम और बारहवें से ििरं गी नाम के सुत हुये । ते र हवें से अंधचत और चौदहवें से प्रे म नाम के सुत हुये
। पन्द्रहवें से दीनदयाि और सोिहवें से धीरि नाम के वविाि सुत उत्पन्न हुये । सिहवें िब्द के उच्चारण से
सत्यपुरुष के िब्द से ही उन सुतों का आकार का ववकास हुआ । और िब्द से ही सभी दीपों का ववस्तार हुआ ।
अधधकारी बनाकर बैठा ददया । सत्यपुरुष के इन अंिों की िोभा और किा अनन्त है । उनके दीपों में मायारदहत
अिौफकक सुख रहता है । सत्यपुरुष के ददव्य प्रकाि से सभी दीप प्रकालित हो रहे है । सत्यपुरुष के एक ही रोम
का प्रकाि करोंङो सय
ू म चन्द्रमा के समान है ।
सत्यिोक आनन्द धाम है । वहाँ पर िोक मोह आदद दख
ु नहीं है । वहाँ सदैव मुक्त हँसों का ववश्राम होता है ।
सतपुरुष का दिमन तिा अमत
ृ का पान होता है ।
आदद सजृ टि की रचना के बाद िब बहुत ददन ऐसे ही बीत गये । तब धममर ाि काि तनरं ि न ने क्या तमािा फकया
। हे धममदास ! तुम उस चररि को ध्यान से सुनो ।
तनरं ि न ने सत्यपुरुष में ध्यान िगाकर । एक पैर पर खङे होकर 70 युग तक कदठन तपस्या की । इससे आदद
पुरुष बहुत प्रसन्न हुये । तब तनरं ि न के लिये सत्यपुरुष की आवाि वाणी के रूप में हुयी - हे धममर ाय ! फकस हे तु
से तुमने यह तप से वा की ?
इस पर तनरं ि न लसर झक
ु ाकर बोिा - हे प्रभु ! आप मुझे वह स्िान दें । िहाँ िाकर मैं तनवास करूँ ।
तब सत्यपुरुष ने कहा - पुि ! तुम मानसरोवर दीप में िाओ ।
सत्यपुरुष की आज्ञा से प्रसन्न होकर धममर ाि मानसरोवर दीप की ओर चिा गया । और उसे दे खकर आनन्द से भर
गया । मानसरोवर पर तनरं ि न ने फफ़र से एक पैर पर खङे होकर 70 युग तपस्या की । तब दयािु सत्यपुरुष के
ह्रदय में दया भर गयी । तनरं ि न की कदठन से वा तपस्या से पुटप दीप के पुटप ववकलसत हो गये । और फफ़र
सत्यपुरुष की वाणी प्रकि हुयी । उनके बोिते ही वहां सुगन्ध फ़ै ि गयी ।
सत्यपुरुष ने अपने सहि सुत से कहा - हे सहि ! तुम तनरं ि न के पास िाओ । और उससे तप का कारण पूछ ो ।
तनरं ि न की से वा तपस्या से पहिे ही मैं ने उसको मानसरोवर दीप ददया है । अब वह क्या चाहता है । यह ज्ञात
कर तुम मुझे बताओ ?
तब सहि तनरं ि न के पास पहुँचे । और प्रे मभाव से कहा - हे भाई ! अब तुम क्या चाहते हो ?
यह सुनकर तनरं ि न प्रसन्न होकर बोिा - हे सहि ! तुम मे रे बङे भाई हो । इतना सा स्िान ..ये मानसरोवर मुझे
अच्छा नहीं िगता । अतः मैं फकसी बङे स्िान का स्वामी बनना चाहता हूँ । मुझे ऐसी इच्छा है फक या तो मुझे
दे विोक दें । या मुझे एक अिग दे ि दें ।
सहि ने तनरं ि न की ये अलभिाषा सत्यपुरुष को िाकर बतायी । ये सुनकर सत्यपुरुष ने स्पटि िब्दों में कहा - हम
तनरं ि न की से वा तपस्या से संतुजटि होकर उसको तीन िोक दे ते हैं । वह उसमें अपनी इच्छा से िून्य 0 दे ि
बसाये । और वहाँ िाकर सजृ टि की रचना करे । हे सहि ! तुम तनरं ि न से ऐसा िाकर कहो ।
िब तनरं ि न ने सहि द्वारा ये बात सुनी । तो वह बहुत प्रसन्न और आश्चयमचफकत हुआ ।
तब तनरं ि न बोिा - हे सहि सुनो । मैं फकस प्रकार सृजटि की रचना करके उसका ववस्तार करूँ ? सत्यपुरुष ने
मुझे तीन िोक का राज्य ददया है । परन्तु मैं सृजटि की रचना का भे द नहीं िानता । फफ़र यह कायम कै से करूँ ।
िो सजृ टि मन बुद्धध की पहुँच से परे अत्यन्त कदठन और िदिि है । वह मुझे रचनी नहीं आती । अतः दया
करके मुझे उसकी युजक्त बतायी िाये । हे भाई ! तुम मे र ी तरफ़ से सत्यपुरुष से यह ववनती करो फक मैं फकस
प्रकार नवखण्ड बनाऊँ ? अतः मुझे वह साि सामान दो । जिससे िगत की रचना हो सके ।
कबीर साहब बोिे - हे धममदास ! सहि ने यह सब बात िब िाकर सत्यपुरुष से कही । तब उन्होंने आज्ञा दी । हे
सहि ! कू मम के पे ि के अन्दर सजृ टि रचना का सब साि सामान है । उसे िे क र तनरं ि न अपना कायम करे । इसके
लिये तनरं ि न कू मम से ववनती करे । और उससे दण्ड प्रणाम करके ववनयपूवमक लसर झुक ाकर माँगे ।
सहि ने सत्यपुरुु्ष की आज्ञा तनरं ि न को बता दी ।
यह बात सुनते ही तनरं ि न बहुत हवषमत हुआ । और उसके अन्दर बहुत अलभमान हुआ । वह कू मम के पास िाकर
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कू मम के चारों ओर दौङता रहा । और ये सोचता रहा फक फकस उपाय से इससे उत्पवि का सामान िँ ू ?
फफ़र उसके उदर से प्रथ्वी को उठाने वािे वाराह िे षनाग और मत्स्य तनकिे ।
िब काि तनरं ि न ने कू मम का िीि कािा । तब उस स्िान से रक्त िि के स्रोत बहने िगे । िब उनके रक्त में
स्वे द यानी पसीना और िि लमिा । उससे समुद्र का तनमामण तिा 49 कोदि प्रथ्वी का तनमामण हुआ । िैसे दध
ू पर
वाराह के दाँत प्रथ्वी के मूि में रहे । पवन प्रचण्ड िा । और प्रथ्वी स्िि
ू िी । आकाि को अंडास्वरूप समझो ।
और उसके बीच में प्रथ्वी जस्ितत है ।
कू मम के उदर से कू मम सुत उत्पन्न हुये । उस पर िे षनाग और वराह का स्िान है । िे षनाग के लसर पर प्रथ्वी है ।
तनरं ि न के चोि करने से कू मम बररयाया । सृजटि रचना का सब सािो सामान कू मम उदर के अंडे में िी । परन्तु वह
तनरं ि न के आघात से पीङङत होकर उसने सत्यपुरुष का ध्यान फकया । और लिकायत करते हुये कहा - काि
तनरं ि न ने मे रे साि दुटिता की है । उसने मे रे ऊपर बि प्रयोग करते हुये मे रे पे ि को फ़ाङ डािा है । आपकी
सत्यपुरुष स्ने ह से बोिे - कू मम ! वह तुम्हारा छोिा भाई है । और यह रीत है फक छोिे के अवगुणों को भुिाकर
उससे स्ने ह फकया िाय । सत्यपुरुष के ऐसे वचन सुनकर कू मम आनजन्दत हो गये ।
इधर काि तनरं ि न ने फफ़र से सत्यपुरुष का ध्यान फकया । और अने क युगों तक उनकी से वा तपस्या की । तनरं ि न
ने अपने स्वािम से तप फकया िा । अतः सजृ टि रचना को िे क र वह पछताया । तब धममर ाय तनरं ि न ने ववचार
उसने स्वगमिोक । मत्ृ युिोक और पाताििोक की रचना तो कर दी । परन्तु त्रबना बीि और िीव के सजृ टि का
ववस्तार कैसे संभव हो । फकस प्रकार और क्या उपाय फकया िाय । िो िीवों के धारण करने का िरीर बनाकर
सिीव सृजटि रचना हो सके । यह सब तरीका ववधध सत्यपुरुष की से वा तपस्या से ही होगा । ऐसा ववचार करके
तब दयािु सत्यपुरुष ने सहि से कहा - अब ये तपस्वी तनरं ि न क्या चाहता है । वह तुम उससे पूछ ो । और दे दो
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। उससे कहो । वह हमारे वचन अनुसार सजृ टि का तनमामण करे । और छि मत का त्याग करे ।
सहि ने तनरं ि न से िाकर यह सब बात कही । तब तनरं ि न बोिा - मुझे वह स्िान दो । िहाँ िाकर मैं बैठ िाऊँ
यह सुनकर सहि बोिे - सत्यपुरुष ने पहिे ही सब कु छ दे ददया है । कू मम के उदर से तनकिे सामान से तुम
तनरं ि न बोिा - मैं कै से क्या बनाकर रचना करूँ । सत्यपुरुष से मे र ी तरफ़ से ववनती कर कहो । अपना सारा खेत
सहि ने यह हाि सत्यपुरुष को कह सुनाया । सत्यपुरुष ने आज्ञा दी । तो सहि अपने सुखासन दीप चिे गये ।
तनरं ि न की इच्छा िानकर सत्यपुरुष ने इच्छा व्यक्त की । उनकी इस इच्छा से अटिांगी नाम की कन्या उत्पन्न
हुयी । वह कन्या आठ भुि ाओं की होकर आयी िी । वह सत्यपुरुष के वायें अंग िाकर खङी हो गयी । और प्रणाम
सत्यपुरुष बोिे - हे पुिी ! तुम तनरं ि न के पास िाओ । मैं तुम्हें िो वस्तु दे ता हूँ । उसे संभाि िो । उससे तुम
कबीर साहब बोिे - हे धममदास ! सत्यपुरुष ने अटिांगी नामक कन्या को िो िीव बीि ददया । उसका नाम "
सत्यपुरुष ने अटिांगी कन्या से कहा फक तनरं ि न के पास िाकर उसे पहचान कर यह 84 िाख िीवों का मूि बीि
.. िीव बीि दे दो ।
अटिांगी कन्या यह िीव बीि िे क र मानसरोवर चिी गयी । तब सत्यपुरुष ने सहि को बुिाया ।
सत्यपुरुष ने सहि से कहा । तुम तनरं ि न के पास िाकर यह कहो । िो वस्तु तुम चाहते िे । वह तुम्हें दे दी
गयी है । िीब बीि सोहंग तुम्हें लमि गया है । अब िैसी चाहो सजृ टि रचना करो । और मानसरोवर में िाकर रहो
कबीर साहब बोिे - धममदास भवसागर की ओर चिते हुये मैं सबसे पहिे बृह्मा के पास आया । और बृह्मा को
आदद पुरुष का िब्द उपदे ि प्रकि फकया । तब बृह्मा ने मन िगाकर सुनते हुये आदद पुरुष के धचह्न िक्षण के
बारे में बहुत पूछ ा । उस समय तनरं ि न को संदेह हुआ फक बह्
ृ मा मे र ा बङा िङका है । और वह ज्ञानी िी की बातों
में आकर उनके पक्ष में न चिा िाय । तब तनरं ि न ने बृह्मा की बुद्धध फ़े रने का उपाय फकया । क्योंफक तनरं ि न
मन के रूप में सबके भीतर बैठा हुआ है । अतः वह बृह्मा के िरीर में भी ववरािमान िा । उसने बृह्मा की बुद्धध
को अपनी ओर फ़े र ददया । ( सव िीवों आदद के भीतर मन स्वरूप तनरं ि न का वास है । िो सबकी बुद्धध अपने
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हे धममदास ! इसके आगे िैसा चररि हुआ । वह तुम ध्यान िगाकर सुनो । मे र ी बातों से ववचलित होकर बह्
ृ मा
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हे धममदास ! िैसे सीप स्वातत नक्षि का स्ने ह अपने भीतर िाती है । ठीक उसी प्रकार उन सबने ईश्वर के प्रतत
आगे म अक्षर उसकी पत्नी माया यानी अटिांगी ने लमिा ददया । इस तरह रा और म दोनों अक्षरों को बराबर
लमिाने पर राम िब्द बना । तब राम नाम उन सबको बहुत अच्छा िगा । और सबने राम नाम सुलमरन की ही
इच्छा की । बाद में उसी राम नाम को िे क र उन्होंने संसार के िीवों को उपदे ि ददया । और सुलमरन कराया ।
काि तनरं ि न और माया के इस िाि को कोई पहचान समझ नहीं पाया । और इस तरह राम नाम की उत्पवि हुयी
तब धममदास बोिे - आप पूरे सदगुरु हैं । आपका ज्ञान सूयम के समान है । जिससे मे र ा सारा अज्ञान अंधेर ा दरू हो
गया है । संसार में माया मोह का घोर अंधेर ा है । जिसमें ववषय ववकारी िािची िीव पङे हुये हैं । िब आपका
ज्ञान रूपी सूयम प्रकि होता है । और उससे िीव का मोह अंधकार नटि हो िाये । यही आपके िब्द उपदे ि के सत्य
होने का प्रमाण है । मे रे धन्य भाग्य िो मैं ने आपको पाया । आपने मुझ अधम को िगा लिया ।
सहि के द्वारा सत्यपुरुष के ऐसे वचन सुनकर तनरं ि न प्रसन्न होकर अहंक ार से भर गया । और मानसरोवर चिा
आया । फफ़र िब उसने सुन्दर कालमनी अटिांगी कन्या को आते हुये दे खा । तो उसे अतत प्रसन्नता हुयी । अटिांगी
का अनुपम सौंदयम दे खकर तनरं ि न मुग् ध हो गया । उसकी सुन्दरता की किा का अन्त नहीं िा । यह दे खकर काि
तनरं ि न बहुत व्याकु ि हो गया ।
कबीर साहब बोिे - हे धममदास ! काि तनरं ि न की क्रू रता सुनो । वह अटिांगी कन्या को ही तनगि गया । िब
अन्यायी काि तनरं ि न अटिांगी का ही आहार करने िगा । तब उस कन्या को काि तनरं ि न के प्रतत बहुत आश्चयम
हुआ । िब वह उसे तनगि रहा िा । तो अटिांगी ने सत्यपुरुष को ध्यान करके पुक ारा फक काि तनरं ि न ने मे र ा
आहार कर लिया है ।
अटिांगी की पुक ार सुनकर सत्यपुरुष ने सोचा फक यह काि तनरं ि न तो बहुत क्रू र और अन्यायी है । इस कन्या की
तरह ही पहिे कू मम ने ध्यान करके मुझे पुक ारा िा फक काि तनरं ि न ने मे रे तीन िीि खा लिये हैं । हे सत्यपुरुष !
आप मुझ पर दया कीजिये ।
कबीर साहब बोिे - हे धममदास ! काि तनरं ि न का ऐसा क्रू र चररि िानकर सत्यपुरुष ने उसे िाप ददया फक वह
प्रततददन िाख िीवों को खाये गा । और सवा िाख का ववस्तार करे गा । फफ़र सत्यपुरुष ने ऐसा भी ववचार फकया फक
इस कािपुरुष को लमिा ही डािें । क्योंफक अन्यायी और क्रू र काि तनरं ि न बहुत ही कठोर और भयंक र है । यह
सभी िीवों का िीवन बहुत दुखी कर दे गा ।
िे फकन अब वह लमिाने से भी नहीं लमि सकता िा । क्योंफक एक ही नाि से वे सब 16 सुत उत्पन्न हुये िे ।
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अतः एक को लमिाने से सभी लमि िायेंगे । और मैं ने सबको अिग िोक दीप दे क र िो रहने का वचन ददया है ।
वह डांवाडोि हो िाये गा । और मे र ी ये सब रचना भी समाप्त हो िाये गी । अतः इसको मारना ठीक नहीं है ।
सत्यपुरुष ने ववचार फकया फक कािपुरुष को मारने से उनका वचन भंग हो िाये गा । अतः अपने वचन का पािन
करते हुये उसे न मारकर यह कहता हूँ फक अब वह कभी हमारा दिमन नहीं पाये गा ।
यह कहते हुये सत्यपुरुष ने योगिीत को बुिवाया । और सब हाि कहा फक फकस तरह काि तनरं ि न ने अटिांगी
कन्या को तनगि लिया । और कू मम के तीन िीि खा लिये ।
उन्होंने कहा- हे योगिीत ! तुम िीघ्र मानसरोवर दीप िाओ । और वहाँ से तनरं ि न को मारकर तनकाि दो । वह
मानसरोवर में न रहने पाये । और हमारे दे ि सत्यिोक में कभी न आने पाये । तनरं िन के पे ि में अटिांगी नारी है
। उससे कहो फक वह मे रे वचनों का संभािकर पािन करे । तनरं ि न िाकर उसी दे ि में रहे । िो मैं ने पहिे उसे
ददये हैं । अिामत वह स्वगमिोक मृत्युिोक और पाताि पर अपना राज्य करे । वह अटिांगी नारी तनरं ि न का पे ि
फ़ाङकर बाहर तनकि आये । जिससे पे ि फ़िने से वह अपने कमों का फ़ि पाये । तनरं ि न से तनणमय करके कह दो
। वह अटिांगी नारी ही अब तुम्हारी स्िी होगी ।
योगिीत सत्यपुरुष को प्रणाम करके मानसरोवर दीप आये ।
काि तनरं ि न उन्हें वहाँ आया दे खकर भयंक र रूप हो गया । और बोिा - तुम कौन हो ? और फकसने तुम्हें यहाँ
भे ि ा है ।
योगिीत ने कहा - अरे तनरं ि न ! तुम नारी को ही खा गये । अतः सत्यपुरुष ने मुझे आज्ञा दी फक तुम्हें िीघ्र ही
यहाँ से तनकािँ ू ।
योगिीत ने तनरं ि न के पे ि में समायी हुयी अटिांगी से कहा - अरे अटिांगी ! तुम वहाँ क्यों रहती हो । तुम
योगिीत की बात सुनकर तनरं ि न का ह्रदय क्रोध से ििने िगा । और वह योगिीत से लभङ गया । योगिीत ने
सत्यपुरुष का ध्यान फकया । तो सत्यपुरुष ने आज्ञा दी फक वह तनरं ि न के मािे के बीच में िोर से घूंसा मारे ।
योगिीत ने ऐसा ही फकया । फफ़र योगिीत ने तनरं ि न की बाँह पकङकर उसे उठाकर दरू फ़ें क ददया । तो वह
सत्यपुरुष के डर से वह डरता हुआ सँभि सँभिकर उठा । फफ़र अटिांगी कन्या तनरं ि न के पे ि से तनकिी । वह
काि तनरं ि न से बहुत भयभीत िी । वह सोचने िगी फक अब मैं वह दे ि न दे ख सकूं गी । मैं न िाने फकस प्रकार
वह तनरं ि न से बहुत डरी हुयी िी । और सकपका कर इधर उधर दे खती हुयी तनरं ि न को िीि नवा रही िी ।
तब तनरं ि न बोिा - हे आदद कु मारी ! सुनो । अब तुम मे रे डर से मत डरो । सत्यपुरुष ने तुम्हें मे रे काम के लिये
रचा है । हम तुम दोनों एकमतत होकर सृजटि रचना करें । मैं पुरुष हूँ । और तुम मे र ी स्िी हो । अतः तुम मे र ी
यह बात मान िो ।
अटिांगी बोिी - तुम यह कै सी वाणी बोिते हो । मैं तो तुम्हें बङा भाई मानती हूँ । हे भाई ! इस प्रकार िानते हुये
भी तुम मुझसे ऐसी बातें मत करो । िब से तुमने मुझे पे ि में डाि लिया िा । और उससे उत्पन्न होने पर अब
तो मैं तुम्हारी पुिी भी हो गयी हूँ । बङे भाई का ररश्ता तो पहिे से ही िा । अब तो तुम मे रे वपता भी हो गये हो
। अब तुम मुझे साफ़ दृजटि से दे खो । नहीं तो तुमसे यह पाप हो िाये गा । अतः मुझे ववषय वासना की दृजटि से
मत दे खो ।
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तब तनरं ि न बोिा - हे भवानी सुनो । मैं तुम्हें सत्य बताकर अपनी पहचान कराता हूँ । पाप पुण्य के डर से मैं
नहीं डरता । क्योंफक पाप पुण्य का मैं ही तो कताम ( कराने वािा ) हूँ । पाप पुण्य मुझसे ही होंगे । और मे र ा
दहसाब कोई नहीं िे गा । पाप पुण्य को मैं ही फ़ै िाऊँगा । िो उसमें फ़ँ स िाये गा । वही मे र ा होगा । अतः तुम मे र ी
इस सीख को मानों । सत्यपुरुष ने मुझे कह समझाकर तुझे ददया है । अतः हे भवानी ! तुम मे र ा कहना मानों ।
रतत ववषयक रहस्यमय वचन सुनकर तनरं ि न बहुत प्रसन्न हुआ । और उसके भी मन में ववषय भोग की इच्छा
िाग उठी । तनरं ि न और अटिांगी दोनों परस्पर रतत फक्रया में िग गये । तब कहीं चैतन्य सृजटि का वविे ष आरम्भ
हुआ ।
हे धममदास ! तुम आदद उत्पवि का यह भे द सुनो । जिसे भृमवि कोई नहीं िानता । उन दोनों ने तीन बार
रततफक्रया की । जिससे बृह्मा ववटणु तिा महे ि हुये । उनमें बृह्मा सबसे बङे । मंझिे ववटणु और सबसे छोिे िंक र
िे । इस प्रकार अटिांगी और तनरं ि न का रतत प्रसंग हुआ । उन दोनों ने एकमतत होकर भोग वविास फकया । तब
वे द की उत्पवि
कबीर साहब बोिे - हे धममदास ! तुम यह ववचार करो । इसके पीछे ऐसा वणमन हो चक
ु ा है फक अजग्न पवन िि
प्रथ्वी और प्रकाि कू मम के उदर से प्रकि हुये । उसके उदर से ये पाँचो अंि लिये । तिा तीनों लसर कािने से सत
रि तम तीनों गुण प्राप्त हुये ।
इस प्रकार पाँच तत्व और तीन गुण प्राप्त होने पर तनरं ि न ने सृजटि रचना की । फफ़र अटिांगी और तनरं ि न के
परस्पर रतत प्रसंग से अटिांगी को गण
ु एवं तत्व समान करके ददये । और अपने अंि उत्पन्न फकये । इस प्रकार
पाँच तत्व और तीन गुण को दे ने से उसने संसार की रचना की ।
वीयम िजक्त की पहिी बूँद से बृह्मा हुये । तब उन्हें रिोगुण और पाँच तत्व ददये । दस
ू री बूँद से ववटणु हुये । उम्हें
सतगुण और पाँच तत्व ददये । तीसरी बूँद से िंक र हुये । तब उन्हें तमोगुण और पाँच तत्व ददये । पाँच तत्व तीन
गण
ु के लमश्रण से बह्
ृ मा ववटणु महे ि के िरीर की रचना हुयी । इसी प्रकार सब िीवों के िरीर की रचना हुयी
। उससे ये पाँच तत्व और तीन गुण पररवतमनिीि और ववकारी होने से बार बार सृि न और प्रिय यानी िीवन
और मरण होता है । सृजटि की रचना के इस आदद रहस्य को वास्तववक रूप से कोई नहीं िानता ।
हे धममदास ! तब तनरं ि न बोिा - हे अटिांगी कालमनी ! मे र ी बात सुन । और िो मैं कहूँ । उसे मानों । अब िीव
बीि सोहंग तुम्हारे पास है । उसके द्वारा सृजटि रचना का प्रकाि करो । हे रानी सुन । अब मैं कै से क्या करूँ ।
आदद भवानी ! बृह्मा ववटणु महे ि तीनों पुि तुमको सौंप ददये । अब मैं ने तो अपना मन सत्यपुरुष की से वा भजक्त
में िगा ददया है । तु म इन तीनों बािकों को िे क र राि करो । परन्तु मे र ा भे द फकसी से न कहना । मे र ा दिमन ये
तीनों पुि न कर सकें गे । चाहे मुझे खोिते खोिते अपना िन्म ही क्यों न समाप्त कर दें ।
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सोच समझकर सब िोगों को ऐसा मत सुदृढ कराना फक सत्यपुरुष का भे द कोई प्राणी िानने न पाये । िब ये
तीनों पुि बुद्धधमान हो िायँ । तब उन्हें समुद्र मंिन का ज्ञान दे क र समुद्र मंिन के लिये भे ि ना ।
इस तरह तनरं ि न ने अटिांगी को बहुत प्रकार से समझाया । और फफ़र अपने आप गप्ु त हो गया । उसने िन्
ू य 0
गफ़
ु ा में तनवास फकया । वह िीवों के ह्रदयाकाि रूपी िन्
ू य 0 गफ़
ु ा में रहता है । तब उसका भे द कौन िे सकता है
?
वह गप्ु त होकर भी सबके साि है । िो सबके भीतर है । उस मन को ही तनरं ि न िानों । िीवों के ह्रदय में रहने
वािा यह मन तनरं ि न सत्यपुरुष परमात्मा के रहस्यमय ज्ञान के प्रतत संदेह उत्पन्न कर उसे लमिाता है । यह
सभी िीवों के ह्रदय में बसने वािा यह मन काि तनरं ि न का ही रूप है । सबके साि रहता हुआ भी ये मन
पूणमतया गुप्त है । और फकसी को ददखाई नहीं दे ता । ये स्वाभाववक रूप से अत्यन्त चंचि है । और सदा सांसाररक
ववषयों की ओर दौङता है । ववषय सुख और भोग प्रवृतत के कारण मन को चैन कहाँ है ? यह तो ददन रात सोते
िागते अपनी अनन्त इच्छाओं की पूततम के लिये भिकता ही रहता है । और मन के विीभूत होने के कारण ही
िीव अिांत और दुखी होता है । इसी कारण उसका पतन होकर िन्म मरण का बंधन बना हुआ है । िीव का मन
ही उसके दुखों भोगों और िन्म मरण का कारण है । अतः मन को वि में करना ही सभी दुखों और िन्म मरण
िीव तिा उसके ह्रदय के भीतर मन दोनों एक साि है । मतवािा और ववषयगामी मन काि तनरं ि न के अंग स्पिम
करने से िीव बुद्धधहीन हो गये । इसी से अज्ञानी िीव कमम अकमम के करते रहने से .. तिा उनका फ़ि भोगते
रहने के कारण ही.. िन्म िन्मांतर तक उनका उद्धार नहीं हो पाता । यह मन काि िीव को सताता है । यह
इजन्द्रयों को प्रे ररत कर ववलभन्न प्रकार के पापकमों में िगाता है । यह स्वयँ पाप पुण्य के कमों की काि कु चाि
कबीर साहब बोिे - हे धममदास ! उसी समय एक तमािा हुआ । तनरं ि न राव ने योग धारण फकया । उसमें उसने
पवन यानी सांस खींचकर पूर क प्राणायाम से आरम्भ कर.. पवन ठहराकर कु म्भक प्राणायाम बहुत दे र तक फकया ।
फफ़र िब तनरं ि न कु म्भक त्यागकर रे चन फक्रया से पवन रदहत हुआ । तब उसकी सांस के साि वे द बाहर तनकिे ।
तब तनरं ि न बोिा - तुम िाकर समुद्र में तनवास करो । तिा जिसका तुमसे भें ि हो । उसके पास चिे िाना । वे द
से ववष की उत्पवि हुयी । इधर चिते हुये वे द वहाँ िा पहुँचे । िहाँ तनरं ि न ने समुद्र की रचना की िी । वे लसंधु
के मध्य में पहुँच गये । तब तनरं ि न ने समुद्र मँिन की युजक्त का ववचार फकया ।
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तब तनरं ि न ने गप्ु त ध्यान से अटिांगी को याद करते हुये समझाया । और कहा - बताओ समुद्र मिने में
तब अटिांगी ने समुद्र मंिन हे तु ववचार फकया । और तीनों बािकों को अच्छी तरह समझा बुझाकर समुद्र मिने के
लिये भे ि ा । उन्हें भे ि ते समय अटिांगी ने कहा - समुद्र से तुम्हें अनमोि वस्तुयें प्राप्त होंगी । इसलिये तुम िल्दी
ही िाओ । यह सुनकर बृह्मा ववटणु और महे ि तीनों बािक चि पङे । और िाकर समुद्र के पास खङे हो गये ।
फफ़र तीनों ने समुद्र मंिन फकया । तीनों को समुद्र से तीन वस्तुयें प्राप्त हुयीं । बृह्मा को वे द । ववटणु को ते ि
और िंक र को हिाहि ववष की प्राजप्त हुयी । ये तीनों वस्तुयें िे क र वे अपनी माता अटिांगी के पास आये । और
खुिी खुिी तीनों वस्तुयें ददखायीं । अटिांगी ने उन्हें अपनी अपनी वस्तु अपने पास रखने की आज्ञा दी । अटिांगी
उसी समय आदद भवानी ने एक चररि फकया । उसने तीन कन्यायें उत्पन्न की । और अपनी उन अंि को समुद्र में
प्रवे ि करा ददया । िब इन तीनों कन्याओं को समुद्र में प्रवे ि कराने के लिये भे ि ा । इस रहस्य को अटिांगी के
तीनों पुि नहीं िान सके । अतः उन्होंने िब समुद्र मंिन फकया । तो समुद्र से तीन कन्यायें तनकिीं । उन्होंने
तब अटिांगी ने कहा - पुिो तुम्हारे सब कायम पूरे हो गये । अटिांगी ने उन तीन कन्याओं को तीनों पुिों को बाँि
ददया । बह्
ृ मा को सावविी । ववटणु को िक्ष्मी । और िंक र को पावमती दी ।
तीनों भाई कालमनी स्िी को पाकर बहुत आनजन्दत हुये । और उन कामतनयों के साि काम के विीभूत होकर
कबीर साहब बोिे - हे धममदास ! तुम यह बात समझो फक िो माता िी । वह अब स्िी हो गयी । अटिांगी ने
इस बार समुद्र में से 14 रत्न तनकिे । उन्होंने रत्न की खान तनकािी । और रत्न िे क र माता के पास पहुँचे ।
तब अटिांगी ने कहा - हे पुिो । अब तुम सजृ टि रचना करो । अण्डि खान की उत्पवि स्वयँ अटिांगी ने की ।
वपण्ड खाने को बृह्मा ने बनाया । ऊटमि खान को ववटणु तिा स्िावर खाने को िंक र ने बनाया । उन्होंने 84 िाख
योतनयों की रचना की । और उनके अनुसार आधा िि आधा िि बनाया । स्िावर खान को एक तत्व का समझो
। और ऊटमि खान को दो तत्व । तीन तत्वों से अण्डि और चार तत्वों से वपण्डि का तनमामण हुआ । पाँच तत्वों
इसके बाद बृह्मा वे द पढने िगे । वे द पढते हुये बृह्मा को तनराकार के प्रतत अनुर ाग हुआ । क्योंफक वे द कहता है ।
पुरुष एक है । और वह तनराकार है । और उसका कोई रूप नहीं है । वह िून्य 0 में ज्योतत ददखाता है । परन्तु
20
दे खते समय उसकी दे ह दृजटि में नहीं आती । उस तनराकार का लसर स्वगम है । और पैर पाताि है । इस वे द मत
से बह्
ृ मा मतवािा हो गया ।
बह्
ृ मा ने ववटणु से कहा - वे द ने मुझे आदद पुरुष को ददखा ददया है । फफ़र ऐसा ही उन्होंने िंक र से भी कहा । वे द
पङने से पता चिता है फक - पुरुष एक है । और सबका स्वामी के वि एक तनराकार पुरुष है । यह तो वे द ने
तब बह्
ृ मा अटिांगी के पास आये । और बोिे - हे माता ! मुझे वे द ने ददखाया । और बताया फक सजृ टि की रचना
करने वािा । हम सबका स्वामी कोई और ही है ? अतः हे माता ! हमें बताओ फक तुम्हारा पतत कौन है ? और
अटिांगी बोिी - हे बृह्मा सुनो । मे रे अततररक्त तुम्हारा अन्य कोई वपता नहीं है । मुझसे ही सब उत्पवि हुयी है ।
अटिांगी बोिी - हे पुि बृह्म कु मार ! मुझसे न्यारा सृजटि रधचयता और कोई नहीं है । मैं ने ही स्वगमिोक
यह सुनकर बृह्मा ने कहा - मैं ने तुम्हारी बात मानी फक तुमने ही सब कु छ फकया है । परन्तु पहिे से ही पुरुष को
गुप्त कै से रख लिया ? िबफक वे द कहता है फक पुरुष एक है । और वह अिख तनरं ि न है । हे माता ! तुम कताम
बनो । आप बनो । परन्तु पहिे वे द की रचना करते समय यह ववचार क्यों नहीं फकया । और उसमें पुरुष को
कबीर साहब बोिे - हे धममदास ! िब इस तरह बृह्मा ने जिद पकङ िी । तो अटिांगी ने अपने मन में ववचार
फकया फक बह्
ृ मा को फकस प्रकार समझाऊँ । िो यह मे र ी मदहमा को..बङाई को नहीं मानता । िो यह बात तनरं ि न
से कहूँ । तो यह फकस प्रकार ठीक से समझेगा ?
तनरं ि न राव ने मुझसे पहिे ही कहा िा फक मे र ा दिमन कोई नहीं पाये गा । अब िो बह्
ृ मा को अिख तनरं ि न के
बारे में कु छ नहीं बताया । तो फकस प्रकार उसे ददखाया िाये । ऐसा ववचार कर अटिांगी ने कहा - अिख तनरं ि न
बह्
ृ मा बोिे - माता ! तुम मुझे सही सही स्िान बताओ । आगे पीछे की उल्िी सीधी बातें करके मुझे न बहिाओ ।
मैं ये बातें नहीं मानता । और न ही मुझे अच्छी िगती हैं ।
पहिे तुमने मुझे बहकाया फक मैं ही सजृ टिकताम हूँ । और मुझसे अिग कु छ भी नहीं है । और अब तुम कहती हो
फक अिख तनरं ि न तो है । पर वह अपना दिमन नहीं ददखाता । क्या उसका दिमन पुि भी नहीं पाये गा । ऐसी पैदा
न होने वािी बात क्यों कहती हो । हे माता ! इसलिये मुझे तुम्हारे कहने पर भरोसा नहीं है । अतः इसी समय
उस कताम का दिमन करा दीजिये । और मे रे संिय को दरू कीजिये । इसमें िरा भी दे र न करो ।
अटिांगी बोिी - हे पुि बृह्मा सुनो । मैं तुमसे सत्य ही कहती हूँ फक उस अिख तनरं ि न के सात स्वगम ही मािा है
। और सात पाताि चरण हैं । यदद तुम्हें उसके दिमन की इच्छा हो । तो हाि में फ़ू ि िे िाकर उसे अवपमत करते
अटिांगी ने अपने मन में ववचार फकया - ये बृह्मा मे र ा कहा मानता नहीं है । ये कहता है फक वे द ने मुझे उपदे ि
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अतः वह बोिी - अरे बािक सुन । अिख तनरं ि न तुम्हारा वपता है । पर तुम उसका दिमन नहीं पा सकते । यह मैं
यह सुनकर बह्
ृ मा ने व्याकु ि होकर माँ के चरणों में लसर रख ददया । और बोिे - मैं वपता का िीि स्पिम व दिमन
करके तुम्हारे पास आता हूँ । यह कहकर बह्
ृ मा उिर ददिा को चिे गये ।
अपनी माता से आज्ञा मांगकर ववटणु भी अपने वपता के दिमनों हे तु पाताि चिे गये । के वि िंक र का मन इधर
बह्
ृ मा और गायिी का अटिांगी से झठ
ू बोिना
इस प्रकार बहुत ददन बीत गये । तब अटिांगी ने सोचा । मे रे गये हुये पुिों बह्
ृ मा और ववटणु ने क्या फकया ।
इसका कु छ पता नहीं िगा । वे अब तक िौिकर क्यों नहीं आये ।
तब सबसे पहिे ववटणु िौिकर माता के पास आये । और बोिे - पाताि में मुझे वपता के चरण तो नहीं लमिे ।
उल्िे मे रा िरीर ववष ज्वािा ( िे षनाग के प्रभाव से ) से श्यामि हो गया । हे माता ! िब मैं वपता तनरं ि न के
दिमन नहीं कर पाया । तो मैं व्याकु ि हो गया । और फफ़र िौि आया । अटिांगी यह सुनकर प्रसन्न हो गयी ।
और ववटणु को दुिारते हुये बोिी - हे पुि ! तुमने तनश्चय ही सत्य कहा है ।
उधर अपने वपता के दिमनों के बे हद इच्छु क बृह्मा चिते चिते उस स्िान पर पहुँच गये । िहाँ न सूयम िा । न
चन्द्रमा के वि िून्य 0 िा । वहाँ बह्
ृ मा ने अने क प्रकार से तनरं ि न की स्तुतत की । िहाँ ज्योतत का प्रभाव िा ।
वहाँ भी ध्यान िगाया । और ऐसा करते हुये बहुत ददन बीत गये । परन्तु बह्
ृ मा को तनरं ि न के दिमन नहीं हुये ।
िून्य 0 में ध्यान करते हुये बृह्मा को अब चार युग बीत गये ।
तब अटिांगी को बहुत धच ंता हुयी फक मैं बृह्मा के त्रबना फकस प्रकार सृजटि रचना करूँ ? और फकस प्रकार उसे वापस
िाऊँ ?
