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हहमालय और भूली हबसरी यादे

मै कोई 9-10 साल का रहा होऊंगा, इलाहबाद मे - जब पपता जी ने पत भेज हम सब को कालका बुलाया | वे
वहां पर फ़ौज मे थे और उने फॅपमली आवास पमल गया था | ये मेरा पहला पररचय था पहमालय से , 1967 मे |
इस से पहले, सुदूर बचपन मे , पसकंदराबाद मे पकपतज पर छोटी पहापडयों को दे ख रोमापचत होने की कुछ
धुंधली तसवीरे मात मन मे थीं | लगता था, पहाड़ों से कुछ अनकहा अनसुलझा ररशा है - मगर पूरी पजंदगी
पहाड़ो मे बीत जाएगी, इसका तब अंदेशा न था |

हाँ , तो उस शाम के झुटपुटे मे रे लवे से शन से पनकलते ही मैने सामने पकपतज पर, दाएँ से बाएँ फैली एक साह
आकृपत दे खी और पपता जी से पूछ बैठा, हकलाते हए: वो क-का है ? पपता जी पवनोदी साभाव के थे , अतः
छूटते ही बोले : हाँ , पहाड़ है वो | चढ़ोगे ? और मैने भी लपक कर बोला - हाँ !

तब पपता जी थोडा सोच समझ कर बोले - अभी शाम हो गयी है , रहने दो; वैसे भी वो काफी दू र है - पकसी और
पदन कायरकम बनायेगे |

और सचमुच, कुछ पदन बाद उनोंने हमे एक सथानीय गाइड पदया, खाने का ढे र सा सामान और कसौली के पलए
हमे सुबह सुबह माचर करा पदया | उन पदनों - 1968 मे - एक संकरी सी रोड हआ करती थी, कसौली के पलए |
उसे छोड़ कर, शाटर कट् स मारते हम कसौली पहं चे, खाया पपया और लौट चले | लौटते मे मै बेहद थक गया -
और रोने लगा ! मेरे बड़े भाई ने मुझे कंधे पे पबठाया और पकसी तरह हम घर पहं चे | माँ ने गले लगाया और
पपता जी को उलाहना पदया - इतना छोटा है ये , इसे कभी दु बारा मत भेजना पहाड़ चढ़ने के पलए !

मगर मेरे नसीब मे अभी और भी रोमां च था और पहाड़ो के साये तले बहत से सबक सीखने थे |

कुछ सालो बाद 1971 मे, इलाहबाद मे, सातवी कका मे राषीय मेररट छातवृपत मे भाग लेने का मौका पमला |
भाग से , चयन भी हो गया - और तब पता चला पक इस छातवृपत मे पैसे नहीं पमलते - उलटे दू र पकसी पबबक
सूल मे पढना पड़ता है ! माँ को ये बात कुछ समझ नहीं आई | पपता जी से , अब जो फ़ौज से ररटायर हो चुके
थे , बोलीं : सुपनए, का सरकार वजीफे का पै सा हमे नहीं दे सकती? बचे को यहीं पढ़ाएं गे पकसी अचे सुल मे ;
कुछ बात कररए न ..

मै चार भाई बहनों मे सबसे छोटा था और उस समय कोई बारह साल का था - माँ का दु लारा भी था | इसी पलए
माँ दू र भेजने को तैयार न थी | मै ने भी मन बना पलया था पक मै नैनीताल ही जाऊंगा - पबरला पवदा मंपदर मे
पढने के पलए !

