एन.सी.ई.आर.टी.
13173
ISBN 978-93-5292-020-4
Joy of Theatre
Teachers’ Handbook
Upper Primary Stage
Classes VI - VIII
Sangeet Shikshak Sandarshika (Cover II & III).indd All Pages 5/10/2018 3:38:10 PM
िश�ाक सदं �श्ाका
प्रकाशन सहयोग
अध्यक्ष, प्रकाशन प्रभाग : एम. िसराज अनवर
मख्ु य संपादक : श्वेता उप्पल
80 जी.एस.एम. पेपर पर मद्ु रित । मख्ु य व्यापार प्रबंध्ाक : गौतम गांगलु ी
सचिव, राष्ट्रीय शैक्षिक अनसु धं ान और प्रशिक्षण मख्ु य उत्पादन अधिकारी : अ�ण िचतकारा
परिषद,् श्री अरविदं मार्ग, नयी िदल्ली 110 016 संपादन सहायक : ऋषिपाल सिहं
द्वारा प्रकाशन प्रभाग में प्रकाशित तथा पारस
उत्पादन सहायक : प्रकाश वीर सिहं
ऑफ़सेट प्राइवेट लिमिटेड, एफ़-118, सेक्टर-56,
फ़ेज़ IV, कुण्डली, जि़ला सोनीपत 131 028 चित्र एवं आवरण
(हरियाणा) द्वारा मद्रि
ु त। ब्लू फि़श डिज़ाइन
ऋषिके श सेनापति
नयी दिल्ली निदेशक
19 अप्रैल 2018 राष्ट्रीय शैिक्षक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद्
iv
vi
सदस्य
कन्ना कुमार, प्रोफ़े सर, संगीत विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय
दीप्ती भल्ला ओमचरी, प्रोफ़े सर, सगं ीत विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय
नज़मा परवीन अहमद, प्रोफ़े सर (सेवािनवृ�ा) संगीत विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय
नीरा चौधरी, सह-प्राध्यापक, मगध महिला कॉलेज, पटना विश्वविद्यालय
मजं री सिन्हा, संगीत आलोचक, गरुु ग्राम, ह�रयाणा
मनक्कल गोपालाकृ ष्णन, रिसर्च ऑफ़िसर, एस.सी.ई.आर.टी., के रल
मक
ु े श भारती, अध्यापक (संगीत), कें द्रीय विद्यालय, मेरठ
रे शमा हरनाल, अध्यापिका (संगीत), सर्वोदय कन्या विद्यालय, नयी दिल्ली
लिपिका दासगप्ता
ु (स्वर्गीय), प्रोफ़ेसर, सगं ीत विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
विजय कुमार, अध्यापक, कें द्रीय विद्यालय, नयी दिल्ली
विजय शक ं र मिश्र, लेखक, संगीत आलोचक एवं निदेशक, सोसाइटी फ़ाॅर एक्शन
थ्रू म्यूिज़क, नयी दिल्ली
सदस्य समन्वयक
शर्बरी बैनर्जी, सहायक प्रोफ़े सर,
कला एवं सौंदर्यबोध िशक्षा िवभाग, एन.सी.ई.आर.टी., नयी िदल्ली
3. साम – ‘साम’ शब्द का अर्थ है गान। ‘मीमासं ासत्रू ’ में लिखा है ‘गीतिषु
सामाख्या’ गीत शब्द के लिए साम शब्द का प्रयोग किया गया है। जो ऋक् मत्रं
गान में प्रयोग होते हैं उनके सग्रं ह को साम सहि ं ता या सामवेद कहा जाता है।
4. अथर्व – अथर्व संहिता में उन मत्रों ं का संग्रह है जो शांति देने वाले सख ु
मल
ू क एवं मांगल्यप्रद हैं।
यँू तो संगीत का विशेष संबंध सामवेद से है, किंतु ऋग्वेद में सर्वप्रथम संगीत
विषयक सामग्री प्राप्त होती है। ऋग्वेद से ही गीत, वाद्य एवं नृत्य इन तीनों का प्रचलन
दृिष्टगोचर होता है। इन्हीं संहिताओ ं में गीत शब्द के लिए गीर, गात,ु गाथा, गायत्र
आदि शब्दों का प्रयोग किया गया है। गीत के विभिन्न प्रकार उसी समय से प्रचलित
हैं। जैसे – गाथा
एक विशिष्ट तथा
परंपरागत गीत का
प्रकार था। जिसका
गायन अश्वमेध यज्ञ
जैसे समारोह में होता
था। लौकिक प्रसंग
जैसे – जन्म, मृत्यु,
उपनयन इत्यादि में
भी गातु जैसे शब्दों
का उल्लेख है।
गीत एवं नृत्य प्रस्तुत करती महिलाएँ गीत-गायन के बाद
ही मनष्य ु को उसके अनक ु ू ल वाद्य बनाने की कल्पना स्फु रित हुई। मनष्य ु कंठ को
शरीरी वीणा कहा गया है और इसी आधार पर दारवी वीणा या काष्टमय वीणा का
निर्माण हुआ। विभिन्न वाद्य यंत्र जैसे – ददंु भि ु , गर्गर, वाण (वीणा), बाकुर, नाड़ी
(वेणु जैसी), आघाटी (झांझ) बजाने का भी प्रचलन था। खल ु े प्रांगण में एकत्र लोगों
के सामने नर तथा नारी दोनों का भाग लेना भी वेदों के काल से प्रचलन में था।
वैदिक काल में सगं ीत के ज्ञाता इसके व्याकरण से भी अभिज्ञ थे, जैसे – आर्चिक
(एक स्वर), गाथिक (दो स्वर) और सामयिक (तीन स्वर) शब्दों से स्वरों की संख्या
समझी जाती थी। उदात्त, अनदु ात्त, स्वरित से स्वरों का ऊँचा या नीचा होना समझ में
आता था। पहले वैदिक ग्रंथों में तीन ही स्वरों का प्रचलन दिखता था। धीरे -धीरे तीन
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स्वरों से सात स्वरों का विकास दिखाया गया है। सामवेद में विभिन्न गीत शैलियों
(जो आज के यगु में लोक संगीत कही जाती हैं) का भी उल्लेख मिलता है, जैसे –
सामाजिक गीतों को ‘ग्राम गेय
गान’ कहा जाता था। जंगलों में
गाए जाने वाले लोगों के गीतों
को ‘अरण्यगेय गान’ कहा जाता
था, ‘ऊह गान’ यज्ञ गीत था एवं
इस प्रकार विभिन्न प्रकार के
गीतों का प्रचलन था। उपरोक्त
लिखी बातों से एक बात का
स्पष्ट होती है कि वैदिक काल नागालैंड की लोक संस्कृति
से ही हमारे संगीत में अनेक प्रकार विराजमान थे।
वैदिक काल के उपरांत रामायण के यगु में भी संगीत का विकास हुआ।
रामायण की रचना लगभग 600–300 ई.प.ू की गई है। इस यगु में सगं ीत आैर
गांधर्व शब्द समतल्य ु थे। गांधर्व के कुछ लक्षण माने गए हैं जैसे स्वरों का माधर्यु
होना आवश्यक है एवं इसमें स्वर और पद दोनों की ही प्रमख ु ता है। गांधर्व सगं ीत का
क्षेत्र जनता के सभी स्तरों तथा धार्मिक एवं लौकिक समारोह में प्रचलित था। राम
के जन्म पर राजा दशरथ द्वारा
बाजे वालों को बल ु ाकर निर्देश
देना, लव और कुश का तंत्रों
के साथ मधरु स्वर और लय में
रामायण कथा गाकर सनु ाना,
रावण का सामगान द्वारा शिव
की स्तुति करना, वीणा वादन
में सिद्धहस्त होना, पजू ा अर्चना
राजस्थान की लोक ससं ्कृति के बाद गायन एवं नृत्य करना,
राम का अयोध्या में स्वागत, दशरथ की अतं ्येिष्ट, राम का अश्वमेध यज्ञ आ�द ये
सभी तथ्य सगं ीत का उस समय के जन जीवन का अभिन्न अगं होना दर्शाता है।
इस काल में विभिन्न प्रकार के वीणा, वेण,ु शख ं , भेरी, मृदगं , डिंडिम (डमरू जैसा)
इत्यादि का उल्लेख है। इस काल में सगं ीत एवं नृत्य शालाएँ और कलाकारों का सघं
3
भी हुआ करता था। गृहस्थ, राजमहल और राजदरबारों में सगं ीत गजंु रित होता था।
रामायण की अनेक घटनाओ ं से यह भी विदित होता है कि उस समय संगीतकारों
का समाज में सम्मान एवं आदर था। महर्षि वाल्मीकि की रामायण छंदोबद्ध एवं गेय
होने के कारण उत्कृ ष्ट मानी जाती है। यह सिर्फ़ भारतवर्ष में ही नहीं वरन् सारे विश्व
में प्रसिद्ध है। रामायण में लगभग 24000 श्लोक हैं। इस काल में सगं ीत के ज्ञाता को
परु स्कृ त करने की भी प्रथा थी।
महाभारत काल में समाज अधिक विस्तृत, जटिल एवं संघर्षपर्णू हो गया था
फिर भी संगीत पर्याप्त रूप में उन्नत था। महाभारत में भी ‘गांधर्व’ शब्द का प्रयोग
किया गया है। समाज में ‘गांधर्व’ अभिजात संगीत के गायक थे। इनके अतिरिक्त
स्तुति, मंगल वीरगाथा इत्यादि को गाने के लिए व्यवसायी गायक थे जो नट,
सतू , बंदी, मगध या वैतालिक
कहलाते थे। वे विभिन्न तालों
में गाते थे। समाज में विभिन्न
प्रकार के गीत, नृत्य एवं वाद्यों
का प्रचार था। सभी सामाजिक
एवं धार्मिक अनष्ठा ु नों में
संगीत पर्याप्त मात्रा में प्रयोग
किया जाता था। वाद्यों में भेरी,
नाट्य कला – लोक संस्कृति तर्यू , कांस्य, झांझ, मंजीरा,
मृदगं , झरझरी, आडंबर, वीणा, वेणु आदि का उल्लेख है।
इसी काल में षडज, मध्यम, गांधार ग्राम का भी उल्लेख है। यज्ञ के समय, विवाह,
जन्म इत्यादि में भी नृत्य, गायन आैर वादन होते थे। अर्जुन गायन, वादन आैर नृत्य
तीनों के ही ज्ञाता थे। अज्ञातवास के समय विराट राजा की पत्री ु उत्तरा को उन्होंने
ही संगीत सिखाया था। उत्तरा ने यह शिक्षा अपनी सखियों और परिचारिकाओ ं को
दी। उस समय के राजाओ ं ने बड़े-बड़े नगरों में सगं ीतशालाएँ बना रखी थीं, जिसमें
विभिन्न कलाओ ं की शिक्षा मिलती थी। महाभारत काल में सातों स्वरों का कथन
है, यज्ञ के समय सामगान, किसी राजा या वीर की प्रशसं ा में गाथा, सभा में नृत्य द्वारा
मनोरंजन, वाद्य बजाकर ब्राह्मणों का समादर इन सभी का वर्णन मिलता है। राजा एवं
राज्य के विशिष्ट व्यक्ति को मगं लगान एवं वाद्यों से जगाया जाना भी प्रचलन में
स्वर, ताल तथा पद तीनों का होना आवश्यक है। गीत की प्रमख ु ता होने के कारण इसी
गाधं र्व को सगं ीत कहते हैं। सगं ीत का अर्थ है ‘सम्यक गीतम’ अर्थात् ध्यानपरू क ्व या
अवधान से गाया गया गीत। गाधं र्व में दो प्रकार की वीणा, गात्र वीणा (मानव शरीर)
और दारू वीणा (लकड़ी से बनी वीणा) की भी चर्चा है। जिससे उस समय के सगं ीत
चितं न एवं शोध की भली-भाँति छवि दिखती है। गायन एवं वादन बहुत विकसित
हो चक ु ा था एवं शास्त्रीय पक्ष भी भली-भाँति अग्रसर था। सगं ीत में श्रुति, स्वर, ताल
सभी का वर्णन मिलता है। चार प्रकार के वाद्यों का भी उल्लेख मिलता है। तत,् सशि ु र,
खाल से मढ़े हुए अवनद्ध वाद्य एवं झाझं मजं ीरा जैसे घन वाद्य जिनकी आवाज़ दो
धातओ ु ं के टकराने से मिलती है। सगं ीत में शास्त्रीय पक्ष एवं लोकगीतों की भी चर्चा
विद्यमान है।
चौथी से दसवीं शताब्दी में प्रांतीय सगं ीत का भी खबू विकास हुआ। प्रांतीय
लोक सगं ीत के विकास के कारण साधारण जनता की भी सगं ीत में रुचि बढ़ती गयी।
सगं ीत को सँवारकर बहुत से रागों का निर्माण किया गया। गप्त ु काल एवं मौर्य काल
के राजाओ ं ने भी सगं ीतकारों एवं सगं ीतज्ञों का पोषण किया जिस कारण इस क्षेत्र को
बढ़ावा मिला। वराटी, गौढ़, गर्जु री, बोटटा सभी लोकधनु बहुत प्रचलित थीं। जिनके
स्वर समहू को सवु ्यवस्थित कर नए राग या शास्त्रीय सगं ीत का विकास हुआ। विभिन्न
ताल एवं वाद्य यत्रों
ं का विकास हुआ। शारंगदेव ने सगं ीत रत्नाकर में, जो कि सभं वत:
तेरहवीं शताब्दी में लिखी गई है, सगं ीत के सभी पक्षों का विवरण दिया है। सगं ीत शब्द
गीत, वाद्य और नृत्य तीनों का बोधक माना जाता है। मध्यकालीनयगु के ग्रंथकारों ने
सगं ीत की निम्न व्याख्या की है।
‘‘गीतं वाद्यं तथा नृत्यं त्रयं सगं ीतमच्य
ु ते।’’
एक ही स्रोत से उत्पन्न होने पर भी प्रादेशिक अनरु ं जन के कारण भारत में संगीत
की दो शैलियों का विकास होने लगा। नौवीं ई. के बाद भारतीय संगीत में अनेक
प्रादेशिक शैलियों का विकास हुआ। नौवीं ई. से लेकर तेरहवीं ई. तक भारतीय
संगीत का विदेशी संगीत से संपर्क हुआ और उसके विकास ने एक नया मोड़ ले
लिया। चौदहवीं ई. के संगीतज्ञों ने दक्षिण भारतीय संगीत एवं उत्तर भारतीय संगीत
का ग्रंथों में उल्लेख करना शरू ु कर दिया था।
मगु लों के आने के पश्चात् उत्तर भारतीय सगं ीत में ईरानी सगं ीत एवं सस्कृति
ं का
प्रभाव पड़ने लगा। अमीर खसु रो, जो कि सगं ीतज्ञ थे, भारत के सगं ीत और पर्शियन
हमारे देश का सगं ीत विभिन्नताओ ं का भडं ार है। प्रत्येक प्रांत समृद्ध होने के कारण
हमारे देश में संगीत का अथाह सागर है। साहित्य अगर किसी समाज का दर्पण होता
है तो सगं ीत उसकी धड़कन, यही विशेषता हमारे सगं ीत की भी है। सगं ीत विश्लेषक
कहीं के भी संगीत का विश्लेषण करके वहाँ की आबोहवा, खान-पान, रहन-सहन
और रीति-रिवाज़ आदि के विषय में आसानी से इसलिए बता सकते हैं, क्योंकि
दनिय
ु ा भर का संगीत अपनी धरती से जड़ु ा होता है। उसमें वहाँ की मिट्टी की सौंधी
सगु धं समाई होती है। उसमें वहाँ के पर्व, ऋतओ ु ं और प्रकृ ति का मनोरम चित्रण
होता है। इसलिए, हमारा संगीत हमारी भावनाओ ं की अभिव्यक्ति का सर्वाधिक
सशक्त माध्यम है।
संगीत और नृत्य वस्तुतः हैं
क्या? इनके आविष्कार की प्रेरणा
का स्रोत क्या है? कभी किसी
डरावने दृश्य को देखकर चौंकना
और डरना, फिर... इस चौंकने और
डरने के भाव को दसू रे के समक्ष
प्रस्तुत करने की क्रिया को अभिनय
लोक नृत्य – छत्तीेसगढ़
और नृत्य कहा गया। धपू से तपती
धरती पर पानी की बौछार को देख गर्मी से परे शान व्यक्ति के अधरों पर नाचने
वाली मस्का ु न, उस आल्हादित व्यक्ति का उछल-कूदकर अपनी प्रसन्नता व्यक्त
करने का ढंग, फिर उस पानी में स्वयं भीगकर एवं दसू रों को भिगाकर अपनी खश ु ी
में दसू रों को भी सम्मिलित करने की क्रिया ही सगं ीत की जननी है।
संगीत का विकास मानव सभ्यता के साथ-साथ ही हुआ है। जब भाषा, बोली
और लिपि का जन्म नहीं हुआ था, संगीत तब भी था। तब, इसी माध्यम से मानव
अपने विचारों और अपनी भावनाओ ं से दसू रों को परिचित कराते थे। ध्वनि के
उतार-चढ़ाव और आगि ं क मद्रा
ु ओ ं का प्रदर्शन ही गायन, अभिनय और नृत्य
सृजन के स्रोत बने। संगीत के सात स्वरों
की उत्पत्ति अलग-अलग भाव, रस
भावनाओ ं की अभिव्यक्ति के लिए हुई
है। विद्वानों के मतानसु ार ‘सा’ और ‘रे ’
स्वर से वीर, अदभ् तु और रौद्र, ‘ध’ से
वीभत्स और भयानक रस, ‘ग’ तथा ‘नि’
स्वर से करुण रस और ‘म’ तथा ‘प’ से
हास्य तथा �ृंगार रसों की प्रभावोत्पत्ति
होती है। इसलिए अलग-अलग स्वर
समहू ों से निर्मित अलग-अलग राग
भिन्न-भिन्न भावनाओ ं की प्रस्तुति करते
यक्षगान हैं। इसी तरह अलग-अलग ध्वनि और
मद्रा
ु ओ ं द्वारा भी अलग-अलग भावों को प्रस्तुत किए जाने की परंपरा आदि काल
से अब तक चली आ रही है।
दरू संचार माध्यमों एवं यांत्रिक उपकरणों के परू ्व नगाड़ों पर अलग-अलग
प्रकार की ध्वनियों का वादन कर दरू -दराज़ के जंगली और कबीलाई इलाकों में
आपत्ति-विपत्ति की सचू ना देने का काम किया जाता था। इसलिए अलग-अलग
भावनाओ ं की अभिव्यक्ति हेतु अलग-अलग तालों और लयों के विषय में सोचा
गया। हर ताल एक अलग
प्रकृ ति, अलग भाव और
अलग रस का पोषक होती है,
तो हर लय भी। विलंबित लय
में करुण, मध्य लय में शांत,
�ृंगार और हास्य तथा द्रुत लय
में रौद्र, वीभत्स, भयानक, वीर
एवं अदभ् तु रसों का प्रदर्शन
होता है।
नगाड़ा
विभिन्न फ़सलों की रोपाई, बवु ाई एवं कटाई से सबं ंधित गीत कृ षक भाइयों
और ग्रामीण महिलाओ ं के बीच खबू लोकप्रिय हैं। परु ाने जमाने में घरों में पानी
पहुचँ ाने वाले और विवाहित की डोली उठाने वाले कहार जाति के लोगों द्वारा गाए
जाने वाले संगीत के साथ बजने वाली ताल कहरवा आज फ़िल्मी, लोक, सगु म एवं
उपशास्त्रीय संगीत की
एक अत्यंत प्रचलित
ताल है। धोबी भाइयों
द्वारा प्रस्तुत किया जाने
वाला ‘धोबिया नाच’
भी खासा लोकप्रिय है। राजस्थान का लोक गीत प्रस्तुत करते माँगणियर जाति
पंजाब के रे गिस्तानी इलाकों के ऊँट चालकों द्वारा गाया जाने वाला गीत टप्पा हो
या राजस्थान की महिलाओ ं द्वारा गाया जाने वाला गीत प्रकार माँड, आज शास्त्रीय
और उपशास्त्रीय संगीत में खबू लोकप्रिय हैं। राजस्थान में एक विशेष संप्रदाय के
लोग और उनका गीत-संगीत ‘माँग�णयार’ कहलाता है। ये लोग उस वर्ग के हैं
जिनके परु खे पेट पालने के लिए लोगों के घर-घर जाकर गाना सनु कर घर परिवार
का खर्च चलाते थे। आर्थिक सहायता माँगने के कारण ही ये ‘माँगणियार’ कहलाए।
यह अलग बात है कि आज माँगणियार संगीतकारों की ख्याति विश्वव्यापी है।
प्राचीन समय में जब पानी के लिए घर-घर नल की व्यवस्था नहीं थी और
महिलाएँ नदी से पानी भरने के लिए एक विशेष प्रकार का गीत गाती हुइ,� आपस में
चगु लबाजी करती हुइ� झडँु में जाती थीं। मछली पकड़ने वाले मछुआरे भाई मछली
पकड़ते समय तो बिल्कु ल शांत रहते हैं किंतु दिनभर मिली सफलता के बाद शाम
के समय इकट्ठा होकर सामहि ू क रूप से गीत-नृत्य की प्रस्तुति करके एक ओर अपनी
प्रसन्नता व्यक्त करते थे तो दसू री ओर यह थकान से मिु क्त का प्रयास भी हाेता था।
इसी तरह नाविकों के गीत भी काफ़ी लोकप्रिय हैं, जिसे वे नाव चलाते हुए मस्ती
भरे स्वरों में गाकर एक ओर यात्रियों का मनोरंजन करते हैं, तो दसू री ओर अपनी
थकान को भल ू ाने का प्रयास भी। असम में गायकों का एक ऐसा भी वर्ग जनजातियों
में मिलता है जो लोगों के मरने के बाद मृत्यु के गीत गाते हैं और बाकायदा ध्वनि
विस्तारक यंत्र लगाकर सामहि ू क रूप से रातभर मृत्यु गीत सनु ाते हैं। ये पेशवे र
गायक होते हैं। ऐसी प्रथा राजस्थान में भी है।
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सगं ीत हममें देशभक्ति की भावना जागृत करके देश के लिए कुछ भी करने को
प्रेरित करता है। ‘वदं े मातरम’् , ‘सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है’, ‘मेरा
रंग दे बसतं ी चोला’ और ‘सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा’ गाते हुए न जाने
कितने ही देशभक्तों ने अपने प्राण, अपना तन-मन-धन मातृभमू ि पर न्यौछावर कर
दिए। सतं ों, महात्माओ ं और समाज सधु ारकों ने अपनी वाणियों, उपदेशों को सगं ीत
के स्वरों में बाँधकर अगर एक ओर हमारे चरित्र निर्माण पर ज़ोर दिया है तो दसू री ओर
सत्य, अहिसं ा, प्रेम, अपरिग्रह और विश्व बधं तु ्व की भावना का भी सदं श े िदया है।
भारत धर्म प्रधान देश है। भारतीय विचारधारा सदा से ही आदर्श की भावभमू ि
पर प्रवाहित होती रही है तथा इसका प्रयोजन विश्व लोक कल्याण ही रहा है।
