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सगं ीत ि‍शक्षक सदं र्शिका उच्‍च प्राथमिक स्‍तर कक्षा छठी से आठवीं तक

उच्‍च प्राथमिक स्‍तर


कक्षा छठी से आठवीं तक

एन.सी.ई.आर.टी.

13173

ISBN 978-93-5292-020-4

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LoPN Hkkjr

Joy of Theatre
Teachers’ Handbook
Upper Primary Stage
Classes VI - VIII

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िश�ाक सदं �श्ाका

उच्‍च प्राथमिक स्‍तर


कक्षा छ्ठी से आठवीं तक

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ISBN 978-93-5292-020-4
पहला सस्ं ‍करण
सर्वािधकार सरु क्षित
मई 2018 वैशाख 1940 प्रकाशक की पूर्व अनुमित के िबना इस प्रकाशन के िकसी भाग को छापना तथा
ˆ
इलैक्‍ट्रॉिनकी, मशीनी, फ़ोटोप्रतििलपि, िरकॉिर्डंग अथवा िकसी अन्‍य
PD 1T RPS िवधि से पुन: प्रयोग पद्धति द्वारा उसका सग्रं हण अथवा प्रचारण वर्तजि है।
इस पुस्‍तक की िबक्री इस शर्त के साथ की गई है िक प्रकाशन की पूर्व
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अनुमित के िबना यह पुस्‍तक अपने मूल आवरण अथवा िजल्‍द के
अलावा िकसी अन्‍य प्रकार से व्‍यापार द्वारा उधारी पर, पुनर्विक्रय या
© राष्‍ट्रीय शैिक्षक अनुसधं ान और प्रशिक्षण िकराए पर न दी जाएगी, और न बेची जाएगी।
परिषद्, 2018 इस प्रकाशन का सही मूल्‍य इस पृष्‍ठ पर मुद्रित है। रबड़ की मुहर अथवा
ˆ
िचपकाई गई पर्ची (िस्‍टकर) या िकसी अन्‍य िवधि द्वारा अंिकत कोई भी
संशोिधत मूल्‍य गलत है तथा मान्‍य नहीं होगा।

एन. सी. ई. आर. टी. के प्रकाशन प्रभाग के कार्यालय


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80 जी.एस.एम. पेपर पर मद्ु रित । मख्ु ‍य व्‍यापार प्रबंध्‍ाक : गौतम गांगलु ी
सचिव, राष्‍ट्रीय शैक्षिक  अनसु धं ान और प्रशिक्षण मख्ु ‍य उत्‍पादन अधिकारी : अ�ण िचतकारा
परिषद,् श्री अरविदं मार्ग, नयी िदल्‍ली 110 016 संपादन सहायक : ऋषिपाल सिहं
द्वारा प्रकाशन प्रभाग में प्रकाशित तथा पारस
उत्‍पादन सहायक : प्रकाश वीर सिहं
ऑफ़सेट प्राइवेट लिमिटेड, एफ़-118, सेक्‍टर-56,
फ़ेज़ IV, कुण्‍डली, जि़ला सोनीपत 131 028 चित्र एवं आवरण
(हरियाणा) द्वारा मद्र‍ि
ु त। ब्लू फि़श डिज़ाइन

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आमुख
विश्‍व के मानचित्र में भारत अपनी जिन विशेषताओ ं के कारण अपना विशिष्‍ट
स्‍थान रखता है वह है, इसका सांस्‍कृतिक रूप से अति उन्‍नत होना और इस
सांस्‍कृतिक उन्‍नति के मल ू में सांगीतिक कलाओ ं का महत्‍वपर्णू स्‍थान है। भारतीय
जन मानस में संगीत कुछ इस तरह रचा-बसा हुआ है कि इसके बिना हम अपने
किसी भी सांस्‍कृतिक या मांगलिक कार्य की कल्‍पना भी नहीं कर सकते। आकाश
में सूर्य किरणों के आगमन के साथ ही मंदिरों में आरती के स्‍वर गँजू ने लगते हैं, तो
गरू
ु द्वारों में कीर्तन, मस्जिदों में अजान के स्‍वर गँजू ने लगते हैं, तो वहीं चर्च में यीशु
के गीत आदि। सदियों से संगीत के सात स्‍वर मानव मन को अनुप्रागित करते हुए
उसे अपनी भावनाएँ व्‍यक्‍त करने के लिए प्रेरित और प्रोत्‍साहित कर रहे हैं। संगीत
हमारे समाज में वैदिक युग से व्‍याप्‍त है और आज भी इसकी प्रासांगिकता बनी हुई
है। तभी तो कहा गया है — ‘नादाधीनम् जगत सर्वग’् ।
भारतीय सांगीतिक कलाओ ं की यह बहुत बड़ी विशेषता है कि हर समय,
हर मौसम और हर अवसर पर यह अपनी सार्थकता सिद्ध करता है। अवसर चाहे
स्‍वाधीनता दिवस समारोह का हो, दर्गा ु पूजा का हो या और कोई समारोह उस का
सांस्‍कृतिक अवसर सांगीतिक स्‍वरों के बिना संपूर्ण हो ही नहीं सकता। भारत के
कण-कण में संगीत व्‍याप्‍त है। इसका हर प्रांत, हर जिला संगीत के एक नये रूप से
हमारा परिचय कराता है। इसी कारण राष्‍ट्रीय पाठ्यचर्या की �परेखा 2005 में कहा
गया है कि संगीत माध्य�मक स्‍तर तक के बच्‍चों के लिए अनिवार्य होना चाहिए।
सांगीतिक कलाओ ं के प्रति संवेदनशीलता एवं आकर्षण बच्‍चों का मानसिक और
बौद्धिक विकास करता है। संगीत के शास्‍त्रीय एवं लोक पक्ष दोनों के संरक्षण एवं
संवर्धन के लिए, इसके पारंपरिक, मौलिक और सृजनात्‍मक पक्ष पर ध्‍यान देना
आवश्‍यक है, जो हमारे संगीतार्थियों द्वारा ही संभव है। राष्‍ट्रपिता महात्‍मा गांधी ने
एक बार कहा था— ‘सामवेद की ऋचाएँ संगीत की खदान हैं... कुरआन शरीफ़
की एक भी आयत बिना स्‍वर के नहीं कही जाती और ईसाई धर्म में डेविड के साम

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सुनें तो ऐसा लगता है मानो हम सामवेद ही सुन रहे हैं। इसीलिए मैं इस बात का
समर्थन करता हूँ कि बच्‍चों को संगीत की शिक्षा अनिवार्य रूप से दी जाए।’
संगीत की यह हस्‍तपुस्‍तिका शिक्षकों के लिए बनाई गई है, जिसमें उपरोक्‍त
सभी विषयों को समाहित किया गया है। इस हस्‍तपुस्‍तिका से शिक्षक अनुभव
करें गे कि संगीत का गहन अध्‍ययन अत्‍यंत लाभप्रद है, क्‍योंकि इसके माध्‍यम
से प्राकृ तिक उपादानों को जाना जा सकता है, किसी भी समाज को समझा जा
सकता है और भाषा सहित अपना भी विकास किया जा सकता है।
संगीत की इस हस्‍तपुस्‍तिका से जुड़े उन सभी सदस्‍यों के प्रति मैं
एन.सी.ई.आर.टी. की तरफ से आभार प्रकट करता हू,ँ जिन्‍होंने अपना बहुमल्ू ‍य
समय देकर इसे पूर्णता के सोपान तक पहुचँ ाया। संगीत नाटक अकादमी एवं
प्रसार भारती को भी धन्‍यवाद देता हू,ँ जिनके द्वारा प्रद�ा चित्रों एवं ध्‍वनि
मद्ु रिकाओ ं ने इस पुस्‍तक को जीवंतता प्रदान की है। इस हस्‍तपुस्‍तिका में
िवभिन्‍न स्राेतों जैसे संगीत रत्‍नाकर, संगीत सारामृत आदि से श्‍लोक िलए गए
हैं। अपने प्रकाशनों की गुणव�ाा में निरंतर वृद्धि करने और प्रणालीगत सुधार के
लिये प्रतिबद्ध संगठन के रूप में एन.सी.ई.आर.टी. इस कृ ति के विषय में प्राप्‍त
होने वाले सुझावों का सदा स्‍वागत करे गी, जिनके आधार पर इसके आगामी
संस्‍करणों में संशोधनात्‍मक परिवर्तन किए जा सकें गे।

ऋषिके श सेनापति
नयी दिल्‍ली निदेशक
19 अप्रैल 2018 राष्‍ट्रीय शैिक्षक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद्

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िश�ाक सदं �श्ाका का उद्देश्‍य
भारत में संगीत कई यगु ों से विभिन्न परंपराओ ं द्वारा मनष्य
ु जीवन में प्रचलित है। ऐसी
मान्यता है कि जब मानव ने अपने भावों को व्यक्‍त करना चाहा, तब श्रुतियाँ सहायक
बनीं। अ, ओ, आ, इ ऐसी ध्वनियाँ सनु ाई दीं, जो कानों को मधरु लगीं और तभी से
संगीत इस धरती पर जीवनदायी मान लिया गया। इस सांगीतिक ध्वनि ने विभिन्न काल
में कभी मानव कंठ और कभी मानव निर्मित वाद्य यंत्रों द्वारा वैचित्र्य पैदा किया। कई
यगु ों में विशिष्‍ट रूप धारण कर संगीत की यात्रा चलती रही। यह ध्‍वनि एक अलौकिक,
अपरू ्व, स्वर्गीय रूप धारण कर यह मानव के हृदय में सदा के लिए बस गई। मनष्य ु हृदय
के विभिन्न भाव संगीत की धार से स्फु रित होने लगे।
कई स्वरों की संरचना हुई, इन स्वरों के विभिन्न समदु ाय बने, शब्दों के संदु र निवेश
से कई गीतों की रचना हुई। इन्हीं स्वर समहू ों को तराशकर संगीत के असंख्य रागों का
निर्माण एवं विकास हुआ। समय को अष्‍ट प्रहर में विभाजित किया जाता है। संगीत के
विभिन्न आयाम, शैलियों को अष्‍ट प्रहर गाने की विधा हमारे देश में परु ाने समय से
प्रचलित है और तभी तो संगीत मनष्य ु जाति का अभिन्न अंग बन गया।
यह िश�ाक संद�श्ाका अधोलिखित सभी बातों को पनु :स्मरण या विचार करने के
लिए बनाई गई है। हम यह मानते हैं कि जिस भी सगं ीत के अध्यापक/अध्यापिका का
चयन स्कू लों में किया जाता है वे संगीत के कई आयामों से परिचित हैं। स्‍वर परिचय,
अलंकार, राग, विभिन्न प्रादेशिक गीतों का ज्ञान, शिक्षक भली-भाँति समझते हैं। कुछ
अन्य विषय भी संगीत से जड़ु े होते हैं, लेिकन क्या हम कभी उन पर गौर करते हैं? जैसे—
1. प्रादेशिक गीतों में शब्द, साहित्य के संकेतक हैं।
2. संगीत दसू रे श्रव्य एवं दृश्य कला जैसे – नाट्य कला, नृत्य कला, मर्ति ू कला
इत्यादि से भी जड़ु ा हुआ है।
3. प्रादेशिक संगीत एवं लोक कलाएँ समाज सचू क चिंतन के स्रोत हैं। ये समाज
सधु ार की ओर भी संकेत करते हैं।
4. संगीत से बद्धि ु विकास होता है, यह वैज्ञानिक शोध द्वारा प्रमाणित है।
5. संगीत हमारे िदव्यांग बच्चों (differently abled) के लिए आवश्यक है। उनके
मानसिक एवं शारीरिक विकास के लिए संगीत बल प्रदायिनी है।

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6. संगीत विज्ञान, भाषा, इतिहास एवं भगू ोल को विद्यार्थियों तक पहुचँ ाने में
समर्थ है।
उपयर्ुक्‍त िबंद�आें के आधार पर ही स्कू ली शिक्षा पाठ्यक्रम में संगीत को इतना
महत्व दिया गया है, विचार करने की बात है कि क्या हम सब शिक्षकगण अपने
दायित्व को निभा रहे हैं? राष्ट्रीय फ़ोकस समहू के आधार पत्र कला, संगीत, नृत्य आैर
रगमंच के निर्देश को अपनाना ज़रूरी है जो कहता है कि कला शिक्षा में शिक्षकों द्वारा
निर्देश देने के स्थान पर पारस्परिक सहयोग एवं प्रतिभागिता की नीति अपनायी जानी
चाहिए।
इस संदर्भ में आज तक हम कितने प्रतिभागी जोड़ पाए, बच्चों के परिवार में
पनपती कला, कलाकारों की संगति (हमारे आस-पास रहने वाले कलाकार एवं
प्रसिद्ध कलाकार – दोनों समहू ) जो संगीत के कितने ही प्रकारों को प्रदेशों में युगों
से संभाले हुए है और संस्कृति को समृद्ध करने में सहभागी है। राष्ट्रीय पाठ्यचर्चा
की रूपरे खा 2005 में इन्‍हीं सब िबदआ ंु ें पर चचार् की गयी है। आइए! सब मिलकर
इसे पूरित करें और संगीत को और वैभवशाली एवं समृद्ध बनाकर स्कू ली शिक्षा की
प्रतिष्‍ठा बढाएँ।

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िश�ाक सदं �श्ाका
िवकास समिति

सदस्य
कन्ना कुमार, प्रोफ़े सर, संगीत विभाग, दिल्ली विश्‍वविद्यालय
दीप्‍ती भल्ला ओमचरी, प्रोफ़े सर, सगं ीत विभाग, दिल्ली विश्‍वविद्यालय
नज़मा परवीन अहमद, प्रोफ़े सर (सेवािनवृ�ा) संगीत विभाग, दिल्ली विश्‍वविद्यालय
नीरा चौधरी, सह-प्राध्‍यापक, मगध महिला कॉलेज, पटना विश्‍वविद्यालय
मजं री सिन्हा, संगीत आलोचक, गरुु ग्राम, ह�रयाणा
मनक्कल गोपालाकृ ष्णन, रिसर्च ऑफ़िसर, एस.सी.ई.आर.टी., के रल
मक
ु े श भारती, अध्यापक (संगीत), कें द्रीय विद्यालय, मेरठ
रे शमा हरनाल, अध्यापिका (संगीत), सर्वोदय कन्या विद्यालय, नयी दिल्ली
लिपिका दासगप्‍ता
ु (स्वर्गीय), प्रोफ़ेसर, सगं ीत विभाग, काशी हिन्दू विश्‍वविद्यालय
विजय कुमार, अध्यापक, कें द्रीय विद्यालय, नयी दिल्ली
विजय शक ं र मिश्र, लेखक, संगीत आलोचक एवं निदेशक, सोसाइटी फ़ाॅर एक्शन
थ्रू म्यूिज़क, नयी दिल्ली

सदस्य समन्वयक
शर्बरी बैनर्जी, सहायक प्रोफ़े सर,
कला एवं सौंदर्यबोध िशक्षा िवभाग, एन.सी.ई.आर.टी., नयी िदल्‍ली

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आभार

सगं ीत की इस िश�ाक सदं �श्ाका को ज्ञानवर्धक एवं मनोरम बनाने के लिए


एन.सी.ई.आर.टी. कुछ संस्‍थाओ ं के प्रति आभार प्रकट करती है। अमल्य ू तस्वीरों
के लिए हम सगं ीत नाटक अकादमी का आभार व्यक्‍त करते हैं। हम हेलेन आचार्य,
उपसचिव, संगीत नाटक अकादमी एवं प्रीतपाल (फ़ोटो सेक्शन) के सहयोग की
सराहना करते हैं।
इसके अलावा प्रसार भारती (संग्रह) के प्रति भी हम अपना आभार व्यक्‍त
करते हैं। जिन्होंने शास्‍त्रीय संगीत एवं लोक संगीत से संबंधित महत्वपर्णू
रिकॉर्डिंग देकर स्कू ली शिक्षा को लाभान्वित किया। इस सहयोगी उपक्रम में
एन.सी.ई.आर.टी. और प्रसार भारती के बीच समझौता हुआ। जिसके लिए हम
अनीता सिन्हा, ए.डी.जी. प्रसार भारती (संग्रह) और सदु श े ना सेन, परू ्व सचिव,
एन.सी.ई.आर.टी. के प्रति भी आभार व्यक्‍त करते हैं। रोहित कौशिक, पोस्ट प्रोडक्‍शन
अ�सस्टेंट एवं श्रीनिवासन, पवर्ू प्रोग्राम एक्ज़िक्टि
यू व, दरू दर्शन (संग्रह) प्रसार भारती ने
सभी प्रकार की सहायता प्रदान की।
ज्योत्स्ना ितवारी, प्रोफ़े सर एवं िवभागाध्यक्ष कला एवं सौंदर्यबोध िश�ा िवभाग
ने इस सदं �श्ाका के प्रकाशन के िलए हर स्तर पर सलाह देकर मार्गदर्शन िकया।
िनधि वाधवा एवं ब्लू फि़श डिज़ाइन के सदस्यों ने इस सदर्शि ं का को डिज़ाइन करने
में अमल्य
ू योगदान दिया है ।
इस सदर्शि
ं का के विकास के विभिन्‍न चरणों में सहयोग के लिए मीनाक्षी
(सहायक संपादक) और शभु दा कपिल (संपादन सहायक), मसीहुद्दीन, अजय
कुमार प्रजापति (डी.टी.पी. ऑपरेटर), श्रुति टंडन खन्ना (जे.पी.एफ़.), मालती अौर
दीपक अग्रवाल (कंप्टयू र टाइपिस्ट) के भी हम आभारी हैं। प्रकाशन विभाग से िमले
सहयोग एवं सविध ु ाअों के िलए हम उनका आभार व्यक्‍त करते हैं।

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विषय-सची

आमखु iii
िश�ाक संद�श्ाका का उद्देश्‍य v
1. भारतीय संगीत का संक्षिप्‍त इतिहास 1
2. हम और हमारा संगीत 8
3. लोक संगीत 14
4. भारतीय संगीत में ताल 19
5. संगीत के पारिभाषिक शब्द 23
6. तालों का गणित 41
7. ध्वनि का मस्तिष्क पर प्रभाव 50
8. गायन, वादन एवं नृत्य का आपसी संबंध 58
9. संगीत और नाटक का अतं : संबंध 61
10. आपस में जड़ु ी हैं सभी कलाएँ 71
11. भारत के वाद्य यंत्र 77
12. संगीत का आनंद 94
13. संगीत, संघर्ष और सफलता 99
14. संगीत मल्यां
ू कन प्रक्रिया 104
15. “मैं संगीत शिक्षक क्ूँय बना?” 114
16. संगीत के कुछ कलाकारों का परिचय 121
परिशिष्‍ट
I. िश�क सदर्शिं का के साथ सल ं ग्न डी.वी.डी. के िवषय 136
II. दृश्‍य कला अौर प्रदर्शन कला पाठ्यक्रम सचं ालित 141
करने वाले कुछ विश्‍वविद्यालय
III. कुछ पठनीय पस्तु कें 145

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1 भारतीय सगं ीत का
सक्ं षिप्‍त इतिहास
अनादि काल से भारतीय जनजीवन संगीत से संबद्ध रहा है। जनजीवन का हर
छोटा-बड़ा कृ त्य, अनष्‍ठा ु न, उत्सव, विभिन्न कार्य किसी न किसी रूप में संगीत
द्वारा संपन्न होते हैं। मिथकों, पौराणिक ग्रंथों और वेदों में हम संगीत को देख सकते
हैं। भारतीय संगीत, चाहे वह ईश्‍वर की आराधना हो या परब्रह्म की उपासना,
साधकों की साधना हो या मनोरंजन, लोकरंजन की वस्तु, जन-जीवन का अभिन्न
अंग रहा है। संगीत प्रतिदिन दिनचर्या का संगी रहा है।
भारत के प्राचीनतम संगीत का विवरण हमें वैदिक काल में मिलता है। विद्वानों
के मतानसु ार, वैदिक काल पाँच हज़ार वर्ष ईसा परू ्व के लगभग से माना गया है।
यह भारत के सांगीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास का प्राचीनतम यगु रहा है। वैदिक
काल में दो प्रकार के नियमबद्ध गान का उल्लेख मिलता है, मार्गी और देसी।
भारतीय संगीत की नींव इसी यगु से मानी जाती है। मार्गी संगीत धार्मिक समारोहों
में धार्मिक विधानों से गाया जाता था और यह नियमबद्ध एवं अनश ु ासनपर्णू था।
देसी संगीत लौकिक समारोहों में मनोरंजन का साधन था और यह लोक रुचि के
अनक ु ू ल स्वर वैचित्र्य और चपलता के लिए प्रसिद्ध था। वर्तमान यगु की तरह
लोक संगीत लोक समहू के बीच जागृत था। देसी संगीत में निबद्ध गान एवं अनिबद्ध
गान के प्रकार विद्यमान थे। संगीत शब्द का प्रचलन उस समय नहीं था। वैदिक काल
में ‘साम’ वैदिक महर्षियों का संगीत था। वैदिक यगु की कृ तियों का संकलन चार
संहिताओ ं में है, जो कि निम्‍न हैं –
1. ऋक् – ‘ऋक्’ शब्द ऋच धातु से उत्पन्न हुआ है जिसका अर्थ है स्तुति
या प्रार्थना करना। जिस संहिता में स्तुति मंत्रों का संग्रह होता है, उसे ऋक्
संहिता या वेद कहा गया है। वेद में देवताओ ं की स्तुति का विधान है और यह
छंदोबद्ध है ।
2. यजु – ‘यज’ु का अर्थ है यज्ञ करना। जो मत्रं यज्ञ में प्रयोग होते हैं, उनका
संकलन यज्ञ संहिता या यजर्वेदु में होता है।

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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

3. साम – ‘साम’ शब्द का अर्थ है गान। ‘मीमासं ासत्रू ’ में लिखा है ‘गीतिषु
सामाख्या’ गीत शब्द के लिए साम शब्द का प्रयोग किया गया है। जो ऋक् मत्रं
गान में प्रयोग होते हैं उनके सग्रं ह को साम सहि ं ता या सामवेद कहा जाता है।
4. अथर्व – अथर्व संहिता में उन मत्रों ं का संग्रह है जो शांति देने वाले सख ु
मल
ू क एवं मांगल्यप्रद हैं।
यँू तो संगीत का विशेष संबंध सामवेद से है, किंतु ऋग्वेद में सर्वप्रथम संगीत
विषयक सामग्री प्राप्‍त होती है। ऋग्वेद से ही गीत, वाद्य एवं नृत्य इन तीनों का प्रचलन
दृिष्‍टगोचर होता है। इन्हीं संहिताओ ं में गीत शब्द के लिए गीर, गात,ु गाथा, गायत्र
आदि शब्दों का प्रयोग किया गया है। गीत के विभिन्न प्रकार उसी समय से प्रचलित
हैं। जैसे – गाथा
एक विशिष्‍ट तथा
परंपरागत गीत का
प्रकार था। जिसका
गायन अश्‍वमेध यज्ञ
जैसे समारोह में होता
था। लौकिक प्रसंग
जैसे – जन्म, मृत्यु,
उपनयन इत्यादि में
भी गातु जैसे शब्दों
का उल्लेख है।
गीत एवं नृत्य प्रस्तुत करती महिलाएँ गीत-गायन के बाद
ही मनष्य ु को उसके अनक ु ू ल वाद्य बनाने की कल्पना स्फु रित हुई। मनष्य ु कंठ को
शरीरी वीणा कहा गया है और इसी आधार पर दारवी वीणा या काष्‍टमय वीणा का
निर्माण हुआ। विभिन्न वाद्य यंत्र जैसे – ददंु भि ु , गर्गर, वाण (वीणा), बाकुर, नाड़ी
(वेणु जैसी), आघाटी (झांझ) बजाने का भी प्रचलन था। खल ु े प्रांगण में एकत्र लोगों
के सामने नर तथा नारी दोनों का भाग लेना भी वेदों के काल से प्रचलन में था।
वैदिक काल में सगं ीत के ज्ञाता इसके व्याकरण से भी अभिज्ञ थे, जैसे – आर्चिक
(एक स्वर), गाथिक (दो स्वर) और सामयिक (तीन स्वर) शब्दों से स्वरों की संख्या
समझी जाती थी। उदात्त, अनदु ात्त, स्वरित से स्वरों का ऊँचा या नीचा होना समझ में
आता था। पहले वैदिक ग्रंथों में तीन ही स्वरों का प्रचलन दिखता था। धीरे -धीरे तीन
2

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भारतीय संगीत का संक्षिप्‍त इतिहास

स्वरों से सात स्वरों का विकास दिखाया गया है। सामवेद में विभिन्न गीत शैलियों
(जो आज के यगु में लोक संगीत कही जाती हैं) का भी उल्लेख मिलता है, जैसे –
सामाजिक गीतों को ‘ग्राम गेय
गान’ कहा जाता था। जंगलों में
गाए जाने वाले लोगों के गीतों
को ‘अरण्यगेय गान’ कहा जाता
था, ‘ऊह गान’ यज्ञ गीत था एवं
इस प्रकार विभिन्न प्रकार के
गीतों का प्रचलन था। उपरोक्‍त
लिखी बातों से एक बात का
स्पष्‍ट होती है कि वैदिक काल नागालैंड की लोक संस्कृति
से ही हमारे संगीत में अनेक प्रकार विराजमान थे।
वैदिक काल के उपरांत रामायण के यगु में भी संगीत का विकास हुआ।
रामायण की रचना लगभग 600–300 ई.प.ू की गई है। इस यगु में सगं ीत आैर
गांधर्व शब्द समतल्य ु थे। गांधर्व के कुछ लक्षण माने गए हैं जैसे स्वरों का माधर्यु
होना आवश्यक है एवं इसमें स्वर और पद दोनों की ही प्रमख ु ता है। गांधर्व सगं ीत का
क्षेत्र जनता के सभी स्तरों तथा धार्मिक एवं लौकिक समारोह में प्रच‍लि‍त था। राम
के जन्म पर राजा दशरथ द्वारा
बाजे वालों को बल ु ाकर निर्देश
देना, लव और कुश का तंत्रों
के साथ मधरु स्वर और लय में
रामायण कथा गाकर सनु ाना,
रावण का सामगान द्वारा शिव
की स्तुति करना, वीणा वादन
में सिद्धहस्त होना, पजू ा अर्चना
राजस्थान की लोक ससं ्कृति के बाद गायन एवं नृत्य करना,
राम का अयोध्या में स्वागत, दशरथ की अतं ्येिष्‍ट, राम का अश्‍वमेध यज्ञ आ�द ये
सभी तथ्य सगं ीत का उस समय के जन जीवन का अभिन्न अगं होना दर्शाता है।
इस काल में विभिन्न प्रकार के वीणा, वेण,ु शख ं , भेरी, मृदगं , डिंडिम (डमरू जैसा)
इत्यादि का उल्लेख है। इस काल में सगं ीत एवं नृत्य शालाएँ और कलाकारों का सघं
3

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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

भी हुआ करता था। गृहस्थ, राजमहल और राजदरबारों में सगं ीत गजंु रित होता था।
रामायण की अनेक घटनाओ ं से यह भी विदित होता है कि उस समय संगीतकारों
का समाज में सम्मान एवं आदर था। महर्षि वाल्मीकि की रामायण छंदोबद्ध एवं गेय
होने के कारण उत्कृ ष्‍ट मानी जाती है। यह सिर्फ़ भारतवर्ष में ही नहीं वरन् सारे विश्‍व
में प्रसिद्ध है। रामायण में लगभग 24000 श्‍लोक हैं। इस काल में सगं ीत के ज्ञाता को
परु स्कृ त करने की भी प्रथा थी।
महाभारत काल में समाज अधिक विस्तृत, जटिल एवं संघर्षपर्णू हो गया था
फिर भी संगीत पर्याप्‍त रूप में उन्नत था। महाभारत में भी ‘गांधर्व’ शब्द का प्रयोग
किया गया है। समाज में ‘गांधर्व’ अभिजात संगीत के गायक थे। इनके अतिरिक्‍त
स्तुति, मंगल वीरगाथा इत्यादि को गाने के लिए व्यवसायी गायक थे जो नट,
सतू , बंदी, मगध या वैतालिक
कहलाते थे। वे विभिन्न तालों
में गाते थे। समाज में विभिन्न
प्रकार के गीत, नृत्य एवं वाद्यों
का प्रचार था। सभी सामाजिक
एवं धार्मिक अनष्‍ठा ु नों में
संगीत पर्याप्‍त मात्रा में प्रयोग
किया जाता था। वाद्यों में भेरी,
नाट्य कला – लोक संस्कृति तर्यू , कांस्य, झांझ, मंजीरा,
मृदगं , झरझरी, आडंबर, वीणा, वेणु आदि का उल्लेख है।
इसी काल में षडज, मध्यम, गांधार ग्राम का भी उल्लेख है। यज्ञ के समय, विवाह,
जन्म इत्यादि में भी नृत्य, गायन आैर वादन होते थे। अर्जुन गायन, वादन आैर नृत्य
तीनों के ही ज्ञाता थे। अज्ञातवास के समय विराट राजा की पत्री ु उत्तरा को उन्होंने
ही संगीत सिखाया था। उत्तरा ने यह शिक्षा अपनी सखियों और परिचारिकाओ ं को
दी। उस समय के राजाओ ं ने बड़े-बड़े नगरों में सगं ीतशालाएँ बना रखी थीं, जिसमें
विभिन्न कलाओ ं की शिक्षा मिलती थी। महाभारत काल में सातों स्वरों का कथन
है, यज्ञ के समय सामगान, किसी राजा या वीर की प्रशसं ा में गाथा, सभा में नृत्य द्वारा
मनोरंजन, वाद्य बजाकर ब्राह्मणों का समादर इन सभी का वर्णन मिलता है। राजा एवं
राज्य के विशिष्‍ट व्यक्‍ति को मगं लगान एवं वाद्यों से जगाया जाना भी प्रचलन में

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भारतीय संगीत का संक्षिप्‍त इतिहास

था। श्रीकृ ष्ण के सदर्भ


ं में लिखा गया है कि वादकों ने शख ं और मृदगं बजाए, उनके
भवन में वीणा, पणव, वेणु का मनोरम स्वर उल्लास सहित सनु ाई दिए।
रामायण और महाभारत के समय तक ‘गांधर्व’ का समावेश ‘मार्ग संगीत’ में
होने लगा। लव आैर कुश के द्वारा जो रामायण का गाना सार्वजनिक रूप से प्रस्तुत
किया गया था वह तात्कालिक शिष्‍ट एवं अधिकारी जनों को मान्य होने के कारण
मार्ग कहलाया। इस संबंध में मानने योग्य तथ्य यह होगा कि मार्ग तथा देसी यह
संज्ञाएँ परस्पर सापेक्ष हैं। शास्‍त्रीय संगीत अपना जीवन रस सदैव लोक संगीत से
लेता आया है और वह जब ससु ंस्कृ त और व्याकरणबद्ध हो जाता है तो उच्च वर्ग में
प्रवेश करता है। देसी संगीत स्थानीय विशेषताओ ं को आत्मसात करता है एवं लोक
रुचि का अनश ु ासन मानते हुए नए-नए सौंदर्य तत्वों को बटोरता रहता है।
साहित्य विद्वानों के अनसु ार, ‘परु ाण’ प्राचीन संस्कृ त संकलन ग्रंथ है। इसमें
समय-समय पर सश ं ोधन परिवर्तन एवं सक ं लन होता रहा है। प्राचीन काल में जिन
आख्यानों का प्रचलन मौखिक रूप से प्रच�लत रहा, उन्हीं का संकलन परु ाणों
में किया जाता रहा है। सांगीतिक दृिष्‍ट से भी चार परु ाणों में सगं ीत विषयक वस्तु
उपलब्ध है। वायु परु ाण, मार्कण्डेय परु ाण, विष्णु धर्मोत्तर उपपरु ाण तथा हरिवंश
परु ाणों में विभिन्न वाद्य यंत्र, स्वरों की भिन्न सरगम एवं विभिन्न प्रकार के गीतों का
उल्लेख मिलता है। संगीत के पारिभाषिक शब्द, जैसे – आरोह,
अवरोह, वादी, सवं ादी आदि का भी उल्लेख है। वाद्य यंत्रों में
स्वर-मडं ल, मरु ज, मृदगं , वीणा, वंशी पाए जाए हैं। गीतों में ‘रस’
का सचं ार जैसे – वीर, अदभ् तु , �ृंगार, हास्य, शांत इत्यादि भी
बताये गए हैं। इसके अनसु ार गीतों
की गति का भी वर्णन है।
भरत मनिु द्वारा रचित नाट्य
शास्‍त्र में वाद्य यत्रों
ं एवं
गीत दोनों का विवरण
मिलता है। आचार्य
भरत के अनसु ार,
गाधं र्व (जो कि एक
शास्‍त्र माना गया है) में
राजस्थान का गायन वादन
5

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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

स्वर, ताल तथा पद तीनों का होना आवश्यक है। गीत की प्रमख ु ता होने के कारण इसी
गाधं र्व को सगं ीत कहते हैं। सगं ीत का अर्थ है ‘सम्यक गीतम’ अर्थात् ध्यानपरू क ्व या
अवधान से गाया गया गीत। गाधं र्व में दो प्रकार की वीणा, गात्र वीणा (मानव शरीर)
और दारू वीणा (लकड़ी से बनी वीणा) की भी चर्चा है। जिससे उस समय के सगं ीत
चितं न एवं शोध की भली-भाँति छवि दिखती है। गायन एवं वादन बहुत विकसित
हो चक ु ा था एवं शास्‍त्रीय पक्ष भी भली-भाँति अग्रसर था। सगं ीत में श्रुति, स्वर, ताल
सभी का वर्णन मिलता है। चार प्रकार के वाद्यों का भी उल्लेख मिलता है। तत,् सशि ु र,
खाल से मढ़े हुए अवनद्ध वाद्य एवं झाझं मजं ीरा जैसे घन वाद्य जिनकी आवाज़ दो
धातओ ु ं के टकराने से मिलती है। सगं ीत में शास्‍त्रीय पक्ष एवं लोकगीतों की भी चर्चा
विद्यमान है।
चौथी से दसवीं शताब्दी में प्रांतीय सगं ीत का भी खबू विकास हुआ। प्रांतीय
लोक सगं ीत के विकास के कारण साधारण जनता की भी सगं ीत में रुचि बढ़ती गयी।
सगं ीत को सँवारकर बहुत से रागों का निर्माण किया गया। गप्‍त ु काल एवं मौर्य काल
के राजाओ ं ने भी सगं ीतकारों एवं सगं ीतज्ञों का पोषण किया जिस कारण इस क्षेत्र को
बढ़ावा मिला। वराटी, गौढ़, गर्जु री, बोटटा सभी लोकधनु बहुत प्रचलित थीं। जिनके
स्वर समहू को सवु ्यवस्थित कर नए राग या शास्‍त्रीय सगं ीत का विकास हुआ। विभिन्न
ताल एवं वाद्य यत्रों
ं का विकास हुआ। शारंगदेव ने सगं ीत रत्नाकर में, जो कि सभं वत:
तेरहवीं शताब्दी में लिखी गई है, सगं ीत के सभी पक्षों का विवरण दिया है। सगं ीत शब्द
गीत, वाद्य और नृत्य तीनों का बोधक माना जाता है। मध्यकालीनयगु के ग्रंथकारों ने
सगं ीत की निम्न व्याख्या की है।
‘‘गीतं वाद्यं तथा नृत्यं त्रयं सगं ीतमच्य
ु ते।’’
एक ही स्रोत से उत्पन्न होने पर भी प्रादेशिक अनरु ं जन के कारण भारत में संगीत
की दो शैलियों का विकास होने लगा। नौवीं ई. के बाद भारतीय संगीत में अनेक
प्रादेशिक शैलियों का विकास हुआ। नौवीं ई. से लेकर तेरहवीं ई. तक भारतीय
संगीत का विदेशी संगीत से संपर्क हुआ और उसके विकास ने एक नया मोड़ ले
लिया। चौदहवीं ई. के संगीतज्ञों ने दक्षिण भारतीय संगीत एवं उत्तर भारतीय संगीत
का ग्रंथों में उल्लेख करना शरू ु कर दिया था।
मगु लों के आने के पश्‍चात् उत्तर भारतीय सगं ीत में ईरानी सगं ीत एवं सस्कृति
ं का
प्रभाव पड़ने लगा। अमीर खसु रो, जो कि सगं ीतज्ञ थे, भारत के सगं ीत और पर्शियन

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भारतीय संगीत का संक्षिप्‍त इतिहास

मचं पर गीत, वाद्य और नाट्य कला का प्रदर्शन


सगं ीत की मिली-जल ु ी तस्वीर लोगों के सामने दर्शाने लगे। दक्षिण भारत में इस
विदेशी संगीत का प्रभाव देखने को नहीं मिलता और वे संगीत का विकास अपनी
भाषा में और दक्षिण की शैलियों में करने लगे। इस तरह से धीरे -धीरे दोनों के स्वर,
उच्चारण, भाषा एवं शैली में अतं र दिखने लगे और दो धाराएँ बहने लगीं। गाने की
शैलियाँ भी विकसित एवं भिन्न हो गइ�। उत्तर भारतीय सगं ीत में विभिन्न शैलियाँ
जैसे – ध्परु द, ख्याल, ठुमरी, तराना इत्यादि दिखने लगे। कर्नाटक संगीत में पदम
गीतम,् वर्णन, कीर्तनम् इत्यादि का विकास हुआ।
ध्परु द, ख्याल, ठुमरी पहले देसी सगं ीत थे और धीरे -धीरे उन्नत होकर मार्गी सगं ीत
या शास्‍त्रीय सगं ीत की श्णरे ी में आ गए। उसी प्रकार दादरा, चैती, गज़ल इत्यादि भी
उच्च श्रेणी प्राप्‍त करते गए। इसी कारण लोकधनु ों पर आधारित खमाज, खबं ावती,
काफ़ी, पील,ू माडं , सौराष्ट्र, मालवी, सारंग आदि शास्‍त्रीय रागों में परिणित हुए।
प्रदेशों की भाषा व्यवसाय, रीति-रिवाज़, लोगों के रहन-सहन तो अलग होते
ही हैं। इसका प्रभाव संगीत पर भी बखबू ी दिखता है। भाव को परखा जाए तो कोई
अतं र नहीं है सिर्फ़ शैलियों में अतं र हैं। इस कारण दक्षिण में वायलिन, वेण,ु मृदगं म
एडाएक्‍का जैसे वाद्य यंत्र प्रचलित हैं तो उत्तर भारत में तबला, सितार, परखावज,
ढोल, सरोद, शहनाई, पगंु ी इत्यादि प्रचलन में हैं। लोक गीतों में लोगों के रहन-सहन,
वेशभषू ा, भौगोलिक चित्र ऐतिहासिक गाथाओ ं को गाते हैं और विभिन्न सरु , लय,
छंदों से सजाते हैं।
संगीत का स्तर संस्कृति पर निर्भर होता है। संगीत चाहे भारतीय हो या पाश्‍चात्य
अपने विकास के लिए साधन या सामग्री जन-जीवन से जटु ाता रहा है। इसी कारण
यह देखा गया है कि सभ्यता का विकास होता है तो संगीत भी उसके अनक ु ूल
विकसित होता है।
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हम और हमारा सगं ीत

हमारे देश का सगं ीत विभिन्नताओ ं का भडं ार है। प्रत्येक प्रांत समृद्ध होने के कारण
हमारे देश में संगीत का अथाह सागर है। साहित्य अगर किसी समाज का दर्पण होता
है तो सगं ीत उसकी धड़कन, यही विशेषता हमारे सगं ीत की भी है। सगं ीत विश्‍लेषक
कहीं के भी संगीत का विश्‍लेषण करके वहाँ की आबोहवा, खान-पान, रहन-सहन
और रीति-रिवाज़ आदि के विषय में आसानी से इसलिए बता सकते हैं, क्योंकि
दनिय
ु ा भर का संगीत अपनी धरती से जड़ु ा होता है। उसमें वहाँ की मिट्टी की सौंधी
सगु धं समाई होती है। उसमें वहाँ के पर्व, ऋतओ ु ं और प्रकृ ति का मनोरम चित्रण
होता है। इसलिए, हमारा संगीत हमारी भावनाओ ं की अभिव्यक्‍ति का सर्वाधिक
सशक्‍त माध्यम है।
संगीत और नृत्य वस्तुतः हैं
क्या? इनके आविष्कार की प्रेरणा
का स्रोत क्या है? कभी किसी
डरावने दृश्य को देखकर चौंकना
और डरना, फिर... इस चौंकने और
डरने के भाव को दसू रे के समक्ष
प्रस्तुत करने की क्रिया को अभिनय
लोक नृत्य – छत्तीेसगढ़
और नृत्य कहा गया। धपू से तपती
धरती पर पानी की बौछार को देख गर्मी से परे शान व्यक्‍ति के अधरों पर नाचने
वाली मस्का ु न, उस आल्हादित व्यक्‍ति का उछल-कूदकर अपनी प्रसन्नता व्यक्‍त
करने का ढंग, फिर उस पानी में स्वयं भीगकर एवं दसू रों को भिगाकर अपनी खश ु ी
में दसू रों को भी सम्मिलित करने की क्रिया ही सगं ीत की जननी है।
संगीत का विकास मानव सभ्यता के साथ-साथ ही हुआ है। जब भाषा, बोली
और लिपि का जन्म नहीं हुआ था, संगीत तब भी था। तब, इसी माध्यम से मानव

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हम और हमारा संगीत

अपने विचारों और अपनी भावनाओ ं से दसू रों को परिचित कराते थे। ध्वनि के
उतार-चढ़ाव और आगि ं क मद्रा
ु ओ ं का प्रदर्शन ही गायन, अभिनय और नृत्य
सृजन के स्रोत बने। संगीत के सात स्वरों
की उत्पत्ति अलग-अलग भाव, रस
भावनाओ ं की अभिव्यक्‍ति के लिए हुई
है। विद्वानों के मतानसु ार ‘सा’ और ‘रे ’
स्वर से वीर, अदभ् तु और रौद्र, ‘ध’ से
वीभत्स और भयानक रस, ‘ग’ तथा ‘नि’
स्वर से करुण रस और ‘म’ तथा ‘प’ से
हास्य तथा �ृंगार रसों की प्रभावोत्पत्ति
होती है। इसलिए अलग-अलग स्वर
समहू ों से निर्मित अलग-अलग राग
भिन्न-भिन्न भावनाओ ं की प्रस्तुति करते
यक्षगान हैं। इसी तरह अलग-अलग ध्वनि और
मद्रा
ु ओ ं द्वारा भी अलग-अलग भावों को प्रस्तुत किए जाने की परंपरा आदि काल
से अब तक चली आ रही है।
दरू संचार माध्यमों एवं यांत्रिक उपकरणों के परू ्व नगाड़ों पर अलग-अलग
प्रकार की ध्वनियों का वादन कर दरू -दराज़ के जंगली और कबीलाई इलाकों में
आपत्ति-विपत्ति की सचू ना देने का काम किया जाता था। इसलिए अलग-अलग
भावनाओ ं की अभिव्यक्‍ति हेतु अलग-अलग तालों और लयों के विषय में सोचा
गया। हर ताल एक अलग
प्रकृ ति, अलग भाव और
अलग रस का पोषक होती है,
तो हर लय भी। विलंबित लय
में करुण, मध्य लय में शांत,
�ृंगार और हास्य तथा द्रुत लय
में रौद्र, वीभत्स, भयानक, वीर
एवं अदभ् तु रसों का प्रदर्शन
होता है।
नगाड़ा

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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

सगं ीत में यह गणु प्रचरु मात्रा में है कि यह इसं ान की मनोदशाओ,ं भावनाओ ं


में परिवर्तन ला सके । दख ु ी इसं ान को श्रृगंृ ारिक अथवा जोशीला संगीत सनु ाकर या
क्रोधित और उत्तेजित व्यक्‍ति को करुण, �ाृंगारिक अथवा शांत प्रकृ ति का सगं ीत
सनु ाकर उसकी मानसिक दशा में सहज ही अपेक्षित परिवर्तन किया जा सकता है।
इसी आधार पर सगं ीत चिकित्सा की परू ी पद्धति विकसित की गई है।
संगीत हमसे और हम संगीत से कितनी गहराई, मज़बतू ी और अभिन्नता
से जड़ु े हुए हैं। यह बात आसानी से समझी जा सकती है जब हमारे जीवन
के हर क्षण, हर मांगलिक अवसर, हर रस्म-ओ-रिवाज़ के साथ हम संगीत
को जोड़ पाते हैं। घर में पत्रु या पत्री
ु के जन्म के साथ ही
एक ओर नवजात के रुदन के स्वर गँजू ते हैं तो दसू री ओर
महिलाओ ं के गीतों के स्वर। घर में ढोलक है तो
बहुत अच्छा, नहीं तो थालियों पर चम्मचों के
प्रहार से उन गीतों की सगं त घर की महिलाएँ
करती हैं जो पत्रु या पत्री ु के जन्म के मौके पर
गाए जाते हैं। बच्चे के 6 दिन के होने पर छठी,
12 दिन के होने पर बरही, 6 महीने के होने पर
अन्नप्राशन और एक वर्ष के होने पर जन्मदिन के अवसर पर गीत
गाए और सनु ाए जाते हैं। विवाह के गीत तो खबू मशहूर हैं। विवाह
के अवसर पर पत्री ु की विदाई और ससरु ाल में पत्रु वधू के आगमन
स्वागत के गीत भी गाए जाने का प्रचलन है।
इतना ही नहीं होली, दीपावली, दर्गा ु पजू ा, राम नवमी, कृ ष्ण
जन्माष्‍टमी, बसतं पचं मी, भैया दजू और रक्षाबंधन आदि के अवसरों
गौंग बजाता मिजो व्यक्‍ति पर भी विभिन्न प्रकार के गीतों को गाकर लोग अपनी भावनाओ ं
तथा खशिय ु ों को व्यक्‍त करते हैं। विभिन्न ऋतओ ु ं से संबंधित गीत-संगीत भी मानव
समाज में खबू लोकप्रिय है। बारहमासा, कजरी, चैती, झल ू ा, विरहा, सावन, होरी,
धमारी आदि इसी प्रकार की गायन शैलियाँ हैं। शास्‍त्रीय संगीत में बसंत, बहार
और इनके विविध प्रकार, राग मल्हार के कई प्रकार, देस और परज जैसे कई राग
भी प्रकृ ति और मानव के जड़ु ाव को व्यक्‍त करते हैं। घमू र, बिहु, गिदद् ा, भाँगड़ा,
आल्हा, लावणी और माहिया आदि गीत-संगीत प्रकार भी विभिन्न प्रदेशों के लोक
तत्वों की ओर संकेत करते हैं।
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हम और हमारा संगीत