तब अटिांगी ने एक युजक्त सोचते हुये अपने िरीर में उविन िगाकर मैि तनकािा । और उस मैि से एक पुिी
रूपी कन्या उत्पन्न की । उस कन्या में उन्होंने ददव्य िजक्त का अंि लमिाया । और इस कन्या का नाम गायिी
रखा ।
तब गायिी उन्हें प्रणाम करती हुयी बोिी - हे माता ! तुमने मुझे फकस कायम हे तु बनाया है ? वह आज्ञा कीजिये ।
अटिांगी बोिी - हे पुिी ! मे र ी बात सुनो । बह्
ृ मा तुम्हारा बङा भाई है । वह वपता के दिमन हे तु िू न्य 0 आकाि की
ओर गया है । उसे बुिाकर िाओ । वह चाहे अपने वपता को खोिते खोिते सारा िन्म गवां दे । पर उनके दिमन
नही कर पाये गा । अतः तुम जिस ववधध से चाहो । कोई उपाय करके उसे बुिाकर िाओ ।
तब गायिी बताये अनुसार बह्
ृ मा के पास पहुँची ।
तो उसने दे खा - ध्यान में िीन बह्
ृ मा अपनी पिक तक नहीं झपकाते िे । वह कु छ ददन तक यही उपाय सोचती
रही फक फकस ववधध द्वारा बृह्मा का ध्यान से ध्यान हिाकर अपनी ओर आकवषमत फकया िाय । फफ़र उसने
अटिांगी का ध्यान फकया ।
तब अटिांगी ने ध्यान में गायिी को आदे ि ददया फक अपने हाि से बह्
ृ मा को स्पिम करो । तब वह ध्यान से
िागेंगे । गायिी ने ऐसा ही फकया । और बह्
ृ मा के चरण कमिों का स्पिम फकया ।
22
बह्
ृ मा ध्यान से िाग गया । और उसका मन भिक गया । तब वह व्याकु ि होकर बोिा - तू ऐसी कौन सी पापी
अपराधी है । िो मे र ी ध्यान समाधध छु ङायी । मैं तुझे िाप दे ता हूँ । क्योंफक तूने आकर वपता के दिमन का मे र ा
ध्यान खंङडत कर ददया ।
तब गायिी बोिी - मुझसे कोई पाप नहीं हुआ है । पहिे तुम सब बात समझ िो । तब मुझे िाप दो । मैं सत्य
कहती हूँ । तुम्हारी माता ने मुझे तुम्हारे पास भे ि ा है । अतः िीघ्र चिो । तुम्हारे त्रबना सृजटि का ववस्तार कौन
करे ।
बृह्मा बोिे - मैं माता के पास फकस प्रकार िाऊँ । अभी मुझे वपता के दिमन भी नहीं हुये हैं ।
गायिी बोिी - तुम वपता के दिमन कभी नहीं पाओगे । अतः िीघ्र चिो । वरना पछताओगे ।
बृह्मा बोिे - मैं तुम्हारी स्वािम वािी बात समझा नहीं । अतः मुझे स्पटि कहो ।
गायिी बोिी - यदद तुम मुझे रततदान दो । यानी मे रे साि कामक्रीङा करो । तो मैं ऐसा कह सकती हूँ ।
बृह्मा ववचार करने िगे फक इस समय क्या उधचत होगा ? यदद मैं इसकी बात नहीं मानता । तो ये गवाही नहीं
दे गी । और माता मुझे मुझे धधक्कारे गी फक न तो मैं ने वपता के दिमन पाये । और न कोई कायम लसद्ध हुआ
। अतः मैं इसके प्रस्ताव में पाप को ववचारता हूँ । तो मे र ा काम नहीं बनता । इसलिये रततदान दे ने की इसकी
इच्छा पूर ी करनी ही चादहये ।
ऐसा ही तनणमय करते हुये बृह्मा और गायिी ने लमिकर ववषय भोग फकया । उन दोनों पर रततसुख का रं ग प्रभाव
ददखाने िगा । बृह्मा के मन में वपता को दे खने की िो इच्छा िी । उसे वह भूि गया । और दोनों के ह्रदय में
काम ववषय की उमंग बङ गयी । फफ़र दोनों ने लमिकर छिपूणम बुद्धध बनायी ।
हैं ।
बह्
ृ मा बोिे - यह तो बहुत अच्छी बात है । तुम वही करो । जिस पर माता ववश्वास करे ।
तब गायिी ने साक्षी उत्पन्न करने हे तु अपने िरीर से मैि तनकािा । और उसमें अपना अंि लमिाकर एक कन्या
बनायी । बृह्मा ने उस कन्या का नाम सावविी रखवाया । तब गायिी ने सावविी को समझाया फक तुम चिकर
बृह्मा बोिे - हे माता ! ये दोनों साक्षी है फक मैं ने वपता के दिमन पाये । इन दोनों के सामने मैं ने वपता का िीि
स्पिम फकया है ।
तब अटिांगी बोिी - हे गायिी ! ववचार करके कहो फक तुमने अपनी आँखों से क्या दे खा है ? सत्य बताओ । बृह्मा
गायिी बोिी - बृह्मा ने वपता के िीि का दिमन पाया है । ऐसा मैं ने अपनी आँखों से दे खा है फक बृह्मा अपने
वपता तनरं ि न से लमिे । हे माता ! यह सत्य है । बृह्मा ने अपने वपता पर फ़ू ि चङाये । और उन्हीं फ़ू िों से यह
पुहुपावती उस स्िान से प्रकि हुयी । इसने भी वपता का दिमन पाया है । आप इससे पूछ के दे णखये । इसमें रिी
भर भी झठ
ू नहीं है ।
अटिांगी बोिी - हे पुहुपावती ! मुझसे सत्य कहो । और बताओ । क्या बृह्मा ने वपता के लसर पर पुटप चङाया ।
पुहुपावती ने कहा - हे माता ! मैं सत्य कहती हूँ । चतुमुमख बृह्मा ने वपता के िीि के दिमन फकये । और िांत एवं
इस झठ
ू ी गवाही को सुनकर अटिांगी परे िान हो गयी । और ववचार करने िगी ।
अटिांगी का बह्
ृ मा गायिी और पुहुपावती को िाप दे ना
अटिांगी को ये िानकर बे हद आश्चयम हुआ फक बृह्मा ने तनरं ि न के दिमन पा लिये हैं । िबफक अिख तनरं ि न ने
तो ऐसी प्रततज्ञा कर रखी है फक उसे कोई आँखों से दे ख नहीं पाये गा । फफ़र ये तीनों िबारी झि
ू े कपिी कै से कहते
हैं फक उन्होंने तनरं ि न को दे खा है । तब उसी क्षण अटिांगी ने ध्यान फकया ।
इस पर तनरं ि न उसके ध्यान में बोिा - मुझे सत्य बताओ ।
फफ़र तनरं ि न ने कहा - बृह्मा ने मे र ा दिमन नहीं पाया । उसने तुम्हारे पास आकर झठ
ू ी गवाही ददिवायी । उन
तीनों ने झठ
ू बनाकर सब कहा है । वह सब मत मानों । वह झठ
ू है ।
अटिांगी को यह सुनकर बहुत क्रोध आया । और उन्होंने बृह्मा को िाप ददया - हे बृह्मा ! तुमने मुझसे आकर झठ
ू
बोिा । अतः कोई तुम्हारी पि
ू ा नहीं करे गा । एक तो तुम झठ
ू बोिे । और दस
ू रे तुमने न करने योग्य कमम यानी
दुटकमम करके बहुत बङा पाप अपने लसर िे लिया है ।
आगे िो भी तुम्हारी िाखा संततत होगी । वह बहुत झठ
ू और पाप करे गी । तुम्हारी संततत ( बृह्मा के वंि अिवा
बृह्मा के नाम से पुक ारे िाने वािे ब्राह्मण ) प्रकि में तो बहुत तनयम धमम वृत उपवास पूि ा िुधच आदद करें गे ।
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परन्तु उनके मन में भीतर पाप मैि का ववस्तार रहे गा । वे तुम्हारी संतान ववटणु भक्तों से अहंक ार करें गी ।
इसलिये नरक को प्राप्त होंगी । तुम्हारे वंि वािे पुर ाणों की धमम किाओं को िोगों को समझायेंगे । परन्तु स्वयँ
उसका आचरण न करके दुख पायेंगे । उनसे िो और िोग ज्ञान की बात सुनेंगे । उसके अनुसार वे भजक्त कर
सत्य को बतायेंगे । ब्राह्मण परमात्मा का ज्ञान और भजक्त को छोङकर दस
ू रे दे वताओं को ईश्वर का अंि बताकर
उनकी भजक्त पि
ू ा करायेंगे । औरों की तनंदा करके ववकराि काि के मुँह में िायेंगे ।
अने क दे वी दे वताओं की बहुत प्रकार से पूि ा करके यिमानों से दक्षक्षणा िेंगे । और दक्षक्षणा के कारण पिु बलि में
पिुओ ं का गिा किवायेंगे । या दक्षक्षणा के िािच में यिमानों को बे बकू फ़ बनायेंगे । फफ़र वे जिसको लिटय
बनायेंगे । उसे भी परमािम या कल्याण का रास्ता नहीं ददखायेंगे । परमािम के तो वे पास भी नहीं िायेंगे । परन्तु
स्वािम के लिये वे सबको अपनी बात समझायेंगे । वे आप स्वािी होकर सबको अपनी स्वािम लसद्ध का ज्ञान
सुनायेंगे । और संसार में अपनी से वा पूि ा मिबूत करें गे । अपने आपको ऊँचा और औरों को छोिा कहें गे । इस
प्रकार हे बृह्मा ! ते रे वंिि ते रे ही िैसे झठ
ू े और कपिी होंगे ।
अटिांगी का ऐसा िाप सुनकर बह्
ृ मा मूतछम त होकर धगर पङे ।
फफ़र अटिांगी ने गायिी को िाप ददया - हे गायिी ! बह्
ृ मा के साि कामभावना से हो िाने से मनुटय िन्म में ते रे
पाँच पतत होंगे । हे गायिी ! ते रे गाय रूपी िरीर में बैि पतत होंगे । और वे सात पाँच से भी अधधक होंगे । पिु
योतन में तू गाय बनकर िन्म िे गी । और न खाने योग्य पदािम खाये गी । तुमने अपने स्वािम के लिये मुझसे झठ
ू
बोिा । और झठ
ू े वचन कहे । क्या सोचकर तुमने झठ
ू ी गवाही दी ?
गायिी ने अपनी गिती मानकर िाप को स्वीकार कर लिया । इसके बाद अटिांगी ने सावविी की ओर दे खा । और
बोिी - तुमने अपना नाम तो सुन्दर पुहुपावती रखवा लिया । परन्तु झठ
ू बोिकर तुमने अपने िन्म का नाि कर
लिया । हे पुहुपावती ! सुन । तुम्हारे ववश्वास पर । तुमसे कोई आिा रखकर कोई तुम्हें नहीं पूिे गा । अब दुगध
ं
के स्िान पर तुम्हारा वास होगा । काम ववषय की आिा िे क र अब नरक की यातना भोगो । िान बूझकर िो
तुम्हें सींचकर िगाये गा । उसके वंि की हातन होगी । अब तुम िाओ । और वक्ष
ृ बनकर िन्मों । तुम्हारा नाम
केवङा केतकी होगा ।
कबीर साहब बोिे - हे धममदास ! माता अटिांगी के िाप के कारण तीनों बृह्मा गायिी और सावविी बहुत दुखी हो
गये । अपने पापकमम से वे बुद्धधहीन और दुबमि हो गये । काम ववषय में प्रवत
ृ कराने वािी कालमनी स्िी काि रूप
काम ( वासना की इच्छा ) की अतत तीवृ किा है । इसने सबको अपने िरीर के सुन्दर चमम से डसा है । िंक र
बृह्मा सनकादद और नारद िैसे कोई भी इससे बच नहीं पाये ।
हे धममदास ! इससे कोई त्रबरिा ही सन्त साधक बच पाता है । िो सदगुरु के सत्य िब्दों को भिी प्रकार अपनाता
है । सदगुरु के िब्द प्रताप से ये काि किा मनुटय को नहीं व्यापती । अिामत कोई हातन नहीं करती । िो कल्याण
की इच्छा रखने वािा भक्त मन वचन कमम से सतगरु
ु के श्री चरणों की िरण गहृ ण करता है । पाप उसके पास
नहीं आता ।
कबीर साहब आगे बोिे - हे धममदास ! बृह्मा ववटणु महे ि तीनों को िाप दे ने के बाद अटिांगी माता मन में पछताने
िगी । उसने सोचा । िाप दे ते समय मुझे त्रबिकु ि दया नहीं आयी । अब न िाने तनरं ि न मे रे साि कै सा व्यवहार
करे गा ?
उसी समय आकािवाणी हुयी - हे भवानी ! तुमने यह क्या फकया ? मैं ने तो तुम्हें सृजटि की रचना के लिये भे ि ा िा
। परन्तु तुमने िाप दे क र यह कै सा चररि फकया ? हे भवानी ! ऊँचा और बिबान ही तनबमि को सताता है । और
यह तनजश्चत है फक वह इसके बदिे दुख पाता है । इसलिये िब द्वापर युग आये गा । तब तुम्हारे भी पाँच पतत
होंगे ।
िब भवानी ने अपने िाप के बदिे तनरं ि न का िाप सुना । तो मन में सोच ववचार फकया । पर मुँह से कु छ न
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बोिी । वह सोचने िगी - मैं ने बदिे में िाप पाया । हे तनरं ि न राव ! मैं तो ते रे वि में हूँ । िैसा चाहो । व्यवहार
करो ।
फफ़र अटिांगी ने ववटणु को दुिारते हुये कहा - हे पुि ! तुम मे र ी बात सुनो । सच सच बताओ । िब तुम वपता के
चरण स्पिम करने गये । तब क्या हुआ ? पहिे तो तुम्हारा िरीर गोरा िा । तुम श्याम रं ग कै से हो गये ?
ववटणु ने कहा - हे माता ! वपता के दिमन हे तु िब मैं पाताििोक पहुँचा । तो िे षनाग के पास पहुँच गया । वहां
उसके ववष के ते ि से मैं सुस्त ( अचेत सा ) हो गया । मे रे िरीर में उसके ववष का ते ि समा गया । जिससे वह
श्याम हो गया ।
तब एक आवाि हुयी - हे ववटणु ! तुम माता के पास िौि िाओ । यह मे र ा सत्य वचन है फक िैसे ही सतयुग
िेतायुग बीत िायेंगे । तब द्वापर में तुम्हारा कृ टण अवतार होगा । उस समय तुम िे षनाग से अपना बदिा िोगे
। तब तुम यमुना नदी पर िाकर नाग का मान मदमन करोगे । यह मे र ा तनयम है फक िो भी ऊँचा नीचे वािे को
सताता है । उसका बदिा वह मुझसे पाता है । िो िीव दस
ू रे को दुख दे ता है । उसे मैं दुख दे ता हूँ । हे माता !
उस आवाि को सुनकर मैं तुम्हारे पास आ गया । यही सत्य है । मुझे वपता के श्री चरण नहीं लमिे ।
भवानी यह सुनकर प्रसन्न हो गयी । और बोिी - हे पुि सुनो ! मैं तुम्हें तुम्हारे वपता से लमिाती हूँ । और तुम्हारे
मन का भृम लमिाती हूँ । पहिे तुम बाहर की स्िि
ू दृजटि ( िरीर की आँखें ) छोङकर । भीतर की ज्ञान दृजटि (
अन्तर की आँख । तीसरी आँख ) से दे खो । और अपने ह्रदय में मे र ा वचन परखो ।
स्िि
ू दे ह के भीतर सूक्ष्म मन के स्वरूप को ही कताम समझो । मन के अिावा दस
ू रा और फकसी को कताम न मानों
।
यह मन बहुत ही चंचि और गततिीि है । यह क्षण भर में स्वगम पाताि की दौङ िगाता है । और स्वछन्द होकर
सब ओर ववचरता है । मन एक क्षण में अनन्त किा ददखाता है । और इस मन को कोई नहीं दे ख पाता । मन
को ही तनराकार कहो । मन के ही सहारे ददन रात रहो ।
हे ववटणु ! बाहरी दतु नयाँ से ध्यान हिाकर अंतमुमखी हो िाओ । और अपनी सु र तत और दृजटि को पििकर भक
ृ ु दि के
मध्य ( भोहों के बीच आज्ञा चक्र ) पर या ह्रदय के िून्य में ज्योतत को दे खो । िहाँ ज्योतत णझिलमि झािर सी
प्रकालित होती है ।
तब ववटणु ने अपनी स्वांस को घुमाकर भीतर आकाि की ओर दौङाया । और ( अंतर ) आकाि मागम में ध्यान
िगाया । ववटणु ने ह्रदय गफ़
ु ा में प्रवे ि कर ध्यान िगाया । ध्यान प्रफकया में ववटणु ने पहिे स्वांस का संयम
प्राणायाम से फकया । कु म्भक में िब उन्होंने स्वांस को रोका । तो प्राण ऊपर उठकर ध्यान के के न्द्र िून्य 0 में
आया । वहाँ ववटणु को अनहद नाद की गिमना सुनाई दी । यह अनहद बािा सुनते हुये ववटणु प्रसन्न हो गये । तब
मन ने उन्हें सफ़ेद िाि कािा पीिा आदद रं गीन प्रकाि ददखाया ।
हे धममदास ! इसके बाद ववटणु को ..मन ने अपने आपको ददखाया । और ज्योतत प्रकाि फकया । जिसे दे खकर वह
प्रसन्न हो गये । और बोिे - हे माता ! आपकी कृ पा से आि मैं ने ईश्वर को दे खा ।
तब धममदास चौंककर बोिे - हे सदगुरु कबीर साहब ! यह सुनकर मे रे भीतर एक भृम उत्पन्न हुआ है । अटिांगी
कन्या ने िो मन का ध्यान ? बताया । इससे तो समस्त िीव भरमा गये हैं ? यानी भम
ृ में पङ गये हैं ?? ( इस
बात पर वविे ष गौर करें )
तब कबीर सादहब बोिे - हे धममदास ! यह काि तनरं ि न का स्वभाव ही है फक इसके चक्कर में पङने से ववटणु
सत्यपुरुष का भे द नहीं िान पाये । ( तनरं ि न ने अटिांगी को पहिे ही सचेत कर आदे ि दे ददया िा फक सत्यपुरुष
का कोई भे द िानने न पाये । ऐसी माया फ़ैिाना ) अब उस कालमनी अटिांगी की यह चाि दे खो फक उसने
अमत
ृ स्वरूप सत्यपुरुष को छु पाकर ववष रूप काि तनरं ि न को ददखाया ।
जिस ज्योतत का ध्यान अटिांगी ने बताया । उस ज्योतत से काि तनरं ि न को दस
ू रा न समझो । हे धममदास ! अब
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तुम यह वविक्षण गढ
ू सत्य सुनो । ज्योतत का िैसा प्रकि रूप होता है । वैसा ही गप्ु त रूप भी है । िो ह्रदय के
भीतर है । वह ही बाहर दे खने में भी आता है ।
िब कोई मनुटय दीपक ििाता है । तो उस ज्योतत के भाव स्वभाव को दे खो । और तनणमय करो । उस ज्योतत को
दे खकर पतंगा बहुत खुि होता है । और प्रे मवि अपना भिा िानकर उसके पास आता है । िे फकन ज्योतत को
स्पिम करते ही पतंगा भस्म हो िाता है । इस प्रकार अज्ञानता में मतबािा हुआ वह पतंगा उसमें िि मरता है ।
ज्योतत स्वरूप काि तनरं ि न भी ऐसा ही है । िो भी िीवात्मा उसके चक्कर में आ िाता है । क्रू र काि उसे
छोङता नहीं ।
इस काि ने करोंङो ववटणु अवतारों को खाया । और अने क ों बृह्मा िंक र को खाया । तिा अपने इिारे पर नचाया
। काि द्वारा ददये िाने वािे िीवों के कौन कौन से दख
ु को कहूँ ? वह िाखों िीव तनत्य ही खाता है । ऐसा वह
भयंक र काि तनदमयी है ।
तब धममदास बोिे - हे सादहब ! मे रे मन में एक संिय है । अटिांगी को सत्यपुरुष ने उत्पन्न फकया िा । और
जिस प्रकार उत्पन्न फकया । वह सब किा मैं ने िानी । काि तनरं ि न ने उसे भी खा लिया । फफ़र वह सत्यपुरुष के
प्रताप से बाहर आयी ।
फफ़र उस अटिांगी ने ऐसा धोखा क्यों फकया फक काि तनरं ि न को तो प्रकि फकया । और सत्यपुरुष का भे द गुप्त
रखा ? यहाँ तक फक सत्यपुरुष का भे द उसने अपने पुिों बृह्मा ववटणु महे ि को भी नहीं बताया । और उनसे भी
काि तनरं ि न का ध्यान कराया । यह अटिांगी ने कै सा चररि फकया फक सत्यपुरुष को छोङकर काि तनरं ि न की
सािी हो गयी । अिामत जिन सत्यपुरुष का वह अंि िी । उसका ध्यान क्यों नहीं कराया ?
कबीर साहब बोिे - हे धममदास सुनो । नारी का स्वभाव िैसा होता है । वह अब तुम्हें बताता हूँ । जिसके घर में
पुिी होती है । वह अने क ितन करके उसे पािता पोसता है । वह उसे पहनने को वस्ि । खाने को भोिन । सोने
को िैय्या । रहने को घर आदद सब सु ख दे ता है । और घर बाहर सब िगह उस पर ववश्वास करता है । उसके
माता वपता उसके दहत में यज्ञ आदद करा के वववाह करते हुये ववधधपव
ू मक उसे ववदा करते हैं । माता वपता के घर से
ववदा होकर िब वह अपने पतत के घर आ िाती है । तो उसके साि सब गुणों में होकर प्रे म में इतनी मगन हो
िाती है फक अपने माता वपता सबको भुिा दे ती है ।
हे धममदास ! नारी का यही स्वभाव है । इसलिये नारी स्वभाववि अटिांगी भी पराये स्वभाव वािी ही हो गयी । वह
काि तनरं ि न के साि होकर उसी की होकर रह गयी । और उसी के रं ग में रं ग गयी । इसीलिये उसने सत्यपुरुष
का भे द प्रकि नहीं फकया । और अपने पुि ववटणु को काि तनरं ि न का ही रूप ददखाया ।
तब धममदास बोिे - हे सादहब ! यह रहस्य तो मैं ने िान लिया । अब आगे का रहस्य बताओ । आगे क्या हुआ ?
कबीर साहब बोिे - अटिांगी ने ववटणु को प्यार फकया । और कहा । मे रे बङे पुि बृह्मा ने तो व्यलभचार और झठ
ू
से अपनी मान मयामदा खो दी । हे पुि ववटणु ! अब सब दे वताओं में तुम्ही ईश्वर होगे । सब दे वता तुम्ही को श्रेटठ
मानेंगे । और तुम्हारी पि
ू ा करें गे । जिसकी इच्छा तुम मन में करोगे । वह कायम मैं परू ा करूँगी ।
फफ़र अटिांगी िंक र के पास गयीं । और बोिी - हे लिव ! तुम मुझसे अपने मन की बात कहो । तुम िो चाहते हो
वह मुझसे मांगो । अपने दोनों पुिों को तो मैं ने उनके कमामनुसार दे ददया है ।
27
तब िंक र िी ने हाि िोङकर कहा - हे माता ! िैसा तुमने कहा । वह मुझे दीजिये । मे र ा यह िरीर कभी नटि न
हो । ऐसा वर दीजिये ।
अटिांगी ने कहा - ऐसा नहीं हो सकता । क्योंफक आदद पुरुष के अिावा कोई दस
ू रा अमर नहीं हुआ । तुम प्रे मपूवमक
प्राण पवन का योग संयम करके योग तप करो । तो चार युग तक तुम्हारी दे ह बनी रहे गी । तब िहाँ तक प्रथ्वी
आकाि होगा । तुम्हारी दे ह कभी नटि नहीं होगी ।
ववटणु और महे ि ऐसा वर पाकर बहुत प्रसन्न हुये । पर बृह्मा बहुत उदास हुये । तब वह ववटणु के पास पहुँचे ।
और बोिे - हे भाई ! माता के वरदान से तुम दे वताओं में प्रमुख और श्रेटठ हो । माता तुम पर दयािु हुयी । पर
मैं उदास हूँ । अब मैं माता को क्या दोष दँ ू । यह सब मे र ी ही करनी का फ़ि है । तुम कोई ऐसा उपाय करो ।
जिससे मे रा वंि भी चिे । और माता का िाप भी भंग न हो ।
तब ववटणु बोिे - हे भाई बृह्मा ! तुम मन का भय और दुख त्याग दो फक माता ने मुझे श्रेटठ पद ददया है । मैं
सदा तुम्हारे साि तुम्हारी से वा करूँगा । तुम बङे हो । और मैं छोिा हूँ । अतः तुम्हारा मान सम्मान बराबर करूँगा
। िो कोई मे र ा भक्त होगा । वह तुम्हारे भी वंि की से वा करे गा ।
हे भाई ! मैं संसार में ऐसा मत ववश्वास बना दँ ग
ू ा फक िो कोई पुण्य फ़ि की आिा करता हो । और उसके लिये
वह िो भी यज्ञ धमम पूि ा वृत आदद िो भी कायम करता हो । वह त्रबना ब्राह्मण के नहीं होंगे । िो ब्राह्मणों की
से वा करे गा । उस पर महापुण्य का प्रभाव होगा । वह िीव मुझे बहुत प्यारा होगा । और मैं उसे अपने समान बैकुं ठ
में रखग
ूँ ा ।
यह सुनकर बह्
ृ मा बहुत प्रसन्न हुये । ववटणु ने उनके मन की धच ंता लमिा दी । बह्
ृ मा ने कहा । मे र ी भी यही चाह
िी फक मे र ा वंि सुखी हो ।
कबीर साहब बोिे - हे धममदास ! काि तनरं ि न के फ़ैिाये िाि का ववस्तार दे खो । उसने खानी वाणी के मोह से
मोदहत कर सारे संसार को ठग लिया । और सब इसके चक्कर में पङकर अपने आप ही इसके बंधन में बँध गये ।
तिा परमात्मा को । स्वयँ को । अपने कल्याण को भि
ू ही गये । यह काि तनरं ि न ववलभन्न सुख भोग आदद तिा
स्वगम आदद का िािच दे क र सब िीवों को भरमाता है । और उनसे भांतत भांतत के कमम करवाता है । फफ़र उन्हें
िन्म मरण के झि
ू े में झुिाता हुआ बहु भांतत कटि दे ता है ।
** खानी और वाणी बँधन क्या है - स्िी । पतत । पुि । पुिी । पररवार । धन संपवि आदद को ही सब कु छ मानना
खानी बँधन है । तिा भत
ू । प्रे त । स्वगम । नरक । मान । अपमान आदद कल्पनायें करते हुये ववलभन्न धच ंतन
करना वाणी का बंधन है । क्योंफक मन इन दोनों िगह ही िीव को अिकाये रखता है ।
सन्तमत में खानी बंधन को मोिी माया और वाणी बंधन को झीनी माया कहते हैं । त्रबना ज्ञान के इन बंधनों से
छू ि पाना िीव के लिये बे हद कदठन होता है ।
खानी बंधन के अंतगमत मोिी माया को त्याग करते तो बहुत िोग दे खे गये हैं । आि भी करते हैं । परन्तु झीनी
माया का त्याग ववरिे ही कर पाते हैं ।
- मोिी माया सब तिें । झीनी तिी न िाय । मान बङाई ईटयाम । फफ़र िख चौरासी 84 िाये ।
कामना वासना रूपी झीनी माया का बंधन बहुत ही िदिि है । इसने सभी को भम
ृ में फ़ँ सा रखा है । इसके िाि
में फ़ँसा कभी जस्िर नहीं हो पाता । अतः यह काि तनरं ि न सब िीवों को अपने िाि में फ़ँ साकर बहुत सताता है
।
रािा बलि । हररश्चन्द्र । वे णु । ववरोचन । कणम । युधधटठर आदद और भी प्रथ्वी के प्राणणयों का दहत धच ंतन करने
वािे फकतने त्यागी और दानी रािा हुये । इनको काि तनरं ि न ने फकस दे ि में िे िाकर रखा ?? यानी ये सब भी
काि के गाि में ही समा गये । काि तनरं ि न ने इन सभी रािाओं की िो दद
ु मिा की । वह सारा संसार ही िानता
है फक ये सब वे वि होकर काि के अधीन िे ।
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संसार िानता है फक काि तनरं ि न से अिग न हो पाने के कारण उनके ह्रदय की िुद्धध नहीं हुयी । काि तनरं ि न
बहुत प्रबि है । उसने सबकी बुद्धध हर िी है । ये काि तनरं ि न अलभमानी मन हुआ िीवों की दे ह के भीतर ही
रहता है । उसके प्रभाव में आकर िीव मन की तरं ग में ववषय वासना में भूिा रहता है । जिससे वह अपने
कल्याण के साधन नहीं कर पाता । तब ये अज्ञानी भृलमत िीव अपने घर अमरिोक की तरफ़ पििकर भी नहीं
दे खता । और सत्य से सदा अंि ान ही रहता है ।
धममदास बोिे - हे सादहब ! आपकी कृ पा से मैं ने यम यानी काि तनरं ि न का धोखा तो पहचान लिया है । अब आप
बताओ फक गायिी के िाप का आगे क्या हुआ ?
कबीर साहब बोिे - हे वप्रय धममदास सुनो । मैं तुम्हारे सामने अगम ( िहाँ पहुँचना या िानना असंभव िैसा हो )
ज्ञान कहता हूँ । गायिी ने अटिांगी द्वारा ददया हुआ िाप स्वीकार तो कर लिया । पर उसने भी पििकर अटिांगी
माता को िाप ददया फक हे माता ! मनुटय िन्म में िब मैं पाँच पुरुषों की पत्नी बनूँ । तो उन पुरुषों की माता तुम
बनो ।
उस समय तुम त्रबना पुरुष के ही पुि उत्पन्न करोगी । और इस बात को संसार िाने गा । आगे द्वापर युग आने
पर दोनों ने गायिी ने द्रोपदी और अटिांगी ने कु न्ती के रूप में दे ह धारण की । और एक दस
ू रे के िाप का फ़ि
भुगता ।
िब यह िाप और उसका झगङा समाप्त हो गया । तब फफ़र से िगत की रचना हुयी । बृह्मा ववटणु महे ि और
अटिांगी इन चारों ने अण्डि वपण्डि ऊटमि और स्िावर इन चार खातनयों को उत्पन्न फकया । फफ़र 4 खातनयों के
अंतगमत लभन्न लभन्न स्वभाव की 84 िाख योतनयाँ उत्पन्न की ।
सबसे पहिे अटिांगी ने अण्डि - यानी अंडे से उत्पन्न होने वािे िीव खातन की रचना की । बृह्मा ने वपण्डि -
यानी िरीर के अन्दर गभम से उत्पन्न होने वािे िीव खातन की रचना की । ववटणु ने ऊटमि - यानी मैि ।
पसीना । पानी आदद से उत्पन्न होने वािे िीव खातन की रचना की । िंक र ने स्िावर - यानी वक्ष
ृ । िङ । पहाङ
। घास । बे ि आदद िीव खातन की रचना की । इस तरह से चारों खातनयों को इन चारों ने रच ददया । और उसमें
िीव को बँधन में डाि ददया ।
फफ़र प्रथ्वी पर खेती आदद होने िगी । तिा समयानुसार िोग कारण करण और कताम को समझने िगे । इस प्रकार
चार खानों की चौरासी का ववस्तार हो गया । इन चार खातनयों को बोिने के लिये चार प्रकार की वाणी दी गयी ।
बह्
ृ मा ववटणु महे ि और अटिांगी द्वारा सजृ टि रचना होने के कारण िीव उन्हीं को सब कु छ समझने िगे । और
सत्यपुरुष की तरफ़ से भूिे रहे ।
धममदास बोिे - हे सादहब ! जिन चार खानों की उत्पवि हुयी । आप उनका वणमन मुझे बतायें । 84 िाख योतनयों
की िो ववकराि धारायें हैं । उनमें फकस योतन का फकतना ववस्तार हुआ । वह भी बतायें ।
कबीर साहब बोिे - हे धनी धममदास सुनो । मैं तुम्हें योतन भाव का वणमन सुनाता हूँ ।
84 िाख योतनयों में 9 िाख िि के िीव हैं । और 14 िाख पक्षी होते हैं । उङने रें गने वािे कृ लम कीि आदद 27
िाख होते हैं । वृक्ष बे ि फ़ू ि आदद स्िावर 30 िाख होते हैं । और 4 िाख प्रकार के मनुटय हुये । इन सब
योतनयों में मनुटय दे ह सबसे श्रेटठ है । क्योंफक इसी से मोक्ष को िाना समझा और प्राप्त फकया िा सकता है ।
29
मनुटय योतन के अततररक्त और फकसी योतन में मोक्ष पद या परमात्मा का ज्ञान नहीं होता । क्योंफक और योतन के
तब धममदास बोिे - हे सादहब ! िब सभी योतनयों के िीव एक समान हैं । तो फफ़र सभी िीवों को एक सा ज्ञान
क्यों नहीं है ?