इसके कण-कण में
राम, हज़रत मोहम्मद,
ईसा, बद्ध ु , महावीर
और नानक आदि
की आत्मा समाई हुई
है। सत्य, अहिसं ा,
ब्रह्मचर्य, अस्तेय और
अपरिग्रह के पंच
महाव्रतों को इस देश हारमोनियम, तौस एवं तबला बजाते कलाकार
के निवासी सदियों से आत्मसात करते आ रहे हैं। आज के इस यगु में भी इन सबकी
वाणी, विश्व कल्याणकारी ही होगी।
महात्मा गाँधी भी बच्चों की िशक्षा में सगं ीत का समर्थन करते थे। इस प्रकार
हम देखते हैं कि हमारा संगीत महत्वपर्णू है क्योंकि यह मानव, मानवीय भावनाओ ं
और मानवीय ज़रूरतों के साथ मज़बतू ी से जड़ु ा हुआ है।
कला एवं सौंदर्यबोध शिक्षा विभाग ने कई प्रदेशों के संगीत की डी.वी.डी. इस
पस्तु क के साथ बनाई है। जिन बातों का उपरोक्त लेख में जि़क्र है उसी तरह के गीत
इन डी.वी.डी. में मिलेंगे। सभी शिक्षक वगो� से आग्रह है कि इन गीतों को बच्चों
तक पहुचँ ाए और उनके अर्थ को समझने में सहायता करें । जिससे भारत के सभी
प्रांतों के बच्चे दसू रे प्रांतों के संगीत को जानें, पहचानें, गाएँ जो राष्ट्र की उन्नति कि
नींव को सशक्त बनाएँ।
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जीवन और सगं ीत के नैसर्गिक सबं धं का जितना वास्तविक परिचय हमें लोक सगं ीत
द्वारा मिलता है, उतना अन्य किसी सगं ीत से नहीं मिलता। लोक जीवन का सदंु रतरम
प्रतिबिबं लोक सगं ीत में ही दिखाई देता है, क्योंकि लोक गीतों के शब्दों व स्वरों के
चयन में कृ त्रिमता का अभाव है। उनमें लोक जीवन का सीधा-सादा परिचय होता है।
वे व्य�क्त के बाह्य जीवन के साथ-साथ उसके भावों के भी परिचायक होते हैं।
लोक सगं ीत, लोक जीवन का सफल परिचायक है। लोक और सगं ीत अर्थात्
जनसाधारण और गायन, वादन व नृत्य का मिश्रण, इन दो शब्दों से लोक संगीत
का साहित्यिक अर्थ बनता है। यह ऐसा सगं ीत है जो जनरुचि के अनसु ार अस्तित्व
में आया। अतः यह जनसाधारण द्वारा भावों की स्वतः अभिव्य�क्त है या कहें कि
भावनाओ ं को व्यक्त करने का सरलतम माध्यम लोक सगं ीत है।
लोक संगीत में अके ले गाने से कहीं सामहि ू क ढंग से गाने के महत्व का
पता चलता है। उसमें स्वर की तल ु ना में लय का अपेक्षाकृ त कुछ अधिक प्रभाव
मिलता है।
महात्मा गाँधी के अनसु ार ‘लोक गीतों में धरती गाती है, पहाड़ गाते हैं, नदियाँ
गाती हैं, फ़सलें गाती हैं, उत्सव और मेले, ऋतएु ँ और परंपराएँ गाती हैं।’ कला का
लोक पक्ष सतं लि ु त जीवन की मार्मिक वस्तु स्थिति, सामाजिक रूिढ़-विश्वास तथा
कलात्मक रंजन की ओर प्रेरित करता है। कला के लोक पक्ष के प्रेरणात्मक आधार
सामाजिक विश्वास, रीति-रिवाज़, उत्सव-त्यौहार एवं अन्य विशिष्ट मल्य ू हैं जो
सामहि ू क रूप में सामाजिकता से यक्ु त होते हैं अर्थात् कला का लोक पक्ष शास्त्रविहीन
है तथा उसका ढाँचा सामाजिकता, परंपराओ ं के विशिष्ट दर्शन, मल्य ू ों, सामाजिक
रीति-रिवाजों एवं सामहि ू क
कार्यों द्वारा बना है। पं. ओकं ार
नाथ ठाकुर के अनसु ार, लोक
संगीत के माध्यम से समस्त
विश्व में मानवता, आत्मीयता
और एकता की स्थापना की
जा सकती है।
सगं ीत के सात्विक भाव
का निर्देशन लोक संगीत
द्वारा ही भली-भाँति किया जा नागालैंड के गायक एवं नर्तक
सकता है। यह एक सहज सगं ीत है, जो अनक ु रण मात्र से ही सीखा जा सकता है
किसी भी प्रकार का शास्त्रीय बंधन व नियम न हाेने के कारण यह जनसाधारण के
लिए भी सल ु भ है।
पहले सगं ीत द्वारा, जनसाधारण के अलावा पेड़, पश,ु पक्षी, आग, पानी इत्यादि
को वश में करने की प्रथा भी प्रच�लत थी।
किंतु मानव का अब प्रकृ ति के साथ इतना
संबंध न रहने के कारण ऐसी बातें के वल
जनश्रुति के रूप में ही रह गई हैं। प्राचीन
खडं हरों की भाँति इस प्राचीन संगीत की एक
परंपरा का संग्रह यदि कहीं भी मिल सकता
है, तो के वल लोक संगीत में। आज भी पर्वों
तथा सामाजिक अवसरों पर गाए जाने वाले
भीमबेटका गफ़ा
ु ओ ं का चित्र
15
गीतों में प्राकृ तिक वस्तुओ ं का ही वर्णन पाया जाता है। अतः यह कह सकते हैं कि
संगीत की सात्विक प्रकृ ति अथवा हृदय के अतं र्गत उठे हुए भावों को ठीक उसी रूप
में व्यक्त करने का माध्यम जब सगं ीत को बनाया जाता है, तब उसे ‘लोक-सगं ीत’
कहा जाना चाहिए।
वैदिक यगु में भी पर्वों के अवसरों पर मनोहर गाथाओ ं के गाने का निर्देश वैदिक
ग्रंथों में उपलब्ध होता है, ‘मैत्रायणी संहिता’ में विवाह के अवसर पर गाना गाने की
विधि उल्लिखित है। उस समय की यह परंपरा आज भी अक्षुण्ण रीति से चल रही है।
लोक गीत
किसी भी प्रांत या क्षेत्र की प्रतिष्ठा, सस्का
ं र व सांस्कृतिक उन्नति का पता यहीं
से लगता है कि वहाँ का लोक संगीत कितना पष्ु ट व पोषित है। जितना उत्तम
स्तर वहाँ के लोक सगं ीत का होगा, वहाँ का सांस्कृतिक स्तर भी उतना ही उत्तम
होगा। लोकगीतों में विषय की प्रधानता रहती है। ये सामाजिक, धार्मिक, नैतिक या
सांस्कृतिक कुछ भी विषय हो सकते हैं।
लोक गीत समाज में प्रचलित सर्वसाधारण धनु ों पर ही आधारित होता है।
विभिन्न प्रकार के लोकगीत एवं धनु े प्रस्फुटित होकर समाज में अपनी विशेष परंपरा
स्थापित करती हैं जो मानव-समाज को एक सत्रू में पिरोने में सहायक होती हैं।
शास्त्रीय संगीत और कलात्मक सौंदर्य से अपरिचित होने पर भी ग्रामवासियों के
सख ु -दख
ु , संयोग-वियोग, पीड़ा और उल्लास के स्वर संगीत की विभिन्न धनु ों में
मख ु रित हो उठते हैं। इस दृिष्ट से देखने पर हम यह पाते हैं कि भिन्न-भिन्न प्रांतों के
लोक गीतों की आत्मा में एक साम्य है। मल ू तत्वों में साम्य होने के कारण ही लोक
गीत सहज ही हृदय को छू लेते हैं। शब्दों और भाषा के अपरिचित होने पर भी संगीत
के माध्यम से वे मलू अर्थ और भाव को व्यक्त करते हैं। कला एवं सौंदर्यबोध शिक्षा
विभाग, एन.सी.ई.आर.टी. द्वारा बनाई गई डी.वी.डी. जो विभिन्न प्रांत के संगीत की
है इसी बात की पिु ष्ट करती है।
वस्तुतः शास्त्रीय गीत शिक्षित वर्ग की अभिव्यक्ति है किंतु लोकगीतों में
सहजता की प्रधानता होती है। इसमें वन्य अथवा ग्राम्य पृष्ठभमू ि की प्रधानता होती
है। लोक संगीत में जनसाधारण की सीधी-सादी अभिव्यक्ति, सरु , लय व भाषा का
प्रयोग देखने को मिलता है। यह भाषा आडंबर से बहुत परे है और वास्तविकता के
बहुत समीप है। संगीत की क्लिष्ट बातें भी बहुत कम दिखाई पड़ती हैं।
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इन गीतों के काव्य में एक अथाह समद्रु दिखाई देता है। जीवन का कोई भी पहलू
ऐसा नहीं है जिसको इन गीतों ने न छुआ हो। ऐसा लगता है कि जीवन भर लोक
गीतों द्वारा मनष्य
ु सहज भाव की अतं हीन खोज़ करता रहता है। यह जनसमदु ाय की
पँजू ी है और समाज एवं जन-समदु ाय का कहीं अतं नहीं है।
असम का ढोल
अतः लोक जीवन सगं ीत में नियमों का बंधन नहीं होता यहाँ तक कि छंद, ताल
आदि के नियमों से भी यह मक्ु त प्रकार का संगीत है। लोक-संगीत, भावनाओ ं का
एक ऐसा प्रवाह है जो स्वतः ही किसी के कंठ से उदभ् तु होकर, हाथ से लाभ के
आवरण में लिपटकर और पैरों की थिरकन के साथ प्रकट हो जाए। यही जनसाधारण
के अधिक निकट ले जाती है, यही है लोक सगं ीत।
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संगीत चाहे शास्त्रीय हो, सुगम हो या लोक संगीत, उसमें ताल किसी न
किसी रूप में विद्यमान रहती है। गायन, वादन एवं नृत्य ताल पर ही आधारित
होते हैं।
भावार्थ – संगीत में समय के नापने के साधन को ताल कहा जाता है। गीत, वाद्य
तथा नृत्य ये तीनों ताल पर ही प्रतििष्ठत होते हैं। प्रतिष्ठा का अर्थ है व्यवस्थित
करना, आधार देना या स्थिरता प्रदान करना।
तबला, पखावज, ढोलक इत्यादि वाद्यों के
साथ गाने से एक विशेष प्रकार का आनंद प्राप्त
होता है। गायक, वादक या नर्तक अपनी कला के
प्रदर्शन हेतु ताल का अनसु रण करते हैं, जो उन्हें
कला प्रदर्शन में दिशा एवं स्थिरता प्रदान करने का
काम करता है।
मात्रा तबला बजाते हुए शिक्षक
ताल को जिस “इकाई” द्वारा नापा जाता है, उसे मात्रा कहते हैं, जैसे – समय मापने
की इकाई सेकंड है, ठीक उसी प्रकार ताल को मापने के लिए मात्रा का प्रयोग करते हैं।
इसे इस प्रकार भी समझ सकते हैं, जब लय समान चाल में मापी जाए तो 10
सेकंड को दस मात्रा कहेंगे।
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ताली देना
जब ताल के बोलों को हाथों द्वारा बोलकर हथेलियों पर चोट करके (ताली बजाना)
तथा ऊँगलिय
ु ों की सहायता से दर्शाया जाता है। तो उसे ताली देना कहते हैं।
ताली
ठे के में जिस स्थान पर हाथों से ताली लगाई जाती है। उसे ताली कहते हैं इसे “2,
3, 4” से दर्शाया जाता है।
x यानी सम पहली ताली
2 दसू री ताली
3 तीसरी ताली
तीन ताल का ठे का एवं उसकी ताली
मात्रा 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16
बोल धा िध िध
ं धं ा धा िध िध
ं धं ा धा तीं तीं ता ता िध िध
ं धं ा
चिह्न × 2 0 3
यहाँ x, 2, 3 की मात्राएँ, 1 पहली, 5वीं, तथा 13वीं हैं, जहाँ पर ताली दी जाती है।
खाली
ठे के में जिस स्थान पर ताली न लगाकर के वल ताल के उस स्थान पर हाथ के झोंके
से दिखाया जाए, उसे खाली कहते हैं। खाली वाली मात्रा के बोल को बजाते समय
अन्य बोलों की अपेक्षा कोमलता से बजाते हैं। इसे 0 से दर्शाया जाता है।
ठे का कहरवा
मात्रा 1 2 3 4 5 6 7 8
बोल धा गे ना ती ना क िध ं ना
चिह्न × 0
यहाँ 5वीं मात्रा पर खाली है।
किसी ताल के ठे के को प्रारंभ (पहली मात्रा) से अतं तक (अतिम
ं मात्रा) बजाने
या बोलने को आवृत्ति कहते हैं। यदि एक बार ऐसा करें गे तो उसे एक आवृत्ति कहेंगे,
यदि ऐसा पाँच बार करें गे तो पाँच आवृत्ति मानी जाएँगी।
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लय
हम प्रायः घड़ी की टिक-टिक सनु ते हैं। घड़ी एक ही चाल से लगातार टिक-टिक
करती रहती है। टिक-टिक की जो एक समान गति है, वही लय है। इसी प्रकार सगं ीत
में गाने-बजाने में जो समय लगता है, उसकी समान गति को सगं ीत में लय कहते हैं।
हमारे जीवन में भी चलने, फिरने, बोलने आदि में इसी प्रकार की समान गति
या लय विद्यमान है।
लय के प्रकार
सगं ीत में मख्य
ु रूप से तीन प्रकार की लय का प्रयोग होता है –
1. विलंबित लय – जिस लय की गति बहुत धीमी होती है उसे विलंबित लय
कहते हैं। बड़ा ख्याल, ध्परु द, धमार इत्यादि विलंबित लय में ही गाए जाते हैं।
2. मध्य लय – जिस लय की गति न बहुत अधिक होती है न कम, उसे मध्य लय
कहते हैं। मध्य लय की गति विलंबित लय से दगु नु ी तेज़ होती है। “छोटे लय”
इसी लय में गाए जाते हैं। इस लय में तीन ताल, कहरवा, दादरा और झपताल
इत्यादि का प्रयोग किया जाता है।
3. द्रुतलय – मध्य लय से दगु नु ी और विलंबित लय से चौगनु ी गति की लय द्रुत
लय कहलाती है। छोटा ख्याल, तराना आदि इसी लय में गाए जाते हैं। द्रुत
लय में तीन ताल, कहरवा, दादरा आदि तालों का प्रयोग होता है।
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आॅक्सीजन हम नाक द्वारा लेते हैं, भोजन करने से हमें ऊर्जा मिलती है, जिससे शरीर
का तापमान बना रहता है। यहाँ आग का मतलब जलने वाली आग से नहीं वरन्
आपके शरीर के तापमान से है। अतः जब शरीर में कुछ कहने या व्यक्त करने की
इच्छा होती है तो आत्मा मस्तिष्क को प्रेरित करती है, मस्तिष्क शरीर की अग्नि पर
आघात करता है, अग्नि हवा को प्रेरित करते हुए नीचे से ऊपर आती है। इस प्रकार
हमारे शरीर से नाद या ध्वनि उत्पन्न होती है।
नाद के प्रकार
नाद के दो प्रकार माने गए हैं – 1. अनाहत नाद 2. आहत नाद
1. अनाहत नाद – कुछ ध्वनियाँ ऐसी होती हैं जो प्रकृ ति में विद्यमान होती हैं या
किसी जीव द्वारा प्रत्यक्ष आघात या वस्तुओ ं के टकराने या घर्षण करने से पैदा
नहीं होती हैं।
अब अागे बच्चे यह पछू सकते हैं कि हमने तो ऐसी ध्वनि कभी सनु ी नहीं।
तो आइए, एक प्रयोग करें –
दोनों तर्जनियों को अपने कर्णपट पर लगाएँ और कान के द्वार को बंद कर दें,
बिल्कु ल शांत रहें। अब सनु ने की कोशिश करें , आप अब सं___ सं____ की
ध्वनि महससू कर रहे होंगे। यही अनाहत नाद है जो प्रकृ ति में विद्यमान है।
2. आहत नाद – जो ध्वनि आघात यानी टकराने या दो वस्तुओ ं के घर्षण अथवा
रगड़ने से पैदा होती है, वह ‘आहत नाद’ कहलाती है। उदाहरणस्वरूप, जब
तानपरु े पर अँगलु ी से आघात करने या वायलिन पर गज से रगड़ने पर ध्वनि
उत्पन्न होती है, वह यही आहत नाद है।
छात्र अब यह पछ ू सकते हैं कि दनियु ा में तो बहुत सारी आवाज़ें हैं शोरगलु
इत्यादि भी नाद हैं? तो बच्चों “हाँ” परंतु जो ध्वनि हमारे कानों को अच्छी न लगे वह
शोर है तथा जो ध्वनि पैदा होने के बाद निरंतर हो तथा सनु ने में अच्छी लगे वह नाद
सगं ीतोपयोगी है। हम सगं ीत में उसी उपयोगी नाद की चर्चा कर रहे हैं।
नाद के गुण
नाद यानी संगीतोपयोगी ध्वनि के तीन गणु होते हैं –
1. नाद का छोटा-बड़ा होना (Magnitude or Intensity)
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(क) C (ख)
A B A1 B1
D1
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“नित्यं गीतोपयोगित्वमभिज्ञेयत्वमप्युत ।
लक्ष्ये प्रोक्तं सपर्
ु याप्तंब संगीत श्रुति लक्षणम।् ।”
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सप्तक
सप्तक का अर्थ है सात स्वरों का क्रमानसु ार गायन अथवा वादन। “सा रे ग म प ध नि”
ये एक सप्तक हैं। नाद की ऊँचाई-निचाई के आधार पर इस प्रकार कुल तीन सप्तक
मख्य
ु हैं –
1. मंद्र सप्तक – जिस सप्तक के स्वरों की आवाज़ मध्य सप्तक की आवाज़
से दगु नु ी नीची हो उसे मद्रं सप्तक कहते हैं। मद्रं के स्वर गाते या बजाते समय
गहराई या भारीपन का अनभु व होता है। मद्रं सप्तक के स्वरों को लिखते समय
स्वरों के नीचे बिंदी (.) का प्रयोग करते हैं जैसे – सा रे ग़ म प ध नि।
2. मध्य सप्तक – स्वाभाविक कंठ से निकलने वाले स्वरों के सप्तक मध्य सप्तक
कहलाते हैं। ये स्वर मद्रं सप्तक से दगु नु े ऊँचे होते हैं। सनु ने में स्वाभाविक एवं
सामान्य लगते हैं। मध्य सप्तक के स्वरों को लिखते समय किसी चि� की
आवश्यकता नहीं होती।
3. तार सप्तक – ऊँची ध्वनि, जो मध्य सप्तक से दगु नु े ऊँचे होते हैं तार सप्तक
के स्वर कहलाते हैं। तार सप्तक के स्वरों को लिखते समय स्वरों के ऊपर बिंदी
का प्रयोग किया जाता है, जैसे – सां रें गं मं पं ध निं।
शिक्षक हारमोनियम या सितार के पर्दों पर मध्य, मद्रं एवं तार सप्तक आसानी
से दिखाकर समझा सकते हैं।
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राग
विशिष्ट स्वरों से बनने वाले समदु ाय राग कहलाते हैं।
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सपं र्णू -औडव सपं र्णू -षाडव सपं र्णू -सपं र्णू
(7-5 ) (7-6) (7-7)
1. औडव-औडव – वे राग जिनकेे आरोह एवं अवरोह में पाँच स्वर हों वे
औडव-औडव जाति के राग कहलाते हैं, जैसे – भपू ाली, मालकौस इत्यादि।
2. औडव-षाडव – वे राग जिनके आरोह में पाँच स्वर तथा अवरोह में छः स्वर
प्रयक्ु त होते हैं, वे आरोह औडव-षाडव कहलाते हैं।
3. औडव-सपं ूर्ण – वे राग जिनके राग में पाँच स्वर तथा अवरोह में सात स्वर
का प्रयोग होता है। वे राग औडव-षाडव कहलाते हैं।
4. षाडव-औडव – वे राग जिनके आरोह में छः स्वर एवं अवरोह में पाँच स्वर
का प्रयोग होता है, औडव-षाडव जाति के राग कहलाते हैं।
5. षाडव-षाडव– वे राग जिनके आरोह तथा अवरोह दोनों में छः स्वर हों,
षाडव-षाडव जाित के राग कहलाते है।
6. षाडव-सपं ूर्ण – वे राग जिनके आरोह छः तथा अवरोह में सात स्वर हों वे
राग षाडव-संपर्णू कहे जाते हैं।
7. सपं ूर्ण-औडव– वे राग जिनके आरोह में सात स्वर एवं अवरोह में पाँच स्वर
प्रयक्ु त होते है, सपं र्णू औडव कहलाते हैं।
8. सपं ूर्ण-षाडव – वे राग जिनके आरोह में सात स्वर एवं अवरोह में छ: स्वर
प्रयक्ु त होते है, सपं र्णू षाडव कहलाते हैं।
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9. सपं ूर्ण-सपं ूर्ण – वे राग जिनके आरोह-अवरोह में सातों स्वर का प्रयोग होता
है, वे संपर्णू -संपर्णू जाति अथवा संपर्णू जाति के राग कहलाते हैं, जैसे – भैरव,
भैरवी इत्यादि।
अन्य पारिभाषिक शब्द
आरोह – किसी भी राग में प्रयक्ु त होने वाले स्वरों को चढ़ते क्रम में तार सां तक
गाना या बजाना आरोह कहलाता है, जैसे – राग भैरव में प्रयक्ु त होने वाले स्वर हैं
“सा रे ग म प ध नि” तो इनका आरोह होगा – सा रे ग म प ध नि सां ।
अवरोह – किसी राग में प्रयक्ु त होने वाले स्वरों को आरोह के विपरीत तार (सां) से
मध्य सप्तक के सा तक गाने या बजाने को अवरोह कहते हैं। जैसे – भैरव में प्रयक्ु त
होने वाले स्वर हैं – “सा रे ग म प ध नि” तो इनका अवरोह हुआ – सां नि ध प म