विभिन्न फ़सलों की रोपाई, बवु ाई एवं कटाई से सबं ंधित गीत कृ षक भाइयों
और ग्रामीण महिलाओ ं के बीच खबू लोकप्रिय हैं। परु ाने जमाने में घरों में पानी
पहुचँ ाने वाले और विवाहित की डोली उठाने वाले कहार जाति के लोगों द्वारा गाए
जाने वाले संगीत के साथ बजने वाली ताल कहरवा आज फ़िल्मी, लोक, सगु म एवं
उपशास्‍त्रीय संगीत की
एक अत्यंत प्रचलित
ताल है। धोबी भाइयों
द्वारा प्रस्तुत किया जाने
वाला ‘धोबिया नाच’
भी खासा लोकप्रिय है। राजस्थान का लोक गीत प्रस्तुत करते माँगणियर जाति
पंजाब के रे गिस्तानी इलाकों के ऊँट चालकों द्वारा गाया जाने वाला गीत टप्पा हो
या राजस्थान की महिलाओ ं द्वारा गाया जाने वाला गीत प्रकार माँड, आज शास्‍त्रीय
और उपशास्‍त्रीय संगीत में खबू लोकप्रिय हैं। राजस्थान में एक विशेष संप्रदाय के
लोग और उनका गीत-संगीत ‘माँग�णयार’ कहलाता है। ये लोग उस वर्ग के हैं
जिनके परु खे पेट पालने के लिए लोगों के घर-घर जाकर गाना सनु कर घर परिवार
का खर्च चलाते थे। आर्थिक सहायता माँगने के कारण ही ये ‘माँगणियार’ कहलाए।
यह अलग बात है कि आज माँगणियार संगीतकारों की ख्याति विश्‍वव्यापी है।
प्राचीन समय में जब पानी के लिए घर-घर नल की व्यवस्था नहीं थी और
महिलाएँ नदी से पानी भरने के लिए एक विशेष प्रकार का गीत गाती हुइ,� आपस में
चगु लबाजी करती हुइ� झडँु में जाती थीं। मछली पकड़ने वाले मछुआरे भाई मछली
पकड़ते समय तो बिल्कु ल शांत रहते हैं किंतु दिनभर मिली सफलता के बाद शाम
के समय इकट्ठा होकर सामहि ू क रूप से गीत-नृत्य की प्रस्तुति करके एक ओर अपनी
प्रसन्नता व्यक्‍त करते थे तो दसू री ओर यह थकान से मिु क्‍त का प्रयास भी हाेता था।
इसी तरह नाविकों के गीत भी काफ़ी लोकप्रिय हैं, जिसे वे नाव चलाते हुए मस्ती
भरे स्वरों में गाकर एक ओर यात्रियों का मनोरंजन करते हैं, तो दसू री ओर अपनी
थकान को भल ू ाने का प्रयास भी। असम में गायकों का एक ऐसा भी वर्ग जनजातियों
में मिलता है जो लोगों के मरने के बाद मृत्यु के गीत गाते हैं और बाकायदा ध्वनि
विस्तारक यंत्र लगाकर सामहि ू क रूप से रातभर मृत्यु गीत सनु ाते हैं। ये पेशवे र
गायक होते हैं। ऐसी प्रथा राजस्थान में भी है।

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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

सगं ीत का प्रयोग धार्मिक


क्रियाकलापों के लिए भी खबू
होता है। दनियु ा भर का सगं ीत
अगर लोक से जड़ु े होने के कारण
लौकिक है तो दसू री ओर धर्म से
जड़ु े होने के कारण धार्मिक और
पारलौकिक भी है। कृ ष्ण के हाथ
में बँसी, शिव के हाथ में डमरू,
स्कू ् ली बच्चों द्वारा समहू गान सरस्वती के हाथ में वीणा, गणेश
के हाथ में मृदगं और नारद के हाथ में इकतारा है तो वहीं विष्णु, हनमु ान और इद्रं
आदि की संगीत प्रवीणता की अनेक गाथाएँ भी प्रचलित हैं। चाहे मदि ं रों में गाए जाने
वाले भजन-कीर्तन हों, दरगाहों में गाई जाने वाली कव्वालियाँ हों, गरुु द्वारों में गाई
जाने वाली गरुु वाणी हो या िफर चर्च में गाए जाने वाले हिम इनकी संगीतात्मकता
से भला कौन इनकार कर सकता है? बौद्ध और जैन मदि ं रों की प्रार्थनाएँ भी संगीत
के स्वरों में डूबी होती हैं। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने इस पर प्रकाश डालते हुए एक
बार कहा था–‘सामवेद की ऋचाएँ संगीत की खदान हैं, कुरआन शरीफ़ की एक
भी आयात बिना स्वर के नहीं कही जाती और ईसाई धर्म में डेविड के साम सनु ें, तो
ऐसा लगता है मानो हम सामवेद ही सनु रहे हैं।’
सगं ीत को जो लोग के वल मनोरंजन या मन बहलाने वाले साधन के रूप में
देखते हैं, वे वैसे लोग हैं जो चश्मे का संबंध आँख से नहीं, नाक और कान से जोड़ते
हैं क्योंकि सगं ीत का लक्ष्य कभी भी क्षणिक इद्ं रिय सख ु नहीं रहा, यह बौद्धिक
और आध्यात्मिक आनंद का माध्यम है। संगीत एक ऐसी यौगिक क्रिया है जो हमें
एकाग्र भी करती है, ध्यानस्थ भी और हमारी स्मरण शक्‍ति भी बढ़ाती है। सगं ीत
ऐसा विधान है जिसमें भौतिकता भी है, रस और रसायन भी और गणित भी। यह
चिकित्सा पद्धति पहले मन को ठीक करती है और फिर शरीर को स्वस्थ रखती है।
यह विद्या भी है, शास्‍त्र भी और सर्वोपरि कला भी। यह हममें सहिष्णुता की भावना
का विकास करती है। दसू रों की भावनाओ ं का आदर करना सिखाती है। आपस
में सामजस्य
ं बैठाने की प्रेरणा देती है और हमें एक अच्छा नागरिक बनने के लिए
प्रेरित करती है।

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हम और हमारा संगीत

सगं ीत हममें देशभक्‍ति की भावना जागृत करके देश के लिए कुछ भी करने को
प्रेरित करता है। ‘वदं े मातरम’् , ‘सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है’, ‘मेरा
रंग दे बसतं ी चोला’ और ‘सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा’ गाते हुए न जाने
कितने ही देशभक्‍तों ने अपने प्राण, अपना तन-मन-धन मातृभमू ि पर न्यौछावर कर
दिए। सतं ों, महात्माओ ं और समाज सधु ारकों ने अपनी वाणियों, उपदेशों को सगं ीत
के स्वरों में बाँधकर अगर एक ओर हमारे चरित्र निर्माण पर ज़ोर दिया है तो दसू री ओर
सत्य, अहिसं ा, प्रेम, अपरिग्रह और विश्‍व बधं तु ्व की भावना का भी सदं श े िदया है।
भारत धर्म प्रधान देश है। भारतीय विचारधारा सदा से ही आदर्श की भावभमू ि
पर प्रवाहित होती रही है तथा इसका प्रयोजन विश्‍व लोक कल्याण ही रहा है।
इसके कण-कण में
राम, हज़रत मोहम्मद,
ईसा, बद्ध ु , महावीर
और नानक आदि
की आत्मा समाई हुई
है। सत्य, अहिसं ा,
ब्रह्मचर्य, अस्तेय और
अपरिग्रह के पंच
महाव्रतों को इस देश हारमोनियम, तौस एवं तबला बजाते कलाकार
के निवासी सदियों से आत्मसात करते आ रहे हैं। आज के इस यगु में भी इन सबकी
वाणी, विश्‍व कल्याणकारी ही होगी।
महात्मा गाँधी भी बच्‍चों की िशक्षा में सगं ीत का समर्थन करते थे। इस प्रकार
हम देखते हैं कि हमारा संगीत महत्वपर्णू है क्योंकि यह मानव, मानवीय भावनाओ ं
और मानवीय ज़रूरतों के साथ मज़बतू ी से जड़ु ा हुआ है।
कला एवं सौंदर्यबोध शिक्षा विभाग ने कई प्रदेशों के संगीत की डी.वी.डी. इस
पस्तु क के साथ बनाई है। जिन बातों का उपरोक्‍त लेख में जि़क्र है उसी तरह के गीत
इन डी.वी.डी. में मिलेंगे। सभी शिक्षक वगो� से आग्रह है कि इन गीतों को बच्चों
तक पहुचँ ाए और उनके अर्थ को समझने में सहायता करें । जिससे भारत के सभी
प्रांतों के बच्चे दसू रे प्रांतों के संगीत को जानें, पहचानें, गाएँ जो राष्ट्र की उन्नति कि
नींव को सशक्‍त बनाएँ।

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3
लोक सगं ीत

जीवन और सगं ीत के नैसर्गिक सबं धं का जितना वास्तविक परिचय हमें लोक सगं ीत
द्वारा मिलता है, उतना अन्य किसी सगं ीत से नहीं मिलता। लोक जीवन का सदंु रतरम
प्रतिबिबं लोक सगं ीत में ही दिखाई देता है, क्योंकि लोक गीतों के शब्दों व स्वरों के
चयन में कृ त्रिमता का अभाव है। उनमें लोक जीवन का सीधा-सादा परिचय होता है।
वे व्य�क्‍त के बाह्य जीवन के साथ-साथ उसके भावों के भी परिचायक होते हैं।
लोक सगं ीत, लोक जीवन का सफल परिचायक है। लोक और सगं ीत अर्थात्
जनसाधारण और गायन, वादन व नृत्य का मिश्रण, इन दो शब्दों से लोक संगीत
का साहित्यिक अर्थ बनता है। यह ऐसा सगं ीत है जो जनरुचि के अनसु ार अस्तित्व
में आया। अतः यह जनसाधारण द्वारा भावों की स्वतः अभिव्य�क्त है या कहें कि
भावनाओ ं को व्यक्‍त करने का सरलतम माध्यम लोक सगं ीत है।
लोक संगीत में अके ले गाने से कहीं सामहि ू क ढंग से गाने के महत्व का
पता चलता है। उसमें स्वर की तल ु ना में लय का अपेक्षाकृ त कुछ अधिक प्रभाव
मिलता है।

झारखडं का लोक गीत गाती हुई महिलाएँ

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लोक संगीत

महात्मा गाँधी के अनसु ार ‘लोक गीतों में धरती गाती है, पहाड़ गाते हैं, नदियाँ
गाती हैं, फ़सलें गाती हैं, उत्सव और मेले, ऋतएु ँ और परंपराएँ गाती हैं।’ कला का
लोक पक्ष सतं लि ु त जीवन की मार्मिक वस्तु स्थिति, सामाजिक रूिढ़-विश्‍वास तथा
कलात्मक रंजन की ओर प्रेरित करता है। कला के लोक पक्ष के प्रेरणात्मक आधार
सामाजिक विश्‍वास, रीति-रिवाज़, उत्सव-त्यौहार एवं अन्य विशिष्‍ट मल्य ू हैं जो
सामहि ू क रूप में सामाजिकता से यक्ु ‍त होते हैं अर्थात् कला का लोक पक्ष शास्‍त्रविहीन
है तथा उसका ढाँचा सामाजिकता, परंपराओ ं के विशिष्‍ट दर्शन, मल्य ू ों, सामाजिक
रीति-रिवाजों एवं सामहि ू क
कार्यों द्वारा बना है। पं. ओकं ार
नाथ ठाकुर के अनसु ार, लोक
संगीत के माध्यम से समस्त
विश्‍व में मानवता, आत्मीयता
और एकता की स्थापना की
जा सकती है।
सगं ीत के सात्विक भाव
का निर्देशन लोक संगीत
द्वारा ही भली-भाँति किया जा नागालैंड के गायक एवं नर्तक
सकता है। यह एक सहज सगं ीत है, जो अनक ु रण मात्र से ही सीखा जा सकता है
किसी भी प्रकार का शास्त्रीय बंधन व नियम न हाेने के कारण यह जनसाधारण के
लिए भी सल ु भ है।
पहले सगं ीत द्वारा, जनसाधारण के अलावा पेड़, पश,ु पक्षी, आग, पानी इत्यादि
को वश में करने की प्रथा भी प्रच�लत थी।
किंतु मानव का अब प्रकृ ति के साथ इतना
संबंध न रहने के कारण ऐसी बातें के वल
जनश्रुति के रूप में ही रह गई हैं। प्राचीन
खडं हरों की भाँति इस प्राचीन संगीत की एक
परंपरा का संग्रह यदि कहीं भी मिल सकता
है, तो के वल लोक संगीत में। आज भी पर्वों
तथा सामाजिक अवसरों पर गाए जाने वाले
भीमबेटका गफ़ा
ु ओ ं का चित्र

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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

गीतों में प्राकृ तिक वस्तुओ ं का ही वर्णन पाया जाता है। अतः यह कह सकते हैं कि
संगीत की सात्विक प्रकृ ति अथवा हृदय के अतं र्गत उठे हुए भावों को ठीक उसी रूप
में व्यक्‍त करने का माध्यम जब सगं ीत को बनाया जाता है, तब उसे ‘लोक-सगं ीत’
कहा जाना चाहिए।
वैदिक यगु में भी पर्वों के अवसरों पर मनोहर गाथाओ ं के गाने का निर्देश वैदिक
ग्रंथों में उपलब्ध होता है, ‘मैत्रायणी संहिता’ में विवाह के अवसर पर गाना गाने की
विधि उल्लिखित है। उस समय की यह परंपरा आज भी अक्षुण्ण रीति से चल रही है।
लोक गीत
किसी भी प्रांत या क्षेत्र की प्रतिष्‍ठा, सस्का
ं र व सांस्कृतिक उन्नति का पता यहीं
से लगता है कि वहाँ का लोक संगीत कितना पष्ु ‍ट व पोषित है। जितना उत्तम
स्तर वहाँ के लोक सगं ीत का होगा, वहाँ का सांस्कृतिक स्तर भी उतना ही उत्तम
होगा। लोकगीतों में विषय की प्रधानता रहती है। ये सामाजिक, धार्मिक, नैतिक या
सांस्कृतिक कुछ भी विषय हो सकते हैं।
लोक गीत समाज में प्रचलित सर्वसाधारण धनु ों पर ही आधारित होता है।
विभिन्न प्रकार के लोकगीत एवं धनु े प्रस्फुटित होकर समाज में अपनी विशेष परंपरा
स्थापित करती हैं जो मानव-समाज को एक सत्रू में पिरोने में सहायक होती हैं।
शास्‍त्रीय संगीत और कलात्मक सौंदर्य से अपरिचित होने पर भी ग्रामवासियों के
सख ु -दख
ु , संयोग-वियोग, पीड़ा और उल्लास के स्वर संगीत की विभिन्न धनु ों में
मख ु रित हो उठते हैं। इस दृिष्‍ट से देखने पर हम यह पाते हैं कि भिन्न-भिन्न प्रांतों के
लोक गीतों की आत्मा में एक साम्य है। मल ू तत्वों में साम्य होने के कारण ही लोक
गीत सहज ही हृदय को छू लेते हैं। शब्दों और भाषा के अपरिचित होने पर भी संगीत
के माध्यम से वे मलू अर्थ और भाव को व्यक्‍त करते हैं। कला एवं सौंदर्यबोध शिक्षा
विभाग, एन.सी.ई.आर.टी. द्वारा बनाई गई डी.वी.डी. जो विभिन्न प्रांत के संगीत की
है इसी बात की पिु ष्‍ट करती है।
वस्तुतः शास्‍त्रीय गीत शिक्षित वर्ग की अभिव्यक्‍ति है किंतु लोकगीतों में
सहजता की प्रधानता होती है। इसमें वन्य अथवा ग्राम्य पृष्‍ठभमू ि की प्रधानता होती
है। लोक संगीत में जनसाधारण की सीधी-सादी अभिव्यक्‍ति, सरु , लय व भाषा का
प्रयोग देखने को मिलता है। यह भाषा आडंबर से बहुत परे है और वास्तविकता के
बहुत समीप है। संगीत की क्लिष्‍ट बातें भी बहुत कम दिखाई पड़ती हैं।
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लोक संगीत

प्रायः निम्न प्रकार के लोकगीत मिलते हैं –


सस्का
ं र सबं ंधी गीत – इनमें जन्म, अन्न प्राशन, मडंु न, यज्ञोपवीत विवाह गौन,
मृत्यु आदि विषयों पर रचनाएँ होती हैं।
ऋतु सबं ंधी गीत – भारत में बारहमासा, फागनु , वसतं चौमासा इत्यादि विषयों
के गीत इस श्रेणी में माने गए हैं। कृ षि संबंधी गीत जितने भी हैं, जो कि खेतों में
बीज बोने, फ़सल काटने, पिसाई इत्यादि से संबंध रखते हैं, उन्हें हम ऋतु संबंधी
गीत में ही शामिल कर सकते हैं। चैती, कजरी लोकगीत में कुछ विशिष्‍ट गान
हैं। अमेरिका में लोकगीत के एक बड़े उच्च शास्‍त्री हुए हैं जिनका नाम फि़लिप्‍स
बैरी था। लोकगीत के निर्माण के संबंध में उनका एक सिद्धांत है, जो कि ‘थ्‍योरी
ऑफ़ �क्रएशन’ कहलाता है।
The creation process is not one begun and finished by
a single individual, it is spread over by many individuals
and generations and it never comes to an end as long as the
tradition is alive.
लोक गीतों के विषय में यह कहा जाता है कि लोक गीत वह है जिसके
निर्माता का पता नहीं होता, परंतु जिसने अपनी सजीवता व माधर्यु के कारण
इतनी प्रतिष्‍ठा प्राप्‍त कर ली हो कि सदा के लिए लोक के कंठ में बस गया हो।
लोक गीतों का क्षेत्र बहुत दरू तक फै ला है। इसमें बहुत प्रकार के वर्णित विषय
होते हैं, यथा –
ऐतिहासिक गीत परुु षों के गीत राजकीय गीत
धमाल देश प्रेम गीत हास्य रस के गीत
पश-ु पक्षी सबं ंधी गीत ग्राम गीत नाट्य गीत
प्रभाती व भजन बालिकाओ ं के गीत भाई बहन के गीत
पणिहारियों के गीत दांपत्य गीत विवाह गीत
वैवाहिक प्रथा विशेष के गीत सस्का ं रों के गीत ऋतओ ु ं के गीत
तीर्थों के गीत व्रत त्यौहारों व उपवास के गीत
देवी-देवताओ ं व पितरों के गीत आदि

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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

इन गीतों के काव्य में एक अथाह समद्रु दिखाई देता है। जीवन का कोई भी पहलू
ऐसा नहीं है जिसको इन गीतों ने न छुआ हो। ऐसा लगता है कि जीवन भर लोक
गीतों द्वारा मनष्य
ु सहज भाव की अतं हीन खोज़ करता रहता है। यह जनसमदु ाय की
पँजू ी है और समाज एवं जन-समदु ाय का कहीं अतं नहीं है।

असम का ढोल
अतः लोक जीवन सगं ीत में नियमों का बंधन नहीं होता यहाँ तक कि छंद, ताल
आदि के नियमों से भी यह मक्ु ‍त प्रकार का संगीत है। लोक-संगीत, भावनाओ ं का
एक ऐसा प्रवाह है जो स्वतः ही किसी के कंठ से उदभ् तु होकर, हाथ से लाभ के
आवरण में लिपटकर और पैरों की थिरकन के साथ प्रकट हो जाए। यही जनसाधारण
के अधिक निकट ले जाती है, यही है लोक सगं ीत।

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भारतीय सगं ीत में ताल

संगीत चाहे शास्‍त्रीय हो, सुगम हो या लोक संगीत, उसमें ताल किसी न
किसी रूप में विद्यमान रहती है। गायन, वादन एवं नृत्य ताल पर ही आधारित
होते हैं।

“तालस्तलप्रतिष्ठायामिति धायों र्धाजि स्मृति:।


गीतं वाद्य नृत्यं यतस्ताले प्रतििष्‍ठतम् ।।”
(नाट्य शास्‍त्र)

भावार्थ – संगीत में समय के नापने के साधन को ताल कहा जाता है। गीत, वाद्य
तथा नृत्य ये तीनों ताल पर ही प्रतििष्‍ठत होते हैं। प्रतिष्‍ठा का अर्थ है व्यवस्थित
करना, आधार देना या स्थिरता प्रदान करना।
तबला, पखावज, ढोलक इत्यादि वाद्यों के
साथ गाने से एक विशेष प्रकार का आनंद प्राप्‍त
होता है। गायक, वादक या नर्तक अपनी कला के
प्रदर्शन हेतु ताल का अनसु रण करते हैं, जो उन्हें
कला प्रदर्शन में दिशा एवं स्थिरता प्रदान करने का
काम करता है।
मात्रा तबला बजाते हुए शिक्षक
ताल को जिस “इकाई” द्वारा नापा जाता है, उसे मात्रा कहते हैं, जैसे – समय मापने
की इकाई सेकंड है, ठीक उसी प्रकार ताल को मापने के लिए मात्रा का प्रयोग करते हैं।
इसे इस प्रकार भी समझ सकते हैं, जब लय समान चाल में मापी जाए तो 10
सेकंड को दस मात्रा कहेंगे।

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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

मात्रा के समदु ाय से ताल की इमारत खड़ी होती है, इन मात्राओ ं के समहू का


विभिन्न प्रकार से विभाजन करके उसके अलग-अलग खडं बनाकर उन्हें विभिन्न
बोलों से सजाकर, जब उसे एक विशेष नियमित रूप दिया जाता है तो उसे एक
विशेष ताल के नाम से संशोधित किया जाता है, जिससे वे गणु ीजनों या प्रेक्षकों में
पहचानी जा सकें ।
ठे का
तबले या पखावज के बोलों के आधार पर ताल के रूप को स्पष्‍ट करने वाली रचना
‘ठे का’ कहलाती है। बोल बिना अर्थ वाले शब्द होते हैं, जैसे – घी, तिरकिट, तँू
इत्यादि। इन्हीं से मिलकर ठे का बनता है।
कहरवा ताल का ठे का
मात्रा 1 2 3 4 5 6 7 8
बोल धा गे न ित ना क िध ं ना
चिह्न × 0
सम
जिस स्थान से तबले का ठे का प्रारंभ होता है, गायक या वादक उस स्थान पर एक
प्रकार का विशेष ज़ोर देते हैं, वही स्थान अर्थात् ठे के की पहली मात्रा या ठे का प्रारंभ
करने के स्थान को सम कहते हैं, इसे x से दर्शाया जाता है।
विभाग
प्रत्येक ताल को उनके चलन के अनसु ार कई खडं ों में बाँटा जाता है, उन खडं ों
में नििश्‍चत मात्राएँ रखी जाती हैं, जिससे ताल की विशिष्‍टता नििश्‍चत होती है।
मात्राओ ं को बाँटने के इसी खडं को विभाग कहते हैं।
तीन ताल का ठे का देखें
मात्रा 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16
बोल धा िध िध ं ध
ं ा धा िध िध
ं धं ा धा तीं तीं ता ता िध िध
ं धं ा
चिह्न × 2 0 2
इस ताल में 4-4 मात्राओ ं के चार विभाग हैं।

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भारतीय संगीत में ताल

ताली देना
जब ताल के बोलों को हाथों द्वारा बोलकर हथेलियों पर चोट करके (ताली बजाना)
तथा ऊँगलिय
ु ों की सहायता से दर्शाया जाता है। तो उसे ताली देना कहते हैं।
ताली
ठे के में जिस स्थान पर हाथों से ताली लगाई जाती है। उसे ताली कहते हैं इसे “2,
3, 4” से दर्शाया जाता है।
x यानी सम पहली ताली
2 दसू री ताली
3 तीसरी ताली
तीन ताल का ठे का एवं उसकी ताली
मात्रा 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16
बोल धा िध िध
ं धं ा धा िध िध
ं धं ा धा तीं तीं ता ता िध िध
ं धं ा
चिह्न × 2 0 3
यहाँ x, 2, 3 की मात्राएँ, 1 पहली, 5वीं, तथा 13वीं हैं, जहाँ पर ताली दी जाती है।
खाली
ठे के में जिस स्थान पर ताली न लगाकर के वल ताल के उस स्थान पर हाथ के झोंके
से दिखाया जाए, उसे खाली कहते हैं। खाली वाली मात्रा के बोल को बजाते समय
अन्य बोलों की अपेक्षा कोमलता से बजाते हैं। इसे 0 से दर्शाया जाता है।
ठे का कहरवा
मात्रा 1 2 3 4 5 6 7 8
बोल धा गे ना ती ना क िध ं ना
चिह्न × 0
यहाँ 5वीं मात्रा पर खाली है।
किसी ताल के ठे के को प्रारंभ (पहली मात्रा) से अतं तक (अतिम
ं मात्रा) बजाने
या बोलने को आवृत्ति कहते हैं। यदि एक बार ऐसा करें गे तो उसे एक आवृत्ति कहेंगे,
यदि ऐसा पाँच बार करें गे तो पाँच आवृत्ति मानी जाएँगी।

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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

लय
हम प्रायः घड़ी की टिक-टिक सनु ते हैं। घड़ी एक ही चाल से लगातार टिक-टिक
करती रहती है। टिक-टिक की जो एक समान गति है, वही लय है। इसी प्रकार सगं ीत
में गाने-बजाने में जो समय लगता है, उसकी समान गति को सगं ीत में लय कहते हैं।
हमारे जीवन में भी चलने, फिरने, बोलने आदि में इसी प्रकार की समान गति
या लय विद्यमान है।
लय के प्रकार
सगं ीत में मख्य
ु रूप से तीन प्रकार की लय का प्रयोग होता है –
1. विलंबित लय – जिस लय की गति बहुत धीमी होती है उसे विलंबित लय
कहते हैं। बड़ा ख्याल, ध्परु द, धमार इत्यादि विलंबित लय में ही गाए जाते हैं।
2. मध्य लय – जिस लय की गति न बहुत अधिक होती है न कम, उसे मध्य लय
कहते हैं। मध्य लय की गति विलंबित लय से दगु नु ी तेज़ होती है। “छोटे लय”
इसी लय में गाए जाते हैं। इस लय में तीन ताल, कहरवा, दादरा और झपताल
इत्यादि का प्रयोग किया जाता है।
3. द्रुतलय – मध्य लय से दगु नु ी और विलंबित लय से चौगनु ी गति की लय द्रुत
लय कहलाती है। छोटा ख्याल, तराना आदि इसी लय में गाए जाते हैं। द्रुत
लय में तीन ताल, कहरवा, दादरा आदि तालों का प्रयोग होता है।

समहू गीत गाते हुए स्कू ली बच्चे

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5 सगं ीत के
पारिभाषिक शब्द

कला की श्रेणी में 5 ललित कलाएँ आती हैं –


1. संगीत 2. कविता 3. चित्रकला 4. मर्ति ू कला 5. वास्तुकला
इन सभी ललित कलाओ ं में संगीत को श्रेष्‍ठ माना गया है। यह वह कला है, जिसमें
स्वर और लय द्वारा हम अपने भावों को प्रकट करते हैं।
“गीतं, वाद्यं तथा नृत्यं त्रयं संगीतमचु ्यते।”
(सगं ीत रत्नाकर)
भावार्थ – गायन, वादन तथा नृत्य इन तीनों कलों के समावेश को संगीत कहते हैं।
नाद
“न नादेन बिना गीतं न नादेन बिना स्वर:।
न नादेन बिना नृतं तस्‍मान्‍नादात्‍मक जगत।् ।”
(बृहदद् श
े ी)
भावार्थ – नाद के बिना न स्वर की उत्पत्ति हो सकती है, न नाद के बिना गीत
उत्पन्न हो सकता है, न नाद के बिना नृत्‍य हो सकता है यह सपं र्णू जगत नाद से
आेत-प्रोत है।
नाद का अर्थ ध्वनि है, कोई भी ध्वनि नाद का ही रूप है, नाद का संिध
विच्छेद करें तो ना+द । यहाँ “ना” का अर्थ नकार यानी “प्राण” है तथा “द” का
अर्थ दकार यानी “अग्नि”। जब प्राण वायु एवं अग्नि का संयोग होता है तो नाद की
उत्पत्ति होती है।
अब आपसे बच्‍चे यह पछू सकते हैं कि “बोलने या गाने में आग और हवा
का सयं ोग कै से होता है?” आपको उन्हें समझाना है �क बच्चो! जीने के लिए

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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

आॅक्सीजन हम नाक द्वारा लेते हैं, भोजन करने से हमें ऊर्जा मिलती है, जिससे शरीर
का तापमान बना रहता है। यहाँ आग का मतलब जलने वाली आग से नहीं वरन्
आपके शरीर के तापमान से है। अतः जब शरीर में कुछ कहने या व्यक्‍त करने की
इच्छा होती है तो आत्मा मस्तिष्क को प्रेरित करती है, मस्तिष्क शरीर की अग्नि पर
आघात करता है, अग्नि हवा को प्रेरित करते हुए नीचे से ऊपर आती है। इस प्रकार
हमारे शरीर से नाद या ध्वनि उत्पन्न होती है।
नाद के प्रकार
नाद के दो प्रकार माने गए हैं – 1. अनाहत नाद 2. आहत नाद
1. अनाहत नाद – कुछ ध्वनियाँ ऐसी होती हैं जो प्रकृ ति में विद्यमान होती हैं या
किसी जीव द्वारा प्रत्यक्ष आघात या वस्तुओ ं के टकराने या घर्षण करने से पैदा
नहीं होती हैं।
अब अागे बच्‍चे यह पछू सकते हैं कि हमने तो ऐसी ध्वनि कभी सनु ी नहीं।
तो आइए, एक प्रयोग करें –
दोनों तर्जनियों को अपने कर्णपट पर लगाएँ और कान के द्वार को बंद कर दें,
बिल्कु ल शांत रहें। अब सनु ने की कोशिश करें , आप अब सं___ सं____ की
ध्वनि महससू कर रहे होंगे। यही अनाहत नाद है जो प्रकृ ति में विद्यमान है।
2. आहत नाद – जो ध्वनि आघात यानी टकराने या दो वस्तुओ ं के घर्षण अथवा
रगड़ने से पैदा होती है, वह ‘आहत नाद’ कहलाती है। उदाहरणस्वरूप, जब
तानपरु े पर अँगलु ी से आघात करने या वायलिन पर गज से रगड़ने पर ध्वनि
उत्पन्न होती है, वह यही आहत नाद है।
छात्र अब यह पछ ू सकते हैं कि दनियु ा में तो बहुत सारी आवाज़ें हैं शोरगलु
इत्यादि भी नाद हैं? तो बच्चों “हाँ” परंतु जो ध्वनि हमारे कानों को अच्छी न लगे वह
शोर है तथा जो ध्वनि पैदा होने के बाद निरंतर हो तथा सनु ने में अच्छी लगे वह नाद
सगं ीतोपयोगी है। हम सगं ीत में उसी उपयोगी नाद की चर्चा कर रहे हैं।
नाद के गुण
नाद यानी संगीतोपयोगी ध्वनि के तीन गणु होते हैं –
1. नाद का छोटा-बड़ा होना (Magnitude or Intensity)

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संगीत के पारिभाषिक शब्द

2. नाद का जाति भेद (Timber)


3. नाद का ऊँचा-नीचा होना (Pitch)
1. नाद का छोटा बड़ा होना – नाद के छोटे या बड़े होने से यह पता चलता है
कि जो आवाज़ पैदा हो रही है, वह धीरे से पैदा हो रही है या ज़ोर से, एक ही
आवाज़ एक ही जगह से धीरे एवं ज़ोर से पैदा की जा सकती है। उदाहरण के
िलए, मदि
ं र के घटं े को एक अँगलु ी और हथेली की शक्‍ति से बजाते है, तो
आवाज काफ़ी ज़ोरदार होती है। जो ध्वनि एक अँगल ु ी से निकलती है वह
छोटा नाद है और जो पाँचों ऊँगलिय
ु ों से निकलती हैं, वह बड़ा नाद है। जरा
इस चित्र को देख लें – C 1

(क) C (ख)

A B A1 B1

D1

पहले चित्र (क) में AB की लंबाई दसू रे चित्र (ख) के C1 D1 की लंबाई से


कम है इसी तरह छोटे और बड़े नाद का फै लाव होता है।
2. नाद की जाति – हर एक वस्तु, मनष्य ु या वाद्य से निकलने वाली ध्वनि
अलग-अलग होती है, यहाँ तक कि जड़व ु ा सतं ानों की आवाज़ें भी भिन्न-भिन्न
होती हैं। सारंगी की आवाज़ वायलिन, हारमोनियम की पियानों से, सितार की
आवाज़ गिटार से अलग होती है। यदि आँख पर पट्टी बँधी हो तब भी हम इन
आवाज़ों में अतं र कर सकते हैं। आवाज़ का यही गणु जिससे वह दसू री आवाज़
से भिन्न मालमू होती है, नाद की जाति कही जाती है।
3. नाद का ऊँ चा-नीचा होना – नाद के उच्च या नीचता के गणु से यह पता
चलता है कि जो आवाज़ पैदा हो रही है वह ऊँची है अथवा नीची। जब सप्‍तक
(सा रे ग म प ध नि) या अष्‍ठक (सा रे ग म प ध नि सां) गाते या बजाते हैं,

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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

तो ‘रे ’ की आवाज ‘सा’ से ‘ग’ की आवाज़ ‘रे ’ से नि


‘म’ की आवाज़ ‘ग’ से ऊँची होती है, उसी तरह ध
मध्य सप्‍तक के षड्ज (सा) की आवाज़ तार प
सप्‍तक के षड्ज (सां) से नीची मालमू होती

है। नाद के इसी गणु को ऊँचा-नीचापन
कहा जाता है। हम इस चित्र द्वारा भी ग
इसे समझ सकते हैं – रे
सा
सप्‍तक के सातों स्वरों की ध्वनि इसी तरह ऊँची-नीची होती है, जो नाद के ऊँचे
या नीचेपन के कारण होती है।
विद्वान शिक्षकगण सितार या वायलिन पर स्वरों को बजाते समय स्थूल रूप से
ऊँचाई-निचाई दिखा सकते हैं।
भारतीय संगीत में शास्‍त्रीय पक्ष की दो धाराएँ हैं –
उत्तर भारतीय सगं ीत – दक्षिण के चार प्रदेशों को छोड़कर बाकी प्रदेशों में इसी
आधार से गाते-बजाते हैं।
दक्षिण भारतीय सगं ीत – के रल, आधं प्रदेश, तमिलनाडु, कनार्टक दक्षिणात्य
सगं ीत का प्रवर्तक है।
उत्तर भारतीय सगं ीत
उत्तर भारतीय संगीत के कुछ तकनीकी शब्द आैर उनकी व्याख्या।
श्रुति
श्रुति शब्द संस्कृ त का है, जिसका अर्थ है (श्रु + इति) मतलब सनु ा हुआ।

“नित्यं गीतोपयोगित्वमभिज्ञेयत्वमप्युत ।
लक्ष्ये प्रोक्‍तं सपर्
ु याप्‍तंब संगीत श्रुति लक्षणम।् ।”

भावार्थ – वह नाद या आवाज़ जो गीत में प्रयोग की जा सके , जो एक-दसू रे से


अलग तथा स्पष्‍ट पहचानी जा सके , उसे श्रुति कहते हैं।

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संगीत के पारिभाषिक शब्द

अतः श्रुति वह ध्वनि है –


1. जो संगीत के लिए उपयोगी हो।
2. जो साफ़-साफ़ सनु ाई दे।
3. जो एक-दसू रे से अलग-अलग सनु ाई दे।
श्रुति को इस प्रकार भी समझा जा सकता
है – एक सप्‍तक (सात क्रमवार स्वरों का समहू )
में ‘सा’ से ‘नि’ तक असंख्य नाद हो सकते हैं
परंतु सगं ीतज्ञों का मानना है कि सभी नादों में
सिफ़र् 22 ही संगीत में प्रयोग किए जा सकते
हैं जिन्हें ठीक से पहचाना जा सकता है। इन्हीं हरविंदर शमार् – िसतार
22 नादों को ‘श्रुति’ कहते हैं।
इन श्रुतियों के नाम हैं –
1. तीव्रा 2. कमद्वती 3. मदं ा 4. चदं ोवाती
5. दयावती 6. रंजनी 7. रक्‍तिका 8. रौद्री
9. क्रोधी 10. वज्रिका 11. प्रसारिणी 12. प्रीति
13. मार्जनी 14. क्षिति 15. रक्‍ता 16. संदीपनी
17. आलपिनी 18. मदतं ी 19. रोहिणी 20. रम्या
21. उग्रा 22. क्षोभिणी
इन्हीं श्रुतियों से स्वरों का निर्माण होता है।
स्वर
भारतीय संगीत में सात स्‍वर होते हैं।
“श्तरु ्यानत्तरभावी यः स्निग्धोंsनरु णनान्मक:।
स्वतो रंजयति श्रोतृचित्तं स स्वर उच्यते ।।”
भावार्थ – श्रुति के पश्‍चात् उत्पन्न होने वाली वाणी वह ध्वनि है जो स्निग्ध
अनरु णनात्मक हो तथा जो सनु ने वाले के मन को प्रसन्न करे, वही ‘स्वर’ कहलाता है।
22 श्रुतियों से कुल 12 स्वरों की उत्पत्ति होती है। ये स्वर दो प्रकार के हैं –
क. शद्ध
ु स्वर ख. विकृ त स्वर

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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

शुद्ध स्वर – शद्ध


ु स्वर 7 हैं, जिनके नाम हैं –
1. षड्ज - सा 2. ऋषभ - रे 3. गंधार - ग
4. मध्यम - म 5. पंचम - प 6. धैवत - ध
7. निषाद - नि

विकृत स्वर – विकृ त स्वर पाँच हैं –


1. कोमल ऋषभ - रे 2. कोमल गंधार - ग
3. तीव्र मध्यम - म 4. कोमल धैवत - ध
5. कोमल निषाद - नि

सप्‍तक
सप्‍तक का अर्थ है सात स्वरों का क्रमानसु ार गायन अथवा वादन। “सा रे ग म प ध नि”
ये एक सप्‍तक हैं। नाद की ऊँचाई-निचाई के आधार पर इस प्रकार कुल तीन सप्‍तक
मख्य
ु हैं –
1. मंद्र सप्‍तक – जिस सप्‍तक के स्वरों की आवाज़ मध्य सप्‍तक की आवाज़
से दगु नु ी नीची हो उसे मद्रं सप्‍तक कहते हैं। मद्रं के स्वर गाते या बजाते समय
गहराई या भारीपन का अनभु व होता है। मद्रं सप्‍तक के स्वरों को लिखते समय
स्वरों के नीचे बिंदी (.) का प्रयोग करते हैं जैसे – सा रे ग़ म प ध नि।
2. मध्य सप्‍तक – स्वाभाविक कंठ से निकलने वाले स्वरों के सप्‍तक मध्य सप्‍तक
कहलाते हैं। ये स्वर मद्रं सप्‍तक से दगु नु े ऊँचे होते हैं। सनु ने में स्वाभाविक एवं
सामान्य लगते हैं। मध्य सप्‍तक के स्वरों को लिखते समय किसी चि� की
आवश्यकता नहीं होती।
3. तार सप्‍तक – ऊँची ध्वनि, जो मध्य सप्‍तक से दगु नु े ऊँचे होते हैं तार सप्‍तक
के स्वर कहलाते हैं। तार सप्‍तक के स्वरों को लिखते समय स्वरों के ऊपर बिंदी
का प्रयोग किया जाता है, जैसे – सां रें गं मं पं ध निं।
शिक्षक हारमोनियम या सितार के पर्दों पर मध्य, मद्रं एवं तार सप्‍तक आसानी
से दिखाकर समझा सकते हैं।

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संगीत के पारिभाषिक शब्द

राग
विशिष्‍ट स्‍वरों से बनने वाले समदु ाय राग कहलाते हैं।

“योsयं ध्वनि विषेशस्तु स्वरवर्ण विभशि


ु त:।
रंजको जनचितं ानां स राग: कथितौ बधु ौ:।।”
(सगं ीत रत्नाकर)

भावार्थ – ध्वनि की वह विशिष्‍ट रचना जो “स्वर” तथा “वर्ण” सश ु ोभित हो और


जो सनु ने वालों के मन को प्रसन्न कर सके , उसे “राग” कहते हैं।
यहाँ पर “स्वर” एवं “वर्ण” शब्दों का उल्लेख आया है। स्वर से तात्पर्य
संगीतोपयोगी ध्वनि जो अपने आप में मधरु हो, निरंतर एवं स्वयं चित्त को प्रसन्न
करने वाली हो।
वर्ण
िकसी भी व्‍यक्‍ति के वर्ण से उसकी पहचान होती है। उसी तरह गाने या बजाने के
िवभिन्‍न आयामों को वर्ण कहा गया है।

“गानक्रिये योच्यते वर्ण: चतर्था


ु निरुपति:”
(संगीत रत्नाकर)
भावार्थ – गान करने की क्रिया को वर्ण कहते हैं। ये वर्ण चार प्रकार के होते हैं।
1. स्थायी वर्ण – जब एक ही स्वर बार-बार उच्चरित होता है, तो उसे “स्थायी
वर्ण” कहते हैं।
2. आरोह वर्ण – षड्ज से ऊपर निषाद की ओर स्वरों के गाने या बजाने जाने
को “आरोही वर्ण” कहते है।
3. अवरोही वर्ण – निषाद से नीचे की ओर स्वरों के गाने या बजाने को “अवरोही
वर्ण” कहते है।
4. सचा
ं री वर्ण – स्थायी, आरोह, अवरोही इन तीनों के मिश्रण से स्वरों के गाने
या बजाने को “संचारी वर्ण” कहलाते हैं।

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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

राग लक्षण या राग नियम


1. राग का प्रति लक्षण या विशेषता यह है कि उनमें रंजकता अवश्य होनी चाहिए
अर्थात् वह सनु ने में अच्छा लगे।
2. राग में कम से कम पाँच और अधिक से अधिक सात स्वर होने चाहिए। पाँच
स्वरों से कम का राग नहीं होता है।
3. प्रत्येक राग को किसी न किसी थाट से उत्पन्न माना गया है। जैसे – राग “भपू ाली”
कल्याण थाट से तथा “बाग्रेश्री” को काफ़ी थाट से उत्पन्न माना गया है।
4. किसी भी राग में “षड्ज” अर्थात् “सा” कभी वर्जित नहीं होता क्योंकि यह
सप्‍तक का आधार स्वर होता है।
5. प्रत्येक राग में मध्यम (म) और पंचम (प) में से कम से कम एक स्वर अवश्य
रहना चाहिए। दोनों स्वर एक साथ वर्जित नहीं होते। अगर किसी राग में ‘प’
के साथ शद्ध ु “म” भी वर्जित है तो उसमें तीव्र मध्यम (मऺ॑) अवश्य रहता है।
उदाहरणस्वरूप, भपू ाली में मध्यम वर्जित है, मालकौस में पंचम वर्जित है,
परंतु भपू ाली में पंचम तथा मालकौस में मध्यम स्वर विद्यमान है। राग मारवा
में पच ं म एवं शद्ध
ु मध्यम वर्जित है, परंतु उसमें तीव्र माध्यम है।
6. प्रत्येक राग में आरोह-अवरोह,
वादी-सवं ादी, पकड़ एवं गायन
समय को निर्धारित करना
आवश्यक है।
7. राग में किसी स्वर के दोनों रूप
एक साथ एक-दसू रे के बाद
प्रयोग नहीं किए जाने चाहिए।
उदाहरणस्वरूप, कोमल रे और
शद्धु रे अथवा कोमल ग और रागमाला चित्र
शद्ध ु ग किसी भी राग में एक के बाद एक नहीं आते। यह सभं व है कि आरोह
में शद्धु प्रयोग किया जाए तथा अवरोह में कोमल। जैसे खमाज राग में शद्ध ु
निषाद और अवरोह में कोमल निषाद का प्रयोग होता है।
विद्वान एवं शिक्षक गण राग के वर्णों को गा-बजाकर समझा सकते हैं, साथ
ही राग नियम को रागों को सीखते समय उनके पालन होने को भी उदाहरण सहित
समझा सकते हैं।
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संगीत के पारिभाषिक शब्द