कबीर सादहब बोिे - हे धममदास ! सुनो । िीवों की इस असमानता की विह तुम्हें समझाकर कहता हूँ । चार खातन
के िीव एक समान हैं । परन्तु उनकी िरीर रचना में तत्व वविे ष का अन्तर है । स्िावर खातन में लसफ़म एक ही
तत्व होता है । ऊटमि खातन में दो तत्व होते हैं । अण्डि खातन में तीन तत्व और वपण्डि खातन में चार तत्व
होते हैं । इनसे अिग मनुटय िरीर में 5 तत्व होते हैं ।
हे धममदास ! अब चार खातन का तत्व तनणमय भी िानों । अण्डि खातन में 3 तत्व - िि अजग्न और वायु हैं ।
स्िावर खातन में एक तत्व िि वविे ष है । ऊटमि खातन में दो तत्व वायु तिा अजग्न बराबर समझो । वपण्डि
खातन में 4 तत्व अजग्न प्रथ्वी िि और वायु वविे ष हैं । वपण्डि खातन में ही आने वािा मनुटय - अजग्न वायु
तब धममदास बोिे - हे बन्दीछोङ ! सदगुरु कबीर सादहब.. मनुटय योतन में नर नारी तत्वों में एक समान हैं । परन्तु
सबको एक समान ज्ञान क्यों नहीं है । संतोष । क्षमा । दया । िीि । आदद सदगुणों से कोई मनुटय तो िून्य 0
होता है । तिा कोई इन गुणों से पररपूणम होता है । कोई मनुटय पाप कमम करने वािा अपराधी होता है । तो कोई
ववद्वान । कोई दस
ू रों को दुख दे ने वािे स्वभाव का होता है । तो कोई अतत क्रोधी काि रूप होता है । कोई मनुटय
फकसी िीव को मारकर उसका आहार करता है । तो कोई िीवों के प्रतत दया भाव रखता है । कोई आध्यात्म की
बात सुनकर सुख पाता है । तो कोई काि तनरं ि न के गुण गाता है । हे सादहब मनुटयों में यह नाना गुण फकस
कबीर सादहब बोिे - हे धममदास ! सुनो । मैं तुमसे मनुटय योतन के नर नारी के गुण अवगुण को भिी प्रकार से
कहता हूँ । फकस कारण से मनुटय ज्ञानी और अज्ञानी भाव वािा होता है । वह पहचान सुनो ।
िे र । साँप । कु िा । गीदङ । लसयार । कौवा । धगद्ध । सुअ र । त्रबल्िी तिा इनके अिावा और भी अने क िीव हैं
। िो इनके समान दहंसक । पाप योतन । अभक्ष्य माँस आदद खाने वािे दटु कमी । नीच गण
ु ों वािे समझे िाते हैं ।
इन योतनयों में से िो िीव आकर मनुटय योतन में िन्म िे ता है । तो भी उसके पीछे की योतन का स्वभाव नहीं
छू िता । उसके पव
ू म कमों का प्रभाव उसको अभी प्राप्त मानव योतन में भी बना रहता है । अतः वह मनुटय दे ह
पाकर भी पव
ू म के से कमों में प्रवत
ृ रहता है । ऐसे पिु योतनयों से आये िीव नर दे ह में होते हुये भी प्रत्यक्ष पिु ही
ददखायी दे ते हैं ।
हे धममदास ! मनुटय योतन में िन्म िे क र ऐसे स्वभाव को मे िने का एक ही उपाय है फक फकसी प्रकार सौभाग्य से
सदगुरु लमि िायँ । तो वे ज्ञान द्वारा अज्ञान से उत्पन्न इस प्रभाव को नटि कर दे ते हैं । और फफ़र मनुटय काग
दिा ( ववटठा मि आदद के समान वासनाओं की चाहत ) के प्रभाव को भूि िाता है । उसका अज्ञान पूर ी तरह
समाप्त हो िाता है ।
30
तब हे भाई ! पूवम पिु योतन और अभी की मनुटय योतन का यह द्वंद छू ि िाता है । श्री सदगुरुदे व ज्ञान के आधार
हैं । वे अपने िरण में आये हुये िीव को ज्ञान अजग्न में तपाकर एवं उपाय से तघस पीिकर सत्यज्ञान उपदे ि
हे धममदास ! जिस प्रकार धोबी वस्ि धोता है । और साबुन मिने से वस्ि साफ़ हो िाता है । ..तब वस्ि में यदद
िोङा सा ही मैि हो । तो वह िोङी ही मे हनत से साफ़ हो िाता है । परन्तु वस्ि बहुत अधधक गन्दा हो । तो
उसको धोने में अधधक मे हनत की आवश्यकता होती है । हे धममदास ! वस्ि की भांतत ही िीवों के स्वभाव को िानों
। कोई कोई िीव िो अंकु री होता है । ऐसा िीव सदगुरु के िोङे से ज्ञान को ही ववचार कर िीघ्र गहृ ण कर िे ता है
। उसे ज्ञान का संके त ही बहुत होता है । अधधक ज्ञान की आवश्यकता नहीं होती । ऐसा लिटय ही सच्चे ज्ञान का
अधधकारी होता है ।
तब धममदास बोिे - हे सादहब ! यह तो िोङी सी योतनयों की बात हुयी । अब आप चार खातन के िीवों की बात
कहें । चार खातन के िीव िब मनुटय योतन में आते हैं । उनके िक्षण क्या हैं ? जिसे िानकर मैं सावधान हो
िाऊँ ।
कबीर सादहब बोिे - हे धममदास सुनो । 4 खानों की 84 िाख योतनयों में भरमाया भिकता िीव िब बङे भाग्य से
मनुटय दे ह धारण करने का अवसर पाता है । तब उसके अच्छे बुरे िक्षणों का भे द तुमसे कहता हूँ ।
जिसको बहुत ही आिस नींद आती है । तिा कामी क्रोधी और दररद्र होता है । वह अण्डि खातन से आया हुआ
होता है । िो बहुत चंचि होता है । और चोरी करना जिसे अच्छा िगता है । धन माया की बहुत इच्छा रखता है
। दस
ू रों की चुगिी तनंदा जिसे अच्छी िगती है । इसी स्वभाव के कारण वह दस
ू रों के घर वन तिा झाङी में आग
िगाता है । तिा चंचि होने के कारण कभी बहुत रोता है । कभी नाचता कू दता है । कभी मंगि गाता है । भूत
प्रे त की से वा उसके मन को बहुत अच्छी िगती है । फकसी को कु छ दे ता हुआ दे खकर वह मन में धचङता है ।
फकसी भी ववषय पर सबसे वाद वववाद करता है । ज्ञान ध्यान उसके मन में कु छ नहीं आते । वह गुरु सदगुरु को
नहीं पहचानता न मानता । वे द िास्ि को भी नहीं मानता । वह अपने मन से ही छोिा बङा बनता रहता है । और
यह समझता है फक मे रे समान दस
ू रा कोई नहीं है । उसके वस्ि मैिे तिा आँखे कीचङ युक्त और मुँह से िार
बहती है । वह अक्सर नहाता भी नहीं है । िु आ चौपङ के खेि में मन िगाता है । उसका पांव िम्बा होता है ।
और कभी कभी वह कु बङा भी होता है । हे धममदास ! ये सब अण्डि खातन से आये मनुटय के िक्षण हैं ।
हे धममदास ! अब ऊटमि के बारे में कहता हूँ । यह िंगि में िाकर लिकार करते हुये बहुत िीवों को मारकर खि
ु
होता है । इन िीवों को मारकर अने क तरह से पकाकर वह खाता है । वह सदगुरु के नाम ज्ञान की तनंदा करता है
। गुरु की बुर ाई और तनंदा करके वह गुरु के महत्व को लमिाने का प्रयास करता है । वह िब्द उपदे ि और गुरु की
तनंदा करता है । वह बहुत बात करता है । तिा बहुत अकङता है । और अहंक ार के कारण बहुत ज्ञान बनाकर
दया धमम उसके मन में नहीं होता । िो कोई पुण्य धमम करता है । वह उसकी हँसी उङाता है । मािा पहनता है ।
और चंदन का ततिक िगाता है । तिा िुद्ध सफ़े द वस्ि पहनकर बािार आदद में घूमता है । वह अन्दर से पापी
और बाहर से दयावान ददखता है । ऐसा अधम नीच िीव यम के हाि त्रबक िाता है । उसके दाँत िम्बे तिा बदन
31
कबीर सादहब बोिे - हे धममदास ! अब स्िावर खातन से आये िीव ( मनुटय ) के िक्षण सुनो । इससे आया िीव
भैं से के समान िरीर धारण करता है । ऐसे िीवों की बुद्धध क्षणणक होती है । अतः उनको पििने में दे र नहीं
िगती । वह कमर में फ़ेंिा बाँधता है । तिा लसर पर पगङी बाँधता है । तिा राि दरबार की से वा करता है । और
कमर में तिवार किार बाँधता है । इधर उधर दे खता हुआ मन से सैन ( आँख मारकर इिारा करना ) मारता है ।
परायी स्िी को सैन से बुिाता है । वह मुँह से रसभरी मीठी बातें कहता है । जिनमें कामवासना का प्रभाव होता है
। वह दस
ू रे के घर को कु दृजटि से ताकता है । तिा िाकर चोरी करता है । पकङे िाने पर रािा के पास िाया
िाता है । िब सारा संसार भी उसकी हँसी उङाता है । फफ़र भी उसको िाि नहीं आती । एक क्षण में ही वह दे वी
िाता है । एक क्षण में ही वह सबके घर आना िाना घूमना करता है । एक क्षण में ही बहादुर और एक क्षण में
है । भोिन करता है । फफ़र सो िाता है । िो िगाता है । उसे मारने दौङता है । और गुस्से से जिसकी आँखे
हे धममदास ! अब वपण्डि खातन से आये िीव का िक्षण सुनो । वपण्डि खातन से आया िीव वैर ागी होता है । तिा
योग साधना की मुद्राओं में उनमनी समाधध का मत आदद धारण करने वािा होता है । और वह िीव वे द आदद का
वातामिाप करता है । राि लमिने का तिा राि के कायम करने का और स्िी सुख को बहुत मानता है । कभी भी
अपने मन में िंक ा नहीं िाता । और धन संपवि के सुख को मानता है । त्रबस्तर पर सुन्दर िैया त्रबछाता है । उसे
उिम िुद्ध साजत्वक पौजटिक भोिन बहुत अच्छा िगता है । और िोंग सुपारी पान बीङा आदद खाता है । वह
पुण्य कमम में धन खचम करता है । उसकी आँखों में ते ि और िरीर में पुरुषािम होता है । स्वगम सदा उसके वि में है
हे धममदास ! मैं ने चारों खातन के िक्षण तुमसे कहे । अब सुनो । मनुटय योतन की अवधध समाप्त होने से पहिे
फकसी कारण से दे ह छू ि िाय । वह फफ़र से संसार में मनुटय िन्म िे ता है । अब उसके बारे में सुनो ।
84 क्यों बनी ?
32
कबीर साहब बोिे - हे धममदास ! मैं ने चारों खातन के िक्षण तुमसे कहे । अब सुनो । मनुटय योतन की अवधध
समाप्त होने से पहिे फकसी कारण से दे ह छू ि िाय । वह फफ़र से संसार में मनुटय िन्म िे ता है । अब उसके बारे
में सुनो ।
तब धममदास बोिे - हे सादहब ! मे रे मन में एक संिय उठा है । वह मुझे समझाईये । िब 84 िाख योतनयों में
भरमने भिकने के बाद ये िीव मनुटय दे ह पाता है । और मनुटय दे ह पाया हुआ ये िीव फफ़र दे ह ( असमय )
छू िने पर पुनः मनुटय दे ह पाता है । तो मृत्यु होने और पुनः मनुटय दे ह पाने की यह संधध कै से हुयी ? यह ववधध
मुझे समझाईये । और उस पुनः मनुटय िन्म िे ने वािे मनुटय के गुण िक्षण भी कहो ।
कबीर साहब बोिे - हे धममदास ! सुनो । आयु िे ष रहते िो मनुटय मर िाता है । फफ़र वह िे ष बची आयु को पूर ा
करने हे तु मनुटय िरीर धारण करके आता है । िो अज्ञानी मूख म फफ़र भी इस पर ववश्वास न करे । वह दीपक बिी
ििाकर दे खे । और बहुत प्रकार से उस दीपक में ते ि भरे । परन्तु वायु का झोंका ( मत्ृ यु आघात ) िगते ही वह
दीपक बुझ िाता है ( भिे ही उसमें खबू ते ि भरा हो ) उसे बुझे दीपक को आग से फफ़र ििायें । तो वह दीपक
फफ़र से िि िाता है । इसी प्रकार िीव मनुटय फफ़र से दे ह धारण करता है ।
हे धनी धममदास ! अब उस मनुटय के िक्षण भी सुनो । उसका भे द तुमसे नही छु पाऊँगा । मनुटय से फफ़र मनुटय
का िरीर पाने वािा वह मनुटय िरू वीर होता है । भय और डर उसके पास भी नहीं फ़िकता । मोह माया ममता
उसे नहीं व्यापते । उसे दे खकर दुश् मन डर से कांपते हैं । वह सतगुरु के सत्य िब्द को ववश्वास पूवमक मानता है ।
तनंदा को वह िानता तक नहीं है । वह सदा सदगुरु के श्रीचरणों में अपना मन िगाता है । और सबसे प्रे ममयी
वाणी बोिता है । अज्ञानी होकर ( िानते हुये भी ) ज्ञान को पूछ ता समझता है । उसे सत्यनाम का ज्ञान और
पररचय करना बे हद अच्छा िगता है ।
हे धममदास ! ऐसे िक्षणों से युक्त मनुटय से ज्ञान वाताम करने का अवसर कभी खोना नहीं चादहये । और अवसर
लमिते ही उससे ज्ञान चचाम करनी चादहये । िो िीव सदगुरु के िब्द ( नाम या महामंि ) रूपी उपदे ि को पाता है
। और भिी प्रकार गहृ ण करता है । उसके िन्म िन्म का पाप और अज्ञान रूपी मैि छू ि िाता है । सत्यनाम का
प्रे मभाव से सुमरन करने वािा िीव भयानक काि माया के फ़ं दे से छू िकर सत्यिोक िाता है । सदगुरु के िब्द
उपदे ि को ह्रदय में धारण करने वािा िीव अमृतमय अनमोि होता है । वह सत्यनाम साधना के बि पर अपने
असिी घर अमरिोक ( या सत्यिोक एक ही बात है ) चिा िाता है । िहाँ सदगुरु के हँस िीव सदा आनन्द
करते हैं । और अमृत का आहार करते हैं । िबफक काि तनरं ि न के िीव कागदिा ( ववटठा मि के समान घृणणत
वासनाओं के िािची ) में भिकते हुये िन्म मरण के काि झि
ू े में झि
ू ते रहते हैं ।
सत्यनाम के प्रताप से काि तनरं ि न िीव को सत्यिोक िाने से नहीं रोकता । क्योंफक महाबिी काि तनरं ि न केवि
इसी से भयभीत रहता है । उस िीव पर सदगुरु के वंि की छाप ( दीक्षा के समय िगने वािी नाम मोहर )
दे खकर काि बे बिी से लसर झुक ाकर रह िाता है ।
तब धममदास बोिे - हे सादहब ! आपने चार खातन के िो ववचार कहे । वो मैं ने सुने । अब मैं यह िानना चाहता हूँ
फक 84 िाख योतनयों की यह धारा का ववस्तार फकस कारण से फकया गया । और इस अववनािी िीव को अनधगनत
कटिों में डाि ददया गया । मनुटय के कारण ही यह सजृ टि बनायी गयी है । या फक कोई और िीव को भी भोग
भुगतने के लिये बनायी गयी है ?
कबीर साहब बोिे - हे धममदास ! सभी योतनयों में श्रेटठ यह मनुटय दे ह सुख को दे ने वािी है । इस मनुटय दे ह में
ही गरु
ु ज्ञान समाता है । जिसको प्राप्त कर मनुटय अपना कल्याण कर सकता है । ऐसा मनुटय सरीर पाकर िीव
िहाँ भी िाता है । सदगुरु की भजक्त के त्रबना दुख ही पाता है ।
मनुटय दे ह को पाने के लिये िीव को 84 के भयानक महािाि से गुि रना ही होता है । फफ़र भी यह दे ह पाकर
मनुटय अज्ञान और पाप में ही िगा रहता है । तो उसका घोर पतन तनजश्चत है । उसे फफ़र से भयंक र कटिदायक
साढे 12 िाख साि की 84 धारा से गुि रना होगा । दर बदर भिकना होगा ।
33
सत्य ज्ञान के त्रबना मनुटय तुच्छ ववषय भोगों के पीछे भागता हुआ अपना िीवन त्रबना परमािम के ही नटि कर
िे ता है । ऐसे िीव का कल्याण फकस तरह हो सकता है ? उसे मोक्ष भिा कैसे लमिे गा ? अतः इस िक्ष्य को प्राप्त
करने के लिये सतगुरु की तिाि और उनकी से वा भजक्त अतत आवश्यक है ।
हे धममदास ! मनुटय के भोग उद्दे श् य से 84 धारा या 84 िाख योतनयाँ रची गयीं हैं । सांसाररक माया और मन
इजन्द्रयों के ववषयों के मोह में पङकर मनुटय की बुद्धध ( वववे क ) का नाि हो िाता है । वह मूढ अज्ञानी ही हो
िाता है । और वह सदगुरु के िब्द उपदे ि को नहीं सुनता । तो वह मनुटय 84 को नहीं छोङ पाता ।
उस अज्ञानी िीव को भयंक र काि तनरं ि न 84 में िाकर डािता है । िहाँ भोिन । नींद । डर और मैिुन के
अततररक्त फकसी पदािम का ज्ञान या अन्य ज्ञान त्रबिकु ि नहीं है । 84 िाख योतनयों के ववषय वासना के प्रबि
संस्कार के विीभूत हुआ ये िीव बार बार क्रू र काि के मुँह में िाता है । और अत्यन्त दुखदायी िन्म मरण को
भोगता हुआ भी ये अपने कल्याण का साधन नहीं करता ।
हे धममदास ! अज्ञानी िीवों की इस घोर ववपवि संक ि को िानकर उन्हें सावधान करने के लिये ( सन्तों ने
) पुक ारा । और बहुत प्रकार से समझाया फक मनुटय िरीर पाकर सत्यनाम गहृ ण करो । और इस सत्यनाम के
प्रताप से अपने तनि धाम सत्यिोक को प्राप्त करो । आदद पुरुष के ववदे ह ( त्रबना वाणी से िपा िाने वािा ) और
जस्िर आदद नाम ( िो िुरूआत से एक ही है ) को िो िाँच समझकर ( सच्चे गरु
ु से - मतिब ये नाम मुँह से
िपने के बिाय धुतन रूप होकर प्रकि हो िाय । यही सच्चे गुरु और सच्ची दीक्षा की पहचान है ) िो िीव गहृ ण
करता है । उसका तनजश्चत ही कल्याण होता है । गुरु से प्राप्त ज्ञान से आचरण करता हुआ वह िीव सार को
गहृ ण करने वािा नीर क्षीर वववे क ी
( हँस की तरह दध
ू और पानी के अन्तर को िानने वािा ) हो िाता है । और कौवे की गतत ( साधारण और दीक्षा
रदहत मनुटय ) त्याग कर हँस गतत वािा हो िाता है । इस प्रकार की ज्ञान दृजटि के प्राप्त होने से वह ववनािी
तिा अववनािी का ववचार करके इस नश्वर नािवान िङ दे ह के भीतर ही अगोचर और अववनािी परमात्मा को
दे खता है ।
हे धममदास ! ववचार करो । वह तनअक्षर ( िाश्वत नाम ) ही सार है । िो अक्षर ( ज्योतत जिस पर सभी योतनयों
के िरीर बनते हैं । ..ध्यान की एक ऊँची जस्ितत ) से प्राप्त होता है । सब िङ तत्वों से परे वही असिी
सारतत्व है ।
तब धममदास बोिे - हे सादहब ! अब आप आगे की बात कहो । चार खातनयों की रचना कर फफ़र क्या फकया ? यह
मुझे स्पटि कहो ।
कबीर साहब बोिे – हे धममदास यह काि तनरं ि न की चािबािी है । जिसे पंङडत कािी नहीं समझते । और वे इस
भक्षक काि तनरं ि न को भृमवि स्वामी ( भगवान आदद ) कहते हैं । और सत्यपुरुष के नाम ज्ञान रूपी अमृत को
त्याग कर माया का ववषय रूपी ववष खाते हैं । इन चारों.. अटिांगी ( दे वी आददिजक्त ) बह्
ृ मा । ववटणु । महे ि ।
ने लमिकर यह सजृ टि रचना की । और उन्होंने िीव की दे ह को कच्चा रं ग ददया । इसीलिये मनुटय की दे ह में
आयु समय आदद के अनुसार बदिाव होता रहता है । 5 तत्व - प्रथ्वी । िि । वायु । अजग्न । आकाि और 3 गुण
- सत । रि । तम से दे ह की रचना हुयी है । उसके साि चौदह 14 यम िगाये गये हैं । इस प्रकार मनुटय दे ह
की रचना कर काि ने उसे मार खाया । तिा फफ़र फफ़र.. उत्पन्न फकया । इस तरह मनुटय सदा िन्म मरण के
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हे धममदास ! फफ़र बृह्मा ने 88 000 ऋवषयों को उत्पन्न फकया । जिससे काि तनरं ि न का बहुत प्रभाव बङ गया (
क्योंफक वे उसी का गुण तो गाते हैं ) बृह्मा से िो िीव उत्पन्न हुये । वो ब्राह्मण कहिाये । ब्राह्मणों ने आगे
इसी लिक्षा के लिये िास्िों का ववस्तार कर ददया ( इससे काि तनरं ि न का प्रभाव और भी बङा । क्योंफक उनमें
बृह्मा ने स्मृतत । िास्ि । पुर ाण आदद धमम गन्ृ िों का ववस्ित वणमन फकया । और उसमें समस्त िीवों को बुर ी तरह
उिझा ददया ( िबफक परमात्मा को िानने का सीधा सरि आसान रास्ता " सहि योग " है ) िीवों को बृह्मा ने
भिका ददया । और िास्ि में तरह तरह के कमम कांड । पूि ा । उपासना की तनयम ववधध बताकर िीवों को सत्य से
ववमुख कर भयानक काि तनरं ि न के मुँह में डािकर उसी की ( अिख तनरं ि न ) मदहमा को बताकर झठ
ू ा ध्यान (
और ज्ञान ) कराया । इस तरह " वे द मत " से सब भलृ मत हो गये । और सत्यपुरुष के रहस्य को न िान सके ।
काि तनरं ि न आसुर ी भाव ( मन द्वारा ) उत्पन्न कर प्रताङङत िीवों को सताता है । दे वता । ऋवष । मुतन सभी
को प्रताङङत करता है । फफ़र अवतार ( ददखावे के लिये । तनि मदहमा के लिये ) धारण कर रक्षक बनता है (
िबफक सबसे बङा भक्षक स्वयँ हैं ) और फफ़र असुर ों का संहार ( का नािक ) करता है । और इस तरह सबसे
वविे ष - कु छ पाठकों ने कहा िा फक लिखा है - अवतार ववटणु िे ते हैं ।.. ऐसा काि तनरं ि न खुद ववटणु को
मायािजक्त से भरमाता है । यानी खुद को तछपाये रखने हे तु अवतार में जिक्र ववटणु ( खुद ववटणु से भी ) का
वह अपनी रक्षक किा ददखाकर अन्त में सव िीवों का भक्षण कर िे ता है ( यहाँ तक फक अपने पुि बृह्मा ववटणु
महे ि को भी नहीं छोङता ) िीवन भर उसके नाम ज्ञान िप पूि ा आदद के चक्कर में पङा िीव अन्त समय
पछताता है । िब काि उसे बे र हमी से खाता है ( मृत्यु से कु छ पहिे अपनी आगामी गतत पता िग िाती है )
हे धममदास ! अब आगे सुनो । बृह्मा ने 68 तीिम स्िावपत कर पाप पुण्य और कमम अकमम का वणमन फकया । फफ़र
बृह्मा ने 12 रालि । 27 नक्षि । 7 वार और 15 ततधि का ववधान रचा । इस प्रकार ज्योततष िास्ि की रचना हुयी
कबीर साहब बोिे - हे धममदास ! काि तनरं ि न का िाि फ़ैिाने के लिये बनाये गये 68 तीिम ये हैं - 1 कािी 2
प्रयाग 3 नैलमषारण्य 4 गया 5 कु रुक्षेि 6 प्रभास 7 पुटकर 8 ववश्वे श्वर 9 अट्िहास 10 महें द्र 11 उज्िैन 12
मरुकोि 13 िंकु कणम 14 गोकणम 15 रुद्रकोि 16 स्ििे श्वर 17 हवषमत 18 वृषभध्वि 19 केदार 20 मध्यमे श् वर 21
सुपणम 22 काततमकेश्वर 23 रामे श् वर 24 कनखि 25 भद्रकणम 26 दंडक 27 धचदण्डा 28 कृ लमिांगि 29 एकाग्र 30
छागिे य 31 कालिंि र 32 मंडकेश्वर 33 मिुर ा 34 मरुकेश्वर 35 हररश्चंद्र 36 लसद्धािम क्षेि 37 वामे श्वर 38
कु क्कु िे श् वर 39 भस्मगाि 40 अमरकंिक 41 त्रिसंध्या 42 ववरिा 43 अकेश्वर 44 द्वाररका 45 दटु कणम 46 करबीर
47 ििे श्वर 48 श्रीिैि 49 अयोध्या 50 िगन्नािपुर ी 51 कारोहण 52 दे ववका 53 भैर व 54 पूवम सागर 55 सप्त
गोदावरी 56 तनमिे श् वर 57 कणणमक ार 58 कैिाि 59 गंगाद्वार 60 ििलिंग 61 बङवाधगन 62 बदद्रकाश्रम 63 श्रेटठ
स्िान 64 ववंध्याचि 65 हे मकू ि 66 गंधमादन 67 लिंगेश्वर 68 हररद्वार
और बारह रालियाँ - 1 मे ष 2 वष
ृ 3 लमिन
ु 4 ककम 5 लसंह 6 कन्या 7 तुिा 8 वजृ श्चक 9 धनु 10 मकर 11 कुं भ
12 मीन..ये हैं ।
तिा सिाईस नक्षि - 1 अजश्वनी 2 भरणी 3 कृ विका 4 रोदहणी 5 मृगलिरा 6 आद्राम 7 पुनवमसु 8 पुटय 9 आश्िे षा
10 मघा 11 पूवामफ़ ाल्गुनी 12 उिराफ़ाल्गुनी 13 हस्त 14 धचिा 15 स्वातत 16 वविाखा 17 अनुर ाधा 18 ज्ये टठा
19 मि
ू 20 पव
ू ामषाढा 21 उिराषाढा 22 श्रवण 23 धतनमटठा 24 ितलभषा 25 पव
ू ामभाद्रप्रद 26 उिराभादप्रद 27
रे वती..ये हैं ।
सात ददन - 1 रवववार 2 सोमवार 3 मंगिवार 4 बुधवार 5 बृहस्पततवार 6 िुक्र वार 7 ितनवार
पंद्रह ततधियाँ - 1 प्रिम या पङवा 2 दि
ू 3 तीि 4 चौि 5 पंचमी 6 षटठी 7 सप्तमी 8 अटिमी 9 नवमी 10 दिमी
11 एकादिी 12 द्वादिी 13 ियोदिी 14 चौदस 15 पणू णममा ( िुक्ि पक्ष ) दस
ू रा एक कृ टण पक्ष भी होता है ।
जिसकी सभी ततधियाँ ऐसी ही होती हैं । के वि उसकी पंद्रहवी ततधि को पूणणममा के स्िान पर अमावस्या कहते हैं ।
हे धनी धममदास ! फफ़र बृह्मा ने चारों युगों के समय को एक तनयम से ववस्तार करते हुये बाँध ददया । एक पिक
झपकने में जितना समय िगता है । उसे पि कहते हैं । 60 पिक को 1 घङी कहते हैं । 1 घङी 24 लमनि की
होती है । साढे 7 घङी का 1 पहर होता है । 8 पहर का ददन रात 24 घंिे होते हैं । 7 ददनों का 1 सप्ताह और 15
ददनों का 1 पक्ष होता है । 2 पक्ष का 1 महीना । और 12 महीने का 1 वषम होता है । 17 िाख 28 हिार वषम का
सतयुग । 12 िाख 96 हिार का िेता । और 8 िाख 64 हिार का द्वापर । 4 िाख 32 हिार का कलियुग होता
है । 4 युगों को लमिाकर 1 महायुग होता है ।
( युगों का समय गित ..बजल्क बहुत ज्यादा गित है । ये वववरण कबीर साहब द्वारा बताया हुआ नहीं है । बजल्क
िास्ि आधार पर है । कलियुग लसफ़म 22 000 वषम का होता है । और िेता िगभग 38 000 का होता है । यह
सही आयु मे रे ब्िाग में प्रकालित हो चुक ी है । अतः इस सम्बन्ध में चचाम इस िे ख का ववषय नहीं है - रािीव )
हे धममदास 12 महीने में काततमक और माघ इन दो महीनों को पुण्य वािा कह ददया । जिससे िीव ववलभन्न धमम
कमम करे । और उिझा रहे । िीवों को इस प्रकार भम
ृ में डािने वािे काि तनरं ि न ( एन्ड फ़ै लमिी ) की चािाकी
कोई त्रबरिा साधक ही समझ पाता है ।
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प्रत्ये क तीिम धाम का बहुत महात्मय ( मदहमा ) बताया । जिससे फक मोहवि िीव िािच में तीिों की ओर भागने
िगे । अपनी बहुत सी कामनाओं की पूततम के लिये िोग तीिों में नहाकर पानी और पत्िर से बनी दे वी दे वता की
मूततमयों को पूि ने िगे । िोग आत्मा परमात्मा ( के ज्ञान ) को भूिकर इस झठ
ू पूि ा के भृम में पङ गये । इस
तरह काि ने सब िीवों को बुर ी तरह उिझा ददया ।
सदगरु
ु के सत्य िब्द उपदे ि त्रबना िीव सांसाररक किे ि काम क्रोध िोक मोह धच ंता आदद से नहीं बच सकता ।
सदगुरु के नाम त्रबना वह यमरूपी काि के मुँह में ही िाये गा । और बहुत से दुखों को भोगेगा । वास्तव में िीव
काि तनरं ि न का भय मानकर ही पुण्य कमाता है । िोङे फ़ि से ..धन संपवि आदद से उसकी भूख िान्त नहीं होती
।
िब तक िीव सत्यपुरुष से डोर नहीं िोङता । सदगरु
ु से ( हँस ) दीक्षा िे क र भजक्त नहीं करता । तब तक 84
िाख योतनयों में बारबार आता िाता रहे गा । यह काि तनरं ि न अपनी असीम किा िीव पर िगाता है । और उसे
भरमाता है । जिससे िीव सत्यपुरुष का भे द नहीं िान पाता ।
िाभ के लिये िीव िोभवि िास्ि में बताये कमों की और दौङता फफ़रता है । और उससे फ़ि पाने की आिा करता
है । इस प्रकार िीव को झठ
ू ी आिा बँधाकर काि धरकर खा िाता है । काि तनरं ि न की चािाकी कोई पहचान
नहीं पाता । और काि तनरं ि न िास्िों द्वारा पाप पुण्य के कमों से स्वगम नरक की प्राजप्त और ववषय भोगों की
आिा बँधाकर िीव को 84 िाख योतनयों में नचाता है ।
पहिे सतयुग में इस काि तनरं ि न का यह व्यवहार िा फक वह िीवों को िे क र आहार करता िा । वह एक िाख
िीव तनत्य खाता िा । ऐसा महान और अपार बििािी काि तनरं ि न कसाई है । वहाँ रात ददन तप्तलििा ििती
िी । काि तनरं ि न िीवों को पकङकर उस पर धरता िा । उस तप्तलििा पर उन िीवों को ििाता िा । और
बहुत दुख दे ता िा । फफ़र वह उन्हें 84 में डाि दे ता िा ।
उसके बाद िीवों को तमाम योतनयों में भरमाता भिकाता िा । इस प्रकार काि तनरं ि न िीवों को अने क प्रकार के
बहुत से कटि दे ता िा । तब अने क ाने क िीवों ने अने क प्रकार से दख
ु ी होकर पुक ारा फक - काि तनरं ि न हम िीवों
को अपार कटि दे रहा है । इस यम काि का ददया हुआ कटि हमसे सहा नहीं िाता । हे सदगुरु ! हमारी सहायता
करो । आप हमारी रक्षा करो ।
िब सत्यपुरुष ने िीवों को इस प्रकार पीङङत होते दे खा । तब उन्हें दया आयी । और उन दया के भंडार स्वामी ने
मुझे ( ज्ञानी नाम से ) बुिाया । और बहुत प्रकार से समझाकर कहा - हे ज्ञानी ! तुम िाकर िीवों को चेताओ ।
तुम्हारे दिमन से िीव िीति हो िायेंगे । िाकर उनकी तपन दरू करो ।
हे धममदास ! तब सत्यपुरुष की आज्ञा से में वहाँ आया । िहाँ काि तनरं ि न िीवों को सता रहा िा । और दुखी
हे धममदास ! िीव वहाँ दुख से छिपिा रहे िे । और मैं वहाँ िाकर खङा हो गया ।
तब मैं ने िीवों को समझाया - यदद मैं इस वक्त अपनी िजक्त से तुम्हारा उद्धार करता हूँ । तो सत्यपुरुष का वचन
भंग होता है । क्योंफक सत्यपुरुष के वचन अनुसार सद उपदे ि द्वारा ही आत्मज्ञान से िीवों का उद्धार करना है ।
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अतः िब तुम यहाँ से िाकर मनुटय दे ह धारण करोगे । तब तुम मे रे िब्द उपदे ि को ववश्वास से गहृ ण करना ।
जिससे तुम्हारा उद्धार होगा । उस समय मैं सत्यपुरुष के नाम सुमरन की सही ववधध और सार िब्द का उपदे ि
करूँगा । तब तुम वववे क ी होकर सत्यिोक िाओगे । और सदा के लिये काि तनरं ि न के बँधन से मुक्त हो िाओगे
िो कोई भी मन वचन कमम से सुमरन करता है । और िहाँ अपनी आिा रखता है । वहाँ उसका वास होता है ।
अतः संसार में िाकर दे ह धारण कर जिसकी आिा करोगे । और उस समय यदद तुम सत्यपुरुष को भि
ू गये । तो
काि तनरं ि न तुमको धरकर खा िाये गा ।
तब िीव बोिे - हे पुर ातन पुरुष ! सुनो मनुटय दे ह धारण करके ( माया रधचत वासनाओं में फ़ँ सकर ) यह ज्ञान
भूि ही िाता है । अतः याद नहीं रहता । पहिे हमने सत्यपुरुष िानकर काि तनरं ि न का सुमरन फकया फक - वही
वे द पुर ाण सभी एक मत होकर यही कहते हैं फक - तनराकार तनरं ि न से प्रे म करो । 33 करोङ दे वता । मनुटय और
तब कबीर साहब बोिे - हे िीवों सुनो । यह सब इस काि का धोखा है । इस काि ने ववलभन्न मत मतांतरों का
फ़ं दा बहुत अधधक फ़ै िाया हुआ है । काि तनरं ि न ने अने क किा मतों का प्रदिमन फकया । और िीव को उसमें
फ़ँ साने के लिये बहुत ठाठ फ़ै िाया । ( यानी तरह तरह की भोग वासना बनायी ) और सबको तीिम वृत यज्ञ एवं
यज्ञादद कमम कांडो के फ़ं दे में फ़ाँसा । जिससे कोई मुक्त नहीं हो पाता । फफ़र आप िरीर धारण करके प्रकि होता
है । और अपनी वविे ष मदहमा ( अवतार द्वारा ) करवाता है । और नाना प्रकार के गुण कमम आदद करके सब
काि तनरं ि न और अटिांगी ने िीव को फ़ँ साने के लिये अने क मायािाि रचे । वे द िास्ि पुर ाण स्मतृ त आदद के
भ्रामक िाि से भयंक र काि ने मुजक्त का रास्ता ही बन्द कर ददया । िीव मनुटय दे ह धारण करके भी अपने
कल्याण के लिये उसी से आिा करता है । काि तनरं ि न की िास्ि आदद मत रूपी किाएं बहुत भयंक र हैं । और
िीव उसके वि में पङे हैं । सत्यनाम के त्रबना िीव काि का दंड भोगते हैं ।
इस तरह िीवों को बारबार समझाकर मैं सत्यपुरुष के पास गया । और उनको काि द्वारा ददये िा रहे ववलभन्न
दख
ु ों का वणमन फकया । दयािु सत्यपुरुष तो दया के भंडार और सबके स्वामी हैं । वे िीव के मि
ू । अलभमान
तब सत्यपुरुष ने बहुत प्रकार से समझाकर कहा । काि के भ्रुम से छु ङाने के लिये िीवों को नाम उपदे ि से
सावधान करो ।
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काि के 4 दत
ू
काि के हैं । अतः वह लिटय को पवन नाम लिखकर पान णखिाये गा । वह नीर पवन के ज्ञान का प्रसार करे गा ।
और लिटयों को पवन नाम दे क र आरती उतरवाये गा । काि के 85 पवन अनुसार पूि ा कराये गा ।
हे भाई ! क्या नारी क्या पुरुष । वह सबके िरीर के तति मस्से की पहचान दे खा करे गा । िंख चक्र और सीप के
धचन्ह दे खेगा । काि तनरं ि न का वह दत
ू ऐसी दुटि बुद्धध का होगा । और िीवों में संिय उत्पन्न करे गा । तिा
उन्हें ग्रलसत ( बरबाद ) करते हुये पीङङत करे गा ।
इस कािदत
ू का और भी झठ
ू प्रपँच सुनो । वह अपनी साठ समै तिा बारह चौपाईयों को उठाकर िीवों में भृम
उत्पन्न करे गा । वह पंचामृत एकोिर नाम का सुलमरन को श्रेटठ िब्द और और मुजक्तदाता बताये गा ।
िीवों के कल्याण का िो असिी ज्ञान आददकाि से तनजश्चत है । वह उसे झठ
ू और धोखा बताये गा । तिा पाँच
तत्व पच्चीस प्रकृ तत तीन गण
ु चौदह यम यही ईश्वर है । अिामत ऐसा कहे गा । तुम ही सब कु छ हो ।
पाँच तत्व का िाि बनाकर यह यमदत
ू िरीर के तत्वों का ध्यान कराये गा । ववचार करो । तत्वों का ध्यान िगायें
। तब िरीर छू िने पर कहाँ िायेंगे । तत्व तो तत्व में लमि िाये गा ।
हे धममदास ! िीव को िहाँ आिा होती है । वहीं उसका वास होता है । अतः नाम सुमरन से ध्यान हिने पर तत्व
में उिझकर वह तत्व में ही समाये गा । ( इसका मतिव है - िैसे कोई अजग्न तत्व की पूि ा ध्यान आदद करता है
। तो दे ह छू िने पर अजग्न के दे वता सम्बंधधत कोई छोिा मोिा गण बन िाये गा । यही बात दस
ू रे तत्वों पर समझो
। )
हे धममदास ! कहाँ तक कहूँ । कु रं भ घमासान ववनाि करे गा । उसके छि को वही समझेगा । िो िीव सत्यनाम
उपदे ि को गहृ ण करने वािा और समझने वािा होगा । पाँचों िङ तत्व तो काि के अंग है । अतः तत्वों के मत
िायेंगे ।
हे धममदास ! अब तीसरे दत
ू ियदत
ू के बारे में िानों । यह यमदत
ू बङा ववकराि होगा । यह झठ
ू ा प्रपँची अपनी
तुम्हारे वंि को आकर घे रें गे । अिामत िीवों के उद्धार में यिािजक्त बाधा पहुँचायेंगे ।
वह कहे गा । असिी ज्ञान हमारे पास है । और हे धममदास ! वह तुम्हारे वंि को उठा दे गा । अिामत प्रभाव खत्म
वह तुम्हारे वंि में अपना मत पक्का करे गा । और मूि पारस िाका पँि चिाये गा । मूि छाप िे क र वंि को
त्रबगाङे गा । वह काि दत
ू अपना मूि पारस दे क र सबकी वैसी ही बुद्धध कर दे गा ।
( आप िोगों को रै दास िी की बात याद होगी । जिन्हें एक साधु पारस दे गया िा । जिन िोगों ने नहीं पङी ।
वह भीतर िून्य 0 में झंकृ त होने वािे " झंग " िब्द की बात करे गा । जिससे ज्ञानहीन कच्चे िीव को भुिावा दे गा
40
। पुरुष स्िी के जिस रि वीयम ( के िि ) से िरीर की रचना होती है । उसको ही वह अपना मूि मत प्रचलित
करे गा ।
िरीर का मि
ू आधार बीि काम ववषय है । परन्तु उसका नाम वह गप्ु त रखेगा । पहिे तो वह अपना मि
ू आधार
िाका ही गप्ु त रखेगा । फफ़र िब लिटयों को िोङकर परू ी तरह साध िे गा । तव उसका वणमन करे गा । पहिे तो
ज्ञान गन्ृ िों को समझाये गा । फफ़र पीछे से अपना मत पक्का कराये गा । वह स्िी के अंग को पारस ज्ञान दे गा ।
पहिे वह ज्ञान का िब्द उपदे ि समझाये गा । फफ़र काम ववषय वासना िो नरक की खान है । उसे वह मूि
हे भाई ! पाँच तत्व से बने िरीर की िून्य 0 गुफ़ ा में िाकर ये पाँचों तत्व बहुत प्रकार से रं गीन चमकीिा प्रकाि
बनाते हैं । उस गुफ़ ा में " हंग " िब्द बहुत िोर से उठता है ।
िब " सोहंगम " िीव अपना िरीर छोङे गा । तब कौन से ववधध से " झंग " िब्द उसके सामने आये गा । क्योंफक
वह तो िरीर के रहने तक ही होता है । िरीर के छू िते ही वह भी समाप्त हो िाये गा । झांझरी दीप काि तनरं ि न
ये अन्यायी कािदत
ू अववहर ( स्िी पुरुष का काम सम्बन्ध ) ज्ञान कहे गा । अववहर ज्ञान काि तनरं ि न का धोखा
है । वह तुम्हारे ज्ञान की भी मदहमा िालमि करके लमिाकर कहे गा । इसलिये उसके मत में बहुत से कङङहार महंत
होंगे । वह कािदत
ू स्िान स्िान पर नीच कमम करे गा । और हमारी बात करते हुये हम पर ही हँसेगा ।
अतः अज्ञानी संसारी िोग समझेंगे फक यह सब समान है ।
उसे पता चिे गा । जिसके हाि में सतनाम रूपी दीपक होगा । वह हँस िीव काि के इस िंि ाि को त्यागकर
अपना कल्याण करे गा । इसमें कोई संदेह नहीं है । ये कपिी काि बगुिे का ध्यान िगाये रहे गा । और सत्यनाम
धराये गा । यह ववियदत
ू सखा भाव की भजक्त पक्की करे गा । यह सणखयों के साि रास रचाये गा । और मुर िी
बिाये गा । अने क सणखयों के संग िगन प्रे म िगाये गा । और अपने आपको दस
ू रा कृ टण कहाये गा । वह िीवों को
धोखा दे क र फ़ाँसेगा ।
कान बन्द कर ध्यान िगाने की जस्ितत में कोहरा िैसा दीखता है । सफ़े द । कािा । नीिा । पीिा आदद रं ग
ददखना धचि की फक्रयायें हैं । परन्तु वह मुजक्त के नाप पर उनमें िीवों को डािकर भरमाये गा । ये सब काि का
धोखा है । यह प्रततक्षण बदिती फक्रयायें जस्िर हैं । िो िरीर की आँखों से दे खी िाती हैं । अतः यह कािदत
ू मन
की छाया माया ददखाये गा । और मुजक्त का मूि छाया को बताये गा । यह सत्यनाम से िीव को भिकाकर काि के
वविे ष - अब मे रे तमाम पाठक समझ सकते हैं फक आिकि मुजक्त ज्ञान के नाम पर िो हो रहा है । वह सब क्या
काि का अपने दत
ू ों को चाि समझाना ।
संसार में तुम अपने चार पँि स्िावपत करो । और उनको अपनी अपनी ( झठ
ू ी ) राह बताओ ।
चारों के नाम कबीर नाम पर ही रखो । और त्रबना कबीर िब्द िगाये मुँह से कोई बात ही न बोिो । अिामत इस
तरह कहो । कबीर ने ऐसा कहा । कबीर ने वैसा कहा । िैसे तुम कबीर की ही वाणी उपदे ि कर रहे होओ । कबीर
नाम के विीभूत होकर िब िीव तुम्हारे पास आये । तो उससे ऐसे मीठे वचन कहो । िो उसके मन को अच्छे
िगते हों । ( अिामत चोि मारने वािे वािे सत्य ज्ञान की बिाय उसको अच्छी िगने वािी मीठी मीठी बातें करो ।
क्योंफक तुम्हें िीव को झठ
ू में उिझाना है । )
कलियुग के िािची मूख म अज्ञानी िीवों को ज्ञान की समझ नहीं है । वे दे खा दे खी की रास्ता चिते हैं । तुम्हारे
वचन सुनकर वे प्रसन्न होंगे । और बारबार तुम्हारे पास आयेंगे । िब उनकी श्रद्धा पक्की हो िाय । और वे कोई
तुम िम्बूदीप ( भारत ) में अपना स्िान बनाओ । िहाँ पर कबीर के नाम और ज्ञान का प्रमाण है ।
िब कबीर बाँधोंगढ ( छिीसगढ ) में िायें । और धममदास को उपदे ि दीक्षा आदद दें । तब वे उसके 42 वंि के
ज्ञान राज्य को स्िावपत करें गे । तब तुम्हें उसमें घुसपैठ करके उनके राज्य को डांवाडोि करना है । वैसे मैं ने
14 यमों की नाकाबन्दी करके िीव के सत्यिोक िाने का मागम रोक ददया है । और कबीर के नाम पर 12 झठ
ू े
पँि चिाकर िीव को धोखे में डाि ददया है ।
हे भाई ! तब भी मुझको संिय है । उसी से मैं तुमको वहाँ भे ि ता हूँ । उनके 42 वंिो पर तुम हमिा करो । और
फफ़र उसने कहा - अब तुम संसार में िाओ । और चारों तरफ़ फ़ै ि िाओ । और ऊँच नीच गरीब अमीर फकसी को
मत छोङो । और सब पर काि का फ़ँ दा कस दो । तुम ऐसी कपि चािाकी करो फक जिससे मे र ा आहार िीव कहीं
इन चार दत
ू ों को मे रे चिाये बारह पँिों का मुणखया मानों ।
इनसे िो चार पँि चिेंगे । उससे सब ज्ञान उिि पुिि हो िाये गा । ये चार पँि बारह पँिो का मूि यानी आधार
होंगे । िो वचन वँि ( कबीर सादहब का असिी पँि ) के लिये िूि के समान पीङादायक होंगे । यानी हर तरह से
उनके कायम में ववघ्न करते हुये िीवों के उद्धार में बाधा पहुँचायेंगे ।
यह सुनकर धममदास घबरा गये । और बोिे - हे सादहब ! अब मे र ा संिय और भी बङ गया है । मुझे उन काि दत
ू ों
के बारे में अवश्य बताओ । आप उनका चररि मुझे सुनाओ । उन काि दत
ू ों का वे ि और उनका िक्षण कहो । ये
संसार में कौन सा रूप बनायेंगे । और फकस प्रकार िीवों को मारें गे । वे कौन से दे ि में प्रकि होंगे । आप मुझे
िीघ्र बताओ ।
43
कबीर साहब बोिे - हे धममदास सुनो । सतयुग में जिन िीवों को मैं ने नाम ज्ञान का उपदे ि फकया िा । सतयुग में
मे र ा नाम सत सुकृ त िा । मैं उस समय रािा धोंधि के पास गया । और उसे सार िब्द का उपदे ि सुनाया ।
उसने मे रे ज्ञान को स्वीकार फकया । और उसे मैं ने नाम ददया । इसके बाद में मिुर ा नगरी आया । यहाँ मुझे
खेमसरी नाम की स्िी लमिी । उसके साि अन्य स्िी वद्
ृ ध और बच्चे भी िे ।
खेमसरी बोिी - हे पुरुष पुर ातन ! आप कहाँ से आये हो ?