ग रे सा ।
पकड़ – किसी भी राग में प्रयक्ु त होने वाले स्वरों को सबसे छोटा मेल या विन्यास
जिसको गाते या बजाते ही राग पहचान में आ जाए, वह राग की पकड़ कही जाती
है, जैसे – भैरव राग में “ग म ध प” स्वरवाली गाते ही राग भैरव का आभास हो
जाता है।
आलाप – राग को गाते समय उस विशेष राग के नियमानसु ार स्वरों को आकार
(आ ss) किसी बोल (गीत या बंदिश के शब्द) अथवा “नोम-तोम” में गायन करने
को आलाप कहते हैं। इसे गायन से परू ्व बिना ताल के तथा बीच में तालबद्ध दोनों
तरीके से गाया या बजाया जाता है, जैसे – राग यमन का एक आलाप देखिए –
स्वर नि़ रे ग - - प म�॑ रे s s ग प रे ग रे सा
आकार आ s s s s आ s s s s s आ आ s s s
तान – तान का अर्थ होता है तानना या फ़ै लाना। तान उस स्वर समदु ाय को कहते हैं
जिससे प्रयक्ु त स्वरों को गाकर राग का विस्तार किया जाता है। आलाप के विपरीत
तान में स्वरों को तेज़ लय में गाकर बंिदश के बोल या राग के स्वरों में गाते हैं।
जैसे – राग यमन की तान।
ऩिरे गम ॑ धनि सांनि धप मग॑ रे सा ऩिसा को आकार में गाते बजाते हैं।
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अलंकार या पलटा
अलंकार का अर्थ है सजाना। नियमित स्वर समहू के गायन को अलंकार कहते हैं।
पंडित अहोबल ने इसकी परिभाषा इस प्रकार दी है “स्वरों की क्रम से की गई रचना
जो आपस में भली-भाँति गथु ी हुई हो, अलंकार कहलाती है।” इससे गले की तैयारी
तथा राग के विस्तार की समझ आसानी से हो जाती है।
अलंकार के नियम
1. अलंकार में आरोह-अवरोह दोनों का होना आवश्यक है।
2. स्वर एक नियमित क्रम में होते हैं।
3. राग के अनसु ार शद्ध
ु अथवा विकृ त स्वर का प्रयोग करना चाहिए।
उदाहरण – 1
सा रे ग रे ग म ग म प म प ध प ध नि ध नि सां
आरोह
1 2 3 2 3 4 3 4 5 4 5 6 5 6 7 6 7 1
अवरोह सां नि धा नि ध प ध प म प म ग म ग रे ग रे सा
आप देख सकते हैं की इसमें आरोह-अवरोह विद्यमान है, स्वर नियंत्रित क्रम
123, 234 ..... में हैं तथा एक खडं में 3-3 स्वरों का प्रयोग किया गया है।
उदाहरण – 2
यमन राग का अलंकार इसी क्रम में इस प्रकार होगा।
अवरोह सा रे ग रे ग म ॑ ग म ॑ प म ॑ प ध प ध नि ध नि सां
अवरोह
सां नि धा नि ध प ध प म॑ प म॑ग म ॑ ग रे ग रे सा
सानिध्य
आप देख सकते हैं – राग के अनसु ार तीव्र-मध्यम का प्रयोग किया गया है।
गमक
स्वरों का ऐसा कंपन जो स्वरों को सदंु रता एवं गभं ीरता दे उसे गमक कहते हैं। जैसे –
‘सा’ स्वर जो गमक के साथ गाएँ तो स्वर की गंभीरता बढ़ जाती है और वह सनु ने
में पहले से ज़्यादा अच्छा लगता है।
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सा
गमक का प्रयोग कई तरह से हमारे संगीत में होता है, कंठ संगीत एवं वाद्य
सगं ीत में गमक के कई प्रकार प्रयक्ु त होते हैं, वे हैं –
1. खटका 2. मर्की
ु 3. जमजमा 4. सतू
5. घसीट 6. गिटकरी 7. मींड
शिक्षकगण गमक का प्रयोग कर छात्रों को समझा सकते हैं।
दक्षिण भारतीय सगं ीत
दक्षिणात्य संगीत या कनार्टक संगीत के कुछ तकनीकी शब्द और उनकी व्याख्या
कर्नाटक सगं ीत प्रस्तुति के मख्यु त: दो रूप हैं –
1. अभ्यास गानम 2. सभा गानम
अभ्यास गानम, सगं ीत के आधारभतू अभ्यास और साधना की ओर सक ं ेत
करता है, जबकि सभा गानम उस गायन की ओर संकेत करता है, जहाँ तक पहुचँ ने
के लिए अभ्यास किया
जाता है। दक्षिणात्य
सगं ीत, दक्षिण भारतीय
एवं कर्नाटक संगीत
के नाम से भी जाना
जाता है। कर्नाटक के
कर्ण शब्द का अर्थ
कान होता है, जबकि मृदगं एवं वीणा बजाते हुए कलाकार
अटकम् शब्द का अर्थ है, सहु ाना। अतः कर्नाटकम शब्द का अर्थ है, जो कानों को
सहु ाना लगे। कर्नाटकम शब्द की व्याख्या कुछ लोग इस प्रकार भी करते हैं, अत्यंत
प्राचीन रूप जो पारंपरिक कड़ी को प्रकट करता हो।
इसमें प्रयक्ु त होने वाले सात स्वरों के नाम हैं – षड्जम् (सा), ऋषभम् (रे ),
गांधारम् (ग), मध्यम् (म), पंचमम् (प), धैवतम् (ध) और निषादम् ् (नि)। ये सातों
सगं ीत के आधार स्वर हैं।
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रागम् अथवा राग – विभिन्न स्वरों के सवि ु चारित समहू को रागम् अथवा राग
कहा जाता है। इसका एक नििश्चत स्वरूप होता है और यह सुनने में अत्यंत रंजक
तथा कर्ण प्रिय लगता है। यह अत्यंत महत्वपर्णू तथ्य है कि किन्हीं भी दो रागों का
स्वरूप बिल्कु ल एक जैसा नहीं होता है। महत्वपूर्ण यह भी है कि कई बार सिर्फ़
एक ही स्वर का परिवर्तित रूप ही किसी नए राग के जन्म का कारण बनता है।
हर राग का अपना एक पृथक सौंदर्य होता है और एक प्रशिक्षित कान द्वारा उन्हें
आसानी से पहचाना जा सकता है। विभिन्न प्रकार की सांगीतिक रचनाओ ं के
माध्यम से किसी अमर्तू राग को मर्तू किया जा सकता है।
आरोहण एवं अवरोहण – प्रत्येक राग में आरोहण एवं अवरोहण नामक दो
महत्वपूर्ण चरण होते हैं। जब स्वर नियमित क्रम में नीचे से ऊपर की ओर जाते हैं
तो उसे ‘आरोहण’ कहा जाता है। इसी प्रकार, स्वर जब नियमित क्रम में ऊपर से
नीचे की ओर आते हैं, तो उसे ‘अवरोहण’ कहा जाता है।
अभ्यास गानम अथवा प्राथमिक साधना – यह सामान्यत: राग माया मालव
गौला गोरा में होता है, जो पंद्रहवाँ मेलकर्ता राग है। अभ्यास गानम पद्धति आरंभ
करने का श्रेय संगीत पितामह पुरंदर दास जी को है, जो पंद्रवी शताब्दी में रहे थे।
स्वरावलि – सगं ीत शिक्षा के आरंभ में जो प्रथम पाठ पढ़ाया जाता है, उसे
‘स्वरावलि’ अथवा ‘सरलीवरिसई’ कहा जाता है जिसका अर्थ स्वरों की लड़ी
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होता है। अतः स्वर आवली का अर्थ हुआ स्वरों का नियमित क्रम। यह ‘सरली
वरिसई’ एवं ‘कोवई वरिसई’ भी कहलाता है।
जंटई वरिसई – जब सासा, रे रे, गग, मम आदि के रूप में हर स्वर का गायन एक
साथ दो-दो बार होता है, उसे ‘जंटई वरिसई’ अथवा ‘इरटई कोवई वरिसई’ कहा
जाता है। आकार के रूप में इनके निरंतर अभ्यास से राग अल्पनाओ ं में निपुणता
प्राप्त होती है।
हेचु स्थायी अथवा मे ल स्थायी वरिसई – यह स्वरों की व्यवस्था है जिसमें
स्वरों का गायन या वादन/तार स्थाई के षडज से पंचम स्वर तक होता है। इसे
‘वलिवु मंदिला’ नाम से भी संबोधित किया जाता है।
तग्गु स्थायी वरिसई – इसके अंतर्गत स्वरों को इस अंदाज में पिरोया जाता
है जिसके गायन, वादन के अध्ययन एवं अभ्यास से मंद्र स्थाई के पंचम स्वर
तक का कुशलतापूर्वक प्रयोग किया जाता है। यह ‘मेलियु मंडिला वरिसाई’ भी
कहलाता है।
चिट्टई स्वरम् – चिट्टई स्वरम् संदु र स्वरों का एक समहू होता है जो आदि ताल
में दो या चार आवर्तन का होता है तथा रूपक, तिपटु एवं चापू ताल में आठ या
सोलह आवर्तनों का होता है। यह अनुपल्लवी और चरणम् के अंत में मध्यम गति
में गाया जाता है।
पल्लवी, अनुपल्लवी एवं चरणम् – किसी भी सांगीतिक रचना का प्रथम
भाग ‘पल्लवी’ कहलाता है, तो दसू रा भाग ‘अनुपल्लवी’ कहलाता है। जबकि,
सांगीतिक रचना का अंतिम एवं समापन भाग ‘चरणम’् नाम से जाना जाता है।
पल्लवी, अनुपल्लवी एवं चरणम् वस्तुत: किसी कीर्ति, कीर्तन एवं संगीत संरचना
के तीन महत्वपूर्ण भाग होते हैं। यद्यपि कुछ ऐसी संगीत संरचनाएँ भी हैं जिनमें
सिफ़र् पल्लवी एवं चरणम् ही होते हैं। इसे भी सामान्यत: स्वीकार लिया गया है
कि अंगम् अर्थात् किसी संगीत सरंचना का एक भाग अलंकृत अंगम् कहलाता
है, जो उस रचना में एक विशेष प्रकार के सौंदर्य की वृद्धि करता है। यह गाने और
सुनने दोनों में अच्छा लगता है। इसके बाद अलंकार का क्रम आता है, जो ‘ताल
वेरीसस’ भी कहलाता है। ये अलंकार ध्रुव, मठ, रूपक, भम्प, त्रिपुट, अठ और
एक-इन सात तालों में निबंध होते हैं।
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गीतम् – गीतम् संगीत का वह भाग होता है जिसमें सहज, सरल शब्द और समध ु रु
संगीत होता है। गीतम् में पल्लवी, अनुपल्लवी और चरणम् जैसे अलग-अलग
भाग नहीं होते हैं, लेकिन साहित्यिक गीत या पद अवश्य होते हैं। गीतम् को दो
मख्य
ु श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है, जिनके नाम हैं – लक्ष्य गीत और
लक्षण गीत। गीतम् तमिल, तेलुग,ू कन्नड़ और संस्कृ त भाषाओ ं में उपलब्ध हैं।
स्वर जति – स्वर जति अभ्यास गान का ही एक रूप है जिसमें पल्लवी,
अनुपल्लवी और चरणम् होते हैं। उल्लेखनीय है कि कुछ में कई चरणम् पाए जाते
हैं। कुछ स्वर जति ऐसे भी हैं जिनमें अनुपल्लवी नहीं है। स्वर जति का साहित्य
भक्ति, प्रेम, पराक्रम, साहस, वीरता आदि भावों को प्रकट करता है। यद्यपि स्वर
जति अभ्यास गान के अंतर्गत आता है, तथापि श्यामा शास्त्री के तीन स्वर जति
समारोहों में गाए जाने के लिए अत्यंत लोकप्रिय हैं।
जतिस्वरम् – गीतम् की शिक्षा प्राप्त करने के बाद संगीतार्थियों के लिए जतिस्वरम्
सीखना कुछ अनिवार्य सा होता है। स्वरूप की दृिष्ट से जतिस्वरम् समान्यत: स्वर
जति जैसा ही होता है। अंतर सिफ़र् इतना होता है कि इसमें साहित्य नहीं होता है।
‘स्वर पल्लवी’ के नाम से भी इसे जाना जाता है क्योंकि इसमें जातियों का मेल
भी खबू दिखता है। कुछ जतिस्वरम् रागमल्लिका के रूप में भी संयोजित किए गए
हैं। स्वरजति सीख लेने के बाद संगीतार्थियों को वर्णम् सीखने में आसानी होती है।
वर्णम् – वर्णम् कर्नाटक संगीत का एक अत्यंत महत्वपूर्ण भाग होता है। प्रारंिभक
अभ्यास गान में सबसे अंत में सिखाया जाता है। मंच प्रस्तुतिकरण में वर्णन की
प्रस्तुति प्रथम रचना के रूप में होती है। इस आधार पर इसे अभ्यास गान और
सभागान के बीच की एक कड़ी के रूप में भी देखा जाता है। वर्णम् जिस राग पर
निबद्ध किया गया होता है, उस राग का संदु र और महत्वपूर्ण संचार सुनने को
मिलता है। वर्णम् के अंतर्गत प्रस्तुत किया जा रहा साहित्य संक्षिप्त होता है और
इसके माध्यम से प्राय: संगीत के महानायकों के प्रति प्रेम, आदर और भक्ति का
भाव प्रदर्शित किया जाता है।
कृति – किसी भी मंच प्रस्तुतीकरण में प्रस्तुत की जा रही रचनाओ ं में कृ ति को
सर्वाधिक श्रेष्ठ और महत्वपर्णू माना जाता है। जिस समय मंच पर कृ ति की
प्रस्तुति होती है, प्रस्तोता और आस्वादक दोनों ही एक विशेष प्रकार के आनंद
का अनुभव करते है। अनेक महान संगीतकारों ने कृ तियों का शब्दांकन और
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संगीत विस्तृत और इतनी विशाल कला है, जिसका गणित, भौतिक विज्ञान एवं
मनोविज्ञान आदि जैसी विधाओ ं से भी गहरा रिश्ता है। यहाँ हम संगीत और गणित
के रिश्ते पर संक्षेप में विचार करें गे।
सगं ीत की भव्य अट्टालिका जिन तीन मख्य ु आधार स्तंभों पर टिकी होती
है, उनमें एक लय है जिसे प्रदर्शित करने के लिए ताल का सहारा लिया जाता है।
लय, सगं ीत में व्यतीत हो रहे समय की चाल को कहा जाता है, सगं ीत में व्यतीत हो
रहे समय को मात्राओ ं द्वारा ठीक उसी प्रकार मापा जाता है, जैसे दैनिक जीवन में
व्यतीत हो रहे समय को हम सेकंड के द्वारा मापते हैं। जैसे – 60 सेकंड = 1 मिनट,
60 मिनट =1 घटं ा और 24 घटं ा = संपर्णू दिन और रात। मात्रा की कालावधि अभी
तक सगं ीत के विद्वानों द्वारा प्रामाणिक और सर्वमान्य रूप में निर्धारित नहीं हुई है,
फिर भी आधारभतू मध्यलय का एक मात्रा सामान्य: एक सेकंड के बराबर माना
जाता है।
वर्तमान समय में सगं ीत में व्यतीत हो रहे समय को मापने के लिए उत्तर भारतीय
संगीत शैली में न्यूनतम 6 मात्रा की दादरा ताल से लेकर अधिकतम 36 मात्रा की
लक्ष्मी ताल तक प्रचलित हैं। इनमें 6 मात्रा की दादरा, 7 मात्रा की रूपक और तीव्रा,
8 मात्रा की कहरवा, 10 मात्रा का झपताल और सल ू ताल, 12 मात्रा की एकताल
मणिपरु का नृत्य
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झपताल
मात्रा 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 1
बोल धी ना धी धी ना ती ना धी धी ना धा
चिह्न × 2 0 2 ×
एक ताल
मात्रा 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 1
बोल धि ध ं िं धागे े ितरिकट त ू ना क त्ता धागे े ितरिकट धीं ना धिं
चिह्न × 0 2 0 3 4 ×
रूपक
मात्रा 1 2 3 4 5 6 7 1
बोल ती ती ना धि ना धि ना ती
चिह्न 0 1 2 0
तीव्रा ताल
मात्रा 1 2 3 4 5 6 7 1
बोल धा दीं ता ितट कत गदी गन धा
चिह्न × 2 3 ×
दादरा
मात्रा 1 2 3 4 5 6 1
ढोल बजाते हुए कलाकार
बोल धा धि ना ना ती ना धा
चिह्न × 0 ×
कहरवा ताल
मात्रा 1 2 3 4 5 6 7 8 1
बोल धा गे न ित न क धी न धा
चिह्न × 0 ×
43
44
45
मणिपरु का संकीर्तन
46
यही नियम जटिल लयकारियों जैसे – 4 में 3, 4 में 5, 4 में 6 और 4 में 7 आदि
में भी लागू होता है, लेकिन कुछ भिन्न रूप में। इसे समझने से पहले हमें यह भी जान
लेना चाहिए कि मात्र गीत ही नहीं शब्द और अक्षर भी अपने उच्चारण में लगने
वाले समय के आधार पर मात्राओ ं में बंधे होते हैं, जैसे – अ ज य, वि ज य और
अ म र तीन-तीन मात्राओ ं के शब्द हैं, इसी प्रकार राम भी तीन मात्राओ ं का शब्द है
– र s म। लेकिन शक ं रशं s कर 4 मात्राओ ं का शब्द है। अब 4 में 3 अर्थात् पौनगनु
की लयकारी कुछ इस प्रकार होगी – जैसे शक ं र बोलने में जितना समय लगता है,
अर्थात् 4 मात्रा (या 4 सेकंड, धीमी गति से बोलने पर) उतने ही समय में राम अर्थात्
तीन मात्रा (या 3 सेकंड धीमी गति से बोलने पर) बोलना है, लेकिन नियमानसु ार।
अब अगर सविध ु ा की दृष्टि से थोड़ी देर के लिए हम ‘राम’ शब्द की तीनों
मात्राओ ं – अक्षरों र+अ+म= चार-चार मात्राओ ं के बराबर मान लें तो राम 12
मात्राओ ं के शकं र में इस प्रकार लिखा जाएगा –
1,2,3 4,1,2 3,4,1 2,3,4 या रा ऽ ऽ ऽ अा ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ मा ऽ ऽ ऽ
संगीत में गणित या अक ं गणित का कितना मह�व है, इसे इससे भी जाना जा
सकता है कि जब स्थूल रूप से गीत की संगत के लिए ताल का चयन करना
होता है, तो इसके लिए गीत की प्रथम पंक्ति की लंबाई, या इसे यँू कहें कि एक
सम से दसू रे सम तक के बीच की मात्राओ ं को
गिनते हैं और जितनी मात्राएँ होती हैं, उतनी
मात्रा की ताल का उसकी संगत के लिए चयन
किया गया है। अगर 6 मात्राएँ हैं तो दादरा
और अगर 16 मात्राएँ है तो फिर तीन ताल
बजेगी। ताल और गणित का एक सदंु र सबं ंध
हमें कर्नाटकीय अर्थात् दक्षिण भारतीय ताल
पद्धति में देखने को मिलता है। जहाँ 7 मल ू
तालों का विस्तार 175 तालों तक होता है।
दक्षिण भारतीय सगं ीत के 7 मल ू ताल – ध्रुव,
मठ, रूपक, झपं , त्रिपटु , आठ और एक में
एडाइक्का बजाते हुए कलाकार
लघु की जाति त्रयस्त्र, चतस्ु त्र, खडं , मिश्र और
सकं ीर्ण के अनसु ार बदलकर इनकी सख्या ं 35 कर दी जाती है।
47
रूपक ताल
मात्रा 1 2 3 4 5 6 I
बोल त क त क धि मी त
चिह्न × 2 ×
48
अत ताल
मात्रा 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 I
बोल त क त की त त क त की त त क धि मी त
चिह्न × 2 3 4 ×
त्रिपुट ताल
मात्रा 1 2 3 4 5 6 7 I
बोल त की ट त क धि मी त
चिह्न 2 × × ×
यहाँ यह जान लेना भी उचित होगा कि जिस तरह एक शरीर में आत्मा का होना
अनिवार्य होता है, उसी तरह शरीर संगीत में लय को कहा गया है कि जहाँ लय नहीं,
वहाँ प्रलय भी सभं व है। स्वस्थ मनष्य
ु की नाड़ी, उसके हृदय की धड़कन और सही
घड़ी की चाल आदि अच्छे लय के अच्छे उदाहरण हैं। जिस प्रकार हमारे जीवन में
अनश ु ासन और सामाजिक नियमों, प्रतिबंधों का मह�व होता है ठीक उसी प्रकार
संगीत में ताल का महत्त्व होता है। लय और ताल के सहारे ही संगीत को अनश ु ासन
की डोर में बाँधकर उसे एक सनिय ु ोजित और सवु ्यवस्थित रूप देना सभं व हो पाया
है। इसलिए प्राचीन संगीत विद्वानों ने लय और ताल विहीन संगीत को अरण्य
सगं ीत कहा था, क्योंकि लय और ताल ही सगं ीत को अनश ु ासित, सामाजिक और
अभिजात्य बनाते हैं।
49
संगीत एक ऐसी कला या विद्या है जिसका माध्यम है ध्वनि अथवा नाद। नाद
की दनिय ु ा पर जब हम गहन दृष्टि डालते हैं तो पाते हैं कि ये विभिन्न प्रकार की
ध्वनियाँ कभी हमें चौंकाती हैं, कभी दिलचस्पी जगाती हैं तो कभी अनठू ी लगती
हैं। कभी मेघ गर्जन की तरह तेज़ तो कभी नर्म मल ु ायम मखमली घास पर किसी
की पदचाप... पक्षियों के कलह और पशओ ु ं के रंभाने की आवाज़ों के साथ कभी
फ़े री वालों की हाँक लगाती आवाज़ें, तो कभी... अनेक मानवीय ध्वनियाँ। नदी की
धाराओ ं की कलकल ध्वनि... पत्तियों की सरसराहट... आकाश से गिरती वर्षा की
बँदू ों की रिमझिम... और इन जैसी अनेक ध्वनियाँ प्रकृ ति में समाहित हैं और एक
संवेदनशील नाद साधक इन सभी में नाद को देखता और अनभु व करता है।
कविवर वर्डसवर्थ ने अपनी एक कविता में ध्वनि को इस प्रकार ध्वनित किया है–
‘ वहाँ पर्वत मालाओ ं में प्रसन्नताएँ झमू ती हैं।
वहाँ झरनों में जीवन होता है ...’