राग में स्वरों के प्रकार


हिन्दुस्तानी सगं ीत पद्घति के रागों में चार प्रकार के स्वरों का प्रयोग है, वे स्वर हैं –
1. वादी स्वर – वादी उस एक स्वर को कहते हैं, जिसका प्रयोग राग में अन्य
स्वरों की अपेक्षा अधिक प्रयोग होता है। वादी स्वर को राजा के समान माना
गया है। उदाहरणस्वरूप, राग यमन में वादी स्वर गधं ार है।
2. सवं ादी स्वर – सवं ादी स्वर उस एक स्वर को कहते हैं जो स्वर राग में वादी
स्वर से कम परंतु अन्य स्वरों की अपेक्षा अधिक प्रयोग में लाया जाता है।
संवादी स्वर को राग में मत्री
ं के समान माना गया है। उदाहरणस्वरूप, राग यमन
का संवादी स्वर निषाद है।
3. अनुवादी स्वर – वादी एवं सवं ादी स्वरों को छोड़कर बाकी बचे हुए स्वर
“सा रे म प ध” ये अनवु ादी स्वर हुए। राग में अनवु ादी स्वरों को सेवकों की
उपमा दी गई है।
4. विवादी स्वर – विवादी स्वर उस एक स्वर को कहते हैं, जो राग में वर्जित
होता है। परंतु कभी-कभी राग में सदंु रता बढ़ाने के लिए इनका प्रयोग कर दिया
जाता है। जैसे राग भैरवी में शद्ध ु रे । विवादी स्वर का प्रयोग कुशलता से करना
चाहिए नहीं तो राग का स्वरूप एवं रंजकता को नक ु सान पहुचँ ता है। विवादी
स्वर को शास्‍त्र की उपमा दी गई है।
रागों की जाति
स्वरों की गिनती के आधार पर अथवा किसी राग में प्रयक्ु ‍त होने वाले स्वरों की
सख्या
ं के आधार पर रागों की जातियाँ नििश्‍चत की गई हैं। मख्य ु रूप से जातियाँ
तीन मानी गई हैं – 1. औडव, 2. षाडव, 3. संपर्णू । इन तीनों से कुल नौ प्रकार के
रागों की जातियाँ नििश्‍चत की गई हैं। जिनका विवरण अग्रलिखित है –
औडव (पाँच स्वर)

औडव-औडव औडव-षाडव औडव-सपं र्णू


(5-5 ) (5-6) (5-7)

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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

षाडव (छ: स्वर)

षाडव-औडव षाडव-षाडव षाडव-सपं र्णू


(6-5) (6-6) (6-7)

सपं ूर्ण (सात स्वर)

सपं र्णू -औडव सपं र्णू -षाडव सपं र्णू -सपं र्णू
(7-5 ) (7-6) (7-7)

1. औडव-औडव – वे राग जिनकेे आरोह एवं अवरोह में पाँच स्वर हों वे
औडव-औडव जाति के राग कहलाते हैं, जैसे – भपू ाली, मालकौस इत्यादि।
2. औडव-षाडव – वे राग जिनके आरोह में पाँच स्वर तथा अवरोह में छः स्वर
प्रयक्ु ‍त होते हैं, वे आरोह औडव-षाडव कहलाते हैं।
3. औडव-सपं ूर्ण – वे राग जिनके राग में पाँच स्वर तथा अवरोह में सात स्वर
का प्रयोग होता है। वे राग औडव-षाडव कहलाते हैं।
4. षाडव-औडव – वे राग जिनके आरोह में छः स्वर एवं अवरोह में पाँच स्वर
का प्रयोग होता है, औडव-षाडव जाति के राग कहलाते हैं।
5. षाडव-षाडव– वे राग जिनके आरोह तथा अवरोह दोनों में छः स्वर हों,
षाडव-षाडव जाित के राग कहलाते है।
6. षाडव-सपं ूर्ण – वे राग जिनके आरोह छः तथा अवरोह में सात स्वर हों वे
राग षाडव-संपर्णू कहे जाते हैं।
7. सपं ूर्ण-औडव– वे राग जिनके आरोह में सात स्वर एवं अवरोह में पाँच स्वर
प्रयक्ु ‍त होते है, सपं र्णू औडव कहलाते हैं।
8. सपं ूर्ण-षाडव – वे राग जिनके आरोह में सात स्वर एवं अवरोह में छ: स्वर
प्रयक्ु ‍त होते है, सपं र्णू षाडव कहलाते हैं।

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संगीत के पारिभाषिक शब्द

9. सपं ूर्ण-सपं ूर्ण – वे राग जिनके आरोह-अवरोह में सातों स्वर का प्रयोग होता
है, वे संपर्णू -संपर्णू जाति अथवा संपर्णू जाति के राग कहलाते हैं, जैसे – भैरव,
भैरवी इत्यादि।
अन्य पारिभाषिक शब्द
आरोह – किसी भी राग में प्रयक्ु ‍त होने वाले स्वरों को चढ़ते क्रम में तार सां तक
गाना या बजाना आरोह कहलाता है, जैसे – राग भैरव में प्रयक्ु ‍त होने वाले स्वर हैं
“सा रे ग म प ध नि” तो इनका आरोह होगा – सा रे ग म प ध नि सां ।
अवरोह – किसी राग में प्रयक्ु ‍त होने वाले स्वरों को आरोह के विपरीत तार (सां) से
मध्य सप्‍तक के सा तक गाने या बजाने को अवरोह कहते हैं। जैसे – भैरव में प्रयक्ु ‍त
होने वाले स्वर हैं – “सा रे ग म प ध नि” तो इनका अवरोह हुआ – सां नि ध प म
ग रे सा ।
पकड़ – किसी भी राग में प्रयक्ु ‍त होने वाले स्वरों को सबसे छोटा मेल या विन्यास
जिसको गाते या बजाते ही राग पहचान में आ जाए, वह राग की पकड़ कही जाती
है, जैसे – भैरव राग में “ग म ध प” स्वरवाली गाते ही राग भैरव का आभास हो
जाता है।
आलाप – राग को गाते समय उस विशेष राग के नियमानसु ार स्वरों को आकार
(आ ss) किसी बोल (गीत या बंदिश के शब्द) अथवा “नोम-तोम” में गायन करने
को आलाप कहते हैं। इसे गायन से परू ्व बिना ताल के तथा बीच में तालबद्ध दोनों
तरीके से गाया या बजाया जाता है, जैसे – राग यमन का एक आलाप देखिए –
स्वर नि़ रे ग - - प म�॑ रे s s ग प रे ग रे सा
आकार आ s s s s आ s s s s s आ आ s s s

तान – तान का अर्थ होता है तानना या फ़ै लाना। तान उस स्वर समदु ाय को कहते हैं
जिससे प्रयक्ु ‍त स्वरों को गाकर राग का विस्तार किया जाता है। आलाप के विपरीत
तान में स्वरों को तेज़ लय में गाकर बंिदश के बोल या राग के स्वरों में गाते हैं।
जैसे – राग यमन की तान।
ऩिरे गम ॑ धनि सांनि धप मग॑ रे सा ऩिसा को आकार में गाते बजाते हैं।

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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

अलंकार या पलटा
अलंकार का अर्थ है सजाना। नियमित स्वर समहू के गायन को अलंकार कहते हैं।
पंडित अहोबल ने इसकी परिभाषा इस प्रकार दी है “स्वरों की क्रम से की गई रचना
जो आपस में भली-भाँति गथु ी हुई हो, अलंकार कहलाती है।” इससे गले की तैयारी
तथा राग के विस्तार की समझ आसानी से हो जाती है।
अलंकार के नियम
1. अलंकार में आरोह-अवरोह दोनों का होना आवश्यक है।
2. स्वर एक नियमित क्रम में होते हैं।
3. राग के अनसु ार शद्ध
ु अथवा विकृ त स्वर का प्रयोग करना चाहिए।
उदाहरण – 1
सा रे ग रे ग म ग म प म प ध प ध नि ध नि सां
आरोह
1 2 3 2 3 4 3 4 5 4 5 6 5 6 7 6 7 1
अवरोह सां नि धा नि ध प ध प म प म ग म ग रे ग रे सा

आप देख सकते हैं की इसमें आरोह-अवरोह विद्यमान है, स्वर नियंत्रित क्रम
123, 234 ..... में हैं तथा एक खडं में 3-3 स्वरों का प्रयोग किया गया है।
उदाहरण – 2
यमन राग का अलंकार इसी क्रम में इस प्रकार होगा।
अवरोह सा रे ग रे ग म ॑ ग म ॑ प म ॑ प ध प ध नि ध नि सां
अवरोह
सां नि धा नि ध प ध प म॑ प म॑ग म ॑ ग रे ग रे सा
सानिध्य
आप देख सकते हैं – राग के अनसु ार तीव्र-मध्यम का प्रयोग किया गया है।
गमक
स्वरों का ऐसा कंपन जो स्वरों को सदंु रता एवं गभं ीरता दे उसे गमक कहते हैं। जैसे –
‘सा’ स्वर जो गमक के साथ गाएँ तो स्वर की गंभीरता बढ़ जाती है और वह सनु ने
में पहले से ज़्यादा अच्छा लगता है।

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संगीत के पारिभाषिक शब्द

गमक के िबना गमक के साथ

सा

गमक का प्रयोग कई तरह से हमारे संगीत में होता है, कंठ संगीत एवं वाद्य
सगं ीत में गमक के कई प्रकार प्रयक्ु ‍त होते हैं, वे हैं –
1. खटका 2. मर्की
ु 3. जमजमा 4. सतू
5. घसीट 6. गिटकरी 7. मींड
शिक्षकगण गमक का प्रयोग कर छात्रों को समझा सकते हैं।
दक्षिण भारतीय सगं ीत
दक्षिणात्य संगीत या कनार्टक संगीत के कुछ तकनीकी शब्द और उनकी व्याख्या
कर्नाटक सगं ीत प्रस्तुति के मख्यु त: दो रूप हैं –
1. अभ्यास गानम 2. सभा गानम
अभ्यास गानम, सगं ीत के आधारभतू अभ्यास और साधना की ओर सक ं ेत
करता है, जबकि सभा गानम उस गायन की ओर संकेत करता है, जहाँ तक पहुचँ ने
के लिए अभ्यास किया
जाता है। दक्षिणात्य
सगं ीत, दक्षिण भारतीय
एवं कर्नाटक संगीत
के नाम से भी जाना
जाता है। कर्नाटक के
कर्ण शब्द का अर्थ
कान होता है, जबकि मृदगं एवं वीणा बजाते हुए कलाकार
अटकम् शब्द का अर्थ है, सहु ाना। अतः कर्नाटकम शब्द का अर्थ है, जो कानों को
सहु ाना लगे। कर्नाटकम शब्द की व्याख्या कुछ लोग इस प्रकार भी करते हैं, अत्यंत
प्राचीन रूप जो पारंपरिक कड़ी को प्रकट करता हो।
इसमें प्रयक्ु ‍त होने वाले सात स्वरों के नाम हैं – षड्जम् (सा), ऋषभम् (रे ),
गांधारम् (ग), मध्यम् (म), पंचमम् (प), धैवतम् (ध) और निषादम् ् (नि)। ये सातों
सगं ीत के आधार स्वर हैं।
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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

रागम् अथवा राग – विभिन्न स्वरों के सवि ु चारित समहू को रागम् अथवा राग
कहा जाता है। इसका एक नििश्‍चत स्वरूप होता है और यह सुनने में अत्यंत रंजक
तथा कर्ण प्रिय लगता है। यह अत्यंत महत्वपर्णू तथ्य है कि किन्हीं भी दो रागों का
स्वरूप बिल्कु ल एक जैसा नहीं होता है। महत्वपूर्ण यह भी है कि कई बार सिर्फ़
एक ही स्वर का परिवर्तित रूप ही किसी नए राग के जन्म का कारण बनता है।
हर राग का अपना एक पृथक सौंदर्य होता है और एक प्रशिक्षित कान द्वारा उन्हें
आसानी से पहचाना जा सकता है। विभिन्न प्रकार की सांगीतिक रचनाओ ं के
माध्यम से किसी अमर्तू राग को मर्तू किया जा सकता है।
आरोहण एवं अवरोहण – प्रत्येक राग में आरोहण एवं अवरोहण नामक दो
महत्वपूर्ण चरण होते हैं। जब स्वर नियमित क्रम में नीचे से ऊपर की ओर जाते हैं
तो उसे ‘आरोहण’ कहा जाता है। इसी प्रकार, स्वर जब नियमित क्रम में ऊपर से
नीचे की ओर आते हैं, तो उसे ‘अवरोहण’ कहा जाता है।
अभ्यास गानम अथवा प्राथमिक साधना – यह सामान्यत: राग माया मालव
गौला गोरा में होता है, जो पंद्रहवाँ मेलकर्ता राग है। अभ्यास गानम पद्धति आरंभ
करने का श्रेय संगीत पितामह पुरंदर दास जी को है, जो पंद्रवी शताब्दी में रहे थे।
स्वरावलि – सगं ीत शिक्षा के आरंभ में जो प्रथम पाठ पढ़ाया जाता है, उसे
‘स्वरावलि’ अथवा ‘सरलीवरिसई’ कहा जाता है जिसका अर्थ स्वरों की लड़ी

तबला एवं वायलिन बजाते हुए कलाकार


होता है। यह गाने में सहज होता है। स्वरावलि दो शब्दों – स्वरम् और आवली
नामक दो भिन्न शब्दों के योग से बना है। ‘आवली’ का अर्थ पंिक्‍त अथवा क्रम

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संगीत के पारिभाषिक शब्द

होता है। अतः स्वर आवली का अर्थ हुआ स्वरों का नियमित क्रम। यह ‘सरली
वरिसई’ एवं ‘कोवई वरिसई’ भी कहलाता है।
जंटई वरिसई – जब सासा, रे रे, गग, मम आदि के रूप में हर स्वर का गायन एक
साथ दो-दो बार होता है, उसे ‘जंटई वरिसई’ अथवा ‘इरटई कोवई वरिसई’ कहा
जाता है। आकार के रूप में इनके निरंतर अभ्यास से राग अल्पनाओ ं में निपुणता
प्राप्‍त होती है।
हेचु स्थायी अथवा मे ल स्थायी वरिसई – यह स्वरों की व्यवस्था है जिसमें
स्वरों का गायन या वादन/तार स्थाई के षडज से पंचम स्वर तक होता है। इसे
‘वलिवु मंदिला’ नाम से भी संबोधित किया जाता है।
तग्गु स्थायी वरिसई – इसके अंतर्गत स्वरों को इस अंदाज में पिरोया जाता
है जिसके गायन, वादन के अध्ययन एवं अभ्यास से मंद्र स्थाई के पंचम स्वर
तक का कुशलतापूर्वक प्रयोग किया जाता है। यह ‘मेलियु मंडिला वरिसाई’ भी
कहलाता है।
चिट्टई स्वरम् – चिट्टई स्वरम् संदु र स्वरों का एक समहू होता है जो आदि ताल
में दो या चार आवर्तन का होता है तथा रूपक, तिपटु एवं चापू ताल में आठ या
सोलह आवर्तनों का होता है। यह अनुपल्लवी और चरणम् के अंत में मध्यम गति
में गाया जाता है।
पल्लवी, अनुपल्लवी एवं चरणम् – किसी भी सांगीतिक रचना का प्रथम
भाग ‘पल्लवी’ कहलाता है, तो दसू रा भाग ‘अनुपल्लवी’ कहलाता है। जबकि,
सांगीतिक रचना का अंतिम एवं समापन भाग ‘चरणम’् नाम से जाना जाता है।
पल्लवी, अनुपल्लवी एवं चरणम् वस्तुत: किसी कीर्ति, कीर्तन एवं संगीत संरचना
के तीन महत्वपूर्ण भाग होते हैं। यद्यपि कुछ ऐसी संगीत संरचनाएँ भी हैं जिनमें
सिफ़र् पल्लवी एवं चरणम् ही होते हैं। इसे भी सामान्यत: स्वीकार लिया गया है
कि अंगम् अर्थात् किसी संगीत सरंचना का एक भाग अलंकृत अंगम् कहलाता
है, जो उस रचना में एक विशेष प्रकार के सौंदर्य की वृद्धि करता है। यह गाने और
सुनने दोनों में अच्छा लगता है। इसके बाद अलंकार का क्रम आता है, जो ‘ताल
वेरीसस’ भी कहलाता है। ये अलंकार ध्रुव, मठ, रूपक, भम्प, त्रिपुट, अठ और
एक-इन सात तालों में निबंध होते हैं।

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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

गीतम् – गीतम् संगीत का वह भाग होता है जिसमें सहज, सरल शब्द और समध ु रु
संगीत होता है। गीतम् में पल्लवी, अनुपल्लवी और चरणम् जैसे अलग-अलग
भाग नहीं होते हैं, लेकिन साहित्यिक गीत या पद अवश्य होते हैं। गीतम् को दो
मख्य
ु श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है, जिनके नाम हैं – लक्ष्य गीत और
लक्षण गीत। गीतम् तमिल, तेलुग,ू कन्नड़ और संस्कृ त भाषाओ ं में उपलब्ध हैं।
स्वर जति – स्वर जति अभ्यास गान का ही एक रूप है जिसमें पल्लवी,
अनुपल्लवी और चरणम् होते हैं। उल्लेखनीय है कि कुछ में कई चरणम् पाए जाते
हैं। कुछ स्वर जति ऐसे भी हैं जिनमें अनुपल्लवी नहीं है। स्वर जति का साहित्य
भक्‍ति, प्रेम, पराक्रम, साहस, वीरता आदि भावों को प्रकट करता है। यद्यपि स्वर
जति अभ्यास गान के अंतर्गत आता है, तथापि श्यामा शास्‍त्री के तीन स्वर जति
समारोहों में गाए जाने के लिए अत्यंत लोकप्रिय हैं।
जतिस्वरम् – गीतम् की शिक्षा प्राप्‍त करने के बाद संगीतार्थियों के लिए जतिस्वरम्
सीखना कुछ अनिवार्य सा होता है। स्वरूप की दृिष्‍ट से जतिस्वरम् समान्यत: स्वर
जति जैसा ही होता है। अंतर सिफ़र् इतना होता है कि इसमें साहित्य नहीं होता है।
‘स्वर पल्लवी’ के नाम से भी इसे जाना जाता है क्योंकि इसमें जातियों का मेल
भी खबू दिखता है। कुछ जतिस्वरम् रागमल्लिका के रूप में भी संयोजित किए गए
हैं। स्वरजति सीख लेने के बाद संगीतार्थियों को वर्णम् सीखने में आसानी होती है।
वर्णम् – वर्णम् कर्नाटक संगीत का एक अत्यंत महत्वपूर्ण भाग होता है। प्रारंिभक
अभ्यास गान में सबसे अंत में सिखाया जाता है। मंच प्रस्तुतिकरण में वर्णन की
प्रस्तुति प्रथम रचना के रूप में होती है। इस आधार पर इसे अभ्यास गान और
सभागान के बीच की एक कड़ी के रूप में भी देखा जाता है। वर्णम् जिस राग पर
निबद्ध किया गया होता है, उस राग का संदु र और महत्वपूर्ण संचार सुनने को
मिलता है। वर्णम् के अंतर्गत प्रस्तुत किया जा रहा साहित्य संक्षिप्‍त होता है और
इसके माध्यम से प्राय: संगीत के महानायकों के प्रति प्रेम, आदर और भक्‍ति का
भाव प्रदर्शित किया जाता है।
कृति – किसी भी मंच प्रस्तुतीकरण में प्रस्तुत की जा रही रचनाओ ं में कृ ति को
सर्वाधिक श्रेष्‍ठ और महत्वपर्णू माना जाता है। जिस समय मंच पर कृ ति की
प्रस्तुति होती है, प्रस्तोता और आस्वादक दोनों ही एक विशेष प्रकार के आनंद
का अनुभव करते है। अनेक महान संगीतकारों ने कृ तियों का शब्दांकन और

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संगीत के पारिभाषिक शब्द

स्वरांकन करते समय अपने विचारों और भावनाओ ं को उसमें कुशलतापरू ्वक


पिरोया है।
कीर्तनम् – वेदिका गानम् के नाम से भी प्रसिद्ध कीर्तनई-कर्नाटकिया संगीत का
एक प्रतिष्‍ठित भाग है। इसके पदों में ईश्‍वर के प्रति प्रेम, समर्पण का भी भाग होता
है और उनकी कृ पा कामना भी। इसके साहित्य में यदा-कदा किसी पौराणिक
गाथा को भी पिरोया जाता है। यहाँ, यह विशेष रूप से ध्यातव्य है कि कीर्तन का
साहित्य उसके संगीत की अपेक्षा अधिक सबल और महत्वपूर्ण होता है। कीर्तन
को कृ ति से ज़्यादा महत्त्व और आदर दिया जाता है।
राग मालिका – राग मालिका का अर्थ है रागों की माला। ऐसी संगीत संरचनाओ ं
में एक रचना को विभिन्न रागों में कुशलतापरू ्वक एक साथ पिरोकर प्रस्तुत किया
जाता है। इसमें अनेक राग एक साथ मिलकर एक रचना का आनंद देते हैं। इसके
प्रत्येक चरण के अंत में चित्तई स्वरम् का गायन पल्लवी की तरह उसी विशेष राग
में किया जाता है।
पदम् – पदम् संगीत का एक ऐसा महत्वपूर्ण भाग होता जो नृत्योपयोगी होता
है। इसके गायन के माध्यम से नायक-नायिकाओ ं के संबंधों पर आकर्षक ढंग से
प्रकाश डाला जाता है। नायक-नायिका एवं उनके सखा तथा सखियों के माध्यम
से पदम् के रचनाकार विभिन्न प्रकार के तथ्यों, सच्चाईयों को अपने श्रोताओ,ं

कर्नाटक सगं ीत के गायक एवं वायलिन वादक

39

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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

दर्शकों के समक्ष प्रस्तुत करते हैं। पदम् के साहित्य के माध्यम से संगीतानुरागियों


को प्रेम के हर्ष और विषाद सहित-विभिन्न अन्य रूपों को भी देखने का सुअवसर
मिलता है।
जावलि – जावलि भी एक ऐसा ही सांगीतिक तत्त्व है जिसका नृत्य में उपयोग
होता है। इसमें भी नायक-नायिका, सखा और सखियों जैसे चरित्रों को अभिनय
के लिए कुशलता से पिरोया जाता है। कुछ जावलि आम बोलचाल की भाषा में
अतिशय श्रृंगारिक प्रेम का भी चित्रण करते ।
तिल्लाना – तिल्लाना जैसा कि नाम से ही स्पष्‍ट है कि यह एक ऐसी सांगीतिक
विधा है जो अपनी प्रस्तुति के माध्यम से खश ु ी और उत्साह का भाव प्रकट करती
है। इसका प्रयोग भी बहुधा नृत्य प्रस्तुतियों के लिए ही होता है। माना जाता है कि
तिल्लाना के आधार पर इसकी रचना हुई है।

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6
तालों का गणित

संगीत विस्तृत और इतनी विशाल कला है, जिसका गणित, भौतिक विज्ञान एवं
मनोविज्ञान आदि जैसी विधाओ ं से भी गहरा रिश्ता है। यहाँ हम संगीत और गणित
के रिश्ते पर संक्षेप में विचार करें गे।
सगं ीत की भव्य अट्टालिका जिन तीन मख्य ु आधार स्तंभों पर टिकी होती
है, उनमें एक लय है जिसे प्रदर्शित करने के लिए ताल का सहारा लिया जाता है।
लय, सगं ीत में व्यतीत हो रहे समय की चाल को कहा जाता है, सगं ीत में व्यतीत हो
रहे समय को मात्राओ ं द्वारा ठीक उसी प्रकार मापा जाता है, जैसे दैनिक जीवन में
व्यतीत हो रहे समय को हम सेकंड के द्वारा मापते हैं। जैसे – 60 सेकंड = 1 मिनट,
60 मिनट =1 घटं ा और 24 घटं ा = संपर्णू दिन और रात। मात्रा की कालावधि अभी
तक सगं ीत के विद्वानों द्वारा प्रामाणिक और सर्वमान्य रूप में निर्धारित नहीं हुई है,
फिर भी आधारभतू मध्यलय का एक मात्रा सामान्य: एक सेकंड के बराबर माना
जाता है।
वर्तमान समय में सगं ीत में व्यतीत हो रहे समय को मापने के लिए उत्तर भारतीय
संगीत शैली में न्यूनतम 6 मात्रा की दादरा ताल से लेकर अधिकतम 36 मात्रा की
लक्ष्मी ताल तक प्रचलित हैं। इनमें 6 मात्रा की दादरा, 7 मात्रा की रूपक और तीव्रा,
8 मात्रा की कहरवा, 10 मात्रा का झपताल और सल ू ताल, 12 मात्रा की एकताल

मणिपरु का नृत्य

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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

और चारताल (चौताल), 14 मात्रा की धमार, दीपचदं ी और झमू रा तथा 16 मात्रा


का तिलवाड़ा और तीन ताल आदि जैसी ताल अधिक प्रचार में हैं। ये सभी ताल
गणितीय सिद्धांतों के आधार पर छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी तालों द्वारा समय
को मापने के उद्देश्य से बनी हैं। जैसे हम सेकंड, मिनट, घटं ा, दिन, मास और वर्ष के
आधार पर समय मापते हैं।
यहाँ एक प्रश्‍न यह उठ सकता है कि संगीत में व्यतीत हो रहे समय को मात्राओ ं
द्वारा भी मापा जाता है और ताल द्वारा भी, तो मात्रा और ताल का आपसी रिश्ता
क्या है वस्तुतः सांगीतिक समय को मापने की सबसे छोटी इकाई मात्रा है, जबकि
ताल कई मात्राओ ं का संयक्ु ‍त रूप है। जिस प्रकार घटं े में मिनट और मिनट में सेकंड
होता है, उसी प्रकार ताल में मात्रा होती है।
चकि
ँू , कोई भी ताल कई
मात्रा समहू ों का संयक्ु ‍त रूप
होता है। अतः पहचान की
सविधु ा के लिए उसे कुछ
अलग-अलग विभागों में
बाँट दिया जाता है। यह
काम कुछ उसी तरह का
तबला एवं हारमोनियम बजाते हुए कलाकार होता है, जैसे किसी शहर
को वार्ड, ब्लॉक और सेक्टर आदि में बाँट दिया जाता है। उदाहरण के लिए, 16
मात्राओ ं की तीन ताल और 10 मात्राओ ं की झपताल को चार विभागों में बाँटा
गया है। 12 मात्रा की एक ताल में 6 विभाग हैं, 7 मात्रा की रूपक और तीव्रा में
तीन-तीन विभाग हैं तो 6 मात्रा की दादरा और 8 मात्रा की कहरवा में दो-दो विभाग
हैं। उदाहरण के लिए, इन तालों पर एक दृष्‍ट‍ि डालते हैं।
तीन ताल (त्रिताल)
मात्रा 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 1
बोल धा ि‍ध ि‍ध
ं ध ं ा धा ि‍ध ि‍ध
ं ध ं ा धा तीं तीं ता ता ि‍ध ि‍ध
ं ध ं ा धा
चिह्न × 2 0 3 ×

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तालों का गणित

झपताल
मात्रा 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 1
बोल धी ना धी धी ना ती ना धी धी ना धा
चिह्न × 2 0 2 ×
एक ताल
मात्रा 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 1
बोल धि ध ं िं धागे े ितरिकट त ू ना क त्ता धागे े ितरिकट धीं ना धिं
चिह्न × 0 2 0 3 4 ×
रूपक
मात्रा 1 2 3 4 5 6 7 1
बोल ती ती ना धि ना धि ना ती
चिह्न 0 1 2 0
तीव्रा ताल
मात्रा 1 2 3 4 5 6 7 1
बोल धा दीं ता ितट कत गदी गन धा
चिह्न × 2 3 ×
दादरा
मात्रा 1 2 3 4 5 6 1
ढोल बजाते हुए कलाकार
बोल धा धि ना ना ती ना धा
चिह्न × 0 ×
कहरवा ताल
मात्रा 1 2 3 4 5 6 7 8 1
बोल धा गे न ित न क धी न धा
चिह्न × 0 ×

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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

प०ं विष्णु नारायण भातखडं े ताल पद्धति के अनसु ार चि� परिचय –


सम या प्रथम मात्र - x
दसू री, तीसरी, चौथी आदि ताली के लिए – क्रमश: 2, 3, 4......आदि।
खाली के लिए – 0 एक मात्रा का चि�
पहचान को अधिक सविध ु ाजनक और पख्ता ु करने के लिए इन विभागों को
ताली और खाली के द्वारा एक-दसू रे से अलग किया जाता है। ये ताली और खाली
विभागों की पहली मात्रा पर दिए जाते हैं। जैसे कहरवा में एक मात्रा पर ताली है,
उसका दसू रा विभाग 5वीं मात्रा से शरू ु होता है और 5वी मात्रा पर खाली है। तीन
ताल में पहली, 5वीं और 13वीं मात्रा पर ताली है, जबकि 9 वीं मात्रा पर खाली।
ऐसा कोई अनिवार्य नियम तो नहीं है, फिर भी अधिकांश प्राचीन तालों में खाली
ताल के मध्य में होती है। जैसे 16 मात्रा की तीन ताल में 9 मात्रा पर, 8 मात्रा की
कहरवा में 5 मात्रा पर और 6 मात्रा की दादरा ताल में चौथी मात्रा पर। लेकिन ऐसी
कोई अनिवार्यता नहीं है।
चकि
ँू , तालों की बात चल रही है, अतः यह जान लेना भी उचित है कि किसी
भी ताल की प्रथम मात्रा को उस ताल का सम कहा जाता है। सम ही ताल का आरंभ
बिंदु या कें द्र होता है। गायक, वादक और नर्तक अपनी-अपनी रचना समाप्‍त कर
इसी मिलन कें द्र पर एक-दसू रे से मिलते हैं।
ताल के विषय में यह जान लेना भी उचित होगा किसी भी ताल की पहली मात्रा
से अतिम
ं मात्रा तक के क्षेत्र को आवृत्ति या आवर्तन कहते हैं। जैसे कहरवा ताल की
एक आवृत्ति 8 मात्राओ ं की होती है। जब उसे दोबारा, तिबारा बजाया जाता है तो
उन पनु रावृत्तियों को दसू रा आवर्तन या तीसरा आवर्तन कहा जाता है।
इतना ही नहीं, इन तालों में लगने वाले समय अर्थात् एक मात्रा से दसू री मात्रा
के बीच का समय लगभग एक सेकंड का होता है। अतः अगर उसी एक मात्रा को
दो मात्रा काल के बराबर अर्थात् दो सेकंड का कर दिया जाए तो उसे विलंबित लय
कहा जाएगा और अगर 4 सेकंड अर्थात् 4 मात्रा के काल के बराबर एक मात्रा को
कर दिया जाए तो उसे अतिविलंबित लय कहा जाएगा। इस प्रकार हम देखते हैं ताल
का स्वरूप बहुत कुछ लय के स्वरूप पर निर्भर करता है, जो परू ी तरह गणितीय
सिद्धांत पर आधारित होता है।

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तालों का गणित

ताल और लय के इस रिश्ते को इस प्रकार भी देखा जा सकता है। विभिन्न तालों


और सांगीतिक रचनाओ ं को दगु नु , तिगनु , चौगनु आदि लयों और तरह-तरह की
लयकारियों में भी
प्रस्तुत किया जाता
है, तब तो उसे लय
ही कहा जाता है,
जैसे – दगु नु की
लय, तिगनु की
लय और चौगनु
की लय आदि।
आइए, देखते
हैं दगु नु , तिगनु , नगाड़ा बजाते हुए कलाकार
चौगनु के कुछ उदाहरण –
तीन ताल – दुगुन या द्रुत लय में
मात्रा 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 1
बोल धाधि धं िधं ा धाधि धं िधं ा धातीं तींता ताधि धं िधं ा धाधि धं िधं ा धाधि धं िधं ा धातीं तींता ताधि धं िधं ा धा
चिह्न × 2 0 3 ×
ऊपर तीन ताल को दो बार लिखा गया है, लय अर्थात् गति द्रुत होने के कारण
समय 16 मात्रा का ही लगा। अर्थात् मध्यलय में जितने समय में एक बार तीन ताल
लिखा या बोली जाती है, द्रुत लय में उतने ही समय में दो बार बोली जाती है।
कहरवा – तिगुन की लय में
मात्रा 1 2 3 4 5 6 7 8 1
बोल धागेना ि‍तनक धिनधा गेनाि‍त नाकधि नधागे नाि‍तना कधिन धा
चिह्न × 0 ×
यहाँ 8 मात्रा के समय में कहरवा को तीन बार लिखा गया है, उसकी गति तीन
गनु ी तेज़ करके ।

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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

दादरा – चौगुन की लय में


मात्रा 1 2 3 1 2 3 1
बोल धाधिनाना तीनाधाधि नानातीना धाधिनाना तीनाधाधि नानातीना धा
चिह्न × × ×
इसी प्रकार चौगनु की लय में दादरा को इस प्रकार 4 बार लिखकर, एक मात्रा
में 4 मात्रा को समाहित करने पर 6 × 4 = 24 मात्रा के समय में यह परू ी हो जाती है।
किंतु ये ही लय प्रकार जब पौन गनु 3/4, सवा गनु 5/4, डेढ़ गनु 6/4 और पौने
दगु नु 7/4 आदि का रूप धारण कर ले तो उन्हें लयकारी के अतं र्गत रखा जाता है।
बोलने, गाने और बजाने में भी इसी तरह गति बढ़ाकर उतने ही समय में रचना
प्रस्तुत की जाती है। जैसे – अगर मध्यलय में सा रे ग म प ध नि सां है, तो द्रुतलय में
सारे गम पध मग रे सा हो जाएगा। तिगनु में यह सासासा रे रेरे गगग ममम पपप धधध
निनिनि सांसांसां हो जाएगा और चौगनु में सासासासा रे रेरेरे गगगग मममम पपपप
धधधध निनिनिनि सांसांसांसां हो जाएगा। तिगनु चौगनु में इसे इस प्रकार भी लिखा
जा सकता है – सारे ग मपध निसांसां मगरे सा....... और चौगनु पधनिसां सांनिधम
मगरे सा सारे गम पधनिसां सांनिधम मगरे सा।
इस प्रकार 6 मात्रा या 6 सेकंड में अगर एक से 12 तक के अक ं को, बोले या
लिखेंगे तो वह दगु नु हो जाएगा, 18 तक बोलेंगे तो तिगनु और 24 तक बोलेंगे तो
वह चौगनु कहलाएगा। यही नियम, यही सिलसिला सभी तालों में लागू होता है। यह
7 मात्रा में 14, 21, 28 और 8 मात्रा में 16, 24 और 32 हो जाएगा।

मणिपरु का संकीर्तन
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तालों का गणित

यही नियम जटिल लयकारियों जैसे – 4 में 3, 4 में 5, 4 में 6 और 4 में 7 आदि
में भी लागू होता है, लेकिन कुछ भिन्न रूप में। इसे समझने से पहले हमें यह भी जान
लेना चाहिए कि मात्र गीत ही नहीं शब्द और अक्षर भी अपने उच्चारण में लगने
वाले समय के आधार पर मात्राओ ं में बंधे होते हैं, जैसे – अ ज य, वि ज य और
अ म र तीन-तीन मात्राओ ं के शब्द हैं, इसी प्रकार राम भी तीन मात्राओ ं का शब्द है
– र s म। लेकिन शक ं रशं s कर 4 मात्राओ ं का शब्द है। अब 4 में 3 अर्थात् पौनगनु
की लयकारी कुछ इस प्रकार होगी – जैसे शक ं र बोलने में जितना समय लगता है,
अर्थात् 4 मात्रा (या 4 सेकंड, धीमी गति से बोलने पर) उतने ही समय में राम अर्थात्
तीन मात्रा (या 3 सेकंड धीमी गति से बोलने पर) बोलना है, लेकिन नियमानसु ार।
अब अगर सविध ु ा की दृष्‍ट‍ि से थोड़ी देर के लिए हम ‘राम’ शब्द की तीनों
मात्राओ ं – अक्षरों र+अ+म= चार-चार मात्राओ ं के बराबर मान लें तो राम 12
मात्राओ ं के शकं र में इस प्रकार लिखा जाएगा –
1,2,3 4,1,2 3,4,1 2,3,4 या रा ऽ ऽ ऽ अा ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ मा ऽ ऽ ऽ
संगीत में गणित या अक ं गणित का कितना मह�व है, इसे इससे भी जाना जा
सकता है कि जब स्थूल रूप से गीत की संगत के लिए ताल का चयन करना
होता है, तो इसके लिए गीत की प्रथम पंक्‍त‍ि की लंबाई, या इसे यँू कहें कि एक
सम से दसू रे सम तक के बीच की मात्राओ ं को
गिनते हैं और जितनी मात्राएँ होती हैं, उतनी
मात्रा की ताल का उसकी संगत के लिए चयन
किया गया है। अगर 6 मात्राएँ हैं तो दादरा
और अगर 16 मात्राएँ है तो फिर तीन ताल
बजेगी। ताल और गणित का एक सदंु र सबं ंध
हमें कर्नाटकीय अर्थात् दक्षिण भारतीय ताल
पद्धति में देखने को मिलता है। जहाँ 7 मल ू
तालों का विस्तार 175 तालों तक होता है।
दक्षिण भारतीय सगं ीत के 7 मल ू ताल – ध्रुव,
मठ, रूपक, झपं , त्रिपटु , आठ और एक में
एडाइक्का बजाते हुए कलाकार
लघु की जाति त्रयस्त्र, चतस्ु त्र, खडं , मिश्र और
सकं ीर्ण के अनसु ार बदलकर इनकी सख्या ं 35 कर दी जाती है।
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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

उदाहरण के लिए, कनार्टकीय सगं ीत की एक ताल को लेते हैं, जिसका मात्रा


चि� है – एक लघ।ु सामान्यतः लघु को 4 मात्रा के बराबर माना जाता है, इसलिए
एक ताल की मात्रा सख्या ं 4 मानी जाती है। किंत,ु अगर इसकी जाति बदलते हैं तो
त्रयस्त्र जाति में इसकी मात्रा संख्या 3, चत�स्त्र में 4, खं में 5, मिश्र में 7 और संकीर्ण
में 9 हो जाएगी। इस तरह एक ताल के 5 स्वरूप बनते हैं, जिस आधार पर 7 तालों
के 7 × 5 = 35 रूप बन जाते हैं। बाद में इन 35 तालों का भी गति के आधार पर
35 × 5 = 517 तालों तक विस्तार किया जाता है।
कर्नाटक पद्धति के कुछ ताल
मिश्र चापू ताल
मात्रा 1 2 3 4 5 6 7 I
बोल त की ट त क धि मी त
चिह्न × 2 ×
खन्टा चापू ताल
मात्रा 1 2 3 4 5 I
बोल त क त की ट त
चिह्न × 2 ×
आदि ताल
मात्रा 1 2 3 4 5 6 7 8 I
बोल त क धि मी त क झ नू ता
चिह्न × 2 ×

रूपक ताल
मात्रा 1 2 3 4 5 6 I
बोल त क त क धि मी त
चिह्न × 2 ×

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तालों का गणित

अत ताल
मात्रा 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 I
बोल त क त की त त क त की त त क धि मी त
चिह्न × 2 3 4 ×

त्रिपुट ताल
मात्रा 1 2 3 4 5 6 7 I
बोल त की ट त क धि मी त
चिह्न 2 × × ×
यहाँ यह जान लेना भी उचित होगा कि जिस तरह एक शरीर में आत्मा का होना
अनिवार्य होता है, उसी तरह शरीर संगीत में लय को कहा गया है कि जहाँ लय नहीं,
वहाँ प्रलय भी सभं व है। स्वस्थ मनष्य
ु की नाड़ी, उसके हृदय की धड़कन और सही
घड़ी की चाल आदि अच्छे लय के अच्छे उदाहरण हैं। जिस प्रकार हमारे जीवन में
अनश ु ासन और सामाजिक नियमों, प्रतिबंधों का मह�व होता है ठीक उसी प्रकार
संगीत में ताल का महत्त्व होता है। लय और ताल के सहारे ही संगीत को अनश ु ासन
की डोर में बाँधकर उसे एक सनिय ु ोजित और सवु ्यवस्थित रूप देना सभं व हो पाया
है। इसलिए प्राचीन संगीत विद्वानों ने लय और ताल विहीन संगीत को अरण्य
सगं ीत कहा था, क्योंकि लय और ताल ही सगं ीत को अनश ु ासित, सामाजिक और
अभिजात्य बनाते हैं।

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ध्वनि का
मस्तिष्क पर प्रभाव

संगीत एक ऐसी कला या विद्या है जिसका माध्यम है ध्वनि अथवा नाद। नाद
की दनिय ु ा पर जब हम गहन दृष्‍ट‍ि डालते हैं तो पाते हैं कि ये विभिन्न प्रकार की
ध्वनियाँ कभी हमें चौंकाती हैं, कभी दिलचस्पी जगाती हैं तो कभी अनठू ी लगती
हैं। कभी मेघ गर्जन की तरह तेज़ तो कभी नर्म मल ु ायम मखमली घास पर किसी
की पदचाप... पक्षियों के कलह और पशओ ु ं के रंभाने की आवाज़ों के साथ कभी
फ़े री वालों की हाँक लगाती आवाज़ें, तो कभी... अनेक मानवीय ध्वनियाँ। नदी की
धाराओ ं की कलकल ध्वनि... पत्तियों की सरसराहट... आकाश से गिरती वर्षा की
बँदू ों की रिमझिम... और इन जैसी अनेक ध्वनियाँ प्रकृ ति में समाहित हैं और एक
संवेदनशील नाद साधक इन सभी में नाद को देखता और अनभु व करता है।
कविवर वर्डसवर्थ ने अपनी एक कविता में ध्वनि को इस प्रकार ध्वनित किया है–
‘ वहाँ पर्वत मालाओ ं में प्रसन्‍नताएँ झमू ती हैं।
वहाँ झरनों में जीवन होता है ...’
शनै: शनै: इसं ान ने प्रकृ ति की ध्वनियों के आधार पर स्वनिर्मित ध्वनियाँ
उत्पन्न करने का रास्ता खोजा और फिर ध्वनि की तारता अर्थात् ऊँचाई-निचाई के
आधार पर उन्हें नियोजित किया। सात मख्य ु एवं अतिरिक्‍त स्वरों के बीच एवं इनके
सयं ोजन से ही अनेकानेक सगं ीत सृजित हुए हैं और होते रहते हैं। यह एक अनंत
यात्रा है जिसमें अनेक प्रकार के संगीत की रचना होती है। विभिन्न प्रकार के नादों
अथवा स्वरों के सयं ोजन से जो हार्मनी उत्पन्न होती है, वह सगं ीत निर्माण का काम
करती है। वरन् विभिन्न प्रकार की ध्वनियों के मेल से शोर और ध्वनि प्रदषू ण का
भी खतरा बना रहता है ।
एक उदाहरण के माध्यम से इसे समझने का प्रयास करते हैं – किसी मेले का
दृश्य है... विक्रे ता और खरीददार ज़ोर-ज़ोर से वस्तुओ ं का मोल-तोल कर रहे हैं,

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ध्वनि का मस्तिष्क पर प्रभाव

सर्क स शरू ु हो चक ु ा है, जादगू र जादू के नाम पर हाथ की सफ़ाई दिखा रहे हैं,
बच्चे दौड़ रहे हैं, ध्वनि विस्तारक यंत्र विभिन्न प्रकार की अस्पष्‍ट ध्वनियों का
विस्तार करके जैसे अपने कर्तव्य का मस्तैद ु ी से पालन कर रहे हैं। वस्तुत: यह सब
संगीत नहीं है, लेकिन इन सभी में सांगीतिक त�व अवश्य हैं। अगर इन्हें सनिय ु ोजित
क्रम में प्रस्तुत किया जाए तो इसे आसानी से समझा जा सकता है। एक सगं ीतज्ञ
इसे सफलतापरू ्वक अजं ाम देता है। इसी प्रकार कोई नृत्यकार इस मेले में विभिन्न
व्यक्‍तियों के हाव-भाव एवं मद्रा ु ओ ं का अध्ययन करके अपनी नृत्य सरं चनाओ ं में
उनका प्रयोग कर सकता है, तो वहाँ की वस्तु स्थिति एवं विभिन्न दृश्यों को कें द्र में
रखकर किसी नाटककार द्वारा किसी नाटक की भी रचना की जा सकती है।
ध्वनि की मह�ा ऐसी है िक कोर्टेक्‍स
वह एक रूप है ऊर्जा का, परिणाम है क्रेिनयम
प्रयासों का और पृष्‍ठभमू ि है सृजन की।
जो अत्यंत महत्वपर्णू है। तात्पर्य यह
है कि जिन ध्वनियों को हम पहचान
पाते हैं, वे प्राकृ तिक रूप से आस-पास सेरेब्रेम
के वातावरण में फै ली होती हैं, जैसे–
ब्रेन स्‍टेम सेरेबेलम
आँधी-तफ़ ू ान की आवाज़ें, पत्तियों
ब्रेन का िचत्र
की सरसराहट, बारिश की रिमझिम,
चिड़ियों की चहचहाहट, नदियों का कलकल प्रवाह और पशओ ु ं के रंभाने की
आवाज़ें आदि। ये ऊर्जा मानव-मस्तिष्क को प्रकृ ति में फै ली असंख्य आवाज़ों में से
किसी आवाज़ विशेष और मानव मस्तिष्क पर पड़े उनके प्रभाव को भी पहचानने में
भी मदद करती हैं। सभी निर्माण कार्य, ऊर्जा की अलग-अलग प्रकार की निरंतरता
के ही परिणाम हैं तथा ध्वनि इस ऊर्जा के निरंतर कंपन का मौलिक और बीजभतू
रूप है। जैसा कि हम सब जानते हैं कि आनंद प्रदान करने वाली ध्वनि गायन है।
दिल की धड़कनें हमें एक दसू रे से पारस्परिक रूप से जोड़ती हैं।
मस्तिष्क के कंपन की निरंतरता अल्फ़ा, बीटा, डेल्टा और थीटा के आधार
पर अलग-अलग होती है। जब मस्तिष्क विभिन्न प्रकार की हार्मोनिक ध्वनियों की
तारता सगं ीत के माध्यम से स्पष्‍ट रूप प्राप्‍त करता है, तब वह स्थायी तारता मानव
मस्तिष्क को समृद्धि प्रदान करते हुए उस पर गहरा प्रभाव भी छोड़ती है।

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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