तब मैं ने उससे सत्यपुरुष । सत्यिोक । तिा काि तनरं ि न आदद का वणमन फकया । खेमसरी ने ये सब सुना । और
उसके मन में सत्यपुरुष के लिये प्रे म भी उत्पन्न हुआ । उसके मन में ज्ञान भाव आया । और उसने काि तनरं ि न
की चाि को भी समझा ।
पर खेमसरी के मन में एक संदेह िा फक अपनी आँखों से सत्यिोक दे ख ूँ । तब ही मे रे मन में ववश्वास हो । तब
मैं ने ( सत सुकृ त ) उसके िरीर को वहीं रहता हुआ । उसकी आत्मा को एक पि में सतिोक पहुँचा ददया ।
फफ़र अपनी दे ह में आते ही खेमसरी सत्यिोक को याद करके पछताने िगी । और बोिी - हे सादहब ! आपने िो
दे ि ददखाया है । मुझे उसी दे ि अमरिोक िे चिो । यहाँ तो बहुत काि किे ि दख
ु पीङा है । यहाँ लसफ़म झठ
ू ी मोह
माया का पसारा है ।
तब मैनें कहा - हे खेमसरी सुनो । िब तक आयु पूर ी नहीं हो िाती । तब तक तुम्हें मैं सत्यिोक नहीं िे िा
सकता । इसलिये अपनी आयु रहने तक मे रे ददये हुये सत्यनाम का सुमरन करो । अब क्योंफक तुमने तो सत्यिोक
दे खा है । इसलिये आयु रहने तक तुम दस
ू रे िीवों को सार िब्द का उपदे ि करो ।
िब फकसी ज्ञानवान मनुटय के द्वारा एक भी िीव सत्यपुरुष की िरण में आता है । तब ऐसा ज्ञानवान मनुटय
सत्यपुरुष को बहुत वप्रय होता है ।
िैसे यदद कोई गाय िे र के मुख में िाती हो । यानी िे र उसे खाने वािा हो । और तब कोई बिबान मनुटय आकर
उसे छु ङा िे । तो सभी उसकी बङाई करते हैं । िैसे बाघ अपने चंगि
ु में फ़ँ सी गाय को सताता डराता भयभीत
करता हुआ मार डािता है । ऐसे ही काि तनरं ि न िीवों को दुख दे ता हु आ मारकर खा िाता है । इसलिये िो भी
मनुटय एक भी िीव को सत्यपुरुष की भजक्त में िगाकर काि तनरं ि न से बचा िे ता है । तो वह मनुटय करोंङो
गाय को बचाने के समान पुण्य पाता है ।
( अब समझ गये । आप िोग । मे रे मे हनत करने का कारण - रािीव )
तब खेमसरी मे रे चरणों में धगर पङी । और बोिी - हे सादहब ! मुझ पर दया कीजिये । और मुझे इस क्रू र रक्षक के
वे ि में भक्षक काि तनरं ि न से बचा िीजिये ।
तब मैं ने कहा - हे खेमसरी सुन । यह काि तनरं ि न का दे ि है । उसके िाि में फ़ँसने का िो अंदेिा है । वह
तब खेमसरी बोिी - हे सादहब ! आप मुझे वह नामदान ( दीक्षा ) दीजिये । और काि के पंि ो से छु ङाकर अपनी
आत्मा ( गुरु की ) बना िीजिये । हे सादहब ! हमारे घर में भी िो अन्य िीव हैं उन्हें भी ये नाम दीजिये ।
हे धरमदास ! तब मैं खेमसरी के घर गया । और सभी िीवों को सत्यनाम उपदे ि फकया । सब नर नरी मे रे चरणों
तब खेमसरी अपने घरवािों से बोिी - हे भाई ! यदद अपने िीवन की मुजक्त चाहते हो । तो आकर सदगुरु से िब्द
44
उपदे ि गहृ ण करो । ये यम के फ़ं दे से छु ङाने वािें हैं । तुम यह बात सत्य िानों ।
( इसके बाद दीक्षा की ववधध सामान आदद वणमन मैं ने छोङ ददया है । वह फकसी अिग िे ख में - रािीव )
तब मैं ने उन सबको नामदान करते हुये ध्यान साधना ( नाम िप ) के बारे में , समझाया । और सार नाम से हँस
िीव को बचाया ।
कबीर साहब बोिे - हे धममदास ! इस तरह सतयुग में मैं 12 िीवों को नाम उपदे ि कर सत्यिोक चिा गया । हे
धममदास ! सत्यिोक में रहने वािे िीवों की िोभा मुख से कही नहीं िाती । वहाँ एक हँस ( आत्मा ) का ददव्य
फफ़र मैं ने कु छ समय तक सत्यिोक में तनवास फकया । और दोबारा भवसागर में आकर अपने दीक्षक्षत हँस िीवों
धोंधि खेमसरी आदद को दे खा । मैं रात ददन संसार में गुप्त रूप से रहता हूँ । पर मुझको कोई पहचान नहीं पाता
फफ़र सतयुग बीत गया । िेता आया । तब िेता में मैं मुनीन्द्र स्वामी के नाम से संसार में आया । मुझे दे खकर
काि तनरं ि न को बङा अफ़सोस हुआ । उसने सोचा । इन्होंने तो मे रे भवसागर को ही उिाङ ददया । ये िीव को
सत्यनाम का उपदे ि कर सत्यपुरुष के दरबार में िे िाते हैं । मैं ने फकतने छि बि के उपाय फकये । पर उससे
ज्ञानी िी को कोई डर नहीं हुआ । वे मुझसे नहीं डरते हैं । ज्ञानी िी के पास सत्यपुरुष का बि है । उससे मे र ा
कबीर साहब बोिे - हे धममदास ! िैसे लसंह को दे खकर हािी का ह्रदय भय से कांपने िगता है । और वह प्रथ्वी पर
तब धममदास बोिे - हे सादहब ! काि तनरं ि न ने िीव को भरमाने के लिये िो अपने 12 पंि चिाये । वे मुझे
समझाकर कहो ।
कबीर सादहब बोिे - हे धममदास ! मैं तुमसे काि के बारह पंि के बारे कहता हूँ ।
मृत्यु अंधा नाम का दत
ू िो छि बि में िजक्तिािी है । वह स्वयँ तुम्हारे घर में उत्पन्न हुआ है । यह पहिा
पंि है । दस
ू रा ततलमर दत
ू चिकर आये गा । उसकी िातत अहीर होगी । और वह नफ़र यानी गुिाम कहिाये गा ।
वह तुम्हारी बहुत सी पुस्तकों से ज्ञान चुर ाकर अिग पंि चिाये गा ।
तीसरा पंि का नाम अंधा अचेत दत
ू होगा । वह से वक होगा । वह तुम्हारे पास आये गा । और अपना नाम सुर तत
गोपाि बताये गा । वह भी अपना अिग पंि चिाये गा । और िीव को अक्षर योग ( काि तनरं ि न ) के भृम में
डािे गा ।
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को घुमा फफ़रा कर बतायेंगे । और अज्ञानी िीव को काि के मुँह में भे ि ते रहें गे । काि तनरं ि न ने ऐसा ही करने
िब िब ये तनरं ि न के दत
ू संसार में िन्म िे क र प्रकि होंगे । तब तब ये अपना पंि फ़ै िायेंगे । वे िीवों को हैर ान
करने वािी ववधचि बातें बतायेंगे । और िीवों को भरमाकर नरक में डािेंगे ।
अब मे री बात - वपछिे ददनों मे रे पास बहुत से ई मे ि इसी तरह की िंक ाओं के आये फक फ़िाना बाबा ऐसा ज्ञान दे
सच्चाई िानना बहुत सरि है - मैं तो कहता हूँ । आप मुझ पर भी िंक ा करो फक मैं आपको सही बात बता रहा हूँ
। या भरमा रहा हूँ । कबीर की वाणी बीिक ( इसकी अभी सही कीमत मुझे पता नहीं । 100 से 500 के बीच में
अब फकसी भी गुरु का ज्ञान उपदे ि यही कबीर बीिक वािी बात कह रहा है । और दीक्षा के बाद वही फक्रयायें
आपके सुमरन ध्यान में अनुभव में आती हैं । तो वह गुरु सच्चा है ।
अगर कोई भी आपको मािा िपना आदद फकसी भी आडंबर को बताता है । नाम मुँह से िपने को बताता है । िैसे
ना कर में मािा गहूँ । न मुख से बोिँ ू राम । हरर मे र ा धच ंतन करें । मैं पायो आराम । ये है सच ।
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आत्मज्ञान की हँसदीक्षा और परमहँस दीक्षा में वाणी या अन्य इजन्द्रयों का कोई स्िान नहीं हैं । दोनों ही दीक्षाओं
में सुर तत को दो अिग अिग स्िानों से िोङा िाता है । मतिब ध्यान बारबार वहीं िे िाने का अभ्यास फकया
दस
ू रे दीक्षा के बाद आप एक स्िायी सी िांतत महसूस करते हैं । िैसी पहिे कभी नहीं की । और आपकी जिन्दगी
में । स्वभाव में एक मिबूती सी आ िाती है । इसीलिये सन्तों ने कहा है । फफ़कर मत कर । जिकर कर ।
कबीर और रावण
िेता युग में िब मुनीन्द्र स्वामी ( कबीर साहब िेता में मुनीन्द्र नाम से प्रकि हुये ) प्रथ्वी पर आये । और उन्होंने
िाकर िीवों से कहा - यम रूपी काि से तुम्हें कौन छु ङाये गा ?
तब वे अज्ञानी भलृ मत िीव बोिे - हमारा कताम धताम स्वामी पुर ाण पुरुष ( काि तनरं ि न ) है । वह पुर ाण पुरुष
ववटणु हमारी रक्षा करने वािा है । और हमें यम के फ़ं दे से छु ङाने वािा है ।
कबीर साहब बोिे - हे धममदास ! उन अज्ञानी िीवों में से कोई तो अपनी रक्षा और मुजक्त की आस िंक र से िगाये
हुये िा । कोई अपनी रक्षा के लिये चंडी दे वी को ध्याता गाता िा । अब क्या कहूँ । ये वासना का िािची िीव
अपनी सदगतत भूिकर पराया ही हो गया । और सत्यपुरुष को भूि गया । तिा तुच्छ दे वी दे वताओं के हाि
िोभवि त्रबक गया ।
काि तनरं ि न ने सब िीवों को प्रततददन पाप कमम की कोठरी में डािा हुआ है । और सबको अपने मायािाि में
फ़ँ साकर मार रहा है । यदद सत्यपुरुष की ऐसी आज्ञा होती । तो काि तनरं ि न को अभी लमिाकर िीवों कों
भवसागर के ति पर िाऊँ ।
िे फकन यदद अपने बि से ऐसा करूँ । तो सत्यपुरुष का वचन नटि होता है । इसलिये उपदे ि द्वारा ही िीवों को
सावधान करूँ । फकतनी ववधचि बात है फक िो ( काि तनरं ि न ) इस िीव को दुख दे ता खाता है । वह िीव उसी
की पूि ा करता है । इस प्रकार त्रबना िाने यह िीव यम के मुख में िाता है ।
हे धममदास ! तब चारों तरफ़ घूमते हुये मैं िंक ा दे ि में आया । वहाँ मुझे ववधचि भाि नाम का श्रद्धािु लमिा ।
उसने मुझसे भवसागर से मुजक्त का उपाय पूछ ा । और मैं ने उसे ज्ञान का उपदे ि ददया । उस उपदे ि को सुनते ही
ववधचि भाि का संिय दरू हो गया । और वह मे रे चरणों में धगर गया । मैं ने उसके घर िाकर उसे दीक्षा दी ।
उस ववधचि भाि की स्िी रािा रावण के महि गयी । और िाकर रानी मंदोदरी को सब बात बतायी ।
उसने मंदोदरी से कहा - हे महारानी िी ! हमारे घर एक सुन्दर महामुतन श्रेटठ योगी आये हैं । उनकी मदहमा का मैं
क्या वणमन करूँ । ऐसा सन्त योगी मैं ने पहिे कभी नहीं दे खा । मे रे पतत ने उनकी िरण गहृ ण की है । और उनसे
दीक्षा िी है । तिा इसी में अपने िीवन को सािमक समझा है ।
यह बात सुनते ही मंदोदरी में भजक्त भाव िागा । और वह मुनीन्द्र स्वामी के दिमन करने को व्याकु ि हो गयी ।
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वह दासी को साि िे क र स्वणम हीरा रत्न आदद िे क र ववधचि भाि के घर आयी । और उन्हें अवपमत करते हुये मे रे
चरणों में िीि झुक ाया । तब मैं ने उसको आिीवामद ददया ।
मंदोदरी बोिी - आपके दिमन से मे र ा ददन आि बहुत िुभ हुआ । मैं ने ऐसा तपस्वी पहिे कभी नहीं दे खा फक
जिनके सब अंग सफ़ेद और वस्ि भी श्वे त ( सन्तमत में गेरुआ के बिाय सफ़ेद वस्ि धारण फकये िाते हैं । पर मैं
िापरवाह और मौिी िायप का होने के कारण.. क्योंफक सफ़े द वस्ि िल्दी गन्दे हो िाते हैं । इसलिये गेरुआ ही
पहनता हूँ । वे ि लिये मुझे 7 साि हो गये - रािीव ) हैं ।
हे स्वामी िी ! मैं आपसे ववनती करती हूँ । मे रे िीव ( आत्मा ) का कल्याण जिस तरह हो । वह उपाय मुझे कहो
। मैं अपने िीवन के कल्याण के लिये अपने कु ि और िातत का भी त्याग कर सकती हूँ ।
हे समिम स्वामी ! अपनी िरण में िे क र मुझ अनाि को सनाि करो । भवसागर में डूबती हुयी मुझको संभािो ।
अब आप मुझे बहुत दयािु और वप्रय िगते हो । अपके दिमन माि से मे रे सभी भृम दरू हो गये ।
तब मैं ने कहा - हे रावण की वप्रय पत्नी मंदोदरी सुनो । सत्यपुरुष के नाम प्रताप से यम की बे ङी कि िाती है ।
तुम इसे ज्ञान दृजटि से समझो । मैं तुम्हें खरा ( सत्यपुरुष ) और खोिा ( काि तनरं ि न ) समझाता हूँ ।
सत्यपुरुष असीम अिर अमर हैं । तिा तीन िोक से न्यारे हैं । अिग हैं । उन सत्यपुरुष का िो कोई ध्यान
सुमरन करे । वह आवागमन से मुक्त हो िाता है ।
मे रे ये वचन सुनते ही मंदोदरी का सब भृम भय अज्ञान दरू हो गया । और उसने पववि मन से प्रे मपूवमक नामदान
लिया । तब मंदोदरी इस तरह गदगद हुयी । मानों फकसी कं गाि को खिाना लमि गया हो । फफ़र रानी चरण स्पिम
कर महि को चिी गयी । मंदोदरी ने ववधचि भाि की स्िी को समझाकर हँसदीक्षा के लिये प्रे ररत फकया । तब
उसने भी दीक्षा िी ।
हे धममदास ! फफ़र मैं रावण के महि से आया । और मैं ने द्वारपाि से कहा - मैं तुमसे एक बात कहता हूँ । अपने
रािा को मे रे पास िे क र आओ ।
तब द्वारपाि ववनयपव
ू मक बोिा - रािा रावण बहुत भयंक र है । उसमें लिव का बि है । वह फकसी का भय नहीं
मानता । और फकसी बात की धच ंता नहीं करता । वह बङा अहंक ारी और महान क्रोधी है । यदद मैं उससे िाकर
आपकी बात कहूँगा । तो वह उल्िा मुझे ही मार डािे गा ।
तब मैं ने कहा - तुम मे र ा वचन सत्य मानों । तुम्हारा बाि बांक ा भी नहीं होगा । अतः तनभीक होकर रावण से ऐसा
िाकर कहो । और उसको िीघ्र बुिाकर िाओ ।
तब द्वारपाि ने ऐसा ही फकया । वह रावण के पास िाकर बोिा - हे महाराि ! हमारे पास एक लसद्ध ( सन्त )
आया है । उसने मुझसे कहा है फक अपने रािा को िे क र आओ ।
यह सुनकर रावण बे हद क्रोध से बोिा - अरे द्वारपाि ! तू तनरा बुद्धधहीन ही है । यह ते र ी बुद्धध को फकसने हर
लिया है । िो यह सुनते ही तू मुझे बुिाने दौङा दौङा चिा आया । मे र ा दिमन लिव के सुत.. गण आदद भी नहीं
पाते । और तूने मुझे एक लभक्षुक को बुिाने पर िाने को कहा ।
हे द्वारपाि ! मे र ी बात सुन । और उस लसद्ध का रूप वणमन मुझे बता । वह कौन है ? कैसा है ? क्या वे ि है ?
यह सब बात बता ।
तब द्वारपाि बोिा - हे रािन ! उनका श्वे त उज्िवि स्वरूप है । उनकी श्वे त ही मािा तिा श्वे त ततिक अनुपम
है । और श्वे त ही वस्ि तिा श्वे त साि सामान है । चन्द्रमा के समान उसका स्वरूप प्रकािवान है ।
तब मंदोदरी बोिी - हे रािा रावण ! िैसा द्वारपाि ने बताया । वह लसद्ध सन्त परमात्मा के समान सुिोलभत है
। आप िीघ्र िाकर उनके चरणों में प्रणाम करो । तो आपका राज्य अिि हो िाये गा । हे रािन ! इस झठ
ू ी मान
बङाई के अहम को त्याग कर आप ऐसा ही करें ।
मंदोदरी की बात सुनते ही रावण इस तरह भङका । मानों ििती हुयी आग में घी डाि ददया गया हो । रावण
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तुर न्त हाि में िस्ि िे क र चिा फक िाकर उस लसद्ध का मािा कािूँगा । िब उसका िीि धगर पङे । तब दे खें ।
वह लभक्षुक मे रा क्या कर िे गा ?