शनै: शनै: इसं ान ने प्रकृ ति की ध्वनियों के आधार पर स्वनिर्मित ध्वनियाँ
उत्पन्न करने का रास्ता खोजा और फिर ध्वनि की तारता अर्थात् ऊँचाई-निचाई के
आधार पर उन्हें नियोजित किया। सात मख्य ु एवं अतिरिक्त स्वरों के बीच एवं इनके
सयं ोजन से ही अनेकानेक सगं ीत सृजित हुए हैं और होते रहते हैं। यह एक अनंत
यात्रा है जिसमें अनेक प्रकार के संगीत की रचना होती है। विभिन्न प्रकार के नादों
अथवा स्वरों के सयं ोजन से जो हार्मनी उत्पन्न होती है, वह सगं ीत निर्माण का काम
करती है। वरन् विभिन्न प्रकार की ध्वनियों के मेल से शोर और ध्वनि प्रदषू ण का
भी खतरा बना रहता है ।
एक उदाहरण के माध्यम से इसे समझने का प्रयास करते हैं – किसी मेले का
दृश्य है... विक्रे ता और खरीददार ज़ोर-ज़ोर से वस्तुओ ं का मोल-तोल कर रहे हैं,
सर्क स शरू ु हो चक ु ा है, जादगू र जादू के नाम पर हाथ की सफ़ाई दिखा रहे हैं,
बच्चे दौड़ रहे हैं, ध्वनि विस्तारक यंत्र विभिन्न प्रकार की अस्पष्ट ध्वनियों का
विस्तार करके जैसे अपने कर्तव्य का मस्तैद ु ी से पालन कर रहे हैं। वस्तुत: यह सब
संगीत नहीं है, लेकिन इन सभी में सांगीतिक त�व अवश्य हैं। अगर इन्हें सनिय ु ोजित
क्रम में प्रस्तुत किया जाए तो इसे आसानी से समझा जा सकता है। एक सगं ीतज्ञ
इसे सफलतापरू ्वक अजं ाम देता है। इसी प्रकार कोई नृत्यकार इस मेले में विभिन्न
व्यक्तियों के हाव-भाव एवं मद्रा ु ओ ं का अध्ययन करके अपनी नृत्य सरं चनाओ ं में
उनका प्रयोग कर सकता है, तो वहाँ की वस्तु स्थिति एवं विभिन्न दृश्यों को कें द्र में
रखकर किसी नाटककार द्वारा किसी नाटक की भी रचना की जा सकती है।
ध्वनि की मह�ा ऐसी है िक कोर्टेक्स
वह एक रूप है ऊर्जा का, परिणाम है क्रेिनयम
प्रयासों का और पृष्ठभमू ि है सृजन की।
जो अत्यंत महत्वपर्णू है। तात्पर्य यह
है कि जिन ध्वनियों को हम पहचान
पाते हैं, वे प्राकृ तिक रूप से आस-पास सेरेब्रेम
के वातावरण में फै ली होती हैं, जैसे–
ब्रेन स्टेम सेरेबेलम
आँधी-तफ़ ू ान की आवाज़ें, पत्तियों
ब्रेन का िचत्र
की सरसराहट, बारिश की रिमझिम,
चिड़ियों की चहचहाहट, नदियों का कलकल प्रवाह और पशओ ु ं के रंभाने की
आवाज़ें आदि। ये ऊर्जा मानव-मस्तिष्क को प्रकृ ति में फै ली असंख्य आवाज़ों में से
किसी आवाज़ विशेष और मानव मस्तिष्क पर पड़े उनके प्रभाव को भी पहचानने में
भी मदद करती हैं। सभी निर्माण कार्य, ऊर्जा की अलग-अलग प्रकार की निरंतरता
के ही परिणाम हैं तथा ध्वनि इस ऊर्जा के निरंतर कंपन का मौलिक और बीजभतू
रूप है। जैसा कि हम सब जानते हैं कि आनंद प्रदान करने वाली ध्वनि गायन है।
दिल की धड़कनें हमें एक दसू रे से पारस्परिक रूप से जोड़ती हैं।
मस्तिष्क के कंपन की निरंतरता अल्फ़ा, बीटा, डेल्टा और थीटा के आधार
पर अलग-अलग होती है। जब मस्तिष्क विभिन्न प्रकार की हार्मोनिक ध्वनियों की
तारता सगं ीत के माध्यम से स्पष्ट रूप प्राप्त करता है, तब वह स्थायी तारता मानव
मस्तिष्क को समृद्धि प्रदान करते हुए उस पर गहरा प्रभाव भी छोड़ती है।
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अर्धगोलक
मानव मस्तिष्क में दो अर्धगोलक होते हैं। बायाँ दायाँ
प्रथम को प्रबल अथवा प्रधान कहा जा
सकता है, तो दसू रा उससे कम प्रबल या
अप्रधान होता है लेकिन ये दोनों ही अर्ध
गोलक मानव-मस्तिष्क में विभिन्न प्रकार
की सचू नाएँ पहुचँ ाने का काम करते हैं।
मानव मस्तिष्क में सचू नाएँ एकत्र करने का
भाषा कल्पना
एक ही भाग होता है। सामान्यत: अधिकाश ं शक्ति
लोगों के मस्तिष्क में बाइ� ओर स्थित प्रधान गणित तार्कि क िवचार
रचनात्मक
कलात्मक
अर्धगोलक भाषाई और तार्कि क होता है। ब्रेन के दो भाग
जबकि मस्तिष्क के दाइ� ओर रहने वाला
अप्रबल अर्धगोलक, स्थान सबं धं ी सचू नाएँ देने और अभाषाई प्रक्रियाओ ं पर कें द्रित
होता है। भाषाओ ं को समझने और उसकी रचना करने की योग्यता हमारे मानवीय
अनभु वों का अति आवश्यक अगं है। दिलचस्प बात यह है कि मस्तिष्क में ऐसी
गतिविधि की आवश्यकता होती है जिसमें दोनों अर्धगोलक उपयोगी बातों को एक
साथ मिलकर समाहित कर सकें ।
जब शद्ध
ु आवाज़ अथवा सांगीितक ध्वनि के उपयोग हेतु अप्रधान अर्धगोलक
प्रोत्साहित अथवा उत्तेजित होता है। तो बहुधा वह असाधारण स्थिति के प्रति जागृत
करता है, क्योंकि अप्रभावी अर्धगोलक अतं र्ज्ञान से प्राप्त आवश्यक योग्यताओ ं से
यक्ु त होता है। इस स्थिति में नाड़ी सबं ंधी हरकतें हमारे यथार्थ, आतं रिक और बाह्य
दोनों ज्ञान को हमारे नित्य प्रति के अनभु वों से पृथक करती हैं। हमारी सोच-समझ
तब अधिक ज़िम्मेदार, स्पष्ट, तीव्र, सक्ष्मू और संस्कारित हो उठती है।
ध्वनि का विज्ञान
किसी इसं ान के कान 20 से 20 हज़ार हर्ट्ज़ तक की ध्वनि तारता, प्रति सेकेंड
सनु ने की क्षमता रखते हैं। इससे कम की ध्वनि इफ़् ं रासोनिक और इससे अधिक
की ध्वनि अल्ट्रासोनिक कहलाती है। ज्ञातव्य है कि इफ़् ं रासोनिक की तारता 20
हर्ट्ज़ प्रति सेकेंड से कम होती है, जबकि अल्ट्रासोनिक ध्वनि की तारता 20 हज़ार
हर्ट्ज़ प्रति सेकेंड से अधिक ध्वनि सामान्यत: वाय,ु जल और काष्ट आदि के
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माध्यम से तरंगित होते हुए अपनी यात्रा तय करती है। दरअसल, ध्वनि को अपने
अस्तित्व के विस्तार के लिए किसी न किसी माध्यम की आवश्यकता पड़ती ही
है, क्योंकि शन्य
ू से कोई ध्वनि नहीं पैदा होती। ध्वनि, ठोस पदार्थ, तरल पदार्थ
और वायु में अलग-अलग तरह से क्रियान्वित होती है। यहाँ तक कि लचीले, ठोस
तथा घने पदार्थों से ध्वनि के गजु रने की प्रक्रिया भी भिन्न-भिन्न होती है। ध्वनि गैस
की अपेक्षा ठोस तथा तरल पदार्थों से अधिक तेजी से गज़ु रती है। इस संदर्भ में यह
जानना भी उचित और प्रासगि ं क होगा कि अधिकांश भारतीय वाद्य यंत्र सामान्यत:
लकड़ी, धातु या मिट्टी अथवा चीनी मिट्टी आदि से बनते हैं। इनमें से अधिकांश
मिट्टी बाँस
वाद्यों में छिद्र एवं सरु ाख आदि भी होते हैं, ताकि वायु अपनी यात्रा निर्विघ्न तय
कर सके । उदाहरण के लिए, मृदगं एवं सारिंदा आदि वाद्यों को देखने से िक पता
चलता है इन वाद्यों में ध्वनि तरंगें क्रमबद्ध रूप में दबाव तथा विरल रूप में अपनी
यात्रा तय करती हैं।
ध्वनि हर प्रकार के सगं ीत का आधार त�व है। सगं ीतोपयोगी ध्वनि से मानव
को एक ईश्वरीय वरदान प्राप्त हुआ। वह न के वल सर्वत्र व्याप्त सृजनात्मकता के
53
गीत गाता है, बल्कि आतं रिक रूप से स्वयं को भी सृजित करने की क्षमता और
प्रेरणा देता है। पाइथागोरस तो शन्यू के संगीत की भी परिकल्पना करते थे। ध्वनि
पर आधारित मौखिक सांगीतिक शिक्षा के विस्तार ने बच्चों कि मानसिकता पर
विवेकशीलता की गहरी छाप छोड़ी है।
किसी शिशु की शिक्षा का प्रारंभिक चरण अत्यंत महत्वपर्णू होता है। शिक्षा के
आधारभतू त�व इसी समय बच्चों के मस्तिष्क में पनपते हैं। इनका स्थान कितना
महत्वपर्णू होता है यह इसी से स्पष्ट होता है कि ये मौलिक त�व बच्चों की भावी
शिक्षा पर स्थायी प्रभाव छोड़ते हैं। सगं ीत को जब आवश्यक तौर पर सकारात्मक
रूप में बच्चों को सिखाया जाता है, तब ये बच्चों के मल ू शिक्षा ग्रहण में भी
सहायक सिद्ध होते हैं। साथ ही अन्य रूपों में भी उनकी मदद करते हैं। बच्चों की
श्रवण शक्ति अत्यंत तीव्र होती है। वे ध्वनि के विषय में बहुत ही सजग होते हैं
और प्राय: हर शब्द पर ध्यान देते हैं। तभी तो वे किस्से-कहानियों, गडु ् डे-गड़िय
ु ों के
खेल, नाटक एवं एनिमेशन फि़ल्मों में खबू रुचि लेते हैं। संगीत उनकी सृजन शक्ति
में वृद्धि लाता है। सगं ीत का यह विशेष गणु है कि वह अपने साधकों में एकाग्रता,
के न्द्रिभतू सजगता, समन्वय एवं सहभागिता के प्रयास, परिकल्पना, स्मृति और
धारणा, शक्ति, आत्मावलोकन अर्थात् अपने अदं र झाँकने की प्रवृत्ति आदि का
विकास करता है। इसका प्रभाव तभी से आरंभ हो जाता है जब संगीत की कक्षा में
इसकी शिक्षा की शरुु आत होती है, इसलिए इसकी शिक्षा की व्यवस्था आरंभिक
चरणों से ही शरू ु होनी चाहिए। ध्वनि हमारे बोध और ज्ञान को समृद्ध करता है।
संगीत हर कला के अदं र, प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप में मौजदू होता है।
हम इसके प्रभाव का अनभु व बच्चों, शिशओ ु ं में कर सकते हैं जिसकी शाब्दिक
व्याख्या नहीं की जा सकती है... जिसे उन्हें सिखाया नहीं जा सकता है। माताएँ हर
समय अपने बच्चों के लिए गाती रहती हैं और बच्चों पर उसका असर होता है।
ऐसा प्रतीत होता है कि संगीत हमारे जीव विज्ञान की धरोहर का भी एक अगं है।
उदाहरण के लिए, इसके दो पहलू हैं, माँ अपने बच्चों के लिए भावनाओ ं में डूबकर
गाती हैं और संगीत के वे स्वर उसकी रचनात्मकता को बढ़ावा देते हैं। लेकिन, ठीक
उसी समय, गीत सनु ते हुए बच्चा अपनी समझ और सामर्थ्य के अनसु ार उस सगं ीत
पर अपनी प्रतिक्रिया भी देता है। इससे यह सिद्ध होता है कि यह स्थिति वैज्ञानिक
रूप से समझ और ज्ञान का विकास करती है। सगं ीत के वल रचनात्मकता का ही
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विकास नहीं करता है। बल्कि वह स्वयं के सृजन के लिए आवश्यक तत्वों को भी
एकत्र करता है। संगीत के विभिन्न प्रकारों के साथ किए गए प्रयोगों के आधार पर
कहा जा सकता है कि यह हमारी समस्याओ ं का निवारण करते हुए रचनात्मक
क्रियाशीलता को भी बढ़ाता है। यह एक अत्यंत सरल, सहज और सहु ावना रास्ता
है जो सृजनात्मकता के अनभु वों का विकास करते हुए उसमें नित प्रति कुछ न कुछ
नया जोड़ता है।
नाद योग
नाद योग की जड़ें वेद में हैं। यह अलौकिक
ध्वनि कंपन का विज्ञान है। जैसा कि आत्म
निरीक्षण करने वाले अद्वैतवाद, एक ब्रह्म
के सिद्धांत को मानने वाले और सर्वोच्च
अभिज्ञान को जानने वाले, सतं ों-योगियों
ने अपने ज्ञान के आधार पर इस रहस्य को
उद्वघाटित किया है।
नाद योग अति सक्ष्म
ू दृष्टि रखने वाले
लोगों को आतं रिक सगं ीत और ध्वनि के
माध्यम से उस स्थिति में पहुचँ ाता है, जहाँ
सिफ़र् मौन तथा शांति का साम्राज्य होता बाऊल
है। फिर वह व्यक्ति सृजन के क्षणों से गज़ु रते हुए ईश्वर तक जा पहुचँ ता है। इस
ऊँचाई पर वही व्यक्ति पहुचँ पाता है, जिसने साधना के द्वारा आत्मशद्धि
ु कर ली हो।
किसी व्यक्ति को साधना के इस उच्च स्तर में पहुचँ ाने की क्षमता भारतीय शास्त्रीय
संगीत में मौजदू राग, ताल, श्लोक, मत्रं , कीर्तन, गीत एवं भजन आदि में है। इनके
अभाव में कोई व्यक्ति स्वयं को नाद योगी के रूप में स्थापित नहीं कर सकता। वह
वेदांत के दर्शन को सीख और समझ सकता है। कोई भी व्यक्ति इससे जड़ु सकता
है, भले ही वह इसमें प्रशिक्षित हो अथवा नहीं। यही साधना उसे अपने शरीर, मन,
भावना और बद्धि ु के शद्धिु करण के मार्ग पर ले जाती है। सृजन का यह रूपांतरण
इसलिए होता है, क्योंकि एक व्यक्ति अपने सक्ष्मू आतं रिक ज्ञान और कंपन से इसे
कर सकता है।
55
सृष्टि की सारी गतिविधियाँ कंपन से ही सचं ालित होती है। कंपन अर्थात् ऊर्जा
ध्वनि के रूप में विभिन्न रूप में मौजदू रहती है। अत्यंत विशाल और ठोस से लेकर
बिल्कु ल सक्ष्म
ू रूप में भी विभिन्न त�वों से
बना एक भौतिक शरीर और एक वरदानी
सक्ष्म
ू शरीर भी वस्तुत: कंपन ही है। प्राणमय
कोश के अनसु ार ऊर्जा के नियम नाड़ी
और चक्र को संचालित करते हैं और जो
अधिकांशत: ध्वनि के कंपन से प्रेरित और
प्रभावित होते हैं। यही कारण है कि संगीत
ध्वनि कंपन ग्राफ
का हम सभी पर काफ़ी गहरा प्रभाव पड़ता
है। कोई व्यक्ति किसी वाद्य पर आघात करता है तो आघात के फलस्वरूप उत्पन्न
कंपन हवा के ज़रिये हमारे कर्ण पटों तक आ पहुचँ ता है और हम उस वाद्य की ध्वनि
का रसास्वादन कर पाते हैं।
नाद योग हमारी शारीरिक प्रक्रिया को परिष्कृ त करते हुए लय और स्वरबद्ध
करता है। नाड़ियाँ अर्थात् वे सक्ष्म
ू माध्यम जिनसे हमारे शरीर में ऊर्जा का सचं ार होता
है। शरीर में आवाज़ सर्वश्ष्रे ठ साज है। जो वोकल काॅडर्स में कंपन से ध्वनि उत्पन्न
करता है। कंपन के माध्यम से वीणा, सारंगी, सितार, गिटार, सरोद, हारमोनियम और
तबला आदि बाह्य वाद्यों का हम वादन करते हैं। कोई भी व्यक्ति सरु और ताल की
तकनीक को तो सीख सकता है, लेकिन इसका मख्य ु उद्देश्य होता है आत्मनिरीक्षण
और आत्मरूपांतरण, क्योंकि गायन-वादन से कोई व्यक्ति अपना कें द्रीय बिंद,ु
एकाग्रता एवं चित्त की लीनता की भावना को प्रबल बनाता है।
चिकित्सा पद्धति के रूप में ध्वनि एवं सगं ीत
रोग निवारण के लिए ध्वनि और संगीत के उपयोग का सिलसिला मानव सभ्यता
के लगभग साथ-साथ ही विकसित हुआ है। इसका लंबा इतिहास है। स्वदेशी एवं
प्राकृ तिक उपकरणों एवं औषधियों के रूप में मानव की आवाज़, अवनद्ध और घन
वाद्य, बाँसरु ी तथा आघात एवं घर्षण से बजने वाले अन्य वाद्यों का प्रयोग मस्तिष्क
की स्थिति परिवर्तन के लिए करता रहा है। यह अध्ययन हमें यह बताता है कि कुछ
निश्चित वादन शैलियाँ मस्तिष्क में थीटा की क्रियाशीलता को बढ़ाती हैं। स्थिति
ठीक वैसी होती है जैसी नींद आने के ठीक पहले अथवा नींद खल ु ने के तरु ं त बाद
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की होती है अर्थात् व्यक्ति न तो परू ी तरह जागृत होता है और न ही परू ी तरह सप्त
ु ।
वह तंद्रा अवस्था में होता है। मस्तिष्क की स्वपनावस्था वस्तुत: परिज्ञान और सृजन
की अवस्था होती है।
ध्वनियों के नाड़ियों पर पड़ने वाले प्रभाव से यह स्पष्ट होता है कि मस्तिष्क
अच्छी ध्वनियों पर उच्च स्तर में अपनी प्रतिक्रिया देता है। पेट (P.E.T.) के
अनसु ार, शब्द रहित संगीत अथवा ध्वनि जालीदार स्थिति को उत्तेजित करती है
और बढ़ाती है, जो सामान्यत: दायीं ओर स्थित अप्रबल अर्धगोलक में होता है।
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मानव के जन्म से संगीत का जन्म होता है। संगीत जीवन की अनमोल धरोहर है जो
कि प्राणी मात्र में विद्यमान है। संगीत प्रकृ ति प्रदत्त कला है। प्रकृ ति के एक-एक कण
में संगीत का स्वरूप स्पष्ट परिलक्षित होता है।
ललित कलाओ ं में सगं ीत कला को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। चकि ँू कला मनष्य
ु
के भाव और विचारों को प्रकट करने की एक शैली है। अतः संगीत का भी लक्ष्य
मानव के विचारों और हृदय गत भाव को प्रभावशाली रूप में प्रस्तुत करना होता है।
संगीत वह ललित कला है जिसमें हम अपने मन की भावनाओ ं को स्वर और लय
के माध्यम से प्रकट करते हैं। जब हम भावों को अलंकार और छंदों द्वारा व्यक्त करते
हैं तो उसे कविता कहते हैं। इस प्रकार जब हमारे भावों की प्रस्तुतीकरण का माध्यम
स्वर और लय होते हैं, तो वह सगं ीत कला कहलाती है।
गायन एवं नृत्य में वादन का अनठू ा स्थान है। नृत्य का सौंदर्य अधखिली कली
के सदृश होता, अगर गायन और वादन का साथ नहीं होता। उसी तरह जिस प्रकार
कली खिलने पर पष्प ु का रूप धारण कर लेती है उसी प्रकार ये सारी कलाएँ भी
वाद्यों की संगत पाकर पर्णू विकसित पष्प ु की भाँति खिल उठती हैं।
सगं ीत का नतृ ्य से सबं ंध
सगं ीत एक सार्वभौमिक कला है। मनष्य
ु जाति ने सभी काल में इसे सर्वश्ष्रे ठ कला के
रूप में स्वीकृ त किया है। इसका विशाल संदर्भ इसके सर्वकालिक एवं सार्वदसि े क
स्वरूप को स्पष्ट एवं प्रमाणित करता है। चौसठ कलाओ ं में सगं ीत कला को
वाद्य यंत्र बजाते हुए स्कू ली छात्र
सर्वश्ष्रे ठ कहा गया है। यह मानवीय हृदयगत भावों को जाग्रत करने में सर्वाधिक
समर्थ है। माधर्यु सहजता, सरलता, लयात्मकता आदि से संगीत चर-अचर दोनों
प्राणियों को मत्रं मगु ्ध कर देता है।
कला समाज का दर्पण है। किसी भी स्थान में कला को परखने से उनका समाज
से सीधा संबंध दिखता है। नृत्य भी इन्हीं कलाओ ं में अपना स्थान बनाए रखता है।
नृत्य कला समाज की लोक सस्कृति ं , साहित्य व धर्म के आधार की कृ ति है। इसका
प्रभाव भारतवर्ष के हर कोने में दिखता है। नृत्य में संगीत, साहित्य, वाद्य यंत्र और
वेश-भषू ा का समावेश है। सौंदर्य का आधीन, यह हमें विभिन्न सस्कृति ं , धर्म एवं
लोक-कलाओ ं की गहन बातों का आभास दिलाता है। कथक, कुचिपड़ु ी, ओडिसी
जैसे शास्त्रीय नृत्य या गरबा, भाँगड़ा, मणिपरु ी इत्यादि नृत्य भारत के प्रत्येक प्रांत
की छवि दिखाते हैं। भारतीय परंपरा तथा शास्त्रों के अनसु ार नृत्य के अधिष्ठाता
भगवान शक ं र हैं। उनके सदर्भ
ं में ऐसा माना जाता है कि ब्रह्मा ताल देते हैं, विष्णु
मृदगं बजाते हैं, सरस्वती वीणा के तार झक ं ृ त करती हैं, सर्यू एवं चद्रं बाँसरु ी बजाते
हैं, अप्सराएँ व किन्नरियाँ श्रुतियों का ध्यान रखती हैं और महादेव डमरू बजाते हुए
पैर के थिरकन से सभी का साथ देते हैं या आह्वान करते हैं।
संगीत का घनिष्ठ संबंध नाट्य से है। संगीत को नाट्य का अगं माना जाता था।
नाटक में अभिनय के साथ गायन, वादन एवं नृत्य को भी स्थान दिया जाता है। नृत्य
का उदग् म स्थल अभिनय को ही माना जाता है। इस प्रकार मनष्य ु अपने दैनिक
जीवन में जो कुछ क्रियाकलाप करता है, जैसे – स्नेह, क्रोध, द्वेष, आनंद, शांति