अर्धगोलक
मानव मस्तिष्क में दो अर्धगोलक होते हैं। बायाँ दायाँ
प्रथम को प्रबल अथवा प्रधान कहा जा
सकता है, तो दसू रा उससे कम प्रबल या
अप्रधान होता है लेकिन ये दोनों ही अर्ध
गोलक मानव-मस्तिष्क में विभिन्न प्रकार
की सचू नाएँ पहुचँ ाने का काम करते हैं।
मानव मस्तिष्क में सचू नाएँ एकत्र करने का
भाषा कल्‍पना
एक ही भाग होता है। सामान्यत: अधिकाश ं शक्‍ति
लोगों के मस्तिष्क में बाइ� ओर स्थित प्रधान गणित तार्कि क िवचार
रचनात्‍मक
कलात्‍मक
अर्धगोलक भाषाई और तार्कि क होता है। ब्रेन के दो भाग
जबकि मस्तिष्क के दाइ� ओर रहने वाला
अप्रबल अर्धगोलक, स्थान सबं धं ी सचू नाएँ देने और अभाषाई प्रक्रियाओ ं पर कें द्रित
होता है। भाषाओ ं को समझने और उसकी रचना करने की योग्यता हमारे मानवीय
अनभु वों का अति आवश्यक अगं है। दिलचस्प बात यह है कि मस्‍तिष्‍क में ऐसी
गतिविधि की आवश्यकता होती है जिसमें दोनों अर्धगोलक उपयोगी बातों को एक
साथ मिलकर समाहित कर सकें ।
जब शद्ध
ु आवाज़ अथवा सांगीितक ध्वनि के उपयोग हेतु अप्रधान अर्धगोलक
प्रोत्साहित अथवा उत्तेजित होता है। तो बहुधा वह असाधारण स्थिति के प्रति जागृत
करता है, क्योंकि अप्रभावी अर्धगोलक अतं र्ज्ञान से प्राप्‍त आवश्यक योग्यताओ ं से
यक्ु ‍त होता है। इस स्थिति में नाड़ी सबं ंधी हरकतें हमारे यथार्थ, आतं रिक और बाह्य
दोनों ज्ञान को हमारे नित्य प्रति के अनभु वों से पृथक करती हैं। हमारी सोच-समझ
तब अधिक ज़िम्मेदार, स्पष्‍ट, तीव्र, सक्ष्मू और संस्कारित हो उठती है।
ध्वनि का विज्ञान
किसी इसं ान के कान 20 से 20 हज़ार हर्ट्ज़ तक की ध्वनि तारता, प्रति सेकेंड
सनु ने की क्षमता रखते हैं। इससे कम की ध्वनि इफ़् ं रासोनिक और इससे अधिक
की ध्वनि अल्ट्रासोनिक कहलाती है। ज्ञातव्य है कि इफ़् ं रासोनिक की तारता 20
हर्ट्ज़ प्रति सेकेंड से कम होती है, जबकि अल्ट्रासोनिक ध्वनि की तारता 20 हज़ार
हर्ट्ज़ प्रति सेकेंड से अधिक ध्वनि सामान्यत: वाय,ु जल और काष्‍ट आदि के

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ध्वनि का मस्तिष्क पर प्रभाव

माध्यम से तरंगित होते हुए अपनी यात्रा तय करती है। दरअसल, ध्वनि को अपने
अस्तित्व के विस्तार के लिए किसी न किसी माध्यम की आवश्यकता पड़ती ही
है, क्योंकि शन्य
ू से कोई ध्वनि नहीं पैदा होती। ध्वनि, ठोस पदार्थ, तरल पदार्थ
और वायु में अलग-अलग तरह से क्रियान्वित होती है। यहाँ तक कि लचीले, ठोस
तथा घने पदार्थों से ध्वनि के गजु रने की प्रक्रिया भी भिन्न-भिन्न होती है। ध्वनि गैस
की अपेक्षा ठोस तथा तरल पदार्थों से अधिक तेजी से गज़ु रती है। इस संदर्भ में यह
जानना भी उचित और प्रासगि ं क होगा कि अधिकांश भारतीय वाद्य यंत्र सामान्यत:
लकड़ी, धातु या मिट्टी अथवा चीनी मिट्टी आदि से बनते हैं। इनमें से अधिकांश

लकड़ी अौर चमड़ा धातु

मिट्टी बाँस
वाद्यों में छिद्र एवं सरु ाख आदि भी होते हैं, ताकि वायु अपनी यात्रा निर्विघ्न तय
कर सके । उदाहरण के लिए, मृदगं एवं सारिंदा आदि वाद्यों को देखने से िक पता
चलता है इन वाद्यों में ध्वनि तरंगें क्रमबद्ध रूप में दबाव तथा विरल रूप में अपनी
यात्रा तय करती हैं।
ध्वनि हर प्रकार के सगं ीत का आधार त�व है। सगं ीतोपयोगी ध्वनि से मानव
को एक ईश्‍वरीय वरदान प्राप्‍त हुआ। वह न के वल सर्वत्र व्याप्‍त सृजनात्मकता के

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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

गीत गाता है, बल्कि आतं रिक रूप से स्वयं को भी सृजित करने की क्षमता और
प्रेरणा देता है। पाइथागोरस तो शन्यू के संगीत की भी परिकल्पना करते थे। ध्वनि
पर आधारित मौखिक सांगीतिक शिक्षा के विस्तार ने बच्चों कि मानसिकता पर
विवेकशीलता की गहरी छाप छोड़ी है।
किसी शिशु की शिक्षा का प्रारंभिक चरण अत्यंत महत्वपर्णू होता है। शिक्षा के
आधारभतू त�व इसी समय बच्चों के मस्तिष्क में पनपते हैं। इनका स्थान कितना
महत्वपर्णू होता है यह इसी से स्पष्‍ट होता है कि ये मौलिक त�व बच्चों की भावी
शिक्षा पर स्थायी प्रभाव छोड़ते हैं। सगं ीत को जब आवश्यक तौर पर सकारात्मक
रूप में बच्चों को सिखाया जाता है, तब ये बच्चों के मल ू शिक्षा ग्रहण में भी
सहायक सिद्ध होते हैं। साथ ही अन्य रूपों में भी उनकी मदद करते हैं। बच्चों की
श्रवण शक्‍त‍ि अत्यंत तीव्र होती है। वे ध्वनि के विषय में बहुत ही सजग होते हैं
और प्राय: हर शब्द पर ध्यान देते हैं। तभी तो वे किस्से-कहानियों, गडु ् डे-गड़िय
ु ों के
खेल, नाटक एवं एनिमेशन फि़ल्मों में खबू रुचि लेते हैं। संगीत उनकी सृजन शक्‍त‍ि
में वृद्धि लाता है। सगं ीत का यह विशेष गणु है कि वह अपने साधकों में एकाग्रता,
के न्द्रिभतू सजगता, समन्वय एवं सहभागिता के प्रयास, परिकल्पना, स्मृति और
धारणा, शक्‍त‍ि, आत्मावलोकन अर्थात् अपने अदं र झाँकने की प्रवृत्ति आदि का
विकास करता है। इसका प्रभाव तभी से आरंभ हो जाता है जब संगीत की कक्षा में
इसकी शिक्षा की शरुु आत होती है, इसलिए इसकी शिक्षा की व्यवस्था आरंभिक
चरणों से ही शरू ु होनी चाहिए। ध्वनि हमारे बोध और ज्ञान को समृद्ध करता है।
संगीत हर कला के अदं र, प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप में मौजदू होता है।
हम इसके प्रभाव का अनभु व बच्चों, शिशओ ु ं में कर सकते हैं जिसकी शाब्दिक
व्याख्या नहीं की जा सकती है... जिसे उन्हें सिखाया नहीं जा सकता है। माताएँ हर
समय अपने बच्चों के लिए गाती रहती हैं और बच्चों पर उसका असर होता है।
ऐसा प्रतीत होता है कि संगीत हमारे जीव विज्ञान की धरोहर का भी एक अगं है।
उदाहरण के लिए, इसके दो पहलू हैं, माँ अपने बच्चों के लिए भावनाओ ं में डूबकर
गाती हैं और संगीत के वे स्वर उसकी रचनात्मकता को बढ़ावा देते हैं। लेकिन, ठीक
उसी समय, गीत सनु ते हुए बच्चा अपनी समझ और सामर्थ्य के अनसु ार उस सगं ीत
पर अपनी प्रतिक्रिया भी देता है। इससे यह सिद्ध होता है कि यह स्थिति वैज्ञानिक
रूप से समझ और ज्ञान का विकास करती है। सगं ीत के वल रचनात्मकता का ही

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ध्वनि का मस्तिष्क पर प्रभाव

विकास नहीं करता है। बल्कि वह स्वयं के सृजन के लिए आवश्यक तत्वों को भी
एकत्र करता है। संगीत के विभिन्न प्रकारों के साथ किए गए प्रयोगों के आधार पर
कहा जा सकता है कि यह हमारी समस्याओ ं का निवारण करते हुए रचनात्मक
क्रियाशीलता को भी बढ़ाता है। यह एक अत्यंत सरल, सहज और सहु ावना रास्ता
है जो सृजनात्मकता के अनभु वों का विकास करते हुए उसमें नित प्रति कुछ न कुछ
नया जोड़ता है।
नाद योग
नाद योग की जड़ें वेद में हैं। यह अलौकिक
ध्वनि कंपन का विज्ञान है। जैसा कि आत्म
निरीक्षण करने वाले अद्वैतवाद, एक ब्रह्म
के सिद्धांत को मानने वाले और सर्वोच्च
अभिज्ञान को जानने वाले, सतं ों-योगियों
ने अपने ज्ञान के आधार पर इस रहस्य को
उद्वघाटित किया है।
नाद योग अति सक्ष्म
ू दृष्‍ट‍ि रखने वाले
लोगों को आतं रिक सगं ीत और ध्वनि के
माध्यम से उस स्थिति में पहुचँ ाता है, जहाँ
सिफ़र् मौन तथा शांति का साम्राज्य होता बाऊल
है। फिर वह व्यक्‍त‍ि सृजन के क्षणों से गज़ु रते हुए ईश्‍वर तक जा पहुचँ ता है। इस
ऊँचाई पर वही व्यक्‍त‍ि पहुचँ पाता है, जिसने साधना के द्वारा आत्मशद्धि
ु कर ली हो।
किसी व्यक्‍त‍ि को साधना के इस उच्च स्तर में पहुचँ ाने की क्षमता भारतीय शास्‍त्रीय
संगीत में मौजदू राग, ताल, श्‍लोक, मत्रं , कीर्तन, गीत एवं भजन आदि में है। इनके
अभाव में कोई व्यक्‍त‍ि स्वयं को नाद योगी के रूप में स्थापित नहीं कर सकता। वह
वेदांत के दर्शन को सीख और समझ सकता है। कोई भी व्यक्‍त‍ि इससे जड़ु सकता
है, भले ही वह इसमें प्रशिक्षित हो अथवा नहीं। यही साधना उसे अपने शरीर, मन,
भावना और बद्धि ु के शद्धिु करण के मार्ग पर ले जाती है। सृजन का यह रूपांतरण
इसलिए होता है, क्योंकि एक व्यक्‍त‍ि अपने सक्ष्मू आतं रिक ज्ञान और कंपन से इसे
कर सकता है।

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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

सृष्‍ट‍ि की सारी गतिविधियाँ कंपन से ही सचं ालित होती है। कंपन अर्थात् ऊर्जा
ध्वनि के रूप में विभिन्न रूप में मौजदू रहती है। अत्यंत विशाल और ठोस से लेकर
बिल्कु ल सक्ष्म
ू रूप में भी विभिन्न त�वों से
बना एक भौतिक शरीर और एक वरदानी
सक्ष्म
ू शरीर भी वस्तुत: कंपन ही है। प्राणमय
कोश के अनसु ार ऊर्जा के नियम नाड़ी
और चक्र को संचालित करते हैं और जो
अधिकांशत: ध्वनि के कंपन से प्रेरित और
प्रभावित होते हैं। यही कारण है कि संगीत
ध्‍वनि कंपन ग्राफ
का हम सभी पर काफ़ी गहरा प्रभाव पड़ता
है। कोई व्यक्‍त‍ि किसी वाद्य पर आघात करता है तो आघात के फलस्वरूप उत्पन्न
कंपन हवा के ज़रिये हमारे कर्ण पटों तक आ पहुचँ ता है और हम उस वाद्य की ध्वनि
का रसास्वादन कर पाते हैं।
नाद योग हमारी शारीरिक प्रक्रिया को परिष्कृ त करते हुए लय और स्वरबद्ध
करता है। नाड़ियाँ अर्थात् वे सक्ष्म
ू माध्यम जिनसे हमारे शरीर में ऊर्जा का सचं ार होता
है। शरीर में आवाज़ सर्वश्ष्रे ‍ठ साज है। जो वोकल काॅडर्स में कंपन से ध्वनि उत्पन्न
करता है। कंपन के माध्यम से वीणा, सारंगी, सितार, गिटार, सरोद, हारमोनियम और
तबला आदि बाह्य वाद्यों का हम वादन करते हैं। कोई भी व्यक्‍ति सरु और ताल की
तकनीक को तो सीख सकता है, लेकिन इसका मख्य ु उद्देश्य होता है आत्मनिरीक्षण
और आत्मरूपांतरण, क्योंकि गायन-वादन से कोई व्यक्‍ति‍ अपना कें द्रीय बिंद,ु
एकाग्रता एवं चित्त की लीनता की भावना को प्रबल बनाता है।
चिकित्सा पद्धति के रूप में ध्‍वनि एवं सगं ीत
रोग निवारण के लिए ध्वनि और संगीत के उपयोग का सिलसिला मानव सभ्यता
के लगभग साथ-साथ ही विकसित हुआ है। इसका लंबा इतिहास है। स्वदेशी एवं
प्राकृ तिक उपकरणों एवं औषधियों के रूप में मानव की आवाज़, अवनद्ध और घन
वाद्य, बाँसरु ी तथा आघात एवं घर्षण से बजने वाले अन्य वाद्यों का प्रयोग मस्तिष्क
की स्थिति परिवर्तन के लिए करता रहा है। यह अध्ययन हमें यह बताता है कि कुछ
निश्‍चित वादन शैलियाँ मस्तिष्क में थीटा की क्रियाशीलता को बढ़ाती हैं। स्थिति
ठीक वैसी होती है जैसी नींद आने के ठीक पहले अथवा नींद खल ु ने के तरु ं त बाद
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ध्वनि का मस्तिष्क पर प्रभाव

की होती है अर्थात् व्यक्‍ति न तो परू ी तरह जागृत होता है और न ही परू ी तरह सप्‍त
ु ।
वह तंद्रा अवस्था में होता है। मस्तिष्क की स्वपनावस्था वस्तुत: परिज्ञान और सृजन
की अवस्था होती है।
ध्वनियों के नाड़ियों पर पड़ने वाले प्रभाव से यह स्पष्‍ट होता है कि मस्तिष्क
अच्छी ध्वनियों पर उच्च स्तर में अपनी प्रतिक्रिया देता है। पेट (P.E.T.) के
अनसु ार, शब्द रहित संगीत अथवा ध्वनि जालीदार स्थिति को उत्तेजित करती है
और बढ़ाती है, जो सामान्यत: दायीं ओर स्थित अप्रबल अर्धगोलक में होता है।

प्री सर्विस टीचर ट्रेनिंग

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गायन, वादन एवं नतृ ्य
का आपसी सबं ंध

मानव के जन्म से संगीत का जन्म होता है। संगीत जीवन की अनमोल धरोहर है जो
कि प्राणी मात्र में विद्यमान है। संगीत प्रकृ ति प्रदत्त कला है। प्रकृ ति के एक-एक कण
में संगीत का स्वरूप स्पष्‍ट परिलक्षित होता है।
ललित कलाओ ं में सगं ीत कला को सर्वोच्च स्थान प्राप्‍त है। चकि ँू कला मनष्य

के भाव और विचारों को प्रकट करने की एक शैली है। अतः संगीत का भी लक्ष्य
मानव के विचारों और हृदय गत भाव को प्रभावशाली रूप में प्रस्तुत करना होता है।
संगीत वह ललित कला है जिसमें हम अपने मन की भावनाओ ं को स्वर और लय
के माध्यम से प्रकट करते हैं। जब हम भावों को अलंकार और छंदों द्वारा व्यक्‍त करते
हैं तो उसे कविता कहते हैं। इस प्रकार जब हमारे भावों की प्रस्तुतीकरण का माध्यम
स्वर और लय होते हैं, तो वह सगं ीत कला कहलाती है।
गायन एवं नृत्य में वादन का अनठू ा स्थान है। नृत्य का सौंदर्य अधखिली कली
के सदृश होता, अगर गायन और वादन का साथ नहीं होता। उसी तरह जिस प्रकार
कली खिलने पर पष्प ु का रूप धारण कर लेती है उसी प्रकार ये सारी कलाएँ भी
वाद्यों की संगत पाकर पर्णू विकसित पष्प ु की भाँति खिल उठती हैं।
सगं ीत का नतृ ्य से सबं ंध
सगं ीत एक सार्वभौमिक कला है। मनष्य
ु जाति ने सभी काल में इसे सर्वश्ष्रे ‍ठ कला के
रूप में स्वीकृ त किया है। इसका विशाल संदर्भ इसके सर्वकालिक एवं सार्वदसि े क
स्वरूप को स्पष्‍ट एवं प्रमाणित करता है। चौसठ कलाओ ं में सगं ीत कला को
वाद्य यंत्र बजाते हुए स्‍कू ली छात्र

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गायन, वादन एवं नृत्य का आपसी संबंध

सर्वश्ष्रे ‍ठ कहा गया है। यह मानवीय हृदयगत भावों को जाग्रत करने में सर्वाधिक
समर्थ है। माधर्यु सहजता, सरलता, लयात्मकता आदि से संगीत चर-अचर दोनों
प्राणियों को मत्रं मगु ्ध कर देता है।
कला समाज का दर्पण है। किसी भी स्थान में कला को परखने से उनका समाज
से सीधा संबंध दिखता है। नृत्य भी इन्हीं कलाओ ं में अपना स्थान बनाए रखता है।
नृत्य कला समाज की लोक सस्कृति ं , साहित्य व धर्म के आधार की कृ ति है। इसका
प्रभाव भारतवर्ष के हर कोने में दिखता है। नृत्य में संगीत, साहित्य, वाद्य यंत्र और
वेश-भषू ा का समावेश है। सौंदर्य का आधीन, यह हमें विभिन्न सस्कृति ं , धर्म एवं
लोक-कलाओ ं की गहन बातों का आभास दिलाता है। कथक, कुचिपड़ु ी, ओडिसी
जैसे शास्‍त्रीय नृत्य या गरबा, भाँगड़ा, मणिपरु ी इत्यादि नृत्य भारत के प्रत्येक प्रांत
की छवि दिखाते हैं। भारतीय परंपरा तथा शास्‍त्रों के अनसु ार नृत्य के अधिष्‍ठाता
भगवान शक ं र हैं। उनके सदर्भ
ं में ऐसा माना जाता है कि ब्रह्मा ताल देते हैं, विष्णु
मृदगं बजाते हैं, सरस्वती वीणा के तार झक ं ृ त करती हैं, सर्यू एवं चद्रं बाँसरु ी बजाते
हैं, अप्सराएँ व किन्नरियाँ श्रुतियों का ध्यान रखती हैं और महादेव डमरू बजाते हुए
पैर के थिरकन से सभी का साथ देते हैं या आह्वान करते हैं।
संगीत का घनिष्‍ठ संबंध नाट्य से है। संगीत को नाट्य का अगं माना जाता था।
नाटक में अभिनय के साथ गायन, वादन एवं नृत्य को भी स्थान दिया जाता है। नृत्य
का उदग् म स्थल अभिनय को ही माना जाता है। इस प्रकार मनष्य ु अपने दैनिक
जीवन में जो कुछ क्रियाकलाप करता है, जैसे – स्नेह, क्रोध, द्वेष, आनंद, शांति

संकीर्तन – मणिपरु
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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

इत्यादि भाषा में व्यक्‍त न


करके मख ु के भाव से एवं
शरीर के विभिन्न मद्रा
ु ओ ं से
व्यक्‍त करने को नृत्य कला
का नाम दिया गया है। नृत्य
में सात त�वों का समावेश है
और ये त�व हैं – वेश-भषू ा,
मद्रा
ु , कथानक, गतिचाल,
अघं ार, करन आैर मालपाठ लोक नृत्य
इन त�वों के अभाव से नृत्य परिपर्णू नहीं हो पाता। नृत्य में संगीत बहुत आवश्यक है,
जैसे – लोक नृत्यों में विभिन्न तरह के ढोल, ढोलक,
एडडाइका, मृदगं इत्यादि का नित्य सहयोग लिया
जाता है। गायन और साहित्य कला भी नृत्य में संपर्णू
प्रकार से आवश्यक है। नृत्य, गायन एवं वादन के बिना
अपर्णू है। लोक नृत्य में हम देखते हैं कि विभिन्न प्रकार
के वाद्य यंत्र बजाते हुए समहू में लोग नाचते-गाते हैं।
जैसे – मादल
के बोलों पर
कथकली नृत्य का मखु ौटा सथाली नृत्य,

खोल के साथ मणिपरु ी चोलम नृत्य
इत्यादि। उसी तरह गजु रात का डांिडया,
महाराष्ट्र का िडंडी नृत्य इत्यादि भी
विभिन्न प्रकार के वाद्य यंत्रों के सहयोग
से किया जाता है। ज़्यादातर लोक नृत्यों
में गीत गाए जाते हैं। नृत्य में मचं सज्जा,
वेशभाषा दृश्य कला को समाहित करती
है। इसी कारण संगीत में गायन, वादन
तथा नृत्य का समावेश माना जाता है।
शास्‍त्रीय नृत्य – ओडिसी

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सगं ीत और नाटक
का अंत: सबं ंध

नाट्य शास्‍त्र के अनसु ार, नाटक का मल


ू लोक चेतना जाग्रत करना है। स्कू ली बच्‍चों
में नाट्य की विधा अच्छी तरह से फले-फूले, उनकी चेतना एक कला के द्वारा
विकसित हो, यही ध्येय विद्यालय में संचित नाटकों का है।
नाटक की कला इतनी विस्तृत है जैसे “पर्णू ब्रह्मांड”। मनि
ु भरत ने भी नाट्यशास्‍त्र
में कहा है कि “तीनों लोकों की ऐसी कोई भी घटना, वस्तु या क्रियाकलाप नहीं हैं,
जो नाटक के द्वारा दिखाये न जा सकें ।”
वैसे तो नाटक के बारे में बहुत लिखा जा चक ु ा है परंतु कुछ पहलू ऐसे भी हैं,
जहाँ बहुत कुछ किया जाना शेष है उनमें से एक विषय “नाट्य संगीत” है। मख्य ु
विषय नाट्य के संगीत पर आने से पहले नाटक एवं उसके इतिहास पर एक दृष्‍टि
डालना उचित है।
नाटक
जो रचना श्रवण द्वारा ही नहीं अपितु दृष्‍टि द्वारा भी दर्शकों के हृदय में रसानभु ति

कराती है, उसे नाटक या दृश्य काव्य कहते हैं। दृश्य-श्रव्य होने दोनों के कारण यह
लोक चेतना से अपेक्षाकृ त अधिक रूप से सबं द्ध है। साहित्य एवं सगं ीत की विधा
नाट्य में एक तरह से पर्णू ता प्राप्‍त करती है। साहित्य यानी कथा, कविता, उपन्यास
इत्यादि तथा सगं ीत यानी गायन, वादन एवं नृत्य इन सभी का विकास एवं कायार्न्वन
नाट्य द्वारा होता है। आइए, अब नाटक के इतिहास पर नज़र ड़ालें।
नाटक का इतिहास
यदि नाट्य शास्‍त्र को प्रमाण माने तो भारत में अभिनय कला एवं रंगमचं का निर्माण
वैदिक काल में ही हो चक ु ा था। प्राचीन भारत में संस्कृ त नाटक धार्मिक अवसरों,
सांस्कृतिक पर्वों, सामाजिक समारोहों में मचि ं त होते थे। जब संस्कृ त बोल-चाल

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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

की भाषा नहीं थी तब प्रादेशिक भाषाओ ं का उदय हुआ। मस्लिम ु शासन के दौरान


भारत की साहित्यिक रंग-परंपरा टूटी, परंतु लोक भाषा में लोक मचं का अच्छा
प्रसार हुआ। उस समय रासलीला, रामलीला तथा नौटंकी आदि के रूप में लोकधर्मी
नाट्य मचं कायम रहा। यह लोकधर्मी नाट्य आज आधनि ु क काल में व्यावसायिक
तथा साहित्यिक रंगमचं के प्रतियोगी दौर में भी अपने आप को जीवित रखे हुए है।
अभी भी रामलीला, रासलीला के अतिरिक्‍त वीर अभिमन्यु, सत्य हरीशचद्रं आदि
नाटक तथा रूप बसतं , हीर-राँझा, विल्वा मगं ल हकीकतराय आदि नौटंकिया देखने
को मिल जाती हैं।
अग्रें ज़ी राज की स्थापना के साथ रंगमचं को प्रोत्साहन मिला, फलतः भारत में
व्यावसायिक नाटक मडलिय ं ाँ स्थापित हुइ।� नाट्य एवं रंगमचं की प्रकृ ति सर्वप्रथम
बंगाल में दिखायी दी। सन् 1835 ई० के आस-पास कोलकता में कई अव्यावसायिक
रंगशालाओ ं का निर्माण हुआ। बांग्ला के इसी नाट्य सृजन और नाट्यारंगन से हिन्दी
नाटककार भारतेन्दु इत्यादि के रंग आदं ोलन को प्रेरणा एवं दिशा मिली। ‘भारत
जननी’, ‘भारत वर्ष में यावन लोग’ ये प्रसिद्ध नाटक बांग्ला नाटक से प्रेरित या कहे
तो उसका अनवु ाद हैं।
हिन्दी रंगमचं ीय साहित्यिक नाटकों में सबसे पहला ‘गीति नाट्य’ अमानत कृ त
‘इदं र सभा’ कहा जा सकता है। जो सन् 1853 ई० में लखनऊ के नवाब वाज़िद
अली शाह के दरबार में खेला गया था। इसमें उर्दू शैली का वैसा ही प्रयोग था जैसे
फ़ारसी नाटक मडलिय ं ों ने अपनाया। सन् 1862 ई० में ‘जानकी माँगला’ नामक
विशद्धु हिदं ी नाटक खेला गया था। उसी समय से हिदं ी नाटक को एक दिशा मिल
गई और उत्तरोत्तर उनका विकास एवं विस्तार होता गया।
नाटक के त�व एवं सगं ीत का सबं ंध
नाटक के प्रमख ु त�व — कथावस्तु, यात्रा एवं संवाद हैं। गौण त�वों में भाषा-शैली,
वातावरण, उद्देश्य तथा प्रभाव भी श�मल हैं।
वास्तव में नाटक एक ऐसी साहित्यिक प्रायोगिक विधा है जिसमें कथावस्तु
पात्र एवं उसके सवं ादों से अपना रूप या आकार ग्रहण करता है। नाटकों में पात्र का
चरित्र चित्रण उपन्यास की भाँति नहीं हो पाता, क्योंकि उपन्यास की भाँति नाटकों में
विस्तार से पात्रों के रूप, वेश-भषू ा का वर्णन, चरित्र विचारों पर टीका टिप्पणी नहीं

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संगीत और नाटक का अतं : संबंध

की जा सकती, नाटककार को तो अपने


पात्रों को कुछ विशेष परिस्थितियों
के बीच की प्रस्तुति की सविध ु ा रहती
है। पात्र को स्वयं अपने संवादों और
व्यवहारों के अभिनय से अपने चरित्र
को उजागर करना पड़ता है।
नाटकों को उनके प्रारंभ यानी
प्रवेश, कथावस्तु की स्थापना, पात्रों
के चरित्र की स्थापना, स्थान, दृश्य,
परिवर्तन, विकास, पर्णू ता एवं परिणति नाट्य कला
तक पहुचँ ने में जो कारगर भमू िका निभाता है वह है नाट्य का पाश्‍वर् एवं मचं पर
सगं ीत। नाट्यशास्‍त्र में सगं ीत एवं नाट्य के सबं ंध में काफ़ी कुछ मिलता है, अन्य
विद्वानों ने भी संगीत को नाट्य के लिए विशिष्‍ट एवं ज़रूरी माना है।
नाटक की सफलता का श्रेय लेखक की प्रतिभा को ही नहीं है, वरन् सभी
कलाकारों, संगीतज्ञों इत्यादि के सम्यक सहयोग को है। विद्वानों एवं ग्रंथकारों सभी
ने नाट्य में सगं ीत की अनिवार्यता मानी है। चलिए, ज़रा इन विद्वानों एवं ग्रंथकारों
का मत नाट्य एवं संगीत के संबंध में जान लें।
ग्रंथों में नाट्य एवं सगं ीत का सबं ंध
1. नाट्य शास्‍त्र नाटक का ही नहीं अपितु अन्य ललित कलाओ ं का भी आदि
ग्रंथ माना जाता है, परंतु नाट्य वेद का निर्माण किस प्रकार हुआ, इसका
उल्लेख हमें अभिनव भारती में मिलता है। इसके अनसु ार,

ऋग्वेद से पाठ्य, सामवेद से गीति,


यजर्ु वेद से अभिनय, अथर्व वेद से रस लेकर
पंचम वेद नाट्य वेद का निर्माण ब्रह्माजी ने किया।
(अभिनव भारती)
अतः गीत या गीति नाट्य के मल्य ू त�व में स्थान रखता है।
2. नाट्य शास्‍त्र में, गीत या गान ग्यारह त�वों में से एक है। गीत, नाट्य की शय्या
आधार भित्ति बताया है।
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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

“गीते प्रयत्न: प्रथमं तु कार्य:,


शय्या हि नाट्यस्य बदन्ति गीतिम।् ”
(नाट्यशास्‍त्र)
3. नाट्य में गीत को अनिवार्य उपरंजक माना गया है –
“यथा वर्णाद कहते चित्रं न शोभा जननं भवेत।्
एवमेव बिना गीतमं नाट्यं रागं न गच्छति।।”
(नाट्यशास्‍त्र)

अर्थात् जिस प्रकार रंग बिना चित्र शोषित नहीं होता। उसी प्रकार बिना गीत
के नाट्य से राग(भाव) की उत्पत्ति नहीं होती है।
4. गीत मात्र शोभा जनक ही नहीं होते, ये नाट्य का अविभाज्य अगं है,
“एवं शीतं च वाद्यं च नाट्यं च विविधश्रयम।्
आलाप चक्र प्रतिमं कर्तव्यं नाट्ययो वीन्तृभि।।”
(नाट्यशास्‍त्र)

5. आचार्य अभिनव गप्‍तु ने अपने के मत को रखते हुए बताया है कि प्रवेश काल


के समय नाट्य प्रयोग के अनसु ार ध्रुवा का गान करवाया जाए। इससे दर्शकों
के अतं :करण में शीघ्र प्रतिपदा यानी मख्य
ु रस का उदय आरंभ होने लगता है।

यक्षगान

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संगीत और नाटक का अतं : संबंध

इन ग्रंथों का सदर्भ
ं एवं विद्वानों के मत सगं ीत को नाट्य के मल ू त�व के रूप में
स्थापित करते हैं। संगीत के तीनों रूप अर्थात् गीत, वाद्य एवं नृत्य नाटक को एक
आधार प्रदान करते हैं एवं उसको विकसित करने में मख्य ु भमू िका निभाते हैं।
भारतवर्ष अत्यंत विशाल
है, नाट्य की दृष्‍टि से भी
विविधताएँ हैं, जैसे – नाट्य
के कई नाटक, धार्मिक नाटक,
एकाक ं ी, नक्कड़
ु नाटक, एकल
नाटक, प्रहसन, लोक नाट्य
इत्यादि। पनु ः लोक नाट्य
अपने क्षेत्रों की अलग-अलग
विशेषताओ ं से यक्ु ‍त है जैसे –
जात्रा (बगं ाल, ओडिशा, पर्वी ू नाट्य कला – महाभारत का दृश्य
बिहार), तमाशा (महाराष्ट्र), नौटंकी तथा रास (उत्तर प्रदेश), नौटंकी (राजस्थान एवं
पजं ाब), भवई (गजु रात), यक्षगान (कर्नाटक), नाचा (छत्तीसगढ़) में प्रचलित भी हैं।
इन सभी नाट्य रूप में सगं ीत भी उनके अनसु ार ही प्रयोग ही किया जाता है। सभी
प्रकार के नाटकों में सगं ीत, गीत, वाद्य का पाश्‍वर् एवं प्रत्यक्ष प्रयोग भिन्न होता है।
जहाँ तक अपने विद्यालयों में नाट्य प्रस्तुतियों का प्रश्‍न है तो एकाक ं ी नाटक का
प्रयोग सर्वाधिक होता है। ये एकाक ं ी नाटक समय एवं ससं ाधन के बहुत ही कम प्रयोग
के बावजदू लोक चेतना यानी छात्रों एवं दर्शकों के परू े मनोरंजन के साथ ज्ञानवर्धन
भी करते हैं तथा उनका जागरूक बनाते हैं।
विद्यालय में नाट्य प्रस्तुतियाँ उत्तम हों, उनका प्रभाव पर्णू रूप से कलाकार छात्रों
एवं दर्शकों पर हो, इस हेतु नाट्य सगं ीत के प्रायोगिक पक्ष पर एक दृष्‍टि डाली जा रही है।
स्‍कू ली बच्‍चों द्वारा नाट्य एवं
संगीत की प्रस्‍तुित

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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

नाट्य के सगं ीत का प्रायोगिक पक्ष


प्रवेश से लेकर पटाक्षेप तक संगीत का प्रयोग हमारे नाट्य प्रदर्शन में होता है। हमारे
विद्वान शिक्षक गण नाट्य में संगीत का सफल प्रयोग कर प्रस्तुतियों को उत्तम बना
रहे हैं, प्रस्तुति निरंतर और निखरती जाए इस हेतु कुछ प्रायोगिक सझु ाव निम्न हैं –
1. पूर्व रंग में सगं ीत का प्रयोग – परू ्व रंग से तात्पर्य है पर्दा खल
ु ने, मचं प्रकाशित
होने अथवा पात्रों के प्रवेश से परू ्व का समय, इस समय दर्शकों की मानसिक
स्थिति नाट्य प्रस्तुति के लिए तैयार हो जाए, पात्र प्रवेश के लिए आधार मिल
जाए, इस हेतु परू ्व रंग के संगीत का बहुत महत्त्व है। इस समय आप किसी धनु ,
गत, बंदिश को बजा सकते हैं, गीत गा सकते हैं जो नाटक की कथा वस्तु के
अनरू ु प हो सकता है। उदाहरणस्वरूप, किसी देशभक्‍ति की कथा वस्तु यक्ु ‍त
नाटक का मचं न होने वाला हो तो हारमोनियम, तबले इत्यादि का प्रयोग करते
हुए कोई लोकप्रिय देशभक्‍ति गीत की धनु बजा दें। इसी तरह कथा-वस्तु के
अनरू ु प गीत, गत, बंदिश, धनु इत्यादि का प्रयोग कर सकते हैं।
2. पात्र विशेष के लिए सगं ीत – नाट्य शास्‍त्र में मख्य ु रूप से तीन प्रकार के
पात्रों (नायक-नायिका) के बारे में बताया गया है – 1. उत्तम 2. मध्यम 3.
अधम। इन तीनों प्रकार के चरित्रों को देखें तो चरित्र तीन ही प्रकार के हैं।
इनका अविर्भाव जब नाट्य मचं पर होता है तो उनके चरित्र को पर्णू रूप से
प्रदर्शित करने में वेश-भषू ा, संवाद एवं संगीत तीनों का महत्वपर्णू स्थान है।
पाश्‍वर् का संगीत चरित्र को निखारता एवं स्थापित करता है।
1. उत्तम – उत्तम चरित्र का अपनी इिद्रय ं ों पर पर्णू नियंत्रण होता है, वह
समझदार विविध कलाओ ं में निपणु , सत्यवादी, दयावान, हाज़िर जवाब,
मदभु ाषी, सदग् णु ी एवं जीवन के सख ु ों का भोग करने वाला होता है।
2. मध्यम – मध्यम चरित्र में उपरोक्‍त गणु थोड़े कम मात्र में होते हैं परंतु वे
लोगों को खबू समझते हैं एवं व्यवहारकुशल होते हैं।
3. अधम – भाषा कड़वी, बरु ा व्यवहार, आत्मा हर समय खरु ाफ़ात में मग्न,
अपराध से परहेज़ नहीं, तनु क मिजाज़ एवं उग्र, एहसानफ़रामोश, झगड़ा
मोल लेना, ठगी, पाप कहलाने वाले कामों में भाग लेना। ये सब दर्पण एक
अधम चरित्र में होते हैं ।

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संगीत और नाटक का अतं : संबंध

नाटक के विभिन्न आयाम


इन तीन प्रकारों के चरित्रों के कई उपप्रकार भी दृष्‍टिगोचर होते हैं, जिनका
उनके संगीत निर्धारण से पहले िचतं न कर लेना चािहए। उन सब पात्रों के लिए
5 से 10 स्वरों का स्वर विन्यास बना लें, अवनद्ध एवं घनवाद्य की भी मदद ले
सकते हैं। उस विशेष चरित्र के प्रवेश, क्रियाकलाप, चितं न एवं सवं ाद अदायगी के
समय विशेष तरह के संगीत तथा धनु का प्रयोग करें । उदाहरणस्वरूप, महाभारत
(बी.आर. चोपड़ा) में एक “अधम पात्र शकुनी” के प्रवेश, उपस्थिति, चितं न एवं
संवाद अदायगी के समय बजने वाला संगीत, चरित्र सचू क था।
3. दृश्य परिवर्तन का सगं ीत – दृश्य परिवर्तन यानी जब एक दृश्य समाप्‍त
होकर दसू रा प्रारंभ होता है। इस समय एक दृश्य से दसू रे दृश्य का जड़ु ाव होता
है। इस समय दो स्थिति होती है – 1. पर्दा गिरता है, 2. प्रकाश बंद होता है।
विद्यालयों में बहुधा प्रकाश व्यवस्था नहीं होती और पर्दा भी नहीं होता। इस
दौरान मचं से दृश्य परिवर्तन का सगं ीत प्रस्तुत करना आवश्यक होता है।
दर्शक का ध्यान नाटक से न हट जाए इस हेतु दृश्य परिवर्तन के लिए संगीत
संयोजक के रूप में कार्य करता है।
दृश्य परिवर्तन के समय नाटक की कथा वस्तु के अनरू ु प अथवा अगले दृश्य
का परू ्वाभास कराने वाले गीत, गत, धनु इत्यादि दृश्य समाप्‍त होने के तरु ं त बाद बजा
दें। ये तब तक जारी रखें जब तक कि दसू रा दृश्य प्रारंभ न हो जाए। दृश्य प्रारंभ होने
तक सगं ीत धीमा करते-करते बंद कर दें।
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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

4. नाटक के मध्य गीत या नतृ ्य की प्रधानता – कई नाटकों के प्रारंभ, मध्य


या अतं में कोई गीत अथवा नृत्य का मचं न प्रमख ु ता से किया जाता है।
उदाहरणस्वरूप, अधं रे नगरी चौपट राजा (भारतेन्दु कृ त) में राजा का दरबार
लगते ही “नृत्य पेश किया जाए” यह आदेश आता है। इस तरह के दृश्य में
कोई मधरु सा लहरा-नगमा का प्रयोग कर लें। लहरा 3–4 आवर्तन का हो एवं
नृत्य इसी अतं राल में परू ा करा लें। गीत का प्रयोग करते समय भी यह ध्यान
रखें कि स्थायी एवं एक अतं रे में ही इसे पर्णू कर लिया जाए। इससे नाटक
में नृत्य एवं गीत का अस्वादन भी हो जाएगा तथा नाट्य की कथा वस्तु से
अनावश्यक व्यवधान भी नहीं होगा।
विभिन्न रसों को उत्पन्न करने वाली स्वरावलियाँ
नवरस यानी �ाृंगार, हास्य, करुण, वीर, रौद्र, भयानक, वीभत्स, अद्भुत एवं शांत, ये
रस भावरूप हैं जो नाट्य से दर्शकों को प्राप्‍त होते हैं, यानी इसे महससू किया जाता
है। नाट्य के रसों को उत्पन्न करना एवं उभरकर लाने में सगं ीत की अहम भमू िका
होती है। विभिन्न रागों के स्वर विन्यास, आलाप उनकी लय (द्रुत, मध्य, विलंबित)
रसों को दर्शकों के अतं र में सहज ही स्थापित कर देते हैं। कुछ सझु ाव —
रस राग
1. �ाृंगार यमन, बाग्रेश्री, रागेश्री, पहाड़ी, सारंग, झिझं ोटी इत्यादि।
2. हास्य वाद्यों का प्रयोग करें , अवनद्ध एवं घन वाद्यों का प्रयोग
उपयोगी है।
3. करुण सोहनी, मारवा, परू िया, परू िया घनाश्री, श्री तोड़ी इत्यादि।
4. वीर मालकौंस, दरबारी, भीमपलासी, शक ं रा, इत्यादि अवनद्ध
वाद्यों का प्रयोग, जैसे पखावज या नगाड़े के बोल।
5. रौद्र मालकौंस, दरबारी, भैरव (अलाप द्रुत ले या तंत्री वाद्य का
आलाप-जोड़, झाला बनाएँ) अवनद्ध वाद्यों का प्रयोग
उपयोगी है।
6. भयानक घन वाद्यों का प्रयोग, अवनद्ध वाद्यों का प्रयोग।
7. वीभत्स वाद्यों का प्रयोग करें ।
8. अद्भुत विभिन्न अलंकारों का रागों में प्रयोग, ताल वाद्यों का प्रयोग।
9. शांत भैरवी, परू िया, कल्याण, झिझं ोटी, सारंग इत्यादि।

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संगीत और नाटक का अतं : संबंध

तोता कहानी नाटक का दृश्य


ज्ञात हो कि चचार् िकए गए उदाहरण अनभु वजन्य है। शिक्षकगण अपने अनभु व
से विभिन्न प्रकार के वाद्यों का, अलंकारों का, मख
ु ध्वनि इत्यादि का आवश्यकता
अनसु ार प्रयोग कर सकते हैं।
समय, मौसम वाले दृश्य हेतु सगं ीत – नाट्यों के दृश्य जिसमें समय यानी प्रातः,
दिन, सायं, रात्रि इत्यादि का मान करवाना होता है अथवा मौसम को दर्शाना होता
है। इस हेतु विविध रागों की मख्य ु स्वरावलियों का आलाप अत्यंत प्रभावशाली
होता है, उदाहरणस्वरूप —
समय राग
1. प्रातः काल
भैरव, अहीर भैरव, जैसे प्रातः कालीन राग।
2. दिन दर्गा ु , वृंदावनी सारंग, भीम पलासी इत्यादि।
3. संध्या यमन, परू िया, परू िया घनाश्री, श्री इत्यादि।
4. रात्रि बाग्रेश्री, सोहनी, दरबारी इत्यादि।

इस प्रकार ऋतओ ु ं के लिए मल्हार, बसंत, जयजयवंती, देस इत्यादि रागों का


प्रयोग किया जाता है। इन रागों की स्वरावलियाँ अथवा आलाप सितार, बाँसरु ी
इत्यादि वाद्यों पर बजाने से प्रभाव और बढ़ जाता है।
क्षेपक का प्रयोग – नाट्य शास्‍त्र में क्षेपक का उल्लेख मिलता है। मचं की जीवंत
परिस्थितियों में जब नाटक खेला जा रहा है उस दौरान कभी-कभी कोई गलती
हो जाती है, जैसे – पात्रों के प्रवेश में विलंब, संवादों का आगे पीछे हो जाना

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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

अथवा भल ू जाना, पात्रों का मचं पर अव्यवस्थित हो जाना, गिर जाना इत्यादि। कुल
मिलाकर जब मचं पर कुछ गलती हो जाए तो संगीत से उन गलतियों को ढक देना
या छुपा देना क्षेपक है। क्षेपक कोई तबले का टुकड़ा, उठान, बोल या धनु हो सकता
है। ध्यान रहे कि गलती होते ही संगीत प्रारंभ कर दें जब कलाकार मचं पर संभल
जाए तो सगं ीत धीमा कर बंद कर दें।
लोक नाट्य – हमारा विद्यालय जिस भी क्षेत्र में हो, वहाँ के लोक नाट्य का मचं न
हमेशा ही वाँछित रहा है। ऐसा हमारे संस्कृति की गढ़ू बातों की अवहेलना है। लोक
नाट्य का मचं न आवश्यक होना चाहिए। जब लोक नाट्य का मचं न करें तो उसके
परू ्व वहाँ के लोकगीत, धनु , वाद्य यंत्रों इत्यादि का अध्ययन एवं अभ्यास कर लें,
लोक गीतों एवं वाद्य यंत्रों हेतु स्थानीय कलाकारों से भी संपर्क साधें।
इसके पश्‍चात् एक महत्वपर्णू बात यह है कि नाट्य सगं ीत पर भारतवर्ष में बहुत
कम लिखा गया है। इसका एक कारण यह भी है कि यह पर्णू रूप से प्रयोगिक विधा
है। इसमें सगं ीत की हर विधा का नियंत्रित प्रयोग अपेक्षित होता है। नाटक की जीवतं
परिस्थिति में चलते-चलते, तरु त-फ़ुरत में संगीत समायोजन, आलाप तानों, वाद्यों,
बोलों का प्रयोग रोमांचक होने के साथ ही मश्कि ु ल भी होता है। ये सभी अनभु व
जन्य है तथा अभ्यास से पर्णू होते हैं।