ऐसा सोचते हुये रावण बाहर मे रे पास आया । और उसने 70 बार पूर ी िजक्त से मुझ पर िस्ि चिाया । मैं ने उसके
िस्ि प्रहार को हर बार एक ततनके की ओि पर रोका । अिामत रावण वह ततनका भी नहीं काि सका । मैं ने ततनके
की ओि इस कारण की फक रावण बहुत अहंक ारी है । इस कारण अपने िजक्तिािी प्रहारों से िब रावण ततनका भी
यह सुनकर णखलसयाया हुआ रावण बोिा - मैं िाकर लिव की से वा पूि ा करूँगा । जिन्होंने मुझे अिि राज्य ददया
तब मैं ने उसे पुक ारकर कहा - हे रावण ! तुम बहुत अहंक ार करने वािे हो । तुमने हमारा भे द नहीं समझा ।
इसलिये आगे की पहचान के रूप में तुम्हें एक भववटयवाणी कहता हूँ । तुमको रामचन्द्र मारें गे । और तुम्हारा माँस
कबीर साहब बोिे - हे धममदास ! मुनीन्द्र स्वामी के रूप में मैं ने अहंक ारी रावण को अपमातनत फकया । और फफ़र
तब रास्ते में मुझे मधुक र नाम का एक गरीब ब्राह्मण लमिा । वह मुझे प्रे मपूवमक अपने घर िे गया । और मे र ी
गया ।
िीवात्मा को सत्यिोक िे गया । अमरिोक की अनुपम िोभा छिा दे खकर वह बहुत प्रसन्न हुआ ।
और बोिा - हे स्वामी ! आपने सत्यिोक दे खने की मे र ी प्यास बुझा दी । अब आप मुझे संसार में िे चिो ।
जिससे मैं अन्य िीवों को यहाँ िाने के लिये उपदे ि ( गवाही ) करूँ । और िो िीव घर गहृ स्िी के अंतगमत आते
हे धममदास ! िब मैं उसके िीवात्मा को िे क र संसार में आया । और िैसे ही मधुक र के िीवात्मा ने दे ह में प्रवे ि
फकया । तो उसका िरीर िाग्रत हो गया । मधुक र के घर पररवार में 16 अन्य िीव िे । मधुक र ने उनसे सब बात
कही ।
और मुझसे बोिा - हे सादहब ! आप मे र ी ववनती सुनो । अब हम सबको सत्यिोक में तनवास दीजिये । क्योंफक यह
प्रथ्वी तो यम का दे ि है । इसमें बहुत दुख है । फफ़र भी माया से बँधा िीव अज्ञानवि अँधा हो रहा है । इस दे ि
में काि तनरं ि न बहुत प्रबि है । वह सब िीवों को सताता है । और अने क प्रकार के कटि दे ता हुआ िन्म मरण
का नरक समान दुख दे ता है । काम क्रोध तटृ णा और माया बहुत बिबान है । िो इसी काि तनरं ि न की रचना है
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। ये सब महाििु दे वता मुतन आदद सबको व्यापते हैं । और करोंङो िीवों को कु चिकर मसि दे ते हैं ।
ये तीनों िोक यम तनरं ि न का दे ि हैं । इसमें िीवों को क्षण भर के लिये वास्तववक सुख नहीं है । आप हमारा ये
उन 16 िीवों को सत्यिोक िाते हुये दे खकर संसारी िीव के लिये ववकराि भयंक र यमदत
ू उदास खङे दे खते रहे ।
उन्हें ऊपर िाते दे खकर वे सब वववि और बे हद उदास हो गये ।
वे सब िीव सत्यपुरुष के दरबार में पहुँच गये । जिन्हें दे खकर सत्यपुरुष के अंि और अन्य मुक्त हँस िीव बहुत
प्रसन्न हुये ।
सत्यपुरुष ने उन 16 हँस िीवों को अमर वस्ि पहनाया । स्वणम के समान प्रकािवान अपनी अमर दे ह के स्वरूप को
दे खकर उन हँस िीवों को बहुत सुख हुआ । सत्यिोक में हरे क हँस िीव का ददव्य प्रकाि 16 सूयम के समान है ।
वहाँ उन्होंने अमृत ( अमीरस ) का भोिन फकया । और अगर ( चंदन ) की सुगन्ध से उनका िरीर िीति होकर
महकने िगा ।
इस तरह िेता युग में मे रे ( मुनीन्द्र स्वामी के नाम से ) द्वारा ज्ञान उपदे ि का प्रचार प्रसार हुआ । और सत्यपुरुष
िेता युग समाप्त हुआ । और द्वापर युग आ गया । तब फफ़र काि तनरं ि न का प्रभाव हुआ । और फफ़र सत्यपुरुष
ने ज्ञानी िी को बुिाकर कहा - हे ज्ञानी ! तुम िीघ्र संसार में िाओ । और काि तनरं ि न के बँधनों से िीवों का
उद्धार करो । काि तनरं ि न िीवों को बहुत पीङा दे रहा है । िाकर उसकी फ़ाँस कािो ।
तब मैं ने सत्यपुरुष की बात सुनकर उनसे कहा - आप प्रमाणणत स्पटि िब्दों में आज्ञा करो । तो मैं काि तनरं ि न
को मारकर सब िीवों को सत्यिोक िे आता हूँ । बारबार ऐसा करने संसार में क्या िाऊँ ।
सत्यपुरुष बोिे - हे योग संतायन ! सुनो । सार िब्द का उपदे ि सुनाकर िीव को मुक्त कराओ । िो अब िाकर
अब तो अज्ञानी िीव काि के िाि में फ़ँ से पङे हैं । और उसमें ही उन्हें मोहवि सुख भास रहा है । िे फकन िब
तुम उन्हें िाग्रत करोगे । तब उन्हें आनन्द का अहसास होगा । िब तुम काि तनरं ि न का असिी चररि बताओगे
हे ज्ञानी ! िीवों का भाव स्वभाव तो दे खो फक ये ज्ञान अज्ञान को पहचानते समझते नहीं हैं । तुम संसार में सहि
तब मैं फफ़र से संसार की तरफ़ चिा । इधर आते ही चािाक और प्रपंची काि तनरं ि न ने मे रे चरणों में लसर झुक ा
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ददया ।
तब वह काि तनरं ि न कातर भाव से बोिा - अब फकस कारण से संसार में आये हो ? मैं आपसे ववनती करता हूँ ।
सारे संसार के िीवों को समझाओ । ऐसा मत करना । आप मे रे बङे भाई हो । मैं आपसे ववनती करता हूँ । सभी
तब मैं ने कहा - हे तनरं ि न सुन । कोई कोई िीव ही मु झे पहचान पाता है । और मे र ी बात समझता है । क्योंफक
मृत्युिोक में आया । उस युग में मे र ा नाम करुणामय स्वामी िा । तब मैं धगरनार गढ आया । िहाँ रािा
चन्द्रवविय राज्य करते िे । उस रािा की स्िी बहुत बुद्धधमान िी । और उसका नाम इन्द्रमती िा । वह सन्त
रानी इन्द्रमती अपने स्वभाव के अनुसार महि की ऊँची अिारी पर चङकर रास्ता दे खा करती िी । यदद रास्ते में
उसे कोई साधु िाता निर आता । तो तुर न्त उसको बुिबा िे ती िी । इस प्रकार सन्तों के दिमन हे तु वह अपने
िब रानी की दृजटि हम पर पङी । तो उसने तुर न्त दासी को आदर पूवमक बुिाने भे ि ा । दासी ने रानी का ववनमृ
तब मैं ने दासी से कहा - हे दासी ! हम रािा के घर नहीं िायेंगे । क्योंफक राज्य के कायम में झठ
ू ी मान बङाई होती
है । और साधु का मान बङाई से कोई सम्बन्ध नहीं होता । अतः मैं नहीं िाऊँगा ।
दासी ने रानी से िाकर ऐसा ही कहा । तब रानी स्वयँ दौङी दौङी आयी । और मे रे चरणों में अपना िीि र ख ददया
और बोिी - हे सादहब ! हम पर दया कीजिये । और अपने पववि श्रीचरणों से हमारा घर धन्य कीजिये । आपके
उसका ऐसा प्रे म भाव दे खकर हम उसके घर चिे गये । तब रानी भोिन के लिये मुझसे तनवे दन करती हुयी बोिी
तब मैं ने कहा - हे रानी सुनो । पाँच तत्व ( का िरीर ) जिस भोिन को पाते हैं । उसकी भख
ू मुझे नहीं होती ।
मे र ा िरीर प्रकृ तत के पाँच तत्व और तीन गुण वािा नहीं है । बजल्क अिग है । पाँच तत्व । तीन गुण । पच्चीस
प्रकृ तत से तो काि तनरं ि न ने मनुटय िरीर की रचना की है । स्िान और फक्रया के भे द से काि तनरं ि न ने वायु
के वपचासी भाग फकये । इसलिये वपचासी पवन कहा िाता है । इसी वायु तिा चार अन्य तत्व प्रथ्वी िि आकाि
अजग्न से ये मनुटय िरीर बना है । परन्तु मैं इनसे एकदम अिग हूँ ।
दे क र िीवों को उसमें फ़ँसाता है । और फफ़र खा िाता है । मैं उन्ही िीवों को काि तनरं ि न से उद्धार कराने आया
हूँ । काि ने पानी पवन प्रथ्वी आदद तत्वों से िीव की बनाबिी दे ह की रचना की । और इस दे ह में वह िीवों को
बहुत दख
ु दे ता है । मे र ा िरीर काि तनरं ि न ने नहीं बनाया । मे र ा िरीर िब्द स्वरूप है । िो खद
ु मे र ी इच्छा से
बना है ।
यह सब सुनकर रानी इन्द्रमती को बहुत आश्चयम हुआ । और वह बोिी - हे प्रभु ! िैसा आपने कहा । ऐसा कहने
वािा दस
ू रा कोई नहीं लमिा । हे दयातनधध ! आप मुझे और भी ज्ञान बताओ । मैं ने सुना है फक ववटणु के समान
दस
ू रा कोई बृह्मा िंक र मुतन आदद भी नहीं है । पाँच तत्वों के लमिने से यह िरीर बना है । और उन तत्वों के
गुण भूख प्यास नींद के वि में सभी िीव हैं ।
हे प्रभु ! आप अगम अपार हो । आप मुझे बताओ फक बृह्मा ववटणु तिा िंक र से भी अिग आप कहाँ से उत्पन्न
तब मैं ने कहा - हे इन्द्रमती ! मे र ा दे ि नागिोक - पाताि । मृत्युिोक - प्रथ्वी । और दे विोक - स्वगम । इन सबसे
अिग है । वहाँ काि तनरं ि न को घुसने के अनुमतत नहीं है । इस प्रथ्वी पर चन्द्रमा सूयम है । पर सत्यिोक में
सत्यपुरुष के एक रोम का प्रकाि करोंङो चन्द्रमा के समान है । ( वहाँ का उिािा चमकीिा एकदम सफ़े द होने से
चन्द्रमा के िैसा कहा है । सूयम के प्रकाि में पीिा रं ग होता है ) तिा वहाँ के हँस िीव ( मुक्त होकर गयी
आत्मायें ) का प्रकाि सोिह सूयम के बराबर है । उन हँस िीवों में अगर ( चन्दन ) के समान सुगन्ध आती है ।
( इसके बाद कबीर साहब ने इन्द्रमती को आदद सजृ टि से िे क र पूर ी किा बतायी । िो इन ब्िाग में कबीर धममदास
तब रानी इन्द्रमती घबराकर बोिी - हे प्रभु ! आप मुझे इस यम काि तनरं ि न से छु ङा िो । मैं अपना समस्त
रािपाि आप पर न्योछावर करती हूँ । मैं अपना सब धन संपवि का त्याग करती हूँ । हे बन्दीछोङ ! मुझे अपनी
िरण में िो ।
तब मैं ने कहा - हे रानी ! मैं तुम्हें अवश्य यम काि तनरं ि न से छु ङाऊँगा । मैं तुम्हें सत्यनाम का सुमरन दँ ग
ू ा ।
पर मुझको तुम्हारी धन संपवि तिा रािपाि से कोई प्रयोिन नहीं है । िो धन संपवि तुम्हारे पास है । उससे पुण्य
कायम करो । सच्चे साधु सन्तों का आदर सत्कार करो । सत्यपुरुष के ही सभी िीव हैं । ऐसा िानकर उनसे
व्यवहार करो । परन्तु वे मोहवि अज्ञान के अँधकार में पङे हुये हैं । सब िरीरों में सत्यपुरुष के अंि िीवात्मा का
हे रानी ! ये समस्त िीव सत्यपुरुष के हैं । परन्तु वे मोह के भृमिाि में फ़ँ से काि तनरं ि न के पक्ष में हो रहे हैं ।
यह सब चररि काि तनरं ि न का ही है फक सब िीव सत्यपुरुष को भुिाकर उसके फ़ै िाये खानी वाणी के िाि में
और उसने यह िाि इतनी सूझबूझ से फ़ै िाया है फक मुझ िैसे उद्धारक से भी िीव कािवि होकर उसका पक्ष
िे क र िङते हैं । और मुझे भी नहीं पहचानते । इस प्रकार ये भृलमत िीव सत्यपुरुष रूपी अमृत को छोङकर ववष
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रूपी काि तनरं ि न से प्रे म करते हैं । असंख्य िीवों में से कोई कोई ही इस कपिी काि तनरं ि न की चािाकी को
तब इन्द्रमती बोिी - हे प्रभु ! अब मैं ने सब कु छ समझ लिया है । अब आप वही करो । जिससे मे र ा उद्धार हो ।
कबीर साहब बोिे - हे धममदास ! तब मैं ने रानी को सत्यनाम उपदे ि फकया । यानी दीक्षा दी । तब रानी ने ऐसी
अनुभतू त ( दीक्षा के समय होने वािी ) से प्रभाववत होकर अपने पतत से कहा - हे स्वामी ! यदद आप सुखदायी
तब रािा बोिा - हे रानी ! तुम मे र ी अधांधगनी हो । इसलिये मैं तुम्हारी भजक्त में आधे का भागीदार हूँ । इसलिये
हम तुम दोनों भक्त नहीं होंगे । मैं लसफ़म तुम्हारी भजक्त का प्रभाव दे खग
ूँ ा फक फकस प्रकार तुम मुझे मुक्त
कराओगी । मैं तुम्हारी भजक्त का प्रताप दे खग
ूँ ा । जिससे सब दुख कटि लमि िायेंगे । और हम सत्यिोक िायेंगे ।
कबीर साहब बोिे - हे धममदास ! तब यह सब रानी ने मे रे पास आकर कहा । और मैं ने उसे ववघ्न डािकर बुद्धध
फ़े रने वािे काि तनरं ि न का चररि सुनाया । उसने रािा की बुद्धध फकस तरह फ़े र दी । और इसके बाद मैं ने रानी
मैं ने रानी से कहा - हे रानी सुनो । काि तनरं ि न अपनी किा से छि का रूप धारण करे गा । साँप बनकर कािदत
ू
तुम्हारे पास आये गा । और तुम्हें डसे गा । ऐसा मैं तुम्हें पहिे ही बताये दे ता हूँ । इसलिये मैं तुमको त्रबरहुिी मन्ि
बताता हूँ । जिससे काि रूपी सपम का सब िहर दरू हो िाये गा । फफ़र यम तुमसे दस
ू रा धोखा करे गा । वह हँस
वणम का सफ़े द रूप बनाकर तुम्हारे पास आये गा । और मे रे समान ज्ञान तुम्हें समझाये गा ।
वह तुमसे कहे गा - हे रानी ! मुझे पहचान । मैं काि तनरं ि न का मान मदमन करने वािा हूँ । और मे र ा नाम ज्ञानी
करुणामय है । इस प्रकार काि तुम्हें ठगेगा । मैं उसका हुलिया भी तुम्हें बताता हूँ ।
कािदत
ू का मस्तक छोिा होगा । और उसकी आँखों का रं ग बदरं ग होगा । और उसके दस
ू रे सब अंग श्वे त रं ग के
तब रानी ने घबराकर मे रे चरण पकङ लिये । और बोिी - हे प्रभु ! मुझे सत्यिोक िे चिो । यह तो यम का दे ि
तब मैं ने कहा - हे रानी ! सत्यनाम दीक्षा से यम से तुम्हारा सम्बन्ध िूि गया है । और तुम सत्यपुरुष की आत्मा
हो गयी हो । अब तुम इस सत्यनाम का सुमरन करो । तब ये प्रपंची काि तनरं ि न तुम्हारा क्या त्रबगाङ िे गा ।
िब तक तुम्हारी आयु पूर ी न हो । इसी नाम का सुमरन करो । िब तक आयु का ठे का पूर ा न हो । िीव
सत्यिोक नहीं िा सकता । इस काि तनरं ि न की किा बहुत भयंक र है । वह संसार में िीवों के पास हािी रूप में
आता है । परन्तु लसंह रूपी सत्यनाम का सुमरन करते ही सुमरने वािे का भय काि तनरं ि न मानता है । और
तब रानी बोिी - हे सादहब ! िब काि तनरं ि न सपम बनकर मुझे सताये । और हँस रूप धारण कर भरमाये । तब
कबीर साहब बोिे - हे रानी ! काि सपम और मानव रूप की किा धरकर तुम्हारे पास आये गा । तब मैं उसका मान
मदमन करूँगा । मुझे दे खते ही काि भाग िाये गा । उसके पीछे मैं तुम्हारे पास आऊँगा । और तुम्हारे िीव को
सत्यिोक िे िाऊँगा ।
हे धममदास ! इतना कहकर मैं ने स्वयँ को छु पा लिया । और तब तक्षक सपम बनकर कािदत
ू आया । िब आधी रात
हो गयी िी । तब रानी अपने महि में आकर पिंग पर िे ि गयी । और सो गयी । उसी समय तक्षक ने आकर
तब रानी ने िल्दी ही रािा से कहा - तक्षक ने मुझे डस लिया है । इतना सुनते ही रािा व्याकु ि हो गया । और
रानी इन्द्रमती ने सादहब में सुर तत िगाकर उनका ददया त्रबरहुिी मन्ि िपा । और गारुङी से कहा । तुम दरू िाओ
। तुम्हारी आवश्यकता नहीं है । रानी ने रािा से कहा । सदगुरु ने मुझे त्रबरहुिी मन्ि ददया है । जिससे मुझ पर
ऐसा कहते हुये िाप करती हुयी रानी उठकर खङी हो गयी । रािा चन्द्रवविय अपनी रानी को ठीक दे खकर बहुत
प्रसन्न हुआ ।
तब उस कािदत
ू ने ऐसा ही फकया । और रानी के पास मे रे ( कबीर साहब िैसा ) वे ि में आकर बोिा - हे रानी !
तुम क्यों उदास हो । मैं ने तुम्हें दीक्षा मन्ि ददया है । तुम िान बूझ कर ऐसी अनिान क्यों हो रही हो । हे रानी !
िे फकन मे रे द्वारा पहिे ही बताये िाने से रानी ने उसको पहचान लिया । और उसकी आँख में तीन रे खायें दे खीं ।
पीिी सफ़े द और िाि । फफ़र उसका छोिा मस्तक दे खा । तब रानी मे रे वचनों को याद करती हुयी बोिी - हे
यमदत
ू ! तुम अपने घर िाओ । मैं ने तुम्हें पहचान लिया है ।
कौवा िो बहुत सुन्दर वे ि बनाये । परन्तु वह हँस की सुन्दरता नहीं पा सकता । वै सा ही मैं ने तुम्हारा रूप दे खा ।
मारा । जिससे रानी भूलम पर धगर गयी । और उसने मे र ा ( कबीर साहब ) सुमररन फकया । और बोिी - हे सदगुरु
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हे धममदास ! मे र ा यह स्वभाव है फक भक्त की पुक ार सुनते ही मुझसे नहीं रहा िाता । इसलिये मैं क्षण भर मैं
मुझे दे खते ही रानी को बहुत प्रसन्नता हुयी । मे रे आते ही काि वहाँ से चिा गया । उसके िप्पङ से िो अिुद्धध
तब रानी बोिी - हे सादहब ! मुझे यम की छाया की पहचान हो गयी । मे र ी एक ववनती सुतनये । अब मैं मत्ृ युिोक
में नहीं रहना चाहती । हे सादहब ! मुझे अपने दे ि सत्यिोक िे चलिये । यहाँ तो बहुत काि किे ि है । यह
हे धममदास ! उसकी ऐसी ववनती सुनकर मैं ने उस पर से काि का कदठन प्रभाव समाप्त कर ददया । फफ़र उसकी
आयु का ठीका ( िे ष आयु का अधधकार - समय से पहिे पूर ा करना ) पूर ा भर ददया । और रानी के हंस िीव को
मैं ने उसे िे क र मान सरोवर दीप पहुँचाया । िहाँ पर माया कालमनी फकिोि क्रीङा कर रही िी । अमृत सरोवर से
उसके आगे सुर तत सागर िा । वहाँ पहुँचते ही रानी की िीवात्मा प्रकालित हो गयी । तब उसे सत्यिोक के द्वार
सत्यिोक के द्वार पर रानी की हँस आत्मा को दे खकर वहां के हँसो ने दौङकर रानी को अपने से लिपिा लिया ।
और सबने स्वागत करते हुये कहा - तुम धन्य हो । िो करुणामय स्वामी को पहचान लिया । अब तुम्हारा काि
तनरं ि न का फ़ं दा छू ि गया । और तुम्हारे सब दुख द्वंद लमि गये । हे इन्द्रमती मे रे साि आओ । तुम्हें सत्यपुरुष
के दिमन कराऊँ ।
ऐसा कहकर मैं ने सत्यपुरुष ने ववनती की - हे सत्यपुरुष ! अब हँसो के पास आओ । और एक नये हँस को दिमन
तब पुटप दीप का पुटप णखिा । और वाणी हुयी - हे योग संतायन सुनो । अब हँसो को िे आओ । और दिमन करो
। तब ज्ञानी िी हँसो के पास आये । और उन्हें िे िाकर सत्यपुरुष का दिमन कराया । सब हँसो ने सत्यपुरुष को
कबीर साहब बोिे - हे धममदास ! रानी इन्द्रमती के हँस िीव को सत्यिोक पहुँचाकर उसे सत्यपुरुष के दिमन कराने
के बाद मैं ने कहा - हे हँस ! अब अपनी बात बताओ । तुम्हारी िैसी दिा है । सो कहो । तुम्हारा सब दुख द्वंद ।
िन्म मरण का आवागमन सब लमि गया । और तुम्हारा ते ि 16 सूयम के बराबर हो गया । और तुम्हारे सब किे ि
लमिकर तुम्हारा कल्याण हुआ ।
तब इन्द्रमती दोनों हाि िोङकर बोिी - हे सादहब ! मे र ी एक ववनती है । बङे भाग्य से मैं ने आपके श्रीचरणों में
स्िान पाया है । मे रे इस हँस िरीर का रूप बहुत सुन्दर है । परन्तु मे रे मन में एक संिय है । जिससे मुझे रािा
56
( अपने पतत चन्द्रवविय ) के प्रतत मोह हुआ है । क्योंफक वह रािा मे र ा पतत रहा है । हे करुणामय स्वामी ! आप
उसे भी सत्यिोक िे आईये । नहीं तो मे र ा रािा काि के मुख में िाये गा ।
कबीर साहब बोिे - तब मैं ने कहा । हे बुद्धधमान हँस सुन । रािा ने नाम उपदे ि नहीं लिया । उसने सत्यपुरुष की
भजक्त नहीं पायी । और भजक्तहीन होकर तत्वज्ञान के त्रबना वह इस असार संसार में
84 िाख योतनयों में ही भिकेगा ।
तब इन्द्रमती बोिी - हे प्रभु ! मैं िब संसार में रहती िी । और अने क प्रकार से आपकी भजक्त फकया करती िी ।
तब सज्िन रािा ने मे र ी भजक्त को समझा । और कभी भी भजक्त से नहीं रोका ।
संसार का स्वभाव बहुत कठोर है । यदद अपने पतत को छोङकर उसकी स्िी कहीं अिग रहे । तो सारा संसार उसे
गािी दे ता है । और सुनते ही पतत भी उसे मार डािता है ।
हे सादहब ! राि काि में तो मान । प्रसंिा । नाजस्तकता । क्रोध । चतुर ाई होती ही है । परन्तु इन सबसे अिग मैं
साधु संतो की से वा ही करती िी । और रािा से भी नहीं डरती िी । तो िब मैं साधु सन्तों की से वा करती िी ।
यह सुनकर रािा प्रसन्न ही होता िा ।
हे सादहब ! इसके ववपरीत रािा ऐसा करने के लिये मुझे रोकता । दुख दे ता । तो मैं फकस तरह साधु सन्तों की
से वा कर पाती । और तब मे र ी मुजक्त कै से होती । अतः से वा भजक्त को िानने वािा वह रािा धन्य है । उसके
हे हँसपतत सदगरु
ु ! आप तो दया के सागर है । दया कीजिये । और रािा को सांसाररक बँधनों से छु ङाईये ।
कबीर साहब बोिे - हे धममदास ! मैं उस हँस इन्द्रमती की ऐसी बातें सुनकर बहुत हँसा । और इन्द्रमती की इच्छा
अनुसार उसके राज्य धगरनार गढ में प्रकि हो गया । उस समय रािा चन्द्रवविय की आयु परू ी होने के करीब ही
आ गयी िी ।
रािा चन्द्रवविय के प्राण तनकािने के लिये यमराि उन्हें घे र कर बहुत कटि दे रहा िा । और संक ि में पङा हुआ
रािा भय से िरिर कांप रहा िा । तब मैं ने यमराि से उसे छोङने को कहा । यमराि उसे छोङता नहीं िा ।
भजक्त को भूिकर िो िीव संसार के मायािाि में पङे रहते हैं । आयु पूर ी होने पर यमराि उन्हें भयंक र दुख दे ता
ही है ।
तब मैं ने रािा चन्द्रवविय का हाि पकङ लिया । और उसी समय सत्यिोक िे आया । रानी इन्द्रमती यह दे खकर
बहुत प्रसन्न हुयी । और बोिी - हे रािा ! सुनो । मुझे पहचानो । मैं तुम्हारी पत्नी हूँ ।
रािा उससे बोिा - हे ज्ञानवान हँस ! तुम्हारा ददव्य रूप रं ग तो 16 सूयम िैसा दमक रहा है । तुम्हारे अंग अंग में
हे श्रेटठ नारी ! यह तुमने बहुत अच्छी भजक्त की । जिससे अपना और मे र ा दोनों का ही उद्धार फकया । तुम्हारी
भजक्त से ही मैं ने अपना तनि घर सत्यिोक पाया । मैं ने करोंङो िन्मों तक धमम पुण्य फकया । तब ऐसी सतकमम
करने वािी भजक्त करने वािी स्िी पायी । मैं तो राि काि ही करता हुआ भजक्त से ववमुख रहा ।
हे रानी ! यदद तुम न होती । तो मैं तनश्चय ही कठोर नरक में िाता । ऐसा मैं ने मत्ृ युपूवम ही अनुभव फकया ।
कबीर साहब बोिे - हे धममदास ! तब मैं ने रािा से ऐसा कहा - िो िीव सत्यपुरुष के सतनाम का ध्यान करता है
57
हे धममदास ! इसके बाद मैं फफ़र से संसार में आया । और कािी नगरी में गया । िहाँ भक्त सुदिमन श्वपच रहता
िा । वह िब्द वववे क ी ज्ञान को समझने वािा उिम सन्त िा । उसने मे रे बताये आत्मज्ञान को िीघ्र ही समझा ।
और उसे अपनाया । उसका पक्का ववश्वास दे खकर मैं ने उसे भव बँधन से मुक्त कर ददया । और ववधधपव
ू मक नाम
उपदे ि फकया ।
हे धममदास ! सत्यपुरुष की ऐसी प्रत्यक्ष मदहमा दे खते हुये भी िो िीव उसको नहीं समझते । वे काि तनरं ि न के
फ़ँ दे में पङे हुये हैं । िैसे कु िा अपववि वस्तु को भी खा िे ता है । वैसे ही संसारी िोग भी अमृत छोङकर ववष
खाते हैं । अिामत सत्यपुरुष रूपी अमृत को छोङकर ववषरूपी काितनरं ि न की ही भजक्त करते हैं ।
हे धममदास ! द्वापर युग में युधधटठर नाम का एक रािा हुआ । महाभारत युद्ध में अपने ही बन्धु बान्धवों को
मारकर उनसे बहुत पाप हुआ िा । अतः युद्ध के बाद बहुत हाहाकार मच गया । चारों ओर घोर अिाजन्त और
िोक दुख का माहौि िा । खुद युधधटठर को बुरे स्वपन और अपिकु न होते िे । तब श्रीकृ टण की सिाह पर
इस यज्ञ की सभी ववधधवत तैयारी आदद करके िब यज्ञ होने िगा । तब श्रीकृ टण ने कहा - इस यज्ञ के सफ़िता
पूवमक होने की पहचान है फक आकाि में बिता हुआ घंिा स्वतः सुनायी दे गा ( आिकि िोग खुद बिा बिाकर
उस यज्ञ में संयासी । योगी । ऋवष । मुतन । वैर ागी । ब्राह्मण । बृह्मचारी आदद सभी आये । सभी को प्रे म से
भोिन आदद कराया । पर घंिा नहीं बिा । ( बजल्क घंिी बिने की हल्की िुन्न भी नहीं हुयी )
तब युधधटठर बहुत िजज्ित हुये । और श्रीकृ टण के पास इसका कारण पूछ ने गये ।
श्रीकृ टण बोिे - जितने भी िोगों ने भोिन फकया । इनमें एक भी सच्चा सन्त नहीं िा । वे ददखावे के लिये साधु ।
युधधटठर को बङा आश्चयम हुआ । इतने वविाि यज्ञ में करोङों साधुओ ं ने भोिन फकया । और उनमें कोई सच्चा ही
तब श्रीकृ टण ने कहा - कािी नगरी से सुदिमन श्वपच को िे क र आओ । वे ही सवोिम साधु हैं । उन िैसा साधु
ऐसा ही फकया गया । और घन्िा बिने िगा । श्वपच सुदिमन के ग्रास उठाते ही घंिा सात बार बिा । यज्ञ सफ़ि
हो गया ।
कबीर साहब बोिे - हे धममदास ! तब भी िो अज्ञानी िीव सदगुरु की वाणी का रहस्य नहीं पहचानते । ऐसे िोगों
अपने ही भक्त िीव को ये काि दुख दे ता है । नरक में डािता है । काि के लिये अब क्या कहूँ । ये भक्त
अभक्त सभी को दुख दे ता है । सबको मार खाता है । गौर से समझो । इस काि के द्वारा ही महाभारत युद्ध में
श्रीकृ टण ने पांडवों को युद्ध के लिय्र प्रे ररत फकया । और हत्या का पाप करवाया । फफ़र उन्हीं श्रीकृ टण ने पांडवों को
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दोष िगाया फक तुमसे हत्या का पाप हुआ । अतः यज्ञ करो । और तब ( गीता दे खें ) कहा िा फक तुम्हें इसके
रािा बलि । हररश्चन्द्र । कणम बहुत बङे दानी िे । फफ़र भी काि ने उन्हें बहुत प्रकार से दुख ददया । अपमान
कराया ।
अतः इस िीव को अज्ञानवि सत्य असत्य उधचत अनुधचत का ज्ञान नहीं है । इसलिये वह सदा दहतैषी सत्यपुरुष
को छोङकर इस कपिी धत
ू म काि तनरं ि न की पूि ा करते हुये मोहवि उसी की ओर भागता है ।
काि तनरं ि न िीव को अने क किा ददखाकर भृलमत करता है । िीव इससे मुजक्त की आिा िगाकर और उसी
इन दोनों काि तनरं ि न और माया ने सत्यपुरुष के समान ही बनाबिी नकिी और वाणी के अने क नाम मुजक्त के
नाम पर संसार में फ़ैिा ददये हैं । और िीव को भयंक र धोखे में डाि ददया है ।
कबीर साहब बोिे - हे धममदास ! द्वापर युग बीत गया । और कलियुग आया । तब मैं फफ़र सत्यपुरुष की आज्ञा
से िीवों को चेताने हे तु प्रथ्वी पर आया । और मैं ने काि तनरं ि न को अपनी ओर आते दे खा ।
मुझे दे खकर वह भय से मुर झा ही गया । और बोिा - फकसलिये मुझे दुखी करते हो । और मे रे भक्ष्य भोिन िीवों
को सत्यिोक पहुँचाते हो । तीनों युग - िेता । द्वापर । सतयुग में आप संसार में गये । और िीवों का कल्याण
कर मे रा संसार उिाङा ।
सत्यपुरुष ने िीवों पर िासन करने का वचन मुझे ददया हुआ है । मे रे अधधकार क्षेि से आप िीव को छु ङा िे ते हो
। आपके अिावा यदद कोई दस
ू रा भाई इस प्रकार आता । तो मैं उसे मारकर खा िाता । िे फकन आप पर मे र ा कोई
वि नहीं चिता । आपके बि प्रताप से ही हँस िीव ( मनुटय ) अपने वास्तववक घर अमरिोक को िाते हैं । अब
आप फफ़र संसार में िा रहे हो । परन्तु आपके िब्द उपदे ि को संसार में कोई नहीं सुनेगा ।
िुभ और अिुभ कमों के भरमिाि का मैं ने ऐसा ठाि मोह सुख रचा है फक जिससे उसमें फ़ँसा िीव आपके बताये
सत्यिोक के सद मागम को नहीं समझ पाये गा । धमम के नाम पर मैं ने घर घर में भृम का भूत पैदा कर ददया है
। इसलिये सभी िीव असिी पूि ा को भूिकर भगवान । दे वी । दे वता । भूत । भैर व । वपिाच आदद की पूि ा
भजक्त में िगे हुये हैं । और इसी को सत्य समझकर खद
ु को धन्य मान रहे हैं । इस प्रकार धोखा दे क र मैं ने सब
िीवों को अपनी कठपुतिी बनाया हुआ है ।
संसार में िब िीवों को भृम और अज्ञान का भूत िगेगा । परन्तु िो आपको तिा आपके सद उपदे ि को पहचाने गा
। उसका भरम तत्काि दरू हो िाये गा । िे फकन मे रे भम
ृ भूत से गस्
ृ त मनुटय मददरा माँस खायेंगे वपयेंगे । और
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नाम होगा ? मुझे बताओ ? और अपने नाम दान उपदे ि को भी बताओ फक फकस तरह और कौन सा नाम आप
जिस कारण आप संसार में िा रहे हो । उसका सब भे द मुझसे कहो । तब मैं भी िीवों को उस नाम का उपदे ि
कर चेताऊँगा । और उन िीवों को सत्यपुरुष के सत्यिोक भे िँ ग
ू ा । हे प्रभु ! आप मुझे अपना दास बना िीजिये ।
तिा ये सारा गुप्त ज्ञान मुझे भी समझा दीजिये ।
तब मैं ने कहा - हे तनरं ि न सुन ! मैं िानता हूँ । आगे के समय में तुम कै सा छि करने वािे हो । ददखावे के लिये
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तो तुम मे रे दास रहोगे । और गुप्त रूप से कपि करोगे । गुप्त सार िब्द का भे द ज्ञान मैं तुम्हें नहीं दँ ग
ू ा ।
सत्यपुरुष ने ऐसा आदे ि मुझे नहीं ददया है । इस कलियुग में मे र ा नाम कबीर होगा । और यह इतना प्रभावी होगा
आपका नाम िे क र अपना मत चिाऊँगा । इस प्रकार बहुत से िीवों को धोखे में डाि दँ ग
ू ा फक वे समझे । वे
सत्यनाम का ही मागम अपनाये हुये हैं । इससे अल्पज्ञ िीव सत्य असत्य को नहीं समझ पायेंगे ।
तब कबीर साहब बोिे - अरे काि तनरं ि न ! तू तो सत्यपुरुष का ववरोधी है । उनके ही ववरुद्ध षङयंि रचता है ।
अपनी छिपूणम बुद्धध मुझे सुनाता है । परन्तु िो िीव सत्यनाम का प्रे मी होगा । वो इस धोखे में नहीं आये गा ।
हे धममदास ! ये बात सुनकर काि तनरं ि न चुप हो गया । और अंतध्यामन होकर अपने भवन को चिा गया । हे
धममदास इस काि की गतत बहुत तनकृ टि और कदठन है । यह धोखे से िीवों के मन बुद्धध को अपने फ़ँ दे में फ़ाँस
िे ता है ।
******
कबीर साहब ने धममदास द्वारा काि के चररि के बारे में पूछ ने पर बताया फक - िैसे कसाई बकरा पािता है ।
उसके लिये चारे पानी की व्यवस्िा करता है । गमी सदी से बचने के लिए भी प्रबन्ध करता है । जिसकी विह से
उन अबोध बकरों को िगता है फक - हमारा मालिक बहुत अच्छा और दयािु है ? हमारा फकतना ध्यान रखता है ।
इसलिये िब वह कसाई उनके पास आता है । तो वे सीधे साधे बकरे उसे अपना सही मालिक िानकर अपना प्यार
िताने के लिए आगे वािे पैर उठाकर कसाई के िरीर को स्पिम करते हैं । कु छ उसके हाि पैर ों को भी चािते हैं ।
तब कसाई िब उन बकरों को छू कर । कमर पर हाि िगाकर । दबा दबाकर दे खता है । तो बे चारे बकरे समझते हैं
। मालिक प्यार ददखा रहा है । परन्तु कसाई दे ख रहा है फक - बकरे में फकतना मांस हो गया ? और िब मांस
खरीदने ग्राहक आता है । तो उस समय कसाई नहीं दे खता फक फकसका बाप मरे गा ? फकसकी बे िी मरे गी ? फकसका
उनको सुववधा दे ने णखिाने वपिाने का उसका यही उद्दे श् य िा । ठीक इसी प्रकार सवम प्राणी काि बृह्म की पूि ा
चौरा बनाया है । समुद्र के उमङने से पानी वहाँ तक आया । और सत्य कबीर के दिमन कर पीछे हि गया । इस
प्रकार मे र ा मंददर डूबने से उन्होंने बचाया ।
तब वह पंडा पुि ारी समुद्र ति पर आया । और स्नान कर मंददर में चिा गया । परन्तु उस पंङडत ने ऐसा पाखंड
मन में ववचारा । फक पहिे तो उसे म्िे च्छ का ही दिमन करना पङा है । क्योंफक मैं पहिे कबीर चौरा तक आया ।
परन्तु िगन्नाि प्रभु का दिमन नहीं पाया ( पंडा म्िे च्छ कबीर साहब को समझ रहा है )
हे धममदास ! तब मैं ने उस पंडे की बुद्धध दुरुस्त करने के लिये एक िीिा की । वह मैं तुमसे तछपाऊँगा नहीं । िब
पंङडत पूि ा के लिये मंददर में गया । तो वहाँ एक चररि हुआ । मंददर में िो मूततम िगी िी । उसने कबीर का रूप
धारण कर लिया । और पंङडत ने िगन्नाि की मूततम को वहाँ नहीं दे खा । क्योंफक वह बदिकर कबीर रूप हो गयी
।
पूि ा के लिये अक्षत पुटप िे क र पंङडत भूि में पङ गया फक यहाँ ठाकु र िी तो हैं ही नहीं । फफ़र भाई फकसे पूिँ ू ।
यहाँ तो कबीर ही कबीर है । तब ऐसा चररि दे खकर उस पंडा ने लसर झुक ाया ।
और बोिा - हे स्वामी ! मैं आपका रहस्य नहीं समझ पाया । आप में मैं ने मन नहीं िगाया । मैं ने आपको नहीं
िाना । उसके लिये आपने यह चररि ददखाया । हे प्रभु ! मे रे अपराध को क्षमा कर दो ।
तब कबीर साहब बोिे - हे ब्राह्मण ! मैं तुमसे एक बात कहता हूँ । जिसे तू कान िगाकर सुन । मैं तुझे आज्ञा
दे ता हूँ फक तू ठाकु र िगन्नाि की पूि ा कर । और दुववधा का भाव छोङ दे । वणम । िातत । छू त । अछू त । ऊँच
। नीच । अमीर । गरीब का भाव त्याग दे । क्योंफक सभी मनुटय एक समान हैं । इस िगन्नाि मंददर में आकर
िो मनुटय में भे दभाव मानता हुआ भोिन करे गा । वह मनुटय अंगहीन होगा । भोिन करने में िो छू त अछू त
रखेगा । उसका िीि उल्िा (चमगादङ) होगा ।
हे धममदास ! इस तरह पंङडत को पक्का उपदे ि करते हुये मैं ने वहाँ से प्रस्िान फकया ।
तब धममदास बोिा - हे सादहब ! आपके द्वारा िगन्नाि मंददर का बनबाना मैं ने सुना । इसके बाद आप कहाँ गये
? कौन से िीव को मुक्त कराया ? तिा कलियुग का प्रभाव भी कदहये ।
कबीर साहब बोिे - हे धममदास ! रािस्िि दे ि के रािा का नाम बंकेि िा । मैं ने उसे नाम उपदे ि ददया । और
िीवों के उद्धार के लिये कणमधार केवि बनाया । रािस्िि दे ि से मैं िाल्मलि दीप आया । और वहाँ मैं ने एक
संत सहते िी को चेताया । और उसे िीवों का उद्धार करने के लिये समस्त गुरु ज्ञान दीक्षा प्रदान की ।
फफ़र मैं वहाँ से दरभंगा आया । िहाँ रािा चतुभुमि स्वामी का तनवास िा । उसको भी पाि िानकर मैं ने िीवों को
चेताने हे तु गरु
ु वाई ( िीवों को चेताने और नाम उपदे ि दे ने वािा ) बनाया । उसने िरा भी माया मोह नहीं फकया
। तब मैं ने उसे सत्यनाम दे क र गुरुवाई दी ।
हे धममदास ! मैं ने हँस का तनममि ज्ञान रहनी गहनी सुमरन आदद इन कङङहार गुरुओं को अच्छी तरह बताया । वे
सब कु ि मयामदा काम मोह आदद ववषयों का त्याग कर सार गुणों को िानने वािे हुये । चतुभुमि । बंके ि । सहते
िी और चौिे धममदास तुम । ये चारों िीव के कङङहार हैं । अिामत िीव को सत्यज्ञान बताकर भवसागर से पार
िगाने वािे हैं । यह मैं ने तुमसे अिि सत्य कहा है ।
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हे धममदास ! अब तुम्हारे हाि से मुझको िम्बू दीप ( भारत ) के िीव लमिेंगे । िो मे रे उपदे ि को गहृ ण करे गा ।
काि तनरं ि न उससे दरू ही रहे गा ।
तब धममदास बोिे - हे सादहब ! मैं पाप कमम करने वािा । दुटि और तनदमयी िा । और मे र ा िीवात्मा सदा भृम से
अचेत रहा । तब मे रे फकस पुण्य से आपने मुझे अज्ञान तनद्रा से िगाया । और कौन से तप से मैं ने आपका दिमन
पाया । वह मुझे आप बतायें ।
कबीर साहब बोिे - तुम्हें समझाने और दिमन दे ने के पीछे क्या कारण िा ? अब वह तुम मुझसे सुनो । तुम अपने
वपछिे िन्मों की बात सुनो । जिस कारण मैं तुम्हारे पास आया ।
संत सुदिमन िो द्वापर में हुये । वह किा मैं ने तुम्हें सुनाई । िब मैं उसके हँस िीव को सत्यिोक िे गया । तब
उसने मुझसे ववनती की । और बोिा - हे सदगरु
ु ! मे र ी ववनती सुने । और मे रे माता वपता को मुजक्त ददिायें । हे
बन्दीछोङ ! उनका आवागमन मे िकर छु ङाने की कृ पा करें । यम के दे ि में उन्होंने बहुत दुख पाया है ।
मैं ने बहुत तरीके से उनको समझाया । परन्तु तब उन्होंने मे र ी बात नहीं मानी । और ववश्वास ही नहीं फकया ।
िे फकन उन्होंने भजक्त करने से मुझे कभी नहीं रोका । िब मैं आपकी भजक्त करता । तो कभी उनके मन में
वैर भाव नहीं होता । बजल्क प्रसन्नता ही होती । इसी से हे प्रभु ! मे र ी ववनती है फक आप बन्दीछोङ उनके िीव को
मुक्त करायें ।
िब सुदिमन श्वपच ने बारबार ऐसी ववनती की । तो मैं ने उसको मान लिया । और संसार में कबीर नाम से आया ।
मैं तनरं ि न के एक वचन से बँधा िा । फफ़र भी सुदिमन श्वपच की ववनती पर मैं भारत आया । मैं वहाँ गया ।
िहाँ संत श्वपच के माता वपता िक्ष्मी और नरहर नाम से रहते िे । हे भाई ! उन्होंने श्वपच के साि वािी दे ह
छोङ दी िी । और सुदिमन के पुण्य से उसके माता वपता 84 में न िाकर पुनः मनुटय दे ह में ब्राह्मण होकर
उत्पन्न हुये िे । िब दोनों का िन्म हो गया । तब फफ़र ववधाता ने समय अनुसार उन्हें पतत पत्नी के रूप में
लमिा ददया ।
तब उस ब्राह्मण का नाम कु िपतत और उसकी पत्नी का नाम महे श् वरी िा । बहुत समय बीत िाने पर भी
महे श् वरी के संतान नहीं हुयी िी । तब पुि प्राजप्त हे तु उसने स्नान कर सूयमदेव का वृत रखा । वह आंचि फ़ै िाकर
दोनों हाि िोङकर सूयम से प्रािमना करती । उसका मन बहुत रोता िा ।
तब उसी समय मैं ( कबीर साहब ) उसके आंचि में बािक रूप धरकर प्रकि हो गया । मुझे दे खकर महे श् वरी बहुत
प्रसन्न हुयी । और मुझे घर िे गयी । और अपने पतत से बोिी - प्रभु ने मुझ पर कृ पा की । और मे रे सय
ू म वत
ृ
करने का फ़ि यह बािक मुझको ददया ।
मैं बहुत ददनों तक वहाँ रहा । वे दोनों स्िी पुरुष लमिकर मे र ी बहुत से वा करते । पर वे तनधमन होने से बहुत दुखी
िे । तब मैं ने ऐसा ववचार फकया । पहिे मैं इनकी गरीबी दरू करूँ । फफ़र इनको भजक्त मुजक्त का उपदे ि करूँ ।
इसके लिये मैं ने एक िीिा की । िब ब्राह्मण स्िी ने मे र ा पािना दहिाया । तो उसे उसमें एक तौिा सोना लमिा ।
फफ़र मे रे त्रबछौने से उन्हें रोि एक तौिा सोना लमिता िा । उससे वे बहुत सुखी हो गये । तब मैं ने उनको सत्य
िब्द का उपदे ि फकया । और उन दोनों को बहुत तरह से समझाया । परन्तु उनके ह्रदय में मे र ा उपदे ि नहीं
समाया । बािक िानकर उन्हें मे र ी बात पर ववश्वास नहीं आया । उस दे ह में उन्होंने मुझे नहीं पहचाना । तब मैं
वह िरीर त्याग कर गप्ु त हो गया ।
तब कु छ समय बाद उस ब्राह्मण कु िपतत और उसकी स्िी महे श् वरी दोनों ने िरीर छोङा । और मे रे दिमन के प्रभाव
से उन्हें फफ़र से मनुटय िरीर लमिा । फफ़र दोनों समय अनुसार पतत पत्नी हुये । और वह चंदनवारे नगर में िाकर
रहने िगे । इस िन्म में उस औरत का नाम ऊदा और पुरुष का नाम चंदन िा । तब मैं सत्यिोक से आकर पुनः
उस स्िान पर मैं ने बािक रूप बनाया । और वहाँ तािाब में ववश्राम फकया । तािाब में मैं ने कमि पि पर आसन
तब उस तािाब में ऊदा स्नान करने आयी । और सुन्दर बािक दे खकर मोदहत हो गयी । और मुझे अपने घर िे
गयी । उसने अपने पतत चंदन साहू को बताया फक ये बािक फकस प्रकार मुझे लमिा ।
कबीर साहब बोिे - दासी उस बािक को िे क र चि दी । और तािाब में डािने का मन बनाया । उसी समय मैं
अंतध्यामन हो गया । यह दे खकर वह त्रबिख त्रबिखकर रोने िगी । वह मन से बहुत परे िान िी । और ये चमत्कार
इस प्रकार आयु पूर ी होने पर चंदन साहू और ऊदा ने भी िरीर छोङ ददया । और फफ़र दोनों ने मनुटय िन्म पाया
। अबकी बार उन दोनों को िु िाहा कु ि में मनुटय िरीर लमिा । फफ़र से ववधाता का संयोग हुआ । और फफ़र से
इस िन्म में उन दोनों का नाम नीरू नीमा हुआ । नीरू नाम का वह िु िाहा कािी में रहता िा । तब एक ददन
िे ठ का महीना । और िुक्ि पक्ष । तिा बरसाइत पूणणममा की ततधि िी । िब नीरू अपनी पत्नी नीमा के साि
िहरतारा तािाब मागम से िा रहा िा । तब गमी से व्याकु ि उसकी पत्नी को िि पीने की इच्छा हुयी । और तभी
मैं उस तािाब के कमिपि पर लििु रूप में प्रकि हो गया । और बाि क्रीङा करने िगा ।
िि पीने आयी नीमा मुझे दे खकर हैर ान रह गयी । और उसने दौङकर मुझे उठा लिया । और अपने पतत के पास
िे आयी ।
तब नीमा ने मुझे दे खकर बहुत क्रोध फकया । और कहा - इस बािक को वहीं डाि दो ।
इस पर नीमा सोच में पङ गयी । तब मैं ने उससे कहा - हे नीमा सुनो । मैं तुम्हें समझाकर कहता हूँ । वपछिे (
िन्म के ) प्रे म के कारण मैं ने तुम्हें दिमन ददया । क्योंफक वपछिे िन्म में तुम दोनों सुदिमन के माता वपता िे ।
और मैं ने उसे वचन ददया िा फक तुम्हारे माता वपता का अवश्य उद्धार करूँगा । इसलिये मैं तुम्हारे पास आया हूँ
तब नीमा ने नीरू की बात का भय नहीं माना । और मुझे अपने घर िे गयी । इस प्रकार मैं कािी नगर में आ
गया । और बहुत ददनों तक उनके साि रहा । पर उन्हें मुझ पर ववश्वास नहीं आया । वे मुझे अपना बािक ही
हे धममदास ! त्रबना ववश्वास और समपमण के िीवन मुजक्त का कायम नहीं होता । अतः ऐसा तनणमय करके गुरु के
वचनों पर दृणतापूवमक ववश्वास करना चादहये । अतः उस िरीर में नीरू नीमा ने मुझे नहीं पहचाना । और मुझे
हे धममदास ! िब िु िाहा कु ि में भी नीरू नीमा की आयु पूर ी हुयी । और उन्होंने फफ़र से िरीर त्याग कर दुबारा
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तब मैं ने वहाँ मिुर ा में िाकर उनको दिमन ददया । अबकी बार उन्होंने मे र ा िब्द उपदे ि मान लिया । और उस
औरत का रतना नाम हुआ । वह मन िगाकर भजक्त करती िी । मैं ने उन दोनों स्िी पुरुषों को िब्द नाम उपदे ि
ददया । इस तरह वे मुक्त हो गये । और सत्यिोक में िाकर हँस िरीर प्राप्त फकया । उन हँसो को दे खकर
िब सत्यिोक में रहते हुये मुझे बहुत ददन बीत गये । तब तक काि तनरं ि न ने बहुत िीवों को सताया । हे भाई !