डॉ सतेन शीवासव : पहमालय और भूली पबसरी यादे पृष 1 / 5


काफी जदो जहद के बाद माँ ने अनुमपत दी | इस तरह इलाहबाद से मै नैनीताल पहं चा - और मनोरम झील और
पहाड़ो के सौनयर से अपभभू त हो उठा | पहली बार पपता जी छोड़ने आये | काठगोदाम से लगभग दो घंटे का वह
बस मे सफ़र - और पफर एक डोटीयाल (कुली) ने मेरा बका उठाया और हम चल पड़े पबरला पवदालय के पलए
| वहां पहँ च कर मुझे धीमे धीमे समझ आया की यह पवदालय वासव मे टाटा पबरला के पलए ही बना था -
मधम वगर पररवारों के पलये नहीं ! मगर अब जब मै यहाँ पहँ च गया था, तो हर घडी को पूरी तरह जीना चाहता
था | पजमाबसक, बॉबकंग से लेकर मैराथन - और लाइबेरी मे पनत नयी पकताबे पढ़ना |

हकलाने की वजह से मेरे दोस जादा नहीं थे , इसपलए पढने का शौक बढ़ता चला गया - और इसी के साथ
पलखने का भी ! शी बसंत कुमार भट, हमारे पहं दी अधापक ने इसमे महतपूरर भूपमका पनभाई | वे बचो को
पलखने के पलए पेररत करते और पनयपमत फीडबैक भी दे ते | एक बार मैने पवरतीय सौंदयर पर एक पनबंध मे कुछ
ऐसा पलख पदया : अगर पवदालय ऐसे सुनर सथान पर हो, जहा 'सो-वू' से पहमालय की शृंखला के अबाध दशरन
होते हों, तो वहां पढाई का ख़ाक होगी?

अगले पदन भट गुर जी ने मुझे अकेले मे बुलाया और पूछा : का तुम सो वू जाते हो ? (पबरला कैपस मे यह
एक सुनर सी जगह थी पर बचो मे यह कम ही लोकपपय थी) | उनका अगला सवाल था - का तुमे इस
पाकृपतक सुनरता के कारर पढाई मे बाधा पहँ च रही है ? मै समझ गया पक अब कुछ भी कहना खतरनाक है
और इस पलए चुप रहा | गुर जी मुसुराये और मुझे वापस कास मे भेज पदया गया | उसके बाद मै पलखने के
मामले मे थोड़ा और सावधान हो गया और अपतशयोबक का इसेमाल कम करने लगा |

मगर ये सच है पक जब अन बचे फुटबॉल लेकर मैदान (पबरला मे तीन मैदान थे ) मे जा धमकते - मै अकर
पनगाह बचा कर, सो-वू चला आता और घंटो बैठा रहता | तब उतर की तरफ फैली उन सुदूर पहाड़ो की
कतारों को दे ख कर मुझे जरा भी अंदाज़ा न था की मेरी वयस पजंदगी उनी पहाड़ो मे बीतने जा रही है | अगर
पता होता तो का करता ? कुछ नही शायद - बस एक कसक सी जो मन मे थी, उने छूने की, उनके बारे मे
जानने की - वह कुछ कम हो जाती | का पता?

पबरला मे पहाड़ो को जानना समझना रोचक तो था मगर काफी सतही | हमारे चारो तरफ एक सुरका और सेवा
की परत थी - पशकक, सेवक, कमरचारी, मॉपनटर और ढे र से बचे | पहाड़ो मे सथानीय लोग कैसे रहते है और
जूझते है - इसका हमे अंदाजा न था | हम अपने नमर कोकून मे पड़े भपवष के सपने दे ख रहे थे |

पबरला पवदा मंपदर मे पढ़ते हए आस पास ट् ै पकंग करने के बहत से मौके पमले ; चुंगी से रातीघाट एक पैदल
रासा जाता है पजस पर लगभग बीच मे एक चीड़ के जंगलो से पघरी ख़ूबसूरत जगह है ; एक बार हम सब यहाँ
पपकपनक के पलए आये थे ; कई सालो बाद उस रासे पर ट् े क करते हए मैने पाया पक आज वहां पर एक
सरकारी पवदालय है | नैनीताल पनरं तर बदल रहा था | बचपन की सृपतयाँ मन मे ही अकुण रहती है | बाह

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जगत तो दे खते दे खते बदल जाता है | सालो बाद पबरला जा कर मैने महसूस पकया पक हमारा जीवन और
इसकी सृ पतयाँ - सभी कुछ सपवत है | पर तमाम कमर भी इसी सपने के भीतर पकये जाने है !