राजा एवं दरबारी नाटक का दृश्य

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आपस में जुड़ी हैं
सभी कलाएँ

एक व्यक्‍ति एक स्थापत्य शिल्पकार के पास इस उद्देश्य से गया कि उसे स्थापत्य


शिल्प की कला सीखनी है, िकंतु स्थापत्य शिल्पकार ने यह कहते हुए उसे वापस
भेज दिया कि स्थापत्य शिल्प की कला सीखने से पहले मर्ति ू शिल्प का ज्ञान
अर्जित करना बहुत ज़रूरी है। लेकिन, जब वह व्यक्‍ति मर्ति ू कार के पास गया तो
मर्ति
ू कार ने उसे यह कहते हुए
किसी चित्रकार के पास जाने की
सलाह दी कि मर्तिू कला में निपणु
होने के लिए चित्रकला का ज्ञान
होना परम आवश्यक है। अतः
वह व्यक्‍ति एक चित्रकार के
पास पहुचँ ा। चित्रकार ने ध्यान से
उसकी परू ी बात सनु ी फिर सझु ाव
दिया कि चित्रकला सीखने से
पहले तम्हु ें किसी नृत्यकार के
पास जाकर नृत्यकला की शिक्षा हरियाणा की लोक संस्कृति
लेनी चाहिए। हारकर वह व्यक्‍ति नृत्यकार के पास गया। नृत्यकार ने जब उसके आने
का प्रयोजन जाना तो कहा–“लेकिन बिना वाद्य संगीत का ज्ञान प्राप्‍त किए तमु
नृत्य निपणु नहीं हो पाओगे। अतः मेरी मानो तो नृत्य सीखने से पहले वाद्य संगीत
सीख लो।” अतं त: वाद्यकार के पास पहुचँ कर उसने उनसे आग्रह किया कि वे उसे
अपना शिष्य बना लें। वाद्यकार ने उसकी बात सनु कर किंचित मस्कु ु राहट के साथ
समझाया–“यात्रा हमेशा शरू ु से की जाती है। जब तक तम्ह ु ें गायन नहीं आएगा
वादन का प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा। अतः मेरी मानो तो पहले गायन सीख लो
और क्रमश: आगे बढ़ो।” इस प्रकार हम देखते हैं कि पाँचों ललित कलाएँ आपस
में अभिन्न रूप से जड़ु ी हैं। स्थापत्य सर्वाधिक स्थूल दृश्य कला है और सगं ीत

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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

सर्वाधिक सक्ष्मू श्रव्य कला है। इन विरोधाभासी विशेषताओ ं के बावजदू दोनों में गहरा
सबं धं है। इसलिए हीगेल ने स्थापत्य कला को फ्रोजि़न म्यूज़िक (जमा हुआ सगं ीत)
कहा तो दसू रे विद्वानों ने सगं ीत को फ्लाइगं आर्कि टेक्चर (बहने वाला स्थापत्य) कहा।
स्थापत्य की विशेषताओ ं को सगं ीत कला भी स्वीकारती और अपनाती है। सगं ीत
कला में शास्‍त्रीय विवरणों के स्वीकृ त विधानों के बीच स्वर-लय का सतं ल ु न, आरोह-
अवरोह के रूप में स्वरों का परस्पर आश्रित सयं ोजन और स्वर सवं ाद का निर्वाह होता
है। सगं ीत में यह सबं धं सगं ति स्वर-लय के विधान पर निर्भर करती है तो स्थापत्य में
यह सबं धं सगं ति स्थान सबं धं ी अतं राल, दीवारों की पक्‍तिं बद्धता और स्थूल द्रव्यों के
भार या चाप पर कायम रहती है। इसलिए हीगेल जैसे कई विद्वान सगं ीत और स्थापत्य
में अभिन्न सबं धं देखते हैं, जो सही भी है।
‘संगीत’ शब्द की बात करें तो संगीत शब्द की व्युत्पत्ति ‘सम’ और ‘गीत’
दो शब्दों के योग से हुई है। पहले ‘गीत’ शब्द की चर्चा करते हैं – ‘गै’ धातु में
‘क्‍त’ प्रत्यय लगाकर गीत शब्द की रचना हुई है और ‘गीत’ शब्द के परू ्व ‘सम’
उपसर्ग लगाकर “संगीत” शब्द बना है अर्थात संगीत शब्द का अर्थ हुआ – सम्यक्
रूप से सश ु ोभित गीत। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि जब गाई जाने वाली
किसी रचना की संगति वादन द्वारा की जाए और
शरीर के अगं ों द्वारा उस गीत के भावों और अर्थों काे
प्रस्‍तुतीकरण भी हो तो उसे संगीत ही कहा जाता है।
संगीत के प्राचीन विद्वानों ने इसी कारण ‘गीतं वाद्यं
तथा नृत्यं त्रयं संगीत मच्य
ु ते’ कहकर इसी ओर
संकेत किया है कि गायन, वादन तथा नृत्य तीनों
नृत्य
का समावेश ही संगीत है। नृत्य शब्द का अर्थ है लय
एवं ताल के सहारे हस्त तथा पद संचालन करते हुए अभिनय करना। गीत कहकर
गायन को जि‍तना महत्त्व दिया गया है, उससे सगं ीत में ‘गीत’ की उपयोगिता,
सार्थकता स्वतः सिद्ध हो जाती है और गीत
की उपयोगिता से काव्य की उपयोगिता स्वतः
सिद्ध हो जाती है। तभी तो अनेक भारतीय
एवं पाश्‍चात्य विद्वानों ने साहित्य की परिभाषा
लिखते समय उसकी संगीतात्मकता का
विशेष रूप से उल्लेख किया है। वादन – पखावज

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आपस में जड़ु ी हैं सभी कलाएँ

मिल्टन ने सगं ीत और साहित्य को सगी


बहनें माना है इसलिए काव्य को सगं ीतमय
विचार भी कहा गया है। शब्द के साथ-साथ
स्वर, रंग, रेखाओ ं और आकृ ति की भी एक
भाषा होती है। एक भाव होता है...प्रभाव
होता है। दरअसल कला कोई भी हो मन और
मस्तिष्क के साथ उसका अभिन्न जड़ु ाव होता
है। इसी की ओर सक ं े त करते हुए अबनीन्द्रनाथ
ठाकुर ने लिखा था – ‘चित्र तब बनता है जब
चित्रकार की अतं र्निहित उदय कामना या
अभिव्यक्‍ति छंद के नियमों से अपने से अपने
को बाँधकर अतं र और बाह्य दोनों प्रकार से
अपने को रसोदय में परिणत करती है। शब्द, बच्चों द्वारा नृत्य प्रदर्शन
चित्र, कविता और दृश्यचित्र-पट तथा मर्ति ू आदि कोई भी कला सृजन, इस स्वाभाविक
प्रक्रिया का अनक ु रण किए बिना हो ही नहीं सकती।’ प्राचीन सगं ीत विद्वानों ने – ‘नृत्तं
वाद्यानगु ं प्रोक्‍त वाद्यं गीतानवर्ति
ु च’ लिखकर स्पष्‍ट किया है कि गीत का अनक ु रण
क्रमश: चित्रकार, मर्ति ू कार और स्थापत्य शिल्पकार एवं कवि आदि करते हैं। आचार्य
रामचद्रं शक्लु के अनसु ार, ‘काव्य एक व्यापक कला है।’ जिस प्रकार मर्त्तू विधान के
लिए कविता चित्र विधा की प्रणाली का अनसु रण करती है, उसी प्रकार नाद सौष्‍ठव के
लिए वह सगं ीत का सहारा लेती है। जिन कविताओ ं में गेयता और लयबद्धता होती है वे
अधीर समर्थ और प्रभावी होती हैं।
सगं ीत-नृत्य की अनेक विशेषताओ ं का
वर्णन कवियों ने अपनी रचनाओ ं में किया तो
चित्रकार भी इस कला का प्रदर्शन िचत्रों के
माध्‍यम से करते रहे। भारतीय चित्रकला के
अतं र्गत रागमाला चित्रों द्वारा हमें सगं ीत की
राग-रागिनियों का चित्रात्मक दर्शन होता है।
रागमाला के चित्रों में राग-रािगनियों से सबं धं ित
वातावरण, दृश्य, विषय, रस, काल और भाव
आदि का ऐसा व्यंजक चित्र रहता है, जिसे देखने
रागमाला चित्र
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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

मात्र से ही राग-रागिनी के स्वरूप, प्रकृ ति, रस और समय आदि का पर्णू ज्ञान हो जाता
है। दरअसल सगं ीत कला जिन दृश्य-अदृश्य-सक्ष्म ू ताओ ं का विवेचन ध्वनि तथा लय
आदि द्वारा करती है, चित्र कला उन्हें रंगों और रेखाओ ं द्वारा व्यक्‍त करती है।
इस तरह भारत के संगीत में गायन, वादन, नृत्य, अभिनय और काव्य का
प्रत्यक्ष समावेश है तो चित्र, मर्ति ू और प्रस्तर शिल्प जैसी कलाओ ं का अप्रत्यक्ष
समावेश है। हमारे अधिकांश भित्तिचित्रों में सांगीतिक (नृत्य भी) कलाएँ ही तो
उत्कीर्ण हैं। वाल्टर पैटर ने अकारण ही यह नहीं लिखा कि जितनी भी कलाएँ हैं, सब
संगीत की ओर उन्मुख हैं। तो दसू री ओर स्थापत्य कला को अन्य सभी कलाओ ं के
निर्माण का स्रोत बताते हुए विद्वानों
ने लिखा है कि ‘आर्कि टेक्चर इज़
द मदर ऑफ़ आर्ट्स।’
सगं ीत की भव्य अट्टालिका
जिन तीन प्रमख ु स्तंभों पर टिकी है,
वे हैं – स्वर, लय और भाव। स्वर
को गायन के माध्यम से भी व्यक्‍त
भारतीय शिल्पकला – गफ़ाु ओ ं में कहानी किया जाता है और तत्रं तथा सषि ु र
वाद्यों के माध्यम से भी। शब्द रूपी शरीर में जब स्वर आत्मा का सचं ार होता है तो वह
जीवतं हो उठता है। तात्पर्य यह कि कविता या गीत को जब सरु ों में ढालकर प्रस्तुत
किया जाता है, तब वह अधिक आकर्षक, सशक्‍त, प्रभावकारी और आनदं कारी
हो जाती है। इसलिए परु ाने सतं ों, महात्माओ,ं विचारकों, समाज सधु ारकों ने अपने
विचारों, सदं श े ों और उपदेशों को सगं ीतबद्ध करके जन सामान्य में लोकप्रिय बनाया।
भारत धर्म प्रधान देश है। भारतीय विचारधाराएँ आरंभ से ही आदर्शों और
नैतिक मल्य ू ों को परिपष्ु ‍ट करती रही हैं। इसके कण-कण में राम, कृ ष्ण, शिव,
सरस्वती, बद्ध ु , महावीर, हज़रत मोहम्मद, ईसा मसीह और नानक के सदं श े व्याप्‍त
हैं। सत्य, अहिसं ा, ब्रह्मचर्य, अस्तेय और अपरिग्रह के पाँच महाव्रतों को इस महान्
देश के निवासी सदियों से आत्मसात् करते आ रहे हैं। आज के इस यगु में भी
पंचशील का नारा देने वाला यही देश है। ऐसी स्थिति में इसकी वाणी, इसका संदश े ,
इसकी सस्कृति
ं और कलाएँ न के वल आदर्श मार्ग की ओर प्रेरित करने वाली हैं
बल्कि बहुजन हिताय, बहुजन सख ु ाय और विश्‍व कल्याणकारी भी हैं।

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आपस में जड़ु ी हैं सभी कलाएँ

लेकिन, इसका एक दसू रा पक्ष भी है। जिस तरह निर्जीव शरीर बेकार होता है,
उसी तरह शरीर विहीन आत्मा की भी कोई सार्थकता नहीं होती। यद्यपि यह बात
सांगीतिक कलाओ ं पर नहीं लागू होती है। यहाँ शब्द और स्वर दोनों का एक दसू रे
के बिना भी महत्त्व और उपयोगिता है। तथापि, अगर स्वरों को शब्दों का सहारा
मिल जाता है तो वे और भी अधिक हृदयग्राही हो जाते हैं... निराकार से साकार हो
जाते हैं। यही कारण है कि स्वर वाद्य यंत्रों की अपेक्षा गायन के श्रोताओ,ं दर्शकों की
सख्या
ं अधिक होती है, क्योंकि शब्द होने के कारण अर्थ जल्दी और स्पष्‍ट रूप से
समझ आ जाते हैं। शब्द विहीन स्वर किसी अमर्तू चित्र के समान होते हैं, जिनका
आनंद अनभु वी लोग पाते हैं। लेकिन शब्द यक्ु ‍त स्वर साकार होते हैं, वे लोगों को
अनमु ान लगाने की अनमति ु नहीं देते, क्योंकि वहाँ सभी कुछ स्पष्‍ट होता है।
मानव ने जब सभ्यता की ओर अपना पहला कदम बढ़ाया, तब उसका प्रथम
साक्षात्कार संगीत से ही हुआ। जब न तो भाषा का आविष्कार हुआ था और न तो
लिपि का, तब इसं ान ने ध्वनि को आविष्कृ त किया। उसी ध्वनि के उतार-चढ़ाव
से वह अपने अभिप्राय, अपनी भावनाओ ं से दसू रों को अवगत कराता था। बाद में
इसके साथ आगि ं क क्रियाओ ं का प्रदर्शन अर्थात् अभिनय भी जड़ु गया। मैक्समल ू र
आदि जैसे अनेक विद्वानों की भी यही मान्यता है कि संगीत की उत्पत्ति भाषा की
उत्पत्ति से परू ्व हुई।
सर जेम्स जींस ने अपनी पस्त ु क साइसं एडं म्ज़ि यू क में लिखा है–“सगं ीत का
विकास पश-ु पक्षियों से लेकर मनष्य ु तक में लगातार होता चला आया है। यही
कारण है कि मानव सगं ीत का विकास भी मानव जाति के विकास के साथ ही हुआ
है। आदिम काल से ही पश-ु पक्षियों की तरह मानव जाति में भी संगीत की प्रेरणा
प्रेम, ईर्ष्या, द्वंदी और विजय आदि के भावों के प्रदर्शन हेतु थी।”
संगीत भावनाओ ं की अभिव्यक्‍ति का सशक्‍त माध्यम है। भावनाओ ं की
अभिव्यक्‍ति अनियंत्रित न हो जाए इसलिए ताल वाद्यों की सहायता से उसे
अनश ु ासन की डोर में बाँधकर नियंत्रित किया जाता है। सीमाहीन संगीत सागर की
वेगवती लहरों को लय और ताल की सीमा में बाँधने का प्रयास किया जाता है। यही
कारण है कि लय-ताल विहीन संगीत को अरण्य संगीत कहा गया है और लय-ताल
यक्ु ‍त संगीत को अभिजात्य संगीत। जिस प्रकार संगीत की लय सांगीतिक क्रियाओ ं
को अनियंत्रित होने से रोकती है, उसी प्रकार चित्र कला में प्रयक्ु ‍त रे खाओ ं की

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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

लयात्मकता रंगों को बहकने से रोकती है। वस्तुतः लय का न के वल कला, अपितु


जीवन के हर क्षेत्र में महत्त्व है। क्योंकि जहाँ लय नहीं हैं वहाँ प्रलय है।
सगं ीत भावनाओ ं से जड़ु ी कला है। यह मात्र व्याकरण नहीं। इसमें रसों का समावेश
करके विभिन्न भावनाओ ं को कभी जाग्रत तो कभी निष्क्रिय किया जाता है, यही
सगं ीत चिकित्सा का सिद्धांत है। वस्तुतः सगं ीत एक यौगिक क्रिया भी है जिसकी तीव्र
तथा तीव्रतर ध्वनियाँ मनष्य ु की सक्ष्म
ू स्नायओ ु ं को झक ं ृ त कर सषु प्‍त
ु कुण्डलिनी को
जाग्रत कर देती हैं तथा मानवता को आत्मोन्नति की चरम सीमा मोक्ष द्वार तक पहुचँ ा
देती हैं जो हर इसं ान का अतिमं लक्ष्य होता है। अतः सगं ीत में जिस भाव की बात की
जाती है, वह मात्र नृत्य का भाव-अभिनय नहीं है। उस ‘भाव’ का अर्थ – तात्पर्य होता
है। इसलिए शब्दों, स्वरों, लय और ताल का भी अपना-अपना भाव होता है। इसलिए
श्ष्रे ‍ठ कलाकार अपने गायन में एक ही शब्द को भिन्न-भिन्न भाव के साथ प्रस्तुत
करके एक ही शब्द के भिन्न-भिन्न अर्थ की ओर सक ं े त करता है। जिस तरह हर शब्द
का एक अलग भाव और अर्थ होता है, उसी तरह हर स्वर का, हर लय का और हर
ताल का भी अपना-अपना भाव होता है और यही भाव सगं ीत की सार्थकता है। यहाँ
इस बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि इस भाव के निरूपण में सारी कलाएँ
आतं रिक रूप से एक-दसू रे से जोड़ी होने के कारण एक-दसू रे का सहयोग करती हैं।
प्राचीन कालीन विभिन्न प्रस्तर शिल्पों
और मर्तिय ू ों को देखने से यह स्पष्‍ट हो
जाता है कि इनके निर्माण के लिए गायकों,
वादकों, नर्तक-नर्तकियों की आकर्षक
मद्रा
ु ओ ं का सक्ष्म
ू ताओ ं से अध्ययन किया
गया है। बाद में इन मद्रा ु ओ ं का आधार
लेकर कई नृत्यकारों ने अपने नृत्य को
समृद्ध और आकर्षक बनाया। ओडिसी
आदि नृत्य शैलियों में ऐसी मद्रा ु ओ ं को
विशेष रूप से देखा जा सकता है। अनेक भारतीय शिल्‍पकला – गफ़ा ु ओ ं में माँ
ग्रंथों, काव्यों, महाकाव्यों और आख्याओ ं भवानी का चित्रण
को भी प्रस्तर शिल्प में उत्कीर्ण किया गया, कभी मर्ति ू रूप में साकार किया गया है तो
कभी रंगों और रे खाओ ं से चित्रांकित किया गया। कई भव्य मदि ं र और गफु ़ाएँ इसके
प्रमाण हैं। इन सबसे यह निष्कर्ष निकलता है कि अपनी अभिव्यक्‍ति के चरम क्षणों में
सारी ललित कलाएँ एक-दसू रे का सहारा लेकर अपनी अभिन्नता को प्रकट करती हैं।
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भारत के वाद्य यंत्र

संगीत में गायन के साथ-साथ वादन का भी अत्यंत महत्वपर्णू स्थान है। वादन
का तात्पर्य विशिष्‍ट वस्तु एवं पद्धति से निर्मित किसी वाद्य यंत्र पर थाप देकर,
फँू ककर या तारों में कंपन्न उत्पन्न करके लयबद्ध तरीके से संगीतमय ध्वनि उत्पन्न
करना है। व्युत्पत्तिशास्‍त्र के आधार पर ‘वाद्य’ की उत्पत्ति संस्कृ त शब्द ‘वद’ से
हुई है, जिसका अर्थ है बोलना। प्रत्येक वाद्य अपनी ही एक कहानी है जो हमारे
सांस्कृतिक इतिहास से मिलती-जल ु ती है। तश्तरी, थाली, करछी आदि मनष्य ु द्वारा
रसोईघर में प्रयोग किए जाने वाले बर्तन हैं जो कि क्रमश: वाद्य यंत्र में परिवर्तित
हो गए। भारतीय वाद्य यंत्रों ने विश्‍वभर में अपना एक उत्तम स्थान बना लिया है।
हमारे भारतीय संगीतज्ञों ने निरंतर अनगिनत वाद्य यंत्रों की रचना की है जिसमें से
कुछ �जन पर अभ्यास किए जाते हैं तथा कुछ दर्ल ु भ होते जा रहे हैं या उन्हें नवीन
नवप्रर्वतन के साथ दसू रे वाद्य में विलीन किया जा रहा है।
वाद्य शब्द ‘वद’ धातु में सत् प्रत्यय लगाने से बना है। शाब्दिक अर्थ – बजाने
योग्य विशेष यंत्र, जो संगीतात्मक ध्वनि तथा गति को प्रकट करने वाले उपकरण
हैं। विभिन्न वाद्यों द्वारा उदभ् तू स्वर तथा लय
का आनंद ही वाद्य संगीत या वदन कहलाता
है। वाद्य संगीत में स्वर तथा लय के माध्यम से
(बिना किसी अन्य कला की सहायता लिए)
श्रोताओ ं को चिरकाल तक आनंदानभु ति ू में
समाये रखने की अदभ् तु शक्‍ति है।
मानव सभ्यता के साथ उदित सगं ीत कला के
क्षेत्र में आदिकाल से आज तक अनेक प्रकार के
वाद्यों का प्रयोग देखने में आता है। भारतीय वाद्य
वर्गीकरण का आधार मख्य ु तः ध्वनि रहा है। ध्वनि
सारंगी

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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

के आधार पर शास्‍त्रों में वाद्यों के प्रकारों को विश्‍लेषित किया गया है। इनमें से एक
अर्थात् शरीर ईश्‍वर द्वारा निर्मित तथा चार मानव द्वारा निर्मित है। इन पाँच प्रकार की
ध्वनिओ ं को ‘पचं महावाद्यनि’ कहा गया है। परंतु अधिकतर विद्वानों ने शरीरज ध्वनि
को वाद्य ध्वनि में सम्मिलित न करते हुए इनकी सख्या ं के वल चार ही मानी है। मानव
निर्मित चार सगं ीतात्मक ध्वनियों को भारतीय मनीशियों ने क्रमशः तत, सशि ु र, घन
और अवनद्ध नाम दिया है। सगं ीत सारामृत में इन चारों प्रकार के वाद्यों का यही लक्षण
बताया गया है –
“वाद्यं तंत्रतिन्त वाद्यं सशि
ु र सशु ीरात्मकम् ।
चमविनव्दवदनमवव्दमितं ीरितम।् ।
घनौ मूर्ति: साद्रमिछातादायते यत्र तव्दनम।्
इतयेशां लक्षण प्राक्‍तं मनिभिर्भ
ु रतादिभि:।।”

1. तत/तंत्री वाद्य – ये वे वाद्य हैं जिनमें


स्वरों की उत्पत्ति तारों के आदं ोलन या
कंपन से होती है, जैसे – सितार, सरोद,
वीणा आदि।

देबु चौधरी – सितार

2. सिु षर वाद्य – जिसमें वायु से स्वरोत्पत्ति होती


है, वे सशि
ु र वाद्यों की श्रेणी में आते हैं, जैसे –
शहनाई, हारमोनियम, बंसी, शख ं आदि।

उस्‍ताद िबस्‍मिल्‍ला खाँ – शहनाई

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भारत के वाद्य यंत्र

3. अवनद्ध वाद्य – ये वे वाद्य हैं जिनका मख



चर्माच्छादित होता है और हाथ या अन्य
किसी वस्तु के आघात से बजाये जाते हैं,
जैसे – तबला, पखावज, ढोल, ढोलक,
नाल आदि।

अवनद्ध वाद्य – डफ़

4. घन वाद्य – ये वाद्य लकड़ी या धातु निर्मित


होते हैं और आघात करके बजाये जाते हैं। यह
आघात या तो दो हिस्सों को परस्पर टकराकर
या किसी वस्तु द्वारा किया जाता है, जैसे –
मजं ीरा, करतल, घघँु रू आदि।
घन वाद्य – घँघु रू

तत/तंत्री वाद्य
जो वाद्य तार छे ड़ कर बजाए जाएँ तो उन्हें ‘तंत्री वाद्य’ माना गया है। यह लकड़ी,
धात,ु चमड़े आदि के प्रयोग से बनते हैं। कुछ तंत्री वाद्य निम्न हैं –
तानपुरा
भारत के अनेक भागों में
‘तानपरु ा’ शब्द के स्थान पर
‘तंबरू ा’ शब्द अधिक प्रचार में
दिखाई देता है। ‘तंबरू ा’ शब्द
तानपरु ा का ही अपभ्श रं रूप है।
इस तंबरू े का विधिवत उल्लेख
सर्वप्रथम संगीत पारिजात में हुआ
है। तंबरू े का वर्तमान रूप तेहरवीं
शताब्दी के बाद का ही है। यह तानपरु ा

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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

एक कद्दू से बना यंत्र यह जिसके ऊपर एक लकड़ी लगाकर उस पर दडं जोड़ दिया
जाता है इसकी लंबाई 150 से.मी. के लगभग होती है। इस पर धातु के चार तार लगे
होते हैं। स्टील के तीन तार और चौथा पीतल का होता है। जिनको झक ं ृ त करने के
लिए ऊँगलिय ु ों से खींचा जाता है। तंबरू े पर कोई धनु नहीं निकाली जाती है।
वीणा
कई शताब्दी परू ्व सारे तंत्र वाद्यों के लिए वीणा शब्द का प्रयोग किया जाता था। वेदों
के अनसु ार ‘वान’ शब्द आगे चलकर ‘वीणा’ शब्द में परिवर्तित हो गया। भारत के
नाट्य शास्‍त्र में चित्र वीणा तथा विपंची वीणा का उल्लेख मिलता है। वर्तमान समय
में हमारे देश में वीणा के कई प्रकार विकसित हैं, जैसे – सरस्वती वीणा, विचित्र
वीणा, रुद्र वीणा आदि।
वीणा, बाँस या आबनसू की लकड़ी से बनी होती है। इसके दडं े की लंबाई
लगभग 3 फ़ुट होती है। इसमें प्राय: दो तंबु े लगे होते हैं। दो तंबु ों के बीच जो दडं
का हिस्सा है, उसको ‘अस्थाना’ (स्थान) कहा जाता है। इस पर पीतल के 22 से
24 तक परदे लगाये जाते हैं, जो कि अपने स्थान से हटाये या खिसकाये नहीं जा
सकते। इनको ‘सदु रं ी’ या ‘सारिका’ कहा जाता है। इनके ऊपर धातु के चार मख्य ु
तार लगे रहते हैं और पार्शवक में तीन तार रहते हैं। इन पर चिकारी का काम किया
जाता है। बजाते समय वीणा का तंबु ा बाएँ कंधे पर टिका रहता है और नीचे वाला
तंबु ा दाहिने घटु ने के सहारे रखा जाता है। तंत्रियाँ दाहिने हाथ की पहली और दसू री
ऊँगल ु ी, नाखनू अथवा ‘नखी’ या जवा नामक उपकरण से छे ड़ी जाती है और बाँए
हाथ की पहली और दसू री अँगलिय ु ों से तारों को वांछित सारिका पर दबाया जाता
है, जिससे स्वरों की उत्पत्ति होती है। चिकारी के तार प्राय: बाएँ हाथ की छोटी
ऊँगल ु ी से बजाये जाते हैं।

वीणा

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भारत के वाद्य यंत्र

तत वाद्य बनाने की प्र�क्रया

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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

सारंगी
यह यंत्र लकड़ी के एक ही टुकड़े से बना
होता है। जो लगभग 60 से.मी. लंबा होता
है। यह एक खोखला वाद्य है जिसके नीचे
क� ओर संकरे भाग पर खाल मढ़ी होती है,
यह स्वर पेटी की तरह कार्य करता है। ऊपरी
भाग लकड़ी से ढका होता है। इस पर तांत
की बनी चार तंत्रियाँ लगी होती हैं। साथ में
तरबे का तार भी लगा होता है। इसे गज से
भारत भूषण गोस्वामी– सारंगी बजाते हैं तथा ऊँगलिय
ु ों के नाखनू ों से तारों
को दबाकर धनु े निकाली जाती हैं।
सरोद
यह पोली लकड़ी का बना वाद्य है, जो अपेक्षाकृ त उथला
होता है। इसका निचला सिरा गोलाकार होता है। ऊपर
की ओर दडं की चौड़ाई कम होती जाती है। दडं पर धातु
की पत्ती चढ़ाई जाती है। इस पर चार मख ु , तंत्रियाँ, चार
सहायक तंत्रियाँ तथा लगभग एक दर्जन तरब की तंत्रियाँ
लगी होती हैं। सभी तंत्रियाँ धातु की बनी होती हैं। इसे
लकड़ी के छोटे से टुकड़े, जीवा से बजाते हैं। सरोद
वायलिन
वायलिन का मख्य ु भाग दो चौरस से बना
होता है ऊपरी तथा निचला, जो कि एक
दसू रे से लकड़ी के टुकड़े से जड़ु ा होता
है। ऊपरी चौरस में दो छे द होते हैं। ऊपरी
भाग पर जो पेट है वहाँ पर एक पल ु है
जो कि पतला और घमु ावदार होता है
टी.एन. कृ ष्‍णन् – वायलिन ताकि तारों से ‘बोइगं ’ को सरल बनाया
जा सके । बजाने के अतं में चार खटँू े होते हैं जो समान होते हैं। पेट के अतं पर तार
स्थाई होते हैं, छोटे पेंचों के कारण जो शद्ध
ु ट्यनि ू ंग में मदद करते हैं। वायलिन का
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भारत के वाद्य यंत्र

गज पतला तथा लंबा होता है। गज के अतिम


ं छोर पर बाल पर्णू तथा स्थाई होते हैं
और दसू रे छोर पर ये एक हिलने वाला टुकड़ा जड़ु ा रहता है जिन्हें आगे या पीछे
घटाया-बढ़ाया जा सकता है। गज के अदं र के पेंच की सहायता से ये गज की छाल
पर पर्याप्‍त तनाव देता है।
सितार
कहा जाता है कि सितार का आविष्कार
13वीं सदी में अमीर खसु रो ने किया था।
इसमें नीचे की ओर एक गोल तंबु ा होता
है और कभी-कभी दसू रा तंबु ा दरू वाले
सिरे पर जोड़ दिया जाता है। तंबु ा ग्रीवा
के एक ओर चिपका कर बजाया जाता है
इसका ऊपरी भाग काष्‍ठ फ़लक से ढका
सितार
होता है। ग्रीवा से एक लंबी दडं जड़ु ी
होती है, जिसके ऊपर पीतल के गोल पर्दे लगे होते है जिन्हें वांछित स्थान तक
खिसकाया जा सकता है। सरु के लिए तार, जिन्हें चिकारी कहते हैं, लगे होते हैं।
अतिरिक्‍त गँजू के लिए इन मख्य
ु तंत्रियों के नीचे 11 से 17 तक अतिरिक्‍त तार लगे
होते है, जिन्हें ‘तरब’ कहा जाता है।
स�ु षर वाद्य
स�ु षर अर्थात् फँू क से बजने वाले वाद्य। ये दो प्रकार होते हैं – एक वह, जिसमें हवा
श्‍वास द्वारा दी जाती है और दसू रा वह, जिसमें हवा धमनी जैसे कृ तिम साधन से
दी जाती है। श्‍वास द्वारा दी जाने वाली हवा या तो महँु से अथवा फँू क से दी जाती
है या नाक के छिद्रों द्वारा दी जाती है। पहले वर्ग में वश ं ी, बाँसरु ी, सदंु री, काहल,
नागस्वरम,् शहनाई, तार शहनाई, क्लेरिनेट तथा ट्रम्‍पेट जैसे वाद्य का समावेश होता
है। हारमोनियम तथा पियानो वे सषि ु र वाद्य हैं जिन्हें बजाने के लिए धमनी के माध्यम
से हवा दी जाती है।
बाँसरु ी
बाँसरु ी को सबसे प्राचीन वाद्य माना गया है। बाँसरु ी का प्रयोग हमारे शास्‍त्रीय संगीत
में क्षेत्रीय गीत में ज़्यादातर किया जाता है। बाँसरु ी, खोखले, बांच, सबना एक जैसे
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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

वाद्य यंत्र हैं जिसमें एक सिरा खल ु ा


तथा दसू रा बंद होता है। फँू क मारने
वाला सिरा चपटा होता है। बाँसरु ी की
नली में एक छे द होता है तथा निचले
सिरे पर चार छे द होते हैं। वादक फँू क
मारकर इससे ध्वनि उत्पन्न करते हैं
तथा नीचे स्थित छिद्रों द्वारा ऊँगलिय
ु ों बाँसरु ी
के हेर-फे र से धनु े निकालते हैं।
शहनाई
प्राय: यह वाद्य यंत्र विवाह एवं मगं ल प्रसगं ों पर बजाया जाता है। इसका निर्माण
ध्वनि के उन्हीं सिद्धांतों पर हुआ है, जिन पर वंशी का हुआ है। इसकी मख ु नलिका
वंशी की रीढ़ से भिन्न होती है। इसमें हारमोनियम
की रीढ़ की भाँति दो पत्तियों वाली बेंत या धातु की
चाप लगी रहती है। पाश्‍चात्य सषि ु र वाद्य
क्लेंरिनेट इससे मिलता-जल ु ता है, जिसमें
रीढ़ का कार्य बाँस की एक पत्ती से सम्‍पन्‍न
शहनाई किया जाता है। शहनाई में वश ं ी की भाँति 7
स्वरों के छिद्र होते हैं जिन्‍हें ऊँगलिय
ु ों द्वारा
दबाने और खोलने से विभिन्न स्वर पैदा होते हैं। शहनाई की ध्वनि वंशी की अपेक्षा
अधिक निखरी हुई, मधरु और गँजू ने वाली होती है।
नादस्वरम/् नागस्वरम्
दक्षिण भारत में शहनाइर् से मिलता-जल ु ता
एक वाद्य है जिसको ‘नागस्वरम’् कहते
हैं। यह आकार में शहनाई से दगु नु ा लबं ा
रहता है। इस पर 12 छिद्र होते हैं जिनमें से
पाँच को रूई से बदं कर दिया जाता है और
शेष से 7 स्वर निकाले जाते हैं। इसी कारण नादस्वरम/् नागस्वरम्
इसकी ध्वनि शहनाई की अपेक्षा तीक्ष्ण
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भारत के वाद्य यंत्र

रहती है। दक्षिण के के .पी. अरुणाचलम् और पार्टी इस वाद्य के श्रेष्‍ठ कलाकारों में
से एक हैं। नादस्वरम् एक ऐसा यंत्र है जो दरू -दरू तक कर्नाटक संगीत में पहचाना
जाता है। इसकी संरचना कुछ हद तक शहनाई की तरह दिखाई देती है परंतु इसकी
लंबाई शहनाई से ज़्यादा होती है। आध्रं प्रदेश में इसे नागस्वरम् तथा तमिलनाडु में
इसे नादस्वरम् के नाम से जाना जाता है। दो से सौ फुट लंबी नली एवं दो धातओ ु ं से
बनी मख ु नादस्‍वरम या पृथक लकड़ी का लट्ठा ‘अच्छमेरम’ पेड़ से बना होता है,
जो नागस्वरम् मख्य
ु भाग होता है का जिसमें बारह छे द होते हैं। इनमें से सात छे द को
खल ु ा छोड़ दिया जाता है, ताकि जन अग्रभाग उसे ढँके या अनावृत करे तो ध्वनि
नियमित हो सके ।
हारमोिनयम
हारमोनियम एक बक्से जैसा
वाद्य यंत्र है, जिसके चार भाग
होते हैं – पर्दे, वायु प्रकोष्‍ठ,
चाबियाँ तथा रीड। वायमु डं लीय
हवा को अदं र ले जाने हेतु पर्दे
में छे द होते हैं तथा निकालने से
रोकने के लिए उसमें चमड़े के
कपाट होते हैं। हवा अदं र जाने हारमोनियम
के बाद चौकोर पेटीनमु ा वायु प्रकोष्‍ठ में दाब के साथ प्रविष्‍ट होती है। वहाँ भी पर्दे होते
हैं। इस वायु प्रकोष्‍ठ में से हवा तभी निकलती है जब चाबियों को दबाया जाए। किसी
चाबी को दबाने से उससे जड़ु ी पत्ती के नीचे का छोटा छे द खल ु जाता है, जिसमें हवा
वाँछित सरु उत्पन्न करते हुए उससे गज़ु र जाती है।
अवनद्ध वाद्य
अवनद्ध का अर्थ है जो किसी वस्तु से मढ़ी हुई होती है। अवनद्ध ऐसे यंत्र हैं जिनके
छिद्र ढके हुए होते हैं। यह लकड़ी, चिकनी मिट्टी या धातु के बने होते है ये वाद्य
ज़्यादातर जानवर की खाल से मढ़े जाते हैं। इसी के अदं र वायु की गति से तरंगे पैदा
होती हैं और प्रतिध्वनि होती है। जिस कारण कई प्रकार की ध्वनि उत्पन्न होती है।

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मृदगं म्
कर्नाटक और दक्षिण भारतीय सगं ीत में मृदगं म
एक प्रमखु सगं त वाला यंत्र है। मृदगं म शब्द का
साहित्यिक अर्थ होता है चिकनी मिट्टी का अश ं ।
पहले यह सिर्फ़ मिट्टी का बना होता था लेकिन अब
यह लकड़ी का भी बनता है। यह कटहल और नीम
(मारगोसा) वृक्ष की एकल लकड़ी के कंु दे का बना
होता है। यह यंत्र दायें और बायें नली की आकृ ति
का होता है और मध्य में थोड़ा चौड़ा होता है। यह
मृदगं म्
लकड़ी का खोल गँजू ने वाला होता है।
तबला
तबला उत्तर भारतीय संगीत का एक बहुत ही
मख्य
ु संगत करने वाला यंत्र है। इसका नाम तब्ल
शब्द से प्राप्‍त हुआ, जो कि एक अरबी शब्द है।
जिसका अर्थ है ऐसा यंत्र जिसकी आकृ ति ऊपर
की ओर होती है। इस पात्र की बनावट ऊपर से
चौड़ी तथा नीचे की ओर खोखली लेकिन गोल
होती है। इसके दो भाग होते हैं दायाँ और बायाँ
जो कि एक साथ ‘तबला’ कहलाता है। इसका
दायाँ या जो भाग दाँयी ओर बजाया जाता है। वह
अकरम खान – तबला शीशम, खैर, नीम या आम की लकड़ी का बना
होता है। इसका बायाँ भाग जो बायीं ओर बजाया जाता है वह तांबा, स्‍टील और
मिट्टी का बना होता है। ये दोनों अदं र से खोखले होते है। दोनों भागों के ऊपरी भाग
बकरे के चमड़े की झिल्ली से बने होते हैं। इसके किनारे संकरे होते हैं जो कि चमड़े
की डोरी से बनते हैं और गजवा कहलाते हैं। गजवा गाय, भैंस या बकरे के चमड़े से
बने होते हैं जो ‘बदध् ी’ कहलाते हैं।

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भारत के वाद्य यंत्र

अवनद्ध वाद्य बनाने की प्रक्रिया

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पखावज
पखावज का प्रयोग हिदं स्ता ु नी
शास्‍त्रीय सगं ीत में ध्परु द, धमार और
वीणा, सरु सिंगार और सरु वहार जैसे
यंत्र के साथ होता है। हिदं स्ता ु नी
प्रणाली में यह शास्‍त्रीय सगं ीत के
तालबद्ध संगत में उपयोग होता है,
पखावज
इसके अलावा यह कत्थक नृत्य के
संगत में भी उपयोगी है। पखावज की संगती लोक नृत्य, भजन तथा लोकगीतों में
भी प्रचलित है। यह शीशम, विजयसार, लाल चदं न की लकड़ी और खैर की लकड़ी
की बनी होती है। इस यंत्र की लंबाई 60 से.मी. के करीब होती है। इसका एक भाग
बड़ा होता है और इसका आकार ‘जौ’ के दाने के जैसा होता है।
ढोल
ढोल एक प्रसिद्ध यंत्र है जो कि भारत के बहुत से
भागों में उपयोग होता है जिसमें विभिन्न प्रकार
के तालबद्ध नमनू े हैं। यह बेलनाकार ढाँचे का
खोखला यंत्र लकड़ी या बाँस का बना अश ं होता
है जिसके दो खल ु े भाग खाल या झिल्ली से ढके
होते हैं। उत्तर प्रदेश में कभी-कभी यह अदं र से
अरंडी के बीजों के गदू े से भरा होता है जो तेल
ढोल को निष्कर्षित करने के बाद प्राप्‍त होता है।
ढोलक/ढोलकी
दोनों एक ही यंत्र के नाम हैं। यह दो महँु वाला
बेलनाकार या नली के आकार का यंत्र है जो कि
प्राचीन काल से प्रयोग में लाया जा रहा। ढोलक
आम, शीशम, टीक, नीम और जामनु की लकड़ी
के कंु दे से बनता है और उसका अश ं खोखला
होता है। इसका दायाँ और बायाँ भाग प्रायः बकरे
ढोलक
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भारत के वाद्य यंत्र

के चमड़े की झिल्ली से ढका होता है। ढोलक के दाएँ भाग को जो झिल्ली ढकती है
वह बाएँ भाग से पतली होती है, इस कारण बायें भाग की ऊँचाई दायें भाग से नीची
होती है। चमड़े की चादर का अदं र का भाग जो बायें भाग को ढकता है उसमें स्याही
लगाई जाती है, जो गहरी और शानदार ध्वनि देता है।
ढाक/ओगू
ढाक पश्‍चिम बंगाल, असम और ओडिशा में
पाया जाता है। यह दर्गा
ु पजू ा में खबू सनु ने को
मिलता है। ढाक लकड़ी का बना होता है जिसका
आकार नली जैसा होता है और इसका खल ु ा भाग
जानवर के बाल से कसकर ढका होता है। इसका
एक छोर मोटी खाल का बना होता है जबकि दसू रा
भाग पतली खाल से ढका होता है यह दो हल्के
और पतले डंडे से बजाया जाता है अदं र से ढाक
कभी-कभी जौ के बीज के गदू े से भरा होता है। ढाक/ओगू

थाविल / तविल
थाविल / तविल कर्नाटक सगं ीत के यंत्र
हैं। ये यंत्र दोनों ही लोक संगीत और
व्यवस्थित आयोजन संगीत में बजाये जाते
हैं। यह नली के आकार के यंत्र हैं जो प्रायः
कटहल की लकड़ी के बने होते हैं।
थाविल । तविल
चेण्डा
चेण्डा के रल का एक बहुत ही प्रसिद्ध
अवनद्ध यंत्र है। यह नली के आकार की
ढोलक है यह कटहल की लकड़ी से बनी
होती है और दोनों तरफ ढकी होती है।
चेण्डा की लंबाई करीब 60 से.मी. और
चेण्‍डा

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व्यास करीब 22 से.मी. है। अश


ं का एक भाग गोल है, जबकि दसू रा थोड़ा चतर्भुज

आकार का है।
एडाएक्का
एडाएक्का के रल की पारंपरिक ढोलक है। यह भक्‍ति
सगं ीत जैसे सोपान के लिए उपयोग होती है। इस ढोलक
को खास परिवारों के सदस्य ही बजा सकते हैं। इसका
आकार नली जैसा है जो कि चदं न और कटहल की
लकड़ी से गढ़ी हुई होती है।
घन वाद्य एडाएक्‍का

लकड़ी के दो छोटे डंडे, मिट्टी के बने घड़े, धातु से निर्मित मजं ीरा, घटा इत्‍यादि जो
सगं ीतोपयोगी हो, उन्‍हें घन वाद्य कहते हैं। इन वाद्याें का निर्माण इस प्रकार होता
है कि इसे हम विभिन्‍न स्‍वरों के साथ नहीं मिला सकते। ढालने के समय ही श्रुति
निश्‍चित कर दी जाती है, लेकिन ये वाद्य बजाना अाम जनमानस के लिए आसान
होता है और इस कारण संगीत, नाटक आैर नृत्‍य सभी में प्रयोग होता है।
डाँडिया
डाँडिया, डंडों का एक जोड़ा है जो कि एक फुट तक लंबा है,
बाँस और लकड़ी के ठोस कंु दे से बना होता है। संदु र तरीके
से सजाया और रंगा हुआ होता है। ये डंडे नृत्य में ताल देते
हैं जिसमें नर्तक/नर्तकी गोलाकार नमनू ों से घमू ते हुए विभिन्न
लयकारी प्रदर्शित करते हैं। ये डंडे गाने की लय के साथ
डाँडिया एक-दसू रे से टकराये जाते हैं गीत भी सभी मिलकर गाते हैं।
तालबद्ध डंडों का टकराना और नर्तकों की चाल, ढोल और नगाड़े की ताल से यह
बहुत ही मनभावन वातावरण बनाता है।
मंजीरा
ये धातु के बर्तन होते हैं जो कि हमेशा एक-दसू रे से टकराने में काम आते हैं। इनका
आकार प्याले की तरह होता है। ये बर्तन पीतल धातु या टीन की मिलावट से बने
होते हैं और बीच में छिद्र होने के साथ ये ऊपर की ओर संकरे और गोल होते हैं।

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भारत के वाद्य यंत्र

छिद्रों से होते हुए एक तार डोरी गाँठ से बँधा हुआ


होता है। ये एक ही डोरी तार से बँधा होता है जो
कि इसे गिरने से बचाता है। वादक जड़ु ी हुई डोरियों
और तार के दोनों टुकड़ों को अपने अँगठू े और
ऊँगलिय
ु ों के बीच पकड़ते हैं। यंत्र बजाने के लिए
अपने हाथों के चारों ओर बाँधने से आरामदायक
पकड़ मिलती है। ये क्षेत्रीय संगीत का अहम हिस्सा मजं ीरा
है और शास्‍त्रीय नृत्य जैसे – भरतनाट्यम, ओडिशी, कुच्चीपड़ु ी और मणिपरु ी में
भी बहुत ही अहम किरदार निभाते हैं और तालबद्ध नमनू ों को सश ु ोभित करने वाला
बनाते हैं। राजस्थान के कामराह समदु ाय द्वारा किया जाने वाला नृत्य ‘तेरा ताली’
जो कि औरतौं के समहू ों द्वारा मजं ीरे बजाकर प्रस्तुत किया जाता है। ये औरतें मजं ीरों
के जोड़ों को अपनी कलाई, पैरों में बाँधकर अपने हाथों में भी पकड़ती हैं। मजं ीरों
से लय बनाते हुए नृत्य करती हैं। ये औरतें अपने हाथों में बंधे हुए मजं ीरों से दसू रे
मजं ीरों की सहायता से परू े शरीर में बंधे हुए मजं ीरों से टकराती हैं। तेरा ताली के ही
समान गजु रात में भी यह नृत्य परुु षों द्वारा किया जाता है।

चिमटा
यह हर भारतीय रसोई घर में पाया जाता है।
रसोई घर से ही मानव बद्धिु ने इसे विकसित
कर संगीतोपयोगी बनाया है। चिमटा का
स्थान क्षेत्रीय सगं ीत, भजन-कीर्तन और
पंजाबी नृत्य करने में उपयोगी है।
चिमटा
घुँघरू
लोक प्रदर्शन कलाओ ं और शास्‍त्रीय नृत्य में ये वाद्य अकसर देखने को मिलता है,
घघँु रू गोल आकार की घटिय ं ाँ हैं। नर्तक इन घटिय
ं ों को पहनते हैं जो कि एक साथ
ज़्यादातर डोरी से गँथू े होते हैं। नर्तकों की चाल तालबद्ध नमनू ों में दर्शायी जाती