िब काि तनरं ि न िीवों को बहुत दुख दे ने िगा । तब सत्यपुरुष ने सुकृ त को पुक ारा ।
और कहा - हे सुकृ त ! तुम संसार में िाओ । वहाँ अपार बिबान काि तनरं ि न िीवों को बहुत दुख दे रहा है ।
तुम िीवों को सत्यनाम संदेि सुनाओ । और हँसदीक्षा दे क र काि के िाि से मुक्त कराओ ।
इस बार सुकृ त को संसार में आया दे खकर काि तनरं ि न बहुत प्रसन्न हुआ फक इसको तो मैं अपने फ़ँ दे मैं फ़ँ सा ही
िँ ग
ू ा । तब काि तनरं ि न ने बहुत से उपाय अपनाकर सुकृ त को फ़ँ साकर अपने िाि में डाि लिया । िब बहुत
ददन बीत गये । और काि ने एक भी िीव को िब सुर क्षक्षत नहीं छोङा । और सबको सताता मारता खाता रहा ।
तब िीवों ने फफ़र दुखी होकर सत्यपुरुष को पुक ारा । और तब सत्यपुरुष ने मुझे पुक ारा ।
सत्यपुरुष ने कहा - हे ज्ञानी िी ! िीघ्र ही संसार में िाओ । मैं ने िीवों के उद्धार के लिये सुकृ त अंि भे ि ा िा ।
वह संसार में प्रकि हो गया । हमने उसे सार िब्द का रहस्य समझाकर भे ि ा िा । परन्तु वह वापस सत्यिोक
िौिकर नहीं आया । और काि तनरं ि न के िाि में फ़ँ सकर सुधध बुधध ( स्मृतत - अपनी पहचान ) भूि गया ।
हे ज्ञानी िी ! तुम िाकर उसे अचेत तनद्रा से िगाओ । जिससे मुजक्त पँि चिे । वंि 42 हमारा अंि है । िो
सुकृ त के घर अवतार िे गा । ज्ञानी िी तुम िीघ्र सुकृ त के पास िाओ । और उसकी काि फ़ाँस लमिा दो ।
कबीर साहब बोिे - हे धममदास ! तब सत्यपुरुष की आज्ञा से मैं तुम्हारे पास आया हूँ । हे धममदास ! तुम सोचो
ववचारो फक तुम िैसे नीरू से होकर िन्मे हो । और तुम्हारी स्िी आलमन नीमा से होकर िन्मी है । वैसे ही मैं
तुम्हारे घर आया हूँ । तुम तो मे रे सबसे अधधक वप्रय अंि हो । इसलिये मैं ने तुम्हें दिमन ददया । अबकी बार तुम
मुझे पहचानो । तब मैं तुम्हें सत्यपुरुष का उपदे ि कहूँगा । यह वचन सुनते ही धममदास दौङकर कबीर साहब के
कािदत
ू नारायण दास की कहानी
कबीर साहब बोिे - हे धममदास ! सुनो । मैं ने तुम्हारे सामने सत्य का भे द प्रकालित फकया है । और तुम्हारे सभी
काि िाि को लमिा ददया है । अब रहनी गहनी की बात सुनो । जिसको िाने त्रबना मनुटय यूँ ही भूिकर सदा
भिकता रहता है । सदा मन िगाकर भजक्त साधना करो । और मान प्रसंिा को त्यागकर सच्चे सन्तों की से वा
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करो । पहिे िातत वणम और कु ि की मयामदा नटि करो । ( अलभमान मत करो । और ये मत मानों फक " मैं " ये
हूँ । या वो हूँ । ये 84 में फ़ँसने का सबसे बङा कारण होता है ।
तिा दस
ू रे अन्य मत पत्िर ( मूततम ) पानी ( गंगा यमुना कु म्भ आदद ) दे वी दे वता की पूि ा छोङकर तनटकाम गुरु
की भजक्त करो ।
िो िीव गरु
ु से कपि चतुर ाई करता है । वह िीव संसार में भिकता भरमता है । इसलिये गरु
ु से कभी कपि परदा
नहीं रखना चादहये । गुरु से कपि लमि की चोरी । के होय अँधा के होय कोङी । िो गुरु से भे द कपि रखता है ।
उसका उद्धार नहीं होता । वह 84 में ही रहता है ।
हे धममदास ! सुनो । के वि 1 सत्यपुरुष के सत्यनाम की आिा और ववश्वास करो । इस संसार का बहुत बङा िंि ाि
है । इसी में तछपा हुआ काि तनरं ि न अपनी फ़ाँस ( फ़ँ दा ) िगाये हुये है । जिससे फक िीव उसमें फ़ँ सते रहें ।
पररवार के सब नर नारी लमिकर यदद सत्यनाम का सुमरन करें । तो भयंक र काि कु छ नहीं त्रबगाङ सकता ।
हे धममदास ! तुम्हारे घर जितने िीव हैं । उन सबको बुिाओ । सब ( हँस ) नाम दीक्षा िें । फफ़र तुम अन्यायी
और क्रू र काि तनरं ि न से सदा सुर क्षक्षत रहोगे ।
तब धममदास बोिे - हे प्रभु ! आप िीवों के मि
ू ( आधार ) हो । आपने मे र ा समस्त अज्ञान लमिा ददया । मे र ा एक
पुि नारायण दास है । आप उसे भी उपदे ि करें ।
यह सुनकर कबीर साहब मुस्करा ददये । पर अपने अन्दर के भावों को प्रकि नहीं फकया । और बोिे - हे धममदास !
जिसको तुम िुद्ध अंतकरण वािा समझते हो । उनको तुर न्त बुिाओ ।
तब धममदास ने सबको बुिाया । और बोिे - हे भाई ! ये समिम सदगरु
ु दे व स्वामी हैं । इनके श्रीचरणों में धगरकर
समवपमत हो िाओ । जिससे फक 84 से मुक्त होओ । और संसार में फफ़र से न िन्मों ।
इतना सुनते ही सभी िीव आये । और कबीर साहब के चरणों में दंडवत प्रणाम कर समवपमत हो गये । परन्तु
नारायण दास नहीं आया ।
तब धममदास सोचने िगे फक नारायण दास तो बहुत चतुर है । फफ़र वह क्यों नहीं आया ?
धममदास ने अपने से वक से कहा - मे रे उस पुि ने गुरु रूपदास पर ववश्वास फकया है । और उसकी लिक्षा अनुसार
वह जिस स्िान पर श्रीमदभगवद गीता पढता रहता है । वहाँ िाकर उससे कहो । तुम्हारे वपता ने समिम गुरु पाया
है ।
तब से वक धममदास के पास िाकर बोिा - हे नारायण दास ! तुम िीघ्र चिो । आपके वपता के पास समिम गरु
ु
कबीर साहब आये हैं । उनसे उपदे ि िो ।
यह सुनकर नारायण दास बोिा - मैं वपता के पास नहीं िाऊँगा । वे बूढे हो गये हैं । और उनकी बुद्धध का नाि हो
गया है । ववटणु के समान और कौन है ? हम जिसको िपें । मे रे वपता बूढे हो गये हैं । और उनको िु िाहा गुरु भा
गया है । मे रे मन को तो ववठ्ठिे श् वर गरु
ु ही पाया है । अब और क्या कहूँ । मे रे वपता तो बस पागि ही हो गये
हैं ।
उस संदेिी ने यह सब बात धममदास को आकर बतायी । तब धममदास स्वयँ अपने पुि नारायण दास के पास पहुँचे
। और बोिे - हे पुि नारायण दास ! अपने घर चिो । वहाँ सदगुरु कबीर साहब आये हुये हैं । उनके श्री चरणों में
मािा िे क ो । और अपने सब कमम बँधनो को किाओ । िल्दी करो । ऐसा अवसर फफ़र नहीं लमिे गा । हठ छोङो ।
बन्दीछोङ गुरु बारबार नहीं लमिते ।
तब नारायण दास बोिा- हे वपतािी ! िगता है । आप पगिा गये हो । इसलिये तीसरे पन की अवस्िा में जिंदा गुरु
पाया है ।
अरे ! जिसका नाम राम है । उसके समान और कोई दे वता नहीं है । जिसकी ऋवष मुतन आदद सभी पि
ू ा करते हैं
। आपने गुरु ववठ्ठिे श् वर का प्रे म छोङकर अब बुढापे में वह जिन्दा गुरु फकया है ।
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तब धममदास ने नारायण को बाँह पकङकर उठा लिया । और कबीर साहब के सामने िे आये । और बोिे - इनके
चरण पकङो । ये यम के फ़ँ दे से छु ङाने वािे हैं ।
तब नारायण दास मुँह फ़े रकर किु िब्दों में बोिा - यह कहाँ हमारे घर में मिे च्छ ने प्रवे ि फकया है । कहाँ से यह
जिन्दा ठग आया । जिसने मे रे वपता को पागि कर ददया । वे द िास्ि को इसने उठाकर रख ददया । और अपनी
मदहमा बनाकर कहता है । यदद यह जिन्दा आपके पास रहे गा । तो मैं ने आपके घर आने की आिा छोङ दी है ।
नारायण दास की यह बात सुनते ही धममदास परे िान हो गये । और बोिे - मे र ा यह पुि िाने क्या मत ठाने हुये है
। फफ़र माता आलमन ने भी नारायण को बहुत समझाया । परन्तु नारायण दास के मन में उनकी एक भी बात सही
न िगी । ( और वह बाहर चिा गया )
तब धममदास कबीर साहब से ववनती करते हुये बोिे - हे सादहब ! मुझे वह कारण बताओ । जिससे मे र ा पुि इस
प्रकार आपको किु वचन कहता है । और दुबुमद्धध को प्राप्त होकर भिका हुआ है ।
कबीर साहब बोिे - हे धममदास ! मैं ने तो तुम्हें नारायण दास के बारे में पहिे ही बता ददया िा । पर तुम उसे भूि
गये हो । अतः फफ़र से सुनो । िब मैं सत्यपुरुष की आज्ञा से िीवों को चेताने मत्ृ युिोक की तरफ़ आया । तब
काि तनरं ि न ने मुझे दे खकर ववकराि रूप बनाया ।
और बोिा - सत्यपुरुष की से वा के बदिे मैं ने यह झांझरी दीप प्राप्त फकया है । हे ज्ञानी ! तुम भवसागर में कैसे (
क्यों ) आये । मैं तुमसे सत्य कहता हूँ । मैं तुम्हें मार दँ ग
ू ा । तुम मे र ा यह रहस्य नहीं िानते ।
तब कबीर साहब ने कहा - हे अन्यायी तनरं ि न सुन । मैं तुझसे नहीं डरता । िो तुम अहंक ार की वाणी बोिते हो
िीवों का उद्धार कर मुक्त करोगे । तो मे र ी भूख कै से लमिे गी ? िब िीव नहीं होंगे । तब मैं क्या खाऊँगा । मैं ने
1 िाख िीव रात ददन खाये । और सवा िाख उत्पन्न फकये । मे र ी से वा से सत्यपुरुष ने मुझको तीन िोक का
राज्य ददया । आप संसार में िाकर िीवों को चेताओगे । उसके लिये मैं ने ऐसा इंतिाम फकया है । मैं धमम कमम का
मैं घर घर में अज्ञान भृम का भूत उत्पन्न करूँगा । तिा धोखा दे दे क र िीवों को भृम में डािँ ग
ू ा । तब सभी
मनुटय िराब पीयेंगे । माँस खायेंगे । इसलिये कोई आपकी बात नहीं माने गा । और आपका संसार में िाना बे क ार
है ।
तब मैं ने कहा - काि तनरं ि न मैं ते र ा छि बि सब िानता हूँ । मैं सत्यनाम से ते रे द्वारा फ़ै िाये गये सब भृम
लमिा दँ ग
ू ा । और ते र ा धोखा सबको बताऊँगा ।
तब काि तनरं ि न घबरा गया । और बोिा - मैं िीवों को अधधक से अधधक भरमाने के लिये 12 पँि चिाऊँगा ।
हे धममदास ! तब मैं ने तनरं ि न को कहा । सुनो तनरं ि न । तुमने इस प्रकार कहकर िीवों के उद्धार कायम में ववघ्न
इसलिये हे धममदास ! अब वह मत
ृ ु अँधा नाम का कािदत
ू तुम्हारा पुि बनकर आया है । और अपना नाम नारायण
दास रखवाया है । यह नारायण तो काि तनरं ि न का अंि है । िो िीवों के उद्धार में ववघ्न का कायम करे गा । यह
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मे रा नाम िे क र पँि को प्रकि करे गा । और िीव को धोखे में डािे गा । और नरक में डिवाये गा । िैसे लिकारी
नाद को बिाकर दहरन को अपने वि में कर िे ता है । और पकङकर उसे मार डािता है । वैसे ही लिकारी की
भांतत यम काि अपना िाि िगाता है । और इस चाि को हँस िीव ही समझ पाये गा ।
तब कािदत
ू नारायण दास की चाि समझ में आते ही धममदास ने उसे त्याग ददया । और कबीर के चरणों में धगर
पङे ।
चूङामणण का िन्म
तब धममदास बोिे - हे प्रभु ज्ञानी िी ! अब आप मुझ पर कृ पा करो । जिससे संसार में वचन वंि प्रकि हो । और
आगे पँि चिे ।
कबीर साहब बोिे - हे धममदास ! सुनो । दस महीने में तुम्हारे िीव रूप में वंि प्रकि होगा । और अवतारी होकर
िीवों के उद्धार के लिये ही संसार में आये गा । ये तुम्हारा पुि ही मे र ा अंि होगा ।
धममदास ने कहा - हे सादहब ! मैं ने तो अपनी कामें द्री को वि में कर लिया है । फफ़र कै से पुरुष के अंि नौतम
सुर तत चङ
ू ामणण संसार में िन्म िेंगे ।
कबीर साहब बोिे - तुम दोनों स्िी पुरुष काम ववषय की आसजक्त से दरू रहकर लसफ़म मन से रतत करो । सत्यपुरुष
का नाम पारस है । उसे पान पर लिखकर अपनी पत्नी आलमन को दो । जिससे सत्यपुरुष का अंि नौतम िन्म
िे गा ।
तब धममदास की यह िंक ा दरू हो गयी फक त्रबना मैिुन के यह कै से संभव होगा । फफ़र कबीर साहब के बताये
अनुसार दोनों पतत पत्नी ने मन से रतत की । और पान ददया ।
िब दस मास पूरे हुये । तब मुक्तामणण का िन्म हुआ । इस पर धममदास ने बहुत दान फकया ।
कबीर सादहब को पता चिा फक मुक्तामणण का िन्म हो गया है । तो वे तुर न्त धममदास के घर पहुँचे ।
और मुक्तामणण को दे खकर बोिे - यह मुक्तामणण मुजक्त का स्वरूप है । यह काि तनरं ि न से िीवों को मुक्त
कराये गा ।
फफ़र कबीर सादहब मुक्तामणण की दीक्षा करते हुये बोिे - मैं ने तुमको वंि 42 का राज्य ददया । तुमसे 42 वंि
होंगे । िो श्रद्धािु िीवों को तारें गे । तुम्हारे उन वंि 42 से 60 िाखायें होंगी । और फफ़र उन िाखाओं से
प्रिाखायें होंगी । तुम्हारी 10 000 तक प्रिाखायें होंगी । वंिो के साि लमिकर उनका गुि ारा होगा । िे फकन यदद
तुम्हारे वंि उनसे संसारी सम्बन्ध मानकर नाता मानेंगे । तो उनको सत्यिोक प्राप्त नहीं होगा । इसलिये तुम्हारे
वंि को मोह माया से दरू रहना चादहये ।
और हे धममदास सुनो । पहिे मैं ने तुमको िो ज्ञान वाणी का भंडार सौंपा िा । वह सब चङ
ू ामणण को बता दो । तब
बुद्धधमान चङ
ू ामणण ज्ञान से पूणम होंगे । जिसे दे खकर काि भी चकनाचरू हो िाये गा ।
तब धममदास ने कबीर साहब की आज्ञा का पािन फकया । और दोनों ने कबीर के चरण स्पिम फकये । यह सब
दे खकर काि तनरं ि न भय से काँपने िगा ।
तब प्रसन्न होकर कबीर साहब बोिे - हे धममदास ! िो सत्यपुरुष के इस नाम उपदे ि को गहृ ण करे गा । उसका
सत्यिोक िाने का रास्ता काि तनरं ि न नहीं रोक सकता । चाहे वह 88 करोङ घाि ढूँढे ।
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कोई मुख से करोंङो ज्ञान की बातें कहता हो । और ददखावे के लिये त्रबना ववधान के ( कायदे से दीक्षा आदद के )
कबीर कबीर का नाम िपता हो । व्यिम में फकतना ही असार किन कहता हो । परन्तु सत्यनाम को िाने त्रबना
सब बे क ार ही है ।
िो स्वयँ को ज्ञानी समझकर ज्ञान के नाम पर बकबास करता हो । उसके ज्ञान रूपी व्यंि न के स्वाद को पूछ ो ।
करोंङो यत्न से भी यदद भोिन तैयार हो । परन्तु नमक त्रबना सब फ़ीका ही रहता है । िैसे भोिन की बात है ।
वैसे ही ज्ञान की बात है । हमारा ज्ञान का ववस्तार 14 करोङ है । फफ़र भी सार िब्द ( असिी नाम ) इनसे अिग
और श्रेटठ है ।
हे धममदास ! जिस तरह आकाि में 9 िाख तारा गण तनकिते हैं । जिन्हें दे खकर सब प्रसन्न होते हैं । परन्तु एक
सय
ू म के तनकिते ही सब तारों की चमक खत्म हो िाती है । और वे ददखायी नहीं दे ते । इसी तरह 9 िाख तार
गण संसार के करोंङो ज्ञान को समझो । और 1 सूयम आत्मज्ञानी सन्त को िानों ।
हे धममदास ! िैसे वविाि समुद्र को पार कराने वािा िहाि होता है । उसी प्रकार अिाह भवसागर को पार करवाने
वािा एकमाि सार िब्द ही है । मे रे सार िब्द को समझकर िो िीव कौवे की चाि ( ववषय वासना में रुधच )
छोङ देंगे । तो वह सार िब्द ग्राही हँस हो िायेंगे ।
तब धममदास बोिे - हे सादहब ! मे रे मन में एक संिय है । कृ पया उसे सुने । मुझे समिम सतपुरुष ने संसार में
भे ि ा िा । परन्तु यहाँ आने पर काि तनरं ि न ने मुझे फ़ँ सा लिया । आप कहते हो । मैं सत सुकृ त का अंि हूँ ।
तब भी भयंक र काि तनरं ि न ने मुझे डस लिया । ऐसा ही आगे वंिो के साि हुआ । तो संसार के सभी िीव नटि
हो िायेंगे । इसलिये सादहब ऐसी कृ पा करें फक काि तनरं ि न वंिो को न छिे ।
कबीर साहब बोिे - हे धममदास ! तुमने सत्य कहा । और ठीक सोचा । और तुम्हारा यह संिय होना भी सत्य है ।
आगे धममर ाय तनरं ि न एक खेि तमािा करे गा । उसे मैं तुमसे तछपाऊँगा नहीं । काि तनरं ि न ने मुझसे लसफ़म 12
पँि चिाने की बात कही िी । और अपने 4 पँिो को गुप्त रखा िा । िब मैं ने 4 गुरुओं का तनमामण फकया । तो
उसने भी अपने 4 अंि प्रकि फकये । और उन्हें िीवों को फ़ँ साने के लिये बहुत प्रकार से समझाया ।
हे भाई ! अब आगे िैसा होगा । वह सुनो । िब तक तुम इस िरीर में रहोगे । तब तक काि तनरं ि न प्रकि नहीं
होगा । िब तुम िरीर छोङोगे । तभी काि आकर प्रकि होगा । काि आकर तुम्हारे वंि को छे दे गा । और धोखे में
वंि के बहुत नाद संत महंत कणमधार होंगे । काि के प्रभाव से वे पारस वंि को ववष के स्वाद िैसा करें गे । त्रबंद
मूि और िकसार वंि के अन्दर लमधश्रत होंगे । वंि में एक बहुत बङा धोखा होगा । काि स्वरूप हंग दत
ू उसकी
दे ह में समाये गा । वह आपस में झगङा कराये गा । त्रबंद वंि के स्वभाव को हंग दत
ू नहीं छोङे गा । वह मन के
मे रा अंि िो सत्य पंि चिाये गा । उसे दे खकर वह झगङा करे गा । उसके धचह्न अिवा चाि को वह नहीं दे ख
तब उन अनुभव गि
ंृ ों को वंि के कणमधार संत महंत पढें गे । जिससे उनको बहुत अहंक ार होगा । वे स्वािम और
अहंक ार को समझ नहीं पायेंगे । और ज्ञान कल्याण के नाम पर िीवों को भिकायेंगे । इसी से मैं तुम्हें समझाकर
कहता हूँ । अपने वंि को सावधान कर दो । नाद पुि िो प्रकि होगा । उससे सब प्रे म से लमिें । हे धममदास !
इसी मन से समझो । तुम सवमिा ववषय ववकारों से रदहत मे रे नाद पुि ( िब्द से उत्पन्न हुआ ) हो । कमाि पुि
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हािी घोङे धन दौित की चाह मुझे नहीं है । अनन्य प्रे म और भजक्त से िो मुझे अपनाये गा । वह हँ स भक्त ही
मे रे ह्रदय समाये गा । यदद मैं अहंक ार से ही प्रसन्न होने वािा होता । तो मैं सब ज्ञान ध्यान आध्यात्म पंङडत
कािी को न सौंप दे ता । िब मैं ने तुम्हें प्रे म में िगन िगाये अपने अधीन दे खा । तो अपनी सब अिौफकक ज्ञान
हे धममदास ! अच्छी तरह िान िो । िहाँ अहंक ार होता है । वहाँ मैं नहीं होता । िहाँ अहंक ार होता है । वहाँ सब
कािस्वरूप ही होता है । अतः अहंक ारी मुजक्त के अनोखे सत्यिोक को नहीं पा सकता ।
*** मुक्तामणण और चङ
ू ामणण एक ही अंि के दो नाम हैं ।
कबीर साहब बोिे - हे धममदास ! सदगुरु सवोपरर हैं । अतः लिटय को चादहये फक गुरु से अधधक फकसी को न माने
। और गुरु के लसखाये हुये को सत्य करके िाने । एक समय ऐसा भी आये गा । िब तुम्हारा त्रबंद वंि उल्िा काम
करे गा । वह त्रबना गरु
ु के भवसागर से पार होना चाहे गा । िो तनगरु ा होकर िगत को समझाता है । अिामत ज्ञान
बताता है । वह खुद तो डूबे गा ही । तिा संसार के िीवों को भी डुबाये गा । त्रबना गुरु के कल्याण नहीं होता । िो
गुरु के िरणागत होता है । वह संसार सागर से पार हो िाता है ।
यह काि तनरं ि न अने क प्रकार से िीवों को धोखे में डािता है । अतः त्रबना गुरु के िीवों को अहंक ार वि ज्ञान
कहते दे खकर काि बहुत खि
ु होता है ।
तब धममदास बोिे - हे सादहब ! आप कृ पा करके नाद त्रबंद ज्ञान को समझाने की कृ पा करें ।
कबीर साहब बोिे - त्रबंद एक और नाद बहुत से होते हैं । िो त्रबंद की भांतत लमिे । वह त्रबंद कहाता है । वचन वंि
सत्यपुरुष का अंि है । उसके ज्ञान से िीव संसार से छू ि िाता है । नाद और त्रबंद वंि एक साि होंगे । तब
उनसे काि मुँह छु पाकर रहे गा । िैसे मैं ने तुम्हें बताया । वैसे नाद त्रबंद योग ( योग का एक तरीका । प्रकार ) एक
करना । क्योंफक त्रबना नाद तो त्रबंद का भी ववस्तार नहीं होता । और त्रबना त्रबंद नाद नहीं उबरे गा । हे भाई ! इस
कलियुग में काि बहुत प्रबि है । िो अहंक ार रूप धर सबको खाता है ।
नाद अहंक ार त्याग कर होगा । और त्रबंद का अहंक ार त्रबंद सिाये गा । इसी से सत्यपुरुष ने इन दोनों को
अनुिालसत करने के लिये मयामदा ( तनयम ) में बाँधा । और नाद त्रबंद दो रूप बनाये ।
िो अहंक ार छोङकर सत्य स्वरूप परमात्मा को भिे गा । उसका ध्यान सुमरन करे गा । वह हँस स्वरूप हो िाये गा ।
हे भाई ! नाद त्रबंद दोनों कोई हों । अहंक ार सबके लिये हातनकारक ही है । इसलिये यह तनजश्चत है । िो अहंक ार
करे गा । वह भवसागर में डूबे गा ।
तब धममदास बोिे - हे सादहब ! आपने नाद त्रबंद के बारे में बताया । अब मे रे मन में एक बात आ रही है । आपके
ववरोधी मे रे पुि नारायण दास का क्या होगा ? वह संसार के नाते मे र ा पुि है । इसलिये धच ंता होती है । सत्यनाम
को गहृ ण करने वािे िीव सत्यिोक को िायेंगे । और नारायण दास काि के मुँह में िाये गा । यह तो अच्छी बात
न होगी ।
कबीर साहब बोिे - हे धममदास ! मैं ने तुमको बारबार समझाया । पर तुम्हारी समझ में नहीं आया । अगर 14
यमदत
ू ही मुक्त होकर सत्यिोक चिे िायेंगे । तो फफ़र िीवों को फ़ँसाने के लिये फ़ँदा कौन िगाये गा ?