उसके बाद 1974 मे, मै इलाहबाद लौट गया - इं टर और पफर एम बी बी एस करके, असतालों की नौकरी मे |
संयोग की बात है पक बहत पयास के बाद भी मुझे काम मैदानों मे ही पमला - पहाड़ मे नहीं ! उड़ीसा, धारीवाल
(पंजाब), पफर मथुरा | 1985 मे एक मौका पमला पहाड़ मे काम करने का - औली मे; आई टी बी पी मे एक
डॉकर के रप मे सेवा दे ना एक मजेदार अनुभव था |

औली मे मेरे वररष डॉकर साथी को पहाड़ और गेपशयर मे भटकना पबलकुल नापसंद था | अतः , जब भी
जवानों को पपशकर के दौरान मेपडकल कवर दे ने की बात होती तो मेरा नाम आगे बढ़ा पदया जाता और मै
इसमे बेहद खुश था ! कभी हाथी घोड़ी पवरत के गेपशयर पर, तो कभी कुंवारी पास के आगे घने जंगलो मे ,
जवानों के साथ मै लगातार कुछ नया सीख रहा था - सीइं ग, रॉक काइबमंग, केवास कापसंग, नाईट नेपवगेशन,
मैप रीपडं ग…

इसी 1985 के जाड़ों मे चमोली मे भारी पहमपात हआ - कई दशको मे सबसे जादा | औली मे कई इमारते बफर
के बोझ तले बैठ गईं | मेरे काटर र के ऊपर इतनी बफर थी पक सीइं ग करते जवान ऊपर से पनकल जाते और
कुछ पता भी न चलता ! पहली सुबह, दस बारह फूट बफर मे एक सुरंग सी काट कर हम घर से बाहर पनकले
और पफर बखडपकयों और दरवाजे के सामने जमा बफर को हटाया और पानी की ववसथा की | वे दो तीन हफे ,
बफर मे, बगैर पबजली पानी के औली मे जीना - एक रोचक अनुभव था | एक बुखारी, लमी पठठु रन भरी राते -
मगर सुहाने पदन, बेहद नीला आकाश और सामने नंदा दे वी | कोई भी कीमत कम होती शायद उन पदनों के
पलए, उस दै वीय दश के पलए | दु पहर मे माले खाते हए, नंदा दे वी, पबथारतोली, कामेत, दोरापगरी आपद को
पनहारना, गहरे नीले आसमान पर चमकती चोपटयाँ ...

पफर कमां डेट साहब का आदे श हआ : चारो तरफ इतनी अची बरफ पड़ी है , इस पलए कोई भी इन पर न चले
- बबल पसफर सीइं ग ही करे ! (कोंपक चलने से बफर मे गडे पड़ जाते है पजस पर सीइं ग करना मुबशल हो
जाता है ). सभी को सी पमल गयी थी; मुझे एक इं स्कर ने दो पदन मे सीइं ग पसखा दी और मै लेकर हॉल
जाने लगा सीइं ग करते हए | मुझे जवानों को फॉस-बाईट, हाइपो थपमरया आपद और इनसे बचाव के बारे मे
पढ़ाना होता था | जवान भी काफी पभापवत थे , ऐसे डॉकर साहब से जो सीइं ग करते हए आते थे , लेकर दे ने
के पलए! मामला ये था पक मुझे लाइबेरी मे कुछ पदन पहले एक पकताब पमली: "दो पदन मे सीइं ग सीखो”! मेरा
भी ये मानना था की अगर बुपनयादी पसदां त समझ पलए जाएँ तो कोई भी कौशल आसानी से सीखा जा सकता
है | और मुझे इं स्कर भी बहत अचा पमला था !