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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

है जिसमें यह वाद्य यंत्र बहुत काम आता है। हर


एक चाल के साथ वो घघँु रू की ध्वनि को तालबद्ध
नमनू े में जोड़ते हैं। घघँु रू पीतल को साँचे में ढालकर
बनाया जाता है। घटं ी में एक छिद्र छोड़ा जाता है,
जिसमें लोहे और पत्थर टाँके जाते हैं। घघँु रू
जल तरंग
जल तरंग का साहित्यिक अर्थ होता है ‘पानी की लहर’। यह बहुत ही परु ाना यंत्र
है, जिसमें 16 कटोरे / प्याले जो
कि विभिन्न मात्राओ ं के जल से
भरे होते हैं, प्रयोग में लाये जाते
हैं। इसकी मधरु ध्वनि परू ी तरह
आनंददायक होती है। कटोरे /
प्याले या तो पीतल अन्यथा
चीनी मिट्टी के बने होते हैं जो
जल तरंग विभिन्न आकार के होते हैं। प्याले
में जल के आयतन के आधार पर स्वरमान तय किया जाता है। ये कटोरे ज्‍़यादातर
अर्ध गोल आकार के होते हैं, वादक अपने सामने कटोरों को रखकर, जहाँ तक वह
आसानी से पहुचँ जाए, एक पतली लकड़ी से इसे बजाते हैं। बायीं ओर के कटोरे
आकार में बड़े होते हैं और मद्रं सप्‍तक के स्वरों में मिले होते हैं। दाँये ओर के कटोरे
छोटे होते हैं और मध्य और तार सप्‍तक के स्वरों में मिले होते हैं। वाद बांस के डंडों
से प्यालों पर धीरे से चोट पहुचँ ाते हैं, टकराने वाले भाग रूई से बंधे होते हैं। पात्र में
जल की गति और गहराई से मनचाही ध्वनि
बनाई जा सकती है।
डफ़/चंग/घेरा
धातु का छिलका या लचीली लकड़ी को
साँचे में ढालकर और गोल आकार में बकरे ,
बैल या भेड़ की झिल्ली से ढककर ये यंत्र
डफ़

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भारत के वाद्य यंत्र

बनाए जाते हैं। जिसका व्यास बड़ा होता है वह ‘डफ़ली’ कहलाता है। चगं , घेरा
छोटे आकार में होते हैं। होली के त्यौहार में राजस्थान, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में
डफ़ बजाये जाते हैं।
खंजीरा
खजं ीरा मख्य
ु तः कर्नाटक सगं ीत में प्रयोग किया
जाता है। यह छोटी ढोलक है जो कि उत्तरी
भारतीय लोक यत्रं डफ़ से मिलता-जल ु ता है।
यह कटहल की लकड़ी, पीतल या लोहे से
बना है जो कि गोल आकार में होते हैं। 9 इचं से
12 इचं तक के बीच इनका व्यास होता है और
2 से 4 इचं तक इसकी गहराई होती है। यह
एक तरफ से ढका होता है। यह इगनयु ा नामक
जानवर के चमड़े से ढका होता है, जो कि
खजं ीरा
छिपकली की एक प्रजाति है।

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सगं ीत का आनंद

मनष्यु के आनंद की सहज अभिव्यक्‍ति है संगीत! जब हम बेहद खश ु होते हैं तो


मन गा उठता है, हम गनु गनु ा उठते हैं। इसके विपरीत यदि आप उदास हैं, चिति ं त हैं
या तनाव में हैं तब भी संगीत सनु कर मन का भाव बदल जाता है। उदासी के बादल
छटने लगते हैं, मन तनाव मक्ु ‍त होने लगता है। इस तरह अगर संगीत का जन्म आनंद
से होता है तो हमारे लिए आनंद का सृजन भी संगीत करता है।
भारतीय सगं ीत के विविध प्रकार हैं, जैसे – शास्‍त्रीय सगं ीत, उप शास्‍त्रीय
संगीत, सगु म संगीत, फि़ल्म संगीत और लोक संगीत। लोक संगीत तो अपने साथ
लोक को भी जोड़ लेता है जहाँ गायक आैर वादक को सनु ने वाला समहू भी साथ
में गाने/नाचने लगता है। इसी तरह फ़िल्मी संगीत से भी लोग आसानी से जड़ु जाते
हैं क्योंकि हर प्रकार के मानवीय भावों से जड़ु े फ़िल्मी गीत उपलब्ध हैं, जिनके साथ
आप सहज ही संवाद बना लेते हैं। सगु म संगीत समझने की दृष्‍टि से भी सगु म यानी
आसानी से सनु ा-समझा जा सकता है।
शास्‍त्रीय सगं ीत के आनंद लाभ के लिए उसके प्रति रुझान और थोड़ी समझ
होना ज़रूरी है। शास्‍त्रीय संगीत के वल हमारा मनोरंजन ही नहीं करता वह हमें
सस्का
ं रित/शिक्षित भी करता है। अच्छा शास्‍त्रीय सगं ीत सनु कर हम आनंद की उस
अनभु ति ू को महससू करते हैं जो हमारे भीतर की अच्छाई को उद्वेलित करती है। यह
अनभु िू त हमारे अदं र स्थित दैवी
तत्व को उद्दीप्‍त करती है। हमें
एक आध्यात्मिक परितष्‍टि ु देती
है। लेकिन इस एहसास को पाने
के लिए उसकी थोड़ी बहुत समझ
होना ज़रूरी है और इसका सबसे
कारगर उपाय है अच्छा संगीत
सनु ना। शरुु आत में श्‍ाास्‍त्रीय
सगं ीत का आनंद लेते हुई स्कू ली छात्रा

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संगीत का आनंद

सगं ीत इतना आनंददायक नहीं लगता, लेकिन नियमित रूप से लगातार सनु ते-सनु ते
उसके प्रति रुचि जाग्रत होने लगती है। भले ही आप उसकी व्याकरण न समझें पर
उसमें ऐसा कुछ ज़रूर होता है जो हमें अदं र तक रससिक्‍त करता है।
संगीत के इस आनंद को पाने की लिए सनु ने की कला विकसित करनी पड़ती
है। विद्यार्थियों को हर प्रकार के संगीत को सनु ने का अवसर प्रदान करना चाहिए।
इस दिशा में ‘स्पिक मैके’ जैसी संस्थाएँ प्रशसं नीय कार्य कर रही हैं। प्राथमिक और
माध्यमिक स्कू लों में गाने-बजाने के
अलावा सनु ने की कला भी सिखाई
जानी चाहिए। इसके लिए अच्छे
संगीत के कै सेट, सी.डी., डी.वी.डी.
इत्यादि दिखाने आैर सनु ने के अलावा
अच्छे कलाकारों को भी आमत्रि ं त
किया जा सकता है जो अपनी कला
के प्रदर्शन के साथ-साथ उसके बारे में
थोड़ी बहुत जानकारी भी दे सकें । नृत्य करते स्कू ली छात्र
ऐसे आमत्रि ं त कलाकार विद्यार्थियों के साथ अपने अनभु व भी बाँट सकते हैं
कि बचपन में किस तरह संगीत के प्रति उनकी रुचि जाग्रत हुई, किस प्रकार उन्हें
संगीत सीख पाने की सविध ु ा और सौभाग्य मिला और उसके लिए उन्हें कितना
परिश्रम करना पड़ा। संगीत साधना का क्या महत्व है और यह साधना हमें अदं र से
कितना समृद्ध करती है और अभ्यास से कलाकार को अपनी कला से स्वयं कितना
आनंद मिलता है।
शास्‍त्रीय सगं ीत के वल गाने-बजाने वाले कलाकार को ही नहीं, बल्‍कि उसके
सनु ने वाले को भी आध्यात्मिक ऊँचाइयों तक ले जाता है। आनंद के उन क्षण में
हमारे अदं र की ईर्ष्या, द्वेष, घृणा सब खत्म हो जाते हैं। नकारात्मक भावनाओ ं का
स्थान उस आनंद से उपजी सकरात्मक सोच ले लेती है।
आजकल जिस तरह का माहौल है उसके चलते बच्चों में नकारात्मक प्रवृत्ति
घर करती जा रही है। उनमें धैर्य कम होता जा रहा है। बड़ों के प्रति, आपसी प्रेम
और सौहार्द्र दिखाई नहीं देता क्योंकि कंप्यूटर गेम्स से लेकर सिनेमा तक में मारधाड़
देखकर अनजाने ही उसकी मन में नकारात्मक सोच पनपने लगती है।

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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

इसके निराकरण का सबसे कारगर उपाय है सगं ीत। अच्छा सगं ीत सीखना ही
नहीं सनु ना भी उसके कोमल मन को अच्छाई की ओर प्रवृत्त करे गा। प्रतिद्वंदिता से
उपजे ईर्ष्या आैर द्वेष की जगह स्वस्थ स्पधार् ले लेगी और सबसे बड़ी बात सगं ीत
उन्हें धैर्यवान और एकाग्रचित भी बनाएगा।
प्रश्‍न उठता है िक संगीत में अभिरुचि जाग्रत करने के लिए उन्हें किस प्रकार
का संगीत सनु ाया जाए। छोटी कक्षाओ ं के लिए शरुु आत लय/ताल प्रधान संगीत
से की जा सकती है जिसके साथ गाकर या ताली बजाकर उन्हें निश्‍चय ही आनंद
आएगा। उसके लिए लोक संगीत से लेकर लोकप्रिय फि़ल्म संगीत तक का चनु ाव
किया जा सकता है।
फि़ल्मों से अच्छे बालगीत भी छाँटे जा सकते हैं, जैसे – ‘चँू चँू करती आई
चिड़िया दाल का दाना लाई चिड़िया’ इस गीत में पश-ु पक्षियों से भी परिचय होगा
और लय-ताल से भी। ‘आओ बच्चों तम्ह ु ें दिखाएँ झाँकी हिदं स्ता
ु न की। उस मिट्टी
से तिलक करो ये धरती है बलिदान की। वंदे मातरम।् ’
ऐसे अनेक गीत हैं जिनकी लय का
बच्चे आनंद लेंगे और गीत के बोलों से
प्रेरणा लेंगे।
फि़ल्मी गीतों में प्रकृ ति चित्रण के भी
असंख्य गीत हैं जिनके द्वारा बच्चे पेड़-पौधे,
चाँद-तारे , सर्योदय
ू -सर्यास्त
ू , गोधलि ू और
भोर की बेला या अलग-अलग ॠतओ ु ं में
कला उत्स‍व में भाग लेते हुए स्कू ल के छात्र प्रकृ ति के सौंदर्य को सराह सकें गे।
लोक गीत
लोक गीतों की फड़कती लय एक ओर जहाँ उन्हें उल्लसित करे गी वहीं उसके शब्द
उन्हें अपने देश के विभिन्न अचं लों/भागों की सांस्कृतिक पहचान कराएँगे। ये गीत
विविध प्रदेशों की भाषा, रीति-रिवाज, रहन-सहन की जानकारी बच्‍चों को खेल-
खेल में ही दे डालेंगे।
इन गीतों के माध्यम से बच्चों में भाषा और बोली के प्रति भी आकर्षण जागेगा।
यह सांगीतिक शरुु आत उनके मन में साहित्य के प्रति भी अनरु ाग के अक ं ु र बीज
रूप में डालेगी। इन गीतों के माध्यम से वे ऐतिहासिक और सामाजिक ज्ञान सहज
ही अर्जित कर सकें गे।
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संगीत का आनंद

प्रचलित फि़ल्मी लोकप्रिय गीतों और लोक गीतों के बाद शिक्षक उन्हें


धीरे -धीरे शास्‍त्रीय संगीत की ओर प्रवृत्त कर सकते हैं। ध्यान रखें, शरुु आती दौर
में उन्हें राग, ताल की व्याकरण में न उलझाएँ। स्वरों के नाम, राग, सप्‍तक, वादी,
संवादी का झमेला न पालें। बस उन्हें छोटी-छोटी बंदिशें सिखाएँ। सरगम गीत भी
उन्हें रुचिकर लग सकते हैं।
वाद्य सगं ीत
बच्चों को वाद्य संगीत के रिकॉर्ड भी सनु ाए जा सकते हैं। शरू ु -शरू ु में आलाप, जोड़,
झाले सहित रागदारी वाली एलबमों के स्थान पर वाद्यवृंद रचनाएँ सनु ाएँ और उन्हें
उन वाद्यों की आवाज़ पहचानने की ओर भी
प्रवृत्त करें । एक बार तबला, सितार, सरोद
आदि की आवाजें़ पहचानने के बाद इसमें
उन्हें लकु ाछिपी के खेल जैसा आनंद आएगा।
भारतीय वाद्यों से जान-पहचान और दोस्ती
हो जाएगी तो उन्हें ‘की-बोर्ड’ नमु ा पाश्‍चात्य
इलेक्ट्रॉनिक वाद्यों के बजाय एक अच्छा
विकल्प मिलेगा। नृत्य का आनंद लेते हुए स्कू ल के छात्रगण
बच्चे आजकल सगं ीत को की-बोर्ड और स्पैनिश गिटार इत्यादि से ही जोड़कर
सोचते हैं, क्योंकि फ़िल्मों इत्यादि में उन्हें वही दिखाई देते हैं। उन्हें पता ही नहीं है
कि भारतीय वाद्य सपं दा कितनी समृद्ध है। सगं ीत नाटक अकादमी अथवा राष्ट्रीय
सग्रं हालय में भारतीय वाद्यों का अच्छा सक ं लन हैं आैर उन्हें वहाँ ले जाना भी कारगर
सझु ाव होगा, जिससे जिन वाद्यों की आवाज़ वे पहचान चक ु े हैं, उन्हें देख भी सकें ।
संगीत का आनंद लेते हुए कलाकार

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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

बच्‍चों की पाठ्य पस्त


ु क की सदंु र कविताओ ं को भी सगं ीत में पिरोया जा
सकता है। सरल स्वर सयं ोजन एवं चलती हुई दादरा या कहरवा की लय में बँधी ये
कविताएँ उनकी जानी पहचानी होने के कारण उन्हें और ज़्यादा आकर्षित करें गी।
प्रारंभिक कक्षाओ ं में सगं ीत का आनंद लेना यदि बच्चे सीख जाएँ तो निश्‍चय ही
बेहतर इसं ान बनेंग।े खशु रहना उनका स्वभाव बन जाएगा और बरु ाई उनके पास भी
नहीं फ़टके गी।
छ्ठी से आठवीं कक्षाओ ं में सगं ीत के लिए सझ
ु ाव
लोकप्रिय फ़िल्मी गीत जिनकी विषय-वस्तु साफ़-सथु री और शोभनीय हो, बच्चों
के लिए लाभकारी हो सकते हैं, जैसे –
लोक गीत
विविध प्रदेशों के लोकगीत ऋतु गीत
संस्कार गीत नौका गीत
देश भक्‍ति के गीत
मार्चिंग गीत प्रकृ ति चित्रण
पश-ु पक्षियों के गीत खेल-कूद के गीत
उप शास्त्रीय सगं ीत
सरल बंदिशें (शरुु आती रागों की) सरगम गीत
चतरु ं ग तराने
वाद्य सगं ीत
तबला, पखावज, ढोलक, करताल
वाद्यवृंद की सरल रचनाएँ
सितार, सरोद, संतरू , जल तरंग इत्यादि।
रागों पर आधारित आधनि ु क ‘फ़्यूज़न’ जैसी रचनाएँ भी बच्चों को आकर्षित
कर सकती हैं।
(एन.सी.ई.आर.टी. एवं प्रसार भारती द्वारा प्रकाशित डी.वी.डी., जिसकी सचू ी इस
किताब के अतं दी गई है, जिसमें विविध प्रांतों के गीत मिलेंगे।)

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सगं ीत, सघं र्ष
और सफलता

संगीत के क्षेत्र में यह मान्यता बहुत मशहूर है कि संगीत और संघर्ष का बहुत परु ाना
और गहरा रिश्ता है। यह इसलिए है कि शायद सगं ीत की धरती पर सफलता के वृक्ष
को अपनी जड़ें जमाने में शायद कुछ अधिक ही समय लग जाता है। किंतु सफलता
के वृक्ष जब लग जाते हैं और फल देने लगते हैं, तो फिर उन फलों का स्वाद इतना
मीठा लगता है कि सघं र्षकाल की सारी कड़वी आैर खट्टी यादों को भल ु ाकर सिफ़र्
सफलता का स्वाद चखना चाहते हैं। लेकिन, यह बात काफ़� हद तक सही है कि
सगं ीतकार को सफलता की मजि ं ल तक पहुचँ ने के लिए प्रायः सघं र्ष भरे रास्तों से
गज़ु रना ही पड़ता है। (वैसे भी, दनियु ा में किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्‍त करने के
लिए मेहनत तो करनी पड़ती है। ऐसा भला कौन है जिसे बिना संघर्ष, बिना मेहनत
किए ही सब कुछ मिल गया हो।)
उदाहरण के लिए, भारतरत्न से विभषि ू त प्रथम सगं ीत विभति
ू एम.एस. सब्बुु लक्ष्मी
के सघं र्ष पर्णू जीवन को देखा जा सकता है। सब्बु ु लक्ष्मी का जन्म एक आर्थिक रूप
से कमज़ोर संगीतज्ञ परिवार में हुआ था। इन्हें
बचपन में ही अपनी छोटी-छोटी ज़रूरतों को
परू ा करने के लिए मोहल्ले के बच्चों को सगं ीत
सिखाकर और छोटे कार्यक्रमों से धन कमाना
पड़ता था। कमज़ोर आर्थिक स्थिति के कारण ही
सब्बु
ु लक्ष्मी को मात्र 10 वर्ष की उम्र में सगं ीत
की व्यावसायिक दनिय ु ा में प्रवेश करना पड़ा।
उन दिनों इनके पास ग्रामोफ़ोन प्लेयर खरीदने
तक के लिए पैसे नहीं थे। अतः इनके पड़ोस के
एम.एस. सबु ्‍बुलक्ष्‍मी घर में जब ग्रामोफ़ोन प्लेयर पर कोई गाना बजता
तो ये खिड़की खोलकर खड़ी हो जाती और मनोयोगपरू ्वक उस गाने को सनु तीं।
फिर अवकाश मिलने पर उस सनु े हुए गाने को गाने का प्रयास करतीं। इस तरह
कठिनाईयों से लड़ते हुई, वे प्रगति के पथ पर निरंतर आगे बढ़ती रहीं।

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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

उन दिनों लड़कियों, खासकर गरीब घर की लड़कियों की शादी कम उम्र में ही


कर दी जाती थी। सब्बु ु लक्ष्मी की माँ ने भी तेरह वर्षीय सब्बु
ु लक्ष्मी का विवाह एक
धनी और सभ्रां ं त परिवार में करने की तैयारी कर ली थी। किंतु जब सब्बु ु लक्ष्मी को
जब इसका पता चला तो उन्होंने उस कच्ची उम्र में भी उस विवाह का विरोध किया।
वे बोलीं, “मेरा सपना पहले अपने पैरों पर खड़ा होना है, एक कलाकार के रूप में
स्वयं को स्थापित करना है, विवाह की बात तो मैं अभी सोच भी नहीं सकती हू।ँ ”
और शादी टल गई। इतिहास गवाह है कि कालांतर में सब्बु ु लक्ष्मी ने जिन ऊँचाईयों
को छुआ, गायिका और फ़िल्म नायिका के रूप में उन्होंने जो अर्थ कमाया, जो
वैभवपर्णू जीवन उन्होंने जिया, वह सामान्य लोगों की पहुचँ तो क्या कल्पना से भी
परे है।
भारतरत्न से अलंकृत महान सितार वादक पं. रवि शक ं र का बचपन एम.एस.
सब्बु
ु लक्ष्मी के बचपन से बिल्कु ल अलग था। उनका जन्म एक संभ्रांत धनी परिवार
में हुआ था। उनसे 18 वर्ष बड़े उनके भाई
प.ं उदयशक ं र अतं राष्ट्रीय स्तर के कलाकार
थे। इसीलिए पं. रवि शक ं र को बचपन से
ही देश-विदेश घमू ने और महान लोगों से
मिलने का अवसर मिला। उनकी आरंभिक
शिक्षा-दीक्षा भी पेरिस में हुई। किंतु प.ं रवि
शक ं र ने जब उस्ताद अलाउद्दीन खाँ से सितार
सीखने का निश्‍चय किया तो उन्हें लंदन और
पेरिस जैसे शहरों का मोह त्याग कर मैहर जैसे पं. रवि शक
ं र
छोटे शहर में आना पड़ा। तब वातानक ु ू लित
कमरों में नर्म, मलु ायम, गद्देदार बिस्तर पर सोने के अभ्यस्त पं. रवि शक ं र को
साधारण चारपाई पर सोना पड़ता था। रात भर मच्छर काटते थे, दीवार पर दौड़ती
छिपकलियाँ उन्हें डराती थीं। रात में हवा चलने पर दरवाज़े और खिड़कियाँ
ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ें करते और वे डरकर उठ जाते। सख ु -सविध
ु ाओ ं भरे जीवन
जीने के अभ्यस्त पं. रविशक ं र न के वल सितार सीखते समय, बल्कि सीखने के बाद
भी स्वयं को एक कलाकार के रूप में स्थापित करने के लिए कठिन सघं र्ष करते रहे।
एक समय ऐसा भी था जब इनके पास घर में चेहरा देखने के लिए आइना भी नहीं

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संगीत, संघर्ष और सफलता

था। लेकिन आज प.ं रविशक ं र जिस शान और शौकत की ज़िदं गी जी रहे हैं वह
किसी के लिए भी आकाश कुसमु है।
भारतरत्न प्राप्त पाश्‍वर् गायिका लता
मगं ेशकर की कहानी भी बहुत अलग नहीं है।
वे जब मात्र 13 वर्ष की थीं तब उनके पिता
पं. दीनानाथ मगं ेशकर का निधन हुआ। 13
वर्षीय लता 5 भाई-बहनों में सबसे बड़ी थीं।
4 भाई-बहनों के अलावा विधवा माँ की
ज़िम्मेदारी भी लता के नाज़ुक कंधों पर आ
गई। उन दिनों अपने शभु चितं कों के सझु ाव
लता मगं ेशकर
पर उन्होंने फि़ल्मों में छोटी-छोटी भमू िकाएँ
भी निभाई और गाने भी गाए। एक फ़िल्म में ऐसा ही एक दृश्य था। िजसमें लता
मगं ेशकर को सड़कों पर गीत गाते हुए भीख माँगना था। लता के साथ उनकी तीन
बहनें और भाई भी हाथ पसारे हुए उनके साथ चल रहे थे। ऐसा लग रहा था, जैसे
लता अभिनय नहीं कर रही हैं, अपनी जि़दगी जी रही हैं। इस काम के लिए उन्हें 25
रुपये प्रतिमाह मिलते थे।
लता उन दिनों स्वयं को स्थापित करने के लिए संघर्ष कर रही थीं, एक दिन
संगीत निर्देशक नौशाद अली ने उन्हें स्वर परीक्षण के लिए सबु ह दस बजे पहुचँ ने
के लिए कहा। जिस दिन लता को नौशाद अली के पास पहुचँ ना था, उससे एक
दिन पहले से मबंु ई में मसू लाधार बारिश आरंभ हो रही थी। नौशाद मान चक ु े थे
कि इस तेज बरसात में लता मगं ेशकर नहीं आएँगी। लेकिन वे बरु ी तरह से चौंक
पड़े जब ठीक समय पर लता को अपने सामने देखा। बरु ी तरह भीगी लता हाथ
में एक फ़टी छतरी पकड़े खड़ी थी। नौशाद कुछ कहते, उससे पहले लता बोल
पड़ीं – “नौशाद साहब, मैं बस से उतरी ही थी कि बारिश तेज़ हो गई। परे ल टी.टी.
से यहाँ तक पैदल आना पड़ा। रास्ते में पानी भरा था और छतरी तो आप देख ही रहे
हैं। चकि
ँू , आपने बल ु ाया था, इसलिए न आने का तो प्रश्‍न ही नहीं था।” भारतरत्न
लता मगं ेशकर आज एक जीवंत किवदिं त बन गई हैं।
नौशाद साहब को भी सफलता यँू ही चाँदी की थाली में सजाकर किसी ने नहीं दी
थी। अपने शरुु आती दिनों में वे लखनऊ में एक वाद्य यत्रों
ं की दकु ान में साफ़-सफ़ाई व

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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

ग्राहक के आने पर वाद्यों को दिखाने आदि का काम


किया करते थे। उन्हें हारमोनियम बजाने का शौक शरूु
से ही था। उस ज़माने में मक ू फि़ल्में बना करती थीं।
नौशाद साहब तब फ़िल्मी पर्दे पर चल रहे गीत, नृत्य
दृश्य के साथ लाइव हारमोनियम वादन किया करते
थे। बाद में वे मबंु ई पहुचँ ।े तब तक मक ू फ़िल्मों ने
बोलना शरू ु कर दिया था। अतः उन्होंने हारमोनियम
बजाना छोड़कर सगं ीत निर्देशन का काम शरूु किया,
और कालातं र में श्रेष्‍ठतम सगं ीत निर्देशकों की पक्‍ति
ं नौशाद अली
में आ खड़े हुए।
नौशाद अली की तरह सगं ीत निर्देशक अनिल विश्‍वास का जीवन भी
उतार-चढ़ाव से भरा हुआ था। बागं ्लादेश के एक छोटे से गाँव से चलकर कोलकाता
और मबंु ई आने तक उनकी यात्रा काफ़� दर्द भरी थी।
कितने ही दिन बिना खाए-पिए रहे, दक ु ान की पटरियों पर
सोये... अनेक प्रकार के छोटे-मोटे कार्य किये। उन दिनों
जब वे किसी से काम माँगने जाते थे और कोई पछू ता था
कि तमु क्या काम कर सकते हो तो अनिल जी तपाक से
कहते थे कि जतू ा सिलाई से लेकर चडं ी पाठ तक का सारा
काम। उन्होंने विविध प्रकार के काम किए। लेकिन उन्होंने
मेहनत करके बड़े-बड़े गायक जैसे – तलत, महमदू ,
अनिल विश्‍वास
मकु े श जैसे न जाने कितने कलाकारों की आवाज़ बारीकी
से तराश कर पेश की। साथ ही, फिल्म सगं ीत में भी अपने
मौलिक कल्पनाओ ंका अमिट रंग भरा। इसीलिए तो उनके देहातं के उपरातं भी वे अमर
हो गए।
थोड़ा और पीछे लौटें तो अली अकबर, अन्नपर्णा ू देवी, निखिल बैनर्जी,
शरन रानी, तिमिर वरन् ज्योतिन भट्टाचार्य आदि जैसे अनेक महान कलाकारों के
महानतम् गरुु अलाउद्दीन खाँ का जीवन भी संघर्ष से परिपर्णू रहा। ये महीने-महीने
भर तक गरुु ओ,ं उस्तादों के दरवाज़े पर पड़े रहते, दर-दर भटकते, सिर्फ़ संगीत
सीखने के लिए गरुु ओ,ं उस्तादों के यहाँ झाडू लगाते, झठू े बर्तन माँजते और यह

102

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संगीत, संघर्ष और सफलता

सब करने के बाद बाकी बचे समय में संगीत की साधना करते। उस दौर में इनके
पास इनका अपना सरोद भी नहीं था, जिस पर ये रियाज़ करते। आखिर! भाग्य भी
कब तक इनकी इतनी परीक्षा लेता! जब संगीत की देवी इन पर मेहरबान हुई तो
हालात यह हो गये कि जिस शिष्य के सिर पर हाथ रख दिया वही महान हो गया।
संगीत के इतिहास में एक साथ इतने महान कलाकारों को प्रशिक्षित करने वाला
इतना बड़ा उदाहरण शायद ही कोई और मिले। अलाउद्दीन खाँ के जीवन में एक
समय ऐसा भी आया था, जब इनके माता-पिता और सास-ससरु द्वारा इन्हें मृत
मान लिया गया था। लेकिन, ऐसा कुछ नहीं हुआ था, क्योंकि उन्हें मैहर घराने जैसे
एक नवीन वादन शैली और तकनीक का सृजन जो करना था। संगीत के आकाश
में दीप्यमान सर्यू की तरह आज भी जगमगा रहा है उस्ताद अलाउद्दीन खाँ साहब
का नाम।

बाबा अलाउद्दीन से सीखते हुए


पं. रविशकं र एवं उस्ताद अली अकबर खान

103

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14
सगं ीत मूल्यांकन प्रक्रिया

मल्यां
ू कन किसी भी शिक्षा का एक महत्‍वपर्णू अगं होता है। विद्यालयों के उच्च
प्राथमिक स्तर में शिक्षा का उद्देश्य विद्यार्थियों के ज्ञान का विस्तार एवं उनमें देश
के भिन्न-भिन्न भागों में प्रचलित संगीत शैलियों की समझ विकसित करना है। सरु
और ताल में गाना और अपनी संस्कृति के प्रति स्वाभाविक जागरुकता अतीत को
वर्तमान से जोड़ने का एक माध्यम है, जो संगीत तथा इससे जड़ु ी अन्य परंपराओ ं
को अच्छी तरह जानने और समझने का मार्ग सझु ाता है अपने व्यक्‍तित्व के विकास
की वह समझ भी विकसित करता है जो हमें दसू रों से अलग दिखने में मदद करता
है तथा एक सृजक, रचनात्मक एवं सांस्कृतिक सदस्य के रूप में समाज से जोड़ता
है। यह किसी बच्चे के शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक आदि जैसे सर्वांगीण
विकास के लिए बहुत ज़रूरी होता है।
संगीत में मात्र तकनीकी समझ पर ही अत्याधिक ध्यान देना पर्याप्‍त नहीं
होता है, अगर विद्यार्थी वर्ग इसी समय विभिन्न उपलब्ध सगं ीत शैलियों को
सीखने और समझने पर ध्यान दें तथा संगीतकारों एवं संगीतानरु ागियों के बीच
वार्ता हो, तो सांगीतिक विकास की प्रक्रिया को विकसित करने की राह खल ु
जाती है। यार्क विश्‍वविद्यालय के जान पेंटर ने इस सबं धं में कुछ खबू सरू त पक्‍तिय
ं ाँ
लिखी हैं –
“सबसे बड़ी बात यह है कि सगं ीत अनभु व करने की कला है यह ध्वनि से
भावनात्मक रूप से जोड़ता है यह आवाज़ के माध्यम से व्यक्‍ति को भी जोड़ता है।”
उच्च प्राथमिक कक्षाओ ं में सगं ीत के विद्यार्थियों को गायन-वादन की विभिन्न
विधाओ ं की शिक्षा देने का मख्य ु उद्देश्य उन्हें संगीत की विभिन्न विधाओ ं और
शैलियों से सपु रिचित कराना होता है। इसके अतं र्गत सामाजिक गीत, लोक गीत,
राष्ट्रीय एकता के गीत, भक्‍ति गीत एवं शास्‍त्रीय संगीत आदि आते हैं। इसके
अतिरिक्‍त अपने पारिवारिक सदस्यों से पारंपरिक गीतों और वाद्यों को सीखकर

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संगीत मल्यां
ू कन प्रक्रिया

सगं ीत की कक्षा में प्रस्तुत करने वाले बच्चों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
सभी बच्चों को इसका समचि ु त अवसर मिलना चाहिए कि उन्हें प्रदर्शन का
मौका मिले। िवद्याथीर् समहू गान, वाद्य वृदं , यगु ल तथा त्रिकल आदि प्रस्तुतियों में
बढ़-चढ़कर भाग लें जिससे उन्हें हर स्तर पर प्रोत्साहन मिले। सीखने की प्रक्रिया में
मल्या
ू ंकन बहुत ज़रूरी है और यह सिर्फ़ सगं ीत के क्षेत्र में ही नहीं, बल्कि हर विषय
में बच्चों की प्रगति के लिए बहुत ही ज़रूरी है।
सतत एवं समग्र मूल्यांकन
भारत की वर्तमान शिक्षा पद्धति में सतत एवं समग्र मल्या ू ंकन की प्रक्रिया को काफ़ी
महत्त्व दिया गया है। एक बच्चे के सभी पक्षों के सर्वांगीण विकास के लिए नियमित
मल्या
ू ंकन की प्रक्रिया प्रचलित है। एक निश्‍चित अवधि के पश्‍चात् हम इसका
सपु रिणाम देख पाते हैं। शिक्षक मल्या ू ंकन को सविध ु ानसु ार अलग-अलग समय
और अवधि में विभाजित कर सकते हैं। नियमित मल्या ू ंकन की प्रक्रिया संगीत के
विद्यार्थियों को प्रेरणा भी देती है और अवसर भी। यह प्रक्रिया उनके कार्य, विकास,
प्रगति आदि को प्रदर्शित करने की क्षमता भी प्रदान करती है, जैसे –
किस चीज़ का मल्या ू ंकन हुआ? मल्या
ू ंकन कब हुआ?
मल्या ू ंकन कै से हुआ? मल्या
ू ंकन किसका हुआ?
मल्या ू ंकन की तकनीक?
मल्या
ू क ं न की प्रक्रिया कक्षा में तथा कक्षा के बाहर सामहि ू क रूप में और
व्यक्‍तिगत रूप से की जाती है। बच्चों की विभिन्न गतिविधियों के अध्ययन, प्रत्यक्ष
और अप्रत्यक्ष, औपचारिक और अनौपचारिक, प्रश्‍नोत्तरी, सवं ाद, बच्चों की डायरी
और उनकी प्रस्तुतियों तथा प्रदर्शन के आधार पर मल्या ू क ं न किया जाना चाहिए।
मल्या
ू ंकन के लिए कुछ निश्‍चित सक ं े त होने चाहिए। जैसे नियमित मल्या ू ंकन
के लिए विभिन्न प्रकार की गतिविधियों और प्रत्येक गतिविधि में शामिल होने के
लिए बच्चे को प्रोत्साहित करना चाहिए। हर गतिविधि का अपना एक सक ं े त होता
है। शिक्षक को गतिविधि अनसु ार विचार लिखने चाहिए। ये सचू नाएँ और विवरण
शिक्षकों की व्यक्‍तिगत जानकारी के लिए होनी चाहिए। उदाहरण के तौर पर हम
आगे दी गई प्रक्रिया को देखते हैं —

105

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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

सगं ीत में स्वर माधर्यु , लय, भाषा, विषय और इन सबसे भी बढ़कर भावना जैसे
विषय समाहित होते हैं। इस विषय का क्रियान्वयन कुछ इस तरह होना चाहिए कि
एक महीने की अवधि में छात्रों को विभिन्न प्रदेशों के लोक सगं ीत सिखाए जाएँ।
क्षेत्रीय संगीत का ज्ञान उन्हें विभिन्न संस्कृतियों की जानकारी देगा। इसके अतं र्गत
हर कक्षा के सगं ीतार्थी एक अलग भाषा का गीत सीखेंगे, जैसे –
छठी कक्षा के बच्‍चे बंगाली लोक संगीत सीखेंगे;
सातवीं कक्षा के बच्‍चे कोंकणी गीत सीखेंगे; और
आठवीं कक्षा के बच्‍चे राजस्थानी लोकगीतों की शिक्षा प्राप्‍त करें गे।
ऊपर दी गई कक्षाओ ं के बच्चे इन गीतों को सहर्ष सीखेंगे क्योंकि ऐसे हर गीत
में लय और ताल की जीवतं ता होती है। बच्चे स्कू ल की प्रार्थना सभा में ऐसे गीतों
को गाना पसंद करते हैं। शिक्षक इन बच्चों को कुछ ऐसे अन्य कार्य भी दे सकते हैं
जो उन्हें इन गीतों से जोड़ें रखें। जैसे – लोक गीत में प्रस्तुत शब्दावलियों के माध्यम
से समाज, लोगों की विशिष्‍टता रहन-सहन, खान-पान एवं अनेक स्थानीय बोलियाँ
भौगोलिक जानकारी इत्यादि की जानकारी मिलती है। प्रत्येक कक्षा में उस क्षेत्र एवं
वहाँ के संगीत के विषय में आपसी विचार-विमर्श किया जाए।
इस अध्ययन के परिणाम
उस गीत की धनु अत्यंत आकर्षक थी, जिसने तरु ं त ही वहाँ उपस्थित लोगों को
उस प्रदेश के साथ जोड़ दिया, जहाँ का वह गीत था।
लय और ताल की समझ ताल का मल ू स्वरूप एक होते हुए भी, अलग-अलग
गीतों के साथ उसकी लयाकृ ति और छंद बदल जाता है। इस तत्व को गाने से ही
समझा जा सकता है।
गीत के विषय एवं भाषा जानना एक दिलचस्प अनभु व है। विभिन्न प्रदेशों के
गीत से विभिन्न भाषाआें का ज्ञान होता है।
बच्चे विभिन्न प्रदेशों के खान-पान और संस्कृति से परिचित होते हैं। बच्चे जब
सांस्कृतिक धरोहर राजस्थानी गीत सीखते हैं तो उन्हें यह भी पता चलता है कि
वहाँ एक घोड़ा नृत्य भी होता है जिसमें आदमी घोड़े का मख ु ौटा पहनकर, घोड़ा
बनकर नाचता है। इसी प्रकार गोवा प्रदेश का गीत गाते हुए बच्चे इस तथ्य से
परिचित हो जाते हैं कि पर्तु गाली गोवा आए थे और गोवा की संस्कृति पर उनका
प्रभाव है।
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संगीत मल्यां
ू कन प्रक्रिया

मूल्यांकन िव�ध
सक
ं े तक कक्षायी सगं ीत प्रक्रिया मूल्यांकन के आधार

गायन एवं वादन से आधारभतू स्वर का संगीत सीखने की


संबंधित वाद्यों को स्वर चयन करके संगीत स्वाभाविक इच्छा।
एवं लयबद्ध करना। प्रस्तुत करना। प्रत्येक
कंठ स्वर एवं प्रत्येक स्वर और ताल का
गायन की प्रस्तुति हेतु वाद्य के स्वर का ध्यान प्राप्‍त किया गया
अपने लिए उचित रखते हुए कक्षा में ज्ञान।
स्के ल का चनु ाव करना अभ्यास और प्रदर्शन
अत्यंत महत्त्वपर्णू कक्षा में विद्यार्थी की
वाद्यों का वादन।
होता है, क्योंकि इसके एकाग्रता।
अभाव में गायन का (लोक संगीत उच्च
नई कृ तियाँ बनाने की
परू ा आनंद प्राप्‍त नहीं स्वरों में गाते समय
प्रवृत्ति।
किया जा सकता है। अच्छे लगते हैं, जबकि
अलग-अलग गानों प्रार्थना गीत, सरगम, समहू में सीखने का
एवं उनके वाद्यों के शास्‍त्रीय संगीत आदि जोश।
लिए अलग-अलग मद्रं और मध्य सप्‍तक
स्के ल के चयन का में ज़्यादा अच्छे लगते एकल प्रस्तुति में
ज्ञान होना चाहिए। हैं। ज़्यादा ध्यान।

सरु ीली प्रस्तुति और राष्ट्रीय गीत, फि़ल्मी शब्दों को समझने


संगति के सौंदर्य को गीत, क्षेत्रीय एवं की प्रवृत्ति।
बनाये रखता है। लोकगीतों के गायन
एवं उनके साथ वादन स्मरण शक्‍ति।
संगीत के लिए उचित करने के लिए अवसर
और उपयोगी तालों परू ्व ज्ञान।
उपलब्ध कराना।
का चयन तथा विभिन्न
वाद्य यंत्र बजाना
प्रकार की लयाकृ तियों बच्चों को नियमित
इत्यादि।
एवं छंदों का प्रयोग अभ्यास कराते हुए
सिखाना चाहिए। उनको सगं ीत के सौंदर्य
के प्रति सचेत एवं
जागरूक बनाना।

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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

विभिन्न प्रकार के सात मख्य ु स्वरों की


प्रचलित संगीत जैसे शिक्षा एवं अभ्यास,
शास्‍त्रीय, उपशास्‍त्रीय, तथा यह पहचानने की
लोक एवं क्षेत्रीय आदि क्षमता कि 22 श्रुतियों
सगं ीत में उपरोक्‍त वर्णित में सात मख्य
ु स्वर
नियमों का पालन होना कहाँ-कहाँ हैं?
चाहिए।
मद्रं , मध्य एवं तार
सप्‍तकों में गायन-वादन
की क्षमता ।
हाथ से ताली देते हुए
अथवा इसी प्रकार के
झांझ, खजं री अथवा
मजं ीरा जैसे वाद्य बजाते
हुए विभिन्न लय प्रकारों
के प्रति बच्चों को
जाग्रत एवं प्रेरित करना।

विभिन्न प्रकार की
लयाकृ तियों एवं छंदों
का विभिन्न गीतों के
माध्यम से बच्चों को
नियमित अभ्यास
कराना।

लय और ताल तथा स्वर


और धनु के प्रति बच्चों
में समझ विकसित करना
एवं उन्हें इसका आनंद
लेने योग्य बनाना।

108

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बच्चों के कार्य का मूल्यांकन नीचे दी गई सारणी के आधार पर

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(यह शिक्षक की व्यक्‍तिगत जानकारी के लिए है)

प्रतिभा सहभागिता एवं दिलचस्पी का स्तर

क्र कायर्
व्यक्‍तिगत सामान्यता कुशलता की
मां नाम सरु ताल स्मरण एकाग्रता रुचि सामहि
ू क जागरुकता प्रस्तुति
क वृद्धि

1 अाशीष B . A A . A B B B . A A . A C . B . B B . . . B .

2 कल्पना A . . B . . C . B C B . C . B A . . . . B B . A . B .

3 अमरीश C . B B . C C A . A B . C A . B . C . . B . A . .