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अब मैं ने तुम्हारा ज्ञान समझा । तुम मे र ी बातों की परवाह न करके मोह माया द्वारा सत्यपुरुष की आज्ञा को
लमिाने में िगे हुये हो ।
िब मनुटय के मन में मोह अँधकार छा िाता है । तब सारा ज्ञान भूिकर वह अपना परमािम कमम नटि करता है ।
त्रबना ववश्वास के भजक्त नहीं होती । और त्रबना भजक्त के कोई िीव भवसागर से नहीं तर सकता । फफ़र से तुम्हें
काि फ़ँ दा िगा है । तुमने प्रत्यक्ष दे खा फक नारायण दास कािदत
ू है । फफ़र भी तुमने उसे पुि मानने का हठ
फकया ।
िब तुम्हें ही मे रे वचनों पर ववश्वास नहीं आता । तो संसारी िोग गुरुओं पर क्या ववश्वास करें गे ? िो अहंक ार को
छोङकर गुरु की िरण में आता है । वही सदगतत पाता है । िो त्रिगुणी माया को पकङते हैं । उनमें मोह मद िाग
िाता है । और वे अभागे भजक्त ज्ञान सब त्याग दे ते हैं ।
िब तुम ही गुरु का ववश्वास त्याग दोगे । िो िीवों का उद्धार करने वािे हो । तब सामान्य िीवों का क्या
दठकाना । इस प्रकार भृलमत करने की यही तो काि तनरं ि न की सही पहचान है ।
हे धममदास ! सुनो । िैसा तुम कह रहे हो । वैसा ही तुम्हारा वंि भी प्रकालित करे गा । मोह की आग में वह सदा
ििे गा । और इसी से तुम्हारे वंि में ववरोध पङे गा । जिससे दख
ु होगा । पुि । धन । घर । स्िी । पररवार और
कु ि का अलभमान यह सब काि ही का तो ववस्तार है । वह इन्हीं को माध्यम बनाकर िीव को बँधन में डािता है
। इनसे तुम्हारा वंि भूि में पङ िाये गा । और सत्यनाम की राह नहीं पाये गा ।
संसार के अन्य वंि की दे खा दे खी तुम्हारे वंि के िोग भी पुि धन घर पररवार आदद के मोह में पङ िायेंगे । और
यह दे खकर कािदत
ू बहुत प्रसन्न होंगे । तब कािदत
ू प्रबि हो िायेंगे । और िीवों को नरक भे ि ेंगे ।
काि तनरं ि न अपने िाि में िीव को िब फ़ँसाता है । तो उसे काम । क्रोध । मद । िोभ । मोह ववषयों में भुिा
दे ता है । फफ़र उसे गुरु के वचनों पर ववश्वास नहीं रहता । तब सत्यनाम की बात सुनते ही वह िीव धचङने िगता है
। गुरु पर ववश्वास न करने का यही िक्षण है ।
हे धममदास ! जिसके घि ( िरीर ) में सत्यनाम समा गया है । उसकी पहचान कहता हूँ । ध्यान से सुनो । उस
भक्त को काि का वाण नहीं िगता । और उसे काम क्रोध मद िोभ नहीं सताते । वह झठ
ू ी मोह तटृ णा तिा
इस प्रकार िीववत ही मुजक्त जस्ितत का अनुभव और मुजक्त प्रदान कराना सदगुरु का ही प्रताप है । अतः सदगुरु के
चरणों में ही प्रे म करो । और सब पाप कमम अज्ञान एवं सांसाररक ववषय ववकारों को त्याग दो । अपने नािवान
िरीर को धि
ू के समान समझो ।
यह सुनकर धममदास सकपका गये । और कबीर साहब के चरणों में धगर पङे । और दुखी स्वर में बोिे - हे प्रभु मैं
तब कबीर साहब बोिे - हे धममदास ! तुम सत्यपुरुष के अंि हो । परन्तु वंि नारायण दास काि का दत
ू है । उसे
त्याग दो । और िीवों का कल्याण करने के लिये भवसागर में सत्यपँि चिाओ ।
यह सुनकर धममदास कबीर साहब के पैर ों पर धगर पङे । और बोिे - आि से मैं ने अपने उस पुि रूप कािदत
ू को
त्याग ददया । अब आपको छोङकर फकसी और की आिा करूँ । तो मैं सत्य संक ल्प के साि कहता हूँ । मे र ा नरक
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में वास हो ।
यह सुनकर कबीर साहब प्रसन्नता से बोिे - हे धममदास ! तुम धन्य हो । िो मुझको पहचान लिया । और
नारायण दास को त्याग ददया । िब लिटय के ह्रदय रूपी दपमण में मैि नहीं होगा । गरु
ु का स्वरूप तब ही ददखायी
दे गा । िब लिटय अपने पववि ह्रदय में सदगरु
ु के श्रीचरणों को रखता है । तो काि की सब िाखाओं के समस्त
बँधनों को लमिाता है । परन्तु िब तक वह सात 7 पाँच 5 ( सात स्वगम - काि तिा माया ( के ) तीनों पुि - बह्
ृ मा
ववटणु महे ि - ये पाँच ) की आिा िगी रहे गी । तब तक वह लिटय गरु
ु पद की मदहमा नहीं समझ पाये गा ।
तब धममदास बोिे - हे सादहब ! आप गुरु हो । मैं आपका दास हूँ । अब आप मुझे गुरु और लिटय की रहनी
समझाकर कहो ।
कबीर साहब बोिे - गुरु का वृत धारण करने वािे लिटय को समझना चादहये फक तनगण
ु म और सगुण के बीच गुरु
ही आधार होता है । गुरु के त्रबना आचार । अन्दर बाहर की पवविता नहीं होती । और गुरु के त्रबना कोई भवसागर
से पार नहीं होता । लिटय को सीप के समान और गुरु को स्वातत की बूँद के समान समझना चादहये । गुरु के
सम्पकम से तुच्छ िीव ( सीप ) मोती के समान अनमोि हो िाता है । गुरु पारस के और लिटय िोहे के समान है
। िैसे पारस िोहे को सोना बना दे ता है । गुरु मियाधगरर चंदन के समान है । तो लिटय ववषैिे सपम की तरह
होता है । इस प्रकार वह गुरु की कृ पा से िीति होता है ।
गुरु समुद्र है । तो लिटय उसमें उठने वािी तरं ग है । गुरु दीपक है । तो लिटय उसमें समवपमत हुआ पतंगा है । गुरु
चन्द्रमा है । तो लिटय चकोर है । गुरु सूयम हैं । िो कमि रूपी लिटय को ववकलसत करते हैं ।
इस प्रकार गुरु प्रे म को लिटय ववश्वास पूवमक प्राप्त करे । गुरु के चरणों का स्पिम और दिमन प्राप्त करे । िब इस
तरह कोई लिटय गुरु का वविे ष ध्यान करता है । तब वह भी गुरु के समान होता है ।
हे धममदास ! गरु
ु एवं गरु
ु ओं में भी भे द है । यँू तो सभी संसार ही गरु
ु गरु
ु कहता है । परन्तु वास्तव में गरु
ु वही है
। िो सत्य िब्द या सार िब्द का ज्ञान कराने वािा है । उसका िगाने वािा या ददखाने वािा है । और सत्य
ज्ञान के अनुसार आवागमन से मुजक्त ददिाकर आत्मा को उसके तनि घर सत्यिोक पहुँचाये । गुरु िो मृ त्यु से
हमे िा के लिये छु ङाकर अमृत िब्द ( सार िब्द ) ददखाते हैं । जिसकी िजक्त से हँस िीव अपने घर सत्यिोक को
िाता है । उस गरु
ु में कु छ छि भे द नहीं है । अिामत वह सच्चा ही है । ऐसे गरु
ु तिा उनके लिटय का मत एक
ही होता है । िबफक दस
ू रे गुरु लिटयं में मतभे द होता है ।
संसार के िोगों के मन में अने क प्रकार के कमम करने की भावना है । यह सारा संसार उसी से लिपिा पङा है ।
काि तनरं ि न ने िीव को भृम िाि में डाि ददया है । जिससे उबर कर वह अपने ही इस सत्य को नहीं िान पाता
फक वह तनत्य अववनािी और चैतन्य ज्ञान स्वरूप है ।
इस संसार में गुरु बहुत हैं । परन्तु वे सभी झठ
ू ी मान्यताओं और अँधववश्वास के बनाबिी िाि में फ़ँ से हुये हैं ।
और दस
ू रे िीवों को भी फ़ँ साते है । िे फकन समिम सदगुरु के त्रबना िीव का भृम कभी नहीं लमिे गा । क्योंफक काि
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स्िान बनाये । जिन से वक भक्त लिटयों पर सदगुरु दया करते हैं । उनके सब अिुभ कमम बंधन आदद ििकर
भस्म हो िाते हैं । लिटय गुरु की से वा के बदिे फकसी फ़ि की मन में आिा न रखे । तो सदगुरु उसके सब दुख
कोई योगी योग साधना करता है । जिसमें खेचरी भूचरी चाचरी अगोचरी नाद चक्र भे दन आदद बहुत सी फक्रयायें हैं
। तब इन्हीं में उिझा हुआ वह योगी भी सत्य ज्ञान को नहीं िान पाता । और त्रबना सदगुरु के वह भी भवसागर
से नहीं तरता ।
हे धममदास ! सच्चे गुरु को ही मानना चादहये । ऐसे साधु और गुरु में अंतर नहीं होता । परन्तु िो संसारी फकस्म
के गुरु हैं । वह अपने ही स्वािम में िगे रहते हैं । न तो वह गुरु है । न लिटय । न साधु । और न ही आचार
मानने वािा ।
खुद को गुरु कहने वािे ऐसे स्वािी िीव को तुम काि का फ़ँ दा समझो । और काि तनरं ि न का दत
ू ही िानो ।
उससे िीव की हातन होती है । यह स्वािम भावना काि तनरं ि न की ही पहचान है ।
िो गुरु िाश्वत प्रे म के आजत्मक प्रे म के भे द को िानता है । और सार िब्द की पहचान मागम िानता है । और
परम पुरुष की जस्िर भजक्त कराता है । तिा सुर तत को िब्द में िीन कराने की फक्रया समझाता है । ऐसे सदगरु
ु
से मन िगाकर प्रे म करे । और दटु ि बुद्धध एवं कपि चािाकी छोङ दे । तब ही वह तनि घर को प्राप्त होता है ।
और बहुत सारे पँि िो कु मागम की ओर िे िाते हैं । उनमें त्रबिकु ि भी मन न िगाये । और बहुत सारे कमम भृम
के िंि ाि को त्याग कर सत्य को िाने । तिा अपने िरीर को लमट्िी ही िाने । और सदगुरु के वचनों पर पूणम
ववश्वास करे ।
कबीर साहब के ऐसे वचन सुनकर धममदास बहुत प्रसन्न हुये । और दौङकर कबीर के चरणों से लिपि गये । वे प्रे म
फफ़र वह बोिे - हे सादहब ! आप मुझे ज्ञान पाने के अधधकारी और अनाधधकारी िीवों के िक्षण भी कहें ।
कबीर साहब बोिे - हे धममदास ! जिसको तुम ववनमृ दे खो । जिस पुरुष में ज्ञान की ििक । परमािम और से वा
भावना हो । तिा िो मुजक्त के लिये बहुत अधीर हो । जिसके मन में दया िीि क्षमा आदद सदगुण हों । हे
और हे धममदास ! िो दयाहीन हो । सार िब्द का उपदे ि न माने । और काि का पक्ष िे क र व्यिम वाद वववाद तकम
ववतकम करे । और जिसकी दृजटि चंचि हो । उसको ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता । होठों के बाहर जिसके दाँत ददखाई
जिसका लसर छोिा हो । परन्तु िरीर वविाि हो । उनके ह्रदय में अक्सर कपि होता है । उसको भी सार िब्द
तब धममदास बोिे - हे सादहब ! मैं बङ भागी हूँ । िो आपने मुझे ज्ञान ददया । अब आप मुझे िरीर का तनणमय
ववचार भी कदहये । इसमें कौन सा दे वता कहाँ रहता है ? और उसका क्या कायम है ? नाङी रोम फकतने हैं ? और
िरीर में खन
ू फकसलिये है ? तिा स्वांस कौन से मागम से चिती है ? आँते । वपि । फ़ेफ़ङा और आमािय इनके
बारे में भी बताओ । िरीर में जस्ितत कौन से कमि पर फकतना िप होता है ? और रात ददन में फकतनी स्वांस
चिती है ? कहाँ से िब्द उठकर आता है ? तिा कहाँ िाकर वह समाता है ? अगर कोई िीव णझिलमि ज्योतत को
दे खता है । तो मुझे उसका भी ज्ञान वववे क कहो फक उसने कौन से दे वता का दिमन पाया ?
कबीर साहब बोिे - हे धममदास ! अब तुम िरीर ववचार सुनो ।
सत्यपुरुष का नाम सबसे न्यारा और िरीर से अिग है । क्योंफक वह आददपुरुष कृ मिः - स्िि
ू । सूक्ष्म । कारण ।
महाकारण तिा कैवल्य िरीरों से अिग है । इसलिये उसका नाम भी अिग ही है ।
पहिा मूिाधार चक्र गुदा स्िान है । यहाँ 4 दि का कमि है । इसका दे वता गणे ि है । यहाँ 1600 अिपा िाप
इसके ऊपर ह्रदय स्िान पर 12 दि का कमि है । यह लिव पावमती का स्िान है । यहाँ 6000 अिपा िाप है ।
वविुद्ध चक्र का स्िान कं ठ ( गिा ) है । यह 16 दि का कमि है । इसमें सरस्वती का स्िान है । इसके लिये
भंवर गफ़
ु ा 2 दि का कमि है । वहाँ मन रािा का िाना ( चौकी - मुक्त होते िीव को भरमाने के लिये ) है
।इसके लिये भी 1000 अिपा िाप है । इस कमि के ऊपर िून्य 0 स्िान है । वहाँ होती णझिलमि ज्योतत को
काि तनरं ि न िानो । सबसे ऊपर सुर तत कमि में सदगुरु का वास है । वहाँ अनन्त अिपा िाप है ।
हे धममदास ! सबसे नीचे मूिाधार चक्र से ऊपर तक 21600 स्वांस ददन रात चिती है ।
( इस बारे में मैं कई िे खों में बता चुक ा हूँ । सामान्य स्वांस िे ने और छोङने में 4 से केंड का समय िगता है ।
इस दहसाब से 24 घंिे में 21600 स्वांस ददन रात आती िाती है - रािीव )
हे धममदास ! अब िरीर के बारे में िानो । 5 तत्व से बना ये कु म्भ ( घङा या घि रूपी ) रूपी िरीर है । तिा
िरीर में 7 धातुयें - रक्त । माँस । मे द । मज्िा । रस । िुक्र । और अजस्ि हैं । इनमें रस बना खन
ू सारे िरीर
में दौङता हुआ िरीर का पोषण करता है । िैसे प्रथ्वी पर असंख्य पे ङ पौधे हैं । वैसे ही प्रथ्वी रूपी इस िरीर पर
75
करोंङो रोम ( रोंये ) होते है । इस िरीर की संर चना में 72 कोठे हैं । िहाँ 72000 नाङङयों की गाँठ बँधी हुयी है ।
इस तरह िरीर में धमनी और लिरा प्रधान नाङङयाँ हैं । 72 नाङङयों में 9 पुहुखा । गंधारी । कु हू । वारणी ।
गणे िनी । पयजस्वनी । हजस्तनी । अिंवुषा । िंणखनी हैं । इन 9 में भी इङा । वपंगिा । सुषमना ये 3 प्रधान हैं ।
इन तीन नाङङयों में भी सुषमना खास है । इस नाङी के द्वारा ही योगी सत्य यािा करते हैं ।
नीचे मि
ू ाधार चक्र से िे क र ऊपर बह्
ृ मरं ध्र तक जितने भी कमि दि चक्र आते हैं । उनसे िब्द उठता है । और
उनका गण
ु प्रकि करता है । तब वहाँ से फफ़र उठकर वह िब्द िन्
ू य 0 में समा िाता है । आँत का 21 हाि होने
का प्रमाण है । और आमािय सवा हाि अनुमान है । नभ क्षेि का सवा हाि प्रमाण है । और इसमें सात णखङकी
इस तरह इस िरीर में जस्ित प्राण वायु के रहस्य को िो योगी िान िे ता है । और तनरं तर ये योग करता है ।
हर तरह से ज्ञान योग कमम योग से श्रेटठ है । अतः इन ववलभन्न योगों के चक्कर में न पङकर नाम की सहि
भजक्त से अपना उद्धार करे । और िरीर में रहने वािे अत्यन्त बिबान ििु काम । क्रोध । मद । िोभ आदद को
हे धममदास ! ये सब कममक ांड मन के व्यवहार हैं । अतः तुम सदगुरु के मत से ज्ञान को समझो । काि तनरं ि न या
मन िून्य 0 में ज्योतत ददखाता है । जिसे दे खकर िीव उसे ही ईश्वर मानकर धोखे में पङ िाता है । इस प्रकार ये
हे धममदास ! योग साधना में मस्तक में प्राण रोकने से िो ज्योतत उत्पन्न होती है । वह आकार रदहत तनराकार
मन ही है । मन में ही िीवों को भरमाने उन्हें पाप कमों में ववषयों में प्रवृत करने की िजक्त है । उसी िजक्त से
वह सब िीवों को कु चिता है । उसकी यह िजक्त तीनों िोक में फ़ै िी हुयी है । इस तरह मन द्वारा भलृ मत यह
मनुटय खुद को पहचान कर असंख्य िन्मों से धोखा खा रहा है । और ये भी नहीं सोच पाता फक काि तनरं ि न के
कपि से जिन तुच्छ दे वी दे वताओं के आगे वह लसर झुक ाता है । वे सब उसके ( आत्मा - मनुटय ) के ही आधश्रत
हैं । हे धममदास ! यह सव तनरं ि न का िाि है । िो मनुटय दे वी दे वताओं को पूि ता हुआ कल्याण की आिा करता
कबीर साहब बोिे - हे धममदास ! कोयि के बच्चे का स्वभाव सुनो । और उसके गुणों को िानकर ववचार करो ।
कोयि मन से चतुर तिा मीठी वाणी बोिने वािी होती है । िबफक उसका वैर ी कौवा पाप की खान होता है ।
कोयि कौवे के घर ( घोंसिे ) में अपना अण्डा रख दे ती है ।
ववपरीत गुण वािे दुटि लमि कौवे के प्रतत कोयि ने अपना मन एक समान फकया । तब सखा लमि सहायक
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समझकर कौवे ने उस अण्डे को पािा । और वह काि बुद्धध कागा ( कौवा ) उस अण्डे की रक्षा करता रहा ।
समय के साि कोयि का अण्डा बङकर पक्का हुआ । और समय आने पर फ़ू ि गया । तब उससे बच्चा तनकिा ।
कु छ ददन बीत िाने पर कोयि के बच्चे की आँखे ठीक से खुि गयी । और वह समझदार होकर िानने समझने
िगा । फफ़र कु छ ही ददनों में उसके पँख भी मिबूत हो गये । तब कोयि समय समय पर आ आकर उसको िब्द
सुनाने िगी ।
वह अपना तनि िब्द सुनते ही कोयि का बच्चा िाग गया । यानी सचेत हो गया । और सच का बोध होते ही उसे
अपने वास्तववक कु ि का वचन वाणी प्यारी िगी । फफ़र िब भी कागा कोयि के बच्चे को दाना णखिाने घुमाने िे
िाये । तब तब कोयि अपने उस बच्चे को वह मीठा मनोहर िब्द सुनाये ।
कोयि के बच्चे में िब उस िब्द द्वारा अपना अंि अंकु ररत हुआ । यानी उसे अपनी असिी पहचान का बोध हुआ
। तो उस बच्चे का ह्रदय कौवे की ओर से हि गया । और एक ददन कौवे को अंगठ
ू ा ददखिाकर वह कोयि का
बच्चा उससे पराया होकर उङ चिा ।
कोयि का बच्चा अपनी वाणी बोिता हुआ चिा । और तब घबराकर उसके पीछे पीछे कागा व्याकु ि बे हाि होकर
दौङा । उसके पीछे पीछे भागता हुआ कागा िक गया । परन्तु उसे नहीं पा सका । फफ़र वह बे होि हो गया । और
बाद में होि आने पर तनराि होकर अपने घर िौि आया ।
कोयि का बच्चा िाकर अपने पररवार से लमिकर सुखी हो गया । और तनराि कागा झक मारकर रह गया ।
हे धममदास ! जिस प्रकार कोयि का बच्चा होता है फक वह कौवे के पास रहकर भी अपना िब्द सुनते ही उसका
साि छोङकर अपने पररवार से लमि िाता है ।
इसी ववधध से िब कोई भी समझदार िीव मनुटय अपने तनि नाम और तनि आत्मा की पहचान के लिये सचेत हो
िाता है । तो वह मुझसे ( सदगुरु से ) स्वयँ ही लमि िाता है । और अपने असिी घर पररवार सत्यिोक में पहुँच
िाता है । तब मैं उसके 101 वंि तार दे ता हूँ ।
कोयि सुत िस िूर ा होई । यह ववधध धाय लमिे मोदह कोई ।
सदगुरु के प्रतत िब्द ( नाम उपदे ि ) के लिये मे र ी तरफ़ दौङता है । और तनि घर सत्यिोक की तरफ़ अपनी
सुर तत ( पूर ी एकाग्रता ) रखता है । मैं उसके 101 वंि तार दे ता हूँ ।
कबीर साहब बोिे - हे धममदास ! कौवे की नीच चाि चिन नीच बुद्धध को छोङकर हँस की रहनी सत्य आचरण
सदगण
ु प्रे म िीि स्वभाव िुभ कायम िैसे उिम िक्षणों को अपनाने से मनुटय िीव सत्यिोक िाता है । जिस
प्रकार कागा की ककमि वाणी कांव कांव फकसी को अच्छी नहीं िगती । परन्तु कोयि की मधरु वाणी कु हु कु हु
िो कोई अजग्न की तरह ििता हुआ क्रोध में भरकर भी सामने आये । तो हँस िीव को िीति िि के समान
उसकी तपन बुझानी चादहये । ज्ञान अज्ञान की यही सही पहचान है । िो अज्ञानी होता है । वही कपिी उग्र तिा
दुटि बुधध वािा होता है । गुरु का ज्ञानी लिटय िीति और प्रे म भाव से पूणम होता है । उसमें सत्य वववे क संतोष
ज्ञानी वही है । िो झठ
ू पाप अनाचार दुटिता कपि आदद दुगण
ु म ों से युक्त दुटि बुद्धध को नटि कर दे । और काि
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तनरं ि न रूपी मन को पहचान कर उसे भुिा दे । उसके कहने में न आये । िो ज्ञानी होकर किु वाणी बोिता है ।
िो मनुटय िरू वीर की तरह धोती खोंसकर मैदान में िङने के लिये तैयार होता है । और युद्ध भलू म में आमने
सामने िाकर मरता है । तब उसका बहुत यि होता है । और वह सच्चा वीर कहिाता है । इसी प्रकार िीवन में
मूख म अज्ञानी के ह्रदय में िुभ सतकमम नहीं सूझता । और वह सदगुरु का सार िब्द और सदगुरु के महत्व को नहीं
समझता । मूख म इंसान से अधधकतर कोई कु छ कहता नहीं है । यदद फकसी ने िहीन का पैर यदद ववटठा ( मि ) पर
पङ िाये । तो उसकी हँसी कोई नहीं करता । िे फकन यदद आँख होते हुये भी फकसी का पैर ववटठा से सन िाये ।
हे धममदास ! यही ज्ञान और अज्ञान है । ज्ञान और अज्ञान ववपरीत स्वभाव वािे ही होते हैं । अतः ज्ञानी पुरुष
हमे िा सदगुरु का ध्यान करे । और सदगुरु के सत्य िब्द ( नाम या महामंि ) को समझे । सबके अन्दर सदगुरु
का वास है । पर वह कहीं गुप्त तो कहीं प्रकि है । इसलिये सबको अपना मानकर िैसा मैं अववनािी आत्मा हूँ ।
वैसे ही सभी िीवात्माओं को समझे । और ऐसा समझकर समान भाव से सबसे नमन करे । और ऐसी गुरु भजक्त
की तनिानी िे क र रहे ।
रं ग कच्चा होने के कारण । इस दे ह को कभी भी नािवान होने वािी िानकर भक्त प्रहिाद की तरह अपने सत्य
संक ल्प में दृण मिबूत होकर रहे । यधवप उसके वपता दहरण्यकश्यप ने उसको बहुत कटि ददये । िे फकन फफ़र भी
प्रहिाद ने अङडग होकर हरर गुण वािी प्रभु भजक्त को ही स्वीकार फकया । ऐसी ही प्रहिाद कैसी पक्की भजक्त
करता हुआ । सदगुरु से िगन िगाये रहे । और 84 में डािने वािी मोह माया को त्याग कर भजक्त साधना करे
। तब वह अनमोि हुआ हँस िीव अमरिोक सत्यिोक में तनवास पाता है । और अिि होकर जस्िर होकर िन्म
मन की कपि करामात
तब कबीर साहब बोिे - हे धममदास ! जिस प्रकार कोई नि बंदर को नाच नचाता है । और उसे बंधन में रखता
हुआ अने क दुख दे ता है । इसी प्रकार ये मन रूपी काि तनरं ि न िीव को नचाता है । और उसे बहुत दुख दे ता है ।
यह मन िीव को भृलमत कर पाप कमों में प्रवृत करता है । तिा सांसाररक बंधन में मिबूती से बाँधता है । मुजक्त
उपदे ि की तरफ़ िाते हुये फकसी िीव को दे खकर मन उसे रोक दे ता है ।
इसी प्रकार मनुटय की कल्याणकारी कायों की इच्छा होने पर भी यह मन रोक दे ता है । मन की इस चाि को कोई
त्रबरिा पुरुष ही िान पाता है ।
यदद कहीं सत्यपुरुष का ज्ञान हो रहा हो । तो ये मन ििने िगता है । और िीव को अपनी तरफ़ मोङकर ववपरीत
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बहा िे िाता है । इस िरीर के भीतर और कोई नहीं है । केवि मन और िीव ये दो ही रहते हैं । पाँच तत्व और
पाँच तत्वों की पच्चीस प्रकृ ततयाँ । सत रि तम ये तीन गुण और दस इजन्द्रयाँ ये सब मन तनरं ि न के ही चेिे हैं ।
सत्यपुरुष का अंि िीव आकर िरीर में समाया है । और िरीर में आकर िीव अपने घर की पहचान भूि गया है
। पाँच तत्व । पच्चीस प्रकृ तत तीन गुण और मन इजन्द्रयों ने लमिकर िीव को घे र लिया है । िीव को इन सबका
ज्ञान नहीं है । और अपना ये भी पता नहीं फक मैं कौन हूँ ? इस प्रकार से त्रबना पररचय के अववनािी िीव काि
तनरं ि न का दास बना हुआ है ।
िीव अज्ञानवि खुद को और इस बंधन को नहीं िानता । िैसे तोता िकङी के निनी यंि में फ़ँसकर कैद हो िाता
है । यही जस्ितत मनुटय की है ।
िैसे िे र ने अपनी परछाईं कुँ ए के िि में दे खी । और अपनी छाया को दस
ू रा िे र िानकर कू द पङा । और मर
गया । ठीक ऐसे ही िीव काि माया का धोखा समझ नहीं पाता । और बंधन में फ़ँसा रहता है । िैसे काँच के
महि के पास गया कु िा दपमण में अपना प्रततत्रबम्ब दे खकर भौंकता है । और अपनी ही आवाि और प्रततत्रबम्ब से
धोखा खाकर दस
ू रा कु िा समझकर उसकी तरफ़ भागता है । ऐसे ही काि तनरं ि न ने िीव को फ़ँ साने के लिये माया
मोह का िाि बना रखा है ।
काि तनरं ि न और उसकी िाखाओं ( कममचारी दे वताओं आदद ने ) ने िो नाम रखे हैं । वे बनाबिी हैं । िो दे खने
सुनने में िुद्ध माया रदहत और महान िगते हैं । परबृह्म परािजक्त आदद आदद । परन्तु सच्चा और मोक्षदायी
के वि आदद पुरुष का आददनाम ही है ।
अतः हे धममदास ! िीव इस काि की बनायी भि
ू भि
ू ैया में पङकर सत्यपुरुष से बे गाना हो गये । और अपना भिा
बुर ा भी नहीं ववचार सकते । जितना भी पाप कमम और लमथ्या ववषय आचरण है । ये इसी मन तनरं ि न का ही है ।
यदद िीव इस दुटि मन तनरं ि न को पहचान कर इससे अिग हो िाये । तो तनजश्चत ही िीव का कल्याण हो िाय
।
यह मैं ने मन और िीव की लभन्नता तुम्हें समझाई । िो िीव सावधान सचेत होकर ज्ञान दृजटि से मन को दे खेगा
। समझेगा । तो वह इस काि तनरं ि न के धोखे में नहीं आये गा । िैसे िब तक घर का मालिक सोता रहता है ।
तब तक चोर उसके घर में सेंध िगाकर चोरी करने की कोलिि करते रहते हैं । और उसका धन िूि िे िाते हैं ।
ऐसे ही िब तक िरीर रूपी घर का स्वामी ये िीव अज्ञानवि मन की चािों के प्रतत सावधान नहीं रहता । तब तक
मन रूपी चोर उसका भजक्त और ज्ञान रूपी धन चुर ाता रहता है । और िीव को नीच कमों की ओर प्रे ररत करता
रहता है । परन्तु िब िीव इसकी चाि को समझकर सावधान हो िाता है । तब इसकी नहीं चिती ।
बहुत सताता है । इस प्रकार स्िी पुरुष ववषय भोग में आसक्त हो िाते है । इस ववषय भोग का आनन्द रस काम
इन्द्री और मन ने लिया । और उसका पाप िीव के ऊपर िगा ददया । इस प्रकार पाप कमम और सब अनाचार
कराने वािा ये मन होता है । और उसके फ़िस्वरूप अने क नरक आदद कठोर दंड िीव भोगता है ।
दस
ू रों की तनंदा करना । दस
ू रों का धन हङपना । यह सब मन की फ़ाँसी है । सन्तों से वैर मानना । गरु
ु की तनन्दा
करना यह सब मन बुद्धध का कमम काि िाि है । जिसमें भोिा िीव फ़ँ स िाता है ।
पर स्िी पुरुष से कभी व्यलभचार न करे । अपने मन पर सयंम रखे । यह मन तो अँधा है । ववषय ववष रूपी कमों
को बोता है । और प्रत्ये क इन्द्री को उसके ववषय में प्रवृत करता है । मन िीव को उमंग दे क र मनुटय से तरह
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और रािा िीवन में ववषय ववकारी होने से नरक भुगतने के बाद फफ़र उसका सांड का िन्म होता है । और वह
पाप और पुण्य दो अिग अिग प्रकार के कमम होते हैं । उनमें पाप से नरक और पुण्य से स्वगम प्राप्त होता है ।
पुण्य कमम क्षीण हो िाने से फफ़र नरक भुगतना होता है । ऐसा ववधान है । अतः कामना वि फकये गये यह पुण्य
का यह कमम योग भी मन का िाि है । तनटकाम भजक्त ही सवमश्रटे ठ है । जिससे िीव का सब दुख द्वंद लमि
िाता है ।
हे धममदास ! इस मन की कपि करामात कहाँ तक कहूँ । बृह्मा ववटणु महे ि तीनों प्रधान दे वता िे षनाग तिा
तैतीस करोङ दे वता सब इसके फ़ँ दे में फ़ँ से और हार कर रहे । मन को वि में न कर सके । सदगुरु के त्रबना कोई
मन को वि में नहीं कर पाता । सभी मन माया के बनाबिी िाि में फ़ँसे पङे हैं ।
कबीर साहब बोिे - हे धममदास ! अब इस कपिी काि तनरं ि न का चररि सुनो । फकस प्रकार वह िीवों की छि
बुद्धध कर अपने िाि में फ़ँ साता है । इसने कृ टण अवतार धरकर गीता की किा कही । परन्तु अज्ञानी िीव इसके
चाि रहस्य को नहीं समझ पाता ।
अिु मन श्रीकृ टण का सच्चा से वक िा । और श्रीकृ टण की भजक्त में िगन िगाये रहता िा । श्रीकृ टण ने उसे सव
सूक्ष्म ज्ञान कहा । सांसाररक ववषयों से िगाव और सांसाररक ववषयों से परे आत्म मोक्ष सब कु छ सुनाया । परन्तु
बाद में काि अनुसार उसे मोक्ष मागम से हिाकर सांसाररक कमम कतमव्य में िगने को प्रे ररत फकया । जिसके पररणाम
स्वरूप भयंक र महाभारत युद्ध हुआ ।
श्रीकृ टण ने गीता के ज्ञान उपदे ि में पहिे दया क्षमा आदद गुण उपदे ि के बारे में बताया । और ज्ञान त्रबज्ञान कमम
योग आदद कल्याण दे ने वािे उपदे िों का वणमन फकया । िबफक अिु मन सत्य भजक्त में िगन िगाये िा । तिा वह
श्रीकृ टण को बहुत मानता िा ।
पहिे श्रीकृ टण ने अिु मन को मुजक्त की आिा दी । परन्तु बाद में उसे नरक में डाि ददया । कल्याणदायक ज्ञान
योग का त्याग कराकर उसे सांसाररक कमम कतमव्य की ओर घुमा ददया । जिससे कमम के वि हुये अिु मन ने बाद में
बहुत दुख पाया । मीठा अमत
ृ ददखाकर उसका िािच दे क र धोखे से ववष समान दुख दे ददया । इस प्रकार काि
िीवों को बहिा फ़ु सिाकर सन्तों की छवव त्रबगाङता है । और उन्हें मुजक्त से दरू रखता है । िीवों में सन्तों के
प्रतत अववश्वास और संदेह उत्पन्न करता है ।
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इस काि तनरं ि न की छि बुद्धध कहाँ कहाँ तक धगनाऊँ । उसे कोई कोई वववे क ी सन्त ही पहचानता है । िब कोई
ज्ञान मागम में पक्का रहता है । तभी उसे सत्य मागम सूझता है । तब वह यम के छि कपि को समझता है । और
उसे पहचानता हुआ उससे अिग हो िाता है । सदगुरु की िरण में िाने पर यम का नाि हो िाता है । तिा
अिि अक्षय सुख प्राप्त होता है ।
तब धममदास बोिे - हे प्रभु ! इस काि तनरं ि न का चररि मैं ने समझ लिया । अब आप सत्य पँि की डोरी कहो ।
जिसको पकङकर िीव यम तनरं ि न से अिग हो िाता है ।
कबीर साहब बोिे - हे धममदास ! मैं तुमको सत्यपुरुष की डोरी की पहचान कराता हूँ । सत्यपुरुष की िजक्त को िब
यह िीव िान िे ता है । तब काि कसाई उसका रास्ता नहीं रोक पाता ।
सत्यपुरुष की िजक्त उनके एक ही नाि से उत्पन्न 16 सुत है । उन िजक्तयों के साि ही िीव सत्यिोक को िाता
है । त्रबना िजक्त के पँि नहीं चि सकता । िजक्तहीन िीव तो भवसागर में ही उिझा रहता है । ये िजक्तयाँ
सदगुणों के रूप में बतायी गयी हैं ।
ज्ञान । वववे क । सत्य । संतोष । प्रे मभाव । धीरि । मौन । दया । क्षमा । िीि । तनहकमम । त्याग । वैर ाग्य ।
िांतत । तनि धमम ।
दस
ू रों का दुख दरू करने के लिये ही तो करुणा की िाती है । परन्तु अपने आप भी करुणा करके अपने िीव का
उद्धार करे । और सबको लमि समान समझकर अपने मन में धारण करे । इन िजक्त स्वरूप सदगुणों को ही
धारण कर िीव सत्यिोक में ववश्राम पाता है । अतः मनुटय जिस भी स्िान पर रहे । अच्छी तरह से समझ बूझ
कर सत्य रास्ते पर चिे । और मोह ममता काम क्रोध आदद दग
ु ण
ु म ों पर तनयंिण रखे । इस तरह इस डोर के साि
िो सत्यनाम को पकङता है । वह िीव सत्यिोक िाता है ।
तब धममदास बोिे - हे प्रभु ! आप मुझे पँि का वणमन करो । और पँि के अंतगमत ववरजक्त और गहृ स्ि की रहनी
पर भी प्रकाि डािो । कौन सी रहनी से वैर ागी वैर ाग्य करे । और कौन सी रहनी से गहृ स्ि आपको प्राप्त करे ।
कबीर साहब बोिे - हे धममदास ! सुनो । अब मैं वैर ागी के लिये आचरण बताता हूँ । वह पहिे अभक्ष्य पदािम माँस
मददरा आदद का त्याग करे । तभी हँस कहाये गा । वैर ागी सन्त सत्यपुरुष की अनन्य भजक्त अपने ह्रदय में धारण
करे । फकसी से भी द्वे ष और वैर न करे । ऐसे पाप कमों की तरफ़ दे खे भी नहीं । सब िीवों के प्रतत ह्रदय में
दया भाव रखे । मन वचन कमम से भी फकसी िीव को न मारे । सत्य ज्ञान का उपदे ि और नाम िे । िो मुजक्त
की तनिानी है । जिससे पाप कमम अज्ञान तिा अहंक ार का समूि नाि हो िाये गा । वैर ागी बह्
ृ मचयम वत
ृ का पूणम
रूप से पािन करे । काम भावना की दृजटि से स्िी को स्पिम न करे । तिा वीयम को नटि न करे । काम क्रोध
आदद ववषय और छि कपि को ह्रदय से पूणमतया धो दे । और एक मन एक धचि होकर नाम का सुमरण करे ।
हे धममदास ! अब गहृ स्ि की भजक्त सुनो । जिसको धारण करने से गहृ स्ि काि फ़ाँस में नहीं पङे गा । वह काग
मछिी । फकसी भी पिु का माँस । अंडे न खाये । और न ही िराब वपये । इनको खाना पीना तो दरू इनके पास
भी न िाये । क्योंफक ये सब अभक्ष्य पदािम हैं । वनस्पतत अंकु र से उत्पन्न अनाि फ़ि िाक सब्िी आदद का
आहार करे । सदगुरु से नाम िे । िो मुजक्त की पहचान है । तब काि कसाई उसको रोक नहीं पाता है ।
हे भाई ! िो गहृ स्ि िीव ऐसा नहीं करता । वह कहीं भी नहीं बचता । वह घोर दुख के अजग्नकु न्ड में िि ििकर
नाचता है । और पागि हुआ सा इधर उधर को भिकता ही है । उसे अने क ाने क कटि होते हैं । और वह िन्म
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िन्म बारबार कठोर नरक में िाता है । वह करोंडो िन्म िहरीिे साँप के पाता है । तिा अपनी ही ववष ज्वािा
वह ववटठा ( मि िट्िी ) में कीङा कीि का िरीर पाता है । और इस प्रकार 84 की योतनयों के करोंङो िन्म तक
वे द इसका उसका यानी कमम योग उपासना और बृह्म का ही वणमन करता है । वे द सत्यपुरुष का भे द नहीं िानता
। अतः करोंङो में कोई ऐसा वववे क ी संत होता है । िो मे र ी वाणी को पहचान कर गहृ ण करता है । काि तनरं ि न
ने खानी वाणी के बंधन में सबको फ़ँ साया हुआ है । मंद बुद्ध अल्पज्ञ िीव उस चाि को नहीं पहचानता । और
अपने
घर आनन्द धाम सत्यिोक नहीं पहुँच पाता । तिा िन्म मरण और नरक के भयानक कटिों में ही फ़ँ सा रहता है
अनुरागी के िक्षण
भी नहीं डरता । जिस प्रकार नाद िब्द के प्रे मी दहरन ने लिकारी को अपना लसर दे ददया । ऐसे ही सच्चे प्रे मी को
भी पहचानो ।
इसी तरह हे धममदास ! जिस प्रकार पतंगा का स्वभाव दीपक से प्रे म करते हुये ििकर मरना होता है । वैसे ही
जिस प्रकार अपने पतत के अगाध प्रे म में डूबी सती नारी अपने पतत के साि ििकर मर िाती है । और ििते
समय अपने अंगो को िरा भी मोङती लसकोङती नहीं । और न ही िरा भी ववचलित होकर घबराती है । सुन्दर घर
धन पररवार संसार तिा सखी सहे लियों को ववरक्त भाव से छोङकर वह अपने पतत की वप्रय सती नारी पतत के
तब उस नारी को सती होने से रोकने के लिये उसके वप्रयिन नाते ररश्ते दार पङोसी आदद उसके बच्चों को उसके
सामने िाकर उसके प्रतत उसके मोह ममता कतमव्य आदद का बारबार बोध कराते हुये उसे समझाते हैं फक - दे ख ये
ते र ा अबोध बािक बहुत कमिोर है । िो ते रे प्यार ममता के त्रबना ऐसे ही मर िाये गा । अब तो ते र ा घर भी सूना
दे ख ते रे घर पररवार में बहुत धन संपवि है । ऐसे तनराि न होकर घर वापस िौि चि । परन्तु उन िोगों के
बारबार कहने सुनने का उस पर कोई प्रभाव नहीं पङता । उसके ह्रदय में तो के वि अपने प्राण से वप्रय पतत का
सभी ने उसको अिग अिग अपने अपने ढंग से बहुत समझाया । परन्तु पतत प्रे म में आकं ठ डूबी वह ववयोधगनी
और जस्िर अववचि भाव से उिर दे ती है - अपने प्राणों से वप्रय पतत के त्रबछु ङने से मैं ऐसी दीवानी हुयी हूँ फक अब
मुझे कु छ भी नहीं सुहाता । धन घर पररवार आदद की अब मुझे िरा भी कामना नहीं है । इस संसार में चार ददन
का ही िीवन िीना है । फफ़र अंत समय में मृत्यु के समय सब यहीं छू ि िाता है । तब अके िे ही िाना पङता है
। इस प्रकार हे सखी ! मैं ने सब कु छ अच्छी तरह से सोच समझकर दे खा है । और उसके बाद ही पतत के साि
सती होने का तनश्चय फकया है । ऐसा कहकर वह पतत प्रे म अनुर ागी नारी सती अपने मृतक पतत का िरीर हािों में
उठाकर धचता पर चढ िाती है । और प्राणवप्रय पतत के मृत िरीर को गोद में रखकर परम वपता परमात्मा
कबीर साहब बोिे - ऐसे िो कल्याण मोक्ष चाहने वािे सच्चे अनुर ागी हैं । वह प्रभु के सत्यनाम ज्ञान से सच्ची
िगन िगाये । और भजक्त भाव में कु ि पररवार सभी को भुिा दे । पुि और स्िी आदद का मोह मन में कभी न
आने दे । और िन्म से िे क र मृत्यु तक सम्पूणम िीवन को स्वपन के समान समझे ।
हे धममदास ! इस संसार में िीवन बहुत िोङा है । और अंत में मृत्यु समय कोई मददगार कोई सहायक नहीं होता
। इसलिये व्यिम की मोह ममता में नहीं पङना चादहये । क्योंफक अंत में तो सभी साि छोङ दे ते हैं । और िीव
अपने कमम के अनुसार अपनी गतत को प्राप्त होता है । इस संसार में प्राय सभी को स्िी बहुत प्यारी होती है ।
िन्म दे ने वािे और पािन पोषण करने वािे माता वपता भी उसके समान प्यारे नहीं िगते ।
उस पत्नी के लिये यदद उसका पतत अपना लसर भी किा दे । तो भी वह िीवन के अंत में मृत्यु के समय प्रे म
करने वािी सहायक लसद्ध नहीं होती । के वि अपने स्वािम की पतू तम के लिये ही रोना धोना करती है । स्वािम परू ा
न होने पर वह िीघ्र ही अपने पतत को भूिकर पीहर िाने का मन बना िे ती है ।
हे धममदास ! िैसे सपने में राज्य । मान सम्मान । धन संपदा । प्रे म करने वािा पररवार । एवं सहायक लमि
आदद सभी लमि िाते हैं । परन्तु सपना समाप्त हो िाने पर नींद से िागने पर वास्तववकता का पता चिता है फक
ये सब िो दे खा िा । वह सब केवि एक सपना ही िा । ठीक वैसे ही स्िी पुि पररवार के िोग धन संपवि आदद
सपने के प्रे मी ददखाई पङते हैं । अंततः ये सब सपने की तरह ही खो िायेंगे ।
ऐसी जस्ितत में उधचत यही है फक इन सब सम्बन्धों को के वि कतमव्य समझकर तनबाहता हुआ परमात्मा के
सत्यनाम ज्ञान को स्वीकार करके इंसान अपना उद्धार करे । ये दुिमभ नाम भजक्त ही इस िोक और परिोक में
सदैव ही सहायक है ।
इस असार संसार में अपने िरीर के समान वप्रय और कोई दस
ू रा नहीं होता । परन्तु अंत समय में यह िरीर भी
अपना साि नहीं दे ता । तब ये भी साि छोङ दे ता है ।
हे धममदास ! इस संसार में ऐसा कोई भी सामथ्यमवान ददखाई नहीं दे ता । िो िीव को अंत समय में मत्ृ यु के मुँह
में िाने से बचा िे । उस समय मनुटय के सभी नाते ररश्ते दार यार दोस्त वप्रयिन आदद सभी वे वि और असमिम
होते हैं ।
हाँ लसफ़म एक हस्ती ऐसी अवश्य होती है । जिसको मैं तनश्चय से कहता हूँ । िे फकन जिसके ह्रदय में उनके प्रतत
सच्ची प्रे म भजक्त होगी । वही उनसे िाभ प्राप्त कर पाये गा । और वह एक सदगुरु ही होते हैं । िो इस िीव को
समस्त सांसाररक काि बंधनों से और काि माया िाि से मुक्त कराते हैं । मे र ी यह बात तुम त्रबना फकसी संिय
के तनश्चय पूवमक मानो ।
काि यानी मृत्यु प्रत्ये क व्यजक्त के िीवन में घदित होने वािा एक सत्य है । िे फकन काि काि सभी कहते तो
फफ़रते हैं । परन्तु काि वास्तव में है क्या ? यह कोई नहीं िानता । लसफ़म इस िरीर का छू िना मरना ही काि
इन्हीं कल्पनाओं के बंधन में पङा हुआ िीव काि को प्राप्त होता है । इस संसार में िीव जिस िरीर के साि
उत्पन्न होता है । उसकी मृत्यु अवश्य होती है । िे फकन जिसका िन्म ही न हुआ हो । उसकी मृत्यु कै से हो सकती
है ?