पफर ये वक भी ख़त हआ और मै पुनः मथुरा के एक असताल मे लौट गया, काम करने | ददर , रोग और मौत
के बीच लुका पछपी वाली पजंदगी बीतने लगी | मुझे लगता पक काश ससथ लोगो के बीच काम कर पाता तो

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कैसा होता! आबखर वह मौका भी पमला - अख़बार मे एक पवजापन दे खा : जररत है एम बी बी एस डॉकर की
अनजपनसैन मे काम करने के पलए | पसररल साहब ने मेरा इं टरवू पलया और मुझे अनजपनसैन आने का नोता
पदया |

अनजपनसैन मे काम करना एक रोचक अनुभव था | बहत कुछ सीखने जानने का मौका पमला | पहाड़ी जीवन की
खूबसूरती, चुनौपतयाँ और पवसंगपतयां - सभी की एक झलक पमली | पहाड़ी-दे सी का दं द भी दे खने समझने को
पमला ! वैसे ये सच है पक पहाड़ मे सभी कहीं न कहीं से आये है | डॉ पशवकुमार डबराल दारा पलखा उतराखंड
का इपतहास पढने पे समझ आया पक अमूमन, पजने हम पशलकार कहता है , पसफर वही यहाँ के मूल बापशंदे थे |
अगर हम कुछ लाख साल अतीत मे चले तो सभी पूवर अफीका की ररफ वैली से घूमते घामते वहां आ पहं चे है ,
जहाँ आज वे है - कभी संसाधनों की तलाश मे , तो कभी आकमर करते या आकमर से बचते ! है न पवपचत सच?

तो पफर मुदा का था? समझ मे ये आया पक पहाड़ी-दे सी का पववाद राजनैपतक जादा है और साभापवक कम|
मैदानों से तीथर याती सपदयों से आते रहे है | उने दे ख कर तीथर और चपटयों के लोग खुश भी होते रहे है | मगर
जब सरकारी नौकरी मे पकसी दे सी की भरती होती है तो पवरोध की संभावना बढ़ जाती है - यापन सं साधनों पे
वचरस का झगडा ! राजनीपत ! और ये झगड़ा काफी दू र तक जाता है - पजले पजले के बीच और गाँ व गाँ व के
बीच भी | परररामतः ठहरे पानी के तालाबो मे संकीररता के कमल बखलते है और बदलाव की बयार दू र से
पनकल जाती है , संकुचाई, कुमलाई |

वालर सॉट के उपनास भी तब मेरे धान मे आये - कोंपक इं गैड मे भी हाईलैडसर और लोलैडसर , यानी
पहाड़ी और दे सी के बीच मनोवैजापनक दू ररयों और संघरर का काफी पजक था उनमे | और जब मैने जौनसारी
पथाओं (बहपपतपथा, पालीएं ड् ी) पर खोज की तो पाया पक ये पथा एं डीज और पवश के अन पहाड़ी केतों मे भी
पाई जाती है , कोंपक ये इं सान की, भौगोपलक पररबसथपतयों के अनुरप खुद को ढालने की सां सृपतक ररनीपत
थी | पभन पभन समाजों मे इस इकोलॉपजकल ऐडपेशन को अलग अलग सां सृपतक रप पदए गए | मानव पवजान
(ऐनथपालजी) पढ़ते हए मुझे ये समझ मे आने लगा पक चरक संपहता की ये पंबक - 'यथा बहाणे तथा पपणे ' -
कई अथर मे सही है | कुछ बुपनयादी तथ और ताकते है जो सभी जगह पवपभन रपों मे पकट हो रही है - यानी
पवपभनता मे कहीं एक, एकरपता भी पछपी है | इसे समझ लेने पर सब के पपत सहानुभूपत और सपहषु ता का
भाव अपने आप आने लगता है |