4 अभय B B . A . . B A . B . A A C C B A . . . . C B . .
संगीत मल्यां
ू कन प्रक्रिया

109

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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

यह सारणी यह दिखाती है कि एक बच्चा समय के साथ निरंतर विकास


करता है। इनकी प्रतिभा का मल्यां
ू कन प्रदर्शन स्वर, ताल, स्मरण शक्‍ति, एकाग्रता,
व्यक्‍तिगत और सामहिू क सहभागिता तथा कार्य कुशलता की वृद्धि के आधार पर
किया गया है। मल्यां
ू कन के तीन-तीन चरण रखे गए जो तीन कॉलम में प्रदर्शित
किए गए हैं। जो यह दिखाता है कि सीखने और सिखाने का दौर आरंभ होने के बाद
शिक्षक, छात्र की योग्यता को कै से आँकते हैं? जैसे कि एक कक्षा में 60 बच्चे हैं।
इस स्थिति में उनका विवरण रखे बिना हर बच्चे की हर गतिविधि को याद रखना
शिक्षक के लिए संभव नहीं होगा। इसलिए इस तरीके को अपनाया गया। हमने देखा
कि अमरीश जो शरू ु में अच्छा गाता था, धीरे -धीरे उसकी रुचि कम होती चली गई।
इसका संबंध शिक्षक से है और अच्छे परिणाम के लिए शिक्षक सचेत हो जाते हैं।
इसके साथ ही हमने यह भी देखा कि अपनी कार्य कुशलता को बढ़ाने में कल्पना
की कोई रुचि नहीं थी। इसलिए शिक्षक भी निरुपाय होकर रह गए।
छात्रों के विषय में शिक्षक की टिप्पणी
1. आशीष – उसने अच्छी तरह गाना सीखा और आदतें भी सधु ारीं। कभी-कभी
जब समहू में गाना होता है वह नटखट हो जाता है। किंतु अके ले गाते समय
उसकी प्रस्तुति और प्रदर्शन बेहतर होता है। वह अपने स्वर को सधु ारने हेतु
प्रयास करता है।
2. कल्पना – कल्पना की आवाज़ सरु ीली है, लेकिन उसे लय पक्ष पर कुछ आैर
अधिक ध्यान देना होगा। कक्षा में वह अच्छा तारतम्य और समन्वय स्थापित
कर पाती है तथा मचं ीय प्रस्तुति में भाग लेना पसदं करती है।
3. अमरीश (क) नकारात्मक टिप्पणी – अमरीश की ग्राह्य शक्‍ति अच्छी है
लेकिन उसका गायन अच्छा नहीं है। वह परिश्रम करके अपने स्तर को सधु ारने
का प्रयास भी नहीं करता है।
(ख) सकारात्मक टिप्पणी – उसे गाना पसंद है और लय का आनंद भी
उठाता है। उसकी स्मरण शक्‍ति असाधारण है और एकाग्रता का स्तर भी
अच्छा है। वह एक परिश्रमी लड़का है, जो सामहि ू क प्रदर्शन में सहज रहता है।
लेकिन, आत्मविश्‍वास का अभाव उसमें हमेशा नहीं रहता। उसे बिना झिझक
कला प्रदर्शन करना चाहिए।

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संगीत मल्यां
ू कन प्रक्रिया

4. अभय – ताल के सबं ंध में उसका ज्ञान सराहनीय है। थोड़ी-सी एकाग्रता और
कोशिश से वह अपनी स्मरण शक्‍ति का विकास कर सकता है। समसामयिक
सांगीतिक घटनाओ ं के प्रति वह अत्यंत जागरूक रहता है और सांगीतिक
वाद्यों के वदन में रुचि लेता है।
मल्यां
ू कन नियमित होने से शिक्षक को बच्चों की नियमित प्रगति समझने
में आसानी होती है। निरंतर मल्यां ू कन से बच्चों की एक वर्ष में कितनी प्रगति हुई
समझने में मदद मिलती है। साथ ही बच्चों के अन्य लक्ष्यों को समझकर उनका एक
अनठू ा चित्र प्रस्तुत करने में भी मदद मिलती है।
छात्रों की प्रगति पत्र तैयार करते समय शिक्षक इन अनभु वों के उपयोग कर सकते
हैं। सगं ीत शिक्षा में बच्‍चों की प्रगति के मल्यां
ू कन उनकी व्यक्‍तिगत प्रगति के आधार
पर होना चाहिए, न कि दसू रे छात्रों की प्रगति के आधार पर तल ु नात्मक दृष्‍टि से। निम्न
टिप्पणियाँ बच्चों को निरंतर आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करें गी।
उत्तम अच्छा सामान्यत: बेहतर
विशिष्‍ट वास्तविकता से ओत-प्रोत
संतोषजनक
मन की कल्पना
परिपक्व समझदार किसी विशेष क्षेत्र में प्राप्‍त की
सामान्य से बेहतर
गई योग्यता की प्रशसं ा
सदैव तत्पर

मूल्यांकन (प्रगति के लिए सझ


ु ाव)
उत्तम अच्छा
गायन के कार्यक्रम में स्वेच्छा से भाग लेता है। समहू में गाते समय उत्साहित
आशीष रहता है। किंतु एकल गायन में थोड़ी झिझक है। अगर वह अपनी याद्दाश्त के
प्रति थोड़ा और सजग रहे तो अच्छी प्रगति कर सकता है।
भाग लेने के लिए हमेशा उत्सुक स्मरण शक्‍ति बेहतर तीव्र बद्धि
ु छात्र है जिसकी
अभय प्रस्तुति की एक संदु र शैली है। थोड़ा-सा और अभ्यास करने से वह नवीन
ऊँचाइयों पर पहुचँ सकता है ।
वह अपने दोस्तों में अत्यंत प्रिय है और उनके साथ सामहि ू क प्रस्तुतियों में
अमरीश काफ़ी अच्छा प्रदर्शन करता है। अगर वह अपने कार्य के प्रति थोड़ी एकाग्रता
बढ़ाए तो परिणाम और भी सख ु द हो पाएगा।
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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

उच्च माध्यमिक स्तर में शिक्षकों की क्रिया और उसका प्रभाव


क्रिया प्रभाव
स्वर और ताल की निपणु ता को अत्यधिक इससे बच्चों की रुचि ख़त्म हो जाती है और
महत्त्व देने और दर्बोध
ु चीज़ों को साधने पर वे सांगीतिक आनंद से वंचित हो जाते हैं ।
बहुत ज़ोर देने से नकारात्मक परिणाम सभं व है।
बहुत कठोर और निर्णायक होने का भाव इससे बच्चे सांगीतिक आनंद से वंचित
त्यागें। होंगे और संगीतिक प्रस्तुति के समय उनमें
हिचकिचाहट की भावना पैदा होगी।

बच्चों पर दबाव न डालें कि वे मात्र नकल इससे बच्चों की उर्वरा कल्पनाशक्‍ति, शोध
और शिक्षार्थी के विचारों का अनक
ु रण करें । की प्रवृत्ति और संगीतिक सोच की नई
भावनाएँ हतोत्साहित होंगी।
विचार विनिमय स्वस्थ होना चाहिए, इससे बच्चों की उर्वर कल्पनाशक्‍ति, शोध
आलोचनात्मक नहीं। की प्रवृत्ति और सगं ीतिक सोच की नई
भावनाएँ हतोत्साहित होंगी।
सामहिू क ज्ञान के आदान-प्रदान पर अधिक मात्र व्यक्‍तिगत प्रस्तुतियों से बच्चों की
ध्यान देने और अधिक समहू में प्रदर्शन करने भावनाएँ सीमित हो जाती हैं।
से बच्चे अपने साथियों से भी बहुत कुछ
सीख पाएँगे और स्वतंत्रतापरू ्वक प्रदर्शन करना
चाहेंगे।
तलु ना की भावना ठीक है, लेकिन ऐसी प्रतियोगिताएँ, रुचि को कम करती हैं और
स्थिति में प्रतियोगिताओ ं से परहेज़ करते हुए बच्चों के व्यक्‍तित्व में कई प्रकार की हीन
अलग-अलग प्रकार की प्रस्तुतियों पर बल दें। भावनाएँ/अति विश्‍वास पैदा करती हैं।

बच्चों को नि:सक ं ोच भाव से सगं ीत या गीत प्रतिदिन तरह-तरह के निर्देशों से बच्चों में
प्रस्तुत करने दें एवं उनमें यह भाव भी पनपने दें नकारात्मक भावना पैदा होती है। इस तरह
कि उनके नन्हे हाथ भी आकाश छू सकते हैं। के निर्देशों से बच्चों में शिक्षार्थी के प्रति
असंतोष पनपता है।

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संगीत मल्यां
ू कन प्रक्रिया

मूल्यांकन कै से हो? अथवा क्या हो मूल्यांकन का मापदडं ?


उच्च माध्यमिक कक्षाओ ं की मल्या ू ंकन प्रक्रिया में प्रयोगात्‍मक एवं िलखित
परिणाम का अनपु ात क्रमश: 70 और 30 का होना चाहिए।
संगीत शिक्षा का मल्या ू ंकन त्रैमासिक और वार्षिक गतिविधियों पर आधारित
होना चाहिए। यह प्रक्रिया सतत और समग्र होनी चाहिए।
मल्या
ू ंकन स्पर्धा आधारित नहीं होना चाहिए।
शिक्षा का ध्यान आनदं , विभिन्न गतिविधियों और उनकी स्वतत्रं अभिव्यक्‍ति पर
कें द्रित होना चाहिए, न कि उन्हें तकनीकी कुशलता के बाहरी बधं न में बाँधने पर।
मल्या
ू ंकन योग्यता आधारित होना चाहिए, सख्या ं आधारित नहीं।
मल्याू ंकन प्रक्रिया खलु ी और पारदर्शी होनी चाहिए।
ध्यान देने योग्य कुछ मुख्य बिंदु
बच्चे के अदं र सृजनात्मक क्षमता होती है।
उन्हें स्वतंत्रता देनी चाहिए कि वे अपनी भावनाओ ं की अभिव्यक्‍ति कर सकें ,
नए अनसु ंधान और प्रयोग कर सकें ।
अत्यधिक निर्देश बच्चों की सृजनात्मकता पर अवरोध लगाते हैं ।
बच्चों को इसका सअ ु वसर मिलना चाहिए कि वे अपने आस-पास की वस्तुओ ं
और लोगों की गतिविधियों का अध्ययन करें तथा उनके साथ समन्वय और
संवाद स्थापित करते हुए अपने विचारों का आधार अनभु वों को मानें।
बच्चों को कुछ ऐसे सझु ाव दिए जाने चाहिए जो उन्हें संगीत के रसास्वादन की
ओर अग्रसर करें ।

113

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15 “मैं सगं ीत शिक्षक
क्यूँ बना?”*

हमारे देश के लाखों विद्यालयों में संगीत विषय के रूप में पढ़ाया जाता है, बोर्ड
परीक्षाएँ भी आयोजित होती हैं। ललित कला विषय के रूप में संगीत विद्यालयी
शिक्षा में आज स्थापित है। यह कार्य किस प्रकार प्रारंभ हुआ, इस बारे में थोड़ा
बताना चाहूगँ ा –
विष्णु दिगबं र पलस्कु र ने 1901 ई. में कश्मीर के दरबारी गायक का पद त्यागकर
5 अक्‍तूबर सन् 1901 में लाहौर में गधं र्व महाविद्यालय की स्थापना की। उनके
समकक्ष ‘चतरु ’ पडि ं त विष्णुनारायण भातखडं े शास्‍त्रीय सगं ीत के विभिन्न घरानों की
बदि
ं शों का सग्रं ह कर रहे थे और साथ ही शास्‍त्र की बातें सीखने वालों तक पहुचँ ने
का प्रयास कर रहे थे। सन् 1925 में उनके द्वारा मैरिस म्यूज़िक कॉलेज़, लखनऊ की
स्थापना हुई, जो आज ‘भातखडं े यिू नवर्सिटी ऑफ़ म्यूज़िक’ कहलाता है।
इन दोनों व्यक्‍तियों का संदर्भ देने की आवश्यकता इसलिए है, क्योंकि असल
मायने में इनके कृ त्यों से ही विद्यालयों में संगीत की शिक्षा प्रारंभ हुई। इन दोनों
संगीतज्ञों की तपस्या एवं इनके द्वारा निर्मित शिष्य श्रृंखला ने भारतीय शास्‍त्रीय
संगीत को दरबार और घरानों से निकालकर साधारण जनता की ओर अग्रसरित
किया। आज उसी के फलस्वरूप, विद्यालय से लेकर विश्‍वविद्यालयों तक संगीत
एक विशिष्‍ट विषय के रूप में स्थापित हुआ है।
यद्यपि सगं ीत को ललित कला विषय के रूप में मान्यता मिली, परंतु विद्यालयी
शिक्षा में संगीत विषय की जो प्रतिष्‍ठा होनी चाहिए उतनी नहीं है। इसका अनभु व
हम संगीत शिक्षकों को हुआ होगा। “हम उपेक्षित हैं, मह�व नहीं मिल पाता,” ये
सब बातें स्वाभाविक रूप से मन में आती होंगी। इस तरह की स्थिति देश के सभी
विद्यालयों में है, परंतु सभी विद्यालयों में एक जैसी स्थिति नहीं हैं क्योंकि अपवाद
तो सभी जगह होते हैं।
* यह अध्याय संगीत के अध्यापकों को आशा एवं प्रोत्साहन देने के मनोभाव से मक
ु े श भारती,
अध्यापक, कें द्रीय विद्यालय, मेरठ द्वारा लिखा गया है।

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“मैं संगीत शिक्षक क्यूँ बना?”

संगीत शिक्षक होने के नाते मेरे पास भी ऐसे अनुभव हैं, परंतु क्या निराश
हुआ जाए?
आज आपसे वही अनभु व बाँटने जा रहा हूँ जो हमारी निराशाएँ, कंु ठाएँ
हटाकर संतष्‍टि ु का प्रकाश देगें। चलिए ज़रा बारीकी से अपनी वास्तविक स्थिति
का विश्‍लेषण करें ।
आप अपने से प्रश्‍न करें – “मैं संगीत शिक्षक क्यूँ बना?” इस प्रश्‍न के कई उत्तर
हो सकते हैं, जैसे –
मझु े शिक्षक की वृत्ति पसदं है;
मझु े संगीत से लगाव है;
परिवार में संगीत था, अतः परंपरा से संगीत शिक्षक की वृत्ति मिली;
मझु े संगीत से आजीविका प्राप्‍त करना पसंद है;
मैं तो कलाकार बनना चाहता था, परंतु परिस्थितियों के अधीन सगं ीत शिक्षक
बन गया; और
मझु े बच्चों से लगाव है, इसीलिए शिक्षक बना।
हो सकता है उपरोक्‍त िदय गये उ�रों में आपका उत्तर भी शामिल रहा हो। इन
उत्तरों में कई सकारात्मक उत्तर हैं और कुछ नकारात्मक परंतु निर्णय हमारे ही थे।
वर्तमान परिस्थितियों को जीना एवं उनसे सामंजस्य स्थापित करना यह कार्य भी
हमारा है।
एक संदर्भ प्रस्तुत कर रहा हूँ –
राष्ट्रीय शैक्षिक अनसु ंधान और प्रशिक्षण परिषद् ने एक सर्वेक्षण करवाया
जिसमें शिक्षक बने उन प्रतिभागियों को शामिल किया गया जो यह कह रहे थे कि मैं
अपनी पसंद से शिक्षक की वृत्ति में आया। कुछ प्रश्‍नों के ज़रिये ये सर्वेक्षण करवाए
गए थे। ज़रा परिणाम पर गौर करिए। उनमें से सिर्फ़ 48 शिक्षक ही ये साबित कर पाए
कि वे शिक्षक की वृत्ति में अपनी पसंद से आए हैं, शेष 52 शिक्षक तो अन्य वृत्तियों
में जाना चाहते थे किसी कारणवश मज़बरू ी में न चाहते हुए भी वे शिक्षक बनें।
इस तरह के शिक्षक विद्यालय में अपने महत्त्व को नहीं समझ सके हैं। एक
संगीत शिक्षक का महत्त्व विद्यालय में कितना एवं किस प्रकार है, ज़रा इस पर
गौर करें –

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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

शिक्षण व्यवस्था में सगं ीत का महत्त्व है, बच्चों की यह ज़रूरत है, इसीलिए ही
संगीत शिक्षकों की नियक्‍ति
ु होती है।
विद्यालय का प्रथम क्रियाकलाप प्रार्थना सभा होती है। शरू ु होता है ईश वदं ना
जैसे – “तू ही राम है तू रहीम है अथवा दया कर दान विद्या का...” संगीत शिक्षक
विद्यालय को प्रारंभ करवाता है ।
छात्रा-छात्राओ ं की कक्षाएँ तो होती ही हैं, उसके अतिरिक्‍त विद्यालय में मनाये
जाने वाले उत्सव जैसे – वार्षिक उत्सव, स्वतंत्रता दिवस समारोह, गणतंत्रता
दिवस समारोह, दसू रे सांस्कृतिक कार्यक्रम, संगीत शिक्षक ही सारे कार्यक्रम की
िज़म्मेदारी निभाते हैं।
ज़रा गौर करिए, 26 जनवरी (गणतंत्र दिवस) समारोह पर प्राचार्य उपस्थित नहीं
हैं तो अन्य शिक्षक ध्वजारोहण कर देंगे। परंतु सांस्कृतिक कार्यक्रम की तैयारी एवं
प्रस्तुति संगीत शिक्षक के अलावा कोई नहीं करा सकता।
हमारा कार्य एक कलाकर्म है, जो कि प्रदर्शन पर आधारित होता है, भले ही
प्रार्थना सभा के अतिरिक्‍त विद्यालय में हमारा कार्यक्रम न हो या हमारे विषय को
पढ़ने वाले छात्रों की सख्यां कम हो परंतु विशिष्‍ट अवसरों पर सगं ीत कला शिक्षक
का विकल्प कोई नहीं होता। यानी “सौ सनु ार की और एक लौहार की”।
ये तो थी वर्तमान परिस्थितियाँ, अब आइए ज़रा उन सझु ावों पर गौर करें जिससे
संगीत विषय का महत्त्व एवं मान और बढ़ जाएगा –
विद्यालय के विषय संबंधी क्रियाकलाप में संगीत को शामिल कर आसान
बनाएँ। जब मैं पाँचवीं कक्षा में था, तो मझु े कविता याद करने में बहुत परे शानी
होती थी। सच कहा जाए तो मेरी स्मरण शक्‍ति कमज़ोर थी। छठी कक्षा में जब
आया तो हिदं ी के शिक्षक आदरणीय श्री जगन्नाथ महतो कविताएँ याद करवाते
समय वे उनका पाठ करवाने की बजाय उसका गायन करवा देते थे, पलभर में
कविताएँ याद हो जाती थीं और संगीत के स्वरों का जादू मन मस्तिष्क पर कायम
हो जाता था। क्या आप भी ऐसा करना चाहेंगे?
इतिहास की कक्षा का पाठ ‘1857 का गदर’ इस पाठ में झाँसी की रानी, नाना
साहिब, तात्या टोपे, वीर कँु वर सिहं इत्यादि के बारे में चर्चा है। छात्रा-छात्राओ ं

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“मैं संगीत शिक्षक क्यूँ बना?”

को एे�तहा�सक व्‍यक्‍तियों के नाम, जन्म स्थान, कुल, ईसवीं सन् इत्यादि बड़ी
मश्कि
ु ल से याद होते हैं। एक कविता है, लेखिका हैं सभु द्रा कुमारी चौहान,
शीर्षक है ‘झांसी की रानी’ —

“सिहं ासन हिल उठे राजवश ं ों ने भृकुटी तानी थी।


बढ़ेू भारत में आई फिर से नई जवानी थी।……
चमक उठी सन सत्तावन में यह तलवार परु ानी थी।”

सगं ीत से प्राप्‍त होने वाले अनुभवों की चर्चा


कोई भी गीत या नृत्य हो, उसमें प्रयक्ु ‍त धनु या स्वर, उनका सगं त वाद्य तथा ताल,
गीत के बोल एवं विषय, नृत्य की मद्रा
ु एँ एवं परिधान से एक नया अनभु व मिलता है।
गीत के शब्दों से कहानी, सरु और ताल के बजने से एक रोमांच का अनभु व होता है।
छात्र-छात्राओ ं को समय की सामाजिक सरं चना, राजनीतिक मान्यताएँ, खान-पान,
पहनावा एवं लोगों की सोच संगीत के माध्यम से ज़्यादा समझ आएँगी।
गीत, सगं ीत के सदं ेशों को समझाता एवं जाग्रत करता है
हमारे गीतों के बोलों में, अभिनयों से राष्ट्र भक्‍ति, महान व्यक्‍तियों की जीवनी,
मानवीयता, साहचर्य, सहोपकारिता इत्यादि का संदश े मिलता है। गीत की चर्चा से
छात्र-छात्राओ ं तक ये सदं श े अच्छी तरह पहुचँ पाएगा।
आइए मित्रों, अब आपके कुछ सवाल लें। कुछ समस्या एवं उसके समाधान पर
विचार करें –
प्रश्‍न – कुछ िशक्षक यह कहते नज़र आते हैं कि समाज एवं विद्यालय में अभी भी
संगीत की प्रतिष्‍ठा स्थापित नहीं हुई है, क्या करें ?
उत्तर – सघं र्ष अभी समाप्‍त नहीं हुआ है, मैं आपको पनु ः पडि ं त विष्णु दिगबं र पलस्क
ु र
एवं पडिं त विष्णु नारायण भातखडं े का स्मरण करवा रहा हू,ँ उनके समय में भी
सगं ीत एवं सगं ीतकारों की स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। उन्होंने अपने कर्मों
से सगं ीत को एवं सगं ीत वृत्ति को आधनि ु क एवं व्यवस्थित किया। सगं ीत के

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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

महत्त्व को पनु र्वलित किया। जहाँ दरबारों में राजसिहं ासन से नीचे सगं ीतकार
थे, क्या यह सगं ीत को शीर्ष पर पहुचँ ाने के लिए काफ़ी नहीं था?
आपको विषय का ज्ञान, आपका शिक्षण कौशल आपका दायित्व बोध आपको
विद्यालय एवं समाज में प्रतिष्‍ठित करता है। कुछ शिक्षक मित्र जिनकी तालीम बहुत
बड़े गरुु या बड़े विश्‍वविद्यालय से नहीं हुई होती है, वे अपने को कलाकार या विद्वान
नहीं मानते, उनका प्रश्‍न होता है –
प्रश्‍न – मैं बहुत अच्छा िशक्षक नहीं हू,ँ मैं किस प्रकार इस सगं ीत शिक्षक की वृत्ति
से न्याय करूँ ?
उत्तर – यदि आप अच्छे कलाकार नहीं तो अच्छे जानकार तो हैं ही तभी तो आप
यहाँ हैं। एक उदाहरण देना चाहूगँ ा। पंडित भातखडं े जी पेशे से वकील थे,
गायन भी अच्छा नहीं था, सितार की थोड़ी बहुत तालीम ली थी, परंतु वे
संगीत के क्षेत्र में पजू नीय बने, क्यों? क्योंकि संगीत की समझ और मार्गदर्शन
देने का कौशल उनके अदं र कूट-कूट कर भरा हुआ था। आप भी अपने
संगीत की समझ को चमत्कारी अनभु व बनाएँ।
आइए, एक अगला प्रश्‍न लेते हैं, हम सभी में से बहुत लोगों का यह प्रश्‍न हो सकता है –
प्रश्‍न – मैं कलाकार बनना चाहता था, परंतु संगीत शिक्षक बना। कलाकारों वाली
बात एवं ख्याति संगीत शिक्षक में कहाँ?
उत्तर – मगध नरे श ने पडि ं त चाणक्य का अपमान किया था। पडि ं त चाणक्य उस
समय सक्षम नहीं थे कि उसी समय घनानंद का नाश कर अपने अपमान
का बदला ले लें। परंतु सक ं ल्प किया था। उन्होंने क्या किया? चन्द्रगप्‍त

जैसे शिष्यों का निर्माण। इतिहास साक्षी है उन्हीं शिष्यों के कारण चाणक्य
इतिहास परुु ष बने। इसी तरह के शिष्यों की �ृंखला से सगं ीत के अपने
गरुु ओ ं ने ख्याति प्राप्‍त की। ऐसे शिष्यों की �ृंखला आप भी तैयार कर सकते
हैं, करें गे न आप? ये गणु आपको आत्म सतं ष्‍टि ु एवं ख्याति अवश्य प्रदान
करे गी।
हमारे विद्यालयों में कई तरह के विभाग होते हैं, जो पढ़ाई-लिखाई, कक्षा कार्य
इत्यादि के अतिरिक्‍त, जैसे – फ़र्नीचर विभाग, व्यवस्था एवं मरम्मत का विभाग,
सदन, अनश ु ासन, छात्रावास, भोजनालय इत्यादि। ये विभाग का प्रभारी आपको
बना दिया जाता है।

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“मैं संगीत शिक्षक क्यूँ बना?”

आपके प्रश्‍न होते हैं –


प्रश्‍न – जो मेरा काम है उसके अतिरिक्‍त इतना काम दे दिया है, मैं अपना मख्य ु काम
कै से करूँ ?
उत्तर – विद्यालय की परिस्थितियों में हमें लगता है कि हमें अपने विषय के अतिरिक्‍त
भी कई कार्य मिले हुए हैं। परंतु मित्रों इस तरह की सोच से काम नहीं चलेगा,
चलिए हम अपने घर का उदाहरण लें। अपने घर में झाडू-पोंछा, बर्तन,
कपड़े, खेल-कूद, बाजार-हाट, मरम्मत सब काम करते हैं क्या वहाँ रहना
और सख ु से नींद लेना ही हमारा काम है? हम सभी कार्य करते परंतु हमारी
पहचान झाडू-पोंछा वाले की नहीं होती। उसी प्रकार विद्यालय में शिक्षकों
को अन्य कार्य भी मिलते है, हमें परिस्थितियों के अनरू ु प अपने को ढालना
पड़ता है। एक उदाहरण मैं आपको और देना चाहता हू,ँ सेना के बैंड का
काम होता है विभिन्न अवसरों पर बैंड का प्रदर्शन, परंतु वे दिन अँगलिय ु ों
पर गिने जा सकते हैं। बाकी के दिन वे सैनिक ही हैं। उसी प्रकार हम मल ू तः
शिक्षक हैं संगीत विषय का पारंगत होना हमारा विशेष गणु है।
चचार् िकए गए प्रश्‍नों में से कई प्रश्‍न हमारे खदु के हो सकते हैं, आशा है मेरे
सझु ाव काम करें गे। आइए कुछ आवश्यकताओ ं के बारे में बात करें ।
दनिय
ु ा तेज़ी से बदल रही है। सूचना और प्रसारण का विस्फोट हो रहा है,
घरों में टेलीविज़न के सैकडों चैनल हैं, बाज़ार में उत्पादों की भरमार, इटं रनेट पर
सचू नाओ ं का ढेर है। आधनि ु क पीढ़ी अपने आप इससे जड़ी ु हुई है। ये जड़ु ाव
उनको बाज़ार और समाज में पहचान दे रहा है। परंतु क्या हम संगीत शिक्षक
आधनि ु क सूचना, तकनीक से वाकिफ़ हैं? मार्च 2011 में सेवा-कालीन प्रशिक्षण
के दौरान, चंडीगढ़ में कें द्रीय विद्यालय संगठन के चार क्षेत्रों जम्मू, दिल्ली,
देहरादनू तथा चंडीगढ़ के करीब 40 शिक्षकों के साथ काम करने एवं प्रशिक्षण
लेने का अवसर प्राप्‍त हुआ। पता चला कि ज़्यादातर शिक्षक कंप्यूटर एवं इटं रनेट
तकनीक से वाकिफ़ ही नहीं हैं। यह स्थिति निराश कर सकती है। आइए, ज़रा
इस ओर भी ध्यान दें। सिर्फ़ गायन, वादन, के ज्ञान को ही पकड़ के रखने से आज
काम चलने वाला नहीं है। जिस तरह सख ू े रंग में पानी या तेल न मिले तो वह काम
करने लायक नहीं बनता, दीवारों पर उसका रंग नही निखरता। वाणी के बिना
आपका चिंतन प्रसारित नहीं होता उसी तरह इस ग्लैमर से भरी दनिय ु ा में सूचना
संचार, मल्टीमीडिया, इटं रनेट की जानकारी उसमें प्रवीणता प्राप्‍त करना आज की
आवश्यकता है। इसके बिना आपकी प्रतिभा, ज्ञान, कौशल प्रभावी ढंग से प्रस्तुत
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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

नहीं हो पाएगा। अतः यह मेरा सझु ाव है कि हम अपने शास्‍त्र ज्ञान, गायन, वादन
एवं नृत्य के ज्ञान को निखारने के साथ ही आधनि ु क शिक्षा साधनों को भी अपनी
कार्य शैली का मख्य ु हिस्सा बनाएँ।
सगं ीत वृत्ति की सबसे बड़ी कोई विशेषता है, तो वह है हमारी गरुु शिष्य परंपरा।
समाज के हर क्षेत्र में नैतिक मल्य
ू ों में, आचार व्यवहार में गिरावट आई है, परंतु हमारे
यहाँ तक परंपरा अब तक कायम है। आप आज के विश्‍वविद्यालय परिसर में जाएँ
फिर उसकी तल ु ना सगं ीत विभाग से करें । आपको बड़ा फ़र्क महससू होगा। अपने
शिक्षकों, गरुु ओ ं के प्रति अगाध श्रद्धा, प्रेम अन्य विषयों में देख ही नहीं सकते। इस
तरह के समाज का हिस्सा होना आप में गर्व की अनभु ति ू बार-बार कराता होगा।
एक बात और कहना चाहूगँ ा। संगीत की वृत्ति ऐसी है कि आप जन्म से जिस
भी परिवार में पैदा हुए हो परंतु आपकी पहचान आपकी विद्वता आपकी कला से ही
होती है। ठीक वैसे ही जैसे बाँसरु ी वादक पंडित हरिप्रसाद चौरसिया का जन्म अन्य
पिछड़ी जाित के साधारण प�रवार मै हुआ। परंतु परू ा विश्‍व उन्हें पंडित कहता है,
उनकी कला कर्म के कारण ही न। संगीत में ही यह परंपरा है, यह परंपरा और कहाँ।
आप भी गरुु हैं तो पजू ्य हैं। अतं में, जब-जब भी मन में कुछ संशय पैदा हो, तो निम्न
बातों का स्मरण कर लें –
ईश्‍वर ने विशिष्‍ट कार्य के लिए मझु े बनाया है, मैं जीवित हूँ इसका कारण यह है
कि मेरा कार्य अभी पर्णू नहीं हुआ है।
आपकी शिक्षक की वृत्ति आपको ईमानदारी से जीवन जीने का अवसर दे रही है।
संगीत यानी नाद ब्रह्म, ईश्‍वर के समान है जो कि जीने का अवसर दे रहा है।
सगं ीत शिक्षकों के िलए कुछ सझ
ु ाव
इटं रनेट का प्रयोग
पहले से रिकॉर्डिंग ऑडियो एवं वीडियो का प्रयोग
मल्टीमीडिया का प्रयोग
जिस भी क्षेत्र में विद्यालय स्थित है वहाँ के क्षेत्रीय संगीत, लोक नृत्य को महत्त्व
देना, वहाँ की भाषा, बोली के कार्यक्रम अवश्य करवाना
किसी भी लोक कलाकार की कला विद्यालय में प्रदर्शन करवाना
लोक वाद्य यंत्रों की प्रदर्शनी इत्यादि
विषयों में संगीत के तत्व तलाशने की कोशिश।

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16 सगं ीत के कुछ
कलाकारों का परिचय

भारत रत्न �ाृंखला


पं. भीमसेन जोशी (गायक)
भारत रत्न पं. भीमसेन जोशी हिदं स्ता ु नी शास्‍त्रीय संगीत
के एक महान गायक थे। 4 फ़रवरी 1922 को कर्नाटक के
धारवाड़ जिले मे जन्मे, पं. सवाई गांधर्व के शिष्य पं. भीमसेन
जोशी ख्याल के साथ-साथ ठुमरी और भजन के भी कंठसिद्ध
गायक थे। उनकी पहली प्रस्तुति 19 साल की उम्र में थी।
पं. भीमसेन जोशी को सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न
पद्मश्री, पद्मभषू ण और पद्मविभषू ण से सम्मानित किया गया। पं. भीमसेन जोशी
इन्होंने बसतं बहार, तानसेन, अनकही जैसी फ़िल्मों को भी अपने गायन से सजाया।
इन फ़िल्मों के लिए इन्हें राष्ट्रीय परु स्कार से भी परु स्कृ त किया गया।
पं. रवि शंकर (सितार वादक)
भारत रत्न प.ं रवि शकं र सितार वादन में दनिय
ु ा के महान कलाकारों में गिने जाते थे।
वाराणसी में 7 अप्रैल 1920 में एक बगं ाली परिवार में जन्मे रवि शक
ं र जी ने सर्वप्रथम
नृत्य की शिक्षा अपने भाई उदय शक ं र से ली। फिर उस्ताद अलाउद्दीन खाँ से सितार
वादन की शिक्षा ली। प.ं रवि शक ं र ने एक सफल सगं ीत निर्देशक के रूप में भी
दनिय
ु ा भर में अपनी पहचान बनाई है। पाथेरपाचं ाली, गोदान, अनरु ाधा, गाधं ी, मीरा,
धरती का लाल, नीचानगर आदि फ़िल्मों के साथ-साथ
इम्मोर्टल इडिय
ं ा, चडं ालिका, कै नेडियन फ़ै न्‍टेसी, ऐलिस
इन वडं रलैंड, द चैरिटी टेल एवं द फ़्लूट एडं बो में इनके
सगं ीत को विश्‍वव्यापी सराहना मिली। प.ं रवि शक ं र को कई
देशी व विदेशी सम्मान मिले थे जिनमें मैगसैसे अवॉर्ड, ग्रैमी
अवॉर्ड, ऑस्कर और भारत रत्न प्रमख ु हैं। सगं ीत जगत का
पं. रवि शक
ं र यह सर्यू 11 दिसबं र 2011 को अस्त हो गया।

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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

उस्‍ताद बिस्मिल्ला खाँ (शहनाई वादक)


शहनाई जैसे मगं लवाद्य को शास्‍त्रीय सगं ीत के
प्रतिष्‍ठित मचं ों पर पहुचँ ाने वाले उस्ताद बिस्मिल्ला
खाँ का जन्म 21 मार्च 1916 में हुआ था। 1947 में
जब भारत आज़ाद हुआ तब उस ऐतिहासिक मौके
पर खाँ साहब को विशेष रूप से शहनाई वादन के उस्‍ताद िबस्‍मिल्‍ला खाँ
लिए आमत्रि ं त किया गया और यह सिलसिला उनकी मृत्युपर्यंत चला। उस्ताद
बिस्मिल्ला खाँ का मानना था कि भले ही परू ा विश्‍व खत्म हो जाए परंतु संगीत
हमेशा जि़दं ा रहेगा। वे यह भी मानते थे कि सगं ीत की कोई जाित नहीं होती। इन्हें
भारत रत्न, पद्मश्री, पद्मभषू ण, पद्मविभषू ण, संगीत नाटक अकादमी अवॉर्ड, तानसेन
सम्मान जैसे सम्मान मिले। महान सगं ीतकार बिस्मिल्ला खाँ 21 अगस्त 2006 को
नाद ब्र� में लीन हो गए।
एम.एस. सबु ्बुलक्ष्मी (गाियका)
एम.एस. सब्बु ु लक्ष्मी मदरु ई में जन्मी कर्नाटकीय शास्‍त्रीय
संगीत गायिका थी। सब्बु ु लक्ष्मी पहली भारतीय संगीतज्ञा
थीं, जिन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक भारत रत्न से अलंकृत
किया गया। अपने प्रशसं कों एवं कलाकारों में तथा निकट के
लोगों में कंु जम्मा नाम से लोकप्रिय इस महान गायिका का
जन्म 16 सितंबर 1916 को एक संगीतज्ञ देवदासी परिवार
में हुआ था। माँ एस. वीणा के अलावा एम.एस. अयनगार, एम.एस. सबु ्‍बुलक्ष्‍मी
सेम्मांगुड़ी, श्रीनिवास अय्यर, एम.एस. अय्यर, पापनाशम् शिवम,् बाला सरस्वती
और टी. बिंद्रा सहित द्विजेंद्र लाल राय, दिलीप कुमार राय, सिद्धेश्‍वरी देवी एवं
पं. नारायण राव व्यास से कर्नाटिक व हिदं स्ता ु नी संगीत की शिक्षा प्राप्‍त की। 10
वर्ष की उम्र में कोलंिबया ग्रामोफ़ोन कंपनी से रिकॉर्ड निकला था। दक्षिण भारत
के संत संगीतज्ञ की कृ तियों के साथ साथ मीरा, सुर, तुलसी और कबीर के भजन,
तुकाराम के अभंग और ठुमरियों के गायन द्वारा इन्होंने उत्तर और दक्षिण दोनों
क्षेत्रों के संगीत रसिकों का दिल जीता। मैगसेसे, पद्मश्री, पद्मभषू ण, पद्मविभषू ण
के साथ इन्हें 1998 में भारत रत्न सम्मान भी मिला। इनका निधन 11 दिसंबर
2004 को हुआ।

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संगीत के कुछ कलाकारों का परिचय

सगं ीत के कुछ अन्‍य कलाकार


गंगूबाई हंगल (गाियका)
कर्नाटक में जन्मी गगं बू ाई हगं ल हिदं स्ता
ु नी शास्‍त्रीय सगं ीत के
किराना घराने की गायिका थीं। गगं बू ाई हगं ल को ख्याल गायकी
के लिए विशेष रूप से जाना जाता था। इन्होंने सगं ीत की शिक्षा
श्री दत्तोपतं देसाई और श्री सवाई गाधं र्व से ली। 2009 में कर्नाटक गंगबू ाई हगं ल
राजकीय सगं ीत विश्‍वविद्यालय का पनु ः नामकरण गगं बू ाई हगं ल
म्यूज़िक एडं परफ़ॉर्मिंग आट्सर् यिू नवर्सिटी किया गया। इन्हें सगं ीत नाटक अकादमी
सम्मान के साथ-साथ अकादमी के रत्न सदस्यता, पद्मभषू ण, पद्मविभषू ण अलक ं रण
सहित अनेक मान-सम्मान मिले थे। उनके निवासस्थल गगं ोथ्री को कर्नाटक सरकार
द्वारा एक सग्रं हालय बनवा दिया गया है। हुबली स्थित गगं बू ाई हगं ल गरुु कुल में गरुु
शिष्य परंपरा अनसु ार शिक्षा दी जाती है। किराना घराने की विशद्ध ु गायकी का पालन
करने वाली इस गायिका का निधन 96 वषर् की उम्र में 21 जल ु ाई 2009 को हुआ।
प. हरिप्रसाद चौरासिया (बाँसरु ी वादक)
पं. हरिप्रसाद चौरासिया का जन्म 1 जल ु ाई 1938 को इलाहबाद में हुआ था।
1957 में पं. चौरासिया ने एक विभागीय कलाकार के रूप में कटक (ओडिशा)
आकाशवाणी कें द्र से अपनी संगीत यात्रा आरंभ की।
प.ं चौरसिया ने प.ं शिवकुमार शर्मा के साथ मिलकर
‘शिव-हरि’ नाम से सिलसिला, चाँदनी, डर एवं लम्हे
आदि कई फ़िल्मों में सगं ीत निर्देशन भी किया है।
प.ं हरिप्रसाद चौरासिया उन्होंने मबंु ई में वृदं ावन नामक एक गरुु कुल की
स्थापना की है, जहाँ गरुु शिष्य परंपरा के अतं र्गत बाँसरु ी वादन की उच्च स्तरीय शिक्षा
दी जाती है। पद्मभषू ण और पद्मविभषू ण के अलक ं रण सहित नॉर्थ ओडिशा यिू नवर्सिटी
एवं उत्कल विश्‍वविद्यालय से ऑनरेरी डॉक्टरेट की उपाधि भी इन्हें मिली है।
उस्ताद अल्लारखा खाँ (तबला वादक)
पंजाब घराने के महान् ताबलिक उस्‍ताद अल्लारखा का जन्म 1915 में हुआ था।
तबला वादन की शिक्षा इन्होंने श्री लाल मोहम्मद, भाई नासिरा और उस्ताद कादिर
बख़्श से प्राप्‍त की थी। उस्ताद अल्लारखा ने ए.आर. कुरै शी के नाम से हिदं ी और

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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

पजं ाबी की माँ-बाप, मदारी, जग्गा, सबक, आलमआरा,


घर की लाज, घर की शोभा, कुल कलक ं , जीवन छाया,
हिम्मतवाली, किस्मत का सितारा, आज़ाद हिदं स्ता ु न, देश
सेवा, धन्यवाद, नरू महल, जादईु अँगठू ी, बेवफ़ा, हातिम
की बेटी, खानदान, लालेचमन, सिमसिम मरजीना, इद्रं सभा
और सती अनसयु ा आदि फ़िल्मों में सफल सगं ीत निर्देशन
उस्‍ताद अल्‍लारखा किया था। लेकिन, बाद में इन्होंने स्वयं को तबले पर कें द्रित
कर लिया और पजं ाब घराने के तबले को नई पहचान दिलाई।
पद्मश्री से अलक
ं ृ त उस्ताद के तीनों पत्रु ज़ाकिर हुसनै , फज़ल कुरै शी और
तौफीक कुरै शी के साथ-साथ उनके शिष्य योगेश शम्सी और अनरु ाधा पाल भी
िवख्‍यात् कलाकार हैं। हृदयाघात से 3 फ़रवरी 2000 को खाँ साहब का आकस्मिक
निधन हो गया।
उस्ताद ज़ाकिर हुसैन (तबला वादक)
9 मार्च 1951 को मबंु ई में जन्मे ज़ाकिर हुसैन ने तबला वादन की उच्च स्तरीय
शिक्षा अपने पिता महान तबला वादक उस्ताद अल्लारखा से प्राप्‍त की। बचपन
से ही पं रविशक ं र, उस्ताद विलायत खाँ एवं उस्ताद
अली अकबर खाँ जैसे महान् कलाकारों की सगं ति
करने वाले ज़ाकिर हुसैन विश्‍व विख्यात संगीतकार हैं।
एक श्रेष्‍ठ तबला वादक होने के साथ-साथ अच्छे सगं ीत
रचनाकार एवं अभिनेता के रूप में भी इन्होंने अपनी उस्‍ताद ज़ाकिर हुसैन
प्रतिभा का अच्छा परिचय दिया है।
अनेक विदेशी विश्‍वविद्यालय से अतिथि प्राध्यापक के रूप में जड़ु े उस्ताद
ज़ाकिर हुसैन को सगं ीत नाटक अकादमी सम्‍मान, पद्मश्री एवं पद्मभषू ण सहित
देश-विदेश के कई मान-सामान मिल चक ु े हैं। ये पंजाब घराने के तबला वादक हैं।
ज़ाकिर हुसैन और उनके साथियों के संयक्ु ‍त एल्बम ग्लोबल ड्रम प्रोजेक्ट को
2009 में ग्रैमी अवॉर्ड मिला था। कई अन्य विदेशी फ़िल्मों के संगीत से भी ज़ाकिर
हुसैन जड़ु े रहे हैं, जिनमें ‘कस्‍टडी’ (Custody), ‘द मिस्‍टिक मेस्‍यु’ (The Mystic
Masseur), ‘लिटिल बद्धा ु ’ (Little Buddha) प्रमख ु हैं।

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संगीत के कुछ कलाकारों का परिचय

मंगलपल्ली बालमुरलीकृष्ण (गायक)


मंगलपल्ली बालमरु लीकृ ष्ण का जन्म 6 जल ु ाई, 1930 को
आंध्र प्रदेश में हुआ। वे एक कर्नाटक संगीत गायक होने के
साथ बहुवाद्य वादक, संगीत निर्देशक व एक अभिनेता भी
हैं। आठ साल की उम्र में थ्यागराज आराधना, विजयवाड़ा
सभागार में उन्होंने अपनी पहली प्रस्तुति दी। आज तक बाल
मरु लीकृ ष्ण ने करीब 25000 प्रस्तुतियाँ विश्‍व भर में दी हैं। मगं लपल्‍ली बालमरु लीकृ ष्‍ण
वाद्यों और गायन के उत्तम ज्ञान के साथ वे कन्नड़, संस्कृ त, तमिल, मलयालम,
हिदं ी, बंगाली, पंजाबी जैसी भाषाएँ बोलने में निपणु हैं। इन्होंने हिदं ी भाषी
रचनाओ ं को भी परू ी कुशलता के साथ गाया है। कर्नाटकीय संगीत में सरसता का
रंग घोलने के लिए इनकी विशेष रूप से सराहना की जाती है। पं. भीमसेन जोशी
और पं. अजय चक्रवर्ती के साथ इनकी जगु लबंदी खबू लोकप्रिय हुई है। देश-विदेश
के अनेकानेक मान-सम्मानों से सम्मानित एम. बालमरु ली को पद्मविभषू ण सम्‍मान
भी मिल चक ु ा है।
सदुं रम बालचंदर (वीणा वादक)
सदंु रम बालचदं र, भारतवर्ष के विख्यात कर्नाटकीय शैली के वीणा वादक, का जन्म
18 जनवरी 1927 को चेन्नई में हुआ था। बालचदं र को सगं ीत के सरु ीले सस्का ं र
अपने घर और परिवार में ही मिले। अतः 12 वर्ष की उम्र में ये स्वतत्रं कलाकार के
रूप में स्थापित हो गए थे। कर्नाटक सगं ीत के प्रकाडं विद्वान होने के साथ-साथ ये
सितार, तबला, मृदगं म, हारमोनियम, बल ु बल ु तरंग,
दिलरुबा और शहनाई में भी दक्ष थे। फ़िल्मी दनिय ु ा में
भी इन्होंने अपना महत्वपर्णू योगदान दिया था। दक्षिण
भारत में वीणा वादन की तकनीक को विकसित करने
में इनका विशेष रूप से नाम लिया जाता है। सन्
सदंु रम बालचदं र 1982 में पद्मभषू ण से अलक ं ृ त हुए। 15 अप्रैल 1990
को भिलाई में इनकी आकस्मिक मृत्यु हो गई, जहाँ ये एक कार्यक्रम के लिए गए थे।
पं. राम नारायण (सारंगी वादक)
प.ं राम नारायण का जन्म 25 दिसबं र 1927 को हुआ था। सारंगी वादन की शिक्षा
इन्हें पिता नाथू जी बियावत, उस्ताद मेहबबू खाँ, पं. उदयलाल, पं. माधव प्रसाद,
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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

उस्ताद अब्दुल वहीद खाँ, उस्ताद ज़ियाउद्दीन डागर एवं


उस्ताद करीम खाँ से मिली। पं. राम नारायण सन् 1944 में
आकाशवाणी के लाहौर कें द्र से जड़ु े। देश के विभाजन के
बाद ये मबंु ई की फ़िल्मी दनियु ा से जड़ु गए। सन् 1954 में
फ़िल्मी दनियु ा को छोड़कर एक समर्पित कलाकार के रूप में
ये परू ी तरह समर्पित हो गए। इन्होंने अपने समय के सभी महान
पं. राम नारायण गायकों के साथ सगं त करके एवं परू ी दनिय ु ा में सारंगी वादन
करके भारतीय संगीत का गौरव बढ़ाया है। पंडित जी को पद्मविभषू ण एवं संगीत
नाटक अकादमी सम्मान सहित कई अन्य सम्मान भी मिल चक ु े हैं।
डागर बंधु, उस्ताद रहीमुद्दीन खाँ एवं उस्ताद फहीमुद्दीन खाँ (गायक)
डागरु वाणी के प्रख्यात ध्रुवपद गायक उस्ताद रहीमद्ु दीन खाँ का जन्म सन् 1901 में
उदयपरु में हुआ था। ध्रुवपद गायन की शिक्षा इन्हें अपने पिता उस्ताद अल्लाबंदे
खाँ एवं बड़े भाई नसीरुद्दीन खाँ से मिली थी। रहीमद्ु दीन खाँ प्रथम गायक थे, जिन्होंने
अपने साथ ‘डागर’ उपनाम जोड़ा था और तब से इस परंपरा के सभी गायक अपने
नाम के साथ ‘डागर’ उपनाम लिखने लगे। उस्ताद रहीमद्ु दीन खाँ को पद्मभषू ण से
अलंकृत किया गया था।
उस्ताद फहीमद्ु दीन खाँ का जन्म 2 फ़रवरी 1927 को अलवर (राजस्थान) में हुआ
था। इन्होंने अपने पिता उस्ताद रहीमद्ु दीन डागर सहित चाचाओ ं उस्ताद हूसइनद्ु दीन
डागर उफ़र् तानसेन पाडं ेय तथा उस्ताद इमामद्ु दीन डागर से भी ध्रुवपद गायन की शिक्षा
प्राप्‍त की। रुद्रवीणा की तालीम इन्होंने अपने दसू रे चाचा उस्ताद जियाउद्दीन खाँ डागर
से एवं सस्कृं त की शिक्षा प.ं गिरधारी लाल शास्‍त्री से प्राप्‍त की थी। कें द्रीय सगं ीत
नाटक अकादमी सम्मान, कालिदास सम्मान, उस्ताद हाफि़ज अली खाँ सम्मान एवं
पद्मभषू ण से अलक ं ृ त डागर साहब का निधन 27 जल ु ाई 2011 को दिल्ली में हुआ।
पं. शिवकुमार शर्मा (सतं ूर वादक)
पं. शिवकुमार शर्मा ने संतरू वादन की शिक्षा अपने पिता पं.
उमादत्त शर्मा से प्राप्‍त की है। शिव कुमार ने पहले तबला सीखा,
व्यावसायिक मचं ों पर तबला वादन किया भी और फिर संतरू
की ओर आकृ ष्‍ट हुए। शिव कुमार ने वी. शांतराम की प्रसिद्ध
फिल्म झनक-झनक पायल बाजे सहित अनेक फि़ल्मों में संतरू पं. िशवकुमार शर्मा