संकीर्तन – मणिपरु
59
60
62
अर्थात् जिस प्रकार रंग बिना चित्र शोषित नहीं होता। उसी प्रकार बिना गीत
के नाट्य से राग(भाव) की उत्पत्ति नहीं होती है।
4. गीत मात्र शोभा जनक ही नहीं होते, ये नाट्य का अविभाज्य अगं है,
“एवं शीतं च वाद्यं च नाट्यं च विविधश्रयम।्
आलाप चक्र प्रतिमं कर्तव्यं नाट्ययो वीन्तृभि।।”
(नाट्यशास्त्र)
यक्षगान
64
इन ग्रंथों का सदर्भ
ं एवं विद्वानों के मत सगं ीत को नाट्य के मल ू त�व के रूप में
स्थापित करते हैं। संगीत के तीनों रूप अर्थात् गीत, वाद्य एवं नृत्य नाटक को एक
आधार प्रदान करते हैं एवं उसको विकसित करने में मख्य ु भमू िका निभाते हैं।
भारतवर्ष अत्यंत विशाल
है, नाट्य की दृष्टि से भी
विविधताएँ हैं, जैसे – नाट्य
के कई नाटक, धार्मिक नाटक,
एकाक ं ी, नक्कड़
ु नाटक, एकल
नाटक, प्रहसन, लोक नाट्य
इत्यादि। पनु ः लोक नाट्य
अपने क्षेत्रों की अलग-अलग
विशेषताओ ं से यक्ु त है जैसे –
जात्रा (बगं ाल, ओडिशा, पर्वी ू नाट्य कला – महाभारत का दृश्य
बिहार), तमाशा (महाराष्ट्र), नौटंकी तथा रास (उत्तर प्रदेश), नौटंकी (राजस्थान एवं
पजं ाब), भवई (गजु रात), यक्षगान (कर्नाटक), नाचा (छत्तीसगढ़) में प्रचलित भी हैं।
इन सभी नाट्य रूप में सगं ीत भी उनके अनसु ार ही प्रयोग ही किया जाता है। सभी
प्रकार के नाटकों में सगं ीत, गीत, वाद्य का पाश्वर् एवं प्रत्यक्ष प्रयोग भिन्न होता है।
जहाँ तक अपने विद्यालयों में नाट्य प्रस्तुतियों का प्रश्न है तो एकाक ं ी नाटक का
प्रयोग सर्वाधिक होता है। ये एकाक ं ी नाटक समय एवं ससं ाधन के बहुत ही कम प्रयोग
के बावजदू लोक चेतना यानी छात्रों एवं दर्शकों के परू े मनोरंजन के साथ ज्ञानवर्धन
भी करते हैं तथा उनका जागरूक बनाते हैं।
विद्यालय में नाट्य प्रस्तुतियाँ उत्तम हों, उनका प्रभाव पर्णू रूप से कलाकार छात्रों
एवं दर्शकों पर हो, इस हेतु नाट्य सगं ीत के प्रायोगिक पक्ष पर एक दृष्टि डाली जा रही है।
स्कू ली बच्चों द्वारा नाट्य एवं
संगीत की प्रस्तुित
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अथवा भल ू जाना, पात्रों का मचं पर अव्यवस्थित हो जाना, गिर जाना इत्यादि। कुल
मिलाकर जब मचं पर कुछ गलती हो जाए तो संगीत से उन गलतियों को ढक देना
या छुपा देना क्षेपक है। क्षेपक कोई तबले का टुकड़ा, उठान, बोल या धनु हो सकता
है। ध्यान रहे कि गलती होते ही संगीत प्रारंभ कर दें जब कलाकार मचं पर संभल
जाए तो सगं ीत धीमा कर बंद कर दें।
लोक नाट्य – हमारा विद्यालय जिस भी क्षेत्र में हो, वहाँ के लोक नाट्य का मचं न
हमेशा ही वाँछित रहा है। ऐसा हमारे संस्कृति की गढ़ू बातों की अवहेलना है। लोक
नाट्य का मचं न आवश्यक होना चाहिए। जब लोक नाट्य का मचं न करें तो उसके
परू ्व वहाँ के लोकगीत, धनु , वाद्य यंत्रों इत्यादि का अध्ययन एवं अभ्यास कर लें,
लोक गीतों एवं वाद्य यंत्रों हेतु स्थानीय कलाकारों से भी संपर्क साधें।
इसके पश्चात् एक महत्वपर्णू बात यह है कि नाट्य सगं ीत पर भारतवर्ष में बहुत
कम लिखा गया है। इसका एक कारण यह भी है कि यह पर्णू रूप से प्रयोगिक विधा
है। इसमें सगं ीत की हर विधा का नियंत्रित प्रयोग अपेक्षित होता है। नाटक की जीवतं
परिस्थिति में चलते-चलते, तरु त-फ़ुरत में संगीत समायोजन, आलाप तानों, वाद्यों,
बोलों का प्रयोग रोमांचक होने के साथ ही मश्कि ु ल भी होता है। ये सभी अनभु व
जन्य है तथा अभ्यास से पर्णू होते हैं।
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सर्वाधिक सक्ष्मू श्रव्य कला है। इन विरोधाभासी विशेषताओ ं के बावजदू दोनों में गहरा
सबं धं है। इसलिए हीगेल ने स्थापत्य कला को फ्रोजि़न म्यूज़िक (जमा हुआ सगं ीत)
कहा तो दसू रे विद्वानों ने सगं ीत को फ्लाइगं आर्कि टेक्चर (बहने वाला स्थापत्य) कहा।
स्थापत्य की विशेषताओ ं को सगं ीत कला भी स्वीकारती और अपनाती है। सगं ीत
कला में शास्त्रीय विवरणों के स्वीकृ त विधानों के बीच स्वर-लय का सतं ल ु न, आरोह-
अवरोह के रूप में स्वरों का परस्पर आश्रित सयं ोजन और स्वर सवं ाद का निर्वाह होता
है। सगं ीत में यह सबं धं सगं ति स्वर-लय के विधान पर निर्भर करती है तो स्थापत्य में
यह सबं धं सगं ति स्थान सबं धं ी अतं राल, दीवारों की पक्तिं बद्धता और स्थूल द्रव्यों के
भार या चाप पर कायम रहती है। इसलिए हीगेल जैसे कई विद्वान सगं ीत और स्थापत्य
में अभिन्न सबं धं देखते हैं, जो सही भी है।
‘संगीत’ शब्द की बात करें तो संगीत शब्द की व्युत्पत्ति ‘सम’ और ‘गीत’
दो शब्दों के योग से हुई है। पहले ‘गीत’ शब्द की चर्चा करते हैं – ‘गै’ धातु में
‘क्त’ प्रत्यय लगाकर गीत शब्द की रचना हुई है और ‘गीत’ शब्द के परू ्व ‘सम’
उपसर्ग लगाकर “संगीत” शब्द बना है अर्थात संगीत शब्द का अर्थ हुआ – सम्यक्
रूप से सश ु ोभित गीत। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि जब गाई जाने वाली
किसी रचना की संगति वादन द्वारा की जाए और
शरीर के अगं ों द्वारा उस गीत के भावों और अर्थों काे
प्रस्तुतीकरण भी हो तो उसे संगीत ही कहा जाता है।
संगीत के प्राचीन विद्वानों ने इसी कारण ‘गीतं वाद्यं
तथा नृत्यं त्रयं संगीत मच्य
ु ते’ कहकर इसी ओर
संकेत किया है कि गायन, वादन तथा नृत्य तीनों
नृत्य
का समावेश ही संगीत है। नृत्य शब्द का अर्थ है लय
एवं ताल के सहारे हस्त तथा पद संचालन करते हुए अभिनय करना। गीत कहकर
गायन को जितना महत्त्व दिया गया है, उससे सगं ीत में ‘गीत’ की उपयोगिता,
सार्थकता स्वतः सिद्ध हो जाती है और गीत
की उपयोगिता से काव्य की उपयोगिता स्वतः
सिद्ध हो जाती है। तभी तो अनेक भारतीय
एवं पाश्चात्य विद्वानों ने साहित्य की परिभाषा
लिखते समय उसकी संगीतात्मकता का
विशेष रूप से उल्लेख किया है। वादन – पखावज
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मात्र से ही राग-रागिनी के स्वरूप, प्रकृ ति, रस और समय आदि का पर्णू ज्ञान हो जाता
है। दरअसल सगं ीत कला जिन दृश्य-अदृश्य-सक्ष्म ू ताओ ं का विवेचन ध्वनि तथा लय
आदि द्वारा करती है, चित्र कला उन्हें रंगों और रेखाओ ं द्वारा व्यक्त करती है।
इस तरह भारत के संगीत में गायन, वादन, नृत्य, अभिनय और काव्य का
प्रत्यक्ष समावेश है तो चित्र, मर्ति ू और प्रस्तर शिल्प जैसी कलाओ ं का अप्रत्यक्ष
समावेश है। हमारे अधिकांश भित्तिचित्रों में सांगीतिक (नृत्य भी) कलाएँ ही तो
उत्कीर्ण हैं। वाल्टर पैटर ने अकारण ही यह नहीं लिखा कि जितनी भी कलाएँ हैं, सब
संगीत की ओर उन्मुख हैं। तो दसू री ओर स्थापत्य कला को अन्य सभी कलाओ ं के
निर्माण का स्रोत बताते हुए विद्वानों
ने लिखा है कि ‘आर्कि टेक्चर इज़
द मदर ऑफ़ आर्ट्स।’
सगं ीत की भव्य अट्टालिका
जिन तीन प्रमख ु स्तंभों पर टिकी है,
वे हैं – स्वर, लय और भाव। स्वर
को गायन के माध्यम से भी व्यक्त
भारतीय शिल्पकला – गफ़ाु ओ ं में कहानी किया जाता है और तत्रं तथा सषि ु र
वाद्यों के माध्यम से भी। शब्द रूपी शरीर में जब स्वर आत्मा का सचं ार होता है तो वह
जीवतं हो उठता है। तात्पर्य यह कि कविता या गीत को जब सरु ों में ढालकर प्रस्तुत
किया जाता है, तब वह अधिक आकर्षक, सशक्त, प्रभावकारी और आनदं कारी
हो जाती है। इसलिए परु ाने सतं ों, महात्माओ,ं विचारकों, समाज सधु ारकों ने अपने
विचारों, सदं श े ों और उपदेशों को सगं ीतबद्ध करके जन सामान्य में लोकप्रिय बनाया।
भारत धर्म प्रधान देश है। भारतीय विचारधाराएँ आरंभ से ही आदर्शों और
नैतिक मल्य ू ों को परिपष्ु ट करती रही हैं। इसके कण-कण में राम, कृ ष्ण, शिव,
सरस्वती, बद्ध ु , महावीर, हज़रत मोहम्मद, ईसा मसीह और नानक के सदं श े व्याप्त
हैं। सत्य, अहिसं ा, ब्रह्मचर्य, अस्तेय और अपरिग्रह के पाँच महाव्रतों को इस महान्
देश के निवासी सदियों से आत्मसात् करते आ रहे हैं। आज के इस यगु में भी
पंचशील का नारा देने वाला यही देश है। ऐसी स्थिति में इसकी वाणी, इसका संदश े ,
इसकी सस्कृति
ं और कलाएँ न के वल आदर्श मार्ग की ओर प्रेरित करने वाली हैं
बल्कि बहुजन हिताय, बहुजन सख ु ाय और विश्व कल्याणकारी भी हैं।
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लेकिन, इसका एक दसू रा पक्ष भी है। जिस तरह निर्जीव शरीर बेकार होता है,
उसी तरह शरीर विहीन आत्मा की भी कोई सार्थकता नहीं होती। यद्यपि यह बात
सांगीतिक कलाओ ं पर नहीं लागू होती है। यहाँ शब्द और स्वर दोनों का एक दसू रे
के बिना भी महत्त्व और उपयोगिता है। तथापि, अगर स्वरों को शब्दों का सहारा
मिल जाता है तो वे और भी अधिक हृदयग्राही हो जाते हैं... निराकार से साकार हो
जाते हैं। यही कारण है कि स्वर वाद्य यंत्रों की अपेक्षा गायन के श्रोताओ,ं दर्शकों की
सख्या
ं अधिक होती है, क्योंकि शब्द होने के कारण अर्थ जल्दी और स्पष्ट रूप से
समझ आ जाते हैं। शब्द विहीन स्वर किसी अमर्तू चित्र के समान होते हैं, जिनका
आनंद अनभु वी लोग पाते हैं। लेकिन शब्द यक्ु त स्वर साकार होते हैं, वे लोगों को
अनमु ान लगाने की अनमति ु नहीं देते, क्योंकि वहाँ सभी कुछ स्पष्ट होता है।
मानव ने जब सभ्यता की ओर अपना पहला कदम बढ़ाया, तब उसका प्रथम
साक्षात्कार संगीत से ही हुआ। जब न तो भाषा का आविष्कार हुआ था और न तो
लिपि का, तब इसं ान ने ध्वनि को आविष्कृ त किया। उसी ध्वनि के उतार-चढ़ाव
से वह अपने अभिप्राय, अपनी भावनाओ ं से दसू रों को अवगत कराता था। बाद में
इसके साथ आगि ं क क्रियाओ ं का प्रदर्शन अर्थात् अभिनय भी जड़ु गया। मैक्समल ू र
आदि जैसे अनेक विद्वानों की भी यही मान्यता है कि संगीत की उत्पत्ति भाषा की
उत्पत्ति से परू ्व हुई।
सर जेम्स जींस ने अपनी पस्त ु क साइसं एडं म्ज़ि यू क में लिखा है–“सगं ीत का
विकास पश-ु पक्षियों से लेकर मनष्य ु तक में लगातार होता चला आया है। यही
कारण है कि मानव सगं ीत का विकास भी मानव जाति के विकास के साथ ही हुआ
है। आदिम काल से ही पश-ु पक्षियों की तरह मानव जाति में भी संगीत की प्रेरणा
प्रेम, ईर्ष्या, द्वंदी और विजय आदि के भावों के प्रदर्शन हेतु थी।”
संगीत भावनाओ ं की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है। भावनाओ ं की
अभिव्यक्ति अनियंत्रित न हो जाए इसलिए ताल वाद्यों की सहायता से उसे
अनश ु ासन की डोर में बाँधकर नियंत्रित किया जाता है। सीमाहीन संगीत सागर की
वेगवती लहरों को लय और ताल की सीमा में बाँधने का प्रयास किया जाता है। यही
कारण है कि लय-ताल विहीन संगीत को अरण्य संगीत कहा गया है और लय-ताल
यक्ु त संगीत को अभिजात्य संगीत। जिस प्रकार संगीत की लय सांगीतिक क्रियाओ ं
को अनियंत्रित होने से रोकती है, उसी प्रकार चित्र कला में प्रयक्ु त रे खाओ ं की
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संगीत में गायन के साथ-साथ वादन का भी अत्यंत महत्वपर्णू स्थान है। वादन
का तात्पर्य विशिष्ट वस्तु एवं पद्धति से निर्मित किसी वाद्य यंत्र पर थाप देकर,
फँू ककर या तारों में कंपन्न उत्पन्न करके लयबद्ध तरीके से संगीतमय ध्वनि उत्पन्न
करना है। व्युत्पत्तिशास्त्र के आधार पर ‘वाद्य’ की उत्पत्ति संस्कृ त शब्द ‘वद’ से
हुई है, जिसका अर्थ है बोलना। प्रत्येक वाद्य अपनी ही एक कहानी है जो हमारे
सांस्कृतिक इतिहास से मिलती-जल ु ती है। तश्तरी, थाली, करछी आदि मनष्य ु द्वारा
रसोईघर में प्रयोग किए जाने वाले बर्तन हैं जो कि क्रमश: वाद्य यंत्र में परिवर्तित
हो गए। भारतीय वाद्य यंत्रों ने विश्वभर में अपना एक उत्तम स्थान बना लिया है।
हमारे भारतीय संगीतज्ञों ने निरंतर अनगिनत वाद्य यंत्रों की रचना की है जिसमें से
कुछ �जन पर अभ्यास किए जाते हैं तथा कुछ दर्ल ु भ होते जा रहे हैं या उन्हें नवीन
नवप्रर्वतन के साथ दसू रे वाद्य में विलीन किया जा रहा है।
वाद्य शब्द ‘वद’ धातु में सत् प्रत्यय लगाने से बना है। शाब्दिक अर्थ – बजाने
योग्य विशेष यंत्र, जो संगीतात्मक ध्वनि तथा गति को प्रकट करने वाले उपकरण
हैं। विभिन्न वाद्यों द्वारा उदभ् तू स्वर तथा लय
का आनंद ही वाद्य संगीत या वदन कहलाता
है। वाद्य संगीत में स्वर तथा लय के माध्यम से
(बिना किसी अन्य कला की सहायता लिए)
श्रोताओ ं को चिरकाल तक आनंदानभु ति ू में
समाये रखने की अदभ् तु शक्ति है।
मानव सभ्यता के साथ उदित सगं ीत कला के
क्षेत्र में आदिकाल से आज तक अनेक प्रकार के
वाद्यों का प्रयोग देखने में आता है। भारतीय वाद्य
वर्गीकरण का आधार मख्य ु तः ध्वनि रहा है। ध्वनि
सारंगी
के आधार पर शास्त्रों में वाद्यों के प्रकारों को विश्लेषित किया गया है। इनमें से एक
अर्थात् शरीर ईश्वर द्वारा निर्मित तथा चार मानव द्वारा निर्मित है। इन पाँच प्रकार की
ध्वनिओ ं को ‘पचं महावाद्यनि’ कहा गया है। परंतु अधिकतर विद्वानों ने शरीरज ध्वनि
को वाद्य ध्वनि में सम्मिलित न करते हुए इनकी सख्या ं के वल चार ही मानी है। मानव
निर्मित चार सगं ीतात्मक ध्वनियों को भारतीय मनीशियों ने क्रमशः तत, सशि ु र, घन
और अवनद्ध नाम दिया है। सगं ीत सारामृत में इन चारों प्रकार के वाद्यों का यही लक्षण
बताया गया है –
“वाद्यं तंत्रतिन्त वाद्यं सशि
ु र सशु ीरात्मकम् ।
चमविनव्दवदनमवव्दमितं ीरितम।् ।
घनौ मूर्ति: साद्रमिछातादायते यत्र तव्दनम।्
इतयेशां लक्षण प्राक्तं मनिभिर्भ
ु रतादिभि:।।”
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तत/तंत्री वाद्य
जो वाद्य तार छे ड़ कर बजाए जाएँ तो उन्हें ‘तंत्री वाद्य’ माना गया है। यह लकड़ी,
धात,ु चमड़े आदि के प्रयोग से बनते हैं। कुछ तंत्री वाद्य निम्न हैं –
तानपुरा
भारत के अनेक भागों में
‘तानपरु ा’ शब्द के स्थान पर
‘तंबरू ा’ शब्द अधिक प्रचार में
दिखाई देता है। ‘तंबरू ा’ शब्द
तानपरु ा का ही अपभ्श रं रूप है।
इस तंबरू े का विधिवत उल्लेख
सर्वप्रथम संगीत पारिजात में हुआ
है। तंबरू े का वर्तमान रूप तेहरवीं
शताब्दी के बाद का ही है। यह तानपरु ा
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एक कद्दू से बना यंत्र यह जिसके ऊपर एक लकड़ी लगाकर उस पर दडं जोड़ दिया
जाता है इसकी लंबाई 150 से.मी. के लगभग होती है। इस पर धातु के चार तार लगे
होते हैं। स्टील के तीन तार और चौथा पीतल का होता है। जिनको झक ं ृ त करने के
लिए ऊँगलिय ु ों से खींचा जाता है। तंबरू े पर कोई धनु नहीं निकाली जाती है।
वीणा
कई शताब्दी परू ्व सारे तंत्र वाद्यों के लिए वीणा शब्द का प्रयोग किया जाता था। वेदों
के अनसु ार ‘वान’ शब्द आगे चलकर ‘वीणा’ शब्द में परिवर्तित हो गया। भारत के
नाट्य शास्त्र में चित्र वीणा तथा विपंची वीणा का उल्लेख मिलता है। वर्तमान समय
में हमारे देश में वीणा के कई प्रकार विकसित हैं, जैसे – सरस्वती वीणा, विचित्र
वीणा, रुद्र वीणा आदि।
वीणा, बाँस या आबनसू की लकड़ी से बनी होती है। इसके दडं े की लंबाई
लगभग 3 फ़ुट होती है। इसमें प्राय: दो तंबु े लगे होते हैं। दो तंबु ों के बीच जो दडं
का हिस्सा है, उसको ‘अस्थाना’ (स्थान) कहा जाता है। इस पर पीतल के 22 से
24 तक परदे लगाये जाते हैं, जो कि अपने स्थान से हटाये या खिसकाये नहीं जा
सकते। इनको ‘सदु रं ी’ या ‘सारिका’ कहा जाता है। इनके ऊपर धातु के चार मख्य ु
तार लगे रहते हैं और पार्शवक में तीन तार रहते हैं। इन पर चिकारी का काम किया
जाता है। बजाते समय वीणा का तंबु ा बाएँ कंधे पर टिका रहता है और नीचे वाला
तंबु ा दाहिने घटु ने के सहारे रखा जाता है। तंत्रियाँ दाहिने हाथ की पहली और दसू री
ऊँगल ु ी, नाखनू अथवा ‘नखी’ या जवा नामक उपकरण से छे ड़ी जाती है और बाँए
हाथ की पहली और दसू री अँगलिय ु ों से तारों को वांछित सारिका पर दबाया जाता
है, जिससे स्वरों की उत्पत्ति होती है। चिकारी के तार प्राय: बाएँ हाथ की छोटी
ऊँगल ु ी से बजाये जाते हैं।
वीणा
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सारंगी
यह यंत्र लकड़ी के एक ही टुकड़े से बना
होता है। जो लगभग 60 से.मी. लंबा होता
है। यह एक खोखला वाद्य है जिसके नीचे
क� ओर संकरे भाग पर खाल मढ़ी होती है,
यह स्वर पेटी की तरह कार्य करता है। ऊपरी
भाग लकड़ी से ढका होता है। इस पर तांत
की बनी चार तंत्रियाँ लगी होती हैं। साथ में
तरबे का तार भी लगा होता है। इसे गज से
भारत भूषण गोस्वामी– सारंगी बजाते हैं तथा ऊँगलिय
ु ों के नाखनू ों से तारों
को दबाकर धनु े निकाली जाती हैं।
सरोद
यह पोली लकड़ी का बना वाद्य है, जो अपेक्षाकृ त उथला
होता है। इसका निचला सिरा गोलाकार होता है। ऊपर
की ओर दडं की चौड़ाई कम होती जाती है। दडं पर धातु
की पत्ती चढ़ाई जाती है। इस पर चार मख ु , तंत्रियाँ, चार
सहायक तंत्रियाँ तथा लगभग एक दर्जन तरब की तंत्रियाँ
लगी होती हैं। सभी तंत्रियाँ धातु की बनी होती हैं। इसे
लकड़ी के छोटे से टुकड़े, जीवा से बजाते हैं। सरोद
वायलिन
वायलिन का मख्य ु भाग दो चौरस से बना
होता है ऊपरी तथा निचला, जो कि एक
दसू रे से लकड़ी के टुकड़े से जड़ु ा होता
है। ऊपरी चौरस में दो छे द होते हैं। ऊपरी
भाग पर जो पेट है वहाँ पर एक पल ु है
जो कि पतला और घमु ावदार होता है