यह सब परखते समझते , कोई तीन दशको मे , मै भी पहाड़ का ही हो कर रह गया | ईशर कृपा से हबरटरपुर मे
कदम पठठक गए | सापथयों का सहयोग पमला - पवपभन संसथाओं मे काम करने का मौका पमला | पहमालय को
अलग अलग पहलुओ से जाना, समझा | इस पपकया मे ट् ै पकंग का शौक बेहद मददगार सापबत हआ - जानसार
मे पहमालय का एक नया चेहरा दे खा, ऊँची शुष घापटयाँ और दरर , बौद दशरन और जीवन शैली की अपमट छाप
पलए, दास - कारपगल मे मबसदे , बारालाच ला (16000 फीट) पर बी आर ओ के दल और उनमे झारखंड के

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मजदू र - सड़क पकनारे एक छोटे से पालने मे कसमसाता एक बचा, पजसकी मजदू र माँ एक पनगाह उस पर
और दू सरी रोड रोलर पर बनाये हए थी - और भी बहत कुछ मेरी यादे समेटे हए है , इन एकल याताओं को
लेकर|

पफर वरर 2002 मे पतबत की याता एक अनोखा अनुभव थी | एवेरेस को हमने (शेखर पाठक और डै न जानजेन
के साथ) उतर और पूरब की ओर से दे खा और उनके बेस कैप तक गए | कोई तीन सपाह के इस ट् े क मे कुछ
ऐसी ऊँची अनछु ई झीले दे खने को पमलीं, पजनके तट पर बैठ कर बरबस महाभारत की वह कहानी याद आ गयी
पजसमे ऐसी ही एक झील से एक यक पकट होता है और पां डवो से कुछ गूढ़ पश पूछ बैठता है ! इस दु गरम सथान
पर कई गुफाएं भी दे खने को पमली जहा पकसी ने कभी एकां त साधना की होगी - दलाई लामा की फोटो, पदया
और अन पूजा सामगी, एक अँधेरी सी गुफा मे , सरोवर के तट पर…

उन पदनों मुझे पपशमी शासीय संगीत सुनने का बेहद शौक था - अभी भी है | पतबत मे, ऐसी ही एक, ऊँचे
पहाड़ों से पघरी शां त झील के तट पे चलते हए बेथोवेन की तीसरी पसमफनी (एरोइका) को सुनना मेरे पलए एक
अपवसररीय अनुभव था !

अब साठ की आयु के करीब पहँ चते पहँ चते , मुझे पहमालय का एक अन पसाद पाप हआ है : पहमालय मे कुछ
आधाबतक पसद पुररों का सापनध भी पमला और उस से कुछ समझ भी पैदा हई | मन अं तमुरखी हआ और ये
समझ आया पक हमारे अनर ही कुछ है - कुछ बेशकीमती, कुछ ऐसा जो महसू स तो पकया जा सकता है मगर
बयान नहीं; जो पजंदगी के तमाम पबखरे अनुभवों, रोमां च, सृपतयों को अपने मे समेट कर, उने "मै हँ " के एक
सूत मे पपरो दे ता है ; एक ऐसा पचतपट, पजसपर दौड़ती भागती पजंदगी के तमाम अनुभव आकार लेते है और
पवलुप हो जाते है ; एक ऐसा शाशत मौन पजसकी पृषभूपम मे हमारे पवचार मुखर होते है कर भर - और पुनः उसी
मे लीन हो जाते है ..

अगर हम इस शरीर और मन के परे कुछ है तो पनपशत ही पहमालय भी पहाड़, गेपशयर और नपदयों के परे कुछ
है - और ये दोनों शाशत 'कुछ' आपस मे संवाद करते है , जब भी हम पहाड़ो को दे खते है , पकसी नीरव सुबह या
पनशल शाम के धुंधलके मे … और इसी पलए मेरा पहमालय को आभार वक करना भी अथरहीन होगा |

धनवाद!

(डॉ सतेन शीवासव; सतेन 1993 से उतराखंड मे सैबचक संसथाओं के साथ कायररत है और वतरमान मे
समता, चकराता से जुड़े है )

डॉ सतेन शीवासव : पहमालय और भूली पबसरी यादे पृष 5 / 5

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