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संगीत के कुछ कलाकारों का परिचय

वादन किया है। फ़िल्‍म गाइड में तबला वादन किया और प.ं हरी प्रसाद चौरासिया के
साथ मिलकर ‘शिव-हरि’ नाम से सिलसिला, 27 डाउन, चाँदनी, फ़ासले, साहिवा
आदि कई फ़िल्मों में सगं ीत निर्देशन भी किया।
एक सफल संतरू वादक के रूप में इन्होंने दनिय
ु ा भर की यात्रा की है। संतरू
में शास्‍त्रीय और रागदारी संगीत की सफल प्रस्तुति के लिए पारंपरिक संतरू में
क्रांतिकारी परिवर्तन करने वाले शिव जी को महाराष्ट्र गौरव परु स्कार, संगीत नाटक
अकादमी सम्मान, पद्मविभषू ण जैसे कई मान-सम्मान मिले हैं।
टी. एन. कृष्णन् (वायलिन वादक)
कर्नाटकीय शैली के सप्रु सिद्ध वायलिन वादक टी. एन. कृ ष्णन्
का जन्म 6 अक्‍तूबर 1928 को के रल में हुआ था। वायलिन
वादन की प्रारंभिक शिक्षा अपने पिता ए. नारायन अय्यर से
लेने के बाद ए. के . पार्थसारथी एवं सेमन गडु ी श्रीनिवास अय्यर
से प्राप्‍त की थी। इन्होंने म्यूिजक कॉलेज चेन्नई में प्रोफ़ेसर एवं
दिल्ली विश्‍वविद्यालय में संगीत एवं ललित कला संकाय के टी.एन. कृ ष्‍णन्
अध्यक्ष के पद को भी सश ु ोभित किया था।
टी.एन. कृ ष्णन् को सगं ीत नाटक अकादमी सम्मान, अकादमी की रत्न
सदस्यता, संगीत कालनिधि सम्मान, संगीत, कला शिक्षामणि सम्मान सहित पद्मश्री
एवं पद्मभषू ण के अलंकरण भी मिले हैं।
उस्ताद अमीर खाँ (गायक)
उस्ताद अमीर खाँ का जन्म सन् 1912 में हुआ था। इनके पिता उस्ताद शाहमीर
खाँ अच्छे सारंगी वादक थे। अमीर खाँ ने अपने पिता के साथ-साथ उस्ताद वहीद
खाँ, उस्ताद रजब अली खाँ और उस्ताद अमान अली खाँ से भी
मार्गदर्शन प्राप्‍त किया था।
विलंबित ख्याल को अति विलंबित का रूप देने और तराना
गायकी को नया अंदाज़ देने वाले अमीर खाँ ने झनक-झनक
पायल बाजे और बैजू बावरा आदि जैसी संगीत प्रधान फ़िल्मों में
भी गायन किया था। बिहार संगीत नाट्य परिषद् के फै ़लो उस्ताद
उस्‍ताद अमीर खाँ अमीर खाँ को संगीत नाटक अकादमी सम्मान और पद्मभषू ण

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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

के अलंकरण सहित कई मान-सम्मान मिले थे। ख्याल गायन के इदं ौर घराने के


प्रणेता हैं।
एक कार दर्घु टना ने इस महान् गायक को 13 फ़रवरी 1974 को हमसे छीन
लिया।
लालगुडी गोपाल अय्यर जयरमन (वायिलन वादक)
17 सितंबर 1930 को जन्मे लालगडु ी जयरामन ने कर्नाटकीय
शैली के वायलिन वादक, गायक एवं संगीत संरचनाकार के
रूप में अतं र्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित की थी। इसके अलावा नाट्य
विद्या तिलक, नाट्य विद्या रत्नाकर, वाद्य संगीत कलारत्न, संगीत
चड़ू ामणि, संगीत नाटक अकादमी सम्मान, कें द्रीय संगीत नाटक
अकादमी की रत्न सदस्यता सहित पद्मश्री एवं पद्मभषू ण का लालगडु ी गोपाल
अलंकरण इन्हें मिला था। अय्यर जयरमन
लालगडु ी जयरमन ने कर्नाटकीय गायन शैली को एक नई दिशा दी थी जिसे
कालांतर में लालगडु ी वाणी कहा गया। इनके द्वारा संरचित कृ ति, तिल्लाना एवं
वर्णम् आदि में शब्द, स्वर, राग, लय, ताल और भाव की अदभ् तू रचना ही नहीं
अदभ् तू तालमेल भी देखने को मिलता है। लक्ष्मी देवनाथ ने लालगडु ी जयरमन की
जीवन गाथा को एन इनक्योरेबिल रोमांटिक (An Incurable Romantic) नाम
से लेखनी बद्ध किया है, जिसकी भमू िका पं. रविशक ं र ने लिखी थी। तमिल, तेलग,ु
कन्नड़ और सस्कृ ं त भाषा की बहुविध रचनाओ ं को स्वरबद्ध कर चक ु े लालगडु ी
अपनी सारस रचनाओ ं के लिए अत्यंत प्रसिद्ध थे। इनकी रचनाओ ं को फ़िल्मी
दनिय
ु ा ने भी अपनाया और अपनी नृत्य सरं चनाओ ं की प्रस्तुति के लिए अनेक
नृत्यांगनाओ ं ने भी। विलक्षण प्रतिभा के धनी इस महान् संगीतकार का निधन 22
अप्रैल 2013 को हुआ।
पं. किशन महाराज (तबला वादक)
पं. किशन महाराज का जन्म 3 सितंबर 1930 को कृ ष्ण
जन्माष्‍टमी के दिन बनारस में सगं ीतज्ञों के एक प्रतििष्‍ठत
परिवार में हुआ था। किशन महाराज ने अपने बड़े चाचा
प.ं कंठे महाराज से तबला वादन की विधिवत शिक्षा प्राप्‍त
की। पं. किशन महाराज ने अपने समय के सभी प्रतिष्‍ठित पं. िकशन महाराज

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संगीत के कुछ कलाकारों का परिचय

गायकों, वादकों और नर्तकों के साथ सफल सगं ति करके अपरू ्व ख्याति प्राप्‍त की
थी। कठिन लयकारियों एवं विषम प्रकृ ति के तालों के वादन में इन्हें विशेष महारत
हासिल थी। इन्होंने तबला वादन की उच्चस्तरीय शिक्षा अनेक लोगों को दी। नंदन
मेहता, कुमार बोस, सख ु विंदर सिंह नामधारी, संदीप दास, हेतल मेहता, बालकृ ष्ण
महतं और अरविदं आज़ाद सहित इनके पत्रु परू ण महाराज और नाती शभु महाराज
भी विश्‍वविख्यात तबला वादक हैं।
उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी की रत्न सदस्यता, कें द्रीय संगीत नाटक
अकादमी सम्मान, हाफ़िज़ अली खान सम्मान पद्मश्री एवं पद्मविभषू ण के अलंकरणों
से अलंकृत इस महान् ताबलिक का निधन 4 मई 2008 को हुआ।
एन. राजम् (वायलि‍न वादक)
एन. राजम् का जन्म सन् 1938 में संगीतज्ञों के प्रतििष्‍ठत
परिवार में के रल के एर्नाकुलम् में हुआ था। कर्नाटकीय सगं ीत
की प्रारंभिक शिक्षा इन्होंने अपने पिता ए. नारायण अय्यर से
प्राप्‍त की थी। इसके बाद सगं ीत कलानिधि सब्रु मण्यम अय्यर
से इन्होंने वायलिन वादन की शिक्षा प्राप्‍त की। बाद में उत्तर
भारतीय हिदं स्ता ु नी सगं ीत की ओर आकृ ष्‍ट हुई। जिसकी एन. राजम्
प्रारंभिक शिक्षा एल.आर. के लकर और उच्चस्तरीय शिक्षा इन्हें संगीत प. ओकं ार
नाथ ठाकुर से मिली। एन. राजम् एक छात्रा के रूप में काशी हिदं ू विश्‍वविद्यालय
से जड़ु ीं और संकाय प्रमख ु तक के पद को सशु ोभित किया। पं. ओकं ारनाथ ठाकुर
की गायकी से विशेष रूप से प्रभावित एन. राजम् गायकी अगं से ही वदन करती हैं।
बनारस अगं की गायकी की शिक्षा इन्होंने पं. महादेव प्रसाद से प्राप्‍त की है।
उत्तर प्रदेश सगं ीत नाटक अकादमी परु स्कार, कें द्रीय सगं ीत नाटक अकादमी
सम्मान, पद्मश्री एवं पद्मभषू ण के अलंकरणों से अलंकृत एन. राजम् को कई मान-
सम्मान मिले थे। इन्होंने लगभग परू ी दनिय
ु ा की सगं ीत यात्रा की है।
पं. देबु चौधरी/देवव्रत चौधरी (िसतार वादक)
पं. देबु चौधरी का जन्म 1935 में 30 मई को हुआ। इन्होंने बचपन से ही सितार की
शिक्षा लेनी शरूु कर दी थी और 18 वर्ष की उम्र में आकाशवाणी से अपना पहला
कार्यक्रम दिया। सितार वादन की शिक्षा इन्होंने स्व. पांचु गोपाल दत्ता और उस्ताद
मश्ता
ु क अली खाँ जैसे गरुु ओ ं से प्राप्‍त की है।
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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

दिल्ली विश्‍वविद्यालय के सगं ीत विभाग में प्रोफ़ेसर,


विभागाध्यक्ष एवं संकाय प्रमख
ु (Dean) के पद को भी इन्होंने
वर्षों तक सश ु ोभित किया। सेनिया परंपरा के सितार वादक
पं. देबु चौधरी आज भी मात्र 17 पर्दों के सितार पर वादन करते
हैं और अपने शिष्यों से भी ऐसा करने के लिए अनरु ोध करते हैं।
सृजनात्मक प्रतिभा के धनी प.ं देबु चौधरी ने एक ओर सगं ीत
पं. देबु चौधरी विषयक 6 पस्त ु क का लेखन किया है। अतिथि अध्यापक के
रूप में अनेक देशी-विदेशी संस्थाओ ं से भी ये जड़ु े हैं। पं. देबु चौधरी ने अपने गरुु
उस्ताद मस्ता ु क अली खाँ के नाम पर ‘उमक’ नामक संस्था बनाई है। रसस्वर
सम्मान, तानसेन सम्मान, साहित्य कला परिषद् सम्मान, संगीत नाटक अकादमी
सम्मान एवं पद्मभषू ण के अलंकरण सहित कई अन्य मान-सम्मान भी पडि ं त जी को
मिल चक ु े हैं।
पं. भजन सोपोरी (सतं ूर वादक)
पं. भजन सोपोरी का जन्म 22 जनू 1948 को कश्मीर के सफ़िय ु ाना
घराने के एक प्रतििष्‍ठत परिवार में हुआ था। सतं रू वादन की शिक्षा
इन्होंने अपने पितामह पं. संसार चद्रं सोपोरी और पिता पं. शभु नाथ
सोपोरी से प्राप्‍त की, साथ ही अमेरिका की वाशिगं टन यनिवर्सि
ू टी से
पाश्‍चात्य संगीत में भी एम.ए. किया।
लल्लेश्वरी, पटवतं ी और निर्मल रंजनी जैसे नए रागों के सर्जक पं. भजन सोपारी
भजन सोपोरी ने फ़िल्मों में सगं ीत निर्देशन भी किया है। पद्मश्री के अलंकरण और
संगीत नाटक अकादमी सम्मान सहित कई सम्मानों से विभषि ू त हैं।
गुरुवयूर दौरई (मृदगं म् वादक)
सप्रु सिद्ध मृदगं म् वादक गरुु वयरू दौरई का जन्म 2 जल ु ाई
1935 को के रल के तिसरू जिला स्थित गरुु वयरू नामक स्थान
में हुआ था। गरुु वयरू दरु ई ने मृदगं म् वादन की शिक्षा पालघाट
सब्बा
ु अय्यर, इ.पी.नारायन पी एवं पलानी सब्रु मण्यम पिल्लई
जैसे वरिष्‍ठ गरुु ओ ं से प्राप्‍त की है।
गरुु वयरू दौरई

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संगीत के कुछ कलाकारों का परिचय

उल्लेखनीय है कि गरुु वयरू दौरई का वास्तविक नाम वैद्यनाथन् हैं। मात्र 8 वर्ष
की उम्र में सांगीतिक मचं ों पर पदार्पण कर चक ु े जी. दरु ई ने अपने सभी समकालीन
कलाकारों के साथ राष्ट्रीय-अतं र्राष्ट्रीय मचं ों पर संगति की है।
विक्कू विनायक राम (घटम वादक)
विक्कू विनायक राम का जन्म 11 अगस्त 1942 को हुआ था।
कें द्रीय सगं ीत नाटक अकादमी की रत्न सदस्यता, उस्ताद हाफि़ज
अली खाँ सम्मान एवं पद्मश्री तथा पद्मभषू ण के अलंकरण सहित
कई मान-सम्मान प्राप्‍त कर चक ु े विक्कू विनायक राम ने ग्रैमी
अवॉर्ड विजेता अलबम प्लेनेट ड्रम में भी घटम बजाया था। घटम
और मोरसिंग के इस सप्रु सिद्ध वादक ने उत्तर और दक्षिण भारतीय िवक्‍कू िवनायक राम
कलाकारों के साथ-साथ कई पाश्‍चात्य कलाकारों के साथ भी संदु र प्रस्तुतियाँ दी हैं।
विक्कू विनायक राम वर्तमान में चेन्नई स्थित श्री जय गणेश तालवाद्य विद्यालय
के प्राचार्य पद पर कार्य करते हुए नई पीढ़ी को प्रशिक्षित कर रहे हैं। यह विद्यालय
इनके पिता द्वारा स्थापित है। इनके सपु त्रु बी. सेल्वागनेश अतं राष्ट्रीय वादक हैं।
बाबा अलाउद्दीन खाँ
इसराज और दिलरुबा के सविख्या ु त वादक अलाउद्दीन खाँ का जन्म 1 जनवरी
1947 को संगीतज्ञों के परिवार में हुआ था। इन्होंने संगीत की शिक्षा उस्ताद
मोहम्मद अली खाँ एवा, उस्ताद ज़हूर अहमद खाँ से
प्राप्‍त की थी। अलाउद्दीन खाँ ने दिलरुबा और इसराज
की अलग-अलग विशेषताओ ं को संयक्ु ‍त कर एक नए
साज को प्रचलित किया था जिसे उन्होंने दिलरुबा-
इसराज का नाम दिया था। मख्य ु तः सगु म संगीत की
बाबा अलाउदद्दीन खाँ संगति में प्रयक्ु ‍त होने वाले इस साज पर अलाउद्दीन खाँ
ने शास्‍त्रीय संगीत की अथर् प्रस्तुति की है। वे एक अच्छे संगीत संरचनाकार भी थे।
ख्याल गायक उस्ताद बड़े गल ु ाम अली खाँ से लेकर गज़ल गायक गल ु ाम अली
तक की सदंु र सगं त करने वाले प्रतिभाशाली कलाकार थे। लबं े अर्से तक आकाशवाणी
(दिल्ली) में कार्यरत रहे अलाउद्दीन खाँ का निधन 17 मार्च 2015 को हुआ।

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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

उस्‍ताद अमज़द अली खाँ (सरोद वादक)


9 अक्‍तूबर 1945 को ग्वालियर के एक प्रतिष्‍ठित
संगीतज्ञ परिवार में जन्मे उस्ताद अमजद अली खाँ
सेनिया बंगश परंपरा की छठवीं पीढ़ी के प्रतिनिधि हैं।
इन्होंने अपने पिता महान् सरोद वादक उस्ताद हाफि़ज
उस्‍ताद अमज़द अली खाँ अली खाँ जैसे सरोद वादक होने के साथ-साथ श्रेष्‍ठ
संगीत संरचनाकार के रूप में भी अपनी प्रतिभा का अच्छा परिचय दिया है। अपने
सरोद से परू ी दनिय
ु ा को रसगजि ंु त कर चक ु े अमज़द अली खाँ को अनेक देशों ने
अपने यहाँ की नागरिकता सम्मानस्वरूप प्रदान की है।
भारत एवं कनाडा सरकार ने इनके व्यक्‍तित्व एवं कृ तित्व पर वृत्तचित्रों का
निर्माण किया है। प्रख्यात फ़िल्मकार गल ु ज़ार द्वारा निर्देशित वृतचित्र को परु स्कार
भी मिला है। खाँ साहब पर दो पस्त ु कें भी लिखी गई हैं – द वर्ल्ड ऑफ़ अमज़द
अली खाँ एवं अब्बा गॉड्स ग्रेटेस्ट गिफ़्ट टू अस।
अमज़द अली खाँ को कई मान-सम्मान मिल चक ु े हैं, जिनमें प्रमख
ु हैं –
इटं रनेशनल म्यूज़िक फ़ोरम अवॉर्ड (यनू ेस्को), संगीत नाटक अकादमी सम्मान,
अकादमी की रत्न सदस्यता, तानसेन सम्मान, पद्मश्री, पद्म भषू ण तथा पद्मविभषू ण
के अलंकरण। अनेक विश्‍वविद्यालयों ने इन्हें डी.लिट. की मानद उपाधि से
सम्मानित किया है, जिनमें यार्क यनिवर्सि
ू टी (इगं ्लैैंड), दिल्ली विश्‍वविद्यालय, रवींद्र
भारती यनिवर्सि
ू टी एवं विश्‍वभारती शांति निके तन प्रमख ु हैं। दनिय
ु ा भर के प्रतिष्‍ठित
संगीतकारों के साथ अपनी खास प्रस्तुतियाँ दे चक ु े हैं।
सरू ्यकांत खलकर (सदुं री और शहनाई वादक)
पं. सर्यू कांत खलकर का जन्म सन् 1936 में पणु े में संगीतज्ञ
परिवार में हुआ था। संदु री वादन की शिक्षा इन्होंने अपने पिता
पं. बाबरू ाव खलदकर से प्राप्‍त की थी। पं. खलदकर ने संदु री
जैसे सीमित साज पर शास्‍त्रीय, उपशास्‍त्रीय, सगु म संगीत के
साथ-साथ मराठी नाट्य गीत की भी सदंु र सगं ति कर ख्याति सूर्यकांत खलकर
अर्जित की थी।

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संगीत के कुछ कलाकारों का परिचय

पं. रामाशीष पाठक (पखावज वादक)


प.ं रामाशीष का जन्म 16 जनवरी 1937 के दरभगं ा के
अमता ग्राम में हुआ था। इन्होंने अपने नाना पं. विष्णुदेव
पाठक से पखावज वादन की शिक्षा प्राप्‍त की थी। रामाशीष
पाठक ने देश-विदेश के प्रतिष्‍ठित मचं ों पर अनेक ध्रुवपद
गायकों, वीणा वादकों की संगति करने के साथ-साथ तबला पं. रामाशीष पाठक
वादकों, पखावज वादकों एवं मृदगं म् वादकों के साथ यगु ल
वादन करके ख्याति अर्जित की थी। देश-विदेश की अनेक कंपनियों ने इनके वादन
की ध्वनि मद्ु रिकाएँ तैयार की है।
पं. रामाशीष पाठक को अनेक मान-सम्मान मिले थे जिनमें तालमणि, मिथिला
विभतिू , पखावज शिरोमणि, पखावज, सम्राट, स्वाति तिरुनाल सम्मान एवं कें द्रीय
संगीत नाटक अकादमी सम्मान प्रमख ु हैं।
सिक्किल बहनें (बाँसरु ी वादक)
सिक्किल बहनों के नाम से देश-विदेश में अपने
बाँसरु ी वादन से अपरू ्व ख्याति प्राप्‍त करने वाली
दोनों बहनों – सिक्किल कंु जमु नी एवं सिक्किल
नीला का जन्म क्रमशः 15 जनू 1930 एवं
6 सितंबर 1940 को हुआ था। इनके पिता नातेशा िसक्‍किल बहनें
अय्यर मृदगं म् वादक थे। कंु जमु नी को बचपन से ही बाँसरु ी बजाते कृ ष्ण की मर्तिू
आकर्षित करती थी। इसी आकर्षण से वशीभतू वह हर समय बाँसरु ी बजाती रहती
थीं। कंु जमु नी का बाँसरु ी के प्रति गहरा आकर्षण देखकर उनके मामा अयरू नारायण
स्वामी अय्यर ने उन्हें बाँसरु ी सिखाना शरू ु किया। बाद में छोटी बहन नीला भी
बड़ी बहन के पदचि�ों पर चल पड़ी। शरू ु में दोनों बहनें अलग-अलग कार्यक्रम
देती थीं। लेकिन 1962 से उन्होंने एक साथ कार्यक्रम देना शरू ु किया। सिक्किल
कंु जमु नी का निधन 83 वर्ष की उम्र में 13 नवंबर 2010 को चेन्नई में हो गया। इन
सिक्किल सिस्टर्स को जो मान-सम्मान मिले हैं, उनमें प्रमख ु हैं तमिलनाडु संगीत
संगम द्वारा प्रदत्त – कलामणि, संगीत नाटक अकादमी सम्मान, संगीत कलामणि,
संगीत कलानिधि, पद्मश्री एवं कई अन्य।

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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

कमला शंकर (िगटार वादक)


महिला गिटार वादिकाओ ं में डॉ. कमला शक ं र का महत्त्वपर्णू स्थान है। ये पहली
महिला कलाकार हैं, जिन्हें गिटार पर शोधकार्य के लिए डॉक्टरे ट की डिग्री मिली है।
यह शोधकार्य इन्होंने काशी हिदं ू विश्‍वविद्यालय (वाराणसी) से किया है।
राष्ट्रीय कुमार गंधर्व सम्मान से सम्मानित एवं
आकाशवाणी में कार्यरत डॉ. कमला शक ं र ने अपने वाद्य
हवाईन गिटार में कुछ परिवर्तन करके उसे भारतीय शास्‍त्रीय
संगीत की प्रस्तुति के योग्य बनाया और शक ं र वीणा का
नाम दिया। शक ं र वीणा में 4 मख्य
ु तारों के साथ-साथ 4
कमला शक
ं र
चित्रकारी के और 12 तक के तार हैं।
उस्ताद शफ़ात अहमद खाँ (तबला वादक)
दिल्ली घराने के विख्यात तबला वादक उस्ताद शफ़ात अहमद
खाँ का जन्म मई 1954 में दिल्ली में हुआ था। इन्होंने तबला
वादन की शिक्षा अपने पिता उस्ताद छम्मा खाँ से प्राप्‍त की थी।
भारत के सभी प्रतिष्‍ठित मचं ों के साथ-साथ इगं ्लैंड, अमेरिका,
यरू ोप,जापान और ऑस्ट्रेलिया आदि देशों की भी शफ़ात उस्‍ताद शफ़ात अहमद खाँ
अहमद ने कई बार यात्राएँ कर संगीत का मान बढ़ाया।
संस्कृ त सम्मान एवं पद्मश्री के अलंकरण से अलंकृत शफ़ात अहमद का
आसामयिक निधन 24 जल ु ाई 2005 को हुआ था।
रफ़ीउद्दीन साबरी (तबला वादक)
14 जल
ु ाई 1967 को संगीतज्ञों के परिवार में जन्मे रफ़ीउद्दीन साबरी ने तबला
वादन की शिक्षा उस्ताद अब्दुल बहीद खाँ और उस्ताद
नज़ीर अहमद खाँ से प्राप्‍त की है। 1984 में आकाशवाणी
द्वारा आयोजित संगीत प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्‍त
करके रफ़ीउद्दीन साबरी ने अपनी प्रतिभा का परिचय दिया। ये
सर्वोच्च श्रेणी के ताबलिक हैं। भारत के साथ-साथ अमेरिकी,
अरब, यरू ोपीय एवं एशियाई देशों को अपने तबला वादन से
रफ़ीउद्दीन साबरी

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संगीत के कुछ कलाकारों का परिचय

गंजु रित कर चक ु े रफ़ीउद्दीन साबरी ने अनेक पाश्‍चात्य संगीतकारों के साथ फ़्यूज़न


प्रयोग भी किए हैं।
द वर्ल्ड दिस वीक, इडियं ा क्विज़, वाइल्ड कलेक्शन, ए फ़्यू रूपी मोर, टु नाइट,
इलेक्शन विश्‍लेषण, स्टार न्यूज़, ए बिज़नेस ऑफ़ इडिय ं ा एवं एन.डी.टी.वी. के
शीर्षक संगीत में भी रफ़ीउद्दीन साबरी की थिरकती अँगलिय ु ों का कमाल देखा जा
सकता है।
डालचंद शर्मा (पखावज वादक)
नाथद्वारा परंपरा के प्रख्यात पखावजी प.ं डालचदं शर्मा
का जन्म 11 अप्रैल 1965 को भरतपरु (राजस्थान) में
हुआ था। डालचदं शर्मा को पखावज वादन की शिक्षा पं.
तोताराम शर्मा से मिली साथ ही प.ं मरु लीधर शर्मा, पद्मश्री
पं. परुु षोत्तम दास पखावजी एवं बाबा जीवन दास से भी
इन्हें सीखने का सयु ोग मिला। डालचदं शर्मा
लगभग सभी प्रतिष्‍ठित ध्रुवपद गायकों एवं तंत्र वादकों की सफल संगत कर
चक ु े , आकाशवाणी एवं दरू दर्शन के सर्वोच्च श्रेणी के मान्यता प्राप्‍त पखावज वादक
पं. डालचदं शर्मा दिल्ली विश्‍वविद्यालय के संगीत विभाग में कार्यरत हैं।

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प�र�शष्‍ट I
िश�क सदिं र्शका के साथ सल
ं ग्न
डी.वी.डी. के िवषय
डी.वी.डी. 1 — भारतीय शास्‍त्रीय सगं ीत — गायन एवं वादन
1. देश राग – मिले सरु मेरा तम्हा ु रा
2. भीमसेन जोशी – वीणा वादिनी वर दे
3. एम.एस. सब्बु ु लक्ष्मी – श्री रामचद्रं कृ पालु भजमन
4. बिस्‍मिल्ला खान – शहनाई
5. किशन महाराज – तबला
6. एन. राजम् – वायलिन
7. रवि शक ं र – राग माझ खमाज
8. डागर बंधु – ध्परु द
9. रामाशीष पाठक – पखावज
10. देबु चौधरी – सितार
11. सिक्किल सिस्टर्स – बाँसरु ी कर्नाटक शैली
12. कमला शक ं र – गिटार
13. मगं लपल्‍ली बालमरु लीकृ ष्ण – गायन कर्नाटक शैली
14. अमज़द अली खान – सरोद
15. गरुु वायरू दरु ई-मृदगं म एवम् विक्कु विनायक राम – घटम
16. अमीर खाँ – गायन हिदं स्ता ु नी शैली
17. अलव-उद-दीन खान – इसराज
18. गगं बू ाई हगं ल – गायन हिदं स्ताु नी शैली
19. भजन सोपारी – संतरू
20. सलामत अली खान एवं उस्ताद शराफ़त अली खान –
गायन हिदं स्ताु नी शैली
21. हरीप्रसाद चौरसिया – बाँसरु ी
22. टी.एन. कृ ष्णन् – वायलिन
23. सर्यू कांत खालाडकर – संदु री
24. राम नारायण – सारंगी
25. जल तरंग

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परिशिष्‍ट I

डी.वी.डी. 2 — भारत के लोक सगं ीत एवं नतृ ्य परम्पराएँ


1. लद्दाख एवं कश्मीर 2. हिमाचल प्रदेश 3. उत्तराखडं
4. ओडिशा 5. उत्तर पर्वी
ू भारत 6. पंजाब
7. हरियाणा 8. राजस्थान 9. गजु रात
10. मध्य प्रदेश 11. कर्नाटक 12. तमिलनाडु
13. अव्यक्‍तय (स्‍कू ल के ि‍दव्‍यांग बच्‍चों द्वारा प्रस्‍तुतियाँ)
डी.वी.डी. में दिए गए कुछ लोकगीतों के बोल
गुजराती
।। गीत – 1 ।।
हे आज गगनमा चाँदलो चमके ,
कानडु ा मारे रास रमवा जावु छे ।
हे नंदलाल हो जशोदाना लाल,
रास रमवा जावु छे ।
हे आज गगनमा चाँदलो चमके ,
कानडु ा मारे रास रमवा जावु छे ।।
।। गीत – 2 ।।
हालारी तारा होय-होय
हालारी तारा हाथ वखाणु
के पछी तारा पगला पखाणु
जय जय जय दबंग होल
जय जय शहनाई ढोल
टीकढाम टीकढाम धन जय जय बोले
पनघट पर बैठे, नटवर आनंद नाचे
हालारी तारा हाथ वखाणु
के पछी तारा पगला पखाणु ।।

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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

पीछे -पीछे लख्या रे आगाज के


वनरावन नो मोरलो बोल्यो गोकुल गाम
हालारी तारा हाथ वखाणु
के पछी तारा पगला पखाणु
जोने आ राधा, जएु काना तारी वाटडी
रडी रडी आँख ऐनी थई गई रातडी
हे--------- कोई समजावीने लावो एने
वनरावननो मोरलो बोल्यो गोकुलगाम ।।
।। गीत – 3 ।।
छः छः महिने आवी होली माँ
फागनु महिने आवी होली माँ
फागनु महिने आवी
हू हू लेकर देशो होली माँ
हू हू लेकर देशु
नालियरे लेकर देशु होली माँ
नालियेर लेकर देशु
फागनु महिने आवी होली माँ
फागनु महिने आवी ।।
गढ़वाली (उत्तराखंड)
झम झम झम झमु ल ै ो
ठंडु मठु चौमास डांडियों मा सौरिगै
तीसली धरती की तीस बझु दै े
ठंडा धीमी गति का सावन पहाड़ों में फै ल गया है।
प्यासी धरती की प्यास बझु ादे (सावन से)।
हिमाचल प्रदेश
भावा रूपीये ओ खेलवी इजे मेरे
किजी रे खले, मेरी भावा रूपीये

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परिशिष्‍ट I

हाथड़ू खड़े मेरी भावा रूपीये


ओ हाथड़ू मेरी भावा रूपीये
टेडी लाणी टोपड़ी तेथे लागा कुजा
बाजी ढोलकी बाजी नगाड़ा रामादासिये रामादासिये
तेरी नाटीये नोखा नज़ारा रामादासिये रामादासिये
बाजी ढोलकी बाजी नगाड़ा रामादासिये रामादासिये
मेरी सखी आओ साथ खेलो, आँगन में आओ हाथ थक जाएँ तो भी खेलें।
टोपी को टेड़ा लगाकर उसमें फूल लगाना है।
ढ़ोल बाजे नगाड़ा बाजे उसके साथ तम्हा
ु रा नाच एकदम अनोखा
कश्मीरी (रौफ़)
ह्रन्द पोशमान गिन्द ने द्राई लो लो
शबु ी शाबाश चान्ये:पोत थ्साई लो लो
ज़इलवाकन बालयेली के रिश्मार
पछ लगनस गंज रान लछ्तहजार
तैमीशाई नौ मोकलोन पाईलोलो
रनीगौडकुई यामत बजु मु साज़
साज बौज़नि छु आमतु शाहि एनदराज़
पोशमाल छम पोषन छाए लोलो
रिन्द पौशमाल धिन्दने द्रयि लोलो
असम (बिहू)
जोज़ोना (परुु ष)
किनू सोतमो हिया ओई
ओई बोता साटी माड़ीले ओई
गोसा बोने हौलाले पाट
किनू औहीमियार बिहूटी आहिले
गोरूर साले लौगाले माठ
जोज़ोना (परुु ष)

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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

ओटीकोइ चेनेहोर मगु ारे महु ुरा


टाटो कोइ चेनेहोर माकु
टाटोकोइ चेनेहोर बोहागोर बिहूति
नेनाची के ने ओई ठाकु
जुरामन (पुरुष)
ढोमे दई ए ...कोरा...है...है....ओइ नै ओइ कोलिजा
बातोलोई ओइ नेचाला एरिला ओइ चेनेहोर खोज
पाने बाई लाखटु ी है...है...है....ओइ ..करिजा
कीडोरे ओई एरिला कीडोरे ओई एरिला मक ु
हाउली तलिू के है ..है..है...ओई..कोलिजा
नादोरनू पानी तपि
ु जक ु ारि ओई तलिू के लाई
मातु मातु बलि
ु है... है... है..ओई कोलिजा
मातिबो मोई पोरा नई अचो तमू ार मक ु ोलोई चाई

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प�र�शष्‍ट II

दृश्‍य कला और प्रदर्शन कला पाठ्यक्रम


सच
ं ालित करने वाले कुछ विश्‍वविद्यालय
विश्‍वविद्यालय
क्र. स.ं और काॅलेज पता
का नाम
1. अरुणाचल मख्य
ु परिसर, एनएच – 52,
विश्‍वविद्यालय नमसई, जिला–लोहित, पिन कोड – 792103, अरुणाचल प्रदेश
वेबसाइट – www.arunachaluniversity.ac.in

2. अलीगढ़ ललित कला विभाग, ए.एम.य.ू , अलीगढ़


मस्लिम
ु वेबसाइट – www.amu.ac.in
विश्‍वविद्यालय
3. इन्दिरा गांधी स्कू ल ऑफ़ परफ़ाॅर्मिंग एडं विज़ुॅअल आर्ट्स, इदि
ं रा गांधी
राष्ट्रीय मक्ु ‍त नेशनल ओपन िवश्‍वविद्यालय, ब्‍लाॅक–बी, अबं ेडकर भवन,
विश्‍वविद्यालय शैक्षणिक परिसर, नयी दिल्ली – 110068
वेबसाइट – www.ignou.ac.in

4. उत्‍कल यिू नविसर्टी उत्‍कल यिू नविसर्टी ऑफ़ कल्‍चर, संस्‍कृित िवहार,
ऑफ़ कल्‍चर भवु नेश्‍वर, ओडिशा – 751009
वेबसाइट – www.uuc.ac.in

5. उस्मानिया प्रशासनिक भवन


विश्‍वविद्यालय उस्मानिया विश्‍वविद्यालय परिसर
हैदराबाद, आध्रं प्रदेश – 500007
वेबसाइट – www.osmania.ac.in

6. ए.ए.एफ़.टी. मारवाह स्टूडियोज कॉम्प्लेक्स, एफ.सी. – 14-15, फि़ल्म सिटी,


(एशियाई अकादमी सेक्टर – 16 ए, नोएडा, उत्तर प्रदेश
ऑफ़ फि़ल्म एडं वेबसाइट – www.aaft.com
टेलीविज़न) नोएडा
7. एम.सी.एम. एम.सी.एम. डी.ए.वी. कॉलेज फ़ॉर वमू ने
डी.ए.वी. कॉलेज सेक्टर – 36ए, चडं ीगढ़
फ़ाॅर वमू ने
चडं ीगढ़ वेबसाइट – www.mcmdavcw-chd.edu

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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

8. कालीकट कालीकट विश्‍वविद्यालय,


विश्‍वविद्यालय, मलप्पुरम – 673635
मलप्पुरम
कालीकट विश्‍वविद्यालय, पी.ओ., के रल
वेबसाइट – www.universityofcalicut.info

9. कल्याणी विभागाध्यक्ष, कल्‍याणी िवश्‍वविद्याल, कल्‍याणी, नदिया,


विश्‍वविद्यालय पश्‍च‍िम बंगाल – 741235
वेबसाइट – www.klyuniv.ac.in

10. कॉलेज ऑफ़ कॉलेज ऑफ़ आर्ट्स, तिलक मार्ग, नई दिल्ली – 110001
आर्ट्स, दिल्ली वेबसाइट – www.colart.delhigovt.nic.in
विश्‍वविद्यालय
11. छत्रपति साहुजी सी.इस.जे.एम. विश्‍वविद्यालय, कानपरु , उ�र प्रदेश
महाराज, कानपरु वेबसाइट – www.kanpuruniversity.org
विश्‍वविद्यालय

12. जवाहरलाल कला और सौंदर्यशास्‍त्र विद्यालय


नेहरु जवाहरलाल नेहरू विश्‍वविद्यालय,
विश्‍वविद्यालय नयी दिल्ली – 110067
वेबसाइट – www.jnu.ac.in

13. डॉ. बाबासाहेब डॉ. बाबासाहेब अबं ेडकर मराठवाड़ा विश्‍वविद्यालय, औरंगाबाद
अबं ेडकर वेबसाइट – www.bamu.ac.in
मराठवाडा
विश्‍वविद्यालय
14. डॉ. बी.आर. डॉ. बी.आर. अबं ेडकर विश्‍वविद्यालय, पालीवाल पार्क ,
अबं ेडकर आगरा – 282004
विश्‍वविद्यालय वेबसाइट – www.aud.ac.in

15. डी.डी.य.ू गोरखपरु सिविल लाइसं , गोरखपरु , उ�र प्रदेश – 273009


विश्‍वविद्यालय वेबसाइट – www.ddugorakhpuruniversity.in

16. दिल्ली संगीत और ललित कला संकाय, दिल्ली विश्‍वविद्यालय


विश्‍वविद्यालय दिल्ली – 110007
वेबसाइट – www.du.ac.in
17. नेशनल स्कू ल नज़रूल कलक्षेत्र कॉम्प्लेक्स, उत्तर बनलपरु ,
ऑफ़ ड्रामा, अगरतला, त्रिपरु ा – 799007
त्रिपरु ा वेबसाइट – www.tripura.nsd.gov.in

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परिशिष्‍ट II

18. नेशनल स्कू ल नेशनल स्कू ल ऑफ़ ड्रामा


ऑफ़ ड्रामा बहावलपरु हाउस – 1,भगवान दास रोड, नयी दिल्ली – 110001
वेबसाइट – www.nsd.gov.in

19. नेशनल स्कू ल सिक्किम थिएटर ट्रेनिंग सेंटर, नेपाली साहित्य परिषद भवन,
ऑफ ड्रामा, विकास क्षेत्र, गंगटोक
सिक्किम थिएटर वेबसाइट – www.sikkim.nsd.gov.in
ट्रेनिंग सेंटर
20. पंजाब सेक्टर–14, चडं ीगढ़–160014
विश्‍वविद्यालय वेबसाइट – www.puchd.ac.in

21. पांडिचेरी प्रदर्शन कला विभाग, स्कू ल ऑफ़ परफ़ाॅर्मिंग आट्सर्, पांडिचेरी
विश्‍वविद्यालय विश्‍वविद्यालय, पडु ु चरे ी – 605 014
वेबसाइट – www.pondiuni.edu.in

22. फर्ग्यूसन फर्ग्यूसन कॉलेज,


कॉलेज, पणु े एफ़ सी रोड, पणु े – 411004
वेबसाइट – www.fergusson.edu
23. बड़ौदा एम.एस. यनिवर्सि
ू टी ऑफ़ बड़ौदा, प्रतापगंज वड़ोदरा, गजु रात
विश्‍वविद्यालय वेबसाइट – www.msubaroda.ac.in

प्रो. सी.सी. मेहता रोड, वडोदरा-390002


Website: www.msubaroda.ac.in

24. बनारस हिदं ू बनारस हिदं ू विश्‍वविद्यालय,


विश्‍वविद्यालय वाराणसी, उ�र प्रदेश – 221005
वेबसाइट – www.bhu.ac.in
25. बनस्थली बनस्थली विद्यापाठ
विश्‍वविद्यालय डीन, ललित कला
बनस्थली, राजस्थान – 304022
वेबसाइट – www.banasthali.org/banasthali/wcms/en/home
26. बर्दवान बर्दवान विश्‍वविद्यालय, राजबाती, बर्दवान, पश्‍च‍िम बंगाल – 713104
विश्‍वविद्यालय वेबसाइट –www.buruniv.ac.in

27. भारतीदासन भारतीदासन विश्‍वविद्यालय


विश्‍वविद्यालय पल्‍कालैपेरूर, तिरुचिरापल्ली, तमिलनाडु – 620024
वेबसाइट – www.bdu.ac.in

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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

28. मगध मगध विश्‍वविद्यालय, बोधगाया – 824234, बिहार


विश्‍वविद्यालय वेबसाइट – www.magadhuniversity.ac.in

29. महात्मा गांधी महात्मा गांधी अतं र्राष्‍ट्रीय हिदं ू विश्‍वविद्यालय, गांधी हिल्स,
अन्तरार्ष्‍ट्रीय हिदं ी वर्धा (महाराष्ट्र) – 442001
िवश्वविद्यायल वेबसाइट – www.hindivishwa.org

30. महात्मा गांधी महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी, उ�र प्रदेश – 221002
काशी विद्यापीठ वेबसाइट – www.mgkvp.ac.in
31. मणिपरु मणिपरु विश्‍वविद्यालय
विश्‍वविद्यालय भारत-म्यांमार रोड, कै नचि‍परु , इफ
ं ाल, मणिपरु – 795003
वेबसाइट – www.manipuruniv.ac.in
32. मैसरू मैसरू विश्‍वविद्यालय, जे.एल.बी. रोड, मैसरू , कर्नाटक – 570005
विश्‍वविद्यालय वेबसाइट – www.uni-mysore.ac.in

33. रवीन्द्र भारती एमेरल्ड बोवर कैं पस


विश्‍वविद्यालय 56 ए, बी.टी. सड़क, कोलकाता – 700050
वेबसाइट – www.rbu.ac.in
जोरासंको कैं पस
6/4, द्वारकानाथ टैगोर लेन, कोलकाता – 700007.

34. राजा मानसिंह राजा मानसिंह तोमर, संगीत और कला विश्‍वविद्यालय


तोमर, संगीत ग्वालियर, मध्य प्रदेश,
और कला
विश्‍वविद्यालय वेबसाइट – www.rmtmusicandartsuniversity.com

35. विश्‍व भारती पो.ओ. – शांतिनिके तन, प. बंगाल, िपनकोड – 731235, भारत
शांति निके तन वेबसाइट – www.visvabharati.ac.in

36. स्टेला मैरिज स्टेला मैरिज कॉलेज, 17, कै थेड्रल रोड, चेन्नई – 600086,
कॉलेज, चेन्नई वेबसाइट – www.stellamariscollege.org

37. सािवत्री बाई गणेश िखडं पणु ,े महाराष्‍ट्र – 411007


फूले, पणु े वेबसाइट – www.unipune.ac.in
िवश्‍वविद्यालय
38. हैदराबाद हैदराबाद विश्‍वविद्यालय,
विश्‍वविद्यालय सेंट्रल यनिवर्सि
ू टी पी.ओ., गचीबोव्‍ली, हैदराबाद, तेलंगाना – 500046
वेबसाइट – www.uohyd.ac.in

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प�र�शष्‍ट III

कुछ पठनीय पुस्तकें


अतरे , प्रभा. 2000. एनलाईटिंग द लिसनर. मश ंु ीराम मनोहरलाल, नयी दिल्ली
अनंतपद्मनाभन, सी.एस. 1954. द वीणा, गण विद्या भारती
ओमेचरे ी, लीला और दीप्‍ति भल्ला. 1990. स्टडीज़ इन इडि ं यन म्ियू ज़क एडं एलाइड आर्ट्स. संदीप
प्रकाशन
एल. अन्नपर्णा ू . 1996. वीणा ट्रेडिशन इन इडि ं यन म्जि यू क. कनिष्क प्रकाशक
कनक, सधु ाकर. 1994. हिदं ी क्लासिकल डांसिंग — द थेरापेटिक एडवांटेिजज़. स्टर्लिंग पब्लिशर्स
कसलीवाल, सनि ु रा. म्ज़ि
यू कल इन्‍स्‍टूमेंट ऑफ़ इडि ं या
कुमारस्वामी, आनंदा. 1957. द डांस ऑफ़ शिवा. नन्दी प्रेस
कोठारी, के शव. 1997. भरतनाट्यम. मार्ग पब्लिके शसं
——— 1968. फ़ोक म्जि यू कल इन्स्टूमेंट ऑफ़ इडि ं या. संगीत नाटक अकादमी
——— 1989. कथक – इडि ं यन क्लासिकल डांस आर्ट. अभिनव प्रकाशन
खादीकर, विजय. मालवा के लोक-नृत्य. करटंस एडं प्रिंटर्स, इदं ौर
खान, अली अकबर. 1998. क्लासिकल म्जि यू क ऑफ़ नॉर्थ इडि ं या. मश ंु ीराम मनोहरलाल,
नयी दिल्ली
गांगल ु ी, रीता. 1994. बिस्मिल्लाह खान एडं बनारस द सीट ऑफ़ शहनाई. सिद्धि बक ु
गप्‍ता
ु , कामायनी और रोकसेन. 2000. ए योगा ऑफ़ इडि ं यन क्लासिकल डांस
गौतम, एम.आर. 2001. द म्जि यू ़कल हेरिटेज ऑफ़ इडि ं या. मश ंु ीराम मनोहरलाल, दिल्ली
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परिशिष्‍ट III

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——— एस्सेस इन म्जि यू कोलोजी
——— इडि ं यन म्जि यू ़क – एमिनेंट थिंकर्स ऑन कोर इश्ज़यू
——— (संपादित) म्जि यू ़क एडं माईथोलोजी क्‍लेकशन ऑफ़ एस्‍सेस. इण्‍डियन म्‍जयू ोकोलोजिल
सोसाइटी प्रकाशन,
——— म्जि यू ़क रिसर्च – पर्सपेक्टिव एडं प्रोस्पेक्ट्स
——— साईकोलोजी ऑफ़ म्जि यू ़क. साहित्‍य अकादमी, दिल्ली
——— कम्पोसिशन इन इडि ं यन म्जि यू ़क
——— डारै क्ट्री डॉक्‍टरे ल थीसिस इन म्जि यू ़क
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संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्‍च प्राथमिक स्‍तर

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सगं ीत ि‍शक्षक सदं र्शिका उच्‍च प्राथमिक स्‍तर कक्षा छठी से आठवीं तक
उच्‍च प्राथमिक स्‍तर
कक्षा छठी से आठवीं तक

एन.सी.ई.आर.टी.

13173

ISBN 978-93-5292-020-4

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