टी.एन. कृ ष्णन् – वायलिन ताकि तारों से ‘बोइगं ’ को सरल बनाया
जा सके । बजाने के अतं में चार खटँू े होते हैं जो समान होते हैं। पेट के अतं पर तार
स्थाई होते हैं, छोटे पेंचों के कारण जो शद्ध
ु ट्यनि ू ंग में मदद करते हैं। वायलिन का
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रहती है। दक्षिण के के .पी. अरुणाचलम् और पार्टी इस वाद्य के श्रेष्ठ कलाकारों में
से एक हैं। नादस्वरम् एक ऐसा यंत्र है जो दरू -दरू तक कर्नाटक संगीत में पहचाना
जाता है। इसकी संरचना कुछ हद तक शहनाई की तरह दिखाई देती है परंतु इसकी
लंबाई शहनाई से ज़्यादा होती है। आध्रं प्रदेश में इसे नागस्वरम् तथा तमिलनाडु में
इसे नादस्वरम् के नाम से जाना जाता है। दो से सौ फुट लंबी नली एवं दो धातओ ु ं से
बनी मख ु नादस्वरम या पृथक लकड़ी का लट्ठा ‘अच्छमेरम’ पेड़ से बना होता है,
जो नागस्वरम् मख्य
ु भाग होता है का जिसमें बारह छे द होते हैं। इनमें से सात छे द को
खल ु ा छोड़ दिया जाता है, ताकि जन अग्रभाग उसे ढँके या अनावृत करे तो ध्वनि
नियमित हो सके ।
हारमोिनयम
हारमोनियम एक बक्से जैसा
वाद्य यंत्र है, जिसके चार भाग
होते हैं – पर्दे, वायु प्रकोष्ठ,
चाबियाँ तथा रीड। वायमु डं लीय
हवा को अदं र ले जाने हेतु पर्दे
में छे द होते हैं तथा निकालने से
रोकने के लिए उसमें चमड़े के
कपाट होते हैं। हवा अदं र जाने हारमोनियम
के बाद चौकोर पेटीनमु ा वायु प्रकोष्ठ में दाब के साथ प्रविष्ट होती है। वहाँ भी पर्दे होते
हैं। इस वायु प्रकोष्ठ में से हवा तभी निकलती है जब चाबियों को दबाया जाए। किसी
चाबी को दबाने से उससे जड़ु ी पत्ती के नीचे का छोटा छे द खल ु जाता है, जिसमें हवा
वाँछित सरु उत्पन्न करते हुए उससे गज़ु र जाती है।
अवनद्ध वाद्य
अवनद्ध का अर्थ है जो किसी वस्तु से मढ़ी हुई होती है। अवनद्ध ऐसे यंत्र हैं जिनके
छिद्र ढके हुए होते हैं। यह लकड़ी, चिकनी मिट्टी या धातु के बने होते है ये वाद्य
ज़्यादातर जानवर की खाल से मढ़े जाते हैं। इसी के अदं र वायु की गति से तरंगे पैदा
होती हैं और प्रतिध्वनि होती है। जिस कारण कई प्रकार की ध्वनि उत्पन्न होती है।
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मृदगं म्
कर्नाटक और दक्षिण भारतीय सगं ीत में मृदगं म
एक प्रमखु सगं त वाला यंत्र है। मृदगं म शब्द का
साहित्यिक अर्थ होता है चिकनी मिट्टी का अश ं ।
पहले यह सिर्फ़ मिट्टी का बना होता था लेकिन अब
यह लकड़ी का भी बनता है। यह कटहल और नीम
(मारगोसा) वृक्ष की एकल लकड़ी के कंु दे का बना
होता है। यह यंत्र दायें और बायें नली की आकृ ति
का होता है और मध्य में थोड़ा चौड़ा होता है। यह
मृदगं म्
लकड़ी का खोल गँजू ने वाला होता है।
तबला
तबला उत्तर भारतीय संगीत का एक बहुत ही
मख्य
ु संगत करने वाला यंत्र है। इसका नाम तब्ल
शब्द से प्राप्त हुआ, जो कि एक अरबी शब्द है।
जिसका अर्थ है ऐसा यंत्र जिसकी आकृ ति ऊपर
की ओर होती है। इस पात्र की बनावट ऊपर से
चौड़ी तथा नीचे की ओर खोखली लेकिन गोल
होती है। इसके दो भाग होते हैं दायाँ और बायाँ
जो कि एक साथ ‘तबला’ कहलाता है। इसका
दायाँ या जो भाग दाँयी ओर बजाया जाता है। वह
अकरम खान – तबला शीशम, खैर, नीम या आम की लकड़ी का बना
होता है। इसका बायाँ भाग जो बायीं ओर बजाया जाता है वह तांबा, स्टील और
मिट्टी का बना होता है। ये दोनों अदं र से खोखले होते है। दोनों भागों के ऊपरी भाग
बकरे के चमड़े की झिल्ली से बने होते हैं। इसके किनारे संकरे होते हैं जो कि चमड़े
की डोरी से बनते हैं और गजवा कहलाते हैं। गजवा गाय, भैंस या बकरे के चमड़े से
बने होते हैं जो ‘बदध् ी’ कहलाते हैं।
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पखावज
पखावज का प्रयोग हिदं स्ता ु नी
शास्त्रीय सगं ीत में ध्परु द, धमार और
वीणा, सरु सिंगार और सरु वहार जैसे
यंत्र के साथ होता है। हिदं स्ता ु नी
प्रणाली में यह शास्त्रीय सगं ीत के
तालबद्ध संगत में उपयोग होता है,
पखावज
इसके अलावा यह कत्थक नृत्य के
संगत में भी उपयोगी है। पखावज की संगती लोक नृत्य, भजन तथा लोकगीतों में
भी प्रचलित है। यह शीशम, विजयसार, लाल चदं न की लकड़ी और खैर की लकड़ी
की बनी होती है। इस यंत्र की लंबाई 60 से.मी. के करीब होती है। इसका एक भाग
बड़ा होता है और इसका आकार ‘जौ’ के दाने के जैसा होता है।
ढोल
ढोल एक प्रसिद्ध यंत्र है जो कि भारत के बहुत से
भागों में उपयोग होता है जिसमें विभिन्न प्रकार
के तालबद्ध नमनू े हैं। यह बेलनाकार ढाँचे का
खोखला यंत्र लकड़ी या बाँस का बना अश ं होता
है जिसके दो खल ु े भाग खाल या झिल्ली से ढके
होते हैं। उत्तर प्रदेश में कभी-कभी यह अदं र से
अरंडी के बीजों के गदू े से भरा होता है जो तेल
ढोल को निष्कर्षित करने के बाद प्राप्त होता है।
ढोलक/ढोलकी
दोनों एक ही यंत्र के नाम हैं। यह दो महँु वाला
बेलनाकार या नली के आकार का यंत्र है जो कि
प्राचीन काल से प्रयोग में लाया जा रहा। ढोलक
आम, शीशम, टीक, नीम और जामनु की लकड़ी
के कंु दे से बनता है और उसका अश ं खोखला
होता है। इसका दायाँ और बायाँ भाग प्रायः बकरे
ढोलक
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के चमड़े की झिल्ली से ढका होता है। ढोलक के दाएँ भाग को जो झिल्ली ढकती है
वह बाएँ भाग से पतली होती है, इस कारण बायें भाग की ऊँचाई दायें भाग से नीची
होती है। चमड़े की चादर का अदं र का भाग जो बायें भाग को ढकता है उसमें स्याही
लगाई जाती है, जो गहरी और शानदार ध्वनि देता है।
ढाक/ओगू
ढाक पश्चिम बंगाल, असम और ओडिशा में
पाया जाता है। यह दर्गा
ु पजू ा में खबू सनु ने को
मिलता है। ढाक लकड़ी का बना होता है जिसका
आकार नली जैसा होता है और इसका खल ु ा भाग
जानवर के बाल से कसकर ढका होता है। इसका
एक छोर मोटी खाल का बना होता है जबकि दसू रा
भाग पतली खाल से ढका होता है यह दो हल्के
और पतले डंडे से बजाया जाता है अदं र से ढाक
कभी-कभी जौ के बीज के गदू े से भरा होता है। ढाक/ओगू
थाविल / तविल
थाविल / तविल कर्नाटक सगं ीत के यंत्र
हैं। ये यंत्र दोनों ही लोक संगीत और
व्यवस्थित आयोजन संगीत में बजाये जाते
हैं। यह नली के आकार के यंत्र हैं जो प्रायः
कटहल की लकड़ी के बने होते हैं।
थाविल । तविल
चेण्डा
चेण्डा के रल का एक बहुत ही प्रसिद्ध
अवनद्ध यंत्र है। यह नली के आकार की
ढोलक है यह कटहल की लकड़ी से बनी
होती है और दोनों तरफ ढकी होती है।
चेण्डा की लंबाई करीब 60 से.मी. और
चेण्डा
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लकड़ी के दो छोटे डंडे, मिट्टी के बने घड़े, धातु से निर्मित मजं ीरा, घटा इत्यादि जो
सगं ीतोपयोगी हो, उन्हें घन वाद्य कहते हैं। इन वाद्याें का निर्माण इस प्रकार होता
है कि इसे हम विभिन्न स्वरों के साथ नहीं मिला सकते। ढालने के समय ही श्रुति
निश्चित कर दी जाती है, लेकिन ये वाद्य बजाना अाम जनमानस के लिए आसान
होता है और इस कारण संगीत, नाटक आैर नृत्य सभी में प्रयोग होता है।
डाँडिया
डाँडिया, डंडों का एक जोड़ा है जो कि एक फुट तक लंबा है,
बाँस और लकड़ी के ठोस कंु दे से बना होता है। संदु र तरीके
से सजाया और रंगा हुआ होता है। ये डंडे नृत्य में ताल देते
हैं जिसमें नर्तक/नर्तकी गोलाकार नमनू ों से घमू ते हुए विभिन्न
लयकारी प्रदर्शित करते हैं। ये डंडे गाने की लय के साथ
डाँडिया एक-दसू रे से टकराये जाते हैं गीत भी सभी मिलकर गाते हैं।
तालबद्ध डंडों का टकराना और नर्तकों की चाल, ढोल और नगाड़े की ताल से यह
बहुत ही मनभावन वातावरण बनाता है।
मंजीरा
ये धातु के बर्तन होते हैं जो कि हमेशा एक-दसू रे से टकराने में काम आते हैं। इनका
आकार प्याले की तरह होता है। ये बर्तन पीतल धातु या टीन की मिलावट से बने
होते हैं और बीच में छिद्र होने के साथ ये ऊपर की ओर संकरे और गोल होते हैं।
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चिमटा
यह हर भारतीय रसोई घर में पाया जाता है।
रसोई घर से ही मानव बद्धिु ने इसे विकसित
कर संगीतोपयोगी बनाया है। चिमटा का
स्थान क्षेत्रीय सगं ीत, भजन-कीर्तन और
पंजाबी नृत्य करने में उपयोगी है।
चिमटा
घुँघरू
लोक प्रदर्शन कलाओ ं और शास्त्रीय नृत्य में ये वाद्य अकसर देखने को मिलता है,
घघँु रू गोल आकार की घटिय ं ाँ हैं। नर्तक इन घटिय
ं ों को पहनते हैं जो कि एक साथ
ज़्यादातर डोरी से गँथू े होते हैं। नर्तकों की चाल तालबद्ध नमनू ों में दर्शायी जाती
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बनाए जाते हैं। जिसका व्यास बड़ा होता है वह ‘डफ़ली’ कहलाता है। चगं , घेरा
छोटे आकार में होते हैं। होली के त्यौहार में राजस्थान, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में
डफ़ बजाये जाते हैं।
खंजीरा
खजं ीरा मख्य
ु तः कर्नाटक सगं ीत में प्रयोग किया
जाता है। यह छोटी ढोलक है जो कि उत्तरी
भारतीय लोक यत्रं डफ़ से मिलता-जल ु ता है।
यह कटहल की लकड़ी, पीतल या लोहे से
बना है जो कि गोल आकार में होते हैं। 9 इचं से
12 इचं तक के बीच इनका व्यास होता है और
2 से 4 इचं तक इसकी गहराई होती है। यह
एक तरफ से ढका होता है। यह इगनयु ा नामक
जानवर के चमड़े से ढका होता है, जो कि
खजं ीरा
छिपकली की एक प्रजाति है।
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सगं ीत इतना आनंददायक नहीं लगता, लेकिन नियमित रूप से लगातार सनु ते-सनु ते
उसके प्रति रुचि जाग्रत होने लगती है। भले ही आप उसकी व्याकरण न समझें पर
उसमें ऐसा कुछ ज़रूर होता है जो हमें अदं र तक रससिक्त करता है।
संगीत के इस आनंद को पाने की लिए सनु ने की कला विकसित करनी पड़ती
है। विद्यार्थियों को हर प्रकार के संगीत को सनु ने का अवसर प्रदान करना चाहिए।
इस दिशा में ‘स्पिक मैके’ जैसी संस्थाएँ प्रशसं नीय कार्य कर रही हैं। प्राथमिक और
माध्यमिक स्कू लों में गाने-बजाने के
अलावा सनु ने की कला भी सिखाई
जानी चाहिए। इसके लिए अच्छे
संगीत के कै सेट, सी.डी., डी.वी.डी.
इत्यादि दिखाने आैर सनु ने के अलावा
अच्छे कलाकारों को भी आमत्रि ं त
किया जा सकता है जो अपनी कला
के प्रदर्शन के साथ-साथ उसके बारे में
थोड़ी बहुत जानकारी भी दे सकें । नृत्य करते स्कू ली छात्र
ऐसे आमत्रि ं त कलाकार विद्यार्थियों के साथ अपने अनभु व भी बाँट सकते हैं
कि बचपन में किस तरह संगीत के प्रति उनकी रुचि जाग्रत हुई, किस प्रकार उन्हें
संगीत सीख पाने की सविध ु ा और सौभाग्य मिला और उसके लिए उन्हें कितना
परिश्रम करना पड़ा। संगीत साधना का क्या महत्व है और यह साधना हमें अदं र से
कितना समृद्ध करती है और अभ्यास से कलाकार को अपनी कला से स्वयं कितना
आनंद मिलता है।
शास्त्रीय सगं ीत के वल गाने-बजाने वाले कलाकार को ही नहीं, बल्कि उसके
सनु ने वाले को भी आध्यात्मिक ऊँचाइयों तक ले जाता है। आनंद के उन क्षण में
हमारे अदं र की ईर्ष्या, द्वेष, घृणा सब खत्म हो जाते हैं। नकारात्मक भावनाओ ं का
स्थान उस आनंद से उपजी सकरात्मक सोच ले लेती है।
आजकल जिस तरह का माहौल है उसके चलते बच्चों में नकारात्मक प्रवृत्ति
घर करती जा रही है। उनमें धैर्य कम होता जा रहा है। बड़ों के प्रति, आपसी प्रेम
और सौहार्द्र दिखाई नहीं देता क्योंकि कंप्यूटर गेम्स से लेकर सिनेमा तक में मारधाड़
देखकर अनजाने ही उसकी मन में नकारात्मक सोच पनपने लगती है।
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इसके निराकरण का सबसे कारगर उपाय है सगं ीत। अच्छा सगं ीत सीखना ही
नहीं सनु ना भी उसके कोमल मन को अच्छाई की ओर प्रवृत्त करे गा। प्रतिद्वंदिता से
उपजे ईर्ष्या आैर द्वेष की जगह स्वस्थ स्पधार् ले लेगी और सबसे बड़ी बात सगं ीत
उन्हें धैर्यवान और एकाग्रचित भी बनाएगा।
प्रश्न उठता है िक संगीत में अभिरुचि जाग्रत करने के लिए उन्हें किस प्रकार
का संगीत सनु ाया जाए। छोटी कक्षाओ ं के लिए शरुु आत लय/ताल प्रधान संगीत
से की जा सकती है जिसके साथ गाकर या ताली बजाकर उन्हें निश्चय ही आनंद
आएगा। उसके लिए लोक संगीत से लेकर लोकप्रिय फि़ल्म संगीत तक का चनु ाव
किया जा सकता है।
फि़ल्मों से अच्छे बालगीत भी छाँटे जा सकते हैं, जैसे – ‘चँू चँू करती आई
चिड़िया दाल का दाना लाई चिड़िया’ इस गीत में पश-ु पक्षियों से भी परिचय होगा
और लय-ताल से भी। ‘आओ बच्चों तम्ह ु ें दिखाएँ झाँकी हिदं स्ता
ु न की। उस मिट्टी
से तिलक करो ये धरती है बलिदान की। वंदे मातरम।् ’
ऐसे अनेक गीत हैं जिनकी लय का
बच्चे आनंद लेंगे और गीत के बोलों से
प्रेरणा लेंगे।
फि़ल्मी गीतों में प्रकृ ति चित्रण के भी
असंख्य गीत हैं जिनके द्वारा बच्चे पेड़-पौधे,
चाँद-तारे , सर्योदय
ू -सर्यास्त
ू , गोधलि ू और
भोर की बेला या अलग-अलग ॠतओ ु ं में
कला उत्सव में भाग लेते हुए स्कू ल के छात्र प्रकृ ति के सौंदर्य को सराह सकें गे।
लोक गीत
लोक गीतों की फड़कती लय एक ओर जहाँ उन्हें उल्लसित करे गी वहीं उसके शब्द
उन्हें अपने देश के विभिन्न अचं लों/भागों की सांस्कृतिक पहचान कराएँगे। ये गीत
विविध प्रदेशों की भाषा, रीति-रिवाज, रहन-सहन की जानकारी बच्चों को खेल-
खेल में ही दे डालेंगे।
इन गीतों के माध्यम से बच्चों में भाषा और बोली के प्रति भी आकर्षण जागेगा।
यह सांगीतिक शरुु आत उनके मन में साहित्य के प्रति भी अनरु ाग के अक ं ु र बीज
रूप में डालेगी। इन गीतों के माध्यम से वे ऐतिहासिक और सामाजिक ज्ञान सहज
ही अर्जित कर सकें गे।
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संगीत के क्षेत्र में यह मान्यता बहुत मशहूर है कि संगीत और संघर्ष का बहुत परु ाना
और गहरा रिश्ता है। यह इसलिए है कि शायद सगं ीत की धरती पर सफलता के वृक्ष
को अपनी जड़ें जमाने में शायद कुछ अधिक ही समय लग जाता है। किंतु सफलता
के वृक्ष जब लग जाते हैं और फल देने लगते हैं, तो फिर उन फलों का स्वाद इतना
मीठा लगता है कि सघं र्षकाल की सारी कड़वी आैर खट्टी यादों को भल ु ाकर सिफ़र्
सफलता का स्वाद चखना चाहते हैं। लेकिन, यह बात काफ़� हद तक सही है कि
सगं ीतकार को सफलता की मजि ं ल तक पहुचँ ने के लिए प्रायः सघं र्ष भरे रास्तों से
गज़ु रना ही पड़ता है। (वैसे भी, दनियु ा में किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने के
लिए मेहनत तो करनी पड़ती है। ऐसा भला कौन है जिसे बिना संघर्ष, बिना मेहनत
किए ही सब कुछ मिल गया हो।)
उदाहरण के लिए, भारतरत्न से विभषि ू त प्रथम सगं ीत विभति
ू एम.एस. सब्बुु लक्ष्मी
के सघं र्ष पर्णू जीवन को देखा जा सकता है। सब्बु ु लक्ष्मी का जन्म एक आर्थिक रूप
से कमज़ोर संगीतज्ञ परिवार में हुआ था। इन्हें
बचपन में ही अपनी छोटी-छोटी ज़रूरतों को
परू ा करने के लिए मोहल्ले के बच्चों को सगं ीत
सिखाकर और छोटे कार्यक्रमों से धन कमाना
पड़ता था। कमज़ोर आर्थिक स्थिति के कारण ही
सब्बु
ु लक्ष्मी को मात्र 10 वर्ष की उम्र में सगं ीत
की व्यावसायिक दनिय ु ा में प्रवेश करना पड़ा।
उन दिनों इनके पास ग्रामोफ़ोन प्लेयर खरीदने
तक के लिए पैसे नहीं थे। अतः इनके पड़ोस के
एम.एस. सबु ्बुलक्ष्मी घर में जब ग्रामोफ़ोन प्लेयर पर कोई गाना बजता
तो ये खिड़की खोलकर खड़ी हो जाती और मनोयोगपरू ्वक उस गाने को सनु तीं।
फिर अवकाश मिलने पर उस सनु े हुए गाने को गाने का प्रयास करतीं। इस तरह
कठिनाईयों से लड़ते हुई, वे प्रगति के पथ पर निरंतर आगे बढ़ती रहीं।
100
था। लेकिन आज प.ं रविशक ं र जिस शान और शौकत की ज़िदं गी जी रहे हैं वह
किसी के लिए भी आकाश कुसमु है।
भारतरत्न प्राप्त पाश्वर् गायिका लता
मगं ेशकर की कहानी भी बहुत अलग नहीं है।
वे जब मात्र 13 वर्ष की थीं तब उनके पिता
पं. दीनानाथ मगं ेशकर का निधन हुआ। 13
वर्षीय लता 5 भाई-बहनों में सबसे बड़ी थीं।
4 भाई-बहनों के अलावा विधवा माँ की
ज़िम्मेदारी भी लता के नाज़ुक कंधों पर आ
गई। उन दिनों अपने शभु चितं कों के सझु ाव
लता मगं ेशकर
पर उन्होंने फि़ल्मों में छोटी-छोटी भमू िकाएँ
भी निभाई और गाने भी गाए। एक फ़िल्म में ऐसा ही एक दृश्य था। िजसमें लता
मगं ेशकर को सड़कों पर गीत गाते हुए भीख माँगना था। लता के साथ उनकी तीन
बहनें और भाई भी हाथ पसारे हुए उनके साथ चल रहे थे। ऐसा लग रहा था, जैसे
लता अभिनय नहीं कर रही हैं, अपनी जि़दगी जी रही हैं। इस काम के लिए उन्हें 25
रुपये प्रतिमाह मिलते थे।
लता उन दिनों स्वयं को स्थापित करने के लिए संघर्ष कर रही थीं, एक दिन
संगीत निर्देशक नौशाद अली ने उन्हें स्वर परीक्षण के लिए सबु ह दस बजे पहुचँ ने
के लिए कहा। जिस दिन लता को नौशाद अली के पास पहुचँ ना था, उससे एक
दिन पहले से मबंु ई में मसू लाधार बारिश आरंभ हो रही थी। नौशाद मान चक ु े थे
कि इस तेज बरसात में लता मगं ेशकर नहीं आएँगी। लेकिन वे बरु ी तरह से चौंक
पड़े जब ठीक समय पर लता को अपने सामने देखा। बरु ी तरह भीगी लता हाथ
में एक फ़टी छतरी पकड़े खड़ी थी। नौशाद कुछ कहते, उससे पहले लता बोल
पड़ीं – “नौशाद साहब, मैं बस से उतरी ही थी कि बारिश तेज़ हो गई। परे ल टी.टी.