यह सत्य है । िो पैदा होता है । केवि वही मरता है । इसलिये काि से बचने का उपाय है । िीव का पुनिमन्म
ही न हो । इसके लिये वह जिन कारण संस्कारों से यहाँ पङा हुआ है । उसे ही समूि नटि कर ददया िाय ।
सांसाररक मोह माया और ववषय वासनाओं के बंधन में पङा हुआ अज्ञानी िीव बारबार िरीर को धारण करके पैदा
होता है । और मरता है । इस प्रकार वह मोहवि आवागमन के चक्र में पङा हुआ अनन्त काि से अनन्त दुखों को
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भोग रहा है ।
िीव की इस अज्ञानता को फकसी भी अस्ि िस्ि से कािा नहीं िा सकता । दरू नहीं फकया िा सकता है । इसे
केवि ज्ञान युजक्त से ही कािा िा सकता है । परन्तु वह अतत वविक्षण ज्ञान युजक्त लसफ़म पण
ू म सदगरु
ु दे व से ही
प्राप्त होती है । जिस जिज्ञासु इंसान के ह्रदय में मोक्ष कामना के लिये सत्य अनुर ाग होता है । उसे ही सदगरु
ु
दयाभाव से सत्यज्ञान प्रदान करते हैं । उस ज्ञान की सच्ची भजक्त साधना से िीव आवागमन के चक्र से छू ि िाता
है ।
परमािम के उपदे ि
कबीर साहब बोिे - हे धममदास ! अब मैं तुमसे परमािम वणमन करता हूँ । ज्ञान को प्राप्त हुआ । ज्ञान के िरणागतत
हुआ कोई िीव समस्त अज्ञान और काि िाि को छोङे । तिा िगन िगाकर सत्यनाम का सुमरन करे । असत्य
को छोङकर सत्य की चाि चिे । और मन िगाकर परमािम मागम को अपनाये ।
हे धममदास ! एक गाय को परमािम गण
ु ों की खान िानो । हे ज्ञानी धममदास ! गाय की चाि और गण
ु ों को समझो
। गाय खेत बाग आदद में घास चरती है । िि पीती है । और अंत में दध
ू दे ती है । उसके दध
ू घी से दे वता और
मनुटय दोनों ही तृप्त होते हैं । गाय के बच्चे दस
ू रों का पािन करने वािे होते हैं । उसका गोबर भी मनुटय के
बहुत काम आता है । परन्तु पाप कमम करने वािा मनुटय अपना िन्म यूँ ही गँवाता है ।
बाद में आयु परू ी होने पर गाय का िरीर नटि हो िाता है । तब उसे राक्षस के समान मनुटय उसका िरीर का
माँस िे क र खाते हैं । मरने पर भी उसके िरीर का चमढा मनुटय के लिये बहुत सुख दे ने वािा होता है । हे भाई !
िन्म से िे क र मृत्यु तक गाय के िरीर में इतने गुण होते हैं ।
इसलिये गाय के समान गुण वािा होने का यह वाणी उपदे ि सज्िन पुरुष गहृ ण करे । तो काि तनरं ि न िीव की
कभी हातन नहीं कर सकता । मनुटय िरीर पाकर जिसकी बुद्धध ऐसी िुद्ध हो । और उसे सदगुरु लमिे । तो वह
हमे िा को अमर हो िाये ।
हे धममदास ! परमािम की वाणी परमािम के उपदे ि सुनने से कभी हातन नहीं होती । इसलिये सज्िन परमािम का
सहारा आधार िे क र भवसागर से पार हो । दुिमभ मनुटय िीवन के रहते मनुटय सार िब्द के उपदे ि का पररचय
और ज्ञान प्राप्त करे । फफ़र परमािम पद को प्राप्त हो । तो वह सत्यिोक को िाये । अहंक ार को लमिा दे । और
तनटकाम से वा की भावना ह्रदय में िाये । िो अपने कु ि बि धन ज्ञान आदद का अहंक ार रखता है । वह सदा दुख
ही पाता है ।
यह मनुटय ऐसा चतुर बुद्धधमान बनता है फक सदगुण और िुभ कमम होने पर कहता है फक मैं ने ऐसा फकया है ।
और उसका पूर ा श्रेय अपने ऊपर िे ता है । और अवगुण द्वारा उल्िा ववपरीत पररणाम हो िाने पर कहता है फक
भगवान ने ऐसा कर ददया ।
यह नर अस चातुर बुधधमाना । गुण िुभ कमम कहे हम ठाना ।
ऊँच फक्रया आपन लसर िीन्हा । औगण को बोिे हरर कीन्हा ।
तब ऐसा सोचने से उसके िुभ कमों का नाि हो िाता है । हे धममदास ! सब आिाओं को छोङकर तुम तनराि (
85
उदास ववरक्त वैरागी भाव ) भाव िीवन में अपनाओ । और केवि एक सत्यनाम कमाई की ही आिा करो । और
अपने फकये िुभ कमम को फकसी को बताओ नहीं ।
सभी दे वी दे वताओं भगवान से ऊँचा सवोपरर गुरु पद है । उसमें सदा िगन िगाये रहो । िैसे िि में अलभन्न रूप
से मछिी घूमती है । वैसे ही सदगुरु के श्रीचरणों में मगन रहे । सदगुर द्वारा ददये िब्द नाम में सदा मन िगाता
हुआ उसका सुमरन करे ।
िैसे मछिी कभी िि को नहीं भि
ू ती । और उससे दरू होकर तङपने िगती है । ऐसे ही चतुर लिटय गरु
ु से
उपदे ि कर उन्हें भि
ू े नहीं । सत्यपुरुष के सत्यनाम का प्रभाव ऐसा है फक हँस िीव फफ़र से संसार में नहीं आता ।
तुम कछु ए के बच्चे की किा गुण समझो । कछवी िि से बाहर आकर रे त लमट्िी में गढ्ढा खोदकर अण्डे दे ती है
। और अण्डो को लमट्िी से ढककर फफ़र पानी में चिे िाती है । परन्तु पानी में रहते हुये भी कछवी का ध्यान
तनरं तर अण्डों की ओर ही िगा रहता है । वह ध्यान से ही अण्डों को से ती है । समय पूर ा होने पर अण्डे पुटि होते
हैं । और उनमें से बच्चे बाहर तनकि आते हैं । तब उनकी माँ कछवी उन बच्चों को िे ने पानी से बाहर नहीं आती
। बच्चे स्वयँ चिकर पानी में चिे िाते हैं । और अपने पररवार से लमि िाते हैं ।
हे धममदास ! िैसे कछु ये के बच्चे अपने स्वभाव से अपने पररवार से िाकर लमि िाते हैं । वैसे ही मे रे हँस िीव
अपने तनि स्वभाव से अपने घर सत्यिोक की तरफ़ दौङें । उनको सत्यिोक िाते दे खकर काि तनरं ि न के यमदत
ू
बिहीन हो िायेंगे । तिा वे उनके पास नहीं िायेंगे । वे हँस िीव तनभमय तनडर होकर गरिते और प्रसन्न होते हुये
नाम का सुमरन करते हुये आनन्द पूवमक अपने घर िाते हैं । और यमदत
ू तनराि होकर झक मारकर रह िाते हैं ।
सत्यिोक आनन्द का धाम अनमोि और अनुपम है । वहाँ िाकर हँस परमसुख भोगते हैं । हँस से हँस लमिकर
िैसे भंवरा कमि पर बसता है । वैसे ही अपने मन को सदगुरु के श्रीचरणों में बसाओ । तब सदा अचि सत्यिोक
लमिता है । अववनािी िब्द और सुर तत का मे ि करो । यह बूँद और सागर के लमिने के खेि िैसा है । इसी
दस
ू रे को रतत भावना की गहन दृजटि से दे खते हैं । उनकी इस रतत फक्रया ववधध से मादा पक्षी को गभम ठहर िाता
है ।
हे धममदास ! फफ़र कु छ समय बाद वह मादा अनि पक्षी अण्डा दे ती है । पर उनके तनरन्तर उङने के कारण अण्डा
के ठहरने का कोई आधार तो होता नहीं ।
वहाँ तो बस के वि तनराधार िन्
ू य 0 ही िन्
ू य 0 है । तब आधारहीन होने के कारण उसका अण्डा धरती की ओर
धगरने िगता है । और नीचे रास्ते में आते आते ही पूर ी तरह पककर तैयार हो िाता है । और रास्ते में ही वह
अण्डा फ़ू िकर लििु बाहर तनकि आता है । और नीचे धगरते ही धगरते रास्ते में वह अनि पक्षी आँखे खोि िे ता है
। तिा कु छ ही दे र में उसके पंख उङने िायक हो िाते हैं ।
नीचे धगरते हुये िब वह प्रथ्वी के तनकि आता है । तब उसे स्वतः पता िग िाता है फक यह प्रथ्वी मे रे रहने का
स्िान नहीं है । तब वह अनि पक्षी अपनी सुर तत के सहारे वापस अंतररक्ष की ओर िौिने िगता है । िहाँ पर
उसके माता वपता का तनवास है । अनि पक्षी कभी भी अपने बच्चे को िे ने प्रथ्वी की ओर नहीं आते । बजल्क
उनका बच्चा स्वयँ ही पहचान िे ता है फक यह प्रथ्वी मे र ा घर नहीं है । और वापस पििकर अपने असिी घर की
ओर चिा िाता है ।
हे धममदास ! इस संसार में बहुत से पक्षी रहते हैं । परन्तु वे अनि पक्षी के समान गण
ु वान नहीं होते । ऐसे ही
कु छ ही ववरिे िीव है । िो सदगरु
ु के ज्ञान अमत
ृ को पहचानते हैं ।
तनधमतनयाँ सब संसार है । धनवन्ता नदहं कोय । धनवन्ता ताही कहो । िा ते नाम रतन धन होय ।
हे धममदास ! इसी अनि पक्षी की तरह िो िीव ज्ञान युक्त होकर होि में आ िाता है । तो वह इस काि कल्पना
हे धममदास ! िो मनुटय िीव इस संसार के सभी आधारों को त्यागकर एक सदगुरु का आधार और उनके नाम से
ववश्वासपूवमक िगन िगाये रहता है । और सब प्रकार का अलभमान त्यागकर रात ददन गुरु चरणों के अधीन रहता
हुआ दास भाव से उनकी से वा में िगा रहता है । तिा धन घर और पररवार आदद का मोह नहीं करता ।
पुि स्िी तिा समस्त ववषयों को संसार का ही सम्बन्ध मानकर गुरु चरणों को ह्रदय से पकङे रहता है । ताफक
चाहकर भी अिग न हो । इस प्रकार िो मनुटय साधु संत गुरु भजक्त के आचरण में िीन रहता है । सदगुरु की
कृ पा से उसके िन्म मरण रूपी अत्यन्त दुखदायी कटि का नाि हो िाता है । और वह साधु सत्यिोक को प्राप्त
होता है ।
साधक या भक्त मनुटय मन वचन कमम से पववि होकर सदगुरु का ध्यान करे । और सदगुरु की आज्ञानुसार
सावधान होकर चिे । तब सदगुरु उसे इस िङ दे ह से परे नाम ववदे ह िो िाश्वत सत्य है । उसका साक्षात्कार करा
भंग
ृ ी के प्रिम िब्द गुि
ं ार को ह्रदय से स्वीकारता है । अन्यिा कोई दस
ू रे और तीसरे िब्द को ही िब्द स्वर
भंग
ृ ी के िब्द स्वर गि
ु ं ार को िो कीि स्वीकार नहीं करता । तो फफ़र वह कीि योतन के आश्रय में ही पङा रहता है
। यानी वह मामि
ू ी कीि से िजक्तिािी भंग
ृ ी नहीं बन सकता ।
हे धममदास ! यह मामूिी कीि का भृंगी में बदिने का अदभुत रहस्य है । िो फक महान लिक्षा प्रदान करने वािा है
। इसी प्रकार िङ बुद्धध लिटय िो सदगुरु के उपदे ि को ह्रदय से स्वीकार करके गहृ ण करता है । उससे वह ववषय
ववकारों से मुक्त होकर अज्ञान रूपी बंधनों से मुक्त होकर कल्याणदायी मोक्ष को प्राप्त होता है ।
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हे धममदास ! भंग
ृ ी भाव का महत्व और श्रेटठता को िानों । भंग
ृ ी की तरह यदद कोई मनुटय तनश्चय पूणम बुद्धध से
गुरु के उपदे ि को स्वीकार करे । तो गुरु उसे अपने समान ही बना िे ते हैं । जिसके ह्रदय में गुरु के अिावा दस
ू रा
कबीर साहब बोिे - हे धममदास ! इस मनुटय को कौवे की चाि स्वभाव ( िो साधारण मनुटय की होती है ) आदद
दुगण
ु म ों को त्यागकर हँस स्वभाव को अपनाना चादहये । सदगुरु के िब्द उपदे ि को गहृ ण कर मन वचन वाणी कमम
से सदाचार आदद सदगुणों से हँस के समान होना चादहये ।
हे धममदास ! िीववत रहते हुये यह मत
ृ क स्वभाव का अनुपम ज्ञान तुम ध्यान से सुनो । इसे गहृ ण करके ही कोई
त्रबरिा मनुटय िीव ही परमात्मा की कृ पा को प्राप्त कर साधना मागम पर चि सकता है । तुम मुझसे उस मृतक
भाव का गहन रहस्य सुनो । लिटय मृतक भाव होकर सत्यज्ञान का उपदे ि करने वािे सदगुरु के श्रीचरणों की पूरे
भाव से से वा करे । मृतक भाव को प्राप्त होने वािा कल्याण की इच्छा रखने वािा जिज्ञासु अपने ह्रदय में क्षमा
दया प्रे म आदद गुणों को अच्छी प्रकार से गहृ ण करे । और िीवन में इन गुणों के वत
ृ तनयम का तनवामह करते हुये
स्वयँ को संसार के इस आवागमन के चक्र से मुक्त करे ।
िैसे प्रथ्वी को तोङा खोदा िाने पर भी वह ववचलित नहीं होती । क्रोधधत नहीं होती । बजल्क और अधधक फ़ि फ़ू ि
अन्न आदद प्रदान करती है । अपने अपने स्वभाव के अनुसार कोई मनुटय चन्दन के समान प्रथ्वी पर फ़ू ि
फ़ु िवारी आदद िगाता हुआ सुन्दर बनाता है । तो कोई ववटठा मि आदद डािकर गन्दा करता है । कोई कोई उस
पर कृ वष खेती आदद करने के लिये िु ताई खुदाई आदद करता है । िे फकन प्रथ्वी उससे कभी ववचलित न होकर िांत
भाव से सभी दुख सहन करती हुयी सभी के गुण अवगुण को समान मानती है । और इस तरह के कटि को और
अच्छा मानते हुये अच्छी फ़सि आदद दे ती है ।
हे धममदास ! अब और भी मत
ृ क भाव सुनो । ये अत्यन्त दरू
ु ह कदठन बात है । मत
ृ क भाव में जस्ित संत गन्ने की
भांतत होता है । िैसे फकसान गन्ने को पहिे काि छाँिकर खेत में बोकर उगाता है । फफ़र नये लसरे से पैदा हुआ
गन्ना फकसान के हाि में पङकर पोरी पोरी से तछिकर स्वयँ को किवाता है । ऐसे ही मृतक भाव का संत सभी
दुख सहन करता है ।
फफ़र वह किा तछिा हुआ गन्ना अपने आपको कोल्हू में वपरवाता है । जिसमें वह परू ी तरह से कु चि ददया िाता है
। और फफ़र उसमें से सारा रस तनकि िाने के बाद उसका िे ष भाग खो बन िाता है । फफ़र आप स्वरूप उस रस
को कङाहे में उबािा िाता है । उसके अपने िरीर के रस को आग पर तपाने से गुङ बनता है । और फफ़र उसे और
अधधक आँच दे क र तपा तपाकर रगङ रगङकर खाँड बनायी िाती है ।
खाँड बन िाने पर फफ़र से उसमें ताप ददया िाता है । और फफ़र तव उसमें से िो दाना बनता है । उसे चीनी
कहते हैं । चीनी हो िाने पर फफ़र से उसे तपाकर कटि दे क र लमश्री बनाते हैं ।
हे धममदास ! लमश्री से पककर कंद कहिाया । तो सबके मन को अच्छा िगा । इस ववधध से गन्ने की भांतत िो
89
लिटय गरु
ु की आज्ञा अनुसार आचरण व्यवहार करता हुआ सभी प्रकार के कटि दख
ु सहन करता है । वह सदगरु
ु
की कृ पा से सहि ही भवसागर को पार कर िे ता है ।
हे धममदास ! िीववत रहते हुये मृतक भाव अपनाना बे हद कदठन है । इसे िाखों करोंङो में कोई सूर मा संत ही
अपना पाता है । िबफक इसे सुनकर ही सांसाररक ववषय ववकारों में डूबा कायर व्यजक्त तो भय के मारे तन मन से
ििने िगता है । स्वीकारना अपनाना तो बहुत दरू की बात है । और वह डर के मारे भागा हुआ इस ओर ( भजक्त
की तरफ़ ) मुङकर भी नहीं दे खता ।
िैसे गन्ना सभी प्रकार के दुख सहन करता है । ठीक ऐसे ही िरण में आया हुआ लिटय गुरु की कसौिी पर दुख
सहन करता हुआ सबको संवारे । और सदा सबको सुख प्रदान करने वािे सवमदहत के कायम करे । वह मृतक भाव
को प्राप्त गुरु के ज्ञान भे द को िानने वािा मममज्ञ साधक लिटय तनश्चय ही सत्यिोक को िाता है ।
वह साधु सांसाररक किे िों और तनि मन इजन्द्रयों के ववषय ववकारों को समाप्त कर दे ता है । ऐसी उिम वैर ाग्य
जस्ितत को प्राप्त अववचि साधु से सामान्य मनुटय तो क्या दे वता तक अपने कल्याण की आिा करते हैं ।
हे धममदास ! साधु का मागम बहुत ही कदठन है । िो साधुता की उिम सत्यता पवविता तनटकाम भाव में जस्ित
होकर साधना करता है । वही सच्चा साधु है । वही सच्चे अिों में साधु है । िो अपनी पाँचों इजन्द्रयों आँख कान
नाक िीभ कामें द्री को वि में रखता है । और सदगुरु द्वारा ददये सत्यनाम अमृत के ददन रात चखता है ।
िुिेरा कामदे व
कबीर साहब बोिे - हे धममदास ! साधना करते समय सबसे पहिे साधु को चक्षु ( आँख ) इजन्द्रय को साधना
चादहये । यानी आँखों पर तनयंिण रखे । वह फकसी ववषय पर इधर उधर न भिके । उसे भिी प्रकार तनयंिण में
करे । और गरु
ु के बताये ज्ञान मागम पर चिता हुआ सदैव उनके द्वारा ददया हुआ नाम भाव पण
ू म होकर सुमरन करे
।
5 तत्वों से बने इस िरीर में ज्ञान इजन्द्रय आँख का संबंध अजग्न तत्व से है । आँख का ववषय रूप है । उससे ही
हम संसार को ववलभन्न रूपों में दे खते हैं । िैसा रूप आँख को ददखायी दे ता है । वैसा ही भाव मन में उत्पन्न होता
है । आँख द्वारा अच्छा बुर ा दोनों दे खने से राग द्वे ष भाव उत्पन्न होते हैं । इस मायारधचत संसार में अने क ाने क
ववषय पदािम हैं । जिन्हें दे खते ही उन्हें प्राप्त करने की तीवृ इच्छा से तन और मन व्याकु ि हो िाते हैं । और
िीव ये नहीं िानता फक ये ववषय पदािम उसका पतन करने वािे हैं । इसलिये एक सच्चे साधु को आँख पर
तनयंिण करना होता है ।
सुन्दर रूप आँखों को दे खने में अच्छा िगता है । इसी कारण सुन्दर रूप को आँख की पि
ू ा कहा गया है । और िो
दस
ू रा रूप कु रूप है । वह दे खने में अच्छा नहीं िगता । इसलिये उसे कोई नहीं दे खना चाहता । असिी साधु को
चादहये फक वह इस नािवान िरीर के रूप कु रूप को एक ही करके माने । और स्िि
ू दे ह के प्रतत ऐसे भाव से
उठकर इसी िरीर के अन्दर िो िाश्वत अववनािी चेतन आत्मा है । उसके दिमन को ही सुख माने । िो ज्ञान
द्वारा ववदे ह जस्ितत में प्राप्त होता है ।
हे धममदास ! कान इजन्द्रय का संबंध आकाि तत्व से है । और इसका ववषय िव्द सुनना है । कान सदा ही अपने
अनुकू ि मधुर िुभ िब्द को ही सुनना चाहते हैं । कानों द्वारा कठोर अवप्रय िब्द सुनने पर धचि क्रोध की आग में
ििने िगता है । जिससे बहुत अिांतत होकर बैचन
ै ी होती है । सच्चे साधु को चादहये फक वह बोि कु बोि ( अच्छे
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के कल्याण में बाधक है । वहीं कामी पुरुष भी स्िी के मोक्ष में बाधा समान ही है । काम ववषय बहुत ही कदठन
ववकार है । और संसार के सभी स्िी पुरुष कहीं न कहीं काम भावना से गलृ सत रहते हैं । काम अजग्न दे ह में
उत्पन्न होने पर िरीर का रोम रोम ििने िगता है । काम भावना उत्पन्न होते ही व्यजक्त की मन बुद्धध से
तनयंिण समाप्त हो िाता है । जिसके कारण व्यजक्त का िारीररक मानलसक और आध्याजत्मक पतन होता है ।
हे धममदास ! कामी क्रोधी िािची व्यजक्त कभी भजक्त नहीं कर पाते । सच्ची भजक्त तो कोई िूर वीर संत ही करता
कामी क्रोधी िािची इनसे भजक्त न होय । भजक्त करे कोई सूर मा िातत वणम कु ि खोय ।
अतः काम िीवन के वास्तववक िक्ष्य मोक्ष के मागम में सबसे बङा ििु है । अतः इसे वि में करना बहुत आवश्यक
ही है ।
हे धममदास ! इस कराि ववकराि काम को वि में करने का अब उपाय भी सुनो । िब काम िरीर में उमङता हो ।
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या कामभावना बे हद प्रबि हो िाये । तो उस समय बहुत साबधानी से अपने आपको बचाना चादहये । इसके लिए
स्वयँ के ववदे ह रूप को या आत्मस्वरूप को ववचारते हुये सुर तत ( एकाग्रता ) वहाँ िगायें । और सोचें फक मैं ये
िरीर नहीं हूँ । बजल्क मैं िुद्ध चैतन्य आत्मस्वरूप हूँ । और सत्यनाम तिा सदगरु
ु ( यदद हों ) का ध्यान करते
हुये ववषैिे काम रस को त्यागकर सत्यनाम के अमत
ृ रस का पान करते हुये इसके आनन्ददायी अनुभव को प्राप्त
करे ।
हे धममदास ! काम िरीर में ही उत्पन्न होता है । और मनुटय अज्ञानवि स्वयँ को िरीर और मन िानता हुआ ही
इस भोग वविास में प्रवृत होता है । िब वह िान िे गा फक वह 5 तत्वों की बनी ये नािवान िङ दे ह नहीं है ।
बजल्क ववदे ह अववनािी िाश्वत चैतन्य आत्मा है । तब ऐसा िानते ही वह इस काम ििु से पूर ी तरह से मुक्त ही
हो िाये गा ।
मनुटय िरीर में उमङने वािा ये काम ववषय अत्यन्त बिबान और बहुत भयंक र कािरूप महाकठोर और तनदमयी है
। इसने दे वता मनुटय राक्षस ऋवष मुतन यक्ष गंधवम आदद सभी को सताया हुआ है । और करोंङो िन्मों से उनको
िूिकर घोर पतन में डािा है । और कठोर नरक की यातनाओं में धके िा है । इसने फकसी को नहीं छोङा । सबको
िूिा है ।
िे फकन िो संत साधक अपने ह्रदय रूपी भवन में ज्ञान रूपी दीपक का पुण्य प्रकाि फकये रहता हो । और सदगुरु के
सार िब्द उपदे ि का मनन करते हुये सदा उसमें मगन रहता हो । उससे डरकर ये कामदे व रूपी चोर भाग िाता है
िो ववषया संतन तिी मूढ ताहे िपिात । नर ज्यों डारे वमन कर श्वान स्वाद सो खात ।
कबीर साहब ने ये दोहा नीच काम के लिये ही बोिा है । इस काम रूपी ववष को जिसे संतों ने एकदम त्यागा है ।
मूर ख मनुटय इस काम से उसी तरह लिपिे रहते हैं । िैसे मनुटयों द्वारा फकये गये वमन यानी उल्िी या पल्िी को
कु िा प्रे म से खाता है ।
कबीर साहब बोिे - हे धममदास ! िब तक दे ह से परे ववदे ह नाम का ध्यान होने में नहीं आता । तब तक िीव इस
असार संसार में ही भिकता रहता है । ववदे ह ध्यान और ववदे ह नाम इन दोनों को अच्छी तरह से समझ िे ता है ।
नाम रूप होता है । परन्तु वह स्िायी नहीं रहता । राम कृ टण ईसा िक्ष्मी दुगाम िंक र आदद जितने भी नाम इस
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संसार में बोिे िाते हैं । ये सब िरीरी नाम हैं । वाणी के नाम हैं ।
िे फकन इसके ववपरीत इस िङ और नािवान दे ह से परे उस अववनािी चैत न्य िाश्वत और तनि आत्मस्वरूप
परमात्मा का वास्तववक नाम ववदे ह है । और ध्वतन रूप है । वही सत्य है । वही सवोपरर है । अतः मन से
सत्यनाम का सुमरन करो । वहाँ ददन रात की जस्ितत तिा प्रथ्वी अजग्न वायु आदद 5 तत्वों का स्िान नहीं है
हे धममदास ! ध्यान करते हुये िब साधक का ध्यान क्षण भर के लिये भी ववदे ह परमात्मा में िीन हो िाता है ।
तो उस क्षण की मदहमा आनन्द का वणमन करना असंभव ही है । भगवान आदद के िरीर के रूप तिा नामों को
याद करके सब पुक ारते हैं । परन्तु उस ववदे ह स्वरूप के ववदे ह नाम को कोई ववरिा ही िान पाता है ।
िो कोई चारों युगों सतयुग िेता द्वापर कलियुग में पववि कही िाने वािी कािी नगरी में तनवास करे ।
नैलमषारण्य बद्रीनाि आदद तीिों पर िाये । और गया द्वारका प्रयाग में स्नान करे । परन्तु सार िब्द ( तनवामणी
नाम ) का रहस्य िाने त्रबना वह िन्म मरण के दुख और बे हद कटिदायी यमपुर में ही िाये गा । और वास करे गा
हे धममदास ! चाहे कोई 68 तीिों मिुर ा कािी हररद्वार रामे श् वर गंगासागर आदद में स्नान कर िे । चाहे सारी
प्रथ्वी की पररकृ मा कर िे । परन्तु सार िब्द का ग्यान िाने त्रबना उसका भृम अग्यान नहीं लमि सकता ।
हे धममदास ! मैं कहाँ तक उस सार िब्द के नाम के प्रभाव का वणमन करूँ । िो उसका हँसदीक्षा िे क र तनयम से
सभी नामों से अदभुत सत्यपुरुष का सार नाम लसफ़म सदगुरु से ही प्राप्त होता है । उस सार नाम की डोर पकङकर
ही भक्त साधक सत्यिोक को िाता है । उस सार नाम का ध्यान करने से सदगुरु का वह हँस भक्त 5 तत्वों से
कबीर साहब बोिे - हे धममदास ! मोक्ष प्रदान करने वािा सार िब्द ववदे ह स्वरूप वािा है । और उसका वह अनुपम
रूप तनःअक्षर है । 5 तत्व और 25 प्रकृ तत को लमिाकर सभी िरीर बने हैं । परन्तु सार िब्द इन सबसे भी परे
कहने सुनने के लिये तो भक्त संतो के पास वैसे िोकवे द आदद के कममक ांड उपासना कांड ज्ञानकांड योग मंि आदद
से सम्बजन्धत सभी तरह के िब्द हैं । िे फकन सत्य यही है फक सार िब्द से ही िीव का उद्धार होता है ।
बाह्य िगत से ध्यान हिाकर अंतमुमखी होकर िांत धचि से िो साधक इस नाम के अिपा िाप में िीन होता है ।
उससे काि भी मुर झा िाता है । सार िब्द का सुमरन सूक्ष्म और मोक्ष का पूर ा मागम है । इस सहि मागम पर
हे धममदास ! सार िब्द न तो वाणी से बोिा िाने वािा िब्द है । और न ही उसका मुँह से बोिकर िाप फकया
िाता है । सार िब्द का सुमरने करने वािा काि के कदठन प्रभाव से हमे िा के लिये मुक्त हो िाता है । इसलिये
इस गप्ु त आदद िब्द की पहचान कराकर इन वास्तववक हँस िीवों को चेताने की जिम्मे वारी तुम्हें मैं ने दी है ।
हे धममदास ! इस मनुटय िरीर के अंदर अनंत पंखुङङयों वािे कमि हैं । िो अिपा िाप की इसी डोरी से िु ङे हुये
हैं । तब उस बे हद सूक्ष्म द्वार द्वारा मन बुद्धध से परे इजन्द्रयों से परे सत्य पद का स्पिम होता है । यानी उसे
िरीर के अन्दर जस्ित िून्य आकाि में अिौफकक प्रकाि हो रहा है । वहाँ आदद पुरुष का वास है । उसको
पहचानता हुआ कोई सदगुरु का हँस साधक वहाँ पहुँच िाता है । और आदद सुर तत ( मन बुद्धध धचि अहम का
हँस िीव को सुर तत जिस परमात्मा के पास िे िाती है । उसे " सोहंग " कहते हैं । अतः हे धममदास ! इस
सार िब्द के अिपा िाप की यह सहि धुतन अंतर आकाि में स्वतः ही हो रही है । अतः इसको अच्छी तरह से
िान समझकर सदगुरु से ही िे ना चादहये । मन तिा प्राण को जस्िर कर मन तिा इजन्द्रय के कमों को उनके
ववषय से हिाकर सार िब्द का स्वरूप दे खा िाता है । वह सहि स्वाभाववक ध्वतन त्रबना वाणी आदद के स्वतः ही
हो रही है । इस नाम के िाप को करने के लिये हाि में मािा िे क र िाप करने की कोई आवश्यकता ही नहीं है ।
इस प्रकार वे देह जस्ित में इस सार िब्द का सुमरन हँस साधक को सहि ही अमरिोक सत्यिोक पहुँचा दे ता है ।
सत्यपुरुष की िोभा अगम अपार मन बुद्धध की पहुँच से परे है । उनके एक एक रोम में करोंङो सूयम चन्द्रमा के
समान प्रकाि है । सत्यिोक पहुँचने वािे एक हँस िीव का प्रकाि सोिह सूयम के बराबर होता है ।