से यहाँ तक पैदल आना पड़ा। रास्ते में पानी भरा था और छतरी तो आप देख ही रहे
हैं। चकि
ँू , आपने बल ु ाया था, इसलिए न आने का तो प्रश्न ही नहीं था।” भारतरत्न
लता मगं ेशकर आज एक जीवंत किवदिं त बन गई हैं।
नौशाद साहब को भी सफलता यँू ही चाँदी की थाली में सजाकर किसी ने नहीं दी
थी। अपने शरुु आती दिनों में वे लखनऊ में एक वाद्य यत्रों
ं की दकु ान में साफ़-सफ़ाई व
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सब करने के बाद बाकी बचे समय में संगीत की साधना करते। उस दौर में इनके
पास इनका अपना सरोद भी नहीं था, जिस पर ये रियाज़ करते। आखिर! भाग्य भी
कब तक इनकी इतनी परीक्षा लेता! जब संगीत की देवी इन पर मेहरबान हुई तो
हालात यह हो गये कि जिस शिष्य के सिर पर हाथ रख दिया वही महान हो गया।
संगीत के इतिहास में एक साथ इतने महान कलाकारों को प्रशिक्षित करने वाला
इतना बड़ा उदाहरण शायद ही कोई और मिले। अलाउद्दीन खाँ के जीवन में एक
समय ऐसा भी आया था, जब इनके माता-पिता और सास-ससरु द्वारा इन्हें मृत
मान लिया गया था। लेकिन, ऐसा कुछ नहीं हुआ था, क्योंकि उन्हें मैहर घराने जैसे
एक नवीन वादन शैली और तकनीक का सृजन जो करना था। संगीत के आकाश
में दीप्यमान सर्यू की तरह आज भी जगमगा रहा है उस्ताद अलाउद्दीन खाँ साहब
का नाम।
103
मल्यां
ू कन किसी भी शिक्षा का एक महत्वपर्णू अगं होता है। विद्यालयों के उच्च
प्राथमिक स्तर में शिक्षा का उद्देश्य विद्यार्थियों के ज्ञान का विस्तार एवं उनमें देश
के भिन्न-भिन्न भागों में प्रचलित संगीत शैलियों की समझ विकसित करना है। सरु
और ताल में गाना और अपनी संस्कृति के प्रति स्वाभाविक जागरुकता अतीत को
वर्तमान से जोड़ने का एक माध्यम है, जो संगीत तथा इससे जड़ु ी अन्य परंपराओ ं
को अच्छी तरह जानने और समझने का मार्ग सझु ाता है अपने व्यक्तित्व के विकास
की वह समझ भी विकसित करता है जो हमें दसू रों से अलग दिखने में मदद करता
है तथा एक सृजक, रचनात्मक एवं सांस्कृतिक सदस्य के रूप में समाज से जोड़ता
है। यह किसी बच्चे के शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक आदि जैसे सर्वांगीण
विकास के लिए बहुत ज़रूरी होता है।
संगीत में मात्र तकनीकी समझ पर ही अत्याधिक ध्यान देना पर्याप्त नहीं
होता है, अगर विद्यार्थी वर्ग इसी समय विभिन्न उपलब्ध सगं ीत शैलियों को
सीखने और समझने पर ध्यान दें तथा संगीतकारों एवं संगीतानरु ागियों के बीच
वार्ता हो, तो सांगीतिक विकास की प्रक्रिया को विकसित करने की राह खल ु
जाती है। यार्क विश्वविद्यालय के जान पेंटर ने इस सबं धं में कुछ खबू सरू त पक्तिय
ं ाँ
लिखी हैं –
“सबसे बड़ी बात यह है कि सगं ीत अनभु व करने की कला है यह ध्वनि से
भावनात्मक रूप से जोड़ता है यह आवाज़ के माध्यम से व्यक्ति को भी जोड़ता है।”
उच्च प्राथमिक कक्षाओ ं में सगं ीत के विद्यार्थियों को गायन-वादन की विभिन्न
विधाओ ं की शिक्षा देने का मख्य ु उद्देश्य उन्हें संगीत की विभिन्न विधाओ ं और
शैलियों से सपु रिचित कराना होता है। इसके अतं र्गत सामाजिक गीत, लोक गीत,
राष्ट्रीय एकता के गीत, भक्ति गीत एवं शास्त्रीय संगीत आदि आते हैं। इसके
अतिरिक्त अपने पारिवारिक सदस्यों से पारंपरिक गीतों और वाद्यों को सीखकर
सगं ीत की कक्षा में प्रस्तुत करने वाले बच्चों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
सभी बच्चों को इसका समचि ु त अवसर मिलना चाहिए कि उन्हें प्रदर्शन का
मौका मिले। िवद्याथीर् समहू गान, वाद्य वृदं , यगु ल तथा त्रिकल आदि प्रस्तुतियों में
बढ़-चढ़कर भाग लें जिससे उन्हें हर स्तर पर प्रोत्साहन मिले। सीखने की प्रक्रिया में
मल्या
ू ंकन बहुत ज़रूरी है और यह सिर्फ़ सगं ीत के क्षेत्र में ही नहीं, बल्कि हर विषय
में बच्चों की प्रगति के लिए बहुत ही ज़रूरी है।
सतत एवं समग्र मूल्यांकन
भारत की वर्तमान शिक्षा पद्धति में सतत एवं समग्र मल्या ू ंकन की प्रक्रिया को काफ़ी
महत्त्व दिया गया है। एक बच्चे के सभी पक्षों के सर्वांगीण विकास के लिए नियमित
मल्या
ू ंकन की प्रक्रिया प्रचलित है। एक निश्चित अवधि के पश्चात् हम इसका
सपु रिणाम देख पाते हैं। शिक्षक मल्या ू ंकन को सविध ु ानसु ार अलग-अलग समय
और अवधि में विभाजित कर सकते हैं। नियमित मल्या ू ंकन की प्रक्रिया संगीत के
विद्यार्थियों को प्रेरणा भी देती है और अवसर भी। यह प्रक्रिया उनके कार्य, विकास,
प्रगति आदि को प्रदर्शित करने की क्षमता भी प्रदान करती है, जैसे –
किस चीज़ का मल्या ू ंकन हुआ? मल्या
ू ंकन कब हुआ?
मल्या ू ंकन कै से हुआ? मल्या
ू ंकन किसका हुआ?
मल्या ू ंकन की तकनीक?
मल्या
ू क ं न की प्रक्रिया कक्षा में तथा कक्षा के बाहर सामहि ू क रूप में और
व्यक्तिगत रूप से की जाती है। बच्चों की विभिन्न गतिविधियों के अध्ययन, प्रत्यक्ष
और अप्रत्यक्ष, औपचारिक और अनौपचारिक, प्रश्नोत्तरी, सवं ाद, बच्चों की डायरी
और उनकी प्रस्तुतियों तथा प्रदर्शन के आधार पर मल्या ू क ं न किया जाना चाहिए।
मल्या
ू ंकन के लिए कुछ निश्चित सक ं े त होने चाहिए। जैसे नियमित मल्या ू ंकन
के लिए विभिन्न प्रकार की गतिविधियों और प्रत्येक गतिविधि में शामिल होने के
लिए बच्चे को प्रोत्साहित करना चाहिए। हर गतिविधि का अपना एक सक ं े त होता
है। शिक्षक को गतिविधि अनसु ार विचार लिखने चाहिए। ये सचू नाएँ और विवरण
शिक्षकों की व्यक्तिगत जानकारी के लिए होनी चाहिए। उदाहरण के तौर पर हम
आगे दी गई प्रक्रिया को देखते हैं —
105
सगं ीत में स्वर माधर्यु , लय, भाषा, विषय और इन सबसे भी बढ़कर भावना जैसे
विषय समाहित होते हैं। इस विषय का क्रियान्वयन कुछ इस तरह होना चाहिए कि
एक महीने की अवधि में छात्रों को विभिन्न प्रदेशों के लोक सगं ीत सिखाए जाएँ।
क्षेत्रीय संगीत का ज्ञान उन्हें विभिन्न संस्कृतियों की जानकारी देगा। इसके अतं र्गत
हर कक्षा के सगं ीतार्थी एक अलग भाषा का गीत सीखेंगे, जैसे –
छठी कक्षा के बच्चे बंगाली लोक संगीत सीखेंगे;
सातवीं कक्षा के बच्चे कोंकणी गीत सीखेंगे; और
आठवीं कक्षा के बच्चे राजस्थानी लोकगीतों की शिक्षा प्राप्त करें गे।
ऊपर दी गई कक्षाओ ं के बच्चे इन गीतों को सहर्ष सीखेंगे क्योंकि ऐसे हर गीत
में लय और ताल की जीवतं ता होती है। बच्चे स्कू ल की प्रार्थना सभा में ऐसे गीतों
को गाना पसंद करते हैं। शिक्षक इन बच्चों को कुछ ऐसे अन्य कार्य भी दे सकते हैं
जो उन्हें इन गीतों से जोड़ें रखें। जैसे – लोक गीत में प्रस्तुत शब्दावलियों के माध्यम
से समाज, लोगों की विशिष्टता रहन-सहन, खान-पान एवं अनेक स्थानीय बोलियाँ
भौगोलिक जानकारी इत्यादि की जानकारी मिलती है। प्रत्येक कक्षा में उस क्षेत्र एवं
वहाँ के संगीत के विषय में आपसी विचार-विमर्श किया जाए।
इस अध्ययन के परिणाम
उस गीत की धनु अत्यंत आकर्षक थी, जिसने तरु ं त ही वहाँ उपस्थित लोगों को
उस प्रदेश के साथ जोड़ दिया, जहाँ का वह गीत था।
लय और ताल की समझ ताल का मल ू स्वरूप एक होते हुए भी, अलग-अलग
गीतों के साथ उसकी लयाकृ ति और छंद बदल जाता है। इस तत्व को गाने से ही
समझा जा सकता है।
गीत के विषय एवं भाषा जानना एक दिलचस्प अनभु व है। विभिन्न प्रदेशों के
गीत से विभिन्न भाषाआें का ज्ञान होता है।
बच्चे विभिन्न प्रदेशों के खान-पान और संस्कृति से परिचित होते हैं। बच्चे जब
सांस्कृतिक धरोहर राजस्थानी गीत सीखते हैं तो उन्हें यह भी पता चलता है कि
वहाँ एक घोड़ा नृत्य भी होता है जिसमें आदमी घोड़े का मख ु ौटा पहनकर, घोड़ा
बनकर नाचता है। इसी प्रकार गोवा प्रदेश का गीत गाते हुए बच्चे इस तथ्य से
परिचित हो जाते हैं कि पर्तु गाली गोवा आए थे और गोवा की संस्कृति पर उनका
प्रभाव है।
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मूल्यांकन िव�ध
सक
ं े तक कक्षायी सगं ीत प्रक्रिया मूल्यांकन के आधार
107
विभिन्न प्रकार की
लयाकृ तियों एवं छंदों
का विभिन्न गीतों के
माध्यम से बच्चों को
नियमित अभ्यास
कराना।
108
क्र कायर्
व्यक्तिगत सामान्यता कुशलता की
मां नाम सरु ताल स्मरण एकाग्रता रुचि सामहि
ू क जागरुकता प्रस्तुति
क वृद्धि
1 अाशीष B . A A . A B B B . A A . A C . B . B B . . . B .
2 कल्पना A . . B . . C . B C B . C . B A . . . . B B . A . B .
3 अमरीश C . B B . C C A . A B . C A . B . C . . B . A . .
4 अभय B B . A . . B A . B . A A C C B A . . . . C B . .
संगीत मल्यां
ू कन प्रक्रिया
109
5/17/2018 3:43:16 PM
संगीत — िश�ाक संद�श्ाका/उच्च प्राथमिक स्तर
110
4. अभय – ताल के सबं ंध में उसका ज्ञान सराहनीय है। थोड़ी-सी एकाग्रता और
कोशिश से वह अपनी स्मरण शक्ति का विकास कर सकता है। समसामयिक
सांगीतिक घटनाओ ं के प्रति वह अत्यंत जागरूक रहता है और सांगीतिक
वाद्यों के वदन में रुचि लेता है।
मल्यां
ू कन नियमित होने से शिक्षक को बच्चों की नियमित प्रगति समझने
में आसानी होती है। निरंतर मल्यां ू कन से बच्चों की एक वर्ष में कितनी प्रगति हुई
समझने में मदद मिलती है। साथ ही बच्चों के अन्य लक्ष्यों को समझकर उनका एक
अनठू ा चित्र प्रस्तुत करने में भी मदद मिलती है।
छात्रों की प्रगति पत्र तैयार करते समय शिक्षक इन अनभु वों के उपयोग कर सकते
हैं। सगं ीत शिक्षा में बच्चों की प्रगति के मल्यां
ू कन उनकी व्यक्तिगत प्रगति के आधार
पर होना चाहिए, न कि दसू रे छात्रों की प्रगति के आधार पर तल ु नात्मक दृष्टि से। निम्न
टिप्पणियाँ बच्चों को निरंतर आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करें गी।
उत्तम अच्छा सामान्यत: बेहतर
विशिष्ट वास्तविकता से ओत-प्रोत
संतोषजनक
मन की कल्पना
परिपक्व समझदार किसी विशेष क्षेत्र में प्राप्त की
सामान्य से बेहतर
गई योग्यता की प्रशसं ा
सदैव तत्पर
बच्चों पर दबाव न डालें कि वे मात्र नकल इससे बच्चों की उर्वरा कल्पनाशक्ति, शोध
और शिक्षार्थी के विचारों का अनक
ु रण करें । की प्रवृत्ति और संगीतिक सोच की नई
भावनाएँ हतोत्साहित होंगी।
विचार विनिमय स्वस्थ होना चाहिए, इससे बच्चों की उर्वर कल्पनाशक्ति, शोध
आलोचनात्मक नहीं। की प्रवृत्ति और सगं ीतिक सोच की नई
भावनाएँ हतोत्साहित होंगी।
सामहिू क ज्ञान के आदान-प्रदान पर अधिक मात्र व्यक्तिगत प्रस्तुतियों से बच्चों की
ध्यान देने और अधिक समहू में प्रदर्शन करने भावनाएँ सीमित हो जाती हैं।
से बच्चे अपने साथियों से भी बहुत कुछ
सीख पाएँगे और स्वतंत्रतापरू ्वक प्रदर्शन करना
चाहेंगे।
तलु ना की भावना ठीक है, लेकिन ऐसी प्रतियोगिताएँ, रुचि को कम करती हैं और
स्थिति में प्रतियोगिताओ ं से परहेज़ करते हुए बच्चों के व्यक्तित्व में कई प्रकार की हीन
अलग-अलग प्रकार की प्रस्तुतियों पर बल दें। भावनाएँ/अति विश्वास पैदा करती हैं।
बच्चों को नि:सक ं ोच भाव से सगं ीत या गीत प्रतिदिन तरह-तरह के निर्देशों से बच्चों में
प्रस्तुत करने दें एवं उनमें यह भाव भी पनपने दें नकारात्मक भावना पैदा होती है। इस तरह
कि उनके नन्हे हाथ भी आकाश छू सकते हैं। के निर्देशों से बच्चों में शिक्षार्थी के प्रति
असंतोष पनपता है।
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हमारे देश के लाखों विद्यालयों में संगीत विषय के रूप में पढ़ाया जाता है, बोर्ड
परीक्षाएँ भी आयोजित होती हैं। ललित कला विषय के रूप में संगीत विद्यालयी
शिक्षा में आज स्थापित है। यह कार्य किस प्रकार प्रारंभ हुआ, इस बारे में थोड़ा
बताना चाहूगँ ा –
विष्णु दिगबं र पलस्कु र ने 1901 ई. में कश्मीर के दरबारी गायक का पद त्यागकर
5 अक्तूबर सन् 1901 में लाहौर में गधं र्व महाविद्यालय की स्थापना की। उनके
समकक्ष ‘चतरु ’ पडि ं त विष्णुनारायण भातखडं े शास्त्रीय सगं ीत के विभिन्न घरानों की
बदि
ं शों का सग्रं ह कर रहे थे और साथ ही शास्त्र की बातें सीखने वालों तक पहुचँ ने
का प्रयास कर रहे थे। सन् 1925 में उनके द्वारा मैरिस म्यूज़िक कॉलेज़, लखनऊ की
स्थापना हुई, जो आज ‘भातखडं े यिू नवर्सिटी ऑफ़ म्यूज़िक’ कहलाता है।
इन दोनों व्यक्तियों का संदर्भ देने की आवश्यकता इसलिए है, क्योंकि असल
मायने में इनके कृ त्यों से ही विद्यालयों में संगीत की शिक्षा प्रारंभ हुई। इन दोनों
संगीतज्ञों की तपस्या एवं इनके द्वारा निर्मित शिष्य श्रृंखला ने भारतीय शास्त्रीय
संगीत को दरबार और घरानों से निकालकर साधारण जनता की ओर अग्रसरित
किया। आज उसी के फलस्वरूप, विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालयों तक संगीत
एक विशिष्ट विषय के रूप में स्थापित हुआ है।
यद्यपि सगं ीत को ललित कला विषय के रूप में मान्यता मिली, परंतु विद्यालयी
शिक्षा में संगीत विषय की जो प्रतिष्ठा होनी चाहिए उतनी नहीं है। इसका अनभु व
हम संगीत शिक्षकों को हुआ होगा। “हम उपेक्षित हैं, मह�व नहीं मिल पाता,” ये
सब बातें स्वाभाविक रूप से मन में आती होंगी। इस तरह की स्थिति देश के सभी
विद्यालयों में है, परंतु सभी विद्यालयों में एक जैसी स्थिति नहीं हैं क्योंकि अपवाद
तो सभी जगह होते हैं।
* यह अध्याय संगीत के अध्यापकों को आशा एवं प्रोत्साहन देने के मनोभाव से मक
ु े श भारती,
अध्यापक, कें द्रीय विद्यालय, मेरठ द्वारा लिखा गया है।
संगीत शिक्षक होने के नाते मेरे पास भी ऐसे अनुभव हैं, परंतु क्या निराश
हुआ जाए?
आज आपसे वही अनभु व बाँटने जा रहा हूँ जो हमारी निराशाएँ, कंु ठाएँ
हटाकर संतष्टि ु का प्रकाश देगें। चलिए ज़रा बारीकी से अपनी वास्तविक स्थिति
का विश्लेषण करें ।
आप अपने से प्रश्न करें – “मैं संगीत शिक्षक क्यूँ बना?” इस प्रश्न के कई उत्तर
हो सकते हैं, जैसे –
मझु े शिक्षक की वृत्ति पसदं है;
मझु े संगीत से लगाव है;
परिवार में संगीत था, अतः परंपरा से संगीत शिक्षक की वृत्ति मिली;
मझु े संगीत से आजीविका प्राप्त करना पसंद है;
मैं तो कलाकार बनना चाहता था, परंतु परिस्थितियों के अधीन सगं ीत शिक्षक
बन गया; और
मझु े बच्चों से लगाव है, इसीलिए शिक्षक बना।
हो सकता है उपरोक्त िदय गये उ�रों में आपका उत्तर भी शामिल रहा हो। इन
उत्तरों में कई सकारात्मक उत्तर हैं और कुछ नकारात्मक परंतु निर्णय हमारे ही थे।
वर्तमान परिस्थितियों को जीना एवं उनसे सामंजस्य स्थापित करना यह कार्य भी
हमारा है।
एक संदर्भ प्रस्तुत कर रहा हूँ –
राष्ट्रीय शैक्षिक अनसु ंधान और प्रशिक्षण परिषद् ने एक सर्वेक्षण करवाया
जिसमें शिक्षक बने उन प्रतिभागियों को शामिल किया गया जो यह कह रहे थे कि मैं
अपनी पसंद से शिक्षक की वृत्ति में आया। कुछ प्रश्नों के ज़रिये ये सर्वेक्षण करवाए
गए थे। ज़रा परिणाम पर गौर करिए। उनमें से सिर्फ़ 48 शिक्षक ही ये साबित कर पाए
कि वे शिक्षक की वृत्ति में अपनी पसंद से आए हैं, शेष 52 शिक्षक तो अन्य वृत्तियों
में जाना चाहते थे किसी कारणवश मज़बरू ी में न चाहते हुए भी वे शिक्षक बनें।
इस तरह के शिक्षक विद्यालय में अपने महत्त्व को नहीं समझ सके हैं। एक
संगीत शिक्षक का महत्त्व विद्यालय में कितना एवं किस प्रकार है, ज़रा इस पर
गौर करें –
115
शिक्षण व्यवस्था में सगं ीत का महत्त्व है, बच्चों की यह ज़रूरत है, इसीलिए ही
संगीत शिक्षकों की नियक्ति
ु होती है।
विद्यालय का प्रथम क्रियाकलाप प्रार्थना सभा होती है। शरू ु होता है ईश वदं ना
जैसे – “तू ही राम है तू रहीम है अथवा दया कर दान विद्या का...” संगीत शिक्षक
विद्यालय को प्रारंभ करवाता है ।
छात्रा-छात्राओ ं की कक्षाएँ तो होती ही हैं, उसके अतिरिक्त विद्यालय में मनाये
जाने वाले उत्सव जैसे – वार्षिक उत्सव, स्वतंत्रता दिवस समारोह, गणतंत्रता
दिवस समारोह, दसू रे सांस्कृतिक कार्यक्रम, संगीत शिक्षक ही सारे कार्यक्रम की
िज़म्मेदारी निभाते हैं।
ज़रा गौर करिए, 26 जनवरी (गणतंत्र दिवस) समारोह पर प्राचार्य उपस्थित नहीं
हैं तो अन्य शिक्षक ध्वजारोहण कर देंगे। परंतु सांस्कृतिक कार्यक्रम की तैयारी एवं
प्रस्तुति संगीत शिक्षक के अलावा कोई नहीं करा सकता।
हमारा कार्य एक कलाकर्म है, जो कि प्रदर्शन पर आधारित होता है, भले ही
प्रार्थना सभा के अतिरिक्त विद्यालय में हमारा कार्यक्रम न हो या हमारे विषय को
पढ़ने वाले छात्रों की सख्यां कम हो परंतु विशिष्ट अवसरों पर सगं ीत कला शिक्षक
का विकल्प कोई नहीं होता। यानी “सौ सनु ार की और एक लौहार की”।
ये तो थी वर्तमान परिस्थितियाँ, अब आइए ज़रा उन सझु ावों पर गौर करें जिससे
संगीत विषय का महत्त्व एवं मान और बढ़ जाएगा –
विद्यालय के विषय संबंधी क्रियाकलाप में संगीत को शामिल कर आसान
बनाएँ। जब मैं पाँचवीं कक्षा में था, तो मझु े कविता याद करने में बहुत परे शानी
होती थी। सच कहा जाए तो मेरी स्मरण शक्ति कमज़ोर थी। छठी कक्षा में जब
आया तो हिदं ी के शिक्षक आदरणीय श्री जगन्नाथ महतो कविताएँ याद करवाते
समय वे उनका पाठ करवाने की बजाय उसका गायन करवा देते थे, पलभर में
कविताएँ याद हो जाती थीं और संगीत के स्वरों का जादू मन मस्तिष्क पर कायम
हो जाता था। क्या आप भी ऐसा करना चाहेंगे?
इतिहास की कक्षा का पाठ ‘1857 का गदर’ इस पाठ में झाँसी की रानी, नाना
साहिब, तात्या टोपे, वीर कँु वर सिहं इत्यादि के बारे में चर्चा है। छात्रा-छात्राओ ं
116
को एे�तहा�सक व्यक्तियों के नाम, जन्म स्थान, कुल, ईसवीं सन् इत्यादि बड़ी
मश्कि
ु ल से याद होते हैं। एक कविता है, लेखिका हैं सभु द्रा कुमारी चौहान,
शीर्षक है ‘झांसी की रानी’ —
117
महत्त्व को पनु र्वलित किया। जहाँ दरबारों में राजसिहं ासन से नीचे सगं ीतकार
थे, क्या यह सगं ीत को शीर्ष पर पहुचँ ाने के लिए काफ़ी नहीं था?
आपको विषय का ज्ञान, आपका शिक्षण कौशल आपका दायित्व बोध आपको
विद्यालय एवं समाज में प्रतिष्ठित करता है। कुछ शिक्षक मित्र जिनकी तालीम बहुत
बड़े गरुु या बड़े विश्वविद्यालय से नहीं हुई होती है, वे अपने को कलाकार या विद्वान
नहीं मानते, उनका प्रश्न होता है –
प्रश्न – मैं बहुत अच्छा िशक्षक नहीं हू,ँ मैं किस प्रकार इस सगं ीत शिक्षक की वृत्ति
से न्याय करूँ ?
उत्तर – यदि आप अच्छे कलाकार नहीं तो अच्छे जानकार तो हैं ही तभी तो आप
यहाँ हैं। एक उदाहरण देना चाहूगँ ा। पंडित भातखडं े जी पेशे से वकील थे,
गायन भी अच्छा नहीं था, सितार की थोड़ी बहुत तालीम ली थी, परंतु वे
संगीत के क्षेत्र में पजू नीय बने, क्यों? क्योंकि संगीत की समझ और मार्गदर्शन
देने का कौशल उनके अदं र कूट-कूट कर भरा हुआ था। आप भी अपने
संगीत की समझ को चमत्कारी अनभु व बनाएँ।
आइए, एक अगला प्रश्न लेते हैं, हम सभी में से बहुत लोगों का यह प्रश्न हो सकता है –
प्रश्न – मैं कलाकार बनना चाहता था, परंतु संगीत शिक्षक बना। कलाकारों वाली
बात एवं ख्याति संगीत शिक्षक में कहाँ?
उत्तर – मगध नरे श ने पडि ं त चाणक्य का अपमान किया था। पडि ं त चाणक्य उस
समय सक्षम नहीं थे कि उसी समय घनानंद का नाश कर अपने अपमान
का बदला ले लें। परंतु सक ं ल्प किया था। उन्होंने क्या किया? चन्द्रगप्त
ु
जैसे शिष्यों का निर्माण। इतिहास साक्षी है उन्हीं शिष्यों के कारण चाणक्य
इतिहास परुु ष बने। इसी तरह के शिष्यों की �ृंखला से सगं ीत के अपने
गरुु ओ ं ने ख्याति प्राप्त की। ऐसे शिष्यों की �ृंखला आप भी तैयार कर सकते
हैं, करें गे न आप? ये गणु आपको आत्म सतं ष्टि ु एवं ख्याति अवश्य प्रदान
करे गी।
हमारे विद्यालयों में कई तरह के विभाग होते हैं, जो पढ़ाई-लिखाई, कक्षा कार्य
इत्यादि के अतिरिक्त, जैसे – फ़र्नीचर विभाग, व्यवस्था एवं मरम्मत का विभाग,
सदन, अनश ु ासन, छात्रावास, भोजनालय इत्यादि। ये विभाग का प्रभारी आपको
बना दिया जाता है।
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नहीं हो पाएगा। अतः यह मेरा सझु ाव है कि हम अपने शास्त्र ज्ञान, गायन, वादन
एवं नृत्य के ज्ञान को निखारने के साथ ही आधनि ु क शिक्षा साधनों को भी अपनी
कार्य शैली का मख्य ु हिस्सा बनाएँ।
सगं ीत वृत्ति की सबसे बड़ी कोई विशेषता है, तो वह है हमारी गरुु शिष्य परंपरा।
समाज के हर क्षेत्र में नैतिक मल्य
ू ों में, आचार व्यवहार में गिरावट आई है, परंतु हमारे
यहाँ तक परंपरा अब तक कायम है। आप आज के विश्वविद्यालय परिसर में जाएँ
फिर उसकी तल ु ना सगं ीत विभाग से करें । आपको बड़ा फ़र्क महससू होगा। अपने
शिक्षकों, गरुु ओ ं के प्रति अगाध श्रद्धा, प्रेम अन्य विषयों में देख ही नहीं सकते। इस
तरह के समाज का हिस्सा होना आप में गर्व की अनभु ति ू बार-बार कराता होगा।
एक बात और कहना चाहूगँ ा। संगीत की वृत्ति ऐसी है कि आप जन्म से जिस
भी परिवार में पैदा हुए हो परंतु आपकी पहचान आपकी विद्वता आपकी कला से ही
होती है। ठीक वैसे ही जैसे बाँसरु ी वादक पंडित हरिप्रसाद चौरसिया का जन्म अन्य
पिछड़ी जाित के साधारण प�रवार मै हुआ। परंतु परू ा विश्व उन्हें पंडित कहता है,
उनकी कला कर्म के कारण ही न। संगीत में ही यह परंपरा है, यह परंपरा और कहाँ।
आप भी गरुु हैं तो पजू ्य हैं। अतं में, जब-जब भी मन में कुछ संशय पैदा हो, तो निम्न
बातों का स्मरण कर लें –
ईश्वर ने विशिष्ट कार्य के लिए मझु े बनाया है, मैं जीवित हूँ इसका कारण यह है
कि मेरा कार्य अभी पर्णू नहीं हुआ है।
आपकी शिक्षक की वृत्ति आपको ईमानदारी से जीवन जीने का अवसर दे रही है।
संगीत यानी नाद ब्रह्म, ईश्वर के समान है जो कि जीने का अवसर दे रहा है।
सगं ीत शिक्षकों के िलए कुछ सझ
ु ाव
इटं रनेट का प्रयोग
पहले से रिकॉर्डिंग ऑडियो एवं वीडियो का प्रयोग
मल्टीमीडिया का प्रयोग
जिस भी क्षेत्र में विद्यालय स्थित है वहाँ के क्षेत्रीय संगीत, लोक नृत्य को महत्त्व
देना, वहाँ की भाषा, बोली के कार्यक्रम अवश्य करवाना
किसी भी लोक कलाकार की कला विद्यालय में प्रदर्शन करवाना
लोक वाद्य यंत्रों की प्रदर्शनी इत्यादि
विषयों में संगीत के तत्व तलाशने की कोशिश।
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वादन किया है। फ़िल्म गाइड में तबला वादन किया और प.ं हरी प्रसाद चौरासिया के
साथ मिलकर ‘शिव-हरि’ नाम से सिलसिला, 27 डाउन, चाँदनी, फ़ासले, साहिवा
आदि कई फ़िल्मों में सगं ीत निर्देशन भी किया।
एक सफल संतरू वादक के रूप में इन्होंने दनिय
ु ा भर की यात्रा की है। संतरू
में शास्त्रीय और रागदारी संगीत की सफल प्रस्तुति के लिए पारंपरिक संतरू में
क्रांतिकारी परिवर्तन करने वाले शिव जी को महाराष्ट्र गौरव परु स्कार, संगीत नाटक
अकादमी सम्मान, पद्मविभषू ण जैसे कई मान-सम्मान मिले हैं।
टी. एन. कृष्णन् (वायलिन वादक)
कर्नाटकीय शैली के सप्रु सिद्ध वायलिन वादक टी. एन. कृ ष्णन्
का जन्म 6 अक्तूबर 1928 को के रल में हुआ था। वायलिन
वादन की प्रारंभिक शिक्षा अपने पिता ए. नारायन अय्यर से
लेने के बाद ए. के . पार्थसारथी एवं सेमन गडु ी श्रीनिवास अय्यर
से प्राप्त की थी। इन्होंने म्यूिजक कॉलेज चेन्नई में प्रोफ़ेसर एवं
दिल्ली विश्वविद्यालय में संगीत एवं ललित कला संकाय के टी.एन. कृ ष्णन्
अध्यक्ष के पद को भी सश ु ोभित किया था।
टी.एन. कृ ष्णन् को सगं ीत नाटक अकादमी सम्मान, अकादमी की रत्न
सदस्यता, संगीत कालनिधि सम्मान, संगीत, कला शिक्षामणि सम्मान सहित पद्मश्री
एवं पद्मभषू ण के अलंकरण भी मिले हैं।
उस्ताद अमीर खाँ (गायक)
उस्ताद अमीर खाँ का जन्म सन् 1912 में हुआ था। इनके पिता उस्ताद शाहमीर
खाँ अच्छे सारंगी वादक थे। अमीर खाँ ने अपने पिता के साथ-साथ उस्ताद वहीद
खाँ, उस्ताद रजब अली खाँ और उस्ताद अमान अली खाँ से भी
मार्गदर्शन प्राप्त किया था।
विलंबित ख्याल को अति विलंबित का रूप देने और तराना
गायकी को नया अंदाज़ देने वाले अमीर खाँ ने झनक-झनक
पायल बाजे और बैजू बावरा आदि जैसी संगीत प्रधान फ़िल्मों में
भी गायन किया था। बिहार संगीत नाट्य परिषद् के फै ़लो उस्ताद
उस्ताद अमीर खाँ अमीर खाँ को संगीत नाटक अकादमी सम्मान और पद्मभषू ण
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गायकों, वादकों और नर्तकों के साथ सफल सगं ति करके अपरू ्व ख्याति प्राप्त की
थी। कठिन लयकारियों एवं विषम प्रकृ ति के तालों के वादन में इन्हें विशेष महारत
हासिल थी। इन्होंने तबला वादन की उच्चस्तरीय शिक्षा अनेक लोगों को दी। नंदन
मेहता, कुमार बोस, सख ु विंदर सिंह नामधारी, संदीप दास, हेतल मेहता, बालकृ ष्ण
महतं और अरविदं आज़ाद सहित इनके पत्रु परू ण महाराज और नाती शभु महाराज
भी विश्वविख्यात तबला वादक हैं।
उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी की रत्न सदस्यता, कें द्रीय संगीत नाटक
अकादमी सम्मान, हाफ़िज़ अली खान सम्मान पद्मश्री एवं पद्मविभषू ण के अलंकरणों
से अलंकृत इस महान् ताबलिक का निधन 4 मई 2008 को हुआ।
एन. राजम् (वायलिन वादक)
एन. राजम् का जन्म सन् 1938 में संगीतज्ञों के प्रतििष्ठत
परिवार में के रल के एर्नाकुलम् में हुआ था। कर्नाटकीय सगं ीत
की प्रारंभिक शिक्षा इन्होंने अपने पिता ए. नारायण अय्यर से
प्राप्त की थी। इसके बाद सगं ीत कलानिधि सब्रु मण्यम अय्यर
से इन्होंने वायलिन वादन की शिक्षा प्राप्त की। बाद में उत्तर
भारतीय हिदं स्ता ु नी सगं ीत की ओर आकृ ष्ट हुई। जिसकी एन. राजम्
प्रारंभिक शिक्षा एल.आर. के लकर और उच्चस्तरीय शिक्षा इन्हें संगीत प. ओकं ार
नाथ ठाकुर से मिली। एन. राजम् एक छात्रा के रूप में काशी हिदं ू विश्वविद्यालय
से जड़ु ीं और संकाय प्रमख ु तक के पद को सशु ोभित किया। पं. ओकं ारनाथ ठाकुर
की गायकी से विशेष रूप से प्रभावित एन. राजम् गायकी अगं से ही वदन करती हैं।
बनारस अगं की गायकी की शिक्षा इन्होंने पं. महादेव प्रसाद से प्राप्त की है।
उत्तर प्रदेश सगं ीत नाटक अकादमी परु स्कार, कें द्रीय सगं ीत नाटक अकादमी
सम्मान, पद्मश्री एवं पद्मभषू ण के अलंकरणों से अलंकृत एन. राजम् को कई मान-
सम्मान मिले थे। इन्होंने लगभग परू ी दनिय
ु ा की सगं ीत यात्रा की है।
पं. देबु चौधरी/देवव्रत चौधरी (िसतार वादक)
पं. देबु चौधरी का जन्म 1935 में 30 मई को हुआ। इन्होंने बचपन से ही सितार की
शिक्षा लेनी शरूु कर दी थी और 18 वर्ष की उम्र में आकाशवाणी से अपना पहला
कार्यक्रम दिया। सितार वादन की शिक्षा इन्होंने स्व. पांचु गोपाल दत्ता और उस्ताद
मश्ता
ु क अली खाँ जैसे गरुु ओ ं से प्राप्त की है।
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उल्लेखनीय है कि गरुु वयरू दौरई का वास्तविक नाम वैद्यनाथन् हैं। मात्र 8 वर्ष
की उम्र में सांगीतिक मचं ों पर पदार्पण कर चक ु े जी. दरु ई ने अपने सभी समकालीन
कलाकारों के साथ राष्ट्रीय-अतं र्राष्ट्रीय मचं ों पर संगति की है।
विक्कू विनायक राम (घटम वादक)
विक्कू विनायक राम का जन्म 11 अगस्त 1942 को हुआ था।
कें द्रीय सगं ीत नाटक अकादमी की रत्न सदस्यता, उस्ताद हाफि़ज
अली खाँ सम्मान एवं पद्मश्री तथा पद्मभषू ण के अलंकरण सहित
कई मान-सम्मान प्राप्त कर चक ु े विक्कू विनायक राम ने ग्रैमी
अवॉर्ड विजेता अलबम प्लेनेट ड्रम में भी घटम बजाया था। घटम
और मोरसिंग के इस सप्रु सिद्ध वादक ने उत्तर और दक्षिण भारतीय िवक्कू िवनायक राम
कलाकारों के साथ-साथ कई पाश्चात्य कलाकारों के साथ भी संदु र प्रस्तुतियाँ दी हैं।
विक्कू विनायक राम वर्तमान में चेन्नई स्थित श्री जय गणेश तालवाद्य विद्यालय
के प्राचार्य पद पर कार्य करते हुए नई पीढ़ी को प्रशिक्षित कर रहे हैं। यह विद्यालय
इनके पिता द्वारा स्थापित है। इनके सपु त्रु बी. सेल्वागनेश अतं राष्ट्रीय वादक हैं।
बाबा अलाउद्दीन खाँ
इसराज और दिलरुबा के सविख्या ु त वादक अलाउद्दीन खाँ का जन्म 1 जनवरी
1947 को संगीतज्ञों के परिवार में हुआ था। इन्होंने संगीत की शिक्षा उस्ताद
मोहम्मद अली खाँ एवा, उस्ताद ज़हूर अहमद खाँ से
प्राप्त की थी। अलाउद्दीन खाँ ने दिलरुबा और इसराज
की अलग-अलग विशेषताओ ं को संयक्ु त कर एक नए
साज को प्रचलित किया था जिसे उन्होंने दिलरुबा-
इसराज का नाम दिया था। मख्य ु तः सगु म संगीत की
बाबा अलाउदद्दीन खाँ संगति में प्रयक्ु त होने वाले इस साज पर अलाउद्दीन खाँ
ने शास्त्रीय संगीत की अथर् प्रस्तुति की है। वे एक अच्छे संगीत संरचनाकार भी थे।
ख्याल गायक उस्ताद बड़े गल ु ाम अली खाँ से लेकर गज़ल गायक गल ु ाम अली
तक की सदंु र सगं त करने वाले प्रतिभाशाली कलाकार थे। लबं े अर्से तक आकाशवाणी
(दिल्ली) में कार्यरत रहे अलाउद्दीन खाँ का निधन 17 मार्च 2015 को हुआ।
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4. उत्कल यिू नविसर्टी उत्कल यिू नविसर्टी ऑफ़ कल्चर, संस्कृित िवहार,
ऑफ़ कल्चर भवु नेश्वर, ओडिशा – 751009
वेबसाइट – www.uuc.ac.in
10. कॉलेज ऑफ़ कॉलेज ऑफ़ आर्ट्स, तिलक मार्ग, नई दिल्ली – 110001
आर्ट्स, दिल्ली वेबसाइट – www.colart.delhigovt.nic.in
विश्वविद्यालय
11. छत्रपति साहुजी सी.इस.जे.एम. विश्वविद्यालय, कानपरु , उ�र प्रदेश
महाराज, कानपरु वेबसाइट – www.kanpuruniversity.org
विश्वविद्यालय
13. डॉ. बाबासाहेब डॉ. बाबासाहेब अबं ेडकर मराठवाड़ा विश्वविद्यालय, औरंगाबाद
अबं ेडकर वेबसाइट – www.bamu.ac.in
मराठवाडा
विश्वविद्यालय
14. डॉ. बी.आर. डॉ. बी.आर. अबं ेडकर विश्वविद्यालय, पालीवाल पार्क ,
अबं ेडकर आगरा – 282004
विश्वविद्यालय वेबसाइट – www.aud.ac.in
142
19. नेशनल स्कू ल सिक्किम थिएटर ट्रेनिंग सेंटर, नेपाली साहित्य परिषद भवन,
ऑफ ड्रामा, विकास क्षेत्र, गंगटोक
सिक्किम थिएटर वेबसाइट – www.sikkim.nsd.gov.in
ट्रेनिंग सेंटर
20. पंजाब सेक्टर–14, चडं ीगढ़–160014
विश्वविद्यालय वेबसाइट – www.puchd.ac.in
21. पांडिचेरी प्रदर्शन कला विभाग, स्कू ल ऑफ़ परफ़ाॅर्मिंग आट्सर्, पांडिचेरी
विश्वविद्यालय विश्वविद्यालय, पडु ु चरे ी – 605 014
वेबसाइट – www.pondiuni.edu.in
143
29. महात्मा गांधी महात्मा गांधी अतं र्राष्ट्रीय हिदं ू विश्वविद्यालय, गांधी हिल्स,
अन्तरार्ष्ट्रीय हिदं ी वर्धा (महाराष्ट्र) – 442001
िवश्वविद्यायल वेबसाइट – www.hindivishwa.org
30. महात्मा गांधी महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी, उ�र प्रदेश – 221002
काशी विद्यापीठ वेबसाइट – www.mgkvp.ac.in
31. मणिपरु मणिपरु विश्वविद्यालय
विश्वविद्यालय भारत-म्यांमार रोड, कै नचिपरु , इफ
ं ाल, मणिपरु – 795003
वेबसाइट – www.manipuruniv.ac.in
32. मैसरू मैसरू विश्वविद्यालय, जे.एल.बी. रोड, मैसरू , कर्नाटक – 570005
विश्वविद्यालय वेबसाइट – www.uni-mysore.ac.in
35. विश्व भारती पो.ओ. – शांतिनिके तन, प. बंगाल, िपनकोड – 731235, भारत
शांति निके तन वेबसाइट – www.visvabharati.ac.in
36. स्टेला मैरिज स्टेला मैरिज कॉलेज, 17, कै थेड्रल रोड, चेन्नई – 600086,
कॉलेज, चेन्नई वेबसाइट – www.stellamariscollege.org
144
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Joy of Theatre
Teachers’ Handbook
Upper Primary Stage
Classes VI - VIII
Sangeet Shikshak Sandarshika (Cover II & III).indd All Pages 5/10/2018 3:38:10 PM
सगं ीत िशक्षक सदं र्शिका उच्च प्राथमिक स्तर कक्षा छठी से आठवीं तक
उच्च प्राथमिक स्तर
कक्षा छठी से आठवीं तक
एन.सी.ई.आर.टी.
13173
ISBN 978-93-5292-020-4